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दक्ष प्रजापति की कन्या, भगवान् शंकर की पत्नी। पिता दक्षराज ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया, परन्तु शिवजी के प्रति मनमुटाव के कारण समारोह में शिव-सती को निमंत्रित नहीं किया। सती अनामन्त्रित ही पिता के यहाँजापहुँची।वहाँदक्ष ने शंकर के लिएअपशब्द कहे और सती को अपमानजनक व्यवहार सहना पड़ा। पति का अनादर न सह सकने के कारण सती नेयज्ञ-कुण्ड में कुदकरदेह-त्याग किया। दक्षराज के व्यवहार औरपत्नी की मृत्युसे क्रूद्ध होकर शंकर जी ने अपने गणों से यज्ञ का ध्वंस करा दिया और दक्ष का वध किया। बाद में सती ने पर्वतराज हिमालय की कन्या के रूप में पुनर्जन्म पाया और पार्वती कहलायी। शक्ति और चण्डी भी इन्हीं के रूप हैं। अपने इन प्रचंड रूपों में इन्होंने असुरों का संहार किया और लोक को असुर-पीड़ासे मुक्तिदिलायी। सम्पूर्ण भारतमें सती के 51 शक्तिपीठस्थापितहैं। इनके पीछेकथा यहहै कि शिव सती की मृत देहको कधे परउठाये फिरने लगे। जहाँ-जहाँसती के अंग गल कर गिरे, वहीं शक्तिपीठ स्थापित हुए जो अब समग्र भारत की सांस्कृतिक एकता को अपने में समेटे हुएहैं।
 
दक्ष प्रजापति की कन्या, भगवान् शंकर की पत्नी। पिता दक्षराज ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया, परन्तु शिवजी के प्रति मनमुटाव के कारण समारोह में शिव-सती को निमंत्रित नहीं किया। सती अनामन्त्रित ही पिता के यहाँजापहुँची।वहाँदक्ष ने शंकर के लिएअपशब्द कहे और सती को अपमानजनक व्यवहार सहना पड़ा। पति का अनादर न सह सकने के कारण सती नेयज्ञ-कुण्ड में कुदकरदेह-त्याग किया। दक्षराज के व्यवहार औरपत्नी की मृत्युसे क्रूद्ध होकर शंकर जी ने अपने गणों से यज्ञ का ध्वंस करा दिया और दक्ष का वध किया। बाद में सती ने पर्वतराज हिमालय की कन्या के रूप में पुनर्जन्म पाया और पार्वती कहलायी। शक्ति और चण्डी भी इन्हीं के रूप हैं। अपने इन प्रचंड रूपों में इन्होंने असुरों का संहार किया और लोक को असुर-पीड़ासे मुक्तिदिलायी। सम्पूर्ण भारतमें सती के 51 शक्तिपीठस्थापितहैं। इनके पीछेकथा यहहै कि शिव सती की मृत देहको कधे परउठाये फिरने लगे। जहाँ-जहाँसती के अंग गल कर गिरे, वहीं शक्तिपीठ स्थापित हुए जो अब समग्र भारत की सांस्कृतिक एकता को अपने में समेटे हुएहैं।
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'''<u><big>ट्रौपदी</big></u>'''
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पाउचाल-नरेश दुपद की पुत्री और स्वयंवर की मत्स्यवेध प्रतिस्पर्धा में अर्जुन की विजय के पश्चात् कुरुकुल-वधू बनकर हस्तिनापुर पहुँची द्रौपदी महाभारत का अत्यंत तेजस्वी व्यक्तित्व है। कुलवधू के रूप में अपने औरपाण्डवों के भी न्यायोचित अधिकारों के लिए द्रौपदी झुककर समझौता करने को कभी तैयार नहीं हुई और अनीति व अन्याय के प्रतिशोध के लिए सदैव तत्पर रही। द्रौपदी की श्रीकृष्ण में अपार निष्ठा थी। श्रीकृष्ण को वह सगी बहिन के समान प्रिय थीं। द्रौपदी को जीवन में अनेक कष्ट और अपमान सहने पड़े। दु:शासन ने भरी सभा में वस्त्र-हरण का प्रयास कर इनकी मर्यादा भंग करनी चाही। वनवास-काल में जयद्रथ ने इनका अपहरण करने का प्रयास किया और अज्ञातवास के दिनों कीचक ने शील—हरण करना चाहा। वनवास की अवधि पूरी होने पर द्रौपदी ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने और अपने अपमान-अपराध करने वालों को दण्डित करने की प्रतिशोध—ज्वाला पाण्डवों के मन में धधकायी। देदीप्यमान नारीत्व की प्रतिमूर्ति द्रौपदी का तेज भारतीय नारियों के लिए सदैव प्रेरणा-स्रोत रहेगा।
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'''<u><big>कण्णगी</big></u>'''
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कण्णगी का नाम पातिव्रत्यएवं सतीत्व के अनुपमउदाहरण के रूप में लियाजाता है। दक्षिण भारत में तमिलनाडु प्रदेश के वंजिननगरम् नामक एक प्राचीन स्थान में कण्णगी का मन्दिर है। प्रसिद्ध तमिल कवि इलगो के काव्यग्रंथ 'शिलप्पधिकारम्' में कण्णगी के पातिव्रत्य का अनुपम चरित्र निरूपित हुआ है। इनके पति कोवलन् ने माधवी नाम की एक वारांगना के प्रेमपाश में बँधकर अपना सब कुछ गंवा दिया। विपन्न बना कोवलन् कण्णगी को संग लेकर काम-धंधे की आशा में मदुरइ नगरी में पहुँचा। वहाँ के राजा ने कोवलन्पर चोरी का मिथ्या आरोप लगाकरउसे प्राणदण्ड दे दिया। कण्णगी ने अग्नि देवता से अनुरोध किया कि वृद्ध, बालक, सज्जन, पतिव्रता और धार्मिक लोगों को छोड़कर शेष मदुरई नगरी को भस्म कर दें। सती कण्णगी के क्रोधावेश से मदुरई नगरी भस्म हो गयी।
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'''<u>गार्गी</u>'''
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वचक्नु ऋषि की विदुषी कन्या गार्गी ब्रह्मविद्या के अपने ज्ञान के कारण ब्रह्मवादिनी कहलाती थीं। राजा जनक की यज्ञशाला में ब्रह्मज्ञानी याज्ञवल्क्य के साथ दार्शनिक वाद-विवाद में इन्होंने भाग लिया। बृहदारण्यक उपनिषद् में याज्ञवल्क्य-गार्गी संवाद मिलता है। प्राचीन भारत में स्त्रियाँ नाना प्रकार की विद्याओं को प्राप्त किया करती थीं, यज्ञ आदि के सार्वजनिक समारोहों  तथा शास्त्रार्थ में भी भाग लिया करती थीं। बौद्धिक कार्यकलाप तथा ज्ञान के क्षेत्र में उनकी भागीदारी में कोई अवरोध या प्रतिबन्ध नहीं था, यह गार्गी के जीवन-वृत्त से भलीभाँति प्रमाणित होता है।
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'''<u><big>मीरा</big></u>'''
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श्रीकृष्ण के अनुराग में रंगी मीरा युगाब्द47वीं (ई० 16वीं) शताब्दी की विख्यात भगवद्भक्त थीं। सम्पुर्ण भारत, विशेष रूप से हिन्दीभाषी क्षेत्र, मीरा के कृष्णभक्ति और कृष्ण-प्रेम के पदों से गुंजारित रहा है। रत्नसिंह राठौर की कन्या मीरा को बचपन से ही कृष्णभक्ति की लौ लग गयी थी। इनका विवाह महाराणा के पुत्र भोजराज के साथ हुआ था, किन्तु मीरा का मन कुष्णानुराग में डुबा था। ये सदैव भगवद्भक्ति में मग्न रहतीं। मन्दिरों और सन्त-मंडली के मध्य अपने ही रचे हुए भक्तिगीत के पदों का भावपूर्ण गायन और विभोर होकर नृत्य करती थीं। पति भोजराज की मृत्यु के बाद देवर विक्रमाजित ने अपनी भाभी को इस भक्ति-पथ से परावृत कर लोक-जीवन की ओर मोड़ना चाहा। उनका मन्दिर आदि सार्वजनिक स्थानों पर गाना और नाचना विक्रमाजित को अपने राजकुल कीमर्यादा के प्रतिकूल प्रतीत होता था। कृष्ण-प्रेम का हठ त्यागने को बाध्य करने के लिए मीरा को अनेक कष्ट दिये गये, जिन्हें मीरा ने हँसते-हँसते झेला पर उनकी प्रेम-अनन्यता में कोई अंतर नहीं आया। 'मेरे तो गिरिधर गोपाल,दूसरो न कोई'उनके जीवन का सरगम था। उनके पद अपनी भाव-प्रवणता में अनुपम हैं।
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'''<u><big>दुर्गावती</big></u>'''
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कलि संवत् की 47वीं (ईसा की 16 वीं) शताब्दी की भारतीय वीरांगना,जिसने यवनसेना से अत्यंत साहस और वीरतापूर्वक टक्कर ली और अंत में अपने शरीर को पापी शत्रुओं का स्पर्श न हो, यह विचारकर अपने खड्ग से आत्मबलिदान कर वीरगति पायी। गढ़ मंडला के राजा दलपतिशाह की मृत्यु हो जाने पर उनके राज्य पर संकट आ पड़ा था। मुगल बादशाह अकबर ने गढ़ मंडला पर अधिकार करने के लिए भारी सेना भेजी थी। हाथी पर सवार होकर रानी दुर्गावती अत्यंत वीरता से जूझीं तथा अपने सैनिकों को बराबर प्रेरित करती रहीं। दुर्भाग्य से आंतरिक फूट के कारण आत्मरक्षा करना संभव न हो सका। मुगलों की साम्राज्यपिपासा का प्रतिकारकरने वाली वीरांगनाओं में दुर्गावती का ऊँचा स्थान है।
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