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'''<u><big>दर्शन</big></u>'''  
 
'''<u><big>दर्शन</big></u>'''  
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दर्शनशास्त्र सत्य के साक्षात्कार के उद्देश्य से किये जाने वाले बौद्धिक और आध्यात्मिक प्रयासों का शास्त्र है।आचार्य शंकर के शब्दों में श्रवण (अर्थात अध्ययन) , मनन और निदिध्यासन (ध्यान) के द्वारा आत्मस्वरूप परम सत् का साक्षात्कार 'दर्शन' है। इस शास्त्र में प्रकृति, आत्मा, परमात्मा के पर और अपर स्वरूप तथा जीवन के लक्ष्य का विवेचन होता है। वेद को आप्त (असंदिग्ध)ग्रंथ मानने वाले पारम्परिक दर्शन की छ: शाखाएँहैं जिनमें मोक्ष प्राप्त करना जीवन का अन्तिम लक्ष्य बताया गया है। इन छ:दर्शनों के नाम हैं : न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्व- मीमांसा औरउत्तर- मीमांसा (या वेदान्त) । इसके अतिरिक्त जैन और बौद्ध दर्शनों के सिद्धांतों का उद्भव भी पारम्परिक भारतीय दर्शनों के सिद्धान्तों से ही प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रेरणा लेकर हुआ है।
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दर्शनशास्त्र सत्य के साक्षात्कार के उद्देश्य से किये जाने वाले बौद्धिक और आध्यात्मिक प्रयासों का शास्त्र है।आचार्य शंकर के शब्दों में श्रवण (अर्थात अध्ययन) , मनन और निदिध्यासन (ध्यान) के द्वारा आत्मस्वरूप परम सत् का साक्षात्कार 'दर्शन' है। इस शास्त्र में प्रकृति, आत्मा, परमात्मा के पर और अपर स्वरूप तथा जीवन के लक्ष्य का विवेचन होता है। वेद को आप्त (असंदिग्ध)ग्रंथ मानने वाले पारम्परिक दर्शन की छ: शाखाएँहैं जिनमें मोक्ष प्राप्त करना जीवन का अन्तिम लक्ष्य बताया गया है। इन छ:दर्शनों के नाम हैं : न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्व- मीमांसा औरउत्तर- मीमांसा (या वेदान्त) । इसके अतिरिक्त जैन और बौद्ध दर्शनों के सिद्धांतों का उद्भव भी पारम्परिक भारतीय दर्शनों के सिद्धान्तों से ही प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रेरणा लेकर हुआ है।<blockquote>'''जैनागमास्त्रिपिटका गुरुग्रन्थः सतां गिरः । एष ज्ञाननिधिः श्रेष्ठः श्रद्धेयो हृदि सर्वदा ॥ ९॥'''</blockquote>'''<u><big>जैनागम</big></u>'''
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शैव, वैष्णव आदि अन्य सम्प्रदायों की भाँति जैन सम्प्रदाय ने भी अपने ग्रंथों को आगम, पुराण आदि में विभक्त किया है। तीर्थकरों के उपदेशों पर आधारित प्राचीनतम जैन धर्मग्रंथों में चतुर्दश पूर्व और एकादश अंग गिने जाते हैं, किन्तु पूर्व ग्रंथ अब लुप्त हो गये हैं। एकादश अंगों के पश्चात्उपांग,प्रकीर्ण सूत्र आदि की रचना की गयी है। ये अंग आगम कहलातेहैं। इनकी रचना अर्धामागधी प्राकृत भाषा में हुई है।
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<u>'''<big>त्रिपिटक</big>'''</u>
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बौद्ध मत के तीन मूल ग्रंथ-समूह-विनय पिटक,सुत्त पिटक और अभिधम्मपिटक,जिनमें भगवान् बुद्ध के वचन और उपदेश संकलित हैं। प्रत्येक पिटक में अनेक ग्रंथ हैं, इसलिए इनका पिटक अर्थात् पेटी नाम पड़ा। इनमें अन्तर्निहित ग्रंथों में ब्रह्मजाल सुत,समज्जफल सुत,पोट्ठपाद सुत्त,महानिदान सुत, मज्झिम निकाय,दीघ निकाय,संयुक्त निकाय उल्लेखनीय हैं। ये सभी पालि भाषा में हैं। विशेषत: हीनयान सम्प्रदाय के ये ही प्रधान ग्रंथ हैं। विनय पिटक में संघ के नियमों का,सुत्त पिटक में बुद्ध के वार्तालापों और उपदेशों का तथा अभिधम्म पिटक मेंदार्शनिक विचारों का वर्णन है।
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'''<u><big>गुरुग्रंथ</big></u>'''
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सिख पंथ के 9 गुरुओं की वाणी का संकलन'गुरु ग्रंथ साहिब' में हुआ है। सिख गुरुओं के अतिरिक्त 24 अन्य भारतीय संतो की वाणी भी इस ग्रंथ में संग्रहीत है। सर्वप्रथम संवत् 1661 (सन् 1604) में सिख पंथ के पाँचवे गुरु अर्जुन देव जी नेगुरु ग्रंथ साहब का संकलन किया था। बाद में गुरु तेगबहादुर तक अन्य गुरुओं की वाणी भी इसमें जोड़ी गयी। दशम गुरु गोविन्द सिंह की रचनाएँ एक अलग ग्रंथ में संग्रहीत हैं,जो दशम ग्रंथ कहलाता है। दशमेश गुरुगोविन्दसिंह ने ग्रंथ साहिब को गुरुगद्दी पर आसीन कराया। स्वयं अपने साक्ष्य के अनुसार ही 'गुरु ग्रंथ साहिब' वेद, शास्त्र और स्मृतियों का निचोड़ है।
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उपर्युक्त ग्रंथो और साधु-सन्त-सज्जनों के उदगार – ये सब हमारी श्रेष्ठ ज्ञाननिधि हैं और हार्दिक श्रद्धा के योग्य हैं । 19 । ।
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<blockquote>'''अरुन्धत्यनसूया च सावित्री जानकी सती। द्रौपदी कण्णगी गार्गी मीरा दुर्गावती तथा ।। १० ।।'''</blockquote>'''<u><big>अरुन्धती</big></u>'''
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ब्रह्मर्षि वसिष्ठ की धर्मपत्नी अरुन्धती की गणना श्रेष्ठ पतिव्रताओं में होती है। वे मुनि मेधातिथि की कन्या थीं। ब्रह्मदेव की प्रेरणा से पिता ने उन्हें सावित्री देवी के संरक्षण में रखा, जिनसे उन्होंने सद्विद्याएँ प्राप्त कीं। अरुन्धती न कभी अपने पति ब्रह्मर्षि वसिष्ठ से दूर रहती थीं और न किसी कर्म में उनका विरोध करती थीं। अरुन्धती के पातिव्रत्य की परीक्षा स्वयं भगवान् शंकर ने ली थी जिसमें सफल रहने पर उनकी कीर्ति और भी बढ़ी। आकाश में प्रदीप्त सप्ततारामंडल रूप सप्तर्षियों के साथ अरुन्धती नक्षत्र वसिष्ठ के समीप चमकता है।
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'''<u><big>अनसया</big></u>'''
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सती अनसूया अत्रि ऋषि की पत्नी थीं। घोर तपश्चर्या से भगवान् शंकर को प्रसन्न कर उन्होंने भगवान्दत्तात्रेय कोपुत्ररूप मेंप्राप्त किया था। वनवास की अवधि में रामचन्द्र सीता सहित अत्रि ऋषि के आश्रम में गये थे,जहाँऋषि-पत्नी अनसूया ने अपने प्रेमपूर्ण आतिथ्य से सीता को आह्लादित किया था और नारी धर्म तथा पातिव्रत्य का उपदेश दिया था। एक बार माण्डव्य ऋषि नेकिसी ऋषि-पत्नी को सूर्योदय होते ही अपने विधवा हो जाने का शाप दे दिया। सती अनसूया ने अपने तपोबल से सूर्योदय ही न होने दिया। सभी देव एवं ऋषि अनसूया की शरण गये और सूर्योदय के स्थगन से होने वाले त्रास को दूर करने का अनुरोध किया। सती अनसूया ने उनसे शापित स्त्री के पति कोपुनर्जीवित करने का वचन लेकर शाप-मुक्त कराया औरउसके सुहाग की रक्षा की, तभी सूर्योदय होने दिया।
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'''<u><big>सावित्री</big></u>'''
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महासतियों में उल्लेखनीय देवी सावित्री ने यह जानते हुए भी कि सत्यवान् अल्पायु है, उसका ही पतिरूप में वरण किया। जब सत्यवान् की जीवन-लीला समाप्त होने में चार दिन शेष रह गये तो सावित्री ने व्रत धारण किया। चौथे दिन सत्यवान् की मृत्युहुई औरयमराजउसके प्राण ले चले। सावित्री यमराज के पीछे-पीछेचली। मार्ग में यमराज और सावित्री में प्रश्नोत्तर हुआ। यमराज सावित्री के शालीन व्यवहार, बुद्धिमत्ता और एकनिष्ठ पतिपरायणता से बहुत प्रभावित हुए। प्रसन्न होकर उन्होंने सावित्री से वर माँगने को कहा। सावित्री ने ऐसे वर माँगे जिनमें उनके मायके औरससुरालदोनोंकुलों का कल्याण भी सिद्ध हुआ और यमराज को सत्यवान् केप्राण भी लौटाने पड़े। सावित्री ने अपने सतीत्व के बल पर अपने सौभाग्य की रक्षा की।
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'''<u><big>जानकी</big></u>'''
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मिथिला के राजर्षि जनक की पुत्री और मर्यादापुरुषोत्तम रामचन्द्र जी की पत्नी जानकी पातिव्रत्य का अनुपम आदर्श हैं। उन्हें जीवन में अपार कष्ट झेलने पड़े और कठिन परीक्षाओं से गुजरना पड़ा,किन्तु अपने अविचल पातिव्रत्य के बल परउन्होंने समस्त प्रतिकूलताओं को धैर्य व हर्षपूर्वक सहन किया, पति के साथ वनवास के कष्टों में आनन्द का अनुभव किया। राक्षसराज रावण उनका मनोबल डिगाने में असफल रहा। अग्नि-परीक्षा देकर सीता ने अपने शील एवं चारित्रय की निष्कलुषता सिद्ध की। वनवास की अवधि समाप्त होने के पश्चात् रामराज्य में प्रजारंजन के लिए जब राम ने सीता का परित्याग किया तो वे वन में वाल्मीकि मुनि के आश्रम में रहीं। सबको सीता के पातिव्रत्य और पवित्रता पर पूर्ण विश्वास हो गया। भूमि-पुत्री सीता ने पृथ्वी की सी सहनशीलता दिखाकर अपने नाम की सार्थकता सिद्ध की।
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'''<u><big>सती</big></u>'''
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दक्ष प्रजापति की कन्या, भगवान् शंकर की पत्नी। पिता दक्षराज ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया, परन्तु शिवजी के प्रति मनमुटाव के कारण समारोह में शिव-सती को निमंत्रित नहीं किया। सती अनामन्त्रित ही पिता के यहाँजापहुँची।वहाँदक्ष ने शंकर के लिएअपशब्द कहे और सती को अपमानजनक व्यवहार सहना पड़ा। पति का अनादर न सह सकने के कारण सती नेयज्ञ-कुण्ड में कुदकरदेह-त्याग किया। दक्षराज के व्यवहार औरपत्नी की मृत्युसे क्रूद्ध होकर शंकर जी ने अपने गणों से यज्ञ का ध्वंस करा दिया और दक्ष का वध किया। बाद में सती ने पर्वतराज हिमालय की कन्या के रूप में पुनर्जन्म पाया और पार्वती कहलायी। शक्ति और चण्डी भी इन्हीं के रूप हैं। अपने इन प्रचंड रूपों में इन्होंने असुरों का संहार किया और लोक को असुर-पीड़ासे मुक्तिदिलायी। सम्पूर्ण भारतमें सती के 51 शक्तिपीठस्थापितहैं। इनके पीछेकथा यहहै कि शिव सती की मृत देहको कधे परउठाये फिरने लगे। जहाँ-जहाँसती के अंग गल कर गिरे, वहीं शक्तिपीठ स्थापित हुए जो अब समग्र भारत की सांस्कृतिक एकता को अपने में समेटे हुएहैं।
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