Changes

Jump to navigation Jump to search
m
no edit summary
Line 108: Line 108:  
<blockquote>'''लक्ष्मीरहल्या चेन्नम्मा रुद्रमाम्बा सुविक्रमा । निवेदिता सारदा च प्रणम्या मातृदेवता: ॥ ११ ॥'''</blockquote>१.रानी लक्ष्मीबाई २. अहल्याबाई होलकर ३. चन्नम्मा  ४.रुद्रमाम्बा  ५. निवेदिता  ६. सारदा  
 
<blockquote>'''लक्ष्मीरहल्या चेन्नम्मा रुद्रमाम्बा सुविक्रमा । निवेदिता सारदा च प्रणम्या मातृदेवता: ॥ ११ ॥'''</blockquote>१.रानी लक्ष्मीबाई २. अहल्याबाई होलकर ३. चन्नम्मा  ४.रुद्रमाम्बा  ५. निवेदिता  ६. सारदा  
   −
इन सभी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए यहाँ देखे |  
+
'''इन सभी के बारे में [[महिला वीरांगनाएँ|विस्तृत जानकारी]] के लिए यहाँ देखे |'''  
 
  −
==== <big>रानी लक्ष्मीबाई</big> ====
  −
स्वातंत्र्य-हेतु अंग्रेजों से जूझते हुए वीरगति पाने वाली, युगाब्द 4958 (ई० 1857) के प्रथम स्वातंत्र्य समर की वीरांगना। ये मराठा पेशवा के आश्रित मोरोपंत ताम्बे की कन्या थीं और झाँसी के राजा गंगाधरराव की रानी। राजा की अकालमृत्यु हो जाने परईस्ट इण्डिया कम्पनी सरकार ने इनके दत्तकपुत्र के अधिकार को अमान्य कर झाँसी राज्य को कम्पनी के अधिकार में लेने की घोषणा की। इस अन्याय और अपमान का रानी लक्ष्मीबाई ने कठोर प्रतिकार किया। युगाब्द 4958 (सन् 1857) के स्वातंत्र्य-समर में वे भी कूद पड़ीं। अंग्रेजों से जूझते हुए रानी झाँसी से निकलकर ग्वालियर की ओर बढ़ीं और ग्वालियर का किला जीत लिया। ग्वालियर का राजा मराठा सामन्त होते हुए भी अंग्रेजों के विरुद्ध स्वाधीनता-सेनानियों की कोई सहायता न करके अंग्रेजों का ही साथ दे रहा था। वहाँ से रानी घोड़े पर सवार हो किले से बाहर निकल पड़ीं। मार्ग में एक नदी के किनारे वे अंग्रेज सैनिकों से घिर गयीं। अन्तिम क्षण तक शत्रुओं को मौत के घाट उतारते हुए अंतत: उस वीरांगना ने युद्धभूमि में ही वीरगति पायी। रानी लक्ष्मीबाई असाधारण शौर्य, धैर्य, संगठन-कुशलता, देशप्रेम और निर्भयता की प्रतीक हैं।
  −
 
  −
==== <big>अहल्या (अहल्याबाई होलकर)</big> ====
  −
देव-मन्दिरों का जीर्णोद्धार कर भारतीय संस्कृति की रक्षा करने वाली न्याय-परायणा, नीति-निपुणा, प्रजावत्सला रानी अहल्याबाई होलकर माणकोजी शिन्दे नामक पटेल की कन्या और इन्दौर के राजा मल्हारराव होलकर के पुत्र खण्डेराव की पत्नी थीं। खण्डेराव कुंभेरी की लड़ाई में मारे गये। अहल्याबाई अपने पुत्र भालेराव के नाम से राजकाज की देखभाल करती थीं। भालेराव भी शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त हो गया, अत: रानी इन्दौर की शासिका बनीं। पूना में उस समय छलपूर्वक पेशवा बन बैठे रघुनाथराव ने अहल्याबाई का राज्य भी हस्तगत करना चाहा, परन्तु रानी की राजनीति के कारण उसकी लालसा पूरी नहीं हो सकी। अहल्याबाई ने तीस वर्षों तक राज्य किया। उन्होंने लोकोपयोगी कार्यों पर उदार मन से धन व्यय किया और काशी-विश्वेश्वर, सोरटी-सोमनाथ, विष्णुपदी (गया),परली-बैजनाथ आदि महान् मन्दिरों का जीर्णोद्धार किया।
  −
 
  −
==== <big>चन्नम्मा</big> ====
  −
इतिहास में चन्नम्मा नाम की दो वीरांगनाएँ प्रसिद्ध हैं। इनमें से एक केलदी की रानी थी और दूसरी कित्तूर की रानी। औरंगजेब ने शिवाजी के प्रथम पुत्र सम्भाजी की हत्या करने के बाद उनके दूसरे पुत्र राजाराम का पीछा किया। इस संचन्कनम्टमा के समय केलदी की रानी चन्नम्मा ने राजाराम को अपने किले में आश्रय देकर नवोदित शिवराज्य का परोक्षत: संरक्षण किया तथा अपने सैन्य बल से मुगलों का प्रतिकार किया।
  −
 
  −
कित्तूर (कर्नाटक में एक जागीर) की रानी चन्नम्मा ने अपने पति की अकाल-मृत्यु के बाद अंग्रेजों की कित्तूर को हड़पने की योजना को विफल करने के लिए अंग्रेजों से डटकर टक्कर ली थी। अंग्रेज चन्नम्मा से संधि करने को विवश हुए। बाद में अंग्रेजों ने छल करके चन्नम्मा को बंदी बनाकर बेलहोंगल के किले में रखा। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के समान इन दोनों रानियों ने स्वातंत्र्य-हेतु जीवन उत्सर्ग किया।
  −
 
  −
==== <big>रुद्रमाम्बा (रुद्राम्बा)</big> ====
  −
आन्ध्र के काकतीय शासकों में छठे राजा गणपति देव की इकलौती पुत्री, जिसने पिता के मरणोपरान्त राज्य-भार संभाला (युगाब्द 44वीं (ई०13 वीं शती))। पिता ने अपनी पुत्री को राज्यकार्य की समुचित शिक्षा दी थी। पिता के साथ जययात्राओं में भाग लेकर इन्होंने अपनी वीरता की छाप छोड़ी थी। किन्तु एक स्त्री राज्यसिंहासन पर बैठे, यह सामन्तों और माण्डलिकों को सहन न हो सका। उन्होंने विद्रोह किया। सीमावर्ती राजाओं को भी यह स्वर्ण अवसर जान पड़ा। वीर नारी रुद्राम्बा ने इन सारे विरोधियों को पराभूत कर अपनी रणदक्षता का प्रमाण दिया। रुद्राम्बा का विवाह चालुक्य नरेश वीरभद्र से हुआ। इन्होंने दो दशकों तक काकतीय साम्राज्य का कुशल संचालन किया।
  −
 
  −
==== <big>निवेदिता</big> ====
  −
ये आयरिश महिला थीं। इनका मूल नाम कुमारी मार्गरेट नोबेल था। स्वामी विवेकानन्द के व्यक्तित्व से प्रभावित और प्रेरित होकर ये उनकी शिष्या बनीं और युगाग्द 4999 (1898 ई०) में भारत आयीं। स्वामी जी ने उनका नाम भगिनी निवेदिता रख दिया। इन्होंने हिन्दू धर्म का सार आत्मसात् किया और अपने लेखन तथा वाणी द्वारा हिन्दूधर्म की श्रेष्ठता सिद्ध की। भारत आकर वे दीन-दुखियों की सेवा में लग गयीं। भगिनी निवेदिता ने क्रांतिकारियों को भी प्रेरणा और मार्गदर्शन प्रदान किया। भारतीय संस्कृति और धर्म से वे पूर्ण एकात्म और समरस हो गयी थीं। भारत में आधुनिक नवजागरण के प्रयत्नों में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। उन्होंने Web of Indian Life आदि उत्कृष्ट ग्रंथों की भी रचना की।
  −
 
  −
==== <big>सारदा</big> ====
  −
माँ सारदा श्री रामकृष्ण परमहंस की धर्मपत्नी थीं। अपने जीवन को वीतराग पति के अनुरूप ढालकर वे सच्चे अर्थ में उनकी सहधर्मचारिणी बनीं। परमहंस और सारदा माँ का संबंध लौकिक न होकर देहभाव से नितांत परे अलौकिक आध्यात्मिक था। श्री रामकृष्ण सारदा को माँ जगदम्बा के रूप में देखते थे और ये उन्हें जगदीश्वर समझती थीं। श्री रामकृष्ण के समाधिस्थ होने के बाद इन्होंने विवेकानन्द आदि उनके शिष्यों का पुत्रवत् पालन किया। स्वयं अपने जीवन की आध्यात्मिक साँचे में ढालकर माँ सारदा ने अपने पति के शिष्यों को भी आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्रदान किया।
      
=== अनुकरणीय व्यक्तित्व ===
 
=== अनुकरणीय व्यक्तित्व ===
Line 242: Line 222:     
==== <big>पाणिनी</big> ====
 
==== <big>पाणिनी</big> ====
महान् वैयाकरण एवं भाषा-विज्ञानी। इनका रचा व्याकरण-ग्रंथ 'अष्टाध्यायी' प्रचलित संस्कृत व्याकरण का आधार ग्रंथ है। प्रत्याहार एवं शब्दानुशासन, धातुपाठ, गणपाठ, उणादि सूत्र और लिंगानुशासन पाणिनीय व्याकरण के पाँच विभाग हैं। अष्टाध्यायी की रचना ईसा से सात सौ वर्ष पूर्व की प्रमाणित हुई है। पाणिनि के जीवन से संबंधित जानकारी अब भी अत्यल्प है। वे तक्षशिला के निकट शलातुर ग्राम में रहते थे। उनके असाधारण कार्य के स्वरूप को देखते हुए लगता है कि उन्होंने सम्पूर्ण देश की यात्रा करके शब्द-सम्पदा का चयन और भाषा-प्रयोग का व्यापक अध्ययन किया होगा। उनकी मृत्यु शायद व्याघ्र द्वारा हुई।  
+
महान् वैयाकरण एवं भाषा-विज्ञानी। इनका रचा व्याकरण-ग्रंथ 'अष्टाध्यायी' प्रचलित संस्कृत व्याकरण का आधार ग्रंथ है। प्रत्याहार एवं शब्दानुशासन, धातुपाठ, गणपाठ, उणादि सूत्र और लिंगानुशासन पाणिनीय व्याकरण के पाँच विभाग हैं। अष्टाध्यायी की रचना ईसा से सात सौ वर्ष पूर्व की प्रमाणित हुई है। पाणिनि के जीवन से संबंधित जानकारी अब भी अत्यल्प है। वे तक्षशिला के निकट शलातुर ग्राम में रहते थे। उनके असाधारण कार्य के स्वरूप को देखते हुए लगता है कि उन्होंने सम्पूर्ण देश की यात्रा करके शब्द-सम्पदा का चयन और भाषा-प्रयोग का व्यापक अध्ययन किया होगा। उनकी मृत्यु संभवतः व्याघ्र द्वारा हुई।  
    
पाणिनीय व्याकरण 14 माहेश्वर सूत्रों के आधार पर प्रतिष्ठित है, जिनके बारे में किंवदन्ती है कि वे भगवान शिव के डमरू से निकले और शंकर के आदेश पर ही पाणिनि ने उन सूत्रों को आधार बनाकर व्याकरण-रचना की। सम्भव है कि पाणिनि के गुरु का नाम महेश्वर रहा हो जिन्होंने इन सूत्रों की रचना कर इनके आधार पर शेष कार्य करने का आदेश उन्हें दिया हो। पाणिनीय व्याकरण में शब्दोच्चारण का ध्वनिविज्ञान इतना उत्कृष्ट और परिपूर्ण है कि आज के ध्वनि-वैज्ञानिकों को भी दाँतों तले अंगुली दबानी पड़ती है। आज से ढाई सहस्त्र वर्ष से भी पूर्व भारत में विज्ञान के एक अंग की अत्युन्नत स्थिति किसी को भी सोचने के लिए विवश कर देने वाली है। आज माना जा रहा है कि संगणकों (कम्पूटर) के लिए मध्यवर्ती भाषा के रूप में संस्कृत ही सर्वाधिक योग्य भाषा है। उत्तम व्याकरण के द्वारा संस्कृत के उन्नत स्वरूप को सुरक्षित करने में पाणिनि का योगदान अनुपम है।  
 
पाणिनीय व्याकरण 14 माहेश्वर सूत्रों के आधार पर प्रतिष्ठित है, जिनके बारे में किंवदन्ती है कि वे भगवान शिव के डमरू से निकले और शंकर के आदेश पर ही पाणिनि ने उन सूत्रों को आधार बनाकर व्याकरण-रचना की। सम्भव है कि पाणिनि के गुरु का नाम महेश्वर रहा हो जिन्होंने इन सूत्रों की रचना कर इनके आधार पर शेष कार्य करने का आदेश उन्हें दिया हो। पाणिनीय व्याकरण में शब्दोच्चारण का ध्वनिविज्ञान इतना उत्कृष्ट और परिपूर्ण है कि आज के ध्वनि-वैज्ञानिकों को भी दाँतों तले अंगुली दबानी पड़ती है। आज से ढाई सहस्त्र वर्ष से भी पूर्व भारत में विज्ञान के एक अंग की अत्युन्नत स्थिति किसी को भी सोचने के लिए विवश कर देने वाली है। आज माना जा रहा है कि संगणकों (कम्पूटर) के लिए मध्यवर्ती भाषा के रूप में संस्कृत ही सर्वाधिक योग्य भाषा है। उत्तम व्याकरण के द्वारा संस्कृत के उन्नत स्वरूप को सुरक्षित करने में पाणिनि का योगदान अनुपम है।  
Line 298: Line 278:     
==== <big>कबीर</big> ====
 
==== <big>कबीर</big> ====
कलियुग की 46वीं (अर्थात् ईसा की 15वीं) शताब्दी में काशी में जन्मे महात्मा कबीर प्रसिद्ध संत, कवि तथा समाज-सुधारक थे। इनका जन्म शायद हिन्दूघर में तथा पालन-पोषण मुस्लिम परिवार में हुआ। ये स्वामी रामानन्द के शिष्य बने। निर्गुण बह्म के उपासक कबीर स्वभाव के फक्कड़ और वाणी के स्पष्टवक्ता थे। उन्होंने सामाजिक रूढ़ियों, मूर्तिपूजा, छुआछूत और जाति-पाँति का तीव्र खंडन किया। उन्होंने ईश्वर को अपने अन्तर में खोजने का उपदेश दिया, संसार के प्रपंच में फंसे मनुष्य को ईश्वरोन्मुख करने के उद्देश्य से माया की कठोर भर्त्सना की। बाह्याडम्बरों का विरोध कर कबीर ने सच्ची मानसिक उपासना का मार्ग दिखाया। उन्होंने साखी (दोहे) और पद रचे, जो लोक में दूर-दूर तक व्याप्त हो गये। ‘बीजक' में कबीर की वाणी का संकलन है। उनकी मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने कबीरपंथ नाम से एक सम्प्रदाय स्थापित किया।  
+
कलियुग की 46वीं (अर्थात् ईसा की 15वीं) शताब्दी में काशी में जन्मे महात्मा कबीर प्रसिद्ध संत, कवि तथा समाज-सुधारक थे। इनका जन्म संभवतः हिन्दूघर में तथा पालन-पोषण मुस्लिम परिवार में हुआ। ये स्वामी रामानन्द के शिष्य बने। निर्गुण बह्म के उपासक कबीर स्वभाव के फक्कड़ और वाणी के स्पष्टवक्ता थे। उन्होंने सामाजिक रूढ़ियों, मूर्तिपूजा, छुआछूत और जाति-पाँति का तीव्र खंडन किया। उन्होंने ईश्वर को अपने अन्तर में खोजने का उपदेश दिया, संसार के प्रपंच में फंसे मनुष्य को ईश्वरोन्मुख करने के उद्देश्य से माया की कठोर भर्त्सना की। बाह्याडम्बरों का विरोध कर कबीर ने सच्ची मानसिक उपासना का मार्ग दिखाया। उन्होंने साखी (दोहे) और पद रचे, जो लोक में दूर-दूर तक व्याप्त हो गये। ‘बीजक' में कबीर की वाणी का संकलन है। उनकी मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने कबीरपंथ नाम से एक सम्प्रदाय स्थापित किया।  
    
==== <big>गुरु नानक</big> ====
 
==== <big>गुरु नानक</big> ====
Line 599: Line 579:     
[[Category:बाल-शिक्षा पाठ्यक्रम]]
 
[[Category:बाल-शिक्षा पाठ्यक्रम]]
 +
[[Category:Hindi Articles]]
 +
[[Category:हिंदी भाषा के लेख]]
1,192

edits

Navigation menu