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बच्चों में संस्कारो का वर्धन ५ वर्ष की आयु से पाठांतर पठन माध्यम से प्रारंभ कर देना चाहिए <ref>पुस्तक -भारत एकात्मता स्तोत्र -सचित्र  
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बच्चों में संस्कारो का वर्धन ५ वर्ष की आयु से पाठांतर पठन माध्यम से प्रारंभ कर देना चाहिए <ref>पुस्तक -भारत एकात्मता स्तोत्र -सचित्र प्रकाशन - सुरुचि प्रकाशन, झंडेवाला, नयी दिल्ली </ref>। बच्चों में अपने धर्म के प्रति,अपने राष्ट्र के प्रति और अपने देशवासियों  एवं माता-पिता गुरुजनों का आदर सम्मान करने की शिक्षा सर्वप्रथम देनी चाहिये। अतः हमें सर्वदा यह प्रयास करना चाहिए, कि विद्या का प्रारंभ अपनी प्राचीन भाषा संस्कृत में किया जाये। इसी विषय को अग्रेसर करते हुए सम्पूर्ण भारत का परिचय सभी अभिभावक सरल रूप में और सहजता से प्राप्त कर सके।
प्रकाशन - सुरुचि प्रकाशन  
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झंडेवाला, नयी दिल्ली </ref>। बच्चों में अपने धर्म के प्रति ,अपने राष्ट्र के प्रति और अपने देशवासियों  एवं माता-पिता गुरुजनों का आदर सम्मान करने की शिक्षा सर्वप्रथम देनी चाहिये। अतः हमें सर्वदा यह प्रयास करना चाहिए, कि विद्या का प्रारंभ अपनी प्राचीन भाषा संस्कृत में किया जाये। इसी विषय को अग्रेसर करते हुए सम्पूर्ण भारत का परिचय सभी अभिभावक सरल रूप में और सहजता से प्राप्त कर सके।
      
अतः '''एकात्मता स्तोत्र''' नामक यह पाठांतर आपके लिए प्रस्तुत है। एकात्मता-स्तोत्र के पूर्वरूप, '''भारत-भक्ति-स्तोत्र''' से हम लोग भली भाँति परिचित हैं, जो बोलचाल में '<nowiki/>'''प्रात: स्मरण'''' नाम से जाना जाता है, क्योंकि वह प्रात: स्मरण की हमारी प्राचीन परम्परा से ही प्रेरित था। यह भारत-एकात्मता-स्तोत्र भारत की सनातन और सर्वकष एकात्मता के प्रतीकभूत नामों का श्लोकबद्ध संग्रह है। सम्पूर्ण भारतवर्ष की एकात्मता के संस्कार दृढ़मूल करने के लिए इस नाममाला का ग्रथन किया गया है। राष्ट्र के प्रति अनन्य भक्ति, पूर्वजो के प्रति असीम श्रद्धा तथा सम्पूर्ण देश में निवास करने वालो के प्रति एकात्मता का भाव जागृत करने वाले इस मंत्र का नियमित रूप से पठान करना चाहिए ।
 
अतः '''एकात्मता स्तोत्र''' नामक यह पाठांतर आपके लिए प्रस्तुत है। एकात्मता-स्तोत्र के पूर्वरूप, '''भारत-भक्ति-स्तोत्र''' से हम लोग भली भाँति परिचित हैं, जो बोलचाल में '<nowiki/>'''प्रात: स्मरण'''' नाम से जाना जाता है, क्योंकि वह प्रात: स्मरण की हमारी प्राचीन परम्परा से ही प्रेरित था। यह भारत-एकात्मता-स्तोत्र भारत की सनातन और सर्वकष एकात्मता के प्रतीकभूत नामों का श्लोकबद्ध संग्रह है। सम्पूर्ण भारतवर्ष की एकात्मता के संस्कार दृढ़मूल करने के लिए इस नाममाला का ग्रथन किया गया है। राष्ट्र के प्रति अनन्य भक्ति, पूर्वजो के प्रति असीम श्रद्धा तथा सम्पूर्ण देश में निवास करने वालो के प्रति एकात्मता का भाव जागृत करने वाले इस मंत्र का नियमित रूप से पठान करना चाहिए ।
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<blockquote>अरुन्धत्यनसूया च सावित्री जानकी सती।</blockquote><blockquote>द्रौपदी कण्णगी गार्गी मीरा दुर्गावती तथा ॥ १० ॥</blockquote>'''अरुन्धती, अनुसूया, सावित्री, सीता सती. द्रौपदी, कण्णगी. गार्गी, मीरा दुर्गावती तथा ॥ १० ॥'''
 
<blockquote>अरुन्धत्यनसूया च सावित्री जानकी सती।</blockquote><blockquote>द्रौपदी कण्णगी गार्गी मीरा दुर्गावती तथा ॥ १० ॥</blockquote>'''अरुन्धती, अनुसूया, सावित्री, सीता सती. द्रौपदी, कण्णगी. गार्गी, मीरा दुर्गावती तथा ॥ १० ॥'''
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<blockquote>लक्ष्मीरहल्या चेन्नम्मा रुद्रमाम्बा सुविक्रमा ।</blockquote><blockquote>निवेदिता सारदा च प्रणम्या मातृदेवता: ॥ ११ ॥</blockquote>'''लक्ष्मीबाई, अहल्याबाई होलकर, चन्नम्मा आदि पराक्रमी नारियाँ, भगिनी निवेदिता तथा सारदा (स्वामी रामकृष्ण परमहंस'''
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<blockquote>लक्ष्मीरहल्या चेन्नम्मा रुद्रमाम्बा सुविक्रमा ।</blockquote><blockquote>निवेदिता सारदा च प्रणम्या मातृदेवता: ॥ ११ ॥</blockquote>'''लक्ष्मीबाई, अहल्याबाई होलकर, चन्नम्मा आदि पराक्रमी नारियाँ, भगिनी निवेदिता तथा सारदा (स्वामी रामकृष्ण परमहंस की पत्नी) मातृस्वरूपा हैं, वन्दनीय हैं ॥ ११ ॥'''
 
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'''की पत्नी) मातृस्वरूपा हैं, वन्दनीय हैं ॥ ११ ॥'''
      
<blockquote>श्रीरामो भरतः कृष्णो भीष्मो धर्मस्तथार्जुनः ।</blockquote><blockquote>मार्कण्डेयो हरिशचन्द्रः प्रह्लादो नारदो धुवः ॥ १२ ॥</blockquote>'''भगवान श्रीराम, भरत, कृष्ण, भीष्म, धर्मराज युधिष्ठिर अर्जुन. ऋषि मार्कण्डेय. हरिश्चन्द्र, प्रहलाद, नारद, ध्रुव संत तथा ॥१२ ॥'''
 
<blockquote>श्रीरामो भरतः कृष्णो भीष्मो धर्मस्तथार्जुनः ।</blockquote><blockquote>मार्कण्डेयो हरिशचन्द्रः प्रह्लादो नारदो धुवः ॥ १२ ॥</blockquote>'''भगवान श्रीराम, भरत, कृष्ण, भीष्म, धर्मराज युधिष्ठिर अर्जुन. ऋषि मार्कण्डेय. हरिश्चन्द्र, प्रहलाद, नारद, ध्रुव संत तथा ॥१२ ॥'''
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॥ भारतमाता की जय ॥  
 
॥ भारतमाता की जय ॥  
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== <big>एकात्मतास्तोत्र-व्याख्या</big> ==
 
== <big>एकात्मतास्तोत्र-व्याख्या</big> ==
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==== <big>स्वर</big> ====
 
==== <big>स्वर</big> ====
भारतीय दर्शन के अनुसार आकाश में शब्द गुण है। परन्तु वहाँ शब्द अभिप्राय ध्वनि न होकर 'कम्पन' अर्थात्तरंग- प्रचरण है। शब्द की ध्वनिमयी अभिव्यक्ति स्वर है। स्वर को नादब्रह्म भी कहा गया है। संगीत शास्त्र में ध्वनि की मूल इकाइयों को श्रुति नाम दिया गया है जिनकी संख्या 22 है। एक से अधिक श्रुतियों के नादमय संयुक्त रूप को स्वर कहते हैं। संगीत के एक सप्तक में सात स्वर होते हैं,जिनके नाम है : षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत तथा निषाद (सा रे ग म प ध नि) । सात स्वरों का यह क्रम पूरा होने पर फिर से उसी क्रम में पूर्वापेक्षा दुगुनी आवृत्ति (तारत्व) का सप्तक आरम्भ हो जाता है। इस सप्तक का क्रम भी सातवें स्वर तक चलने के पश्चात् उससे दुगुनी आवृत्ति का सप्तक चल पड़ता है। उपर्युक्त शुद्ध स्वरों के अतिरिक्त जिन विक्कृत स्वरों को संगीत में मान्यता दे दी गयी है, वे हैं – कोमल ऋषभ, कोमल गान्धार, तीव्र मध्यम, कोमल धैवत और कोमल निषाद। भारतीय संगीत में प्रयुक्त तीन सप्तकों को क्रमश:मन्द्र,मध्य और तार सप्तक कहा जाता है।  
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भारतीय दर्शन के अनुसार आकाश में शब्द गुण है। परन्तु वहाँ शब्द अभिप्राय ध्वनि न होकर 'कम्पन' अर्थात्तरंग- प्रचरण है। शब्द की ध्वनिमयी अभिव्यक्ति स्वर है। स्वर को नादब्रह्म भी कहा गया है। संगीत शास्त्र में ध्वनि की मूल इकाइयों को श्रुति नाम दिया गया है जिनकी संख्या 22 है। एक से अधिक श्रुतियों के नादमय संयुक्त रूप को स्वर कहते हैं। संगीत के एक सप्तक में सात स्वर होते हैं,जिनके नाम है : षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत तथा निषाद (सा रे ग म प ध नि) । सात स्वरों का यह क्रम पूरा होने पर फिर से उसी क्रम में पूर्वापेक्षा दुगुनी आवृत्ति (तारत्व) का सप्तक आरम्भ हो जाता है। इस सप्तक का क्रम भी सातवें स्वर तक चलने के पश्चात् उससे दुगुनी आवृत्ति का सप्तक चल पड़ता है। उपर्युक्त शुद्ध स्वरों के अतिरिक्त जिन विक्कृत स्वरों को संगीत में मान्यता दे दी गयी है, वे हैं – कोमल ऋषभ, कोमल गान्धार, तीव्र मध्यम, कोमल धैवत और कोमल निषाद। भारतीय संगीत में प्रयुक्त तीन सप्तकों को क्रमश:मन्द्र, मध्य और तार सप्तक कहा जाता है।  
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व्याकरण में, भारतीय भाषाओं की वर्णमाला के अ आ इ ई उ ऊ आदि जिन 14 वर्णाक्षरों ९-९ -९ -९ -९ वणाक्षरों से मिलने पर उनकी ध्वनियों को अभिव्यक्त करने में भी सहायक होती हैं , वे स्वर कहलाते हैं। उच्चारण में नाद के विस्तार की दृष्टि से ये हृस्व, दीर्घ और प्लुत भेद से तीन प्रकार के होतेहैं। उच्चारण की तीव्रता की दृष्टि से भी स्वर उदात्त,अनुदात्त और स्वरित भेद से तीन प्रकार के होते हैं।  
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व्याकरण में, भारतीय भाषाओं की वर्णमाला के अ आ इ ई उ ऊ आदि जिन 14 वर्णाक्षरों ९-९ -९ -९ -९ वणाक्षरों से मिलने पर उनकी ध्वनियों को अभिव्यक्त करने में भी सहायक होती हैं, वे स्वर कहलाते हैं। उच्चारण में नाद के विस्तार की दृष्टि से ये हृस्व, दीर्घ और प्लुत भेद से तीन प्रकार के होतेहैं। उच्चारण की तीव्रता की दृष्टि से भी स्वर उदात्त,अनुदात्त और स्वरित भेद से तीन प्रकार के होते हैं।  
    
==== <big>दिशा</big> ====
 
==== <big>दिशा</big> ====
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घटनाओं के पूर्व और पश्चात् के अनुक्रम का बोध कराने वाला प्रत्यय, जिसका गति या परिवर्तन से अविच्छेद्य सम्बन्ध है। भारतीय तत्व दर्शियों ने काल को चक्रीय (पुनरावर्ती) बताया है, जिसके अनुसार सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, और कलियुग का बारम्बार पुनरावर्तन होता रहता है। इस प्रकार भूत, वर्तमान और भविष्य का कालचक्र पुन: पुन: अपने को दुहराता रहता है। भारत में काल-गणना निमेष (पलक-झपकने) के भी अत्यंत सूक्ष्म अंश से लेकर कल्प (सृष्टि की अवधि) पर्यन्त बृहत् स्तर तक की गयी है। उपर्युक्त चार युगोंका एक महायुग (43,20,000 वर्ष) और 1000 महायुगों का एक कल्प होता है जो पुराणों के अनुसार सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का एक दिन और एक बार की सृष्टि की अवधि है। सृष्टि कल्प के ही बराबर प्रलयकाल होता है और तत्पश्चात् पुन: सृष्टि।
 
घटनाओं के पूर्व और पश्चात् के अनुक्रम का बोध कराने वाला प्रत्यय, जिसका गति या परिवर्तन से अविच्छेद्य सम्बन्ध है। भारतीय तत्व दर्शियों ने काल को चक्रीय (पुनरावर्ती) बताया है, जिसके अनुसार सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, और कलियुग का बारम्बार पुनरावर्तन होता रहता है। इस प्रकार भूत, वर्तमान और भविष्य का कालचक्र पुन: पुन: अपने को दुहराता रहता है। भारत में काल-गणना निमेष (पलक-झपकने) के भी अत्यंत सूक्ष्म अंश से लेकर कल्प (सृष्टि की अवधि) पर्यन्त बृहत् स्तर तक की गयी है। उपर्युक्त चार युगोंका एक महायुग (43,20,000 वर्ष) और 1000 महायुगों का एक कल्प होता है जो पुराणों के अनुसार सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का एक दिन और एक बार की सृष्टि की अवधि है। सृष्टि कल्प के ही बराबर प्रलयकाल होता है और तत्पश्चात् पुन: सृष्टि।
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[[File:Bharat Ekatmata Stotra Sachitra-page-014 - Copy (2).jpg|center|thumb]]<blockquote>                                  '''<big>रत्नाकराधौतपदां हिमालयकिरीटिनीम्। ब्रह्मराजर्षिरत्नाढ़यां वन्दे भारतमातरम् ॥३॥</big>''' </blockquote>राजर्षियों रूपी रत्नों से समृद्ध ऐसी भारतमाता की मैं वन्दना करता हूँ ॥३॥
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[[File:Bharat Ekatmata Stotra Sachitra-page-014 - Copy (2).jpg|center|thumb]]<blockquote>                                  '''<big>रत्नाकराधौतपदां हिमालयकिरीटिनीम्। ब्रह्मराजर्षिरत्नाढ़यां वन्दे भारतमातरम् ॥३॥</big>''' </blockquote>अर्थ :- '''सागर जिसके चरण धो रहा है, हिमालय जिसका मुकुट है।और जो ब्रह्मर्षि तथा राजर्षि रूपी रत्नों से समृद्ध है, ऐसी भारतमाता की मैं वन्दना करता हूँ ॥ ३ ॥'''  
 
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[[File:Bharat Ekatmata Stotra Sachitra-page-015.jpg|center|thumb]]
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=== मुख्य पर्वत ===
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<blockquote>'''<big>महेन्द्रो मलय: सह्यो देवतात्मा हिमालय: । ध्येयो रैवतको विन्ध्यो गिरिशचारावलिस्तथा ॥४॥</big>''' </blockquote>
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==== <big>महेन्द्र पर्वत</big> ====
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उत्कल प्रदेश (उड़ीसा) के गंजाम जिले में पूर्वी घाट काउ त्तुंग शिखर। इस पर्वत पर चार विशाल ऐतिहासिक मन्दिर विद्यमान हैं। चोल राजा राजेन्द्र ने 11 वीं शताब्दी में यहाँ एक जयस्तम्भ स्थापित किया था। स्थानीय लोगोंं की ऐसी श्रद्धा है कि सप्त चिरंजीवियों में से एक, परशुराम, इस पर्वत पर विचरण करते हैं। इस पर्वत से महेन्द्र—तनय नामक दो प्रवाह निकलते हैं।
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==== <big>मलय पर्वत</big> ====
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भारतीय वाड्मय में मलय गिरि का वर्णन अनेक कवियों ने किया है। चंदन वृक्षों के लिए प्रसिद्ध यह पर्वत कर्नाटक प्रान्त में दक्षिण मैसूर में स्थित है। यह नीलगिरि नाम से भी जाना जाता है। इसका एक शिखर भी नीलगिरि के नाम से प्रसिद्ध है।
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==== <big>सह्य पर्वत (सह्याद्री)</big> ====
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भारत के पश्चिमी सागर-तट पर महाराष्ट्र और कर्नाटक में स्थित यह पर्वत गोदावरी और कृष्णा नदियों का उद्गम-स्थल है। त्र्यम्बकेश्वर, महाबलेश्वर, पंचवटी, मंगेशी, बालुकेश्वर, करवीर आदि अनेक तीर्थ सह्याद्रि के शिखरों पर तथा इससे उद्भूत नदियों के तटों पर विद्यमान हैं। यह पर्वत शिवाजी महाराज के कतृत्व का आधार क्षेत्र रहा है। अनेक इतिहास-प्रसिद्ध दुर्ग सह्याद्रि के शिखरों पर स्थित हैं, जिनमें उल्लेखनीय हैं—शिवनेरी, प्रतापगढ़, पन्हाला, विशालगढ़, पुरन्दर, सिंहगढ़ और रायगढ़।
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==== <big>हिमालय</big> ====
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<sub><big>भारत के उत्तर में स्थित, सदैव हिममण्डित, विश्व का सबसे ऊँचा पर्वत, जिसे कालिदास ने ‘देवतात्मा' विशेषण से सम्बोधित किया था ।</big></sub> <blockquote>“अस्त्युतरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयी नाम नगाधिराज:।"  </blockquote>उत्तर की ओर से परकीय आक्रमणों को रोकने में सुदृढ़ प्राचीर की भाँति खड़े पर्वतराज हिमालय की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यह पर्वत भारत की अनेक महान् नदियों का उदगम-स्थल है। गंगा, यमुना,सिन्धु, ब्रह्मपुत्र जैसी महिमामयी विशाल नदियाँ हिमालय से ही नि:सृत हुई हैं। भगवान शिव का प्रिय निवास कैलाश पर्वत हिमालय में ही स्थित है। नर-नारायण का पवित्र स्थान यहीं है। गंगोत्री, यमुनोत्री, मानसरोवर, बद्रीनाथ, केदारनाथ जैसे सुप्रसिद्ध तीर्थ इसी महती पर्वत-श्रृंखला के क्रोड़ में बसे हैं। हिमालय के प्रांगण में ही राजा भगीरथ ने गंगा के अवतरण के लिए घोर तप किया था। यहीं देवी पार्वती ने जन्म लिया, जिन्होंने अपने महान् तप से भगवान शिव को पतिरूप में प्राप्त किया। यहीं बद्रीवन में भगवान व्यास ने अनेक महाग्रन्थों का प्रणयन किया। महाभारत के युद्ध के बाद पाण्डवों ने हिमालय-गमन किया था। भारत की पारम्परिक, सांस्कृतिक जीवनगाथा के असंख्य आख्यान हिमालय से जुड़े हुए हैं। यह युगों-युगों से ऋषि-मुनियों, योगियों, तपस्वियों और दार्शनिकों का वासस्थान रहा है।
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==== <big>रैवतक पर्वत </big> ====
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गुजरात प्रान्त के काठियावाड़ जिले के प्रभास क्षेत्र का पवित्र पर्वत, जो गिरनार नाम से भी प्रसिद्ध है, द्वारिका से कुछ ही दूरी पर है। माघ रचित 'शिशुपाल वध' नाटक में इसका सुन्दर वर्णन है। पुराणों के अनुसार भगवान शंकर ने इस पर्वत पर वास किया था और उन्हें कैलाश पर्वत पर लौटा लाने का अनुरोध करने के लिए आये हुए देवताओं को शंकर जी ने इसी क्षेत्र में रहने को कहा था। अतएव ऐसी मान्यता है कि रैवतक पर्वत पर सभी देवताओं का और शिवजी के अंश का निवास है। इस पर्वत पर अनेक पवित्र जल-कुण्ड और मन्दिर विद्यमान हैं। जैन सम्प्रदाय के भी अनेक मन्दिर इस पर्वत पर विद्यमान हैं। इसके शिखरों में गोरखनाथ शिखर सबसे ऊंचा है।
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==== <big>विन्ध्याचल</big> ====
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भारत के मध्य भाग में गुजरात से बिहार तक विस्तीर्ण यह पर्वत नर्मदा और शोणभद्र नदियों का उद्गम-स्थल है। विन्ध्याचल सात कुलपर्वतों में से एक है। कहा जाता है कि उत्तर भारत और दक्षिण भारत को विभाजित करने वाली विन्ध्य पर्वतमाला को लांघकर ऋषि अगस्त्य दक्षिण गये थे और उन्होंने उत्तर तथा दक्षिण को एक सूत्र में बाँधने का यशस्वी कार्य सम्पन्न किया था। पुराणों के अनुसार, यह पर्वत हिमालय से ईर्ष्या करके मेरु से भी ऊँचा उठ रहा था। देवताओं की प्रार्थना पर अगस्त्य ऋषि विन्ध्य पर्वत के पास गये। अपने गुरु को आया देख उसने झुककर उन्हें प्रणाम किया। ऋषिवर ने दक्षिण से अपने वापस लौटने तक उसी नम्र अवस्था में रहने का उसे आदेश दिया। तब से विन्ध्य पर्वत उसी विनतावस्था में उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। अमरकण्टक का रमणीक पवित्र तीर्थ विन्ध्य पर्वत-श्रृंखला पर ही स्थित है। 
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अरावली राजस्थान का प्रमुख पर्वत है, जिसके आश्रय से उत्तर-पश्चिम की ओर से होने वाले परकीय आक्रमणों का प्रतिरोध किया गया। महाराणा प्रताप के शौर्य और कर्तृत्व का साक्षी यह पर्वत उनकी कर्मभूमि रहा है। प्रसिद्ध हल्दीघाटी अरावली की उपत्यकाओं में ही स्थित है। अरावली के सर्वोच्च शिखर का नाम आबू (अर्बुदाचल) है, जहाँ जैन सम्प्रदाय के पवित्र तीर्थ हैं। इस पर्वत का प्राचीन संस्कृत नाम ‘पारियात्र' था जिसकी सात कुलपर्वतों में गणना होती थी।
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== '''मुख्य पर्वत''' ==
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[[File:Bharat Ekatmata Stotra Sachitra-page-015.jpg|center|thumb]]<blockquote>'''<big>महेन्द्रो मलय: सह्यो देवतात्मा हिमालय: । ध्येयो रैवतको विन्ध्यो गिरिशचारावलिस्तथा ॥४॥</big>''' </blockquote>१.हिमालय  २.अरावली ३. सह्याद्री  ४.हिमालय  ६. रैवतक  ७. विन्ध्याचल
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(महेन्द्रो मलय: सह्यो शुक्तिमान् ऋक्षवानपि। विन्ध्यश्च परियात्रश्च सप्तैते कुलपर्वता: ॥)
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'''इन पर्वतों पर यह [[पुण्यभूमि भारत - सप्त पर्वत|विस्तृत लेख]] देखें ।'''
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=== मुख्य नदियाँ ===
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== मुख्य नदियाँ ==
 
[[File:Bharat Ekatmata Stotra Sachitra-page-016.jpg|center|thumb]]
 
[[File:Bharat Ekatmata Stotra Sachitra-page-016.jpg|center|thumb]]
<blockquote>'''<big>गड्.गा सरस्वती सिन्धुर्ब्रह्मपुत्रश्च गण्डकी । कावेरी यमुना रेवा कृष्णा गोदा महानदी ॥ ५ ॥</big>''' </blockquote>
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<blockquote>'''<big>गड्.गा सरस्वती सिन्धुर्ब्रह्मपुत्रश्च गण्डकी । कावेरी यमुना रेवा कृष्णा गोदा महानदी ॥ ५ ॥</big>''' </blockquote>१. गंगा २. सरस्वती ३. सिन्धु ३.ब्रह्मपुत्र ४. गण्डकी ५. कावेरी ६. महानदी  ७. यमुना  ८. यमुना ९. रेवा  १०. कृष्णा  ११. गोदावरी 
 
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==== <big>गंगा</big> ====
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गंगा को अनेक नामों से पुकारा जाता है। हिमालय में गंगोत्री में गंगोत्री हिमानी के गोमुख विवर से निकलकर गंगा गिरि-शिखरों से क्रीड़ा करती हुई, हरिद्वार में समतल प्रदेश में प्रवेश करती है। आगे यह नदी उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल को अपने पवित्र प्रवाह से पावन करती हुई गंगासागर में जा मिलती है। ऋग्वेद के नदी सूक्त के अनुसार वह भारत की नदियों में सर्वप्रथम है। गंगा के तट पर हरिद्वार, प्रयाग, काशी जैसे अनेक सुप्रसिद्ध तीर्थ हैं। इसके तटों पर अनादि काल से ऋषि, मुनि और तपस्वीगण साधना करते आये हैं। गंगाजल पवित्रता और निर्मलता का उपमान है। वैज्ञानिक प्रयोगों से यह सिद्ध हो चुका है कि इसकी स्वयं शुद्ध हो जाने की क्षमता विश्वभर क जलों में सर्वोपरि है। हिन्दू इस पावन नदी को माता या मैया कहकर पुकारते हैं। पुराणों के अनुसार गंगा विष्णु के चरण से उत्पन्न हुई, ब्रह्मा के कमंडल में समायी, शिव जी ने इसे अपनी जटा में धारण किया और सगरवंशीय राजा भगीरथ अपने पूर्व-पुरुषों का उद्धार करने हेतु इसे धरती पर लाये। भागवतपुराण में तत्सम्बन्धी कथा विस्तार से दी गयी है। आदित्यपुराण के अनुसार पृथ्वी पर गंगावतरण वैशाख शुक्ल तृतीया को तथा हिमालय से उसका निर्गम ज्येष्ठ शुक्ल दशमी (गंगा दशहरा ) को हुआ।
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==== <big>सरस्वती</big> ====
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वेदों में उल्लिखित पवित्र नदी, जो हिमालय से निकलकर वर्तमान हरियाणा, राजस्थान, गुजरात के क्षेत्रों से प्रवाहित होती हुई सिन्धुसागर में मिलती थी। कालांतर में यह नदी विलुप्त हो गयी। इसके तट ऋषियों की तपोभूमि रहे हैं। इसके आसपास का प्रदेश सारस्वत प्रदेश कहलाता था जो अपनी सांस्कृतिक समृद्धि के लिए प्रसिद्ध था। पुराणों में कहीं-कहीं सरस्वती को ब्रह्मा की पत्नी तथा ब्राह्मण ग्रन्थों में वाणी की देवी कहा गया है। सम्भव है कि इस नदी के तटवर्ती प्रदेश की विद्या-वैभव-सम्पन्नता के कारण इसे सरस्वती नाम मिला हो।
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==== <big>सिन्धु</big> ====
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पवित्र नदी, जिसका वैदिक साहित्य में भी उल्लेख आया है। हिमालय में कैलाश पर्वत से कुछ दूर मानसरोवर के निकट से उद्भूत होकर सिन्धु नदी कश्मीर, पंजाब और सिन्ध प्रदेश में से प्रवाहित होती हुई पश्चिमी सिन्धु सागर में जा मिलती है। सिन्धु नदी वेदों में उल्लिखित पवित्र नदी है जिसके तटों पर वैदिक सभ्यता फली-फूली। ऐसी मान्यता है कि 'हिन्दू' शब्द सिन्धु से ही बना है। सिन्धु और उसकी सहायक नदियों सहित सात नदियों वाला प्रदेश सप्तसैंधव कहलाता था। वैदिक सभ्यता और संस्कृति यहाँ फली-फूली थी। किन्तु आज वही नदी और प्रदेश दोनों ही दुर्भाग्यवश पाकिस्तान में हैं।
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==== <big>ब्रह्मपुत्र</big> ====
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इसका उदगम-स्थल हिमालय में पवित्र मानसरोवर के समीप स्थित एक विशाल हिमानी है। यह महानद पूर्व की ओर बहता हुआ असम और बंगाल में से होते हुए गंगासागर में मिलता है। भारत वर्ष की नदियों में ब्रह्मपुत्र की लम्बाई सर्वाधिक है। बड़ी दूर तक तिब्बत में सांपो नाम से बहने के पश्चात् अरुणाचल प्रदेश की उत्तरी सीमा पर यह भारत में प्रवेश करती है। गुवाहाटी में ब्रह्मपुत्र के किनारे एक पहाड़ के शिखर पर कामाख्या देवी का पवित्र शक्तिपीठ अवस्थित है। अपुनर्भव, भस्मक्तूट, मणिकर्णश्वर आदि अनेक तीर्थ इसके तटों पर स्थित हैं।
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==== <big>गण्डकी</big> ====
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नेपाल में मुक्तिनाथ के समीप दामोदर कुण्ड से उद्भूत गण्डकी बिहार प्रदेश से होती हुई गंगा में मिल जाती है। यह पवित्र शालिग्राम शिलाओं के लिए प्रसिद्ध है जिनकी पूजा भगवान विष्णु के प्रतीक के रूप में की जाती है। इसीलिए इसका एक नाम नारायणी भी है।
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==== <big>कावेरी</big> ====
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कावेरी मुख्यत: कर्नाटक और तमिलनाडु में बहने वाली पवित्र नदी है, जो कूर्ग में सह्याद्रि के दक्षिणी छोर से निकलकर पूर्वी समुद्र-तट पर गंगासागर में विलीन हो जाती है। इसके प्रवाह के मध्य में तीन स्थानों पर क्रमश: आदिरंगम्, शिवसमुद्रम् तथा अन्तरंगम् नाम के तीन पवित्र द्वीप हैं जिन पर विष्णु-मन्दिर बने हैं। जो स्थान उत्तर भारत में गंगा- यमुना नदियों को प्राप्त है, वही स्थान दक्षिण भारत में कावेरी और ताम्रपणी को प्राप्त है। कावेरी से निकली नहरों ने तमिलनाडु प्रदेश को कृषि की समृद्धि प्रदान की है।
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==== <big>यमुना</big> ====
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'''इन नदियों के बारें में विस्तृत जानकारी [[पुण्यभूमि भारत - पवित्र नदियाँ|इस लेख]] में पढ़ें।'''
यमुना उत्तर भारत की पवित्र नदी, जो हिमालय में यमुनोत्री के शिखर से निकलकर प्रयाग क्षेत्र में गंगा में मिल जाती है। गंगा-यमुना का यह संगम-स्थल आस्तिकों के लिए तीर्थराज है। इस नदी के तटपर इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली), मथुरा और वृंदावन जैसे ऐतिहासिक, धार्मिक नगर बसे हैं। नीलवर्णा यमुना के साथ श्रीकृष्ण का गहरा संबंध है। कृष्ण-भक्ति-साहित्य में कृष्ण के संबंध के कारण यमुना का महात्म्य भी गाया गया है। पुराणों में यमुना को सूर्यकन्या माना गया है। वेदों और ब्राह्मण ग्रंथों में भी इसका उल्लेख अनेक बार हुआ है।
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==== <big>रेवा</big> ====
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== मुख्य नगर ==
पुराणोक्ता रेवा नदी नर्मदा नाम से प्रसिद्ध है। इसका उदगम विन्ध्य पर्वत के अमरकण्टक शिखर में है। यह गुजरात में भड़ौंच के पास सिन्धु सागर में समाहित होती है। पौराणिक मान्यता के अनुसार रेवा नदी शिव के शरीर से उत्पन्न हुई है। रेवा के तट पर अनेक तीर्थ हैं। इनमें भेड़ाघाट, ओकारेश्वर, मांधाता, शुक्लतीर्थ, कपिलधारा आदि दर्शनीय हैं। स्कन्दपुराण के रेवाखण्ड में रेवा-तट के तीर्थों का विस्तृत वर्णन है। रानी अहिल्याबाई होलकर द्वारा बनवाये गये अनेक मन्दिर व घाट नर्मदा के तट पर विद्यमान हैं। कृष्णा आंध्रप्रदेश की प्रसिद्ध पुण्य सलिला नदी,जो सह्मद्रि पर्वत में महाबलेश्वर के उत्तर में स्थित कराड़ नामक स्थान के समीप से निकलकर गंगासागर में जा मिलती है। यह दक्षिण भारत की बड़ी नदियों में से है जिसे महाभारत में रोग नाशकारिणी बताया गया है। राजनिघण्टु के अनुसार इसका जल स्वच्छ, रुचिकर, दीपक और पाचक होता है। भीमा और तुंगभद्रा कुष्णा की दो प्रमुख सहायक नदियाँ हैं।
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==== <big>गोदावरी</big> ====
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गोदावरी ब्रह्मपुराण के अनुसार गौतम ऋषि शिव की जटा से गंगा को ब्रह्मगिरि (सह्याद्रि) में अपने आश्रम के समीप ले गये। इसीलिए वहाँ प्रकट हुई गोदावरी को गौतमी और दक्षिण की गंगा भी कहा जाता है। इसका उद्गम सह्याद्रि में त्रयम्बकेश्वर (ब्रह्मगिरि) से है और यह महाराष्ट्र से आन्ध्र प्रदेश में बहती हुई गंगासागर में विलीन हो जाती है। भगवान रामचन्द्र जी ने गोदावरी के किनारे पंचवटी में निवास किया था। समर्थ रामदास स्वामी ने इसी स्थान पर 13 वर्ष तक घोर तपस्या की थी। गोदावरी के किनारे नान्देड़ क्षेत्र में श्री गुरु गोविन्द सिंह की समाधि विद्यमान है। गोदावरी के तट पर नासिक, पैठण, कोटिपल्ली, राजमहेन्द्री, भ्रदाचलम् इत्यादि अनेक पावन क्षेत्र विद्यमान हैं। ब्रह्मपुराण में गोदावरी-तट के लगभग एक सौ तीर्थों का वर्णन है। मुस्लिम आक्रामकों ने इनमें प्राचीन मन्दिरों का बहुत विध्वंस किया। मराठा उत्थान के पश्चात्पुन: अनेक मंदिर बने। पंचवटी का कालाराम मंदिर दक्षिण-पश्चिम भारत के सर्वोतम मन्दिरों में गिना जाता है।
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==== <big>महानदी</big> ====
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महानदी मध्य प्रदेश तथा उत्कल प्रदेश की सबसे बड़ी नदी है, जो मध्य प्रदेश के रायपुर जिले के दक्षिण-पूर्व में स्थित सिंहवा पर्वत-श्रृंखला से निकलती है। कटक के पास अनेक धाराओं में बहती हुई यह पूर्व में गंगासागर में विलीन होती है। उत्कल प्रदेश का बहुत बड़ा क्षेत्र इसके जल से सिंचित होता है। उत्कल प्रदेश का बहुत बड़ा क्षेत्र इसके जल से सिंचित होता है।
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=== मुख्य नगर ===
   
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<blockquote>'''<big>अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्चि अवन्तिका । वैशाली द्वारिका ध्येया पुरी तक्षशिला गया॥ ६॥</big>''' </blockquote>
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<blockquote>'''<big>अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्चि अवन्तिका । वैशाली द्वारिका ध्येया पुरी तक्षशिला गया॥ ६॥</big>''' </blockquote>१.अयोध्या २.मथुरा ३. माया ( हरिद्वार ) ४. कशी  ५.कांची ६.अवंतिका  ७.वैशाली ८.द्वारिका ९.पूरी  १०. तक्षशिला  ११. गया
 
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==== <big>अयोध्या</big> ====
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मर्यादापुरुषोतम भगवान श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या प्राचीन कोसल जनपद (अब उत्तर प्रदेश का फैजाबाद जिला) में सरयू नदी के दाहिने तट पर बसी अति प्राचीन नगरी है। यह इक्ष्वाकुवंशी राजाओं की राजधानी थी। श्रीराम के लोकविख्यात रामराज्य के पश्चात्न उनके ज्येष्ठपुत्र कुश ने अपनी राजधानी अन्यत्र बना ली और अयोध्या में श्रीराम-जन्मस्थान पर मन्दिर बनवा दिया। कालान्तर में विक्रमादित्य ने वहाँ जीर्णोद्धार कर मन्दिर-निर्माण कराया। अब से लगभग 1000 वर्ष पूर्व किसी राजा ने मन्दिर का पुनर्नवीकरण किया। 1529 ई० में विदेशी बर्बर आक्रमणकारी बाबर ने यहाँ के श्रीराम-जन्मभूमि-मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाने का प्रयास किया,परन्तु रामभक्तों के अनवरत सशस्त्र प्रतिरोध के कारण अपने उद्देश्य में असफल होकर उसने बिना मीनारों के तीनगुम्बदों वाले ढाँचे का निर्माण वहाँ किसी प्रकार करा दिया था जिसमें गुम्बदों के नीचे ध्वस्त किये गये मंदिर के जो खंभे लगाये गये थे उन पर मूतियाँ और मंगल-कलश उत्कीर्ण हैं। वे स्तम्भ अब वहाँ संग्रहालय में रखे हैं। मुख्य गुम्बद में चन्दन-काष्ठ लगा था और प्रदक्षिणा भी थी। साधु-संत वहाँ भजन-पूजन करते थे, परन्तु औरंगजेब ने बर्बर सैन्यशक्ति द्वारा उस पर रोक लगायी। श्री राम-जन्मभूमि की मुक्ति के लिए समाज सतत संघर्ष करता रहा है जिसमें वह अनेक बार सफल हुआ और गुम्बद के नीचे भी पूजा होती रही। किन्तु विदेशी अवैध शासकों ने बार-बार व्यवधान डाले। गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरित मानस की रचना अयोध्या में ही की थी। इसके लिए वे काशी से अयोध्या पहुँचे और संवत् 1631 की रामनवमी का दिन उन्होंने इस पावन कार्य के शुभारम्भ हेतु चुना। स्वाभाविक था कि यह कार्य उन्होंने रामजन्मभूमि पर निवास करते हुए ही किया, जिस पर उस समय मसीत (मस्जिद) की आकृति का परित्यक्त भवन खड़ा था। गोस्वामी जी के शब्दों में उस समय उनकी आजीविका थी – “माँगे के खैबो मसीत को सोइबी लैबे को एक न दैबे की दोऊ”।
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प्रमुख संत-महात्माओं के सम्मेलन एवं धर्म-संसद में लिए गये निर्णयानुसार विक्रम संवत् 2046 की देवोत्थान एकादशी के दिन नये भव्य श्री राम-जन्मभूमि-मंदिर का शिलान्यास किया गया। संवत् 2047 की देवोत्थान एकादशी के दिन से पुन: श्रीराम-मन्दिर के निर्माण-कार्य को आगे बढ़ाने के लिए गये हुए रामभक्तों के मार्ग में सैकड़ों अवरोध डालने के पश्चात मुश्लिम परस्त क्रूर राज सत्ताधारियों ने उस दिन श्री राम-जन्मभूमि पर और उसके चार दिन पश्चात् हनुमानगढ़ी तथा अयोध्या के मन्दिरों और गलियों में आग्नेयास्त्रों से गोली-वर्षा कर बहुत से बलिदानी वीरों के प्राण ले लिये और सैकड़ों को आहत कर दिया। किन्तु राम-कार्य के लिए सर्वस्वार्पण का संकल्प तोड़ा न जा सका। और नये-पुराने 'धर्मनिरपेक्ष' शासकों के राजनीतिक छल-छद्यों तथा राज्यसत्ता के हठ पूर्ण दुरुपयोग के कारण अन्तत: वह दिन भी आ गया जब 6 दिसम्बर, 1992 के दिन रामभक्तों ने राष्ट्रीय अपमान के प्रतीक उस ढाँचे को हटाकर उस पवित्र स्थल का जीर्णोद्धार कर दिया। वहाँ रामलला का जो लघु मन्दिर अब रह गया है उसको उस स्थान के अनुरूप भव्य रूप देने के मार्ग में अब भी कुटिल बाधाएं खड़ी की जा रही हैं। जैन तीर्थकर आदिनाथ का जन्म भी अयोध्या में हुआ था। बौद्ध साहित्य में इस नगर को साकेत कहा गया। वाल्मीकि-रामायण में भगवान श्री राम ने जननी और जन्मभूमि को स्वर्ग से भी बढ़कर बताया है। रावण-वध के पश्चात् यह भावना व्यक्त कर वे लंका से शीघ्र अयोध्या लौट आये। सीता रसोई तथा हनुमानगढ़ी जैसे कुछ प्राचीन एवं अन्य अनेक नवीन मन्दिरों की यह नगरी जैन, बौद्ध, सिख, सनातनी आदि सभी धार्मिक पन्थों का पावन तीर्थ है। यहाँ अनेक जैन तथा बौद्ध मन्दिर हैं।
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==== <big>मथुरा</big> ====
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<sub><big>पश्चिमी उत्तर प्रदेश में यमुना-तट परस्थित प्राचीन नगरी,जो भगवान कृष्ण की जन्मभूमि रही है। इसका प्राचीन नाम मधुरा था, शायद वही कालान्तर में मथुरा हो गया। बालक ध्रुव ने नारद जी के उपदेशानुसार यहीं मधुवन में कठिन तपस्या करके भगवत दर्शन प्राप्त किया। त्रेतायुग में भगवान राम के आदेश से अत्याचारी लवणासुर का वध करके शत्रुघ्न ने मथुरा का राज्य संभाला। द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने मथुरा के अत्याचारी राजा कंस को मारकर अपने अवतार-कार्य का श्रीगणेश यहीं से किया था। कलियुग में शकों ने भारत पर आक्रमण करके मथुरा और अवन्तिका पर भी अधिकार कर लिया था। उनको विक्रमादित्य ने पराजित किया। पुन: आक्रामक मुस्लिम शासनकाल में औरंगजेब ने कृष्ण जन्मभूमि-मन्दिर को ध्वस्त कर वहाँ मस्जिद का निर्माण किया। मथुरा-वृन्दावन क्षेत्र कृष्णभक्तों के लिए सदैव अपार आकर्षण और श्रद्धा का केन्द्र रहा है। कृष्ण-जन्मस्थान को मुक्त कराना करोड़ों कृष्णभक्तों की साधना है जिसे पूरा करने के लिए प्रयास किये जा रहे हैं।</big></sub>
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==== <big>मायापुरी (हरिद्वार)</big> ====
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पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गंगा-तट का यह प्रसिद्ध तीर्थ है। पहाड़ों से निकलकर गंगा यहीं मैदान में प्रवेश करती है। प्रसिद्ध कुम्भ मेला, जिसमें लाखों श्रद्धालु भाग लेते हैं, हरिद्वार में भी लगता है। जिस वर्ष चन्द्र-सूर्य मेष राशि में और गुरु कुम्भ राशि में एक ही समय में होते हैं, कुम्भ पर्व का योग आता है। हरिद्वारतीर्थ-क्षेत्र में गंगाद्वार, कुशावर्त, विल्वकेश्वर, नीलपर्वत ( नीलकण्ठ महादेव) और कनखल नामक प्रमुख पाँच तीर्थ-स्थान हैं। दक्ष प्रजापति ने अपना प्रसिद्ध यज्ञ कनखल में ही किया था जिसका, सती के यज्ञाग्नि में जल जाने पर, शिवगणों ने विध्वंस कर दिया।
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==== <big>काशी</big> ====
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<sub><big>पूर्वी उत्तर प्रदेश में गंगा के तट पर स्थित तथा भगवान शंकर की महिमा से मण्डित काशी को विश्व के प्राचीनतम नगरों में अनन्यतम स्थान प्राप्त है। वरणा नदी और असी गंगा के मध्य स्थित होने से यह वाराणसी नाम से भी प्रसिद्ध है। बौद्ध जातक कथाओं के अनुसार काशी महाजनपद की यह राजधानी भारत के छ: प्रमुख नगरों से सबसे बड़ी थी। अनेक विद्याओं के महत्वपूर्ण अध्ययन-केन्द्र, विभिन्न पंथ-सम्प्रदायों के तीर्थस्थल और भगवत्प्राप्ति के लिए परम उपयुक्त क्षेत्र के रूप में इसकी प्रतिष्ठा है। यह शैव, शाक्त, बौद्ध और जैन पंथों का प्रमुख तीर्थ-क्षेत्र है। यहाँ के विश्वनाथ मन्दिर में स्थित शिवलिंग की बारह ज्योतिर्लिगों में गणना होती है। काशी में शक्तिपीठ भी है। सातवें और तेईसवें जैन तीर्थकरों का यहीं आविर्भाव हुआ था। भगवान बुद्ध ने काशी के पास सारनाथ में अपना प्रथम धर्म-प्रवचन सुनाया था। जगदगुरु आद्य शंकराचार्य ने अपनी धार्मिक दिग्विजय-यात्रा यहीं से प्रारम्भ की थी। किसी नये पंथ, विचार अथवा सुधार का श्रीगणेश काशी में करना सफलता के लिए आवश्यक माना जाता था। कबीर, रामानंद, तुलसीदास सदृश भक्तों और संत कवियों ने भी काशी को अपनी कर्मभूमि बनाया था। शास्त्राध्ययन और शास्त्रार्थ की यहाँ अति प्राचीन परम्परा रही है।</big></sub>
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<sub><big>मुगल आक्रामक औरंगजेब ने यहाँ स्थित विश्वनाथ-मंदिर को ध्वस्त कर उसके भग्नावशेषों पर मस्जिद बनवा दी। कालान्तर में रानी अहल्याबाई होलकर ने निकट ही नवीन विश्वनाथ मंदिर की प्रतिष्ठापना की। इस मन्दिर के शिखर को महाराजा रणजीत सिंह ने स्वर्ण-पत्र से मण्डित किया था। काशी विश्वनाथ के मूल स्थान को मुक्त कराने के प्रयास किये जा रहे हैं। आधुनिक काल में महामना मदनमोहन मालवीय ने विश्व-प्रसिद्ध काशी हिन्दूविश्वविद्यालय की स्थापना कर विद्याक्षेत्र के रूप में काशी की परम्परा को आगे बढ़ाया। यहाँ गंगा-तट पर दशाश्वमेध घाट प्रसिद्ध है, यहाँ भारशिव राजाओं ने कुषाणों को परास्त कर दस अश्वमेध यज्ञ किये थे।</big></sub>
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==== <big>कांची</big> ====
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सात मोक्षपुरियों में से एक-कांची दक्षिण भारत का प्रसिद्ध धार्मिक नगर और विद्या-केंद्र रहा है। इसे दक्षिण की काशी कहते हैं। प्राचीन काल से यह नगर शैव, वैष्णव, जैन तथा बौद्ध सम्प्रदायों का तीर्थ-क्षेत्र रहा है। इस नगरी के शिवकांची और विष्णुकांची नामक दो विभाग माने गये हैं। कांची के कामाक्षी और एकाम्बर नाथ के मंदिर प्रसिद्ध हैं। इस नगरी में 108 शिव-स्थल माने गये हैं। विष्णुकांची में भगवान वरदराज का विशाल मन्दिर है। रामानुजाचार्य के तत्वज्ञान का उदगम-स्थान कांचीपुरी रही है। बौद्ध पण्डितों में नागार्जुन, बुद्धघोष, धर्मपाल, दिडनाग आदि का निवास कांची में ही था। ब्रह्माण्डपुराण में काशी और कांची को भगवान शिव के नेत्र कहा गया है।
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==== <big>अवन्तिका</big> ====
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क्षिप्रा नदी के तट पर बसा मध्य प्रदेश का यह सुप्रसिद्ध नगर अब उज्जयिनी या उज्जैन के नाम से जाना जाता है। इसकी गणना भी सात मोक्षपुरियों में होती है। भगवान शिव के द्वादश ज्योतिर्लिगों में महाकाल नामक शिवलिंग का यह पीठ है और भगवती सती के बाहुका एक अंश यहाँ गिरने के कारण इसे शक्तिपीठ भी माना जाता है। भगवान शंकर ने इसी स्थान पर त्रिपुरासुर पर विजय पायी थी। आचार्य सांदीपनि का आश्रम उज्जयिनी में ही था, जहाँ कृष्ण ने बलराम और सुदामा के साथ उनसे शिक्षा प्राप्त की थी। विद्या-केंद्र के रूप में अवन्तिका का महत्व दीर्घकाल तक बना रहा। भारतीय ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भूमध्य-रेखा और शून्यरेखांश का केंद्र-बिन्दु इसी नगरी में मिलता है। प्रति बारह वर्षों के बाद अवन्तिका नगरी में कुम्भ पर्व आता है। मौर्य शासनकाल में उज्जयिनी मालव प्रदेश की राजधानी थी। सम्राट अशोक के पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा ने यहीं प्रव्रज्या धारण की थी। बाद में यहाँ शकों का राज्य स्थापित हुआ, जिन्हें विक्रमादित्य ने पराजित किया। कालिदास, अमरसिंह, वररूचि, भतृहरि, भारवि आदि प्राचीन भारत के श्रेष्ठ साहित्यकारों और भाषाशास्त्रियों तथा प्रख्यात ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर का अवन्तिका से संबंध रहा है। यहाँ क्षिप्रा नदी के तट पर सिद्ध वटवृक्ष चिरकाल से प्रतिष्ठित है। प्रयाग के अक्षय वट की भाँति इसे नष्ट करने के भी प्रयत्न अनेक मुस्लिम आक्रामकों ने किये, परन्तु जहांगीर सहित उनमें से कोई भी अपने दुष्प्रयत्न में सफल नहीं हुआ।
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==== <big>वैशाली</big> ====
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बिहार की प्राचीन नगरी, प्रसिद्ध लिच्छवि गणराज्य की राजधानी जिसे सम्पूर्ण वज्जि संघ की राजधानी होने का भी गौरव प्राप्त हुआ। यह नगरी एक समय अपनी भव्यता और वैभव के लिए सम्पूर्ण देश में विख्यात थी। 24 वें जैन तीर्थकर महावीर का जन्म वैशाली में ही हुआ था। इस नाते यह जैन पंथ का प्रसिद्ध तीर्थ एवं श्रद्धा-केंद्र है। बुद्ध के समय में भारत के छ: प्रमुख नगरों में वैशाली भी एक थी। बुद्ध ने भी इस नगरी को अपना सान्निध्य प्रदान किया। वैशाली का नामकरण इक्ष्वाकुवंशी राजा विशाल के नाम पर हुआ माना जाता है। भगवान राम ने मिथिला जाते हुए इसकी भव्यता का अवलोकन किया था।
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==== <big>द्वारिका</big> ====
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द्वारिका गुजरात में सौराष्ट्र के पश्चिम में समुद्र-तट पर बसी यह नगरी श्रीकृष्ण द्वारा स्थापित गणराज्य की राजधानी थी। द्वारिका हिन्दुओं के चार धामों में से एक है। द्वारिका में रैवत नामक राजा ने दर्भ बिछाकर यज्ञ किया था। द्वारिकाधीश्वर श्रीकृष्ण के ही एक रूप श्रीरणछोड़ राय जी का विशाल मन्दिर द्वारिका का प्रमुख दर्शनीय स्थान है। रणछोड़राय जी के मन्दिर पर लहराने वाला धर्मध्वज संसार का सबसे बड़ा ध्वज है। इसी मन्दिर के परिसर में जगदगुरु शंकराचार्य द्वारा स्थापित शारदा मठ है। भगवान श्रीकृष्ण के लीला-संवरण कर परमधाम-गमन के पश्चात् द्वारिका की अधिकांश भूमि समुद्र में डूब गयी।
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==== <big>पुरी (जगन्नाथपुरी)</big> ====
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उड़ीसा में गंगासागर तट पर स्थित जगन्नाथपुरी शैव, वैष्णव और बौद्ध, तीनों सम्प्रदायों के भक्तों का श्रद्धा-केंद्र है और पूरे वर्षभर प्रतिदिन सहस्त्रों लोग यहाँ दर्शनार्थ पहुँचते हैं। यह परमेश्वर के चार पावन धामों में से एक है। जगदगुरु शंकराचार्य का गोवर्धन मठ तथा चैतन्य महाप्रभु मठ भी पुरी में है। विख्यात जगन्नाथ मन्दिर करोड़ो लोगोंं का श्रद्धा-केंद्र है जिसे पुराणों में पुरुषोत्तम तीर्थ कहा गया है। वर्तमान जगन्नाथ मन्दिर 12 वीं शताब्दी में अनन्तचोल गंग नामक गंगवंशीय राजा ने बनवाया था, किन्तु ब्रह्मपुराण और स्कन्दपुराण के अनुसार (इस से पूर्व) यहाँ उज्जयिनी-नरेश इन्द्रद्युम्न ने मन्दिर-निर्माण कराया था। इस मंदिर में श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा की काष्ठ-मूतियाँ हैं। जगन्नाथ के महान् रथ की यात्रा भारत की एक प्रमुख यात्रा मानी जाती है। लाखों लोग भगवान जगन्नाथ के रथ को खींचकर चलाते हैं। इस तीर्थ की एक विशेषता यह है कि यहाँ जाति-पाँति के छुआछुत का भेदभाव नहीं माना जाता। लोकोक्ति प्रसिद्ध है- 'जगतराथ' का भात, जगत पसारे हाथ, पूछे जात न पात।' पुरी के सिद्धि विनायक मन्दिर की विनायक मूर्ति मूर्तिकला की दृष्टि से भी दर्शनीय कृति है।
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==== <big>तक्षशिला</big> ====
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भारत वर्ष के पश्चिमोत्तर सीमा-प्रांत में, प्राचीन गांधार जनपद की द्वितीय राजधानी तक्षशिला, सिन्ध और वितस्ता (झेलम) नदियों के मध्य स्थित प्राचीन ऐतिहासिक नगरी थी, जिसके भग्नावशेष वर्तमान रावलपिंडी से लगभग 30 कि०मी० पश्चिम में आज भी दृष्टिगोचर होते हैं। श्रीराम के भाई भरत ने इसे अपने पुत्र तक्ष के नाम पर बसाया था। प्राचीन भारत का यह प्रख्यात उच्च विद्याकेंद्र रहा है। ज्ञात इतिहास में विश्व में सर्वाधिक 1200 वर्षों तक निरंतर विद्यमान रहने वाला विश्वविद्यालय यहीं का था। तक्षशिला विश्वविद्यालय में पाणिनि, जीवक और कौटिल्य जैसी विभूतियों ने अध्ययन तथा अध्यापन किया था। तक्षशिला, प्राचीन भारत की राजनीतिक और व्यापारिक गतिविधियों का भी केंद्र रहा है। एरियन, स्ट्रेटों आदि ग्रीक इतिहासकारों तथा चीनी यात्री फाहियान ने इसकी समृद्धि का वर्णन किया है। सीमावर्ती प्रदेश होने के कारण इसका राजनीतिक महत्व बहुत रहा है। पश्चिमोत्तर के विदेशी आक्रमणों का प्रकोप इसे बारम्बार झेलना पड़ा। युगाब्द 5048 (ई० 1947) भारत-विभाजन के पश्चात् अब यह स्थान पाकिस्तान के अन्तर्गत है।
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==== <big>गया</big> ====
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'''इन नगरों पर यह [[पुण्यभूमि भारत - मुख्य नगर|विस्तृत लेख]] देखें ।'''
गया बिहार प्रान्त में फल्गु नदी के तट पर बसा प्राचीन नगर है जिसका उल्लेख पुराणों, महाभारत तथा बौद्ध साहित्य में हुआ है। पुराणों के अनुसार गय नामक महापुण्यवान् विष्णुभक्त असुर के नाम पर इस तीर्थ-नगर का नामकरण हुआ। मान्यता है कि गया में जिसका श्राद्ध हो वह पापमुक्त होकर ब्रह्मलोक में वास करता है। भगवान रामचन्द्र और धर्मराज ने गया में पितृश्राद्ध किया था। पितृश्राद्ध का यह प्रख्यात तीर्थ है। विष्णुपद मन्दिर यहाँ का प्रमुख दर्शनीय स्थान है। गौतम बुद्ध को यहाँ से कुछ दूरी पर बोध प्राप्त हुआ था। वह स्थान बोध गया अथवा बुद्ध गया कहलाता है। वहाँ प्रसिद्ध बोधिवृक्ष तथ भगवान बुद्ध का विशाल मन्दिर विद्यमान है।
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== धार्मिक स्थल ==
 
[[File:Bharat Ekatmata Stotra Sachitra-page-018.jpg|center|thumb]]
 
[[File:Bharat Ekatmata Stotra Sachitra-page-018.jpg|center|thumb]]
<blockquote>'''प्रयाग: पाटलीपुत्र विजयानगरं महत्। इन्द्रप्रस्थ सोमनाथ: तथाऽमृतसर: प्रियम् ॥7 ॥'''</blockquote>
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<blockquote>'''प्रयागः पाटलीपुत्रं विजयानगरं महत् । इन्द्रप्रस्थं सोमनाथः तथाऽमृतसरः प्रियम् ॥ ७॥'''</blockquote>१. प्रयाग २.पाटलीपुत्र ३.विजय नगर ४.इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) ५.सोमनाथ ६.अमृतसर
 
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==== <big>प्रयाग</big> ====
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उत्तर प्रदेश में गंगा-यमुना के संगम पर स्थित प्रयाग प्रसिद्ध तीर्थ है। अपने असाधारण महात्म्य के कारण इसे तीर्थराज कहा जाता है। गुप्त-सलिला सरस्वती का भी संगम होने के कारण इसे त्रिवेणी संगम भी कहते हैं। प्रयाग में प्रति बारहवें वर्ष कुम्भ, प्रति छठे वर्ष अर्द्ध कुम्भ और प्रतिवर्ष माघ मेला लगता है। इन मेलों में करोड़ों श्रद्धालु और साधु-संत पर्वस्नान करने आते हैं। प्रयाग क्षेत्र में प्रजापति ने यज्ञ किया था जिससे इसे प्रयाग नाम प्राप्त हुआ। भरद्वाज मुनि का प्रसिद्ध गरुकुल प्रयाग में ही था। वन जाते हुए श्रीराम, सीता और लक्ष्मण उस आश्रम में ठहरे थे। तुलसीकृत रामचरित मानस के अनुसार वहीं पर मुनि याज्ञवल्क्य ने भरद्वाज मुनि को रामकथा सुनायी थी। समुद्रगुप्त के वर्णन का एक उत्कृष्ट शिलास्तम्भ प्रयाग में पाया गया है। यहीं वह अक्षयवट है जिसके बारे में मान्यता है कि वह प्रलयकाल में भी नष्ट नहीं होता। इसी विश्वास और श्रद्धा को तोड़ने के लिए आक्रांता मुसलमानों विशेषत: जहांगीर ने उसे नष्ट करने के बहुत प्रयत्न किये, किन्तु वह वटवृक्ष आज भी वहाँ खड़ा है।
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==== <big>पाटलिपुत्र</big> ====
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बिहार का सुप्रसिद्ध प्राचीन ऐतिहासिक नगर, जो अनेक साम्राज्यों और राजवंशों की राजधानी रहा, आजकल पटना नाम से प्रसिद्ध है। प्राचीन समय में इसे पाटलिपुत्र या पाटलीपुत्र के अतिरिक्त कुसुमपुर, पुष्पपुर या कुसुमध्वज नामों से भी जाना जाता था। यह गंगा और शोणभद्र नदियों के संगम पर बसा है। ईसा से सैकड़ों वर्ष पूर्व बुद्ध के अनुयायी अजातशत्रु नामक राजा ने इस नगर का निर्माण करवाया था। स्वयं बुद्ध ने इसके उत्कर्ष की भविष्यवाणी की थी। यह दीर्घकाल तक मगध साम्राज्य की राजधानी रहा और इसने नन्द,मौर्य, शुग और गुप्त वंशों के महान् साम्राज्यों का उत्थान-पतन देखा। सिख पन्थ के दसवें गुरु श्री गोविन्द सिंह का जन्म पटना में ही हुआ था। स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद की भी यह कर्मभूमि रहा है।
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==== <big>विजयनगर</big> ====
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महान् विजयनगर साम्राज्य की स्थापना विद्यारण्य स्वामी (माधवाचार्य) के मार्गदर्शन में हरिहर और बुक़राय नामक दो वीर बंधुओं ने की थी, जिसकी यह राजधानी उन्होंने युगाब्द 4437 (सन् 1336) में बसायी। अपने गुरु विद्यारण्य स्वामी के नाम पर उन्होंने इसे विद्यानगर नाम दिया था। किन्तु बाद में यह विजय नगर से ही प्रसिद्ध हुआ। यह ऐतिहासिक नगर दक्षिण भारत में तुंगभद्रा नदी के तट पर बसा है। वेदमूलक हिन्दू धर्म तथा संस्कृति की सुरक्षा और संवर्धन विजयनगर साम्राज्य का उद्देश्य था। 'विजयनगरम्' में साम्राज्य- संस्थापक संगमवंश के पश्चात् सालुववंश और तुलुवबंश जैसे प्रतापी राजवंशों का भी आधिपत्य रहा। तुलुववंश के वीर पुरुष कृष्णदेवराय ने विजयनगर साम्राज्य का पर्याप्त उत्कर्ष किया और मुसलमानों द्वारा ध्वस्त किये गये मन्दिरों का जीर्णोद्वार किया। विजयनगर का साम्राज्य युगाब्द 4437 से 4666 (ई० 1336 से 1565) तक उत्कर्ष पर रहा। उसके विदेशों से भी दौत्य—सम्बन्ध थे।
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==== <big>इन्द्रप्रस्थ</big> ====
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महाभारत में उल्लिखित यह नगर वर्तमान दिल्ली के समीप था, जिसे पाण्डवों ने बसाया था। कहा जाता है कि पहले यहाँ खाण्डव नामक बीहड़ वन था, जिसे काटकर इन्द्रप्रस्थ का निर्माण कराया गया। हस्तिनापुर का राज्य स्वयं लेने के लिए दुर्योधन के हठ और छल-प्रपंच के कारण कुरुवंश के राज्य का विभाजन कर पाण्डवों को यह बीहड़ प्रदेश दिया गया था। किन्तु मय दानव की अदभुत स्थापत्यकला ने इन्द्रप्रस्थ को अकल्पनीय भव्यता प्रदान कर दी। युधिष्ठिर ने यहीं राजसूय यज्ञ किया था। इसने अनेक उतार-चढ़ाव देखे।
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==== <big>सोमनाथ</big> ====
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गुजरात के दक्षिणी समुद्र-तट पर प्रभास नामक तीर्थ-स्थान में प्राचीन काल से ही अति वैभवपूर्ण नगर था। यहाँ सोमनाथ (शिव) मन्दिर अपनी भव्यता और वैभव के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध था। कालान्तर में प्रभास नगर सोमनाथ नाम से ही प्रसिद्ध हो गया। लुटेरे महमूद गजनवी ने सोमनाथ पर चढ़ाई कर इसे ध्वस्त करके लूट लिया। गजनवी से लेकर औरंगजेब तक मुसलमानों ने अनेक बार इस मन्दिर पर आक्रमण किये। बार-बार इसका ध्वंस और पुनर्निर्माण होता रहा। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल के प्रयत्नों से इस मन्दिर का पुनर्निर्माण हुआ।
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==== <big>अमृतसर</big> ====
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'''इस धार्मिक स्थलों की [[पुण्यभूमि भारत - मुख्य नगर|विस्तृत जानकारी]] यहाँ पढ़ें |'''
पंजाब का धार्मिक-ऐतिहासिक नगर, जो सिख पंथ का प्रमुख तीर्थ स्थान है। इसकी नींव सिख पंथ के चौथे गुरु रामदास ने युगाब्द 4678 (1577 ई०) में डाली। मन्दिर का निर्माण-कार्य आरम्भ होने से पूर्व उसके चारों ओर उन्होंने एक ताल खुदवाना आरम्भ किया। मन्दिर के निर्माण का कार्य उनके पुत्र तथा पाँचवे गुरु अर्जुनदेव ने हरिमन्दिर बनवाकर पूरा किया। सरोवर एवं हरिमंदिर के चारों ओर द्वार रखे गये जिससे सब ओर से श्रद्धालु उसमें आ सकें। महाराजा रणजीत सिंह ने मंदिर की शोभा बढ़ाने के लिए बहुत धन व्यय किया। तब से वह स्वर्णमन्दिर कहलाने लगा। अंग्रेजी दासता के काल में 13 अप्रैल 1919 को स्वर्णमंदिर से लगभग दो फलांग की दूरी पर जलियाँवाला बाग में स्वतंत्रता की माँग कर रही एक शान्तिपूर्ण सार्वजनिक सभा पर जनरल डायर ने गोली चलवाकर भीषण नरसंहार किया था। डेढ़ हजार व्यक्ति घायल हुए अथवा मारे गये थे। वहाँ उन आत्म-बलिदानियों की स्मृति में एक स्मारक बनाया गया है। ये समस्त नदी-पर्वत-नगर—तीर्थ हमारे लिए ध्यातव्य हैं।
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=== हमारे ग्रन्थ ===
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== हमारे ग्रन्थ ==
 
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<blockquote>'''चतुर्वेदाः पुराणानि सर्वोपनिषदस्तथा। रामायणं भारतं च गीता सद्दर्शनानि च ॥ ८ ॥'''</blockquote>
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<blockquote>'''चतुर्वेदाः पुराणानि सर्वोपनिषदस्तथा। रामायणं भारतं च गीता सद्दर्शनानि च ॥ ८ ॥'''</blockquote>'''इन सभी ग्रंथो के बारे में [[हमारे ग्रन्थ|विस्तृत रूप]] से यहाँ पढ़े |'''
 
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==== <big>वेद</big> ====
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संसार का प्राचीनतम साहित्य [[Vedas (वेदाः)|वेदों]] के रूप में उपलब्ध है, जो भारतीय आर्यों के सर्वप्रधान तथा सर्वमान्य ग्रंथ तो हैं ही, समस्त धर्म, दर्शन, संस्कृति, ज्ञान, विज्ञान के मूल स्रोत भी हैं। वेद चार हैं – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद। गुरु द्वारा शिष्य को कठस्थ कराये जाने की परम्परा के कारण इन्हें [[Shruti (श्रुतिः)|श्रुति]] भी कहते हैं। वेदों का चतुर्विध विभाजन यज्ञ के चार ऋत्विजों द्वारा प्रयुक्त मंत्रों के आधार पर किया गया है: (1) होता द्वारा देवों के आह्वान या स्तुति के लिए प्रयुक्त मंत्रों का संकलन – ऋग्वेद (2) अध्वर्यु द्वारा यज्ञ-कर्म सम्पादन में उपयोगी मंत्रों का संकलन – यजुर्वेद (3) उद्गाता द्वारा सामगान में प्रयुक्त मंत्रों का संकलन – सामवेद तथा (4) सम्पूर्ण यज्ञ के अध्यक्ष या कार्यनिरीक्षक ब्रह्मा के जानने योग्य उपर्युक्त तीनों वेदों के अतिरिक्त मंत्रों का संग्रह – अथर्ववेद है। वेदों के मंत्रों में प्राय: विभिन्न देवताओं की स्तुतियाँ हैं। स्तुति वाला मंत्रभाग संहिता कहलाता है। ऋग्वेद में छंदों में पद्यबद्ध ऋचाएँ हैं, यजुर्वेद में गद्य-पद्य दोनों प्रकार के यज्ञसम्बंधी मंत्र (यजुष्) हैं, सामदेव में सस्वर गाये जाने (सामगान) वाले मंत्र हैं तथा अथर्ववेद में विविध प्रकार की विद्याओं के मंत्र हैं। मंत्र के साथ उसके ऋषि,देवता तथा छन्द का नामजुड़ा रहता है। जिस तपस्वी महापुरुष को समाधि प्रज्ञा में उस मंत्र का साक्षात्कार हुआ,उसे उसका ऋषि तथा जिस शक्ति या तत्व की स्तुति और आहवान उसमें हो उसे उस मंत्र का देवता कहते हैं। वेदों का प्रमुख प्रयोजन यज्ञों को सम्पन्न कराने में है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए यज्ञविधि का सविस्तार वर्णन करने वाले ग्रंथों को ब्राह्मण ग्रंथ कहा जाता है। यह वेद का कर्मकांड वाला भाग है। इसके अतिरिक्त आरण्यक और [[Upanishads (उपनिषदः)|उपनिषद्ग्रंथों]] का उपासना एवं ज्ञानकांड भी है, जिसे वेदांत कहते हैं। वेदों के अध्ययन में छ: शास्त्रों-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद और ज्योतिष – की सहायता ली जाती है जिन्हें वेदांग कहते हैं।
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==== <big>पुराण</big> ====
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वैदिक परम्परा के वे ग्रंथ जिनमें सृष्टि, मनुष्य, देवों, दानवों, राजाओं, महात्माओं, ऋषियों तथा मुनियों आदि के प्राचीन वृत्तांत लिपिबद्ध हैं, [[Puranas (पुराणानि)|पुराण]] कहलाते हैं। पुराणों के पाँच लक्षण या विषय कहे गये हैं : सर्ग (सृष्टि), प्रतिसर्ग (विस्तार एवं प्रलय), वंश (सूर्य वंश, चंद्र वंश), मन्वन्तर तथा वंशानुचरित। पुराणों में ब्रह्मा, विष्णु, शिव सूर्य, गणेश और शक्ति की उपासना पर बल दिया गया है। 18 पुराण प्रसिद्ध हैं : ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण, विष्णुपुराण, वायुपुराण या लिंगपुराण, वराहपुराण, स्कन्दपुराण, वामनपुराण, कुर्मपुराण, मत्स्यपुराण, गरुड़पुराण तथा ब्रह्माण्डपुराण। पुराणों के रचनाकार पराशर-पुत्र व्यास हैं, जिन्होंने अपने सूत शिष्य रोमहर्षण या लोमहर्षण (सूत जी) को पुराण विद्या में निपुण बनाया। रोमहर्षण से यह विद्या उनके पुत्र उग्रश्रवा को प्राप्त हुई। इन्हीं पिता-पुत्र ने शौनकादि सहस्त्रों ऋषियों को एक बहुत बड़े यज्ञ के समय नैमिषारण्य में अठारह पुराण सुनाये। लोमहर्षण के छ: शिष्यों और पुन: उनके शिष्यों ने भी पुराण परम्परा को आगे बढ़ाया। वर्तमान रूप में उपलब्ध पुराण परवर्ती काल में पुन: सम्पादित या पुनलिखित हो सकते हैं, जिन पर शैव, वैष्णव व शाक्त सम्प्रदायों का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
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==== <big>उपनिषद्</big> ====
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[[Upanishads (उपनिषदः)|उपनिषद्]] (उप+नि+सत्) का अर्थ है सत् तत्व के निकट जाना अर्थात् उसका ज्ञान प्राप्त करना। वेद, ब्राह्मण ग्रंथ या आरण्यकों के वे प्राय: अन्तिम— भाग जिनमें आत्मा, परमात्मा, मोक्ष आदि अध्यात्म विद्या का निरूपण है, उपनिषद् कहलाये। प्रामाणिक प्रधान उपनिषदों के नाम हैं और कौषीतकी। इनमें ईशोपनिषद् यजुर्वेद का चालीसवाँ अध्याय है, शेष का संबंध भी ब्राह्मण ग्रंथों या आरण्य कों के माध्यम से किसी न किसी वेद से है। केन और छान्दोग्य सामवेदीय उपनिषद हैं, कठ, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और श्वेताश्वतर यजुर्वेदीय उपनिषद, प्रश्न, मुण्डक और माण्डूक्य अथर्ववेदीय उपनिषद् तथा ऐतरेय और कौषीतकी ऋग्वेदीय उपनिषद हैं। [[Upanishads (उपनिषदः)|उपनिषदों]] में दो प्रकार की विद्याओं का उल्लेख है – परा विद्या और अपरा विद्या। स्वयं उपनिषदों का प्रतिपाद्य मुख्यत: पराविद्या है।
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==== <big>रामायण</big> ====
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भारत के दो श्रेष्ठ प्राचीन महाकाव्य हैं: [[Ramayana (रामायणम्)|रामायण]] और [[Mahabharata (महाभारतम्)|महाभारत]], जिन्हें इतिहास—ग्रथों की संज्ञा प्राप्त हुई है। मुनि वाल्मीकि द्वारा रचित महाकाव्य रामायण में संस्कृत भाषा में सम्पूर्ण रामकथा का वर्णन किया गया है। नरश्रेष्ठ राम और उनके परिवार के लोगोंं तथा सम्पर्क में आये व्यक्तियों के चरित्रों में भारतीय संस्कृति के उच्च जीवन-मूल्यों की रमणीक एवं भव्य झाँकी प्रस्तुत की गयी है। अन्यान्य भारतीय भाषाओं के लिए  रामायण सदैव उपजीव्य रहा है। वाल्मीकि-रामायण में वर्णित रामकथा का तुलसीदास ने रामचरितमानस के रूप में लोकभाषा अवधी में पुनलेंखन किया और उसे जन-जन तक पहुँचा दिया। बंगला की कृत्तिवासी रामायण, असमिया की माधव-कदली रामायण, तमिल की कम्ब रामायण के अतिरिक्त भी विभिन्न भारतीय भाषाओं में समय-समय पर रामायण ग्रंथों का प्रणयन होता रहा है। अध्यात्म [[Ramayana (रामायणम्)|रामायण]] और गुरु गोविन्द सिंह द्वारा रचित गोविन्द रामायण भी प्रसिद्ध हैं। अनेक जनजातियों में भी स्थानीय अंतर के साथ रामकथा प्रचलित है। भारत वर्ष का कोना-कोना राममय  है, अतः स्वाभाविक रूप से लोकगीतों में भी रामकथा गूंथी गयी है।
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==== <big>भारत (महाभारत)</big> ====
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कुष्ण द्वैपायन व्यास द्वारा रचित भारत का श्रेष्ठ महाकाव्य है जिसमें पाण्डवों और कौरवों के संघर्ष और पाण्डवों की विजय की कथा के माध्यम से धर्म की संस्थापना और अधर्म के पराभव का शाश्वत संदेश दिया गया है। श्रीमद्भगवद्गीता [[Mahabharata (महाभारतम्)|महाभारत]] का ही अंश है। यह महाकाव्य सैकड़ों उपाख्यानों का भंडार है और इसके प्रसंगों, पात्रों तथा आख्यानों को आधार बनाकर भारत की सभी भाषाओं में विपुल साहित्य-रचना हुई है। कुरुवंश और विशेषत: कौरव- पाण्डवों की मुख्य कथा के अतिरिक्त इन सैकड़ों उपकथाओं के द्वारा, मानव जीवन से जुड़ी अगणित स्थितियों,समस्याओं, सिद्धांतों और समाधानों का संयोजन इस महाकाव्य के विशाल फलक पर किया गया है। एक कथन है कि जो महाभारत में नहीं है वहअन्यत्र कहीं भी नहीं है। भारतीय संस्कृति के उच्च-जीवनादर्शों के प्रतिपादक दो श्रेष्ठ काव्यों रामायण और महाभारत में से महाभारत अधिक जटिल जीवन का चित्रण करता है, क्योंकि इसमें जीवन के सभी पक्षों को विविध आयामों में आलोकित किया गया है।
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==== <big>गीता</big> ====
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कुरुक्षेत्र में महाभारत युद्ध के समय मोहग्रस्त अर्जुन को भगवान कृष्ण ने जो उपदेश दिया था, वह [[Bhagavad Gita (भगवद्गीता)|श्रीमद्भगवद्गीता]] में संग्रहीत है। यह महाभारत के भीष्म पर्व का भाग है। इसमें आत्मा की अमरता तथा निष्काम कर्म के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। कर्मयोग, भक्तियोग, ध्यानयोग (राजयोग) और ज्ञानयोग का सुन्दर समन्वय इसमें हुआ है। इसमें 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं। गीता की गणना प्रस्थानन्त्रयी में की जाती है जिसमें इसके अतिरिक्त उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र सम्मिलित हैं। गीता पर अनेक विद्वानों तथा आचार्यों ने टीकाएँ लिखी हैं। गीता के महात्म्य में उपनिषदों को गो और गीता को उनका दुग्ध कहा गया है।
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==== <big>दर्शन</big> ====
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दर्शनशास्त्र सत्य के साक्षात्कार के उद्देश्य से किये जाने वाले बौद्धिक और आध्यात्मिक प्रयासों का शास्त्र है। आचार्य शंकर के शब्दों में श्रवण (अर्थात अध्ययन) , मनन और निदिध्यासन (ध्यान) के द्वारा आत्मस्वरूप परम सत् का साक्षात्कार 'दर्शन' है। इस शास्त्र में प्रकृति, आत्मा, परमात्मा के पर और अपर स्वरूप तथा जीवन के लक्ष्य का विवेचन होता है। वेद को आप्त (असंदिग्ध)ग्रंथ मानने वाले पारम्परिक दर्शन की छ: शाखाएँ हैं जिनमें मोक्ष प्राप्त करना जीवन का अन्तिम लक्ष्य बताया गया है। इन छ: दर्शनों के नाम हैं : न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्व- मीमांसा और उत्तर- मीमांसा (या वेदान्त) । इसके अतिरिक्त जैन और बौद्ध दर्शनों के सिद्धांतों का उद्भव भी पारम्परिक भारतीय दर्शनों के सिद्धान्तों से ही प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रेरणा लेकर हुआ है।
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== '''हमारे मार्गदर्शक  ग्रन्थ''' ==
 
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<blockquote>'''जैनागमास्त्रिपिटका गुरुग्रन्थः सतां गिरः । एष ज्ञाननिधिः श्रेष्ठः श्रद्धेयो हृदि सर्वदा ॥ ९॥'''</blockquote>
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<blockquote>'''जैनागमास्त्रिपिटका गुरुग्रन्थः सतां गिरः । एष ज्ञाननिधिः श्रेष्ठः श्रद्धेयो हृदि सर्वदा ॥ ९॥'''</blockquote>१. जैनागम ( जैन ग्रन्थ )  २.त्रिपिटक ( बौद्ध ग्रन्थ ) ३. गुरुग्रंथ ( सिख ग्रन्थ )
 
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==== <big>जैनागम</big> ====
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शैव, वैष्णव आदि अन्य सम्प्रदायों की भाँति जैन सम्प्रदाय ने भी अपने ग्रंथों को आगम, पुराण आदि में विभक्त किया है। तीर्थकरों के उपदेशों पर आधारित प्राचीनतम जैन धर्मग्रंथों में चतुर्दश पूर्व और एकादश अंग गिने जाते हैं, किन्तु पूर्व ग्रंथ अब लुप्त हो गये हैं। एकादश अंगों के पश्चात्उपांग, प्रकीर्ण सूत्र आदि की रचना की गयी है। ये अंग आगम कहलाते हैं। इनकी रचना अर्धामागधी प्राकृत भाषा में हुई है।
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==== <big>त्रिपिटक</big> ====
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बौद्ध मत के तीन मूल ग्रंथ-समूह-विनय पिटक, सुत्त पिटक और अभिधम्मपिटक, जिनमें भगवान बुद्ध के वचन और उपदेश संकलित हैं। प्रत्येक पिटक में अनेक ग्रंथ हैं, अतः इनका पिटक अर्थात् पेटी नाम पड़ा। इनमें अन्तर्निहित ग्रंथों में ब्रह्मजाल सुत, समज्जफल सुत, पोट्ठपाद सुत्त, महानिदान सुत, मज्झिम निकाय, दीघ निकाय, संयुक्त निकाय उल्लेखनीय हैं। ये सभी पालि भाषा में हैं। विशेषत: हीनयान सम्प्रदाय के ये ही प्रधान ग्रंथ हैं। विनय पिटक में संघ के नियमों का, सुत्त पिटक में बुद्ध के वार्तालापों और उपदेशों का तथा अभिधम्म पिटक में दार्शनिक विचारों का वर्णन है।
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==== <big>गुरुग्रंथ</big> ====
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'''इन ग्रंथो की विस्तृत [[बाल संस्कार - हमारे मार्गदर्शक ग्रन्थ|जानकारी के]] लिए यहाँ देखे |'''
सिख पंथ के 9 गुरुओं की वाणी का संकलन'गुरु ग्रंथ साहिब' में हुआ है। सिख गुरुओं के अतिरिक्त 24 अन्य भारतीय संतो की वाणी भी इस ग्रंथ में संग्रहीत है। सर्वप्रथम संवत् 1661 (सन् 1604) में सिख पंथ के पाँचवे गुरु अर्जुन देव जी ने गुरु ग्रंथ साहब का संकलन किया था। बाद में गुरु तेगबहादुर तक अन्य गुरुओं की वाणी भी इसमें जोड़ी गयी। दशम गुरु गोविन्द सिंह की रचनाएँ एक अलग ग्रंथ में संग्रहीत हैं,जो दशम ग्रंथ कहलाता है। दशमेश गुरुगोविन्दसिंह ने ग्रंथ साहिब को गुरुगद्दी पर आसीन कराया। स्वयं अपने साक्ष्य के अनुसार ही 'गुरु ग्रंथ साहिब' वेद, शास्त्र और स्मृतियों का निचोड़ है। उपर्युक्त ग्रंथो और साधु-सन्त-सज्जनों के उदगार – ये सब हमारी श्रेष्ठ ज्ञाननिधि हैं और हार्दिक श्रद्धा के योग्य हैं ।
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=== विदूषी महिलाएं ===
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== विदूषी महिलाएं ==
 
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[[File:Bharat Ekatmata Stotra Sachitra-page-021.jpg|center|thumb]]
<blockquote>'''अरुन्धत्यनसूया च सावित्री जानकी सती। द्रौपदी कण्णगी गार्गी मीरा दुर्गावती तथा ॥ १० ॥'''</blockquote>
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<blockquote>'''अरुन्धत्यनसूया च सावित्री जानकी सती। द्रौपदी कण्णगी गार्गी मीरा दुर्गावती तथा ॥ १० ॥'''</blockquote><blockquote>१. अरुन्धती २. अनुसूया ३. सावित्री ४. जानकी (सीता माता ) ५. सती ६.द्रोपदी  ७. कण्णगी ८.गार्गी  ९.मीरा १०.दुर्गावती </blockquote>'''इन सभी के बारे में [[प्रेरणात्मक महिलाएं|विस्तृत जानकारी]] के लिए यहाँ देखे |'''
 
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==== <big>अरुन्धती</big> ====
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ब्रह्मर्षि वसिष्ठ की धर्मपत्नी अरुन्धती की गणना श्रेष्ठ पतिव्रताओं में होती है। वे मुनि मेधातिथि की कन्या थीं। ब्रह्मदेव की प्रेरणा से पिता ने उन्हें सावित्री देवी के संरक्षण में रखा, जिनसे उन्होंने सद्विद्याएँ प्राप्त कीं। अरुन्धती न कभी अपने पति ब्रह्मर्षि वसिष्ठ से दूर रहती थीं और न किसी कर्म में उनका विरोध करती थीं। अरुन्धती के पातिव्रत्य की परीक्षा स्वयं भगवान शंकर ने ली थी जिसमें सफल रहने पर उनकी कीर्ति और भी बढ़ी। आकाश में प्रदीप्त सप्ततारामंडल रूप सप्तर्षियों के साथ अरुन्धती नक्षत्र वसिष्ठ के समीप चमकता है।
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==== <big>अनुसूया</big> ====
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सती अनुसूया अत्रि ऋषि की पत्नी थीं। घोर तपश्चर्या से भगवान शंकर को प्रसन्न कर उन्होंने भगवानदत्तात्रेय को पुत्ररूप में प्राप्त किया था। वनवास की अवधि में रामचन्द्र सीता सहित अत्रि ऋषि के आश्रम में गये थे,जहाँ ऋषि-पत्नी अनुसूया ने अपने प्रेमपूर्ण आतिथ्य से सीता को आह्लादित किया था और नारी धर्म तथा पातिव्रत्य का उपदेश दिया था। एक बार माण्डव्य ऋषि ने किसी ऋषि-पत्नी को सूर्योदय होते ही अपने विधवा हो जाने का शाप दे दिया। सती अनुसूया ने अपने तपोबल से सूर्योदय ही न होने दिया। सभी देव एवं ऋषि अनुसूया की शरण गये और सूर्योदय के स्थगन से होने वाले त्रास को दूर करने का अनुरोध किया। सती अनुसूया ने उनसे शापित स्त्री के पति को पुनर्जीवित करने का वचन लेकर शाप-मुक्त कराया औरउसके सुहाग की रक्षा की, तभी सूर्योदय होने दिया।
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==== <big>सावित्री</big> ====
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महासतियों में उल्लेखनीय देवी सावित्री ने यह जानते हुए भी कि सत्यवान् अल्पायु है, उसका ही पतिरूप में वरण किया। जब सत्यवान् की जीवन-लीला समाप्त होने में चार दिन शेष रह गये तो सावित्री ने व्रत धारण किया। चौथे दिन सत्यवान् की मृत्यु हुई और यमराज उसके प्राण ले चले। सावित्री यमराज के पीछे-पीछे चली। मार्ग में यमराज और सावित्री में प्रश्नोत्तर हुआ। यमराज सावित्री के शालीन व्यवहार, बुद्धिमत्ता और एकनिष्ठ पतिपरायणता से बहुत प्रभावित हुए। प्रसन्न होकर उन्होंने सावित्री से वर माँगने को कहा। सावित्री ने ऐसे वर माँगे जिनमें उनके मायके और ससुराल दोनों कुलों का कल्याण भी सिद्ध हुआ और यमराज को सत्यवान् के प्राण भी लौटाने पड़े। सावित्री ने अपने सतीत्व के बल पर अपने सौभाग्य की रक्षा की।
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==== <big>जानकी</big> ====
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मिथिला के राजर्षि जनक की पुत्री और मर्यादापुरुषोत्तम रामचन्द्र जी की पत्नी जानकी पातिव्रत्य का अनुपम आदर्श हैं। उन्हें जीवन में अपार कष्ट झेलने पड़े और कठिन परीक्षाओं से गुजरना पड़ा,किन्तु अपने अविचल पातिव्रत्य के बल परउन्होंने समस्त प्रतिकूलताओं को धैर्य व हर्षपूर्वक सहन किया, पति के साथ वनवास के कष्टों में आनन्द का अनुभव किया। राक्षसराज रावण उनका मनोबल डिगाने में असफल रहा। अग्नि-परीक्षा देकर सीता ने अपने शील एवं चारित्रय की निष्कलुषता सिद्ध की। वनवास की अवधि समाप्त होने के पश्चात् रामराज्य में प्रजारंजन के लिए जब राम ने सीता का परित्याग किया तो वे वन में वाल्मीकि मुनि के आश्रम में रहीं। सबको सीता के पातिव्रत्य और पवित्रता पर पूर्ण विश्वास हो गया। भूमि-पुत्री सीता ने पृथ्वी की सी सहनशीलता दिखाकर अपने नाम की सार्थकता सिद्ध की।
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==== <big>सती</big> ====
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सती दक्ष प्रजापति की कन्या थीं एवं भगवान शंकर की पत्नी। पिता दक्षराज ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया, परन्तु शिवजी के प्रति मनमुटाव के कारण समारोह में शिव-सती को निमंत्रित नहीं किया। सती अनामन्त्रित ही पिता के यहाँ जा पहुँची। वहाँ दक्ष ने शंकर के लिए अपशब्द कहे और सती को अपमानजनक व्यवहार सहना पड़ा। पति का अनादर न सह सकने के कारण सती ने यज्ञ-कुण्ड में कूद कर देह-त्याग किया। दक्षराज के व्यवहार और पत्नी की मृत्यु से क्रूद्ध होकर शंकर जी ने अपने गणों से यज्ञ का ध्वंस करा दिया और दक्ष का वध किया। बाद में सती ने पर्वतराज हिमालय की कन्या के रूप में पुनर्जन्म पाया और पार्वती कहलायी। शक्ति और चण्डी भी इन्हीं के रूप हैं। अपने इन प्रचंड रूपों में इन्होंने असुरों का संहार किया और लोक को असुर-पीड़ा से मुक्ति दिलायी। सम्पूर्ण भारतमें सती के 51 शक्तिपीठ स्थापित हैं। इनके पीछे कथा यह है कि शिव सती की मृत देह को कधे पर उठाये फिरने लगे। जहाँ-जहाँ सती के अंग गल कर गिरे, वहीं शक्तिपीठ स्थापित हुए जो अब समग्र भारत की सांस्कृतिक एकता को अपने में समेटे हुए हैं।
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==== <big>द्रौपदी</big> ====
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पान्चाल-नरेश द्रुपद की पुत्री और स्वयंवर की मत्स्यवेध प्रतिस्पर्धा में अर्जुन की विजय के पश्चात् कुरुकुल-वधू बनकर हस्तिनापुर पहुँची, द्रौपदी महाभारत का अत्यंत तेजस्वी व्यक्तित्व है। कुलवधू के रूप में अपने और पाण्डवों के भी न्यायोचित अधिकारों के लिए द्रौपदी झुककर समझौता करने को कभी तैयार नहीं हुई और अनीति व अन्याय के प्रतिशोध के लिए सदैव तत्पर रही। द्रौपदी की श्रीकृष्ण में अपार निष्ठा थी। श्रीकृष्ण को वह सगी बहिन के समान प्रिय थीं। द्रौपदी को जीवन में अनेक कष्ट और अपमान सहने पड़े। दु:शासन ने भरी सभा में वस्त्र-हरण का प्रयास कर इनकी मर्यादा भंग करनी चाही। वनवास-काल में जयद्रथ ने इनका अपहरण करने का प्रयास किया और अज्ञातवास के दिनों कीचक ने शीलहरण करना चाहा। वनवास की अवधि पूरी होने पर द्रौपदी ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने और अपने अपमान-अपराध करने वालों को दण्डित करने की प्रतिशोध ज्वाला पाण्डवों के मन में धधकायी। देदीप्यमान नारीत्व की प्रतिमूर्ति द्रौपदी का तेज भारतीय नारियों के लिए सदैव प्रेरणा-स्रोत रहेगा।
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==== <big>कण्णगी</big> ====
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कण्णगी का नाम पातिव्रत्य एवं सतीत्व के अनुपम उदाहरण के रूप में लिया जाता है। दक्षिण भारत में तमिलनाडु प्रदेश के वंजिननगरम् नामक एक प्राचीन स्थान में कण्णगी का मन्दिर है। प्रसिद्ध तमिल कवि इलगो के काव्यग्रंथ 'शिलप्पधिकारम्' में कण्णगी के पातिव्रत्य का अनुपम चरित्र निरूपित हुआ है। इनके पति कोवलन् ने माधवी नाम की एक वारांगना के प्रेमपाश में बँधकर अपना सब कुछ गंवा दिया। विपन्न बना कोवलन कण्णगी को संग लेकर काम-धंधे की आशा में मदुरइ नगरी में पहुँचा। वहाँ के राजा ने कोवलन पर चोरी का मिथ्या आरोप लगाकर उसे प्राणदण्ड दे दिया। कण्णगी ने अग्नि देवता से अनुरोध किया कि वृद्ध, बालक, सज्जन, पतिव्रता और धार्मिक लोगोंं को छोड़कर शेष मदुरई नगरी को भस्म कर दें। सती कण्णगी के क्रोधावेश से मदुरई नगरी भस्म हो गयी।
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==== गार्गी ====
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वचक्नु ऋषि की विदुषी कन्या गार्गी ब्रह्मविद्या के अपने ज्ञान के कारण ब्रह्मवादिनी कहलाती थीं। राजा जनक की यज्ञशाला में ब्रह्मज्ञानी याज्ञवल्क्य के साथ दार्शनिक वाद-विवाद में इन्होंने भाग लिया। बृहदारण्यक उपनिषद् में याज्ञवल्क्य-गार्गी संवाद मिलता है। प्राचीन भारत में स्त्रियाँ नाना प्रकार की विद्याओं को प्राप्त किया करती थीं, यज्ञ आदि के सार्वजनिक समारोहों तथा शास्त्रार्थ में भी भाग लिया करती थीं। बौद्धिक कार्यकलाप तथा ज्ञान के क्षेत्र में उनकी भागीदारी में कोई अवरोध या प्रतिबन्ध नहीं था, यह गार्गी के जीवन-वृत्त से भलीभाँति प्रमाणित होता है।
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==== <big>मीरा</big> ====
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श्रीकृष्ण के अनुराग में रंगी मीरा युगाब्द 47वीं (ई० 16वीं) शताब्दी की विख्यात भगवद्भक्त थीं। सम्पूर्ण भारत, विशेष रूप से हिन्दीभाषी क्षेत्र, मीरा के कृष्णभक्ति और कृष्ण-प्रेम के पदों से गुंजारित रहा है। रत्नसिंह राठौर की कन्या मीरा को बचपन से ही कृष्णभक्ति की लौ लग गयी थी। इनका विवाह महाराणा के पुत्र भोजराज के साथ हुआ था, किन्तु मीरा का मन कुष्णानुराग में डुबा था। ये सदैव भगवद्भक्ति में मग्न रहतीं। मन्दिरों और सन्त-मंडली के मध्य अपने ही रचे हुए भक्तिगीत के पदों का भावपूर्ण गायन और विभोर होकर नृत्य करती थीं। पति भोजराज की मृत्यु के बाद देवर विक्रमाजित ने अपनी भाभी को इस भक्ति-पथ से परावृत कर लोक-जीवन की ओर मोड़ना चाहा। उनका मन्दिर आदि सार्वजनिक स्थानों पर गाना और नाचना विक्रमाजित को अपने राजकुल की मर्यादा के प्रतिकूल प्रतीत होता था। कृष्ण-प्रेम का हठ त्यागने को बाध्य करने के लिए मीरा को अनेक कष्ट दिये गये, जिन्हें मीरा ने हँसते-हँसते झेला पर उनकी प्रेम-अनन्यता में कोई अंतर नहीं आया। 'मेरे तो गिरिधर गोपाल, दूसरो न कोई' उनके जीवन का सरगम था। उनके पद अपनी भाव-प्रवणता में अनुपम हैं।
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==== <big>दुर्गावती</big> ====
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कलि संवत् की 47वीं (ईसा की 16 वीं) शताब्दी की भारतीय वीरांगना, जिसने यवनसेना से अत्यंत साहस और वीरतापूर्वक टक्कर ली और अंत में अपने शरीर को पापी शत्रुओं का स्पर्श न हो, यह विचारकर अपने खड्ग से आत्मबलिदान कर वीरगति पायी। गढ़ मंडला के राजा दलपतिशाह की मृत्यु हो जाने पर उनके राज्य पर संकट आ पड़ा था। मुगल बादशाह अकबर ने गढ़ मंडला पर अधिकार करने के लिए भारी सेना भेजी थी। हाथी पर सवार होकर रानी दुर्गावती अत्यंत वीरता से जूझीं तथा अपने सैनिकों को बराबर प्रेरित करती रहीं। दुर्भाग्य से आंतरिक फूट के कारण आत्मरक्षा करना संभव न हो सका। मुगलों की साम्राज्य पिपासा का प्रतिकार करने वाली वीरांगनाओं में दुर्गावती का ऊँचा स्थान है।
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== महिला वीरांगनाये ==
 
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<blockquote>'''लक्ष्मीरहल्या चेन्नम्मा रुद्रमाम्बा सुविक्रमा । निवेदिता सारदा च प्रणम्या मातृदेवता: ॥ ११ ॥'''</blockquote>
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<blockquote>'''लक्ष्मीरहल्या चेन्नम्मा रुद्रमाम्बा सुविक्रमा । निवेदिता सारदा च प्रणम्या मातृदेवता: ॥ ११ ॥'''</blockquote>१.रानी लक्ष्मीबाई २. अहल्याबाई होलकर ३. चन्नम्मा ४.रुद्रमाम्बा  ५. निवेदिता ६. सारदा
 
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==== <big>रानी लक्ष्मीबाई</big> ====
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स्वातंत्र्य-हेतु अंग्रेजों से जूझते हुए वीरगति पाने वाली, युगाब्द 4958 (ई० 1857) के प्रथम स्वातंत्र्य समर की वीरांगना। ये मराठा पेशवा के आश्रित मोरोपंत ताम्बे की कन्या थीं और झाँसी के राजा गंगाधरराव की रानी। राजा की अकालमृत्यु हो जाने परईस्ट इण्डिया कम्पनी सरकार ने इनके दत्तकपुत्र के अधिकार को अमान्य कर झाँसी राज्य को कम्पनी के अधिकार में लेने की घोषणा की। इस अन्याय और अपमान का रानी लक्ष्मीबाई ने कठोर प्रतिकार किया। युगाब्द 4958 (सन् 1857) के स्वातंत्र्य-समर में वे भी कूद पड़ीं। अंग्रेजों से जूझते हुए रानी झाँसी से निकलकर ग्वालियर की ओर बढ़ीं और ग्वालियर का किला जीत लिया। ग्वालियर का राजा मराठा सामन्त होते हुए भी अंग्रेजों के विरुद्ध स्वाधीनता-सेनानियों की कोई सहायता न करके अंग्रेजों का ही साथ दे रहा था। वहाँ से रानी घोड़े पर सवार हो किले से बाहर निकल पड़ीं। मार्ग में एक नदी के किनारे वे अंग्रेज सैनिकों से घिर गयीं। अन्तिम क्षण तक शत्रुओं को मौत के घाट उतारते हुए अंतत: उस वीरांगना ने युद्धभूमि में ही वीरगति पायी। रानी लक्ष्मीबाई असाधारण शौर्य, धैर्य, संगठन-कुशलता, देशप्रेम और निर्भयता की प्रतीक हैं।
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==== <big>अहल्या (अहल्याबाई होलकर)</big> ====
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देव-मन्दिरों का जीर्णोद्धार कर भारतीय संस्कृति की रक्षा करने वाली न्याय-परायणा, नीति-निपुणा, प्रजावत्सला रानी अहल्याबाई होलकर माणकोजी शिन्दे नामक पटेल की कन्या और इन्दौर के राजा मल्हारराव होलकर के पुत्र खण्डेराव की पत्नी थीं। खण्डेराव कुंभेरी की लड़ाई में मारे गये। अहल्याबाई अपने पुत्र भालेराव के नाम से राजकाज की देखभाल करती थीं। भालेराव भी शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त हो गया, अत: रानी इन्दौर की शासिका बनीं। पूना में उस समय छलपूर्वक पेशवा बन बैठे रघुनाथराव ने अहल्याबाई का राज्य भी हस्तगत करना चाहा, परन्तु रानी की राजनीति के कारण उसकी लालसा पूरी नहीं हो सकी। अहल्याबाई ने तीस वर्षों तक राज्य किया। उन्होंने लोकोपयोगी कार्यों पर उदार मन से धन व्यय किया और काशी-विश्वेश्वर, सोरटी-सोमनाथ, विष्णुपदी (गया),परली-बैजनाथ आदि महान् मन्दिरों का जीर्णोद्धार किया।
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==== <big>चन्नम्मा</big> ====
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इतिहास में चन्नम्मा नाम की दो वीरांगनाएँ प्रसिद्ध हैं। इनमें से एक केलदी की रानी थी और दूसरी कित्तूर की रानी। औरंगजेब ने शिवाजी के प्रथम पुत्र सम्भाजी की हत्या करने के बाद उनके दूसरे पुत्र राजाराम का पीछा किया। इस संकट के समय केलदी की रानी चन्नम्मा ने राजाराम को अपने किले में आश्रय देकर नवोदित शिवराज्य का परोक्षत: संरक्षण किया तथा अपने सैन्य बल से मुगलों का प्रतिकार किया।
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कित्तूर (कर्नाटक में एक जागीर) की रानी चन्नम्मा ने अपने पति की अकाल-मृत्यु के बाद अंग्रेजों की कित्तूर को हड़पने की योजना को विफल करने के लिए अंग्रेजों से डटकर टक्कर ली थी। अंग्रेज चन्नम्मा से संधि करने को विवश हुए। बाद में अंग्रेजों ने छल करके चन्नम्मा को बंदी बनाकर बेलहोंगल के किले में रखा। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के समान इन दोनों रानियों ने स्वातंत्र्य-हेतु जीवन उत्सर्ग किया।
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==== <big>रुद्रमाम्बा (रुद्राम्बा)</big> ====
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आन्ध्र के काकतीय शासकों में छठे राजा गणपति देव की इकलौती पुत्री, जिसने पिता के मरणोपरान्त राज्य-भार संभाला (युगाब्द 44वीं (ई०13 वीं शती))। पिता ने अपनी पुत्री को राज्यकार्य की समुचित शिक्षा दी थी। पिता के साथ जययात्राओं में भाग लेकर इन्होंने अपनी वीरता की छाप छोड़ी थी। किन्तु एक स्त्री राज्यसिंहासन पर बैठे, यह सामन्तों और माण्डलिकों को सहन न हो सका। उन्होंने विद्रोह किया। सीमावर्ती राजाओं को भी यह स्वर्ण अवसर जान पड़ा। वीर नारी रुद्राम्बा ने इन सारे विरोधियों को पराभूत कर अपनी रणदक्षता का प्रमाण दिया। रुद्राम्बा का विवाह चालुक्य नरेश वीरभद्र से हुआ। इन्होंने दो दशकों तक काकतीय साम्राज्य का कुशल संचालन किया।
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==== <big>निवेदिता</big> ====
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ये आयरिश महिला थीं। इनका मूल नाम कुमारी मार्गरेट नोबेल था। स्वामी विवेकानन्द के व्यक्तित्व से प्रभावित और प्रेरित होकर ये उनकी शिष्या बनीं और युगाग्द 4999 (1898 ई०) में भारत आयीं। स्वामी जी ने उनका नाम भगिनी निवेदिता रख दिया। इन्होंने हिन्दू धर्म का सार आत्मसात् किया और अपने लेखन तथा वाणी द्वारा हिन्दूधर्म की श्रेष्ठता सिद्ध की। भारत आकर वे दीन-दुखियों की सेवा में लग गयीं। भगिनी निवेदिता ने क्रांतिकारियों को भी प्रेरणा और मार्गदर्शन प्रदान किया। भारतीय संस्कृति और धर्म से वे पूर्ण एकात्म और समरस हो गयी थीं। भारत में आधुनिक नवजागरण के प्रयत्नों में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। उन्होंने Web of Indian Life आदि उत्कृष्ट ग्रंथों की भी रचना की।
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==== <big>सारदा</big> ====
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'''इन सभी के बारे में [[महिला वीरांगनाएँ|विस्तृत जानकारी]] के लिए यहाँ देखे |''' 
माँ सारदा श्री रामकृष्ण परमहंस की धर्मपत्नी थीं। अपने जीवन को वीतराग पति के अनुरूप ढालकर वे सच्चे अर्थ में उनकी सहधर्मचारिणी बनीं। परमहंस और सारदा माँ का संबंध लौकिक न होकर देहभाव से नितांत परे अलौकिक आध्यात्मिक था। श्री रामकृष्ण सारदा को माँ जगदम्बा के रूप में देखते थे और ये उन्हें जगदीश्वर समझती थीं। श्री रामकृष्ण के समाधिस्थ होने के बाद इन्होंने विवेकानन्द आदि उनके शिष्यों का पुत्रवत् पालन किया। स्वयं अपने जीवन की आध्यात्मिक साँचे में ढालकर माँ सारदा ने अपने पति के शिष्यों को भी आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्रदान किया।
      
=== अनुकरणीय व्यक्तित्व ===
 
=== अनुकरणीय व्यक्तित्व ===
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==== <big>पाणिनी</big> ====
 
==== <big>पाणिनी</big> ====
महान् वैयाकरण एवं भाषा-विज्ञानी। इनका रचा व्याकरण-ग्रंथ 'अष्टाध्यायी' प्रचलित संस्कृत व्याकरण का आधार ग्रंथ है। प्रत्याहार एवं शब्दानुशासन, धातुपाठ, गणपाठ, उणादि सूत्र और लिंगानुशासन पाणिनीय व्याकरण के पाँच विभाग हैं। अष्टाध्यायी की रचना ईसा से सात सौ वर्ष पूर्व की प्रमाणित हुई है। पाणिनि के जीवन से संबंधित जानकारी अब भी अत्यल्प है। वे तक्षशिला के निकट शलातुर ग्राम में रहते थे। उनके असाधारण कार्य के स्वरूप को देखते हुए लगता है कि उन्होंने सम्पूर्ण देश की यात्रा करके शब्द-सम्पदा का चयन और भाषा-प्रयोग का व्यापक अध्ययन किया होगा। उनकी मृत्यु शायद व्याघ्र द्वारा हुई।  
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महान् वैयाकरण एवं भाषा-विज्ञानी। इनका रचा व्याकरण-ग्रंथ 'अष्टाध्यायी' प्रचलित संस्कृत व्याकरण का आधार ग्रंथ है। प्रत्याहार एवं शब्दानुशासन, धातुपाठ, गणपाठ, उणादि सूत्र और लिंगानुशासन पाणिनीय व्याकरण के पाँच विभाग हैं। अष्टाध्यायी की रचना ईसा से सात सौ वर्ष पूर्व की प्रमाणित हुई है। पाणिनि के जीवन से संबंधित जानकारी अब भी अत्यल्प है। वे तक्षशिला के निकट शलातुर ग्राम में रहते थे। उनके असाधारण कार्य के स्वरूप को देखते हुए लगता है कि उन्होंने सम्पूर्ण देश की यात्रा करके शब्द-सम्पदा का चयन और भाषा-प्रयोग का व्यापक अध्ययन किया होगा। उनकी मृत्यु संभवतः व्याघ्र द्वारा हुई।  
    
पाणिनीय व्याकरण 14 माहेश्वर सूत्रों के आधार पर प्रतिष्ठित है, जिनके बारे में किंवदन्ती है कि वे भगवान शिव के डमरू से निकले और शंकर के आदेश पर ही पाणिनि ने उन सूत्रों को आधार बनाकर व्याकरण-रचना की। सम्भव है कि पाणिनि के गुरु का नाम महेश्वर रहा हो जिन्होंने इन सूत्रों की रचना कर इनके आधार पर शेष कार्य करने का आदेश उन्हें दिया हो। पाणिनीय व्याकरण में शब्दोच्चारण का ध्वनिविज्ञान इतना उत्कृष्ट और परिपूर्ण है कि आज के ध्वनि-वैज्ञानिकों को भी दाँतों तले अंगुली दबानी पड़ती है। आज से ढाई सहस्त्र वर्ष से भी पूर्व भारत में विज्ञान के एक अंग की अत्युन्नत स्थिति किसी को भी सोचने के लिए विवश कर देने वाली है। आज माना जा रहा है कि संगणकों (कम्पूटर) के लिए मध्यवर्ती भाषा के रूप में संस्कृत ही सर्वाधिक योग्य भाषा है। उत्तम व्याकरण के द्वारा संस्कृत के उन्नत स्वरूप को सुरक्षित करने में पाणिनि का योगदान अनुपम है।  
 
पाणिनीय व्याकरण 14 माहेश्वर सूत्रों के आधार पर प्रतिष्ठित है, जिनके बारे में किंवदन्ती है कि वे भगवान शिव के डमरू से निकले और शंकर के आदेश पर ही पाणिनि ने उन सूत्रों को आधार बनाकर व्याकरण-रचना की। सम्भव है कि पाणिनि के गुरु का नाम महेश्वर रहा हो जिन्होंने इन सूत्रों की रचना कर इनके आधार पर शेष कार्य करने का आदेश उन्हें दिया हो। पाणिनीय व्याकरण में शब्दोच्चारण का ध्वनिविज्ञान इतना उत्कृष्ट और परिपूर्ण है कि आज के ध्वनि-वैज्ञानिकों को भी दाँतों तले अंगुली दबानी पड़ती है। आज से ढाई सहस्त्र वर्ष से भी पूर्व भारत में विज्ञान के एक अंग की अत्युन्नत स्थिति किसी को भी सोचने के लिए विवश कर देने वाली है। आज माना जा रहा है कि संगणकों (कम्पूटर) के लिए मध्यवर्ती भाषा के रूप में संस्कृत ही सर्वाधिक योग्य भाषा है। उत्तम व्याकरण के द्वारा संस्कृत के उन्नत स्वरूप को सुरक्षित करने में पाणिनि का योगदान अनुपम है।  
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==== <big>शंकराचार्य</big> ====
 
==== <big>शंकराचार्य</big> ====
मालाबार (केरल के कालडी ग्राम में जन्मे महान् दार्शनिक [युगाब्द 2593-2625(ई०पू० 509-477)]। बत्तीस वर्ष की अल्पायु में देहावसान होने से पूर्व इन्होंने जो-जो कार्य कर दिखाये, उनका कोई समतुल्य नहीं। आचार्य शंकर ने गीता, ब्रह्मसूत्र और उपनिषदों पर अत्युच्च कोटि के भाष्य लिखे, दक्षिण से उत्तर, पश्चिम से पूर्व, सारे देश की यात्राएँ कर शास्त्रार्थ में सब ओर दिग्विजय प्राप्त की और चारों दिशाओं में देश के चार कोनों में मठ स्थापित किये, जो राष्ट्रीय एकता के दिक्पाल बनकर खड़े हैं। बौद्ध मत में विकार आ जाने पर उसे प्रभावहीन बनाकर, वैदिक परम्परा की पुन:स्थापना करने में शंकर की महान भूमिका रही है। उन्होंने ब्रह्म को एकमात्र सत्य माना और अद्वैत मत एवं मायावाद का प्रतिपादन किया। इस मत पर उनका मुख्य ग्रंथ '''शारीरक भाष्य''' नाम से प्रसिद्ध है। आचार्य शंकर के विराधी उनको प्रच्छन्न बौद्ध कहते थे, क्योंकि उन्हें शंकर के अद्वैतवाद में बौद्धों के शून्यवाद की झलक दिखाई देती थी। दूसरी बात यह भी थी कि शंकराचार्य महात्मा बुद्ध का बहुत आदर करते थे। शंकराचार्य ने वेदान्त दर्शन को नवचैतन्य प्रदान किया और देश को सांस्कृतिक एकता में आबद्ध किया। अखिल भारतीय स्तर पर लोगोंं के व्यापक मेल-मिलाप के कारण भूत कुम्भ मेले की विच्छिन्न हुई परम्परा और तीर्थयात्राओं को उन्होंने फिर से प्रारम्भ कराया और शैव, वैष्णव, शाक्त, गाणपत्य आदि के पारस्परिक मतभेदों को मिटाते हुए मन्दिरों में सर्वमान्य पंचायतन पूजा की पद्धति डाली। अपने दार्शनिक विचारों में संसार को मिथ्या मानते हुए भी, मातृभूमि के कण-कण में पुण्यभूमि का भाव जगाते हुए आचार्य शंकर अपनी देशयात्रा में पड़ने वाले नदी-पर्वतादि की स्तुति में काव्य-रचना करते चलते थे। पिता शिवगुरु और माता आर्याम्बा के ऐसे अद्भुत, मेधावी, अद्भुतकर्मा पुत्र ने आठ वर्ष की आयु में ही संन्यास ले लिया था। इनके गुरु गोविन्द भगवत्पाद प्रसिद्ध अद्वैतवादी चिन्तक गौड़पादाचार्य के शिष्य थे।  
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मालाबार (केरल के कालडी ग्राम में जन्मे महान् दार्शनिक [युगाब्द 2593-2625(ई०पू० 509-477)]। बत्तीस वर्ष की अल्पायु में देहावसान होने से पूर्व इन्होंने जो-जो कार्य कर दिखाये, उनका कोई समतुल्य नहीं। आचार्य शंकर ने गीता, ब्रह्मसूत्र और उपनिषदों पर अत्युच्च कोटि के भाष्य लिखे, दक्षिण से उत्तर, पश्चिम से पूर्व, सारे देश की यात्राएँ कर शास्त्रार्थ में सब ओर दिग्विजय प्राप्त की और चारों दिशाओं में देश के चार कोनों में मठ स्थापित किये, जो राष्ट्रीय एकता के दिक्पाल बनकर खड़े हैं। बौद्ध मत में विकार आ जाने पर उसे प्रभावहीन बनाकर, वैदिक परम्परा की पुन:स्थापना करने में शंकर की महान भूमिका रही है। उन्होंने ब्रह्म को एकमात्र सत्य माना और अद्वैत मत एवं मायावाद का प्रतिपादन किया। इस मत पर उनका मुख्य ग्रंथ '''शारीरक भाष्य''' नाम से प्रसिद्ध है। आचार्य शंकर के विराधी उनको प्रच्छन्न बौद्ध कहते थे, क्योंकि उन्हें शंकर के अद्वैतवाद में बौद्धों के शून्यवाद की झलक दिखाई देती थी। दूसरी बात यह भी थी कि शंकराचार्य महात्मा बुद्ध का बहुत आदर करते थे। शंकराचार्य ने वेदान्त दर्शन को नवचैतन्य प्रदान किया और देश को सांस्कृतिक एकता में आबद्ध किया। अखिल भारतीय स्तर पर लोगोंं के व्यापक मेल-मिलाप के कारण भूत [[Kumbh Mela (कुम्भ मेला)|कुम्भ मेले]] की विच्छिन्न हुई परम्परा और तीर्थयात्राओं को उन्होंने फिर से प्रारम्भ कराया और शैव, वैष्णव, शाक्त, गाणपत्य आदि के पारस्परिक मतभेदों को मिटाते हुए मन्दिरों में सर्वमान्य पंचायतन पूजा की पद्धति डाली। अपने दार्शनिक विचारों में संसार को मिथ्या मानते हुए भी, मातृभूमि के कण-कण में पुण्यभूमि का भाव जगाते हुए आचार्य शंकर अपनी देशयात्रा में पड़ने वाले नदी-पर्वतादि की स्तुति में काव्य-रचना करते चलते थे। पिता शिवगुरु और माता आर्याम्बा के ऐसे अद्भुत, मेधावी, अद्भुतकर्मा पुत्र ने आठ वर्ष की आयु में ही संन्यास ले लिया था। इनके गुरु गोविन्द भगवत्पाद प्रसिद्ध अद्वैतवादी चिन्तक गौड़पादाचार्य के शिष्य थे।  
    
==== <big>मध्वाचार्य</big> ====
 
==== <big>मध्वाचार्य</big> ====
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==== <big>कबीर</big> ====
 
==== <big>कबीर</big> ====
कलियुग की 46वीं (अर्थात् ईसा की 15वीं) शताब्दी में काशी में जन्मे महात्मा कबीर प्रसिद्ध संत, कवि तथा समाज-सुधारक थे। इनका जन्म शायद हिन्दूघर में तथा पालन-पोषण मुस्लिम परिवार में हुआ। ये स्वामी रामानन्द के शिष्य बने। निर्गुण बह्म के उपासक कबीर स्वभाव के फक्कड़ और वाणी के स्पष्टवक्ता थे। उन्होंने सामाजिक रूढ़ियों, मूर्तिपूजा, छुआछूत और जाति-पाँति का तीव्र खंडन किया। उन्होंने ईश्वर को अपने अन्तर में खोजने का उपदेश दिया, संसार के प्रपंच में फंसे मनुष्य को ईश्वरोन्मुख करने के उद्देश्य से माया की कठोर भर्त्सना की। बाह्याडम्बरों का विरोध कर कबीर ने सच्ची मानसिक उपासना का मार्ग दिखाया। उन्होंने साखी (दोहे) और पद रचे, जो लोक में दूर-दूर तक व्याप्त हो गये। ‘बीजक' में कबीर की वाणी का संकलन है। उनकी मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने कबीरपंथ नाम से एक सम्प्रदाय स्थापित किया।  
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कलियुग की 46वीं (अर्थात् ईसा की 15वीं) शताब्दी में काशी में जन्मे महात्मा कबीर प्रसिद्ध संत, कवि तथा समाज-सुधारक थे। इनका जन्म संभवतः हिन्दूघर में तथा पालन-पोषण मुस्लिम परिवार में हुआ। ये स्वामी रामानन्द के शिष्य बने। निर्गुण बह्म के उपासक कबीर स्वभाव के फक्कड़ और वाणी के स्पष्टवक्ता थे। उन्होंने सामाजिक रूढ़ियों, मूर्तिपूजा, छुआछूत और जाति-पाँति का तीव्र खंडन किया। उन्होंने ईश्वर को अपने अन्तर में खोजने का उपदेश दिया, संसार के प्रपंच में फंसे मनुष्य को ईश्वरोन्मुख करने के उद्देश्य से माया की कठोर भर्त्सना की। बाह्याडम्बरों का विरोध कर कबीर ने सच्ची मानसिक उपासना का मार्ग दिखाया। उन्होंने साखी (दोहे) और पद रचे, जो लोक में दूर-दूर तक व्याप्त हो गये। ‘बीजक' में कबीर की वाणी का संकलन है। उनकी मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने कबीरपंथ नाम से एक सम्प्रदाय स्थापित किया।  
    
==== <big>गुरु नानक</big> ====
 
==== <big>गुरु नानक</big> ====
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'गीतांजलि' पर युगाब्द 5014 (ई० 1913) में नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर [कलियुगाब्द 4962-5043 (1861-1942 ई०)] बंगला साहित्य में नवयुग के प्रवर्तक थे। उनके पिता देवेन्द्रनाथ ठाकुर बंगाल के प्रसिद्ध और आदरणीय ब्रह्मसमाजी थे। साहित्यिक रुचि सम्पन्न सुसंस्कृत परिवार में जन्मे रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बंगला वाडमय की अपूर्व श्री वृद्धि की। बंगभंग के विरुद्ध जब बंगाल में आन्दोलन का प्रवर्तन हुआ तो रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने उत्कुष्ट देशभक्तिपूर्ण कविताओं की रचना की। उन्होंने इंग्लैंड, चीन, जापान आदि देशों का प्रवास और पाश्चात्य साहित्य का गहन अध्ययन किया था। शिक्षा के क्षेत्र में भी उनका योगदान विशिष्ट रहा। वे 'विश्वभारती' और 'शांतिनिकेतन' संस्थाओं के संस्थापक थे। कहानी और कविता ही नहीं, रवीन्द्र-संगीत भी उनकी अनुपम देन है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने विश्व को भारतीय संस्कृति के सार्वभौम स्वरूप से परिचित कराया।  
 
'गीतांजलि' पर युगाब्द 5014 (ई० 1913) में नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर [कलियुगाब्द 4962-5043 (1861-1942 ई०)] बंगला साहित्य में नवयुग के प्रवर्तक थे। उनके पिता देवेन्द्रनाथ ठाकुर बंगाल के प्रसिद्ध और आदरणीय ब्रह्मसमाजी थे। साहित्यिक रुचि सम्पन्न सुसंस्कृत परिवार में जन्मे रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बंगला वाडमय की अपूर्व श्री वृद्धि की। बंगभंग के विरुद्ध जब बंगाल में आन्दोलन का प्रवर्तन हुआ तो रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने उत्कुष्ट देशभक्तिपूर्ण कविताओं की रचना की। उन्होंने इंग्लैंड, चीन, जापान आदि देशों का प्रवास और पाश्चात्य साहित्य का गहन अध्ययन किया था। शिक्षा के क्षेत्र में भी उनका योगदान विशिष्ट रहा। वे 'विश्वभारती' और 'शांतिनिकेतन' संस्थाओं के संस्थापक थे। कहानी और कविता ही नहीं, रवीन्द्र-संगीत भी उनकी अनुपम देन है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने विश्व को भारतीय संस्कृति के सार्वभौम स्वरूप से परिचित कराया।  
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==== '''<big>रामतीर्थ</big>''' ====
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==== <big>रामतीर्थ</big> ====
 
गोस्वामी तुलसीदास के कुल में जन्मे [कलि सं० 4964-5007 (1873-1906)], पंजाब के गुजराँवाला जिले के तीर्थराम ने 28 वर्ष की आयु में महाविद्यालय के व्याख्याता पद से त्यागपत्र देकर संन्यास-दीक्षा ली और रामतीर्थ नाम से प्रख्यात हुए। उन्होंने वेदान्त-प्रचार का अमित कार्य किया, विशेष रूप से विदेशों में। स्वामी विवेकानन्द के समान उन्होंने भी विदेशों में घूम-घूमकर वेदान्त-चर्चा की और अनेक पाश्चात्य लोगोंं को अपना अनुयायी बनाया। उर्दू तथा फारसी पर उनका प्रारम्भ से ही प्रभुत्व रहा; संस्कृत का अध्ययन किया; गणित विषय के तो वे प्राध्यापक रहे। ऋषिकेश के समीप वन में कठिन तपस्या की। उन्होंने देशभक्ति, निर्भयता तथा अद्वैत वेदान्त मत का प्रचार किया। अध्यात्मनिष्ठ, भक्तिमय जीवन बिताते हुए, भारतीय वेदान्त की ज्योति देश-विदेश में जला कर 33 वर्ष की आयु में स्वामी रामतीर्थ ने गंगा में जलसमाधि ले ली।  
 
गोस्वामी तुलसीदास के कुल में जन्मे [कलि सं० 4964-5007 (1873-1906)], पंजाब के गुजराँवाला जिले के तीर्थराम ने 28 वर्ष की आयु में महाविद्यालय के व्याख्याता पद से त्यागपत्र देकर संन्यास-दीक्षा ली और रामतीर्थ नाम से प्रख्यात हुए। उन्होंने वेदान्त-प्रचार का अमित कार्य किया, विशेष रूप से विदेशों में। स्वामी विवेकानन्द के समान उन्होंने भी विदेशों में घूम-घूमकर वेदान्त-चर्चा की और अनेक पाश्चात्य लोगोंं को अपना अनुयायी बनाया। उर्दू तथा फारसी पर उनका प्रारम्भ से ही प्रभुत्व रहा; संस्कृत का अध्ययन किया; गणित विषय के तो वे प्राध्यापक रहे। ऋषिकेश के समीप वन में कठिन तपस्या की। उन्होंने देशभक्ति, निर्भयता तथा अद्वैत वेदान्त मत का प्रचार किया। अध्यात्मनिष्ठ, भक्तिमय जीवन बिताते हुए, भारतीय वेदान्त की ज्योति देश-विदेश में जला कर 33 वर्ष की आयु में स्वामी रामतीर्थ ने गंगा में जलसमाधि ले ली।  
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==== <big>विवेकानन्द</big> ====
 
==== <big>विवेकानन्द</big> ====
 
विदेशों में हिन्दूधर्म की कीर्ति पताका फहराने वाले, स्वदेश में वेदान्त की युगानुरूप व्याख्या कर हताश एवं विभ्रान्त समाज में उत्साह, स्फूर्ति और बल का संचार करने वाले तथा भारतीय संस्कृति के अध्यात्म तत्व का व्यावहारिक प्रतिपादन करने वाले स्वामी विवेकानन्द [युगाब्द 4963-5003 (1863-1902 ई०)] का बचपन का नाम नरेन्द्र था। बालक नरेन्द्र खेल तथा अध्ययन दोनों में ही प्रवीण था और ईश्वर के विषय में उसके मन में तीव्र जिज्ञासा थी। रामकृष्ण परमहंस के दर्शन और आशीर्वाद से नरेन्द्र को ईश्वर का साक्षात्कार हुआ और मन की शंकाओं का समाधान हुआ। वे विवेकानन्द बन गये। युगाब्द 4994 (ई०1893) में अमेरिका में आयोजित 'सर्वधर्म सम्मेलन' में हिन्दूधर्म के प्रतिनिधि के रूप में भाग लेकर अपनी ओजस्वी वक्तृता से वेदान्त की अनुपम ज्ञान-सम्पदा का रहस्योद्घाटन करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने पश्चिम के मानस में हिन्दूधर्म के प्रति आकर्षण और रुचि उत्पन्न की। स्वदेश में भ्रमण कर स्वामी जी ने मानव-सेवा को ईश्वर-सेवा का पर्याय बताया। गुरुभाइयों के साथ मिलकर उन्होंने  'रामकृष्ण मिशन' की स्थापना की और धर्म-जागृति तथा सेवा पर आग्रह रखा। 39 वर्ष के अल्प जीवनकाल में स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दुत्व के नवोन्मेष का महान् कार्य किया।  
 
विदेशों में हिन्दूधर्म की कीर्ति पताका फहराने वाले, स्वदेश में वेदान्त की युगानुरूप व्याख्या कर हताश एवं विभ्रान्त समाज में उत्साह, स्फूर्ति और बल का संचार करने वाले तथा भारतीय संस्कृति के अध्यात्म तत्व का व्यावहारिक प्रतिपादन करने वाले स्वामी विवेकानन्द [युगाब्द 4963-5003 (1863-1902 ई०)] का बचपन का नाम नरेन्द्र था। बालक नरेन्द्र खेल तथा अध्ययन दोनों में ही प्रवीण था और ईश्वर के विषय में उसके मन में तीव्र जिज्ञासा थी। रामकृष्ण परमहंस के दर्शन और आशीर्वाद से नरेन्द्र को ईश्वर का साक्षात्कार हुआ और मन की शंकाओं का समाधान हुआ। वे विवेकानन्द बन गये। युगाब्द 4994 (ई०1893) में अमेरिका में आयोजित 'सर्वधर्म सम्मेलन' में हिन्दूधर्म के प्रतिनिधि के रूप में भाग लेकर अपनी ओजस्वी वक्तृता से वेदान्त की अनुपम ज्ञान-सम्पदा का रहस्योद्घाटन करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने पश्चिम के मानस में हिन्दूधर्म के प्रति आकर्षण और रुचि उत्पन्न की। स्वदेश में भ्रमण कर स्वामी जी ने मानव-सेवा को ईश्वर-सेवा का पर्याय बताया। गुरुभाइयों के साथ मिलकर उन्होंने  'रामकृष्ण मिशन' की स्थापना की और धर्म-जागृति तथा सेवा पर आग्रह रखा। 39 वर्ष के अल्प जीवनकाल में स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दुत्व के नवोन्मेष का महान् कार्य किया।  
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=== समाज सुधारक एवं गणमान्य नेतागण ===
 
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<blockquote>'''<big>दादाभाई गोपबन्धु: तिलको गान्धिरादूता: । रमणो मालवीयश्च श्री सुब्रह्मण्यभारती।29 ॥</big>''' </blockquote>
 
<blockquote>'''<big>दादाभाई गोपबन्धु: तिलको गान्धिरादूता: । रमणो मालवीयश्च श्री सुब्रह्मण्यभारती।29 ॥</big>''' </blockquote>
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==== '''<big>दादा भाई नौरोजी</big>''' ====
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==== <big>दादा भाई नौरोजी</big> ====
 
महाराष्ट्र के एक पारसी परिवार में जन्मे दादाभाई नौरोजी [युगाब्द 4936-5018 (1835-1917 ई०)] आधुनिक भारत के एक प्रमुख देशभक्त, राजनीतिक नेता एवं समाज-सुधारक हुए हैं। भारतीयों के स्वराज्य के अधिकार को ब्रिटिश संसद तक गुंजाने वाले दादाभाई भारतीय स्वातंत्र्य के वैधानिक आन्दोलन के जनक थे। वे कांग्रेस के संस्थापकों में से एक थे और तीन बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने। 1892 (युगाब्द4993) में ब्रिटेन की लिबरल पार्टी की ओर से ब्रिटिश संसद के सदस्य चुने जाने वाले वे प्रथम भारतीय थे। उन्होंने अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों का तथ्यपरक एवं गहन विश्लेषण कर यह सिद्ध किया कि भारत का धन इंग्लैंड की ओर प्रवाहित हो रहा है। इसे 'ड्रेन थ्योरी' कहते हैं।
 
महाराष्ट्र के एक पारसी परिवार में जन्मे दादाभाई नौरोजी [युगाब्द 4936-5018 (1835-1917 ई०)] आधुनिक भारत के एक प्रमुख देशभक्त, राजनीतिक नेता एवं समाज-सुधारक हुए हैं। भारतीयों के स्वराज्य के अधिकार को ब्रिटिश संसद तक गुंजाने वाले दादाभाई भारतीय स्वातंत्र्य के वैधानिक आन्दोलन के जनक थे। वे कांग्रेस के संस्थापकों में से एक थे और तीन बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने। 1892 (युगाब्द4993) में ब्रिटेन की लिबरल पार्टी की ओर से ब्रिटिश संसद के सदस्य चुने जाने वाले वे प्रथम भारतीय थे। उन्होंने अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों का तथ्यपरक एवं गहन विश्लेषण कर यह सिद्ध किया कि भारत का धन इंग्लैंड की ओर प्रवाहित हो रहा है। इसे 'ड्रेन थ्योरी' कहते हैं।
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उड़ीसा में पुरी जिले के अन्तर्गत जन्मे पण्डित गोपबन्धुदास [युगाब्द 4973-5029 (1872-1928 ई०)] श्रेष्ठ कवि, लेखक, पत्रकार, दार्शनिक, समाज-सुधारक, कुशल संगठक, राजनीतिक नेता एवं हिन्दुत्ववादी चिंतक के रूप में विख्यात हैं। स्वाधीनता संग्राम में गांधीजी के नेतृत्व के पूर्व एवं पश्चात् भी वे सम्पूर्ण उड़ीसा में अग्रणी रहे। उन्होंने अस्पृश्यता-निवारण हेतु अभियान चलाया और गांधी जी को भी हरिजन-उद्धार-कार्य की प्रेरणा दी। उनके साथ पुरी जिले में पदयात्रा के समय ही महात्मा गांधी ने 'एक वस्त्र परिधान' का संकल्प लिया था। गोपबन्धुदास ने आर्तजनों की सेवा के सामने निजी तथा पारिवारिक दु:खों एवं संकटों को सदा गौण माना। वे उड़ीसा के सर्वाधिक लोकप्रिय पत्र 'समाज' के प्रतिष्ठाता और अखिल भारतीय लोक-सेवक मंडल के प्रमुख कर्णधार थे।  
 
उड़ीसा में पुरी जिले के अन्तर्गत जन्मे पण्डित गोपबन्धुदास [युगाब्द 4973-5029 (1872-1928 ई०)] श्रेष्ठ कवि, लेखक, पत्रकार, दार्शनिक, समाज-सुधारक, कुशल संगठक, राजनीतिक नेता एवं हिन्दुत्ववादी चिंतक के रूप में विख्यात हैं। स्वाधीनता संग्राम में गांधीजी के नेतृत्व के पूर्व एवं पश्चात् भी वे सम्पूर्ण उड़ीसा में अग्रणी रहे। उन्होंने अस्पृश्यता-निवारण हेतु अभियान चलाया और गांधी जी को भी हरिजन-उद्धार-कार्य की प्रेरणा दी। उनके साथ पुरी जिले में पदयात्रा के समय ही महात्मा गांधी ने 'एक वस्त्र परिधान' का संकल्प लिया था। गोपबन्धुदास ने आर्तजनों की सेवा के सामने निजी तथा पारिवारिक दु:खों एवं संकटों को सदा गौण माना। वे उड़ीसा के सर्वाधिक लोकप्रिय पत्र 'समाज' के प्रतिष्ठाता और अखिल भारतीय लोक-सेवक मंडल के प्रमुख कर्णधार थे।  
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'''<big>लोकमान्य बाल गंगाधरतिलक [युगाब्द 4957-5021 (1856-1920 ई०)]</big>'''
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==== <big>लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक</big> ====
 
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“भारतीय असंतोष के जनक" तथा उग्र राष्ट्रवादी राजनीतिक विचारों के नेता लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का जन्म रत्नागिरि (महाराष्ट्र) में हुआ था [युगाब्द 4957-5021 (1856-1920 ई०)]। राष्ट्रीय शिक्षा के प्रसार के उद्देश्य से तिलक ने अनेक शिक्षा-संस्थाओं की स्थापना की। उनमें सुप्रसिद्ध फर्गयूसन कालेज भी था, जिसमें तिलक संस्कृत और गणित पढ़ाया करते थे। ब्रिटिश दमन-नीति का विरोध करने तथा लोगोंं में राष्ट्रीय चेतना जगाने के उद्देश्य से उन्होंने 'केसरी' और 'मराठा' पत्रों का प्रकाशन किया।  
“भारतीय असंतोष के जनक" तथा उग्र राष्ट्रवादी राजनीतिक विचारों के नेता लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक काजन्म रत्नागिरि (महाराष्ट्र) मेंहुआ था। राष्ट्रीय शिक्षा के प्रसार के उद्देश्य से तिलक ने अनेक शिक्षा-संस्थाओं की स्थापना की। उनमें सुप्रसिद्ध फग्र्युसन कालेज भी था, जिसमें तिलक संस्कृत और गणित पढ़ाया करते थे। ब्रिटिश दमन-नीति का विरोध करने तथा लोगोंंमें राष्ट्रीयचेतनाजगाने के उद्देश्य सेउन्होंने 'केसरी' और 'मराठा'पत्रों का प्रकाशन किया।  
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'स्वराज्य मेरा जन्म—सिद्ध अधिकार है” – यह गर्जना करने वाले भारत—केसरी तिलक ही थे। 1905 में बंगाल के विभाजन की घोषणा के बाद जब राष्ट्रीय आन्दोलन में उभार आया तो तिलक ने स्वराज्य, स्वदेशी,बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा की चतु:सूत्री योजना प्रस्तुत की। अंग्रेजों की दमन—नीति का प्रखर विरोध करने के कारण उन्हें छ: वर्ष का कठोर कारावास देकर मांडले बन्दीगृह में भेज दिया गया। कारागार में ही तिलक ने ‘गीता-रहस्य' नामक श्रेष्ठ ग्रंथ लिखकर गीता की कर्मयोगपरक व्याख्या की। ' ओरायन' और ' आकटिक होम इन द वेदाज' नामक शोध-प्रबन्ध भी लिखे। उन्होंने जनजागृति के लिएगणेशोत्सवतथाशिव-जयन्ती महोत्सवप्रारम्भ किये औरउनके माध्यम से अंग्रेजी दासता के विरुद्ध जनरोष को मुखर किया।
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'''<big>महात्मा गांधी [कलि सं० 4970-5048 (1869-1948 ई०)]</big>'''
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राष्ट्रीय स्वातंत्र्य अांदोलन केप्रमुख नेता,जो लगभग तीन दशक तक भारत के सार्वजनिक जीवन पर छाये रहे। काठियावाड़, गुजरात में जन्मे मोहनदास कर्मचन्द गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों को उनके न्यायोचित अधिकार प्राप्त कराने के लिए अहिंसात्मक सत्याग्रह की नूतन पद्धति का प्रयोग किया। युगाब्द 5021 (ई० 1920) में लोकमान्य तिलक की मृत्यु के पश्चात् राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व गांधी जी के कधों पर आ पड़ा। उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन में समाज के विभिन्न वर्गों का समावेश करके उसे व्यापक आधार प्रदान किया। युगाब्द 5021, 5031-32 और 5043 (सन् 1920, 1930-31 और 1942) में गांधी जी ने तीन बड़े राष्ट्रीय आंदोलनों का संचालन किया। सत्य, अहिंसा, गीता और रामनाम में उनकी प्रगाढ़ आस्था थी। वे उदार सनातनी हिन्दूथे। गांधी जी ने अस्पृश्यता—निवारण,गोरक्षण, ग्रामोद्योग, खादी, राष्ट्रभाषा, मद्यपान-निषेद्य जैसी अनेक राष्ट्रीय एवं रचनात्मक प्रवृत्तियों की श्रृंखला खड़ी की। राष्ट्रविरोधी तत्वों के प्रति भी सदाशयता जैसेउनके कुछविचारोंसे असहमतनाथूरामगोडसेनामकउग्र व्यक्ति ने 30जनवरी, 1948 को गोली मारकर उनकी हत्या कर दी।
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'''<big>रमण महर्षि [युगाब्द 4980-5051 (1879-1950 ई०)]</big>'''
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'स्वराज्य मेरा जन्म-सिद्ध अधिकार है' – यह गर्जना करने वाले भारत-केसरी तिलक ही थे। 1905 में बंगाल के विभाजन की घोषणा के बाद जब राष्ट्रीय आन्दोलन में उभार आया तो तिलक ने स्वराज्य, स्वदेशी, बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा की चतु:सूत्री योजना प्रस्तुत की। अंग्रेजों की दमन-नीति का प्रखर विरोध करने के कारण उन्हें छ: वर्ष का कठोर कारावास देकर मांडले बन्दीगृह में भेज दिया गया। कारागार में ही तिलक ने ‘गीता-रहस्य' नामक श्रेष्ठ ग्रंथ लिखकर गीता की कर्मयोगपरक व्याख्या की। ओरायन और आर्कटिक होम इन द वेदाज नामक शोध-प्रबन्ध भी लिखे। उन्होंने जनजागृति के लिए गणेशोत्सव तथा शिव-जयन्ती महोत्सवप्रारम्भ किये और उनके माध्यम से अंग्रेजी दासता के विरुद्ध जनरोष को मुखर किया।
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रमण महर्षि एक साक्षात्कारी पुरुष थे,जिन्होंने प्रश्नोत्तर की सीधी-सरल पद्धति से उपदेश देकर अपने देशी-विदेशी शिष्यों एवं श्रद्धालुओं को दिव्य संदेश सुनाया। उनके विचारों का संकलन 'रमणगीता'नामक ग्रंथ मेंहुआहै। इनका जन्म दक्षिण मेंमदुरै के समीपहुआ था। इनका मूल नाम वेंकट रमण था। गृह-त्याग कर वे अरुणाचलम् पहाड़ी पर ध्यानस्थ रहने लगे और आत्मज्ञान प्राप्त किया। आध्यात्मिक विद्या के जिज्ञासुउनके पास देश-विदेश से आने लगे,जिन्हें उन्होंने अपने सुबोध, सरल उपदेशों से परितृप्त किया।
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==== <big>महात्मा गांधी</big> ====
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राष्ट्रीय स्वातंत्र्य आन्दोलन के प्रमुख नेता,जो लगभग तीन दशक तक भारत के सार्वजनिक जीवन पर छाये रहे। काठियावाड़, गुजरात में जन्मे  [कलि सं० 4970-5048 (1869-1948 ई०)] मोहनदास कर्मचन्द गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों को उनके न्यायोचित अधिकार प्राप्त कराने के लिए अहिंसात्मक सत्याग्रह की नूतन पद्धति का प्रयोग किया। युगाब्द 5021 (ई० 1920) में लोकमान्य तिलक की मृत्यु के पश्चात् राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व गांधी जी के कधों पर आ पड़ा। उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन में समाज के विभिन्न वर्गों का समावेश करके उसे व्यापक आधार प्रदान किया। युगाब्द 5021, 5031-32 और 5043 (सन् 1920, 1930-31 और 1942) में गांधी जी ने तीन बड़े राष्ट्रीय आंदोलनों का संचालन किया। सत्य, अहिंसा, गीता और रामनाम में उनकी प्रगाढ़ आस्था थी। वे उदार सनातनी हिन्दू थे। गांधी जी ने अस्पृश्यता-निवारण, गोरक्षण, ग्रामोद्योग, खादी, राष्ट्रभाषा, मद्यपान-निषेद्य जैसी अनेक राष्ट्रीय एवं रचनात्मक प्रवृत्तियों की श्रृंखला खड़ी की। राष्ट्रविरोधी तत्वों के प्रति भी सदाशयता जैसे उनके कुछ विचारों से असहमत नाथूराम गोडसे नामक उग्र व्यक्ति ने 30 जनवरी, 1948 को गोली मारकर उनकी हत्या कर दी।
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'''<big>मदनमोहनमालवीय [युगाब्द 4962-5047 (1861-1946 ई०)]</big>'''  
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==== <big>रमण महर्षि</big> ====
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रमण महर्षि एक साक्षात्कारी पुरुष थे [युगाब्द 4980-5051 (1879-1950 ई०)], जिन्होंने प्रश्नोत्तर की सीधी-सरल पद्धति से उपदेश देकर अपने देशी-विदेशी शिष्यों एवं श्रद्धालुओं को दिव्य संदेश सुनाया। उनके विचारों का संकलन 'रमणगीता' नामक ग्रंथ में हुआ है। इनका जन्म दक्षिण में मदुरै के समीप हुआ था। इनका मूल नाम वेंकट रमण था। गृह-त्याग कर वे अरुणाचलम् पहाड़ी पर ध्यानस्थ रहने लगे और आत्मज्ञान प्राप्त किया। आध्यात्मिक विद्या के जिज्ञासु उनके पास देश-विदेश से आने लगे, जिन्हें उन्होंने अपने सुबोध, सरल उपदेशों से परितृप्त किया।
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काशी हिन्दूविश्वविद्यालय के संस्थापक पंडित मदनमोहन मालवीय ने अंग्रेजी दासता के युग में हिन्दूधर्म एवं परम्परा का स्वाभिमानजगाने का कार्यकिया। उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन की धारा से जुड़कर कांग्रेस तथा हिन्दू महासभा के माध्यम से अपने समय की सक्रिय राजनीति में प्रमुख भूमिका निभायी। कांग्रेस केदो बार अध्यक्ष रहे। अपने निजी जीवन की पवित्रता तथा श्रेष्ठ चारित्रय की साख के बल पर धनसंग्रह कर लोकोपयोगी कार्यों का संयोजन किया। स्वातंत्रय—प्राप्ति हेतुकिये जा रहे संघर्ष और सांस्कृतिक उन्नयन के प्रयासों में मालवीय जी ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। राष्ट्रीय शिक्षा के प्रसार में उनका अविस्मरणीय योगदान है।  
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==== <big>मदन मोहन मालवीय</big> ====
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काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक पंडित मदनमोहन मालवीय [युगाब्द 4962-5047 (1861-1946 ई०)] ने अंग्रेजी दासता के युग में हिन्दूधर्म एवं परम्परा का स्वाभिमान जगाने का कार्य किया। उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन की धारा से जुड़कर कांग्रेस तथा हिन्दू महासभा के माध्यम से अपने समय की सक्रिय राजनीति में प्रमुख भूमिका निभायी। कांग्रेस के दो बार अध्यक्ष रहे। अपने निजी जीवन की पवित्रता तथा श्रेष्ठ चारित्रय की साख के बल पर धनसंग्रह कर लोकोपयोगी कार्यों का संयोजन किया। स्वातंत्रय-प्राप्ति हेतु किये जा रहे संघर्ष और सांस्कृतिक उन्नयन के प्रयासों में मालवीय जी ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। राष्ट्रीय शिक्षा के प्रसार में उनका अविस्मरणीय योगदान है।  
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'''<big>सुब्रह्मण्य भारती [युगाब्द 4983-5022 (1882-1921 ई०)]</big>'''
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==== <big>सुब्रह्मण्य भारती</big> ====
 
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तमिलनाडु के प्रमुख राष्ट्रीय कवि सुब्रह्मण्य भारती [युगाब्द 4983-5022 (1882-1921 ई०)] ने सहज-सुबोध भाषा में लिखी अपनी राष्ट्रीय कविताओं द्वारा हजारों-लाखों लोगोंं के हृदय में देशभक्ति का संचार किया। वे अपनी ओजपूर्ण राष्ट्रीय रचनाओं के कारण कई बार जेल गये। राजनीतिक विचारों की दृष्टि से वे गरमपंथी थे। वे श्री अरविन्द, चिदम्बरम् पिल्लै, वी०वी०एस० अय्यर आदि देशभक्तों और स्वाधीनता-संग्राम के योद्धाओं के निकट सम्पर्क में आये। आलवार और नायन्मार भक्तों की शैली में उन्होंने अनेक भक्तिगीत रचे। सुब्रह्मण्य भारती देशभक्त होने के साथ समाज-सुधारक भी थे। स्त्रियों की स्वतंत्रता, उच्च और निम्न जातियों की समानता तथा अस्पृश्यता-निवारण के लिए उन्होंने बहुत काम किया। आधुनिक तमिल कविता की प्रवृत्ति का प्रारम्भ भारती ने ही किया। भारती ने ऋषियों और संतों के आध्यात्मिक-सांस्कृतिक विचारों को जन-सामान्य तक पहुँचाने का महत्वपूर्ण कार्य किया।
तमिलनाडु के प्रमुख राष्ट्रीय कवि सुब्रह्मण्य भारती ने सहज-सुबोध भाषा में लिखी अपनी राष्ट्रीय कविताओं द्वारा हजारों-लाखों लोगोंं के हृदय में देशभक्ति का संचार किया। वे अपनी ओजपूर्ण राष्ट्रीय रचनाओं के कारण कई बार जेल गये। राजनीतिक विचारों की दृष्टि से वे गरमपंथी थे। वे श्री अरविन्द, चिदम्बरम् पिल्लै, वी०वी०एस० अय्यर आदि देशभक्तों और स्वाधीनता-संग्राम के योद्धाओं के निकट सम्पर्क में आये। आलवार और नायन्मार भक्तों की शैली में उन्होंने अनेक भक्तिगीत रचे। सुब्रह्मण्य भारती देशभक्त होने के साथ समाज-सुधारक भी थे। स्त्रियों की स्वतंत्रता, उच्च और निम्न जातियों की समानता तथा अस्पृश्यता—निवारण के लिए उन्होंने बहुत काम किया। आधुनिक तमिल कविता की प्रवृत्ति का प्रारम्भ भारती ने ही किया। भारती ने ऋषियों और संतों के आध्यात्मिक-सांस्कृतिक दाय को जन-सामान्य तक पहुँचाने का महत्वपूर्ण कार्य किया।
   
[[File:१७.PNG|center|thumb]]
 
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<blockquote>'''<big>सुभाषः प्रणवानन्दः क्रान्तिवीरो विनायक: । ठक्करो भीमरावश्च फुले नारायणी गुरुः ॥30 ॥</big>''' </blockquote>
 
<blockquote>'''<big>सुभाषः प्रणवानन्दः क्रान्तिवीरो विनायक: । ठक्करो भीमरावश्च फुले नारायणी गुरुः ॥30 ॥</big>''' </blockquote>
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'''<big>सुभाषचन्द्र बसु [जन्म युगाब्द 4997 (1897ई०)]</big>'''
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==== <big>सुभाषचन्द्र बसु</big> ====
 
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नेताजी सुभाषचन्द्र बोस (बसु) कटक (उड़ीसा) के प्रख्यात वकील जानकीनाथ बसु के पुत्र थे [जन्म युगाब्द 4997 (1897ई०)]। इन्होंने आई०सी०एस० परीक्षा उत्तीर्ण की, पर उस सर्वोच्च सरकारी सेवा को ठोकर मारकर स्वाधीनता-संघर्ष में कूद पड़े। गांधी जी के प्रत्याशी को पराजित कर कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये। अंग्रेजों की नजरबंदी से गुप्त रूप से निकलकर विदेश पहुँचे। इंग्लैंड द्वितीय विश्वयुद्ध में फंसा था। इस स्थिति का लाभ उठाकर इंग्लैंड के शत्रु देश जापान की सहायता लेकर 'आजाद हिन्द फौज' का विस्तार किया तथा अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र संग्राम करते हुए भारत के उत्तर-पूर्वी सीमान्त में पर्याप्त आगे बढ़ आये। युगाब्द 5046 (सन् 1945) में जापान की पराजय हो जाने पर वे एक विमान से किसी सुरक्षित स्थान को जा रहे थे। उनकी मृत्यु उसी विमान की दुर्घटना में हुई, ऐसा बताया गया, परन्तु उनकी मृत्यु का रहस्य अब भी बना हुआ है। देश के लिए स्वाधीनता लाने में उनका अति महत्वपूर्ण योगदान यह रहा कि सेना में उनकी जगायी चेतना के फलस्वरूप अंग्रेजों के लिए यह सम्भव नहीं रहा कि वे भारतीयों के ही कन्धों पर बन्दूक रखकर भारत को अपने अधीन रख सकें।  
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस (बसु) कटक (उड़ीसा) के प्रख्यात वकील जानकीनाथ बसु के पुत्र थे। इन्होंने आई०सी०एस० परीक्षा उत्तीर्ण की,परउस सर्वोच्चसरकारी सेवा कोठोकर मारकर स्वाधीनता-संघर्ष में कुद पड़े। गांधी जी के प्रत्याशी को पराजित कर कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये। अंग्रेजों की नजरबंदी से गुप्त रूप से निकलकर विदेश पहुँचे। इंग्लैंड द्वितीय विश्वयुद्ध में फंसा था। इस स्थिति का लाभ उठाकर इंग्लैंड के शत्रु देश जापान की सहायता लेकर 'आजाद हिन्द फौज' का विस्तार किया तथा अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र संग्राम करते हुए भारत के उत्तर-पूर्वी सीमान्त में पर्याप्त आगे बढ़ आये। युगाब्द 5046 (सन् 1945) में जापान की पराजय हो जाने पर वे एक विमान सेकिसी सुरक्षित स्थान को जा रहे थे। उनकी मृत्युउसी विमान की दुर्घटना में हुई ऐसा बताया गया,परन्तुउनकी मृत्युका रहस्य अब भी बना हुआ है। देश के लिए स्वाधीनता लाने मेंउनका अति महत्वपूर्ण योगदान यहरहा कि सेनामेंउनकी जगायी चेतना के फलस्वरूप अंग्रेजों के लिए यह सम्भव नहीं रहा कि वे भारतीयों के ही कन्धों पर बन्दूक रखकर भारत को अपने अधीन रख सकें।  
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'''<big>प्रणवानन्द</big>'''
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'भारत सेवाश्रम संघ' के संस्थापक स्वामी प्रणवानन्द जी पीड़ितों की सेवा-सहायता में सदैव अग्रणी रहे। उन्होंने प्रखर हिन्दुत्व का प्रतिपादन किया। हिन्दू संगठन हेतु संघशाखा के ही समान 'मिलन—मन्दिर' के माध्यम से दैनिक एकत्रीकरण आयोजित करने की व्यवस्था विकसित की। वे विशेषत: बंगाल में संगठन—कार्य में रत रहे।
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'''<big>विनायकसावरकर [युगाब्द 4984—5067 (1883-1966 ई०)]</big>'''
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क्रान्तिकारियों में अग्रणी,हिन्दुत्व के प्रखरउद्घोषक, अस्पृश्यता-निवारण एवं सामाजिक समता जैसी समाज-सुधार प्रवृत्तियों के पुरस्कर्ता, ब्रिटिश दमन के प्रखर प्रतिकारक, आजीवन कठोर यातनाओं को सहर्ष भोगने वाले अद्वितीय साहसी, प्रतिभावान् कवि, सशक्त लेखक, ओजस्वी वक्ता स्वातंत्र्य-वीर विनायक दामोदर सावरकर ने भारत से ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए सशस्त्र क्रान्ति के आन्दोलन में भाग लिया और देश तथा विदेश में अनेक तरुण विद्यार्थियों को विदेशी सत्ता के प्रतिकार की प्रेरणा दी। ब्रिटिश सत्ता का प्रखर विरोध करने और क्रान्तिकारी गतिविधियों का संचालन करने के कारण उन्हें जब इंग्लैंड से बंदी बनाकर भारत लाया जा रहा था तो उन्होंने समुद्र में कुदकर भागने का प्रयत्न किया। दो आजीवन कारावासों का दंड देकर उन्हें अंडमान भेजा गया। रत्नागिरि में नजरबंद रहते हुए उन्होंने अस्पृश्यता—निवारण जैसे सामाजिक कार्य किये। युगाब्द 4958 (सन्1857) में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध भारतवासियों के संघर्ष को उन्होंने स्वातंत्र्य-समर की संज्ञा दी। वीर सावरकर अनेक वर्षों तक हिन्दूमहासभा के अध्यक्ष रहे। हिन्दु राष्ट्रीयता का उन्होंने आधुनिक शब्दावली में सशक्त एवं तर्कशुद्ध मंडन किया।
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'''<big>ठक्कर बाप्पा [युगाब्द 4960-5052 (1859-1951 ई०)]</big>'''
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प्रसिद्ध समाज-सेवक, जिन्होंने वनवासियों की दुर्दशा से द्रवित होकर अपना सम्पूर्ण जीवन उन्हीं की दशा सुधारने और सेवा करने में लगा दिया। इनका जन्म गुजरात के भावनगर में एक समाजसेवा-परायण व्यक्ति विट्ठलदास ठक्कर के घर हुआ था। ठक्कर बाप्पा का पूरा नाम अमृतलाल ठक्कर था। इन्होंने वरिष्ठ अभियंता पद त्याग कर पूर्णकालिक सेवा-व्रत लिया। वे ' भारत सेवक समाज ' के माध्यम से सेवाव्रती बने। उन्होंने ' भील सेवा मंडल' की स्थापना की, जो रचनात्मक कार्य की गंगोत्री बन गया। अपने समाज के उपेक्षित बन्धुओं – वनवासी अथवा ' आदिम' जाति के लोगोंं – की आर्त अवस्था से कातर होकर ठक्कर बाप्पा उन्हीं के हो गये।
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'''<big>भीमराव अम्बेडकर [युगाब्द4992-5057 (1891-1956 ई०)]</big>'''
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महाराष्ट्र की महार जाति में जन्मे भीमराव ने जातिगत भेदभाव का तीव्र दंश स्वयं अनुभव किया था। उन्होंने विदेश में उच्च शिक्षा प्राप्त की और अपने उपेक्षित बन्धुओं को सम्मान और अधिकारप्राप्त कराने के लिए आजीवन अथक प्रयत्न किया। वे वित्त और विधिशास्त्र (कानून) के उच्चकोटि के विद्वान् थे। द्वितीय गोलमेज सम्मेलन [युगाब्द 5032 (1931 ई०)] में डा० अम्बेडकरने हरिजनों के लिएपृथक निर्वाचक-मंडल की माँग की थी। किन्तुआगे चलकर'पूना पैक्ट' को स्वीकार करते हुएउन्होंने अपना यह आग्रह छोड़ दिया और संयुक्त निर्वाचक-मंडल को स्वीकृतिदेकरहिन्दूसमाज को'सवर्ण' और'हरिजन'मेंबँटने से बचालिया। उन्होंने मुस्लिम और ईसाई प्रलोभनों को ठुकराकर अपने अनुयायियों सहित बौद्धमत स्वीकार किया। उनका स्पष्ट कहना था कि धर्मान्तरण करके विदेशी मूल के सम्प्रदायों में जाने से राष्ट्रनिष्ठा समाप्त होती है। स्वतंत्र भारत के संविधान-निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।
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'''<big>ज्योतिराव फुले [युगाब्द 4928-4991 (1827-1890 ई०)]</big>'''
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==== <big>प्रणवानन्द</big> ====
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'भारत सेवाश्रम संघ' के संस्थापक स्वामी प्रणवानन्द जी पीड़ितों की सेवा-सहायता में सदैव अग्रणी रहे। उन्होंने प्रखर हिन्दुत्व का प्रतिपादन किया। हिन्दू संगठन हेतु संघशाखा के ही समान मिलन-मन्दिर के माध्यम से दैनिक एकत्रीकरण आयोजित करने की व्यवस्था विकसित की। वे विशेषत: बंगाल में संगठन-कार्य में रत रहे।
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महाराष्ट्र के महान् समाज-सुधारक ज्योतिराव फुले ने उपेक्षितों, अछूतों और स्त्रियों की अवस्था सुधारने के लिए कठिन प्रयास किये। शिक्षा के द्वारा उपेक्षितों और स्त्रियों की अवस्था उन्नत की जा सकती है,ऐसी उनकी मान्यता थी। हरिजनों तथास्त्रियों कीशिक्षा केलिएविद्यालय खोलने वाले वे प्रथम समाज-सुधारक माने जाते हैं। हंटर कमीशन के सामने उन्होंने अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा दिये जाने की माँग भी की थी। वे सामाजिक समता के पक्षधर थे। छुआछूत के विरुद्धउन्होंने डटकर संघर्षकिया। युगाब्द4975 (सन् 1874 ई०) मेंउन्होंने'सत्यशोधक समाज' की स्थापना की ताकि लोगोंं की विशाल मानवधर्म की शिक्षा दी जा सके। विधवा स्त्रियों का मुंडन कर देने की प्रथा (केशवपन) का उन्होंने कड़ा विरोध किया। अनाथ बालकों और निराधार स्त्रियों के लिए 'अनाथाश्रम' और 'सूतिका-गृह' चलाये। रूढ़िवाद और अंधश्रद्धा पर प्रहार कर ज्योतिबा ने बुद्धिवाद की शिक्षा दी।  
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==== <big>विनायक सावरकर</big> ====
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क्रान्तिकारियों में अग्रणी, हिन्दुत्व के प्रखर उद्घोषक, अस्पृश्यता-निवारण एवं सामाजिक समता जैसी समाज-सुधार प्रवृत्तियों के पुरस्कर्ता, ब्रिटिश दमन के प्रखर प्रतिकारक, आजीवन कठोर यातनाओं को सहर्ष भोगने वाले अद्वितीय साहसी, प्रतिभावान् कवि, सशक्त लेखक, ओजस्वी वक्ता स्वातंत्र्य-वीर विनायक दामोदर सावरकर    [युगाब्द 4984—5067 (1883-1966 ई०)] ने भारत से ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए सशस्त्र क्रान्ति के आन्दोलन में भाग लिया और देश तथा विदेश में अनेक तरुण विद्यार्थियों को विदेशी सत्ता के प्रतिकार की प्रेरणा दी। ब्रिटिश सत्ता का प्रखर विरोध करने और क्रान्तिकारी गतिविधियों का संचालन करने के कारण उन्हें जब इंग्लैंड से बंदी बनाकर भारत लाया जा रहा था तो उन्होंने समुद्र में कूदकर भागने का प्रयत्न किया। दो आजीवन कारावासों का दंड देकर उन्हें अंडमान भेजा गया। रत्नागिरि में नजरबंद रहते हुए उन्होंने अस्पृश्यता-निवारण जैसे सामाजिक कार्य किये। युगाब्द 4958 (सन्1857) में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध भारतवासियों के संघर्ष को उन्होंने स्वातंत्र्य-समर की संज्ञा दी। वीर सावरकर अनेक वर्षों तक हिन्दूमहासभा के अध्यक्ष रहे। हिन्दु राष्ट्रीयता का उन्होंने आधुनिक शब्दावली में सशक्त एवं तर्कशुद्ध मंडन किया।
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'''<big>नारायण गुरु [युगाब्द 4954-5029 (1853-1928 ई०)]</big>'''  
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==== <big>ठक्कर बाप्पा</big> ====
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प्रसिद्ध समाज-सेवक, जिन्होंने वनवासियों की दुर्दशा से द्रवित होकर अपना सम्पूर्ण जीवन [युगाब्द 4960-5052 (1859-1951 ई०)] उन्हीं की दशा सुधारने और सेवा करने में लगा दिया। इनका जन्म गुजरात के भावनगर में एक समाजसेवा-परायण व्यक्ति विट्ठलदास ठक्कर के घर हुआ था। ठक्कर बाप्पा का पूरा नाम अमृतलाल ठक्कर था। इन्होंने वरिष्ठ अभियंता पद त्याग कर पूर्णकालिक सेवा-व्रत लिया। वे 'भारत सेवक समाज' के माध्यम से सेवाव्रती बने। उन्होंने 'भील सेवा मंडल' की स्थापना की, जो रचनात्मक कार्य की गंगोत्री बन गया। अपने समाज के उपेक्षित बन्धुओं वनवासी अथवा 'आदिम' जाति के लोगों की आर्त अवस्था से कातर होकर ठक्कर बाप्पा उन्हीं के हो गये।
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हिन्दूसमाज की धार्मिक आस्था पर अनैतिक साधनों से आक्रमण करके हिन्दुओं को ईसाई बनाने की गतिविधियाँचलाने वाले ईसाई पादरियों की कृट योजनाओं का प्रतिकार एवं निवारण करने और इस हेतु केरल में तथाकथित अछूतों के लिए मन्दिरों की स्थापना करने वाले नारायण गुरु का जन्म केरल में एक अछूत कहलाने वाली जाति में हुआ था। संस्कृत भाषा और वेदान्त का गहन अध्ययन कर उन्होंने योग-साधना और तपस्या की तथा रोगी, निर्धन, अस्पृश्य एवं वनवासी बन्धुओं की सेवा-सुश्रुषामें अपने को खपादिया। उनकेबनवाये मन्दिर हिन्दूसंगठन के केन्द्र बन गये। केरल मेंहिन्दू समाज के धर्मान्तरण की प्रवृत्तिको रोकने का चिरस्मरणीय कार्य यदि नारायण गुरु ने न किया होता तो केरल का हिन्दू समाज बहुसंख्या में धर्मभ्रष्ट हो गया होता।
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==== <big>भीमराव अम्बेडकर</big> ====
[[File:१८.PNG|center|thumb]]
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महाराष्ट्र की महार जाति में जन्मे  [युगाब्द 4992-5057 (1891-1956 ई०)] भीमराव ने जातिगत भेदभाव का तीव्र दंश स्वयं अनुभव किया था। उन्होंने विदेश में उच्च शिक्षा प्राप्त की और अपने उपेक्षित बन्धुओं को सम्मान और अधिकार प्राप्त कराने के लिए आजीवन अथक प्रयत्न किया। वे वित्त और विधिशास्त्र (कानून) के उच्चकोटि के विद्वान थे। द्वितीय गोलमेज सम्मेलन [युगाब्द 5032 (1931 ई०)] में डा० अम्बेडकर ने हरिजनों के लिए पृथक निर्वाचक-मंडल की माँग की थी। किन्तु आगे चलकर 'पूना पैक्ट' को स्वीकार करते हुए उन्होंने अपना यह आग्रह छोड़ दिया और संयुक्त निर्वाचक-मंडल को स्वीकृति देकर हिन्दू समाज को 'सवर्ण' और 'हरिजन' में बँटने से बचा लिया। उन्होंने मुस्लिम और ईसाई प्रलोभनों को ठुकराकर अपने अनुयायियों सहित बौद्धमत स्वीकार किया। उनका स्पष्ट कहना था कि धर्मान्तरण करके विदेशी मूल के सम्प्रदायों में जाने से राष्ट्रनिष्ठा समाप्त होती है। स्वतंत्र भारत के संविधान-निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।
<blockquote>'''<big>संघशक्तिप्रणोतारौ केशवोमाधवस्तथा। स्मरणीया: सदैवैते नवचैतन्यदायका: । 31 ।</big>''' </blockquote>
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<big>'''डॉक्टर केशवराव हेडगेवार [युगाब्द4990-5041(1889-1940 ई०)]'''</big>
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==== <big>ज्योतिराव फुले</big> ====
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महाराष्ट्र के महान् समाज-सुधारक ज्योतिराव फुले [युगाब्द 4928-4991 (1827-1890 ई०)] ने उपेक्षितों, अछूतों और स्त्रियों की अवस्था सुधारने के लिए कठिन प्रयास किये। शिक्षा के द्वारा उपेक्षितों और स्त्रियों की अवस्था उन्नत की जा सकती है, ऐसी उनकी मान्यता थी। हरिजनों तथा स्त्रियों की शिक्षा के लिए विद्यालय खोलने वाले वे प्रथम समाज-सुधारक माने जाते हैं। हंटर कमीशन के सामने उन्होंने अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा दिये जाने की माँग भी की थी। वे सामाजिक समता के पक्षधर थे। छुआछूत के विरुद्ध उन्होंने डटकर संघर्ष किया। युगाब्द4975 (सन् 1874 ई०) में उन्होंने 'सत्यशोधक समाज' की स्थापना की ताकि लोगों की विशाल मानवधर्म की शिक्षा दी जा सके। विधवा स्त्रियों का मुंडन कर देने की प्रथा (केशवपन) का उन्होंने कड़ा विरोध किया। अनाथ बालकों और निराधार स्त्रियों के लिए 'अनाथाश्रम' और 'सूतिका-गृह' चलाये। रूढ़िवाद और अंधश्रद्धा पर प्रहार कर ज्योतिबा ने बुद्धिवाद की शिक्षा दी।
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक महापुरुष,जिनके जीवन काएकमात्र ध्येय था हिन्दू अस्मिता केपुनर्जागरणद्वारा हिन्दूसमाज को सुसंगठित बनाना ताकि अपना राष्ट्र और समाज परम वैभव को प्राप्त कर सके। इस उद्देश्य की प्रेरणा से ही डॉक्टर केशव बलिराम जी ने युगाब्द 5026 (सन् 1925) में विजयादशमी के दिन नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी। बचपन से ही ज्वलंत देशभक्ति की भावना उनमें कुट-कूटकर भरी हुई थी। विद्यालय में अंग्रेज निरीक्षक का स्वागत 'वन्दे मातरम्' के उच्चार से करने के कारण उन्हें हाई स्कूल से निष्कासित किया गया और उन्हें पढ़ाई के लिए अन्यत्र जाना पड़ा। बाद में डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए वे योजनापूर्वक क्रान्तिकारियों के गढ़कलकत्ता गये। वहाँअनेक क्रान्तिकारी देशभक्तों सेउनका गहरा सम्पर्क बना। फलत: उन्होंने क्रान्तिकारी गतिविधियों में भाग लिया और नागपुर लौटकर भी क्रान्तिकारियों के सहयोगी बने रहे। नागपुर वापस लौटने के पश्चात् डाक्टरसाहब कांग्रेस,हिन्दू महासभा आदि राजनीतिक संस्थाओं में सहभागी हुए। गत हजार वर्षों में अपने राष्ट्र और समाज के पराभव के कारणों का युक्तियुक्त विश्लेषण करके वे इस निष्कर्ष परपहुँचे किहिन्दूधर्म,हिन्दू संस्कृति तथा हिन्दू राष्ट्र की चेतना के आधार पर हिन्दू समाज को संगठित करके ही राष्ट्र का शाश्वत कल्याण संभवहै। इस चिन्तन की साकार परिणति संघ के रूप मेंहुई। संगठन की अत्यंत सरल और सहज अनुकरणीय पद्धति उनकी प्रतिभा की विशेष देन है।
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==== <big>नारायण गुरु</big> ====
 
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हिन्दू समाज की धार्मिक आस्था पर अनैतिक साधनों से आक्रमण करने की कूट योजनाओं का प्रतिकार एवं निवारण करने और इस हेतु केरल में तथाकथित अछूतों के लिए मन्दिरों की स्थापना करने वाले नारायण गुरु का जन्म  [युगाब्द 4954-5029 (1853-1928 ई०)] केरल में एक अछूत कहलाने वाली जाति में हुआ था। संस्कृत भाषा और वेदान्त का गहन अध्ययन कर उन्होंने योग-साधना और तपस्या की तथा रोगी, निर्धन, अस्पृश्य एवं वनवासी बन्धुओं की सेवा-सुश्रुषा में अपने को खपा दिया। उनके बनवाये मन्दिर हिन्दू संगठन के केन्द्र बन गये। केरल में हिन्दू समाज के धर्मान्तरण की प्रवृत्ति को रोकने का चिरस्मरणीय कार्य यदि नारायण गुरु ने न किया होता तो केरल का हिन्दू समाज बहुसंख्या में धर्मभ्रष्ट हो गया होता।
'''<big>माधवसदाशिवरावगोलवलकर(श्री गुरुजी) [युगाब्द 5006-5074 (1906-1973ई०)]</big>'''
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक एवं आद्य सरसंघचालक डॉ० हेडगेवार जी का युगाब्द 5041 (1940 ई०) में असामयिक निधन हो जाने पर सरसंघचालक का दायित्व श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर जी के कधों पर आ गया। उनका जन्म नागपुर में हुआ था। काशी विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के रूप में काम करते हुए वे 'गुरुजी' नाम से प्रसिद्ध हुए।प्राध्याप की छोड़कर विधि-शिक्षा ली, किन्तु नैसर्गिक वैराग्य-वृत्ति के कारण सब कुछ छोड़कर सारगाछी (बंगाल) के स्वामी अखण्डानन्द के शिष्य बने और अध्यात्म-साधना में लीन हुए। स्वामी जी की मृत्यु के बाद,उन्हीं की प्रेरणा और आज्ञा से,समाजरूपी परमेश्वर की सेवा करने की ओर उन्मुख हुए और इस कार्य केलिएउन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघसर्वोपयुक्त जान पड़ा। 33 वर्ष (1940-1973) तक सरसंघचालक के रूप में उन्होंने संघकार्य का विस्तार करने के लिए अथक प्रयत्न किया, लाखों संस्कारित स्वयंसेवक खड़ेकिये, राष्ट्र एवं समाज-जीवन के विभिन्न क्षेत्रों का पुनर्निर्माण करने के लिए स्वयंसेवकों को अनेक संस्थाएँ गठित करने की प्रेरणा दी और विश्वभर के हिन्दुओं को एकता के सूत्र में बाँधने का प्रयास किया।
      
'''<big>नवचेतना प्रदान करने वाली ये (उपर्युक्त) विभूतियाँ सदैव स्मरण रखने योग्य हैं।</big>'''
 
'''<big>नवचेतना प्रदान करने वाली ये (उपर्युक्त) विभूतियाँ सदैव स्मरण रखने योग्य हैं।</big>'''
 
[[File:१९.PNG|center|thumb]]
 
[[File:१९.PNG|center|thumb]]
'''अनुक्ता ये भक्ता: प्रभुचरणसंसक्तहृदया:अनिर्दिष्टा वीरा अधिसमरमुदध्वस्तरिपव:।समाजोद्धतार: सुहितकरविज्ञाननिपुणा: नमस्तेभ्यो भूयात सकलसुजनेभ्य: प्रतिदिनम्॥32 ॥'''
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'''अनुक्ता ये भक्ता: प्रभुचरणसंसक्तहृदया:अनिर्दिष्टा वीरा अधिसमरमुदध्वस्तरिपव:। समाजोद्धतार: सुहितकरविज्ञाननिपुणा: नमस्तेभ्यो भूयात सकलसुजनेभ्य: प्रतिदिनम् ॥31  ॥'''
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इस स्तोत्र में जिनका उल्लेख नहीं हुआ है,ऐसे भी भगवान के चरणों में हृदय से समर्पित अनेक भक्त इस भूमि परहुए हैं,ऐसे अनेक अज्ञात वीर यहाँ हुए हैं जिन्होंने समरभूमि में शत्रुओं का विनाश किया हैतथा अनेक समाजोद्धारक और लोकहितकारी विज्ञान के आविष्कर्ता यहाँहुए,उन सभी सत्पुरुषों को प्रतिदिन हमारे प्रणाम समर्पित हों।  
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इस स्तोत्र में जिनका उल्लेख नहीं हुआ है, ऐसे भी भगवान के चरणों में हृदय से समर्पित अनेक भक्त इस भूमि पर हुए हैं, ऐसे अनेक अज्ञात वीर यहाँ हुए हैं जिन्होंने समरभूमि में शत्रुओं का विनाश किया है तथा अनेक समाजोद्धारक और लोकहितकारी विज्ञान के आविष्कर्ता यहाँ हुए, उन सभी सत्पुरुषों को प्रतिदिन हमारे प्रणाम समर्पित हों।  
    
'''इदमेकात्मतास्तोत्र श्रद्धया यः सदा पठेत्। स राष्ट्रधर्मनिष्ठावान् अखण्ड भारतं स्मरेत् । 33 ।'''  
 
'''इदमेकात्मतास्तोत्र श्रद्धया यः सदा पठेत्। स राष्ट्रधर्मनिष्ठावान् अखण्ड भारतं स्मरेत् । 33 ।'''  
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'''<big>॥ भारत माता की जय॥</big>'''
 
'''<big>॥ भारत माता की जय॥</big>'''
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==References==
 
==References==
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[[Category:बाल-शिक्षा पाठ्यक्रम]]
 
[[Category:बाल-शिक्षा पाठ्यक्रम]]
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[[Category:Hindi Articles]]
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[[Category:हिंदी भाषा के लेख]]
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