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<blockquote>श्रीरामो भरतः कृष्णो भीष्मो धर्मस्तथार्जुनः ।</blockquote><blockquote>मार्कण्डेयो हरिशचन्द्रः प्रह्लादो नारदो धुवः ॥ १२ ॥</blockquote>'''भगवान श्रीराम, भरत, कृष्ण, भीष्म, धर्मराज युधिष्ठिर अर्जुन. ऋषि मार्कण्डेय. हरिश्चन्द्र, प्रहलाद, नारद, ध्रुव संत तथा ॥१२ ॥'''
 
<blockquote>श्रीरामो भरतः कृष्णो भीष्मो धर्मस्तथार्जुनः ।</blockquote><blockquote>मार्कण्डेयो हरिशचन्द्रः प्रह्लादो नारदो धुवः ॥ १२ ॥</blockquote>'''भगवान श्रीराम, भरत, कृष्ण, भीष्म, धर्मराज युधिष्ठिर अर्जुन. ऋषि मार्कण्डेय. हरिश्चन्द्र, प्रहलाद, नारद, ध्रुव संत तथा ॥१२ ॥'''
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<blockquote>हनुमान जनको व्यासो वशिष्ठश्च शुको बलिः।</blockquote><blockquote>दधीचि विश्वकर्माणौ पृथुवाल्मीकिभागर्गवाः ॥ १३ ॥</blockquote>'''हनुमान, जनक, व्यास, वशिष्ठ, शुक देव, राजा बलि, दधीचि, विश्वकर्मा, पृथ, वाल्मीकि, भाग्गव (परशुराम) ॥ १३॥'''<blockquote>भगीरथश्चैकलव्यो मनुर्धन्वन्तरिस्तथा ।</blockquote><blockquote>शिबिश्च रन्तिदेवश्च पुराणोद्गीतकीर्तयः ॥ १४ ॥</blockquote>'''भगीरथ, एकलव्य मनु, धन्वन्तरि.. शिबि तथा रन्तिदेव की कीर्ति पुराणों में गाई गई है । । १४॥'''<blockquote>बुद्धा जिनेन्द्रा गोरक्षः पाणिनिश्च पत०जलि ।</blockquote><blockquote>शंकरो मध्वनिम्बाकौं श्रीरामानुजवल्लभौ । । १५॥</blockquote>'''बुद्ध के सभी अवतार, सभी तीर्थकर, गुरु गोरखनाथ, पाणिनि, पंतजलि, शंकाराचार्य, मध्वार्चा, निम्बाक्काचार्य. रामनुजाचार्य तथा बल्लभाचार्य, ॥ १५॥'''<blockquote>झुलेलालोऽथ चैतन्यः तिरुवल्लुवरस्तथा।</blockquote><blockquote>नायन्मारालवाराश्च कंबश्च बसवेश्वरः ॥ १६॥</blockquote>'''झूलेलाल, महाप्रभु चैतन्य, तिरुवल्लु वर, नायन्मार तथा आलवार सन्तपरम्मरा, कंब, बसवेश्वर तथा ॥ १६॥'''<blockquote>देवलो रविवासश्च कबीरो गुरुनानकः ।</blockquote><blockquote>नरसिस्तुलसीदासो दशमेशो दुढव्रतः ॥ १७ ॥</blockquote>'''महर्षि देवल, सन्त रविदास, कबीर, गुरुनानक, नरसी मेहता, तुलसीदास, दृढव्रती गुरुगोविन्दसिंह, ॥ १७॥'''<blockquote>श्रीमत् शंकरदेवश्च बन्धू सायण-माधवौ ।</blockquote><blockquote>ज्ञानेश्वरस्तुकारामो रामदासा: पुरन्दरः ॥ १८ ॥</blockquote>'''आसाम के वैष्णव सन्त श्रीमत् शंकरदेव, सायणाचार्य, माधवाचार्य संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, समर्थगुरु रामदास, पुरन्दरदास ॥ १८ ॥'''<blockquote>बिरसा सहजानन्दो रामानन्दस्तथा महान् ।</blockquote><blockquote>वितरन्तु सदैवेते दैवीं सद्गुणसम्पदम् ॥ १९॥</blockquote>'''बिरसामुण्डा, स्वामी सहजानन्द, रामानन्द आदि महान पुरुष सदैव समाज को श्रेष्ठ गुण प्रदान करें । १९॥'''<blockquote>भरतर्षिः कालिदासः श्रीभोजो जकणस्तथा।</blockquote><blockquote>सूरदासस्त्यागराजो रसखानश्च सत्कविः । । २० ॥</blockquote>'''नाट्यशास्त्र के आदि गुरु भरत ऋषि, संस्कृत के विद्वान कालिदास, महाराजा भोज, जकण, महात्मा सूरदास, त्यागराज,रसखान जैसे श्रेष्ठ कवि तथा॥ २० ॥'''<blockquote>रविवर्मा भातखण्डे भाग्यचन्द्रः स भूपतिः।</blockquote><blockquote>कलावन्तश्च विख्याता स्मरणीया निरन्तरम् ॥ २१  ॥</blockquote>'''महान चित्रकार रविवर्मा, वर्तमान संगीत कला के विख्यात उद्धारक भातखण्डे, मणिपुर के राजा भाग्यचन्द्र आदि विख्यात कलाकार सर्वदा स्मरणीय हैं॥२१ ॥'''<blockquote>अगस्त्यः कम्बुकौण्डिन्यौ राजेन्द्रश्चोलवं शजः ।</blockquote><blockquote>अशोकः पुष्यमित्रश्च खारवेलः सुनीतिमान् ॥ २२ ॥</blockquote>'''अगस्त्य, कम्बु, कौण्डिन्य, चोलवंशज राजेन्द्र, अशोक, पुष्यमित्र तथा खारवेल नीतिज्ञ हैं ॥ २२ । ।'''<blockquote>चाणक्य-चन्द्रगुप्तौ च विक्रमः शालिवाहन: ।</blockquote><blockquote>समुद्रगुप्तः श्रीहर्षः शैलेन्द्रो बप्परावलः ॥ २३॥</blockquote>'''चाणक्य, चन्द्रगुप्त, विक्रमादित्य, शालिवाहन. समुद्रगुप्त, हर्षवर्धन, शैलेन्द्र, बेप्पारावल तथा॥ २३॥'''<blockquote>लाचिद् भास्करवर्मा च यशोधर्मा च हुणजित् ।</blockquote><blockquote>श्रीकृष्णदेवरायश्च ललितादित्य उद्बल: ॥ २४ ॥</blockquote>'''लाचिद् बड़फुंकन, भास्करवर्मा, हूणविजयी यशोध्मा श्रीकृष्णदेवराय तथा ललितादित्य जैसे वलशाली॥ २४ ॥'''<blockquote>मुसुनूरिनायकौ तौ प्रतापः शिवभूपतिः ।</blockquote><blockquote>रणजित्सिंह इत्येते वीरा विख्यातविक्रमाः । । २५ ॥</blockquote>'''प्रोलय नायक, कप्पयनायक, महाराणाप्रताप, महाराज शिवाजी तथा रणजीत सिंह, इस देश में ऐसे विख्यात पराक्रमी वीर हुए हैं॥ २५॥'''<blockquote>वैज्ञानिकाश्च कपिलः कणादः सुश्रुतस्तथा।</blockquote><blockquote>चरको भास्कराचा्यों वराहमिहिरः सुधी:॥ २६ ॥</blockquote>'''हमारे बुद्धिमान वैज्ञानिक कपिलमुनि, कणाद् ऋषि सुश्रुत चरक, भास्काराचार्य तथा वराहमिहिर। । २६ ॥'''<blockquote>नागार्जुनो भरद्वाज आर्यभट्टो बसुर्बुधः ।</blockquote><blockquote>ध्येयो वेड्टरामश्च विज्ञा रामानुजादयः ॥ २७ ॥</blockquote>'''नागार्जुन, भरद्वाज, आर्यभट्ट, जगदीशचन्द्र बसु चन्द्रशेखर वेंकट रमन तथा राजमानुजम् जैसे प्रतिभावान वैज्ञानिक स्मरणीय हैं॥ २७  ॥'''<blockquote>रामकृष्णो दयानन्दो रवीन्द्रो राममोहनः ।</blockquote><blockquote>रामतीर्थोऽरविंदश्च विवेकानन्द उद्यशाः॥ २८ ॥</blockquote>'''रामकृष्ण परमहंस, स्वामी दयानन्द. रवीन्द्रनाथ टैगोर राज राममोहनराय, स्वामी रामतीर्थ, महर्षि अरविन्द स्वामी विवेकानन्द तथा॥ २८ ॥'''<blockquote>दादाभाई गोपबन्धुः तिलको गान्धिरादृता।</blockquote><blockquote>रमणो मालवीयश्च श्री सुब्रह्मण्यभारती॥ २९ ॥ </blockquote>'''दादाभाई नौरोजी. गोपबंध दवास महात्मा गॉँधी,  बालगंगाधर तिलक. महर्षि रमण, महामना मालवीय तथा सुब्रह्मण्य भारती आदरणीय हैं॥२९ ॥'''<blockquote>सुभाषः प्रणवानन्दः क्रान्तिवीरो विनायक:।</blockquote><blockquote>ठक्करो भीमरावश्च फुले नारायणो गुरु: तथा ॥ ३० ॥</blockquote>'''नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, प्रणवानन्द, क्रान्तिवीर विनायक दामोदर सावरकर, ठक्कर बाप्पा, भीमराव अम्बेडकर, ज्योतिराव फुले , नारायण गुरु तथा ॥ ३०॥'''<blockquote>अनुक्ता ये भक्ताः प्रभुचरणसंसक्तहृदयाः</blockquote><blockquote>अनिर्दिष्टा वीरा अधिसमरमुद्ध्वस्तरिपवः ।</blockquote><blockquote>समाजोद्धर्तारः सुहितकरविज्ञाननिपुणाः</blockquote><blockquote>नमस्तेभ्यो भूयात् सकलसुजनेभ्यः प्रतिदिनम् ।॥ ३१  ॥</blockquote>'''प्रभुचरण में अनुरक्त रहने वाले अनेक भक्त जो शेष रह गए, देश की अस्मिता और अखण्डता पर प्रहार करने वाले शत्रुओं युद्ध में परास्त करने वाले बहुत से वीर जिनके नामों का उल्लेख नहीं हो पाया, तथा अन्य समाजोद्धारक, समाज के हितचिन्तक तथा निपुण वैज्ञानिक एवं सभी श्रेष्ठजनों को प्रतिदिन हमारे प्रणाम समर्पित हों॥३२॥'''<blockquote>इदमेकात्मतास्तोत्रं श्रद्धया यः सदा पठेत् !</blockquote><blockquote>स राष्ट्रधर्मनिष्ठावान् अखण्डं भारतं स्मरेत् ॥ ३२ ॥</blockquote>'''इस एकात्मता स्तोत्र का जो सदा श्रद्धापूर्वक पाठ करेगा, राष्ट्रधर्म में निष्ठावान वह (व्यक्ति) अखण्ड भारत का स्मरण करेगा॥ ३२ ॥'''
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<blockquote>हनुमान जनको व्यासो वशिष्ठश्च शुको बलिः।</blockquote><blockquote>दधीचि विश्वकर्माणौ पृथुवाल्मीकिभागर्गवाः ॥ १३ ॥</blockquote>'''हनुमान, जनक, व्यास, वशिष्ठ, शुक देव, राजा बलि, दधीचि, विश्वकर्मा, पृथ, वाल्मीकि, भाग्गव (परशुराम) ॥ १३॥'''<blockquote>भगीरथश्चैकलव्यो मनुर्धन्वन्तरिस्तथा ।</blockquote><blockquote>शिबिश्च रन्तिदेवश्च पुराणोद्गीतकीर्तयः ॥ १४ ॥</blockquote>'''भगीरथ, एकलव्य मनु, धन्वन्तरि.. शिबि तथा रन्तिदेव की कीर्ति पुराणों में गाई गई है । । १४॥'''<blockquote>बुद्धा जिनेन्द्रा गोरक्षः पाणिनिश्च पत०जलि ।</blockquote><blockquote>शंकरो मध्वनिम्बाकौं श्रीरामानुजवल्लभौ । । १५॥</blockquote>'''बुद्ध के सभी अवतार, सभी तीर्थकर, गुरु गोरखनाथ, पाणिनि, पंतजलि, शंकाराचार्य, मध्वार्चा, निम्बाक्काचार्य. रामनुजाचार्य तथा बल्लभाचार्य, ॥ १५॥'''<blockquote>झुलेलालोऽथ चैतन्यः तिरुवल्लुवरस्तथा।</blockquote><blockquote>नायन्मारालवाराश्च कंबश्च बसवेश्वरः ॥ १६॥</blockquote>'''झूलेलाल, महाप्रभु चैतन्य, तिरुवल्लु वर, नायन्मार तथा आलवार सन्तपरम्मरा, कंब, बसवेश्वर तथा ॥ १६॥'''<blockquote>देवलो रविवासश्च कबीरो गुरुनानकः ।</blockquote><blockquote>नरसिस्तुलसीदासो दशमेशो दुढव्रतः ॥ १७ ॥</blockquote>'''महर्षि देवल, सन्त रविदास, कबीर, गुरुनानक, नरसी मेहता, तुलसीदास, दृढव्रती गुरुगोविन्दसिंह, ॥ १७॥'''<blockquote>श्रीमत् शंकरदेवश्च बन्धू सायण-माधवौ ।</blockquote><blockquote>ज्ञानेश्वरस्तुकारामो रामदासा: पुरन्दरः ॥ १८ ॥</blockquote>'''आसाम के वैष्णव सन्त श्रीमत् शंकरदेव, सायणाचार्य, माधवाचार्य संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, समर्थगुरु रामदास, पुरन्दरदास ॥ १८ ॥'''<blockquote>बिरसा सहजानन्दो रामानन्दस्तथा महान ।</blockquote><blockquote>वितरन्तु सदैवेते दैवीं सद्गुणसम्पदम् ॥ १९॥</blockquote>'''बिरसामुण्डा, स्वामी सहजानन्द, रामानन्द आदि महान पुरुष सदैव समाज को श्रेष्ठ गुण प्रदान करें । १९॥'''<blockquote>भरतर्षिः कालिदासः श्रीभोजो जकणस्तथा।</blockquote><blockquote>सूरदासस्त्यागराजो रसखानश्च सत्कविः । । २० ॥</blockquote>'''नाट्यशास्त्र के आदि गुरु भरत ऋषि, संस्कृत के विद्वान कालिदास, महाराजा भोज, जकण, महात्मा सूरदास, त्यागराज,रसखान जैसे श्रेष्ठ कवि तथा॥ २० ॥'''<blockquote>रविवर्मा भातखण्डे भाग्यचन्द्रः स भूपतिः।</blockquote><blockquote>कलावन्तश्च विख्याता स्मरणीया निरन्तरम् ॥ २१  ॥</blockquote>'''महान चित्रकार रविवर्मा, वर्तमान संगीत कला के विख्यात उद्धारक भातखण्डे, मणिपुर के राजा भाग्यचन्द्र आदि विख्यात कलाकार सर्वदा स्मरणीय हैं॥२१ ॥'''<blockquote>अगस्त्यः कम्बुकौण्डिन्यौ राजेन्द्रश्चोलवं शजः ।</blockquote><blockquote>अशोकः पुष्यमित्रश्च खारवेलः सुनीतिमान् ॥ २२ ॥</blockquote>'''अगस्त्य, कम्बु, कौण्डिन्य, चोलवंशज राजेन्द्र, अशोक, पुष्यमित्र तथा खारवेल नीतिज्ञ हैं ॥ २२ । ।'''<blockquote>चाणक्य-चन्द्रगुप्तौ च विक्रमः शालिवाहन: ।</blockquote><blockquote>समुद्रगुप्तः श्रीहर्षः शैलेन्द्रो बप्परावलः ॥ २३॥</blockquote>'''चाणक्य, चन्द्रगुप्त, विक्रमादित्य, शालिवाहन. समुद्रगुप्त, हर्षवर्धन, शैलेन्द्र, बेप्पारावल तथा॥ २३॥'''<blockquote>लाचिद् भास्करवर्मा च यशोधर्मा च हुणजित् ।</blockquote><blockquote>श्रीकृष्णदेवरायश्च ललितादित्य उद्बल: ॥ २४ ॥</blockquote>'''लाचिद् बड़फुंकन, भास्करवर्मा, हूणविजयी यशोध्मा श्रीकृष्णदेवराय तथा ललितादित्य जैसे वलशाली॥ २४ ॥'''<blockquote>मुसुनूरिनायकौ तौ प्रतापः शिवभूपतिः ।</blockquote><blockquote>रणजित्सिंह इत्येते वीरा विख्यातविक्रमाः । । २५ ॥</blockquote>'''प्रोलय नायक, कप्पयनायक, महाराणाप्रताप, महाराज शिवाजी तथा रणजीत सिंह, इस देश में ऐसे विख्यात पराक्रमी वीर हुए हैं॥ २५॥'''<blockquote>वैज्ञानिकाश्च कपिलः कणादः सुश्रुतस्तथा।</blockquote><blockquote>चरको भास्कराचा्यों वराहमिहिरः सुधी:॥ २६ ॥</blockquote>'''हमारे बुद्धिमान वैज्ञानिक कपिलमुनि, कणाद् ऋषि सुश्रुत चरक, भास्काराचार्य तथा वराहमिहिर। । २६ ॥'''<blockquote>नागार्जुनो भरद्वाज आर्यभट्टो बसुर्बुधः ।</blockquote><blockquote>ध्येयो वेड्टरामश्च विज्ञा रामानुजादयः ॥ २७ ॥</blockquote>'''नागार्जुन, भरद्वाज, आर्यभट्ट, जगदीशचन्द्र बसु चन्द्रशेखर वेंकट रमन तथा राजमानुजम् जैसे प्रतिभावान वैज्ञानिक स्मरणीय हैं॥ २७  ॥'''<blockquote>रामकृष्णो दयानन्दो रवीन्द्रो राममोहनः ।</blockquote><blockquote>रामतीर्थोऽरविंदश्च विवेकानन्द उद्यशाः॥ २८ ॥</blockquote>'''रामकृष्ण परमहंस, स्वामी दयानन्द. रवीन्द्रनाथ टैगोर राज राममोहनराय, स्वामी रामतीर्थ, महर्षि अरविन्द स्वामी विवेकानन्द तथा॥ २८ ॥'''<blockquote>दादाभाई गोपबन्धुः तिलको गान्धिरादृता।</blockquote><blockquote>रमणो मालवीयश्च श्री सुब्रह्मण्यभारती॥ २९ ॥ </blockquote>'''दादाभाई नौरोजी. गोपबंध दवास महात्मा गॉँधी,  बालगंगाधर तिलक. महर्षि रमण, महामना मालवीय तथा सुब्रह्मण्य भारती आदरणीय हैं॥२९ ॥'''<blockquote>सुभाषः प्रणवानन्दः क्रान्तिवीरो विनायक:।</blockquote><blockquote>ठक्करो भीमरावश्च फुले नारायणो गुरु: तथा ॥ ३० ॥</blockquote>'''नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, प्रणवानन्द, क्रान्तिवीर विनायक दामोदर सावरकर, ठक्कर बाप्पा, भीमराव अम्बेडकर, ज्योतिराव फुले , नारायण गुरु तथा ॥ ३०॥'''<blockquote>अनुक्ता ये भक्ताः प्रभुचरणसंसक्तहृदयाः</blockquote><blockquote>अनिर्दिष्टा वीरा अधिसमरमुद्ध्वस्तरिपवः ।</blockquote><blockquote>समाजोद्धर्तारः सुहितकरविज्ञाननिपुणाः</blockquote><blockquote>नमस्तेभ्यो भूयात् सकलसुजनेभ्यः प्रतिदिनम् ।॥ ३१  ॥</blockquote>'''प्रभुचरण में अनुरक्त रहने वाले अनेक भक्त जो शेष रह गए, देश की अस्मिता और अखण्डता पर प्रहार करने वाले शत्रुओं युद्ध में परास्त करने वाले बहुत से वीर जिनके नामों का उल्लेख नहीं हो पाया, तथा अन्य समाजोद्धारक, समाज के हितचिन्तक तथा निपुण वैज्ञानिक एवं सभी श्रेष्ठजनों को प्रतिदिन हमारे प्रणाम समर्पित हों॥३२॥'''<blockquote>इदमेकात्मतास्तोत्रं श्रद्धया यः सदा पठेत् !</blockquote><blockquote>स राष्ट्रधर्मनिष्ठावान् अखण्डं भारतं स्मरेत् ॥ ३२ ॥</blockquote>'''इस एकात्मता स्तोत्र का जो सदा श्रद्धापूर्वक पाठ करेगा, राष्ट्रधर्म में निष्ठावान वह (व्यक्ति) अखण्ड भारत का स्मरण करेगा॥ ३२ ॥'''
    
॥ भारतमाता की जय ॥  
 
॥ भारतमाता की जय ॥  
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==== <big>हिमालय</big> ====
 
==== <big>हिमालय</big> ====
<sub><big>भारत के उत्तर में स्थित, सदैव हिममण्डित, विश्व का सबसे ऊँचा पर्वत, जिसे कालिदास ने ‘देवतात्मा' विशेषण से सम्बोधित किया था ।</big></sub> <blockquote>“अस्त्युतरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयी नाम नगाधिराज:।"  </blockquote>उत्तर की ओर से परकीय आक्रमणों को रोकने में सुदृढ़ प्राचीर की भाँति खड़े पर्वतराज हिमालय की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यह पर्वत भारत की अनेक महान् नदियों का उदगम-स्थल है। गंगा, यमुना,सिन्धु, ब्रह्मपुत्र जैसी महिमामयी विशाल नदियाँ हिमालय से ही नि:सृत हुई हैं। भगवान शिव का प्रिय निवास कैलाश पर्वत हिमालय में ही स्थित है। नर-नारायण का पवित्र स्थान यहीं है। गंगोत्री, यमुनोत्री, मानसरोवर, बद्रीनाथ, केदारनाथ जैसे सुप्रसिद्ध तीर्थ इसी महती पर्वत-श्रृंखला के क्रोड़ में बसे हैं। हिमालय के प्रांगण में ही राजा भगीरथ ने गंगा के अवतरण के लिए घोर तप किया था। यहीं देवी पार्वती ने जन्म लिया, जिन्होंने अपने महान् तप से भगवान शिव को पतिरूप में प्राप्त किया। यहीं बद्रीवन में भगवान व्यास ने अनेक महाग्रन्थों का प्रणयन किया। महाभारत के युद्ध के बाद पाण्डवों ने हिमालय-गमन किया था। भारत की पारम्परिक, सांस्कृतिक जीवनगाथा के असंख्य आख्यान हिमालय से जुड़े हुए हैं। यह युगों-युगों से ऋषि-मुनियों, योगियों, तपस्वियों और दार्शनिकों का वासस्थान रहा है।
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<sub><big>भारत के उत्तर में स्थित, सदैव हिममण्डित, विश्व का सबसे ऊँचा पर्वत, जिसे कालिदास ने ‘देवतात्मा' विशेषण से सम्बोधित किया था ।</big></sub> <blockquote>“अस्त्युतरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयी नाम नगाधिराज:।"  </blockquote>उत्तर की ओर से परकीय आक्रमणों को रोकने में सुदृढ़ प्राचीर की भाँति खड़े पर्वतराज हिमालय की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यह पर्वत भारत की अनेक महान नदियों का उदगम-स्थल है। गंगा, यमुना,सिन्धु, ब्रह्मपुत्र जैसी महिमामयी विशाल नदियाँ हिमालय से ही नि:सृत हुई हैं। भगवान शिव का प्रिय निवास कैलाश पर्वत हिमालय में ही स्थित है। नर-नारायण का पवित्र स्थान यहीं है। गंगोत्री, यमुनोत्री, मानसरोवर, बद्रीनाथ, केदारनाथ जैसे सुप्रसिद्ध तीर्थ इसी महती पर्वत-श्रृंखला के क्रोड़ में बसे हैं। हिमालय के प्रांगण में ही राजा भगीरथ ने गंगा के अवतरण के लिए घोर तप किया था। यहीं देवी पार्वती ने जन्म लिया, जिन्होंने अपने महान तप से भगवान शिव को पतिरूप में प्राप्त किया। यहीं बद्रीवन में भगवान व्यास ने अनेक महाग्रन्थों का प्रणयन किया। महाभारत के युद्ध के बाद पाण्डवों ने हिमालय-गमन किया था। भारत की पारम्परिक, सांस्कृतिक जीवनगाथा के असंख्य आख्यान हिमालय से जुड़े हुए हैं। यह युगों-युगों से ऋषि-मुनियों, योगियों, तपस्वियों और दार्शनिकों का वासस्थान रहा है।
    
==== <big>रैवतक पर्वत </big> ====
 
==== <big>रैवतक पर्वत </big> ====
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==== <big>पुरी (जगन्नाथपुरी)</big> ====
 
==== <big>पुरी (जगन्नाथपुरी)</big> ====
उड़ीसा में गंगासागर तट पर स्थित जगन्नाथपुरी शैव, वैष्णव और बौद्ध, तीनों सम्प्रदायों के भक्तों का श्रद्धा-केंद्र है और पूरे वर्षभर प्रतिदिन सहस्त्रों लोग यहाँ दर्शनार्थ पहुँचते हैं। यह परमेश्वर के चार पावन धामों में से एक है। जगदगुरु शंकराचार्य का गोवर्धन मठ तथा चैतन्य महाप्रभु मठ भी पुरी में है। विख्यात जगन्नाथ मन्दिर करोड़ो लोगोंं का श्रद्धा-केंद्र है जिसे पुराणों में पुरुषोत्तम तीर्थ कहा गया है। वर्तमान जगन्नाथ मन्दिर 12 वीं शताब्दी में अनन्तचोल गंग नामक गंगवंशीय राजा ने बनवाया था, किन्तु ब्रह्मपुराण और स्कन्दपुराण के अनुसार (इस से पूर्व) यहाँ उज्जयिनी-नरेश इन्द्रद्युम्न ने मन्दिर-निर्माण कराया था। इस मंदिर में श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा की काष्ठ-मूतियाँ हैं। जगन्नाथ के महान् रथ की यात्रा भारत की एक प्रमुख यात्रा मानी जाती है। लाखों लोग भगवान जगन्नाथ के रथ को खींचकर चलाते हैं। इस तीर्थ की एक विशेषता यह है कि यहाँ जाति-पाँति के छुआछुत का भेदभाव नहीं माना जाता। लोकोक्ति प्रसिद्ध है- 'जगतराथ' का भात, जगत पसारे हाथ, पूछे जात न पात।' पुरी के सिद्धि विनायक मन्दिर की विनायक मूर्ति मूर्तिकला की दृष्टि से भी दर्शनीय कृति है।  
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उड़ीसा में गंगासागर तट पर स्थित जगन्नाथपुरी शैव, वैष्णव और बौद्ध, तीनों सम्प्रदायों के भक्तों का श्रद्धा-केंद्र है और पूरे वर्षभर प्रतिदिन सहस्त्रों लोग यहाँ दर्शनार्थ पहुँचते हैं। यह परमेश्वर के चार पावन धामों में से एक है। जगदगुरु शंकराचार्य का गोवर्धन मठ तथा चैतन्य महाप्रभु मठ भी पुरी में है। विख्यात जगन्नाथ मन्दिर करोड़ो लोगोंं का श्रद्धा-केंद्र है जिसे पुराणों में पुरुषोत्तम तीर्थ कहा गया है। वर्तमान जगन्नाथ मन्दिर 12 वीं शताब्दी में अनन्तचोल गंग नामक गंगवंशीय राजा ने बनवाया था, किन्तु ब्रह्मपुराण और स्कन्दपुराण के अनुसार (इस से पूर्व) यहाँ उज्जयिनी-नरेश इन्द्रद्युम्न ने मन्दिर-निर्माण कराया था। इस मंदिर में श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा की काष्ठ-मूतियाँ हैं। जगन्नाथ के महान रथ की यात्रा भारत की एक प्रमुख यात्रा मानी जाती है। लाखों लोग भगवान जगन्नाथ के रथ को खींचकर चलाते हैं। इस तीर्थ की एक विशेषता यह है कि यहाँ जाति-पाँति के छुआछुत का भेदभाव नहीं माना जाता। लोकोक्ति प्रसिद्ध है- 'जगतराथ' का भात, जगत पसारे हाथ, पूछे जात न पात।' पुरी के सिद्धि विनायक मन्दिर की विनायक मूर्ति मूर्तिकला की दृष्टि से भी दर्शनीय कृति है।  
    
==== <big>तक्षशिला</big> ====
 
==== <big>तक्षशिला</big> ====
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==== <big>पाटिलिपुत्र</big> ====
 
==== <big>पाटिलिपुत्र</big> ====
बिहार का सुप्रसिद्ध प्राचीन ऐतिहासिक नगर, जो अनेक साम्राज्यों और राजवंशों की राजधानी रहा, आजकल पटना नाम से प्रसिद्ध है। प्राचीन समय में इसे पाटिलिपुत्र या पाटलीपुत्र के अतिरिक्त कुसुमपुर, पुष्पपुर या कुसुमध्वज नामों से भी जाना जाता था। यह गंगा और शोणभद्र नदियों के संगम पर बसा है। ईसा से सैकड़ों वर्ष पूर्व बुद्ध के अनुयायी अजातशत्रु नामक राजा ने इस नगर का निर्माण करवाया था। स्वयं बुद्ध ने इसके उत्कर्ष की भविष्यवाणी की थी। यह दीर्घकाल तक मगध साम्राज्य की राजधानी रहा और इसने नन्द,मौर्य, शुग और गुप्त वंशों के महान् साम्राज्यों का उत्थान-पतन देखा। सिख पन्थ के दसवें गुरु श्री गोविन्द सिंह का जन्म पटना में ही हुआ था। स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद की भी यह कर्मभूमि रहा है।  
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बिहार का सुप्रसिद्ध प्राचीन ऐतिहासिक नगर, जो अनेक साम्राज्यों और राजवंशों की राजधानी रहा, आजकल पटना नाम से प्रसिद्ध है। प्राचीन समय में इसे पाटिलिपुत्र या पाटलीपुत्र के अतिरिक्त कुसुमपुर, पुष्पपुर या कुसुमध्वज नामों से भी जाना जाता था। यह गंगा और शोणभद्र नदियों के संगम पर बसा है। ईसा से सैकड़ों वर्ष पूर्व बुद्ध के अनुयायी अजातशत्रु नामक राजा ने इस नगर का निर्माण करवाया था। स्वयं बुद्ध ने इसके उत्कर्ष की भविष्यवाणी की थी। यह दीर्घकाल तक मगध साम्राज्य की राजधानी रहा और इसने नन्द,मौर्य, शुग और गुप्त वंशों के महान साम्राज्यों का उत्थान-पतन देखा। सिख पन्थ के दसवें गुरु श्री गोविन्द सिंह का जन्म पटना में ही हुआ था। स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद की भी यह कर्मभूमि रहा है।  
    
==== <big>विजयनगर</big> ====
 
==== <big>विजयनगर</big> ====
महान् विजयनगर साम्राज्य की स्थापना विद्यारण्य स्वामी (माधवाचार्य) के मार्गदर्शन में हरिहर और बुक़राय नामक दो वीर बंधुओं ने की थी, जिसकी यह राजधानी उन्होंने युगाब्द 4437 (सन् 1336) में बसायी। अपने गुरु विद्यारण्य स्वामी के नाम पर उन्होंने इसे विद्यानगर नाम दिया था। किन्तु बाद में यह विजय नगर से ही प्रसिद्ध हुआ। यह ऐतिहासिक नगर दक्षिण भारत में तुंगभद्रा नदी के तट पर बसा है। वेदमूलक हिन्दू धर्म तथा संस्कृति की सुरक्षा और संवर्धन विजयनगर साम्राज्य का उद्देश्य था। 'विजयनगरम्' में साम्राज्य- संस्थापक संगमवंश के पश्चात् सालुववंश और तुलुवबंश जैसे प्रतापी राजवंशों का भी आधिपत्य रहा। तुलुववंश के वीर पुरुष कृष्णदेवराय ने विजयनगर साम्राज्य का पर्याप्त उत्कर्ष किया और मुसलमानों द्वारा ध्वस्त किये गये मन्दिरों का जीर्णोद्वार किया। विजयनगर का साम्राज्य युगाब्द 4437 से 4666 (ई० 1336 से 1565) तक उत्कर्ष पर रहा। उसके विदेशों से भी दौत्य—सम्बन्ध थे।
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महान विजयनगर साम्राज्य की स्थापना विद्यारण्य स्वामी (माधवाचार्य) के मार्गदर्शन में हरिहर और बुक़राय नामक दो वीर बंधुओं ने की थी, जिसकी यह राजधानी उन्होंने युगाब्द 4437 (सन् 1336) में बसायी। अपने गुरु विद्यारण्य स्वामी के नाम पर उन्होंने इसे विद्यानगर नाम दिया था। किन्तु बाद में यह विजय नगर से ही प्रसिद्ध हुआ। यह ऐतिहासिक नगर दक्षिण भारत में तुंगभद्रा नदी के तट पर बसा है। वेदमूलक हिन्दू धर्म तथा संस्कृति की सुरक्षा और संवर्धन विजयनगर साम्राज्य का उद्देश्य था। 'विजयनगरम्' में साम्राज्य- संस्थापक संगमवंश के पश्चात् सालुववंश और तुलुवबंश जैसे प्रतापी राजवंशों का भी आधिपत्य रहा। तुलुववंश के वीर पुरुष कृष्णदेवराय ने विजयनगर साम्राज्य का पर्याप्त उत्कर्ष किया और मुसलमानों द्वारा ध्वस्त किये गये मन्दिरों का जीर्णोद्वार किया। विजयनगर का साम्राज्य युगाब्द 4437 से 4666 (ई० 1336 से 1565) तक उत्कर्ष पर रहा। उसके विदेशों से भी दौत्य—सम्बन्ध थे।
    
==== इन्द्रप्रस्थ ====
 
==== इन्द्रप्रस्थ ====
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==== <big>अहल्या (अहल्याबाई होलकर)</big> ====
 
==== <big>अहल्या (अहल्याबाई होलकर)</big> ====
देव-मन्दिरों का जीर्णोद्धार कर भारतीय संस्कृति की रक्षा करने वाली न्याय-परायणा, नीति-निपुणा, प्रजावत्सला रानी अहल्याबाई होलकर माणकोजी शिन्दे नामक पटेल की कन्या और इन्दौर के राजा मल्हारराव होलकर के पुत्र खण्डेराव की पत्नी थीं। खण्डेराव कुंभेरी की लड़ाई में मारे गये। अहल्याबाई अपने पुत्र भालेराव के नाम से राजकाज की देखभाल करती थीं। भालेराव भी शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त हो गया, अत: रानी इन्दौर की शासिका बनीं। पूना में उस समय छलपूर्वक पेशवा बन बैठे रघुनाथराव ने अहल्याबाई का राज्य भी हस्तगत करना चाहा, परन्तु रानी की राजनीति के कारण उसकी लालसा पूरी नहीं हो सकी। अहल्याबाई ने तीस वर्षों तक राज्य किया। उन्होंने लोकोपयोगी कार्यों पर उदार मन से धन व्यय किया और काशी-विश्वेश्वर, सोरटी-सोमनाथ, विष्णुपदी (गया),परली-बैजनाथ आदि महान् मन्दिरों का जीर्णोद्धार किया।  
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देव-मन्दिरों का जीर्णोद्धार कर भारतीय संस्कृति की रक्षा करने वाली न्याय-परायणा, नीति-निपुणा, प्रजावत्सला रानी अहल्याबाई होलकर माणकोजी शिन्दे नामक पटेल की कन्या और इन्दौर के राजा मल्हारराव होलकर के पुत्र खण्डेराव की पत्नी थीं। खण्डेराव कुंभेरी की लड़ाई में मारे गये। अहल्याबाई अपने पुत्र भालेराव के नाम से राजकाज की देखभाल करती थीं। भालेराव भी शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त हो गया, अत: रानी इन्दौर की शासिका बनीं। पूना में उस समय छलपूर्वक पेशवा बन बैठे रघुनाथराव ने अहल्याबाई का राज्य भी हस्तगत करना चाहा, परन्तु रानी की राजनीति के कारण उसकी लालसा पूरी नहीं हो सकी। अहल्याबाई ने तीस वर्षों तक राज्य किया। उन्होंने लोकोपयोगी कार्यों पर उदार मन से धन व्यय किया और काशी-विश्वेश्वर, सोरटी-सोमनाथ, विष्णुपदी (गया),परली-बैजनाथ आदि महान मन्दिरों का जीर्णोद्धार किया।  
    
==== <big>चन्नम्मा</big> ====
 
==== <big>चन्नम्मा</big> ====
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==== <big>भीष्म</big> ====
 
==== <big>भीष्म</big> ====
महाभारत कालीन श्रेष्ठ पुरुष तथा कौरव-पाण्डवों के पितामह। ये कुरुवंशी राजा शान्तनु के पुत्र थे, नाम था देवव्रत। भगवती गंगा इनकी माता थीं, अतः इन्हें गांगेय भी कहते हैं। ये परशुराम के शिष्य और महान् योद्धा थे। शान्तनु-सत्यवती के विवाह की बाधा को दूर करने के लिए इन्होंने आजीवन ब्रहमचारी रहने तथा सिंहासन पर न बैठने की कठोर प्रतिज्ञा की थी जिसका इन्होंने सदैव दृढ़ता से पालन किया। भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही ये भीष्म कहलाये। शस्त्र और शास्त्र दोनों विद्याओं में निष्णात भीष्म महाभारत युद्ध में कौरवों की ओर से लड़े थे और उनकी सेनाओं का सेनापतित्व भी किया था। अर्जुन के वाणों से बिंधा शरीर लिये भीष्म उत्तरायण होने तक शरशय्या पर लेटे रहे और धर्मराज युधिष्ठिर को राजधर्म का उत्कृष्ट उपदेश दिया, जो महाभारत के शान्तिपर्व में उपलब्ध है। इसमें भारतीय राजनीति, समाजनीति और धर्मनीति का विस्तृत वर्णन है।  
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महाभारत कालीन श्रेष्ठ पुरुष तथा कौरव-पाण्डवों के पितामह। ये कुरुवंशी राजा शान्तनु के पुत्र थे, नाम था देवव्रत। भगवती गंगा इनकी माता थीं, अतः इन्हें गांगेय भी कहते हैं। ये परशुराम के शिष्य और महान योद्धा थे। शान्तनु-सत्यवती के विवाह की बाधा को दूर करने के लिए इन्होंने आजीवन ब्रहमचारी रहने तथा सिंहासन पर न बैठने की कठोर प्रतिज्ञा की थी जिसका इन्होंने सदैव दृढ़ता से पालन किया। भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही ये भीष्म कहलाये। शस्त्र और शास्त्र दोनों विद्याओं में निष्णात भीष्म महाभारत युद्ध में कौरवों की ओर से लड़े थे और उनकी सेनाओं का सेनापतित्व भी किया था। अर्जुन के वाणों से बिंधा शरीर लिये भीष्म उत्तरायण होने तक शरशय्या पर लेटे रहे और धर्मराज युधिष्ठिर को राजधर्म का उत्कृष्ट उपदेश दिया, जो महाभारत के शान्तिपर्व में उपलब्ध है। इसमें भारतीय राजनीति, समाजनीति और धर्मनीति का विस्तृत वर्णन है।  
    
==== <big>युधिष्ठिर</big> ====
 
==== <big>युधिष्ठिर</big> ====
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==== <big>नारद</big> ====
 
==== <big>नारद</big> ====
चारों वेद, इतिहास-पुराण, स्मृति, व्याकरण, दर्शनादि नाना विद्याओं में पारंगत देवर्षि नारद भागवत धर्म के आधार पांचरात्र के प्रवर्तक, भक्ति,संगीत-विद्या, नीति आदि के मुख्याचार्य, नित्य परिव्राजक, रामकथा के आदिकवि वाल्मीकि तथा वैदिक संस्कृति के व्यवस्थापक एवं महाभारतकार वेदव्यास के प्रेरक,जीवमात्र के कल्याण के व्रती, बालक ध्रुव के उपदेष्टा, देव-दैत्य दोनों के ही सम्मान के पात्र और भगवद्भक्ति के प्रचारक, महान् वैष्णव हैं। इन्हें ब्रह्मा का मानस पुत्र कहा जाता है। भगवानब्रह्मा से प्राप्त वीणा लेकर बराबर भगवन्नामगुण गाते रहना ही इनका स्वभाव है। नारद सतत तीनों लोकों में भ्रमण करने वाले और कहाँ क्या चल रहा है, इसका ज्ञान रखने वाले आदि संवाददाता हैं। ये धर्म-संस्थापना के भगवत्कार्य में सदैव सहयोगी रहते हैं।  
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चारों वेद, इतिहास-पुराण, स्मृति, व्याकरण, दर्शनादि नाना विद्याओं में पारंगत देवर्षि नारद भागवत धर्म के आधार पांचरात्र के प्रवर्तक, भक्ति,संगीत-विद्या, नीति आदि के मुख्याचार्य, नित्य परिव्राजक, रामकथा के आदिकवि वाल्मीकि तथा वैदिक संस्कृति के व्यवस्थापक एवं महाभारतकार वेदव्यास के प्रेरक,जीवमात्र के कल्याण के व्रती, बालक ध्रुव के उपदेष्टा, देव-दैत्य दोनों के ही सम्मान के पात्र और भगवद्भक्ति के प्रचारक, महान वैष्णव हैं। इन्हें ब्रह्मा का मानस पुत्र कहा जाता है। भगवानब्रह्मा से प्राप्त वीणा लेकर बराबर भगवन्नामगुण गाते रहना ही इनका स्वभाव है। नारद सतत तीनों लोकों में भ्रमण करने वाले और कहाँ क्या चल रहा है, इसका ज्ञान रखने वाले आदि संवाददाता हैं। ये धर्म-संस्थापना के भगवत्कार्य में सदैव सहयोगी रहते हैं।  
    
==== <big>ध्रुव</big> ====
 
==== <big>ध्रुव</big> ====
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==== <big>हनुमान</big> ====
 
==== <big>हनुमान</big> ====
भगवानराम के अनन्य भक्त एवं सेवक श्री हनुमान सुमेरु के राजा केसरी और गौतम-कन्या अंजनी के पुत्र हैं। इन्हें पवन—पुत्र और महाबली के नाम से भी स्मरण किया जाता है। बचपन में सूर्य को फल समझकर उसे तोड़ लाने के लिए झपटकर उसका अतिक्रमण किया, अपने मित्र किष्किन्धापति सुग्रीव से राम-लक्ष्मण की भेंट करायी, सीता की खोज में राम के सहायक बने, सागर लांघकर लंका गये, राम की मुद्रिका सीता माता तक पहुँचायी, अनेक राक्षसों को मारा, लंका-दहन किया, राम-रावण-युद्ध में महान् पराक्रम किया तथा शक्ति लगने के कारण लक्ष्मण के मूच्छित होने पर संजीवनी ओषधि के लिए द्रोणगिरि को उठा लाये। अतुल पराक्रमी, महाबली हनुमान् की उपासना को आधार बनाकर संतों-भक्तों ने समय-समय पर सद्धार्मिकों में शक्ति और बल का संचार करने के उपाय किये हैं। अजेय शक्ति के धनी, निष्कलंक चारित्र्य से सम्पन्न, ज्ञानगुण के आगार, विवेकशील व ध्येयनिष्ठा से युक्त हनुमान् ने एक समर्पित कार्यकर्ता का अनुकरणीय आदर्श उपस्थित किया है।  
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भगवानराम के अनन्य भक्त एवं सेवक श्री हनुमान सुमेरु के राजा केसरी और गौतम-कन्या अंजनी के पुत्र हैं। इन्हें पवन—पुत्र और महाबली के नाम से भी स्मरण किया जाता है। बचपन में सूर्य को फल समझकर उसे तोड़ लाने के लिए झपटकर उसका अतिक्रमण किया, अपने मित्र किष्किन्धापति सुग्रीव से राम-लक्ष्मण की भेंट करायी, सीता की खोज में राम के सहायक बने, सागर लांघकर लंका गये, राम की मुद्रिका सीता माता तक पहुँचायी, अनेक राक्षसों को मारा, लंका-दहन किया, राम-रावण-युद्ध में महान पराक्रम किया तथा शक्ति लगने के कारण लक्ष्मण के मूच्छित होने पर संजीवनी ओषधि के लिए द्रोणगिरि को उठा लाये। अतुल पराक्रमी, महाबली हनुमान् की उपासना को आधार बनाकर संतों-भक्तों ने समय-समय पर सद्धार्मिकों में शक्ति और बल का संचार करने के उपाय किये हैं। अजेय शक्ति के धनी, निष्कलंक चारित्र्य से सम्पन्न, ज्ञानगुण के आगार, विवेकशील व ध्येयनिष्ठा से युक्त हनुमान् ने एक समर्पित कार्यकर्ता का अनुकरणीय आदर्श उपस्थित किया है।  
    
==== <big>जनक</big> ====
 
==== <big>जनक</big> ====
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==== <big>गोरखनाथ</big> ====
 
==== <big>गोरखनाथ</big> ====
महान् योगी, ज्ञानी तथा सिद्ध पुरुष गुरु गोरखनाथ प्रसिद्ध योगी मत्स्येंद्रनाथ के शिष्य थे। भारत के अनेक भागों – यथा उत्तर प्रदेश, बंगाल, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र इत्यादि प्रांतों के अतिरिक्त नेपाल में भी इनके मठ पाये जाते हैं। इन्होंने हठयोग की साधना का प्रचार किया, मन के निग्रह पर बल दिया और भारतीय साधना तथा साहित्य को बहुत प्रभावित किया। गोरखनाथ जी की चमत्कारिक योग-सिद्धियों से संबंधित अनेक कथाएँँ प्रचलित हैं।  
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महान योगी, ज्ञानी तथा सिद्ध पुरुष गुरु गोरखनाथ प्रसिद्ध योगी मत्स्येंद्रनाथ के शिष्य थे। भारत के अनेक भागों – यथा उत्तर प्रदेश, बंगाल, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र इत्यादि प्रांतों के अतिरिक्त नेपाल में भी इनके मठ पाये जाते हैं। इन्होंने हठयोग की साधना का प्रचार किया, मन के निग्रह पर बल दिया और भारतीय साधना तथा साहित्य को बहुत प्रभावित किया। गोरखनाथ जी की चमत्कारिक योग-सिद्धियों से संबंधित अनेक कथाएँँ प्रचलित हैं।  
    
==== <big>पाणिनी</big> ====
 
==== <big>पाणिनी</big> ====
महान् वैयाकरण एवं भाषा-विज्ञानी। इनका रचा व्याकरण-ग्रंथ 'अष्टाध्यायी' प्रचलित संस्कृत व्याकरण का आधार ग्रंथ है। प्रत्याहार एवं शब्दानुशासन, धातुपाठ, गणपाठ, उणादि सूत्र और लिंगानुशासन पाणिनीय व्याकरण के पाँच विभाग हैं। अष्टाध्यायी की रचना ईसा से सात सौ वर्ष पूर्व की प्रमाणित हुई है। पाणिनि के जीवन से संबंधित जानकारी अब भी अत्यल्प है। वे तक्षशिला के निकट शलातुर ग्राम में रहते थे। उनके असाधारण कार्य के स्वरूप को देखते हुए लगता है कि उन्होंने सम्पूर्ण देश की यात्रा करके शब्द-सम्पदा का चयन और भाषा-प्रयोग का व्यापक अध्ययन किया होगा। उनकी मृत्यु शायद व्याघ्र द्वारा हुई।  
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महान वैयाकरण एवं भाषा-विज्ञानी। इनका रचा व्याकरण-ग्रंथ 'अष्टाध्यायी' प्रचलित संस्कृत व्याकरण का आधार ग्रंथ है। प्रत्याहार एवं शब्दानुशासन, धातुपाठ, गणपाठ, उणादि सूत्र और लिंगानुशासन पाणिनीय व्याकरण के पाँच विभाग हैं। अष्टाध्यायी की रचना ईसा से सात सौ वर्ष पूर्व की प्रमाणित हुई है। पाणिनि के जीवन से संबंधित जानकारी अब भी अत्यल्प है। वे तक्षशिला के निकट शलातुर ग्राम में रहते थे। उनके असाधारण कार्य के स्वरूप को देखते हुए लगता है कि उन्होंने सम्पूर्ण देश की यात्रा करके शब्द-सम्पदा का चयन और भाषा-प्रयोग का व्यापक अध्ययन किया होगा। उनकी मृत्यु शायद व्याघ्र द्वारा हुई।  
    
पाणिनीय व्याकरण 14 माहेश्वर सूत्रों के आधार पर प्रतिष्ठित है, जिनके बारे में किंवदन्ती है कि वे भगवान शिव के डमरू से निकले और शंकर के आदेश पर ही पाणिनि ने उन सूत्रों को आधार बनाकर व्याकरण-रचना की। सम्भव है कि पाणिनि के गुरु का नाम महेश्वर रहा हो जिन्होंने इन सूत्रों की रचना कर इनके आधार पर शेष कार्य करने का आदेश उन्हें दिया हो। पाणिनीय व्याकरण में शब्दोच्चारण का ध्वनिविज्ञान इतना उत्कृष्ट और परिपूर्ण है कि आज के ध्वनि-वैज्ञानिकों को भी दाँतों तले अंगुली दबानी पड़ती है। आज से ढाई सहस्त्र वर्ष से भी पूर्व भारत में विज्ञान के एक अंग की अत्युन्नत स्थिति किसी को भी सोचने के लिए विवश कर देने वाली है। आज माना जा रहा है कि संगणकों (कम्पूटर) के लिए मध्यवर्ती भाषा के रूप में संस्कृत ही सर्वाधिक योग्य भाषा है। उत्तम व्याकरण के द्वारा संस्कृत के उन्नत स्वरूप को सुरक्षित करने में पाणिनि का योगदान अनुपम है।  
 
पाणिनीय व्याकरण 14 माहेश्वर सूत्रों के आधार पर प्रतिष्ठित है, जिनके बारे में किंवदन्ती है कि वे भगवान शिव के डमरू से निकले और शंकर के आदेश पर ही पाणिनि ने उन सूत्रों को आधार बनाकर व्याकरण-रचना की। सम्भव है कि पाणिनि के गुरु का नाम महेश्वर रहा हो जिन्होंने इन सूत्रों की रचना कर इनके आधार पर शेष कार्य करने का आदेश उन्हें दिया हो। पाणिनीय व्याकरण में शब्दोच्चारण का ध्वनिविज्ञान इतना उत्कृष्ट और परिपूर्ण है कि आज के ध्वनि-वैज्ञानिकों को भी दाँतों तले अंगुली दबानी पड़ती है। आज से ढाई सहस्त्र वर्ष से भी पूर्व भारत में विज्ञान के एक अंग की अत्युन्नत स्थिति किसी को भी सोचने के लिए विवश कर देने वाली है। आज माना जा रहा है कि संगणकों (कम्पूटर) के लिए मध्यवर्ती भाषा के रूप में संस्कृत ही सर्वाधिक योग्य भाषा है। उत्तम व्याकरण के द्वारा संस्कृत के उन्नत स्वरूप को सुरक्षित करने में पाणिनि का योगदान अनुपम है।  
    
==== <big>पतंजलि</big> ====
 
==== <big>पतंजलि</big> ====
महान् वैयाकरण, आयुर्वेदाचार्य और योगदर्शनाचार्य, जिन्होंने वाणी की शुद्धि के लिए व्याकरण शास्त्र का, शरीर-शुद्धि के लिए वैद्यक शास्त्र का और चित्त-शुद्धि के लिए योगशास्त्र का प्रणयन किया। गोनर्द प्रदेश में जन्मे पतंजलि ने पाणिनि की अष्टाध्यायी पर अपना उच्चकोटि का महाभाष्य लिखा तथा योगदर्शन के प्रतिपादन हेतु '''योगसूत्र''' की रचना की। प्रचलित राजयोग की सम्पूर्ण पद्धति, परिणाम और अन्तर्निहित सिंद्धात को इन्होंने 194 सूत्रों में संग्रहीत किया। योगसूत्रों में प्रतिपादित विषयों को साधारणत: चार भागों में बाँटा जा सकता है-योग-साधना सम्बन्धी विचार, यौगिक सिद्धियों का परिचय, योग के चरम बिंदुसमाधि का विवेचन और योग विद्या का दर्शन। पतङजलि के अनुसार चित्तवृत्तियों का निरोध योग है। चित्त की वृत्तियों के निरोध के बिना पुरुष (जीव) अपने शुद्ध रूप (कैवल्य) में नहीं स्थित होता। इस स्वरूपाव स्थान के लिए अष्टांग योग—यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का प्रतिपादन किया गया है। पतङजलि वैदिक संस्कृति के रक्षक सम्राट पुष्यमित्र शुंग के कुलगुरु और मार्गदर्शक कहे जाते हैं। उनका महाभाष्य संस्कृत व्याकरण का सर्वोच्च प्रमाण-ग्रंथ माना जाता है।
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महान वैयाकरण, आयुर्वेदाचार्य और योगदर्शनाचार्य, जिन्होंने वाणी की शुद्धि के लिए व्याकरण शास्त्र का, शरीर-शुद्धि के लिए वैद्यक शास्त्र का और चित्त-शुद्धि के लिए योगशास्त्र का प्रणयन किया। गोनर्द प्रदेश में जन्मे पतंजलि ने पाणिनि की अष्टाध्यायी पर अपना उच्चकोटि का महाभाष्य लिखा तथा योगदर्शन के प्रतिपादन हेतु '''योगसूत्र''' की रचना की। प्रचलित राजयोग की सम्पूर्ण पद्धति, परिणाम और अन्तर्निहित सिंद्धात को इन्होंने 194 सूत्रों में संग्रहीत किया। योगसूत्रों में प्रतिपादित विषयों को साधारणत: चार भागों में बाँटा जा सकता है-योग-साधना सम्बन्धी विचार, यौगिक सिद्धियों का परिचय, योग के चरम बिंदुसमाधि का विवेचन और योग विद्या का दर्शन। पतङजलि के अनुसार चित्तवृत्तियों का निरोध योग है। चित्त की वृत्तियों के निरोध के बिना पुरुष (जीव) अपने शुद्ध रूप (कैवल्य) में नहीं स्थित होता। इस स्वरूपाव स्थान के लिए अष्टांग योग—यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का प्रतिपादन किया गया है। पतङजलि वैदिक संस्कृति के रक्षक सम्राट पुष्यमित्र शुंग के कुलगुरु और मार्गदर्शक कहे जाते हैं। उनका महाभाष्य संस्कृत व्याकरण का सर्वोच्च प्रमाण-ग्रंथ माना जाता है।
    
==== <big>शंकराचार्य</big> ====
 
==== <big>शंकराचार्य</big> ====
मालाबार (केरल के कालडी ग्राम में जन्मे महान् दार्शनिक [युगाब्द 2593-2625(ई०पू० 509-477)]। बत्तीस वर्ष की अल्पायु में देहावसान होने से पूर्व इन्होंने जो-जो कार्य कर दिखाये, उनका कोई समतुल्य नहीं। आचार्य शंकर ने गीता, ब्रह्मसूत्र और उपनिषदों पर अत्युच्च कोटि के भाष्य लिखे, दक्षिण से उत्तर, पश्चिम से पूर्व, सारे देश की यात्राएँ कर शास्त्रार्थ में सब ओर दिग्विजय प्राप्त की और चारों दिशाओं में देश के चार कोनों में मठ स्थापित किये, जो राष्ट्रीय एकता के दिक्पाल बनकर खड़े हैं। बौद्ध मत में विकार आ जाने पर उसे प्रभावहीन बनाकर, वैदिक परम्परा की पुन:स्थापना करने में शंकर की महान भूमिका रही है। उन्होंने ब्रह्म को एकमात्र सत्य माना और अद्वैत मत एवं मायावाद का प्रतिपादन किया। इस मत पर उनका मुख्य ग्रंथ '''शारीरक भाष्य''' नाम से प्रसिद्ध है। आचार्य शंकर के विराधी उनको प्रच्छन्न बौद्ध कहते थे, क्योंकि उन्हें शंकर के अद्वैतवाद में बौद्धों के शून्यवाद की झलक दिखाई देती थी। दूसरी बात यह भी थी कि शंकराचार्य महात्मा बुद्ध का बहुत आदर करते थे। शंकराचार्य ने वेदान्त दर्शन को नवचैतन्य प्रदान किया और देश को सांस्कृतिक एकता में आबद्ध किया। अखिल भारतीय स्तर पर लोगोंं के व्यापक मेल-मिलाप के कारण भूत कुम्भ मेले की विच्छिन्न हुई परम्परा और तीर्थयात्राओं को उन्होंने फिर से प्रारम्भ कराया और शैव, वैष्णव, शाक्त, गाणपत्य आदि के पारस्परिक मतभेदों को मिटाते हुए मन्दिरों में सर्वमान्य पंचायतन पूजा की पद्धति डाली। अपने दार्शनिक विचारों में संसार को मिथ्या मानते हुए भी, मातृभूमि के कण-कण में पुण्यभूमि का भाव जगाते हुए आचार्य शंकर अपनी देशयात्रा में पड़ने वाले नदी-पर्वतादि की स्तुति में काव्य-रचना करते चलते थे। पिता शिवगुरु और माता आर्याम्बा के ऐसे अद्भुत, मेधावी, अद्भुतकर्मा पुत्र ने आठ वर्ष की आयु में ही संन्यास ले लिया था। इनके गुरु गोविन्द भगवत्पाद प्रसिद्ध अद्वैतवादी चिन्तक गौड़पादाचार्य के शिष्य थे।  
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मालाबार (केरल के कालडी ग्राम में जन्मे महान दार्शनिक [युगाब्द 2593-2625(ई०पू० 509-477)]। बत्तीस वर्ष की अल्पायु में देहावसान होने से पूर्व इन्होंने जो-जो कार्य कर दिखाये, उनका कोई समतुल्य नहीं। आचार्य शंकर ने गीता, ब्रह्मसूत्र और उपनिषदों पर अत्युच्च कोटि के भाष्य लिखे, दक्षिण से उत्तर, पश्चिम से पूर्व, सारे देश की यात्राएँ कर शास्त्रार्थ में सब ओर दिग्विजय प्राप्त की और चारों दिशाओं में देश के चार कोनों में मठ स्थापित किये, जो राष्ट्रीय एकता के दिक्पाल बनकर खड़े हैं। बौद्ध मत में विकार आ जाने पर उसे प्रभावहीन बनाकर, वैदिक परम्परा की पुन:स्थापना करने में शंकर की महान भूमिका रही है। उन्होंने ब्रह्म को एकमात्र सत्य माना और अद्वैत मत एवं मायावाद का प्रतिपादन किया। इस मत पर उनका मुख्य ग्रंथ '''शारीरक भाष्य''' नाम से प्रसिद्ध है। आचार्य शंकर के विराधी उनको प्रच्छन्न बौद्ध कहते थे, क्योंकि उन्हें शंकर के अद्वैतवाद में बौद्धों के शून्यवाद की झलक दिखाई देती थी। दूसरी बात यह भी थी कि शंकराचार्य महात्मा बुद्ध का बहुत आदर करते थे। शंकराचार्य ने वेदान्त दर्शन को नवचैतन्य प्रदान किया और देश को सांस्कृतिक एकता में आबद्ध किया। अखिल भारतीय स्तर पर लोगोंं के व्यापक मेल-मिलाप के कारण भूत कुम्भ मेले की विच्छिन्न हुई परम्परा और तीर्थयात्राओं को उन्होंने फिर से प्रारम्भ कराया और शैव, वैष्णव, शाक्त, गाणपत्य आदि के पारस्परिक मतभेदों को मिटाते हुए मन्दिरों में सर्वमान्य पंचायतन पूजा की पद्धति डाली। अपने दार्शनिक विचारों में संसार को मिथ्या मानते हुए भी, मातृभूमि के कण-कण में पुण्यभूमि का भाव जगाते हुए आचार्य शंकर अपनी देशयात्रा में पड़ने वाले नदी-पर्वतादि की स्तुति में काव्य-रचना करते चलते थे। पिता शिवगुरु और माता आर्याम्बा के ऐसे अद्भुत, मेधावी, अद्भुतकर्मा पुत्र ने आठ वर्ष की आयु में ही संन्यास ले लिया था। इनके गुरु गोविन्द भगवत्पाद प्रसिद्ध अद्वैतवादी चिन्तक गौड़पादाचार्य के शिष्य थे।  
    
==== <big>मध्वाचार्य</big> ====
 
==== <big>मध्वाचार्य</big> ====
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'''<big>सायणाचार्य और माधवाचार्य</big>'''  
 
'''<big>सायणाचार्य और माधवाचार्य</big>'''  
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कलियुग की 44 वीं—45वीं (ई० तेरहवीं-चौदहवीं) शताब्दी के भारत के इतिहास के दो महान् व्यक्तित्व, जो सगे भाई थे, और जिन्होंने विद्या एवं पाण्डित्य के क्षेत्र के अतिरिक्त राजनीति के कर्मक्षेत्र में अपूर्व योगदान कर स्वधर्म और स्वराष्ट्र-रक्षण का कार्य किया। दोनों भाई शस्त्रों और शास्त्रों में निष्णात थे। सायणाचार्य ने चारों वेदों पर भाष्य लिखे हैं। उनके भाष्य वेदाध्ययन-परम्परा की सुरक्षा के लिएबहुत महत्वपूर्ण औरनितान्त सामयिक आधारसिद्ध हुए। माधवाचार्य ने 'पंचदशी' नामक ग्रंथ लिखा, जो वेदान्त शास्त्र का सर्वमान्य ग्रंथ बना। मुस्लिम आक्रमणों से देश और धर्म की रक्षा के लिए हरिहर और बुक्कराय नामक दो वीर क्षत्रियों का मार्गदर्शन करते हुए विजयनगर साम्राज्य की स्थापना करवाकर माधवाचार्य ने कुछ समय प्रधानमंत्री के नाते राज्य को व्यवस्थित किया और फिर वह दायित्व अनुज सायणाचार्य को सौंपकर स्वयं संन्यास ले लिया तथा विद्यारण्य स्वामी के नाम से श्रृंगेरी पीठ के शंकराचार्य हुए।   
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कलियुग की 44 वीं—45वीं (ई० तेरहवीं-चौदहवीं) शताब्दी के भारत के इतिहास के दो महान व्यक्तित्व, जो सगे भाई थे, और जिन्होंने विद्या एवं पाण्डित्य के क्षेत्र के अतिरिक्त राजनीति के कर्मक्षेत्र में अपूर्व योगदान कर स्वधर्म और स्वराष्ट्र-रक्षण का कार्य किया। दोनों भाई शस्त्रों और शास्त्रों में निष्णात थे। सायणाचार्य ने चारों वेदों पर भाष्य लिखे हैं। उनके भाष्य वेदाध्ययन-परम्परा की सुरक्षा के लिएबहुत महत्वपूर्ण औरनितान्त सामयिक आधारसिद्ध हुए। माधवाचार्य ने 'पंचदशी' नामक ग्रंथ लिखा, जो वेदान्त शास्त्र का सर्वमान्य ग्रंथ बना। मुस्लिम आक्रमणों से देश और धर्म की रक्षा के लिए हरिहर और बुक्कराय नामक दो वीर क्षत्रियों का मार्गदर्शन करते हुए विजयनगर साम्राज्य की स्थापना करवाकर माधवाचार्य ने कुछ समय प्रधानमंत्री के नाते राज्य को व्यवस्थित किया और फिर वह दायित्व अनुज सायणाचार्य को सौंपकर स्वयं संन्यास ले लिया तथा विद्यारण्य स्वामी के नाम से श्रृंगेरी पीठ के शंकराचार्य हुए।   
    
'''<big>संत ज्ञानेश्वर [युगाब्द 4376-4397(ई० 1275-1296)]</big>'''  
 
'''<big>संत ज्ञानेश्वर [युगाब्द 4376-4397(ई० 1275-1296)]</big>'''  
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'''<big>पुरन्दरदास</big>'''  
 
'''<big>पुरन्दरदास</big>'''  
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कलियुगाब्द 47 वीं शताब्दी (ई० 16वीं) के कर्नाटक के महान् संत कवि, जिनके भजन कर्नाटकमें जन-जन की जिह्वा पर हैं। ये मध्य सम्प्रदाय के वैरागी कृष्णभक्त थे। इन्होंने भारत की तीर्थयात्रा की थी और विभिन्न क्षेत्रों में कुछ काल तक निवास करते हुए वहाँ के देवताओं पर भक्तिरसयुक्त पदों की रचना की थी। बड़ी संख्या में लिखे इनके पदों में से आज थोड़े ही उपलब्ध हैं। ये ‘दसिरपदगलू' के नाम से प्रसिद्ध हैं।  
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कलियुगाब्द 47 वीं शताब्दी (ई० 16वीं) के कर्नाटक के महान संत कवि, जिनके भजन कर्नाटकमें जन-जन की जिह्वा पर हैं। ये मध्य सम्प्रदाय के वैरागी कृष्णभक्त थे। इन्होंने भारत की तीर्थयात्रा की थी और विभिन्न क्षेत्रों में कुछ काल तक निवास करते हुए वहाँ के देवताओं पर भक्तिरसयुक्त पदों की रचना की थी। बड़ी संख्या में लिखे इनके पदों में से आज थोड़े ही उपलब्ध हैं। ये ‘दसिरपदगलू' के नाम से प्रसिद्ध हैं।  
 
[[File:4.PNG|center|thumb]]
 
[[File:4.PNG|center|thumb]]
<blockquote>'''बिरसा सहजानन्दो रामानन्दस्तथा महान्। वितरन्तु सदैवैते दैवीं सद्गुणसम्पदम् ॥19 ॥''' </blockquote>
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<blockquote>'''बिरसा सहजानन्दो रामानन्दस्तथा महान। वितरन्तु सदैवैते दैवीं सद्गुणसम्पदम् ॥19 ॥''' </blockquote>
    
'''<big>बिरसा</big>'''
 
'''<big>बिरसा</big>'''
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'''<big>भातखण्डे</big>'''  
 
'''<big>भातखण्डे</big>'''  
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युगाब्द 51वींशताब्दी (ईसा की 20वीं शती) में भारतीय संगीत केपुनरुद्धार कामहान्कार्य करने वाले मनीषियों में एक प्रमुख व्यक्तित्व, श्री भातखण्डे, व्यवसाय से अधिवक्ता थे। उनका जन्म महाराष्ट्र में हुआ था और वे बम्बई में सॉलिसिटर के रूप में कार्य करते थे। प्रारम्भ से ही संगीत में रुचि थी। मनरंग घराने के मुहम्मद अली खाँऔर अन्य संगीताचार्योंसे संगीत सीख कर उन्होंने अपना अधिकांश जीवन भारतीय संगीत में अनुसन्धान-कार्य और उसके प्रचार-प्रसार में लगा दिया। 'लक्ष्य मंजरी' और 'अभिनव राग मंजरी' उनकी बहुमूल्य कृतियाँहैं तथा लखनऊ *N का 'भातखण्डे संगीत विद्यापीठ' उनके योगदान का स्मरण दिलाता हुआ खड़ा है।  
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युगाब्द 51वींशताब्दी (ईसा की 20वीं शती) में भारतीय संगीत केपुनरुद्धार कामहानकार्य करने वाले मनीषियों में एक प्रमुख व्यक्तित्व, श्री भातखण्डे, व्यवसाय से अधिवक्ता थे। उनका जन्म महाराष्ट्र में हुआ था और वे बम्बई में सॉलिसिटर के रूप में कार्य करते थे। प्रारम्भ से ही संगीत में रुचि थी। मनरंग घराने के मुहम्मद अली खाँऔर अन्य संगीताचार्योंसे संगीत सीख कर उन्होंने अपना अधिकांश जीवन भारतीय संगीत में अनुसन्धान-कार्य और उसके प्रचार-प्रसार में लगा दिया। 'लक्ष्य मंजरी' और 'अभिनव राग मंजरी' उनकी बहुमूल्य कृतियाँहैं तथा लखनऊ *N का 'भातखण्डे संगीत विद्यापीठ' उनके योगदान का स्मरण दिलाता हुआ खड़ा है।  
    
'''<big>भाग्यचन्द्र</big>'''  
 
'''<big>भाग्यचन्द्र</big>'''  
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'''<big>कौण्डिन्य</big>'''  
 
'''<big>कौण्डिन्य</big>'''  
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दक्षिण भारतवासी वीर पुरुष, जिन्होंने कलियुग की 32वीं (ईसा की प्रथम) शताब्दी में समुद्र-मार्ग से पूर्व की ओर जाकर महान् साम्राज्य की स्थापना की,जिसे (चीनी भाषा में) फूनान साम्राज्य के नाम से जाना जाता है और जिसमें कम्बोडिया, अनाम, स्याम, मलाया, इण्डो—चायना इत्यादि पौर्वात्य प्रदेशों का अन्तर्भाव था। युगाब्द 35वीं (ई० चौथी) शताब्दी में दक्षिण भारत से कौण्डिन्य नाम का ही एक दूसरा वीर पुरुष फूनान साम्राज्य में गया था, जिसने हिन्दू धर्म तथा संस्कृति के पुनरुत्थान का अविस्मरणीय कार्य किया। कौण्डिन्य साम्राज्य के संस्थापक प्रथम कौण्डिन्य के राजवंश (सोमवंश) में चन्द्रवर्मा,जयवर्मा,रुद्रवर्मा इत्यादि महान् राजा हुए। फूनान के हिन्दूसाम्राज्य की ओर से पूर्व के अन्य राज्यों में दूतमण्डल भेजे जाते थे। इसी वंश के युगाब्द 36वीं (ई० पाँचवी) शताब्दी के शासक कौण्डिन्य जयवर्मा ने शाक्य नागसेन नामक भिक्षु को धर्म-प्रचारार्थ चीन भेजा था।  
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दक्षिण भारतवासी वीर पुरुष, जिन्होंने कलियुग की 32वीं (ईसा की प्रथम) शताब्दी में समुद्र-मार्ग से पूर्व की ओर जाकर महान साम्राज्य की स्थापना की,जिसे (चीनी भाषा में) फूनान साम्राज्य के नाम से जाना जाता है और जिसमें कम्बोडिया, अनाम, स्याम, मलाया, इण्डो—चायना इत्यादि पौर्वात्य प्रदेशों का अन्तर्भाव था। युगाब्द 35वीं (ई० चौथी) शताब्दी में दक्षिण भारत से कौण्डिन्य नाम का ही एक दूसरा वीर पुरुष फूनान साम्राज्य में गया था, जिसने हिन्दू धर्म तथा संस्कृति के पुनरुत्थान का अविस्मरणीय कार्य किया। कौण्डिन्य साम्राज्य के संस्थापक प्रथम कौण्डिन्य के राजवंश (सोमवंश) में चन्द्रवर्मा,जयवर्मा,रुद्रवर्मा इत्यादि महान राजा हुए। फूनान के हिन्दूसाम्राज्य की ओर से पूर्व के अन्य राज्यों में दूतमण्डल भेजे जाते थे। इसी वंश के युगाब्द 36वीं (ई० पाँचवी) शताब्दी के शासक कौण्डिन्य जयवर्मा ने शाक्य नागसेन नामक भिक्षु को धर्म-प्रचारार्थ चीन भेजा था।  
    
'''<big>राजेन्द्रचोल</big>'''  
 
'''<big>राजेन्द्रचोल</big>'''  
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<big>'''पुष्यमित्र [युगाब्द 1884 (ई० पू० 1218) में सिंहासनारूढ़]'''</big>  
 
<big>'''पुष्यमित्र [युगाब्द 1884 (ई० पू० 1218) में सिंहासनारूढ़]'''</big>  
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मौर्यों के बाद मगध में शुग वंश का राज्य प्रतिष्ठित करने वाले एक प्रतापी राजा। इन्होंने अन्तिम मौर्य राजा बृहद्रथ का वध कर मगध का सिंहासन प्राप्त किया, क्योंकि बृहद्रथ की अहिंसा-नीति सेनापति पुष्यमित्र शुग को देश की सीमाओं को आक्रान्त कर रहे विदेशियों के विरुद्ध सैनिक अभियान की अनुमतिदेनेमें सर्वथाबाधक थी। पुष्यमित्र ने पश्चिमी सीमान्त तक दिग्विजय कर यवनों को बाहर खदेड़ा और सिन्धु नदी के तट पर अश्वमेध यज्ञ किया। इन्होंने वैदिक धर्म की पुन:प्रतिष्ठा का महान् कार्य सम्पादित किया। पाटलिपुत्र में भी पुष्यमित्र ने भारी अश्वमेध यज्ञ किया। इनके दो अश्वमेध यज्ञ करने का उल्लेख अयोध्या के शिलालेख में मिलता है। भारतीय काल-गणना में पुष्यमित्र का समय कलियुग की 19वीं शताब्दी (ईसा से 1298 वर्ष पूर्व) माना जाताहै,किन्तु पाश्चात्य इतिहासकारों ने यह ईसा से दो शती पूर्व बताया है। इनके पुत्र अग्निमित्र का वृत्तान्त कालिदास के 'मालविकाग्निमित्रम्' नाटक में आया है।  
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मौर्यों के बाद मगध में शुग वंश का राज्य प्रतिष्ठित करने वाले एक प्रतापी राजा। इन्होंने अन्तिम मौर्य राजा बृहद्रथ का वध कर मगध का सिंहासन प्राप्त किया, क्योंकि बृहद्रथ की अहिंसा-नीति सेनापति पुष्यमित्र शुग को देश की सीमाओं को आक्रान्त कर रहे विदेशियों के विरुद्ध सैनिक अभियान की अनुमतिदेनेमें सर्वथाबाधक थी। पुष्यमित्र ने पश्चिमी सीमान्त तक दिग्विजय कर यवनों को बाहर खदेड़ा और सिन्धु नदी के तट पर अश्वमेध यज्ञ किया। इन्होंने वैदिक धर्म की पुन:प्रतिष्ठा का महान कार्य सम्पादित किया। पाटलिपुत्र में भी पुष्यमित्र ने भारी अश्वमेध यज्ञ किया। इनके दो अश्वमेध यज्ञ करने का उल्लेख अयोध्या के शिलालेख में मिलता है। भारतीय काल-गणना में पुष्यमित्र का समय कलियुग की 19वीं शताब्दी (ईसा से 1298 वर्ष पूर्व) माना जाताहै,किन्तु पाश्चात्य इतिहासकारों ने यह ईसा से दो शती पूर्व बताया है। इनके पुत्र अग्निमित्र का वृत्तान्त कालिदास के 'मालविकाग्निमित्रम्' नाटक में आया है।  
    
'''<big>खारवेल</big>'''
 
'''<big>खारवेल</big>'''
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'''<big>चन्द्रगुप्तमौर्य [युगाब्द 1568-1602 (ई०पू० 1534-1500) तक सिंहासनारूढ़]</big>'''  
 
'''<big>चन्द्रगुप्तमौर्य [युगाब्द 1568-1602 (ई०पू० 1534-1500) तक सिंहासनारूढ़]</big>'''  
   −
मौर्य वंश के महान् साम्राज्य के संस्थापक, जिन्होंने चाणक्य जैसे गुरु के मार्गदर्शन में एक ओर मगध में नंद वंश के बल-वैभव सेउन्मत्त राजा धननंद को परास्तकिया और दूसरी ओर भारत के पश्चिमोत्तर में यवन आक्रमण का प्रतिकार कर यवनों को पराभूत किया। चन्द्रगुप्त ने मगध राज्य को इतना विस्तृत किया कि वहपश्चिमोत्तर में भारत की नैसर्गिक सीमा हिन्दूकुश पर्वत तक जा पहुँचा औरदक्षिण का बहुत बड़ा भाग भीउसके अन्तर्गतआ गया। देश मेंइतना बड़ासाम्राज्य शताब्दियों से नहीं बना था। इससे राजनीतिक एकता के साथ-साथ देश की सांस्कृतिक एकता भी पुष्ट हुई और विदेशों में भी भारतवर्ष का प्रभाव-विस्तार हुआ। यूरोपीय इतिहासकारों के अनुसार यवन राजदूत मेगास्थनीज चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में पाटलिपुत्र भेजा गया था।  
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मौर्य वंश के महान साम्राज्य के संस्थापक, जिन्होंने चाणक्य जैसे गुरु के मार्गदर्शन में एक ओर मगध में नंद वंश के बल-वैभव सेउन्मत्त राजा धननंद को परास्तकिया और दूसरी ओर भारत के पश्चिमोत्तर में यवन आक्रमण का प्रतिकार कर यवनों को पराभूत किया। चन्द्रगुप्त ने मगध राज्य को इतना विस्तृत किया कि वहपश्चिमोत्तर में भारत की नैसर्गिक सीमा हिन्दूकुश पर्वत तक जा पहुँचा औरदक्षिण का बहुत बड़ा भाग भीउसके अन्तर्गतआ गया। देश मेंइतना बड़ासाम्राज्य शताब्दियों से नहीं बना था। इससे राजनीतिक एकता के साथ-साथ देश की सांस्कृतिक एकता भी पुष्ट हुई और विदेशों में भी भारतवर्ष का प्रभाव-विस्तार हुआ। यूरोपीय इतिहासकारों के अनुसार यवन राजदूत मेगास्थनीज चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में पाटलिपुत्र भेजा गया था।  
    
'''<big>विक्रमादित्य [युगाब्द 3020 (ई०पू० 82) में सिंहासनारूढ़]</big>'''  
 
'''<big>विक्रमादित्य [युगाब्द 3020 (ई०पू० 82) में सिंहासनारूढ़]</big>'''  
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'''<big>शालिवाहन [युगाब्द 3179 (ई० 78) में सिंहासनारूढ़]</big>'''  
 
'''<big>शालिवाहन [युगाब्द 3179 (ई० 78) में सिंहासनारूढ़]</big>'''  
   −
प्राचीन भारत का एक प्रसिद्ध राजवंश,जो सातवाहन अथवा शालिवाहन नाम से जाना जाता है और जिसका आधिपत्य कुष्णा-गोदावरी के मध्य था। इस महान् राजवंश में तीस प्रमुख राजा हुए,जिनमेंगौतमीपुत्र और शालिवाहन विशेष प्रसिद्ध हैं। मूलत: इनकी राजधानी आन्ध्र प्रदेश के गुण्टूरजिलेमें धनकटक(धरणीकोट) नगरमें थी। इन्होंने महाराष्ट्रपर छायेहुएविदेशी शक क्षत्रप को पराजित किया और गोदावरी के तट पर प्रतिष्ठानपुर (पैठण) में नयी राजधानी बनायी। शकों पर पुलुमायी शालिवाहन की विजय की स्मृति शालिवाहन शक संवत् के रूप में आज भी भारत में विद्यमान है।  
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प्राचीन भारत का एक प्रसिद्ध राजवंश,जो सातवाहन अथवा शालिवाहन नाम से जाना जाता है और जिसका आधिपत्य कुष्णा-गोदावरी के मध्य था। इस महान राजवंश में तीस प्रमुख राजा हुए,जिनमेंगौतमीपुत्र और शालिवाहन विशेष प्रसिद्ध हैं। मूलत: इनकी राजधानी आन्ध्र प्रदेश के गुण्टूरजिलेमें धनकटक(धरणीकोट) नगरमें थी। इन्होंने महाराष्ट्रपर छायेहुएविदेशी शक क्षत्रप को पराजित किया और गोदावरी के तट पर प्रतिष्ठानपुर (पैठण) में नयी राजधानी बनायी। शकों पर पुलुमायी शालिवाहन की विजय की स्मृति शालिवाहन शक संवत् के रूप में आज भी भारत में विद्यमान है।  
    
'''<big>समुद्रगुप्त [युगाब्द 2782 (ई०पू० 320) में सिंहासनारूढ़]</big>'''  
 
'''<big>समुद्रगुप्त [युगाब्द 2782 (ई०पू० 320) में सिंहासनारूढ़]</big>'''  
   −
सुप्रसिद्ध गुप्तवंशीय सम्राट् जिन्होंने अपने पराक्रम और सैन्य-अभियानों से गुप्त-साम्राज्य का पर्याप्त विस्तार किया। प्रयाग के स्तम्भ-लेख के अनुसार समुद्रगुप्त ने सम्पूर्ण भारत स्वायत्त किया था। भारत से बाहर के देशों से भी उनका सम्बन्ध था। समुद्रगुप्त के महान् पराक्रम और उदारता का वर्णन ईरान के एक प्राचीन अभिलेख में प्राप्त हुआ है, जिससे उनके दिग्विजय के विस्तार का अनुमान लगाया जा सकता है। दिग्विजय सम्पन्न करने के पश्चात् समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ किया था। जिन लोकोत्तर व्यक्तित्व सम्पन्न राजाओं के कारण गुप्तवंश का शासनकाल भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग कहलाया, उनमें सम्राट् समुद्रगुप्त का नाम सर्वोपरि है। वसुबन्धु नामक सुप्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् को समुद्रगुप्त का आश्रय प्राप्त था।  
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सुप्रसिद्ध गुप्तवंशीय सम्राट् जिन्होंने अपने पराक्रम और सैन्य-अभियानों से गुप्त-साम्राज्य का पर्याप्त विस्तार किया। प्रयाग के स्तम्भ-लेख के अनुसार समुद्रगुप्त ने सम्पूर्ण भारत स्वायत्त किया था। भारत से बाहर के देशों से भी उनका सम्बन्ध था। समुद्रगुप्त के महान पराक्रम और उदारता का वर्णन ईरान के एक प्राचीन अभिलेख में प्राप्त हुआ है, जिससे उनके दिग्विजय के विस्तार का अनुमान लगाया जा सकता है। दिग्विजय सम्पन्न करने के पश्चात् समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ किया था। जिन लोकोत्तर व्यक्तित्व सम्पन्न राजाओं के कारण गुप्तवंश का शासनकाल भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग कहलाया, उनमें सम्राट् समुद्रगुप्त का नाम सर्वोपरि है। वसुबन्धु नामक सुप्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् को समुद्रगुप्त का आश्रय प्राप्त था।  
    
'''<big>हर्षवर्द्धन</big>'''  
 
'''<big>हर्षवर्द्धन</big>'''  
   −
कलियुग की 38 वीं (ईसा की सातवीं) शताब्दी के महान् भारतीय सम्राट्,जिन्होंने सम्पूर्ण उत्तर भारत को हूणों के वर्चस्व से मुक्त कर एकछत्र राज्य के अन्तर्गत संगठित किया। ये  स्थानेश्वर-नरेश प्रभाकरवर्द्धन के पुत्र थे और बड़े भाई राज्यवर्द्धन की मृत्यु के बाद राजा बने। गुप्त साम्राज्य के अंत से छिन्न-भिन्न हुए भारत में फिर एक विशाल साम्राज्य की स्थापना कर उन्होंने कान्यकुब्ज (कन्नौज) को अपनी राजधानी बनाया और देश को पुन: एकता के सूत्र में बाँधने का यशस्वी कार्य सम्पादित किया। चीनी यात्री युवान् (ह्वेनत्सांग) हर्ष के शासनकाल में भारत आया था। हर्ष प्रति पाँचवें वर्ष प्रयाग में एक विशाल सम्मेलन कर सर्वस्व दान करते थे और सभी सम्प्रदायों के देवताओं का सम्मान करते थे। वे श्रेष्ठ लेखक भी थे और साहित्यकारों का आदर करते थे। उन्होंने 'नागानन्द','रत्नावली' और'प्रियदर्शिका' नामक ग्रंथों की रचना की। संस्कृत के सुप्रसिद्ध कवि बाणभट्ट हर्ष के सखा और राज-सभा के रत्न थे।  
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कलियुग की 38 वीं (ईसा की सातवीं) शताब्दी के महान भारतीय सम्राट्,जिन्होंने सम्पूर्ण उत्तर भारत को हूणों के वर्चस्व से मुक्त कर एकछत्र राज्य के अन्तर्गत संगठित किया। ये  स्थानेश्वर-नरेश प्रभाकरवर्द्धन के पुत्र थे और बड़े भाई राज्यवर्द्धन की मृत्यु के बाद राजा बने। गुप्त साम्राज्य के अंत से छिन्न-भिन्न हुए भारत में फिर एक विशाल साम्राज्य की स्थापना कर उन्होंने कान्यकुब्ज (कन्नौज) को अपनी राजधानी बनाया और देश को पुन: एकता के सूत्र में बाँधने का यशस्वी कार्य सम्पादित किया। चीनी यात्री युवान् (ह्वेनत्सांग) हर्ष के शासनकाल में भारत आया था। हर्ष प्रति पाँचवें वर्ष प्रयाग में एक विशाल सम्मेलन कर सर्वस्व दान करते थे और सभी सम्प्रदायों के देवताओं का सम्मान करते थे। वे श्रेष्ठ लेखक भी थे और साहित्यकारों का आदर करते थे। उन्होंने 'नागानन्द','रत्नावली' और'प्रियदर्शिका' नामक ग्रंथों की रचना की। संस्कृत के सुप्रसिद्ध कवि बाणभट्ट हर्ष के सखा और राज-सभा के रत्न थे।  
    
'''<big>शैलेन्द्र</big>'''
 
'''<big>शैलेन्द्र</big>'''
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'''<big>ललितादित्य [कलियुगाब्द 3825-3862 (ई०724-461)]</big>'''  
 
'''<big>ललितादित्य [कलियुगाब्द 3825-3862 (ई०724-461)]</big>'''  
   −
कश्मीर के महाराज प्रतापादित्य के तृतीयपुत्र,महान् योद्धा और विजेता,जिनका कीर्तिगान कश्मीर के इतिहासकार कवि कल्हण ने अपने ग्रंथ 'राजतरंगिणी' में किया है। विश्व-विजय के आकांक्षी ललितादित्य का राज्यकाल विजयों का इतिहास है। उन्होंने अरब, तुर्क, तातार आदि मुस्लिम आक्रामकों को न केवल पराजित किया,अपितुउनका दूरतक पीछा करऐसादमन किया कि आगे कीतीन शताब्दियों तकउन्हेंकश्मीर की ओर आँखउठाकरदेखनेकासाहस नहीं हुआ। ललितादित्य ने पंजाब, कन्नौज, तिब्बत, बदख्शान को अपने राज्य में मिलाया और विजित राजाओं से उदार बर्ताव किया। उन्होंने भगवान विष्णु और बुद्ध के बहुत से मन्दिर बनवाये।  
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कश्मीर के महाराज प्रतापादित्य के तृतीयपुत्र,महान योद्धा और विजेता,जिनका कीर्तिगान कश्मीर के इतिहासकार कवि कल्हण ने अपने ग्रंथ 'राजतरंगिणी' में किया है। विश्व-विजय के आकांक्षी ललितादित्य का राज्यकाल विजयों का इतिहास है। उन्होंने अरब, तुर्क, तातार आदि मुस्लिम आक्रामकों को न केवल पराजित किया,अपितुउनका दूरतक पीछा करऐसादमन किया कि आगे कीतीन शताब्दियों तकउन्हेंकश्मीर की ओर आँखउठाकरदेखनेकासाहस नहीं हुआ। ललितादित्य ने पंजाब, कन्नौज, तिब्बत, बदख्शान को अपने राज्य में मिलाया और विजित राजाओं से उदार बर्ताव किया। उन्होंने भगवान विष्णु और बुद्ध के बहुत से मन्दिर बनवाये।  
 
[[File:12.PNG|center|thumb]]
 
[[File:12.PNG|center|thumb]]
 
<blockquote>'''<big>मुसुनूरिनायकौ तौ प्रताप: शिवभूपति:। रणजित्सिंह इत्येते वीरा विख्यातविक्रमा: ॥25 ॥</big>''' </blockquote>
 
<blockquote>'''<big>मुसुनूरिनायकौ तौ प्रताप: शिवभूपति:। रणजित्सिंह इत्येते वीरा विख्यातविक्रमा: ॥25 ॥</big>''' </blockquote>
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'''<big>कपिल</big>'''
 
'''<big>कपिल</big>'''
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सांख्य सूत्रों के रचयिता दार्शनिक, जिन्हें श्रीमद्भागवत में विष्णु के 24 अवतारों में स्थान मिला है। इनकेमाता-पिता कानामकर्दम ऋषि औरदेवहूतिबतायागयाहै। प्रचलित सांख्यदर्शन के येप्रवर्तक माने जाते हैं। कपिल वेदान्तदर्शन की भाँति ब्रह्म या आत्मा को ही एकमात्र सत् नहीं मानते थे। उन्होंने असंख्य जीवों या 'पुरुषों' तथा प्रकृति को भी स्वतंत्र तत्च माना। चेतन पुरुष और जड़़ प्रकृति कपिल के मत में मुख्य तत्व हैं। प्रकृति नित्य है,जगत् की सारी वस्तुएँउसी के विकारहैं। पुरुष की समीपता मात्र से और उसके ही लिए प्रकृति में क्रियाउत्पन्न होती है,जिससे विश्व की वस्तुओं की उत्पत्ति और विनाश होता है। कपिल के उपदेशों का एक बड़ा संग्रह ‘षष्टितंत्र' कहा जाताहै। 'सांख्य सूत्र' और'सांख्य कारिका'सांख्यदर्शन केप्रमुख ग्रंथहैं। पुराणों में कपिल मुनि का वर्णन महान् तपस्वी सिद्धपुरुष के रूप में हैं।  
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सांख्य सूत्रों के रचयिता दार्शनिक, जिन्हें श्रीमद्भागवत में विष्णु के 24 अवतारों में स्थान मिला है। इनकेमाता-पिता कानामकर्दम ऋषि औरदेवहूतिबतायागयाहै। प्रचलित सांख्यदर्शन के येप्रवर्तक माने जाते हैं। कपिल वेदान्तदर्शन की भाँति ब्रह्म या आत्मा को ही एकमात्र सत् नहीं मानते थे। उन्होंने असंख्य जीवों या 'पुरुषों' तथा प्रकृति को भी स्वतंत्र तत्च माना। चेतन पुरुष और जड़़ प्रकृति कपिल के मत में मुख्य तत्व हैं। प्रकृति नित्य है,जगत् की सारी वस्तुएँउसी के विकारहैं। पुरुष की समीपता मात्र से और उसके ही लिए प्रकृति में क्रियाउत्पन्न होती है,जिससे विश्व की वस्तुओं की उत्पत्ति और विनाश होता है। कपिल के उपदेशों का एक बड़ा संग्रह ‘षष्टितंत्र' कहा जाताहै। 'सांख्य सूत्र' और'सांख्य कारिका'सांख्यदर्शन केप्रमुख ग्रंथहैं। पुराणों में कपिल मुनि का वर्णन महान तपस्वी सिद्धपुरुष के रूप में हैं।  
    
'''<big>कणाद</big>'''  
 
'''<big>कणाद</big>'''  
Line 699: Line 699:  
'''<big>आर्यभट्ट</big>'''
 
'''<big>आर्यभट्ट</big>'''
   −
कलिकी 36वीं (ई०पाँचवी )शतीमेंहुएभारत केमहान्ज्योतिषाचार्य।इन्होंने'आर्यभटीयम्' नामक ग्रंथ की रचना की, जो उपलब्ध सबसे प्राचीन ज्योतिष—ग्रंथों में गिना जाता है। अन्य ज्योतिषियों ने 'आर्यभटीयम्' को 'आर्य सिद्धान्त' कहा है। आर्यभट्ट ने यह सिंद्धात प्रतिपादित किया था कि सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा नहीं करता, प्रत्युत् पृथ्वी ही सूर्य की परिक्रमा करती है।  
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कलिकी 36वीं (ई०पाँचवी )शतीमेंहुएभारत केमहानज्योतिषाचार्य।इन्होंने'आर्यभटीयम्' नामक ग्रंथ की रचना की, जो उपलब्ध सबसे प्राचीन ज्योतिष—ग्रंथों में गिना जाता है। अन्य ज्योतिषियों ने 'आर्यभटीयम्' को 'आर्य सिद्धान्त' कहा है। आर्यभट्ट ने यह सिंद्धात प्रतिपादित किया था कि सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा नहीं करता, प्रत्युत् पृथ्वी ही सूर्य की परिक्रमा करती है।  
    
'''<big>जगदीशचन्द्र बसु [युगाब्द 4959-5038 (1858-1937 ई०)]</big>'''  
 
'''<big>जगदीशचन्द्र बसु [युगाब्द 4959-5038 (1858-1937 ई०)]</big>'''  
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पूर्वी बंगालमें जन्मे भारत के महान्वैज्ञानिक। वनस्पति शास्त्र और भौतिकीमें इनकी गहरी रुचि थी। इंग्लैड में अध्ययन करने के पश्चात संवत् 4986 (1885 ई०) में भारत लौटे और प्रेसीडेंसी कॉलेज में भैतिकी के प्रोफेसर बने। उन्होंने विद्युत-चुम्बकीयरेडियो तरंगें उत्पन्न करने के लिएएक यंत्र बनाया। संवत् 4996 (1895 ई०) में इन तरंगों की सहायता से उन्होंने 75 फुट दूरी पर टेलीफोन की घंटी बजायी। इन्हीं तरंगों के उपयोग का विकास करके मारकोनी नेरेडियो का आविष्कार किया। जगदीशचन्द्र बसुने वैज्ञानिकउपकरणोंद्वारा वनस्पतियों की सजीवता और प्रतिक्रियाशीलता सिद्ध की और इस प्रकार समस्त जीवमात्र की एकता सिद्ध की। वे रायल सोसाइटी के सदस्य चुने गये। सं० 5018 (1917 ई०) में उन्होंने कलकत्ता में 'बोस रिसर्च इंस्टीट्यूट' की स्थापना की।  
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पूर्वी बंगालमें जन्मे भारत के महानवैज्ञानिक। वनस्पति शास्त्र और भौतिकीमें इनकी गहरी रुचि थी। इंग्लैड में अध्ययन करने के पश्चात संवत् 4986 (1885 ई०) में भारत लौटे और प्रेसीडेंसी कॉलेज में भैतिकी के प्रोफेसर बने। उन्होंने विद्युत-चुम्बकीयरेडियो तरंगें उत्पन्न करने के लिएएक यंत्र बनाया। संवत् 4996 (1895 ई०) में इन तरंगों की सहायता से उन्होंने 75 फुट दूरी पर टेलीफोन की घंटी बजायी। इन्हीं तरंगों के उपयोग का विकास करके मारकोनी नेरेडियो का आविष्कार किया। जगदीशचन्द्र बसुने वैज्ञानिकउपकरणोंद्वारा वनस्पतियों की सजीवता और प्रतिक्रियाशीलता सिद्ध की और इस प्रकार समस्त जीवमात्र की एकता सिद्ध की। वे रायल सोसाइटी के सदस्य चुने गये। सं० 5018 (1917 ई०) में उन्होंने कलकत्ता में 'बोस रिसर्च इंस्टीट्यूट' की स्थापना की।  
    
'''<big>चन्द्रशेखर वेंकटरामन [4989-5071 (1888-1970 ई०)]</big>'''  
 
'''<big>चन्द्रशेखर वेंकटरामन [4989-5071 (1888-1970 ई०)]</big>'''  
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'''<big>स्वामी दयानन्द सरस्वती [कलि संवत् 4925-4984 (1824-1883 ई०)]</big>'''  
 
'''<big>स्वामी दयानन्द सरस्वती [कलि संवत् 4925-4984 (1824-1883 ई०)]</big>'''  
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आर्य समाज के संस्थापक, वैदिक धर्म एवं विचार के प्रचारक, आधुनिक काल में हिन्दू समाज के उद्धारक तथा महान् समाज-सुधारक स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म काठियावाड़ (गुजरात) के मोरबी नामक ग्राम मेंहुआ था। बचपन मेंही उनके मन में मूर्तिपूजा के प्रति अनास्था उत्पन्नहो गयी। उन्होंने गृह त्यागकर ब्रह्मचर्य की दीक्षा ली और अनेक वर्षोंतक योग-साधना तथा शास्त्राध्ययन किया। आचार्य शंकर द्वारा स्थापित दशनामी सम्प्रदाय में संन्यास—दीक्षा लेने के पश्चात् वे दयानन्द सरस्वती कहलाये। वेदाध्ययन के लिए व्याकरण के विशेष महत्व के कारण उन्होंने स्वामी विरजानन्द से व्याकरण पढ़ना प्रारम्भ किया। अपने विद्या-गुरुस्वामी विरजानन्द के आदेशानुसार वे वेदों के शुद्ध ज्ञान का प्रचार करने में लग गये। परम्परागत हिन्दू धर्म (सनातन धर्म) के सुधार में स्वामी दयानन्द का बहुत योगदान रहा। आर्य धर्म के तत्वों का सुबोध भाषा-शैलीमें प्रतिपादन करने के उद्देश्यसे उन्होंने'सत्यार्थप्रकाश' लिखा। इस्लाम और ईसाइयत की अनेक भ्रामक बातों की उन्होंने कठोर आलोचना की। शास्त्रार्थ में विरोधियों को परास्त कर वैदिक मत की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया। आर्यत्व का अभिमान और स्वदेश का गौरव जगाया। युगाब्द 4984 (सन् 1883) में अजमेर में दीपावली के दिन विषघात से उनकी मृत्यु हुई।  
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आर्य समाज के संस्थापक, वैदिक धर्म एवं विचार के प्रचारक, आधुनिक काल में हिन्दू समाज के उद्धारक तथा महान समाज-सुधारक स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म काठियावाड़ (गुजरात) के मोरबी नामक ग्राम मेंहुआ था। बचपन मेंही उनके मन में मूर्तिपूजा के प्रति अनास्था उत्पन्नहो गयी। उन्होंने गृह त्यागकर ब्रह्मचर्य की दीक्षा ली और अनेक वर्षोंतक योग-साधना तथा शास्त्राध्ययन किया। आचार्य शंकर द्वारा स्थापित दशनामी सम्प्रदाय में संन्यास—दीक्षा लेने के पश्चात् वे दयानन्द सरस्वती कहलाये। वेदाध्ययन के लिए व्याकरण के विशेष महत्व के कारण उन्होंने स्वामी विरजानन्द से व्याकरण पढ़ना प्रारम्भ किया। अपने विद्या-गुरुस्वामी विरजानन्द के आदेशानुसार वे वेदों के शुद्ध ज्ञान का प्रचार करने में लग गये। परम्परागत हिन्दू धर्म (सनातन धर्म) के सुधार में स्वामी दयानन्द का बहुत योगदान रहा। आर्य धर्म के तत्वों का सुबोध भाषा-शैलीमें प्रतिपादन करने के उद्देश्यसे उन्होंने'सत्यार्थप्रकाश' लिखा। इस्लाम और ईसाइयत की अनेक भ्रामक बातों की उन्होंने कठोर आलोचना की। शास्त्रार्थ में विरोधियों को परास्त कर वैदिक मत की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया। आर्यत्व का अभिमान और स्वदेश का गौरव जगाया। युगाब्द 4984 (सन् 1883) में अजमेर में दीपावली के दिन विषघात से उनकी मृत्यु हुई।  
    
'''<big>रवीन्द्रनाथ ठाकुर [कलियुगाब्द 4962-5043 (1861-1942 ई०)]</big>'''  
 
'''<big>रवीन्द्रनाथ ठाकुर [कलियुगाब्द 4962-5043 (1861-1942 ई०)]</big>'''  
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'''<big>राजा राममोहन राय [कलियुगाब्द4873-4934 (1772-1833 ई०)]</big>'''  
 
'''<big>राजा राममोहन राय [कलियुगाब्द4873-4934 (1772-1833 ई०)]</big>'''  
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बंगाल के एक धनाढ़य, रूढ़िवादी, वैष्णव परिवार में जन्मे राममोहन राय प्रसिद्ध समाज सुधारक,आधुनिक भारत के निर्माता,ब्रह्म समाज के संस्थापक,वेदान्तनिष्ठ,पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान के पुरस्कर्ता, सतीप्रथा उन्मूलन आन्दोलन के प्रवर्तक, विभिन्न धर्ममतों में समन्वय स्थापित कर सार्वभौम धर्ममत का प्रतिपादन करने वाले, विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समर्थक, आधुनिक बंगला पत्रकारिता के महान् प्रवर्तक और अनेक पत्र-पत्रिकाओं के प्रारम्भकर्ता थे। पैतृक धन का सदुपयोग उन्होंने अपने सिद्धान्तों को साकार रूपदेने में किया। उन्होंने एकेश्वरवाद का समर्थन और मूर्तिपूजा का विरोध किया। देश में ईसाई मत के विस्तार का कार्य उनके कर्तृत्व के परिणामस्वरूप कुंठित हो गया।  
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बंगाल के एक धनाढ़य, रूढ़िवादी, वैष्णव परिवार में जन्मे राममोहन राय प्रसिद्ध समाज सुधारक,आधुनिक भारत के निर्माता,ब्रह्म समाज के संस्थापक,वेदान्तनिष्ठ,पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान के पुरस्कर्ता, सतीप्रथा उन्मूलन आन्दोलन के प्रवर्तक, विभिन्न धर्ममतों में समन्वय स्थापित कर सार्वभौम धर्ममत का प्रतिपादन करने वाले, विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समर्थक, आधुनिक बंगला पत्रकारिता के महान प्रवर्तक और अनेक पत्र-पत्रिकाओं के प्रारम्भकर्ता थे। पैतृक धन का सदुपयोग उन्होंने अपने सिद्धान्तों को साकार रूपदेने में किया। उन्होंने एकेश्वरवाद का समर्थन और मूर्तिपूजा का विरोध किया। देश में ईसाई मत के विस्तार का कार्य उनके कर्तृत्व के परिणामस्वरूप कुंठित हो गया।  
    
'''<big>रामतीर्थ [कलि सं० 4964-5007 (1873-1906)]</big>'''  
 
'''<big>रामतीर्थ [कलि सं० 4964-5007 (1873-1906)]</big>'''  
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'''<big>विवेकानन्द [युगाब्द 4963-5003 (1863-1902 ई०)]</big>'''  
 
'''<big>विवेकानन्द [युगाब्द 4963-5003 (1863-1902 ई०)]</big>'''  
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विदेशोंमेंहिन्दूधर्म की कीर्तिपताका फहराने वाले,स्वदेशमें वेदान्त की युगानुरूप व्याख्या कर हताश एवं विभ्रान्त समाज में उत्साह, स्फूर्ति और बल का संचार करने वाले तथा भारतीय संस्कृति के अध्यात्म तत्व का व्यावहारिक प्रतिपादन करने वाले स्वामी विवेकानन्द का बचपन का नाम नरेन्द्र था। बालक नरेन्द्र खेल तथा अध्ययन दोनों में ही प्रवीण था और ईश्वर के विषय में उसके मन में तीव्र जिज्ञासा थी। रामकृष्ण परमहंस के दर्शन और आशीर्वाद से नरेन्द्र को ईश्वर का साक्षात्कार हुआ और मन की शंकाओं का समाधान हुआ। वे विवेकानन्द बन गये। युगाब्द 4994 (ई०1893) में अमेरिका में आयोजित'सर्वधर्म सम्मेलन' में हिन्दूधर्म के प्रतिनिधि के रूप में भाग लेकरअपनी ओजस्वी वक्तृता से वेदान्त की अनुपम ज्ञान-सम्पदा का रहस्योद्घाटन करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने पश्चिम के मानस में हिन्दूधर्म के प्रति आकर्षण और रुचि उत्पन्न की। स्वदेश में भ्रमण कर स्वामी जी ने मानव-सेवा को ईश्वर-सेवा का पर्याय बताया। गुरुभाइयों के साथ मिलकर उनहोंने 'रामकृष्ण मिशन' की स्थापना की और धर्म-जागृति तथा सेवा पर आग्रह रखा। 39 वर्ष के अल्प जीवनकाल में स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दुत्व के नवोन्मेष का महान् कार्य किया।  
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विदेशोंमेंहिन्दूधर्म की कीर्तिपताका फहराने वाले,स्वदेशमें वेदान्त की युगानुरूप व्याख्या कर हताश एवं विभ्रान्त समाज में उत्साह, स्फूर्ति और बल का संचार करने वाले तथा भारतीय संस्कृति के अध्यात्म तत्व का व्यावहारिक प्रतिपादन करने वाले स्वामी विवेकानन्द का बचपन का नाम नरेन्द्र था। बालक नरेन्द्र खेल तथा अध्ययन दोनों में ही प्रवीण था और ईश्वर के विषय में उसके मन में तीव्र जिज्ञासा थी। रामकृष्ण परमहंस के दर्शन और आशीर्वाद से नरेन्द्र को ईश्वर का साक्षात्कार हुआ और मन की शंकाओं का समाधान हुआ। वे विवेकानन्द बन गये। युगाब्द 4994 (ई०1893) में अमेरिका में आयोजित'सर्वधर्म सम्मेलन' में हिन्दूधर्म के प्रतिनिधि के रूप में भाग लेकरअपनी ओजस्वी वक्तृता से वेदान्त की अनुपम ज्ञान-सम्पदा का रहस्योद्घाटन करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने पश्चिम के मानस में हिन्दूधर्म के प्रति आकर्षण और रुचि उत्पन्न की। स्वदेश में भ्रमण कर स्वामी जी ने मानव-सेवा को ईश्वर-सेवा का पर्याय बताया। गुरुभाइयों के साथ मिलकर उनहोंने 'रामकृष्ण मिशन' की स्थापना की और धर्म-जागृति तथा सेवा पर आग्रह रखा। 39 वर्ष के अल्प जीवनकाल में स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दुत्व के नवोन्मेष का महान कार्य किया।  
 
[[File:१६.PNG|center|thumb]]
 
[[File:१६.PNG|center|thumb]]
 
<blockquote>'''<big>दादाभाई गोपबन्धु: तिलको गान्धिरादूता: । रमणो मालवीयश्च श्री सुब्रह्मण्यभारती।29 ॥</big>''' </blockquote>
 
<blockquote>'''<big>दादाभाई गोपबन्धु: तिलको गान्धिरादूता: । रमणो मालवीयश्च श्री सुब्रह्मण्यभारती।29 ॥</big>''' </blockquote>
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'''<big>ज्योतिराव फुले [युगाब्द 4928-4991 (1827-1890 ई०)]</big>'''  
 
'''<big>ज्योतिराव फुले [युगाब्द 4928-4991 (1827-1890 ई०)]</big>'''  
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महाराष्ट्र के महान् समाज-सुधारक ज्योतिराव फुले ने उपेक्षितों, अछूतों और स्त्रियों की अवस्था सुधारने के लिए कठिन प्रयास किये। शिक्षा के द्वारा उपेक्षितों और स्त्रियों की अवस्था उन्नत की जा सकती है,ऐसी उनकी मान्यता थी। हरिजनों तथास्त्रियों कीशिक्षा केलिएविद्यालय खोलने वाले वे प्रथम समाज-सुधारक माने जाते हैं। हंटर कमीशन के सामने उन्होंने अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा दिये जाने की माँग भी की थी। वे सामाजिक समता के पक्षधर थे। छुआछूत के विरुद्धउन्होंने डटकर संघर्षकिया। युगाब्द4975 (सन् 1874 ई०) मेंउन्होंने'सत्यशोधक समाज' की स्थापना की ताकि लोगोंं की विशाल मानवधर्म की शिक्षा दी जा सके। विधवा स्त्रियों का मुंडन कर देने की प्रथा (केशवपन) का उन्होंने कड़ा विरोध किया। अनाथ बालकों और निराधार स्त्रियों के लिए 'अनाथाश्रम' और 'सूतिका-गृह' चलाये। रूढ़िवाद और अंधश्रद्धा पर प्रहार कर ज्योतिबा ने बुद्धिवाद की शिक्षा दी।  
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महाराष्ट्र के महान समाज-सुधारक ज्योतिराव फुले ने उपेक्षितों, अछूतों और स्त्रियों की अवस्था सुधारने के लिए कठिन प्रयास किये। शिक्षा के द्वारा उपेक्षितों और स्त्रियों की अवस्था उन्नत की जा सकती है,ऐसी उनकी मान्यता थी। हरिजनों तथास्त्रियों कीशिक्षा केलिएविद्यालय खोलने वाले वे प्रथम समाज-सुधारक माने जाते हैं। हंटर कमीशन के सामने उन्होंने अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा दिये जाने की माँग भी की थी। वे सामाजिक समता के पक्षधर थे। छुआछूत के विरुद्धउन्होंने डटकर संघर्षकिया। युगाब्द4975 (सन् 1874 ई०) मेंउन्होंने'सत्यशोधक समाज' की स्थापना की ताकि लोगोंं की विशाल मानवधर्म की शिक्षा दी जा सके। विधवा स्त्रियों का मुंडन कर देने की प्रथा (केशवपन) का उन्होंने कड़ा विरोध किया। अनाथ बालकों और निराधार स्त्रियों के लिए 'अनाथाश्रम' और 'सूतिका-गृह' चलाये। रूढ़िवाद और अंधश्रद्धा पर प्रहार कर ज्योतिबा ने बुद्धिवाद की शिक्षा दी।  
    
'''<big>नारायण गुरु [युगाब्द 4954-5029 (1853-1928 ई०)]</big>'''  
 
'''<big>नारायण गुरु [युगाब्द 4954-5029 (1853-1928 ई०)]</big>'''  

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