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महान् संत और सिख परपंरा के प्रवर्तक (प्रथम गुरु), जिन्होंने वेदान्त का ज्ञान लोकभाषा में प्रस्तुत किया। इनका जन्म पंजाब के तलवंडी गाँव में (जो अब ननकाना साहिब कहलाता है) कालूराम मेहता के घर हुआ। गुरु नानक शुद्ध हृदय के आध्यात्मिक पुरुष थे। उन्होंने जाति-पाँति और धर्म के बाह्याडम्बरों को अस्वीकार किया। उन्होंने सारे देश का भ्रमण किया तथा मक्का, मदीना और काबुल भी गये। उनकी वाणी गुरुग्रंथ साहिब में लिखी हुई है जिसे उन्होंने वेद,पुराण, स्मृति और शास्त्रों का सार कहा है। वे बाबर के आक्रमण के साक्षी रहे और उसे पाप की बारात कहा। मन्दिरों और मूर्तियों के विध्वंस के काल में'सगुण-निराकार'की उपासना का उपदेश देकर उन्होंने धर्म के मूल तत्वों की ओर ध्यान आकर्षित किया।
 
महान् संत और सिख परपंरा के प्रवर्तक (प्रथम गुरु), जिन्होंने वेदान्त का ज्ञान लोकभाषा में प्रस्तुत किया। इनका जन्म पंजाब के तलवंडी गाँव में (जो अब ननकाना साहिब कहलाता है) कालूराम मेहता के घर हुआ। गुरु नानक शुद्ध हृदय के आध्यात्मिक पुरुष थे। उन्होंने जाति-पाँति और धर्म के बाह्याडम्बरों को अस्वीकार किया। उन्होंने सारे देश का भ्रमण किया तथा मक्का, मदीना और काबुल भी गये। उनकी वाणी गुरुग्रंथ साहिब में लिखी हुई है जिसे उन्होंने वेद,पुराण, स्मृति और शास्त्रों का सार कहा है। वे बाबर के आक्रमण के साक्षी रहे और उसे पाप की बारात कहा। मन्दिरों और मूर्तियों के विध्वंस के काल में'सगुण-निराकार'की उपासना का उपदेश देकर उन्होंने धर्म के मूल तत्वों की ओर ध्यान आकर्षित किया।
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'''<big>नरसी</big>'''
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भक्त नरसी मेहता के चरित का परिचय देने वाला यदि कोई एक शब्द हो सकता है तो वह हैपूर्ण भगवद्विश्वास। इनका जन्म काठियावाड़ प्रान्त के जूनागढ़ राज्य में हुआ था। वैष्णवोंका प्रिय भजन “वैष्णव जन तो तेणे कहिए, जे पीर परायी जाणे रे” इनकी ही रचना है। इनके जीवन में भगवत्कृपा और भगवत् भक्ति के अनेक चमत्कार घटित हुए। भगवान् कुष्ण की भक्ति ही इनके जीवन का एकमात्र ध्येय था। भक्त का हठ इनके रचे पदों में अत्यंत भावमय रूप में अभिव्यक्त हुआ है। संत मीराबाई से इनका परिचय था। युगाब्द 46वीं (ई० 15वीं) शताब्दी के इस भक्त कवि के पद भारतीय मनीषा-कोश के अमूल्य रत्न हैं।
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'''<big>तुलसीदास</big>'''
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श्रेष्ठ रामभक्त एवं महाकवि, जिन्होंने संस्कृत काव्य-रचना में सिद्धहस्त होते हुए भी लोकचेतना के परिष्कार और उन्नयन के लिए लोक—भाषा में 'रामचरितमानस' रचकर रामकथा को जन-जन के जीवन में व्याप्त कर दिया और मुस्लिमों द्वारा आक्रान्त, हताश हिन्दू जाति को मनोबल प्रदान कर संस्कृति-रक्षण का महत्वपूर्ण कार्य किया। विक्रम संवत् 1600 के आसपास बाँदा जिले (उ०प्र०) में जन्मे रामबोला (तुलसीदास) का बाल्यकाल अति विषम परिस्थितियों में बीता,परन्तुप्रतिकूलताओं के बीच इनकी राम में आस्था उत्तरोत्तर दृढ़ होती गयी। अनाथ स्थिति में द्वार-द्वार ठोकरें खाते उस बालक को सौभाग्य से एक संत नरहरिदास ने अपने साथ ले जाकर शिक्षा दी और विस्तार से रामकथा सुनायी। युवावस्था में इनका रत्नावती से विवाह हुआ था, पर कुछ समय बाद ये गृहस्थ जीवन त्यागकर रामभक्ति की साधना में लग गये। विनय पत्रिका, दोहावली, गीतावली, कवितावली आदि इनकी अन्य प्रसिद्ध रचनाएँहैं। रामकथा के पात्रों के रूप में तुलसीदास ने जीवन को बल देने वाले भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठ आदर्शों और जीवन-मूल्यों को प्रस्तुत किया है तथा राम के रूप में मर्यादा के उच्चादर्श का निर्वाह करने वाले दिव्य चरित्र का सृजन किया है।
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'''<big>दशमेश (गुरु गोविन्द सिंह) [युगाब्द 4767 से 4809 (1666 से 1708 ई०)]</big>'''
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सिख पंथ के दस गुरुओं में अन्तिम। ये नवम गुरु तेगबहादुर के पुत्र थे । इनका मूल नाम गोविन्द राय था। इन्होंने केशगढ़ (आनन्दपुर) में खालसा पंथ की स्थापना की, जो विधर्मी और अन्यायी मुगल सल्तनत से लड़ने वाली सेना थी। धर्म-रक्षा के लिए दीक्षित इन योद्धा सैनिकों को गुरु गोविन्दराय ने 'सिंह' कहा और इसलिए अपने नाम के आगे भी 'सिंह' लगाकर गोविन्द सिंह कहलाये। इन्होंने हिन्दू समाज में क्षात्रतेज जगाया और उसे संगठित किया। इनके दो पुत्र मुगल सेनाओं से लड़ते हुए मारे गये और दो पुत्रों ने धर्म के लिए आत्मबलिदान किया। सरहिन्द के नवाब ने उन्हें पकड़ लिया था और मुसलमान बन जाने के लिए दबाब डाला। किन्तु 11 और 13 वर्ष के उन वीर सपूतों ने जीवित ही दीवार में चिन दिये जाने पर भी इस्लाम स्वीकार नहीं किया। गुरु गोविन्द सिंह के पाँच प्यारों में तथाकथित छोटी जातियों के लोग भी थे। दशम गुरु एक साथ ही धर्मपंथ के संस्थापक, वीर सेनापति एवं योद्धा और कवि थे। गुरु गोविन्द सिंह के रचे ग्रंथों में विचित्र नाटक, अकाल-स्तुति, चौबीस अवतार कथा और चण्डी-चरित्र प्रसिद्ध हैं। 'चौबीस अवतार कथा' काव्यग्रंथ का ही एक भाग रामावतार कथा 'गोविन्द रामायण' नाम से भी प्रसिद्ध है। दशम गुरु जब महाराष्ट्र में नान्देड़ क्षेत्र में रह रहे थे, दो विश्वासघाती पठानों ने उन पर प्रहार कर उन्हें घायल कर दिया,जिससे कुछसमय बादउनकी मृत्यु हो गयी। धार्मिक सिख समाज को जुझारू बनाने में गुरु गोविन्द सिंह की अपूर्व भूमिका रही।
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शंकरदेव [युगाब्द4550-4669(1449-1568 ई०)]
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असमिया के महान् कवि, धर्मसुधारक और प्रसिद्ध वैष्णव सन्त, जिन्होंने समाज को चारित्रिक अध:पतन से उबारने के लिएकृष्णभक्ति संबंधी अनेक ग्रंथ रचे, भागवत धर्म का प्रचार किया, सम्पूर्ण असम में सत्राधिकार की व्यवस्था की और नामधर स्थापित किये। इनकी अधिकांश रचनाएँ भागवत पुराण पर आधारित हैं। 'कीर्तन घोषा' इनकी सर्वोत्कृष्ट कृति है। असमिया साहित्य के प्रसिद्ध नाट्यरूप'अंकीया नाटक' केप्रारम्भकर्ता भी शंकरदेव हैं। असमिया जनजीवन और संस्कृति को वैष्णव भक्ति या भागवत धर्म में ढालने का श्रेय शंकरदेव को ही है।
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सायणाचार्य और माधवाचार्य
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कलियुग की 44 वीं—45वीं (ई० तेरहवीं-चौदहवीं) शताब्दी के भारत के इतिहास के दो महान् व्यक्तित्व, जो सगे भाई थे, और जिन्होंने विद्या एवं पाण्डित्य के क्षेत्र के अतिरिक्त राजनीति के कर्मक्षेत्र में अपूर्व योगदान कर स्वधर्म और स्वराष्ट्र-रक्षण का कार्य किया। दोनों भाई शस्त्रों और शास्त्रों में निष्णात थे। सायणाचार्य ने चारों वेदों पर भाष्य लिखे हैं। उनके भाष्य वेदाध्ययन-परम्परा की सुरक्षा के लिएबहुत महत्वपूर्ण औरनितान्त सामयिक आधारसिद्ध हुए। माधवाचार्य ने 'पंचदशी' नामक ग्रंथ लिखा, जो वेदान्त शास्त्र का सर्वमान्य ग्रंथ बना। मुस्लिम आक्रमणों से देश और धर्म की रक्षा के लिए हरिहर और बुक्कराय नामक दो वीर क्षत्रियों का मार्गदर्शन करते हुए विजयनगर साम्राज्य की स्थापना करवाकर माधवाचार्य ने कुछ समय प्रधानमंत्री के नाते राज्य को व्यवस्थित किया और फिर वह दायित्व अनुज सायणाचार्य को सौंपकर स्वयं संन्यास ले लिया तथा विद्यारण्य स्वामी के नाम से श्रृंगेरी पीठ के शंकराचार्य हुए।
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संत ज्ञानेश्वर [युगाब्द 4376-4397(ई० 1275-1296)]
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महाराष्ट्र के श्रेष्ठ संत और मराठी भाषा के कविकुलशेखर। संत ज्ञानेश्वर के पिता विट्ठल पंतएक बार संन्यास-दीक्षाग्रहण करलेने के बादगुरु आज्ञा सेपुन:गृहस्थाश्रम मेंप्रविष्टहुएथे, जिसमें उन्हें परिवारसहित सामाजिक बहिष्कार झेलना पड़ा था। किन्तु उनकी चारों संतानों ने असाधारणसिद्धियाँप्राप्त कीं। चारोंमें सबसे बड़े भाई निवृत्तिनाथ एक नाथपंथी योगी से दीक्षित होकर सिद्ध योगी हो गये। ज्ञानेश्वर ने इन्हीं ज्येष्ठ भ्राता से योगदीक्षा प्राप्त की। इन दोनों भाइयों की यौगिक सिद्धियों के चमत्कार महाराष्ट्र में घर-घर की चर्चा का विषय बन गये। उनके लघु भ्राता—भगिनी ने भी आध्यात्मिक उच्चता प्राप्त कर ली। संत ज्ञानेश्वर के प्रयत्नों के फलस्वरूप समाज में वर्णाश्रम व्यवस्थामें आ गये दोषों के प्रक्षालन का कार्य हुआ,हिन्दू समाज में समता की
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भारत एकात्मता-स्तोत्र—व्याख्या सचित्र 61
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प्रस्थापना का स्वर तीव्र हुआ और भक्ति के लचीले सूत्र में बँधकर हिन्दू धर्म एवं समाज मत-मतान्तरों में बिखर जाने से बच सका। संत ज्ञानेश्वर ने अल्पायु में ही भावार्थ दीपिका (ज्ञानेश्वरी), अमृतानुभव, हरिपाठ के अभंग, चांगदेव पैंसठी और सैकड़ों फुटकर अभंगों की सरस रचना की। भावार्थ दीपिका (ज्ञानेश्वरी) श्रीमद्भगवद्गीता की काव्यमयी टीका है। ज्ञानेश्वर का यह ग्रंथ भारतीय संस्कृति तथा धार्मिक एवं भक्ति-साहित्य को उनकी अद्वितीय देन है। श्रीमद्भगवद्गीता के भक्तियुक्त कर्मयोगद्वारा ज्ञानेश्वर नेदुर्गति में फंसे तत्सामयिक हिन्दूसमाज का उपचार किया। उन्होंने वारकरी सम्प्रदाय (महाराष्ट्र का भक्तिधर्म या भागवत सम्प्रदाय) को सुदृढ़ कर अवैदिक मतों को परास्त किया।
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संत तुकाराम [युगाब्द 4709-4751(ई०1608-1650)]
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महाराष्ट्र के संत-शिरोमणि,जिनका जन्म विट्ठल भक्तों के घरानेमेंहुआ। ये जाति के कुनबी थे, पर व्यवसाय किराये की दुकान चलाने का करते थे। गृहस्थ होते हुए भी विरक्त थे। परिवार-जनों के अकाल ही काल-कवलित हो जाने और सांसारिक जीवन में सुख-प्राप्ति की आशा के निरर्थक हो जाने के पश्चात्उन्हें तीव्र वैराग्य होगया और वे ध्यान-साधना में प्रवृत्तहुए। बाबाजी चैतन्य नामक सिद्धपुरुष ने उन्हें " राम कृष्ण हरि " मंत्र दिया और संत नामदेव ने स्वप्न में दर्शन देकर काव्य-रचना की प्रेरणा दी। उन्होंने 5000 से भी अधिक मधुर अभंग रचे जो महाराष्ट्र के जन-जन की जिह्वा पर सदैव विराजमान रहते हैं। इन अभगों में उन्होंने अपने को विभिन्न भूमिकाओं में रखकर अपने आराध्य विट्ठल के प्रति निर्मल भक्ति-भावना व्यक्त की है। तुकाराम ने सांघिक प्रार्थना का महत्व समझा और उसका प्रचलन किया। उनके रचित सुभाषित जीवन को सुगठित एवं स्वस्थ बनाने कीप्रेरणा देते हैं। लोकभाषा परउनका असामान्य अधिकार था। सगुणवैष्णवी भक्ति केप्रचारक संततुकाराम नेअपनी अभंगवाणी की सुधावृष्टिसे लोकचित्त को भावुकता और आस्था से भर दिया।
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समर्थरामदास [युगाब्द 4709-4781 (ई० 1608-1680)]
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हिन्दवी स्वराज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी महाराज ने जिनसे मंत्र—दीक्षा और मार्गदर्शन प्राप्त किया, ऐसे संत-श्रेष्ठ समर्थ रामदास परमार्थ औरलोक-प्रपंच का मेल बिठाने वाले, हिन्दू जाति कोदुर्बलता त्याग कर प्रतिकार केलिएसन्नद्धकरने वाले,कोदंडधारी भगवान् श्री राम और बलभीम हनुमान् कीउपासना का जन-जन के बीचप्रचारकरने वाले,सहस्राधिक मठोंकीस्थापना और प्रत्येकमें अखाड़ों की स्थापना करजाति को हृष्ट-पुष्टएवंबलवान्बनाने की कल्पना रखने
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62 भारत एकात्मता-स्तोत्र—व्याख्या सचित्र
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वाले तथाशक्ति की उपासना का संदेश देने वाले महाराष्ट्र के श्रेष्ठकवि औरसंगठक हुएहैं। उनका रचा ‘दासबोध' परमार्थ-चितंन का ग्रंथ भी है और लोकप्रपंच का विवेकपूर्वक निर्वाह करने की सीख देने वाला ग्रंथ भी।
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मराठवाड़ा के जाम्ब ग्राम में जन्मे समर्थ रामदास ने विवाह-मण्डप से भागकर पंचवटी में 12 वर्ष तपस्या की, सम्पूर्ण देश का भ्रमण कर प्रदेश-प्रदेश का अवलोकन किया और धर्मोद्धार एवं समाजोद्धार के कार्य में प्रवृत्त हुए तथा विदेशी-विधर्मी आक्रान्ताओं से त्रस्त हिन्दूजाति को समर्थ, स्फूर्त और तेजस्वी बनाने के लिए कर्मयोग का संदेश दिया।
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