Difference between revisions of "बाल संस्कार - भारत परिचय श्लोक द्वारा"

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कलियुग की 46वीं (अर्थात् ईसवी 15वीं) शताब्दी के प्रसिद्ध आचार्य, जिनका मत 'शुद्धाद्वैतवाद' के नाम से और जिनका भक्ति-मार्ग ‘पुष्टिमार्ग' के नाम से विख्यात है। आन्ध्र प्रदेश में जन्मे श्री वल्लभाचार्य गृहस्थ आचार्य थे। छोटी आयु में ही काशी में शास्त्राध्ययन पूर्ण कर चुकने पर ये वृन्दावन चले गये और कुछ दिन ब्रजवास करके तीर्थाटन को निकले। श्री विट्ठलनाथ इन के पुत्र थे। कहा जाता है कि वल्लभाचार्य की श्री चैतन्य महाप्रभु से भी भेंट हुई थी। भगवान् का अनुग्रह ही पुष्टि है और इसी अनुग्रह से भक्ति का उदय होताहै,ऐसी श्री वल्लभाचार्य की मान्यता थी। इन्होंने 'अणुभाष्य' नाम से ब्रह्मसूत्र का भाष्य लिखा। 52 वर्ष की अवस्था में ये वाराणसी में ज्योतिरूप में विलीन हो गये।
 
कलियुग की 46वीं (अर्थात् ईसवी 15वीं) शताब्दी के प्रसिद्ध आचार्य, जिनका मत 'शुद्धाद्वैतवाद' के नाम से और जिनका भक्ति-मार्ग ‘पुष्टिमार्ग' के नाम से विख्यात है। आन्ध्र प्रदेश में जन्मे श्री वल्लभाचार्य गृहस्थ आचार्य थे। छोटी आयु में ही काशी में शास्त्राध्ययन पूर्ण कर चुकने पर ये वृन्दावन चले गये और कुछ दिन ब्रजवास करके तीर्थाटन को निकले। श्री विट्ठलनाथ इन के पुत्र थे। कहा जाता है कि वल्लभाचार्य की श्री चैतन्य महाप्रभु से भी भेंट हुई थी। भगवान् का अनुग्रह ही पुष्टि है और इसी अनुग्रह से भक्ति का उदय होताहै,ऐसी श्री वल्लभाचार्य की मान्यता थी। इन्होंने 'अणुभाष्य' नाम से ब्रह्मसूत्र का भाष्य लिखा। 52 वर्ष की अवस्था में ये वाराणसी में ज्योतिरूप में विलीन हो गये।
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<blockquote>'''झुलेलालोऽथ चैतन्यः तिरुवल्लुवरस्तथा। नायन्मारालवाराश्च कंबश्च बसवेश्वरः ।। १६।।'''</blockquote>
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'''<big>झूलेलाल</big>'''
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सिन्ध प्रान्त के युगाब्द 41वीं शती (अर्थात् ईसा की 10वीं शताब्दी) के पूज्य पुरुष। मुसलमान नवाब ने सारी प्रजा का बलात् सामूहिक धर्मान्तरण करना चाहा। श्रीझूलेलाल ने अपने कर्तृत्व से उसकी इस दुष्ट योजना को विफल कर दिया। इन्हें वरुण देव का अवतार माना जाता है।
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'''<big>श्री चैतन्य</big>'''
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कलियुग की 45वीं (अर्थात्ईसा की 14वीं) शताब्दी में बंगाल प्रांत के नवद्वीप ग्राम मेंजन्मे गौर-सुन्दर निमाई अर्थात श्री चैतन्य महाप्रभु ने भक्ति तथा कृष्ण-कीर्तन की धारा प्रवाहित कर लोकचित्त को श्रीकृष्ण के रंग में रंग दिया। 24 वर्ष की आयु में गृहस्थाश्रम त्याग कर चैतन्य ने केशव भारती नामक संन्यासी से संन्यास-दीक्षा ग्रहण की। आध्यात्मिक महापुरुष होने के साथ ही वे महान् नैयायिक भी थे। उन्होंने न्यायशास्त्र पर एक उत्कृष्ट ग्रंथ भी लिखा था। उनकी कृष्ण-भक्ति उत्कृष्ट भाव वाली थी। उनके भाव विभोर नृत्य-कीर्तन में साथ देते हुए लोगों की भारी भीड़ उनके साथ चलती थी। नवद्वीप छोड़कर उन्होंने श्री जगन्नाथ धाम में निवास किया था। काशी, वृन्दावन, दक्षिण भारत और मध्य भारत की यात्राएँ भी उन्होंने कीं और अंत में जगन्नाथ धाम में पधार कर कहा जाता है कि जगन्नाथ जी के विग्रह में ही वे विलीन हो गये। जगन्नाथ पुरी में महाप्रभु चैतन्य का मठविद्यमान है।
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'''<big>तिरुवल्लुवर</big>'''
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'तिरुक्कुरल' नामक तमिल सुभाषित ग्रंथ के रचयिता तिरुवल्लुवर का जन्म कलियुग की 30वीं अर्थात् ईसा-पूर्व प्रथम शताब्दी में हुआ था। वे बुनकर का व्यवसाय करते थे। 'कुरल' (तिरुक्कुरल) में उन्होंने सम्पूर्ण मानवीय जीवन को प्रकाशित किया है। इस ग्रंथ में धर्म, अर्थ, काम, इन तीन पुरुषार्थों का प्रतिपादन हुआ है। 'कुरल' में 1330 द्विपदियाँ हैं। इसको तमिल साहित्य में बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त है और इसका भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त विदेशी भाषाओं में भी अनुवादहुआ है। तिरुक्कुरल में पारम्परिक हिन्दू विचार और जीवन-पद्धति की छाया सर्वत्र व्याप्त है।
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'''<big>नायन्मार</big>'''
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तमिलनाडु के 63 शैव संत,जिनका समय कलियुगाब्द 33वीं से 40वीं शती (अर्थात् ईसा की द्वितीय शताब्दी से नौवीं शताब्दी) तक माना जाता है। तमिलनाडु के प्रमुख शैव मन्दिरों में नायन्मार सन्तों की मूर्तियाँ स्थापित की गयी हैं। नायन्मार सन्त मोची से लेकर ब्राह्मण तक विभिन्न जातियों से सम्बन्धित थे। इनमें तीन महिलाएँ भी हैं। ये जातिभेद और छुआछूत को नहीं मानते थे। इन्हें समाज के सभी वर्गों और जातियों की श्रद्धा प्राप्त हुई थी। ऊंची जाति और तथाकथित छोटी जाति के नायन्मार सन्तों में परस्पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं था। शिव—भक्ति में और शिव-भक्तों की सेवा में पूर्णतया निमग्न नायन्मार संतों ने अपूर्व नि:स्वार्थ भावना, सामाजिक समता, सेवा और त्याग का आदर्श प्रस्तुत किया।
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'''<big>आलवार</big>''' 
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दक्षिण भारत के वैष्णव सन्त, जिनकी संख्या बारह कही जाती है। इनमें नम्मालवार, कुलशेखर,तिरुमगई और आण्डाल का अधिक महत्व है। नायन्मार भक्तों के समान आलवार भी जातिप्रथा को नहीं मानते थे। इनके अनुयायियों और भक्तों में अनेक तथाकथित निम्न जातियों में से थे। आलवार भक्त भी थे और कवि भी। आलवार सन्तों के रचे गीतों का संग्रह'प्रबन्धम्'नामक ग्रंथ में हुआ है। तमिलनाडु के वैष्णव सम्प्रदाय में'प्रबन्धम्'का स्थान श्रीमद्भगवदगीता के बराबर माना जाता है। श्री रामानुजाचार्य के प्रपतिवाद का मूल आलवारों की विचारधारा में मिलता है।
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'''<big>कम्ब</big>'''
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तमिल के महान् रामकथा कवि, जिनकी लिखी रामायण को तमिलनाडु में वैसा ही ऊँचा स्थान प्राप्त है जैसा उत्तर भारत में तुलसीदास के रामचरित मानस को। ये तमिलनाडु के शैव और वैष्णव दोनों समाजों के श्रद्धेय महाकवि थे। तमिलनाडु के तिरुवयुन्दुर नामक गाँव में अब से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व जन्मे इस प्रतिभाशाली महाकवि को श्रीरंग के पण्डितों ने ‘कवि चक्रवर्ती ' उपाधि प्रदान करके इनके रामायण की श्रेष्ठता को स्वीकार किया था। दक्षिण में रामकथा-प्रचार का अविस्मरणीय कार्य कम्ब या (कम्बन्) के हाथों सम्पन्न हुआ।
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'''<big>बसवेश्वर</big>'''
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वीरशैव सम्प्रदाय के संस्थापक श्री बसवेश्वर ने कर्नाटक तथा आन्ध्र में अपने सम्प्रदाय के सिद्धान्तों और मान्यताओं का प्रचार किया। यह सम्प्रदाय मानव समाज में किसी प्रकार का भेदभाव स्वीकार नहीं करता। बाल्यावस्था से ही बसवेश्वर के अन्त:करण में प्रखर शिवभक्ति का उदय हुआ था। भगवान् वीर महेश्वर में इनकी आस्था अडिग थी। पिता नादिराज और माता मदाम्बिका के घर इनका कलियुगाब्द 42 वीं शती (ई० 11वीं सदी) में कर्नाटक में बागवाड़ी ग्राम में जन्म हुआ। संगमनाथ नामक संन्यासी ने इनका लिंगधारण संस्कार करवाया। ये कुछकाल तक कल्याण के राजा विज्जल के मंत्री भी रहे थे। <blockquote>'''देवलो रविदासश्च कबीरो गुरुनानक: । नरसिस्तुलसीदासो दशमेशो दूढ़व्रत: ॥१७॥''' </blockquote>'''<big>देवल</big>'''
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इस नाम के दो ऋषि प्रसिद्ध हुए हैं। हरिवंश पुराण के अनुसार एक देवल प्रत्यूष वसु के पुत्र हुए हैं और दूसरे असित के पुत्र। ये दूसरे देवल रम्भा के शाप से ‘अष्टावक्र' हो गये थे। गीता में उल्लिखित यही देवल धर्मशास्त्र के प्रवक्ता थे। ये वेद-व्यास के शिष्य थे। आज भी देवल-स्मृति उपलब्ध है। इन्होंने धर्मान्तरितों को पुन: वापस लेने का विधान किया था।
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'''<big>रविदास</big>'''
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भक्तिकाल के प्रसिद्ध संत, जिनका काल युगाब्द 46-47वीं (अर्थात् ईसा की 16वीं) शताब्दी का रहा है। इनका जन्म चर्मकार परिवार में हुआ था। ये काशी के निवासी थे और प्रसिद्ध वैष्णव सन्त रामानन्द के अनुयायी थे। चर्मकार का व्यवसाय करते हुए इन्होंने अपनी असाधारण कृष्णभक्ति की अपनी रचनाओं में सहज निर्मल अभिव्यक्ति की। सन्त कबीर के विपरीत रविदास सौम्य स्वभाव के सन्त पुरुष थे। वृद्धावस्था की ओर बढ़ते कबीर के पास यदा-कदा वे सत्संग-लाभ करने जाते थे।
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'''<big>कबीर</big>'''
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कलियुग की 46वीं (अर्थात् ईसा की 15वीं) शताब्दी में काशी में जन्मे महात्मा कबीर प्रसिद्ध संत, कवि तथा समाज-सुधारक थे। इनका जन्म शायद हिन्दूघर में तथा पालन-पोषण मुस्लिम परिवार में हुआ।ये स्वामी रामानन्द के शिष्य बने। निर्गुण बह्म के उपासक कबीर स्वभाव के फक्कड़ और वाणी के स्पष्टवक्ता थे। उन्होंने सामाजिक रूढ़ियों, मूर्तिपूजा, छुआछूत और जाति-पाँति का तीव्र खंडन किया। उन्होंने ईश्वर को अपने अन्तर में खोजने का उपदेश दिया, संसार के प्रपंच में फंसे मनुष्य को ईश्वरोन्मुख करने के उद्देश्य से माया की कठोर भत्र्सना की। बाह्याडम्बरों का विरोध कर कबीर ने सच्ची मानसिक उपासना का मार्ग दिखाया। उन्होंने साखी (दोहे) और पद रचे, जो लोक में दूर-दूर तक व्याप्त हो गये। ‘बीजक' में कबीर की वाणी का संकलन है। उनकी मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने कबीरपंथ नाम से एक सम्प्रदाय स्थापित किया।
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'''<big>गुरु नानक [युगाब्द 4570-4640 (1469-1539ई०)]</big>'''
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महान् संत और सिख परपंरा के प्रवर्तक (प्रथम गुरु), जिन्होंने वेदान्त का ज्ञान लोकभाषा में प्रस्तुत किया। इनका जन्म पंजाब के तलवंडी गाँव में (जो अब ननकाना साहिब कहलाता है) कालूराम मेहता के घर हुआ। गुरु नानक शुद्ध हृदय के आध्यात्मिक पुरुष थे। उन्होंने जाति-पाँति और धर्म के बाह्याडम्बरों को अस्वीकार किया। उन्होंने सारे देश का भ्रमण किया तथा मक्का, मदीना और काबुल भी गये। उनकी वाणी गुरुग्रंथ साहिब में लिखी हुई है जिसे उन्होंने वेद,पुराण, स्मृति और शास्त्रों का सार कहा है। वे बाबर के आक्रमण के साक्षी रहे और उसे पाप की बारात कहा। मन्दिरों और मूर्तियों के विध्वंस के काल में'सगुण-निराकार'की उपासना का उपदेश देकर उन्होंने धर्म के मूल तत्वों की ओर ध्यान आकर्षित किया।

Revision as of 22:55, 28 October 2020

बच्चो में संस्कारो का वर्धन ५ वर्ष की आयु से पाठांतर पठन माध्यम से प्रारंभ कर देना चाहिए । बच्चो में अपने धर्म के प्रति ,अपने राष्ट्र के प्रति और अपने देशवाशियो एवं माता-पिता गुरुजनों का आदर सम्मान करने की शिक्षा सर्वप्रथम देनी चाहिये । अतः हमें सर्वदा यह प्रयास करना चाहिए की विद्या का का प्रारंभ अपनी प्राचीन भाषा संस्कृत में किया जाये । इसी विषय को अग्रेसर करते हुए सम्पूर्ण भारत का परिचय सभी अभिभावक सरल रूप में और सहजता से प्राप्त कर सके।

अतः " एकात्मता स्तोत्र " नामक यह पाठांतर आपके लिए प्रस्तुत है । एकात्मता-स्तोत्र के पूर्वरूप – भारत-भक्ति-स्तोत्र – से हम लोग भली भाँति परिचित हैं, जो बोलचाल में 'प्रात: स्मरण' नाम से जाना जाता है, क्योंकि वह प्रात: स्मरण की हमारी प्राचीन परम्परा से ही प्रेरित था। राष्ट्रीय एकात्मता की दृष्टि से इसमें कुछ और नाम जोड़कर इसे अधिक व्यापकता प्रदान करने तथा दिन या रात में भी पाठयोग्य बनाने के उद्देश्य से विक्रमी संवत् २०४२ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा ने वर्तमान एकात्मता-स्तोत्र का अनुमोदन किया।

यह'भारत-एकात्मता-स्तोत्र' भारत की सनातन और सर्वकष एकात्मता के प्रतीकभूत नामों का श्लोकबद्ध संग्रह है। सम्पूर्ण भारतवर्ष की एकात्मता के संस्कार दृढ़मूल करने के लिए इस नाममाला का ग्रथन किया गया है।

राष्ट्र के प्रति अनन्य भक्ति , पूर्वजो के प्रति असीम श्रद्धा तथा सम्पूर्ण देश में निवास करने वालो के प्रति एकात्मता का भाव जागृत करने वाले इस मंत्र का नियमित रूप से पठान करना चाहिए ।

एकात्मतास्तोत्रम्

ॐ सच्चिदानन्दरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने।

ज्योतिर्मयस्वरूपाय विश्वमाङ्गल्यमूर्तये ।।१।।

विश्वकल्याण के प्रतिमूर्ति, ज्योतिर्मय, सच्चिदानन्द स्वरूप परमात्मा को नमस्कार ।।१।।

प्रकृतिः पञ्च भूतानि ग्रहा लोका स्वरास्तथा।

दिशः कालश्च सर्वेषां सदा कुवन्तु मङ्गलम् ।।२।।

सत्व, रज और तमोगुण से युक्त प्रकृति; पंचभूत (अग्नि, जल,वायु, पृथ्वी, आकाश); नवग्रह; तीनों लोक; सात स्वर; दसों दिशाएं तथा सभी काल (भूत, भविष्य, वर्तमान) सर्वदा कल्याणकारी हों । ।२।।

रत्नाकराधौतपदां हिमालयकिरीटिनीम् ।

ब्रह्मराजर्षिरत्नाढ्यां वन्दे भारतमातरम् ।। ३।।

सागर जिसके चरण धो रहा है, हिमालय जिसका मुकुट है।और जो ब्रह्मर्षि तथा राजर्षि रूपी रत्नों से समृद्ध है, ऐसी भारतमाता की मैं वन्दना करता हूँ ।। ३ ।।

महेन्द्रो मलयः सह्यो, देवतात्मा हिमालयः ।

ध्येयो रैवतको विन्ध्यो, गिरिश्चारावलिस्तथा ।। ४।।

महेन्द्र (उड़ीसा में), मलयगिरि (मैसूर में), सह्याद्रि (पश्चिमी घाट), देवतात्मा हिमालय, रैवतक (काठियावाड़ में गिरनार), विन्ध्याचल, तथा अरावली (राजस्थान) पर्वत ध्यान करने योग्य .हैं।। ४।।

गड्.गा सरस्वती सिन्धुर्ब्रह्मपुत्रश्च गण्डकी ।

कावेरी यमुना रेवा कृष्णा गोदा महानदी ॥ ५ ॥

गंगा, सरस्वती, सिंधु, ब्रह्मपुत्र, गण्डकी, कावेरी, यमुना, रेवा (नर्मदा). कृष्णा, गोदावरी तथा महानदी आदि प्रमुख नदियाँ।। ५।।

अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्चि अवन्तिका ।

वैशाली द्वारिका ध्येया पुरी तक्षशिला गया।। ६।।

अयोध्या, मथुरा, माया (हरिद्वार), काशी. कांचि.अवन्तिका (उज्जैन),. द्वारिका, वैशाली, तक्षशिला, जगन्नाथपुरी गया तथा ।। ६।।

प्रयागः पाटलीपुत्रं विजयानगरं महत् ।

इन्द्रप्रस्थं सोमनाथः तथाऽमृतसरः प्रियम् ।। ७।।

प्रयाग, पाटलीपुत्र, विजय नगर, इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) विख्यात सोमनाथ, अमृतसर ध्यान करने योग्य हैं । । ७ ।।

चतुर्वेदाः पुराणानि सर्वोपनिषदस्तथा।

रामायणं भारतं च गीता सद्दर्शनानि च ।। ८ ।।

चारों वेद, १८ पुराण, सभी उपनिषद्. रामायण, महाभारत. गीता तथा अन्य श्रेष्ठ दर्शन और ।। ८।।

जैनागमास्त्रिपिटका गुरुग्रन्थः सतां गिरः ।

एष ज्ञाननिधिः श्रेष्ठः श्रद्धेयो हृदि सर्वदा ॥ ९॥

जैनों के आगम ग्रन्थ, बौद्धों के त्रिपिटक (विनय पिटक. सुत्त पिटक, और अभिधम्म पिटक) तथा श्री गुरुग्रंथ की सत्य वाणी हिन्दू समाज के श्रेष्ठ ज्ञानकोष हैं। इनके प्रति हृदय में सदा श्रद्धा बनी रहे ।। ९।।

अरुन्धत्यनसूया च सावित्री जानकी सती।

द्रौपदी कण्णगी गार्गी मीरा दुर्गावती तथा ।। १० ।।

अरुन्धती, अनुसूया, सावित्री, सीता सती. द्रौपदी, कण्णगी. गार्गी, मीरा दुर्गावती तथा ।। १० ।।

लक्ष्मीरहल्या चेन्नम्मा रुद्रमाम्बा सुविक्रमा ।

निवेदिता सारदा च प्रणम्या मातृदेवता: ॥ ११ ॥

लक्ष्मीबाई, अहल्याबाई होलकर, चन्नम्मा आदि पराक्रमी नारियाँ, भगिनी निवेदिता तथा सारदा (स्वामी रामकृष्ण परमहंस

की पत्नी) मातृस्वरूपा हैं, वन्दनीय हैं ।। ११ ।।

श्रीरामो भरतः कृष्णो भीष्मो धर्मस्तथार्जुनः ।

मार्कण्डेयो हरिशचन्द्रः प्रह्लादो नारदो धुवः ।। १२ ।।

भगवान श्रीराम, भरत, कृष्ण, भीष्म, धर्मराज युधिष्ठिर अर्जुन. ऋषि मार्कण्डेय. हरिश्चन्द्र, प्रहलाद, नारद, ध्रुव संत तथा ।।१२ ।।

हनुमान जनको व्यासो वशिष्ठश्च शुको बलिः।

दधीचि विश्वकर्माणौ पृथुवाल्मीकिभागर्गवाः ।। 13 ।।

हनुमान, जनक, व्यास, वशिष्ठ, शुक देव, राजा बलि, दधीचि, विश्वकर्मा, पृथ, वाल्मीकि, भाग्गव (परशुराम) ॥ 13।।

भगीरथश्चैकलव्यो मनुर्धन्वन्तरिस्तथा ।

शिबिश्च रन्तिदेवश्च पुराणोद्गीतकीर्तयः ॥ १४ ॥

भगीरथ, एकलव्य मनु, धन्वन्तरि.. शिबि तथा रन्तिदेव की कीर्ति पुराणों में गाई गई है । । १५।।

बुद्धा जिनेन्द्रा गोरक्षः पाणिनिश्च पत०जलि ।

शंकरो मध्वनिम्बाकौं श्रीरामानुजवल्लभौ । । १५।।

बुद्ध के सभी अवतार, सभी तीर्थकर, गुरु गोरखनाथ, पाणिनि, पंतजलि, शंकाराचार्य, मध्वार्चा, निम्बाक्काचार्य. रामनुजाचार्य तथा बल्लभाचार्य, ।। १५।।

झुलेलालोऽथ चैतन्यः तिरुवल्लुवरस्तथा।

नायन्मारालवाराश्च कंबश्च बसवेश्वरः ।। १६।।

झूलेलाल, महाप्रभु चैतन्य, तिरुवल्लु वर, नायन्मार तथा आलवार सन्तपरम्मरा, कंब, बसवेश्वर तथा ।। १६।।

देवलो रविवासश्च कबीरो गुरुनानकः ।

नरसिस्तुलसीदासो दशमेशो दुढव्रतः ॥ १७ ॥

महर्षि देवल, सन्त रविदास, कबीर, गुरुनानक, नरसी मेहता, तुलसीदास, दृढव्रती गुरुगोविन्दसिंह, ।। १७।।

श्रीमत् शंकरदेवश्च बन्धू सायण-माधवौ ।

ज्ञानेश्वरस्तुकारामो रामदासा: पुरन्दरः ।। १८ ।।

आसाम के वैष्णव सन्त श्रीमत् शंकरदेव, सायणाचार्य, माधवाचार्य संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, समर्थगुरु रामदास, पुरन्दरदास ।। १८ ।।

बिरसा सहजानन्दो रामानन्दस्तथा महान् ।

वितरन्तु सदैवेते दैवीं सद्गुणसम्पदम् ।। १९।।

बिरसामुण्डा, स्वामी सहजानन्द, रामानन्द आदि महान पुरुष सदैव समाज को श्रेष्ठ गुण प्रदान करें । १९।।

भरतर्षिः कालिदासः श्रीभोजो जकणस्तथा।

सूरदासस्त्यागराजो रसखानश्च सत्कविः । । २० ।।

नाट्यशास्त्र के आदि गुरु भरत ऋषि, संस्कृत के विद्वान कालिदास, महाराजा भोज, जकण, महात्मा सूरदास, त्यागराज,रसखान जैसे श्रेष्ठ कवि तथा।। २० ।।

रविवर्मा भातखण्डे भाग्यचन्द्रः स भूपतिः।

कलावन्तश्च विख्याता स्मरणीया निरन्तरम् ।। २१ ।।

महान चित्रकार रविवर्मा, वर्तमान संगीत कला के विख्यात उद्धारक भातखण्डे, मणिपुर के राजा भाग्यचन्द्र आदि विख्यात कलाकार सर्वदा स्मरणीय हैं। ।।२१ ।।

अगस्त्यः कम्बुकौण्डिन्यौ राजेन्द्रश्चोलवं शजः ।

अशोकः पुष्यमित्रश्च खारवेलः सुनीतिमान् । २२ ।।

अगस्त्य, कम्बु, कौण्डिन्य, चोलवंशज राजेन्द्र, अशोक, पुष्यमित्र तथा खारवेल नीतिज्ञ हैं ।। २२ । ।

चाणक्य-चन्द्रगुप्तौ च विक्रमः शालिवाहन: ।

समुद्रगुप्तः श्रीहर्षः शैलेन्द्रो बप्परावलः ।। २३।।

चाणक्य, चन्द्रगुप्त, विक्रमादित्य, शालिवाहन. समुद्रगुप्त, हर्षवर्धन, शैलेन्द्र, बेप्पारावल तथा।। २३।।

लाचिद् भास्करवर्मा च यशोधर्मा च हुणजित् ।

श्रीकृष्णदेवरायश्च ललितादित्य उद्बल: ॥ २४ ॥

लाचिद् बड़फुंकन, भास्करवर्मा, हूणविजयी यशोध्मा श्रीकृष्णदेवराय तथा ललितादित्य जैसे वलशाली।। २४ ।।

मुसुनूरिनायकौ तौ प्रतापः शिवभूपतिः ।

रणजित्सिंह इत्येते वीरा विख्यातविक्रमाः । । २५ ।।

प्रोलय नायक, कप्पयनायक, महाराणाप्रताप, महाराज शिवाजी तथा रणजीत सिंह, इस देश में ऐसे विख्यात पराक्रमी वीर हुए हैं।। २५।।

वैज्ञानिकाश्च कपिलः कणादः सुश्रुतस्तथा।

चरको भास्कराचा्यों वराहमिहिरः सुधी:।। २६ ।।

हमारे बुद्धिमान वैज्ञानिक कपिलमुनि, कणाद् ऋषि सुश्रुत चरक, भास्काराचार्य तथा वराहमिहिर। । २६ ।।

नागार्जुनो भरद्वाज आर्यभट्टो बसुर्बुधः ।

ध्येयो वेड्टरामश्च विज्ञा रामानुजादयः ॥ २७ ॥

नागार्जुन, भरद्वाज, आर्यभट्ट, जगदीशचन्द्र बसु चन्द्रशेखर वेंकट रमन तथा राजमानुजम् जैसे प्रतिभावान वैज्ञानिक स्मरणीय हैं।। २७ ।।

रामकृष्णो दयानन्दो रवीन्द्रो राममोहनः ।

रामतीर्थोऽरविंदश्च विवेकानन्द उद्यशाः।। २८ ।।

रामकृष्ण परमहंस, स्वामी दयानन्द. रवीन्द्रनाथ टैगोर राज राममोहनराय, स्वामी रामतीर्थ, महर्षि अरविन्द स्वामी विवेकानन्द तथा।। २८ ।।

दादाभाई गोपबन्धुः तिलको गान्धिरादृता।

रमणो मालवीयश्च श्री सुब्रह्मण्यभारती।। २९ ।। ।

दादाभाई नौरोजी. गोपबंध दवास महात्मा गॉँधी, बालगंगाधर तिलक. महर्षि रमण, महामना मालवीय तथा सुब्रह्मण्य भारती आदरणीय हैं॥२९ ॥

सुभाषः प्रणवानन्दः क्रान्तिवीरो विनायक:।

ठक्करो भीमरावश्च फुले नारायणो गुरु: तथा ॥ ३० ॥

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, प्रणवानन्द, क्रान्तिवीर विनायक दामोदर सावरकर, ठक्कर बाप्पा, भीमराव अम्बेडकर, ज्योतिराव फुले , नारायण गुरु तथा ॥ ३०॥

संघशक्तिप्रणेतारौ केशवो माधवस्तथा ।

स्मरणीयाः सदैवैते नवचैतन्यदायकाः ॥ ३१ ॥

संघ-शक्ति के प्रणेता प.पू केशवराव बलिराम हेडगेवार तथा माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर, हिन्दू समाज में नवीन चेतना प्रदान करने वाले महापुरुष सदैव स्मरणीय हैं ॥३१ ॥

अनुक्ता ये भक्ताः प्रभुचरणसंसक्तहृदयाः

अनिर्दिष्टा वीरा अधिसमरमुद्ध्वस्तरिपवः ।

समाजोद्धर्तारः सुहितकरविज्ञाननिपुणाः

नमस्तेभ्यो भूयात् सकलसुजनेभ्यः प्रतिदिनम् ।॥ ३२ ॥

प्रभुचरण में अनुरक्त रहने वाले अनेक भक्त जो शेष रह गए, देश की अस्मिता और अखण्डता पर प्रहार करने वाले शत्रुओं युद्ध में परास्त करने वाले बहुत से वीर जिनके नामों का उल्लेख नहीं हो पाया, तथा अन्य समाजोद्धारक, समाज के हितचिन्तक तथा निपुण वैज्ञानिक एवं सभी श्रेष्ठजनों को प्रतिदिन हमारे प्रणाम समर्पित हों॥३२॥

इदमेकात्मतास्तोत्रं श्रद्धया यः सदा पठेत् !

स राष्ट्रधर्मनिष्ठावान् अखण्डं भारतं स्मरेत् ॥ ३३ ॥

इस एकात्मता स्तोत्र का जो सदा श्रद्धापूर्वक पाठ करेगा, राष्ट्रधर्म में निष्ठावान वह (व्यक्ति) अखण्ड भारत का स्मरण करे गा॥ ३३ ॥

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एकात्मतास्तोत्र-व्याख्या

Bharat Ekatmata Stotra Sachitra-page-012.jpg

ऊँ सच्चिदानन्दरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने। ज्योतिर्मयस्वरूपाय विश्वमाडगिल्यमूर्तये।१ ॥

अर्थ :- ऊँ ज्योतिर्मय स्वरूप वाले, विश्व का कल्याण करने वाले, सच्चिदानन्द-स्वरूप परमात्मा को नमस्कार है ॥ १ ॥

व्याख्या : - ॐ परब्रह्मवाचक शब्द है जो प्रणव मंत्र भी कहलाता है। इसे सृष्टि का आदि नाद माना जाता है। यही शब्दब्रह्म है जो सम्पूर्ण आकाश में अव्यक्त रूप में व्याप्त है। पुराणों और स्मृतियों के अनुसार यह ब्रह्मा के मुँहसेनिकला हुआ। प्रथम शब्द है जो बड़ा मांगलिक माना जाता है और वेदपाठ या किसी भी शुभ कार्य के आरम्भ में तथा समापन के समय प्रयुक्त होता है। मन्त्र का आरम्भ भी ॐ से किया जाता है। ॐ त्रिदेव – ब्रह्मा,विष्णु और महेश का द्योतक है ,जिसमें अ = ब्रह्मा (सृष्टिकर्ता),उ = विष्णु (पालनकर्ता), और म् = महेश (संहारकर्ता) का संकेतक माना जाता है। शुभ का द्योतक होने से भारत में स्वीकृति-वाचक "हाँ" या "बहुत अच्छा" अथवा “ठीक है" के अर्थ में भी 'अं%' कहने की प्रथा रही है। सच्चिदानन्द – सत् चित्(ज्ञानस्वरूप) आनन्दस्वरूप ब्रह्य।

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प्रकृतिः पञ्च भूतानि ग्रहा लोका स्वरास्तथा।दिशः कालश्च सर्वेषां सदा कुवन्तु मङ्गलम् ।।२।।

अर्थ : - (तीन गुणों से युक्त) प्रकृति,पाँच भूत, (नौ) ग्रह, (तीन) लोक अथवा (सात) ऊध्र्वलोक और (सात) अधोलोक, (सात) स्वर, (दसों) दिशाएं और (तीनों) काल सदा सबका मंगल करें ॥2 ॥

प्रकृति सृष्टी का मुल उपादान कारण , जो संख्या दर्शन के अनुसार जड़ (अचेतन), अमूर्त (निराकार) और त्रिगुणात्मक है, प्रकृति के नाम से ज्ञात है। उसके तीन गुण हैं – सत्व,रज और तम,जिनकी साम्यावस्था में सब कुछ अमूर्त रहता है। किन्तु चेतन तत्व (ईश्वर या आत्मा) के सान्निध्य में जड़ प्रकृति में चेतनाभास उत्पन्न हो जाने से वह साम्य भंग हो जाता है और तीनों गुण एक दूसरे को दबाकर स्वयं प्रभावी होने का प्रयत्न करने लगते हैं। इसके साथ ही सृष्टि का क्रम प्रारम्भ हो जाता है। अद्वैत दर्शन में सृष्टि को मायाजनित विवर्त (मिथ्या आभास) माना जाता है। वस्तुत: भारतीय विचारधारा में प्रकृति और माया एक ही शक्ति के दो नाम हैं।

पंचभूत भारत का सामान्य जन भी इस दार्शनिक अवधारणा से सुपरिचित है कि सारे संसार और हमारे शरीर का भी निर्माण“क्षिति जल पावक गगन समीरा" अर्थात पृथ्वी ,जल,अग्नि, वायु और आकाश – इन पाँच भूतों से हुआ है। सांख्य दर्शन के अनुसार भौतिक सृष्टि के क्रम में तीन गुणों की साम्यावस्था भंग होने पर प्रधान प्रकृति के प्रथम विकार महत् से शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध – ये पाँच तन्मात्र (गुण) और इन तन्मात्रों से क्रमश: आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी नामक पंचभूतों की सृष्टि होती है जिनसे यह विश्व बना है। ये पाँचों भूत सूक्ष्म मूल पदार्थ हैं,स्थूल मिट्टी, पानी, आग इत्यादि नहीं।

ग्रह

सामान्यत: सौरमण्डलमें सूर्य की परिक्रमा करने वाले पदार्थ-पिण्डों को ग्रह कहते हैं,किन्तु ज्योतिष शास्त्र में हमारे सौरमण्डल के मंगल,बुध, बृहस्पति, शुक्र और शनि नामक पाँच ग्रहों के अतिरिक्त सूर्य और चन्द्रमा की तथा राहु और केतु नामक दो खगोलीय चर बिन्दुओं (छायाग्रह) की गणना भी ग्रहों के रूप में की गयी है। इस प्रकार ये नौ ग्रह हैं। इन सभी की गतियों और उदय तथा अस्त होने के समय की गणना गणित ज्योतिष में की गयी है। फलित ज्योतिष की मान्यता है कि पृथ्वीवासी प्राणियों पर इन ग्रहों की गतियों और विभिन्न समयों में उनकी स्थिति का शुभाशुभ प्रभाव पड़ता है। गुरुत्वाकर्षण के कारण समुद्री ज्वार-भाटा जैसे स्थूल प्रभाव तथा दृश्य प्रकाश और अवरक्त एवं पराबैंगनी किरणों जैसे विद्युच्चुम्बकीय विकिरण के प्रभाव को आधुनिक विज्ञान भी मान्यता देता है।

पुराणों में राहु और केतु का उल्लेख एक राक्षस के कटे हुए शिर और धड़ के रूप में किया गया है, जिसने समुद्र-मन्थन के पश्चात् चुपके से देवों के मध्य जाकर अमृत पी लिया था। सूर्य-चन्द्र द्वारा यह सूचना मिलने पर भगवान् विष्णु ने सुदर्शन चक्र से उसका शिर काट दिया। मांगलिक कार्यों के पूजा-विधान में नवग्रह-पूजन भी सम्मिलित है।

भारत एकात्मता-स्तोत्र—व्याख्या सचित्र 13

लोक

वेदों में अनेक लोकों का उल्लेख हैजिन में प्रकाश पूर्ण दैवी लोक भी हैं और अन्धकार में डूबे आसुरी लोक भी। पुराणों में चौदह लोकों का वर्णन किया गया है जिनमें भूर्लोक , भुवर्लोक , स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक और सत्यलोक नामक सात ऊध्र्वलोक हैं तथा अतल, वितल,सुतल,रसातल,तलातल, महातल और पाताल नामक सात अधोलोक हैं। इन्हें चौदह भुवन भी कहा जाता है। भूलोंक कर्मलोक है और मनुष्य जन्म कर्म का आधार है। इस लोक से ऊध्र्व लोकों में शुभ कर्मों और पावन प्रवृत्तियों के प्राणियों का वास है और निम्न लोकों में अशुभ कर्मों एवं अधम प्रवृत्ति के प्राणियों का वास।

स्वर

भारतीय दर्शन के अनुसार आकाश में शब्द गुण है। परन्तु वहाँ शब्द अभिप्राय ध्वनि न होकर'कम्पन' अर्थात्तरंग- प्रचरण है। शब्द की ध्वनिमयी अभिव्यक्ति स्वर है। स्वर को नादब्रह्म भी कहा गया है। संगीत शास्त्र में ध्वनि की मूल इकाइयों को श्रुति नाम दिया गया है जिनकी संख्या 22 है। एक से अधिक श्रुतियों के नादमय संयुक्त रूप को स्वर कहते हैं। संगीत के एक सप्तक में सात स्वर होते हैं,जिनके नाम है : षड्ज,ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत तथा निषाद (सारे ग म प ध नि) । सात स्वरों का यह क्रम पूरा होने पर फिर से उसी क्रम में पूर्वापेक्षा दुगुनी आवृत्ति (तारत्व) का सप्तक आरम्भ हो जाता है। इस सप्तक का क्रम भी सातवें स्वर तक चलने के पश्चात् उससे दुगुनी आवृत्ति का सप्तक चल पड़ता है। उपर्युक्त शुद्ध स्वरों के अतिरिक्त जिनविक्कृत स्वरों को संगीत में मान्यता दे दी गयी है, वे हैं – कोमल ऋषभ, कोमल गान्धार, तीव्र मध्यम, कोमल धैवत और कोमल निषाद। भारतीय संगीत में प्रयुक्त तीन सप्तकों को क्रमश:मन्द्र,मध्य और तार सप्तक कहा जाता है।

व्याकरण में, भारतीय भाषाओं की वर्णमाला के अ आ इ ई उ ऊ आदि जिन 14 वर्णाक्षरों *९ -९ -९ -९ -९ वणाक्षरों से मिलने पर उनकी ध्वनियों को अभिव्यक्त करने में भी सहायक होती हैं , वे स्वर कहलाते हैं। उच्चारण में नाद के विस्तार की दृष्टि से ये हृस्व, दीर्घ और प्लुत भेद से तीन प्रकार के होतेहैं।उच्चारण की तीव्रता की दृष्टि से भी स्वर उदात्त,अनुदात्त और स्वरित भेद से तीन प्रकार के होते हैं।

दिशा

पूर्व,पश्चिम,उत्तर,दक्षिण,आग्नेययाअग्निकोण(दक्षिण-पूर्व),नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम), वायव्य (उत्तर-पश्चिम),ईशान (पूर्वोत्तर),ऊध्र्व (ऊपर) और अध: (नीचे) – ये दश दिशाएँ या दिक हैं।

काल

घटनाओं के पूर्व और पश्चात् के अनुक्रम का बोध कराने वाला प्रत्यय, जिसका गति या परिवर्तन से अविच्छेद्य सम्बन्ध है। भारतीय तत्व दर्शियों ने काल को चक्रीय (पुनरावर्ती) बताया है, जिसके अनुसार सत्ययुग, त्रेतायुग,द्वापरयुग, और कलियुग का बारम्बार पुनरावर्तन होता रहता है। इस प्रकार भूत,वर्तमान और भविष्य का कालचक्र पुन: पुन: अपने को दुहराता रहता है। भारत में काल-गणना निमेष (पलक-झपकने) के भी अत्यंत सूक्ष्म अंश से लेकर कल्प (सृष्टि की अवधि) पर्यन्त बृहत् स्तर तक की गयी है। उपर्युक्त चार युगोंका एक महायुग (43,20,000 वर्ष) और 1000 महायुगों का एक कल्प होता है जो पुराणों के अनुसार सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का एक दिन और एक बार की सृष्टि की अवधि है। सृष्टि कल्प के ही बराबर प्रलयकाल होता है और तत्पश्चात् पुन: सृष्टि।

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रत्नाकराधौतपदां हिमालयकिरीटिनीम्। ब्रह्मराजर्षिरत्नाढ़यां वन्दे भारतमातरम् ॥3 ॥

राजर्षियों रूपी रत्नों से समृद्ध ऐसी भारतमाता की मैं वन्दना करता हूँ ॥3 ॥

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महेन्द्रो मलय: सह्यो देवतात्मा हिमालय: । ध्येयो रैवतको विन्ध्यो गिरिशचारावलिस्तथा ।4 ।

महेन्द्र पर्वत : -

उत्कल प्रदेश (उड़ीसा) के गंजाम जिले में पूर्वी घाट काउत्तुंग शिखर। इस पर्वत पर चार विशाल ऐतिहासिक मन्दिर विद्यमानहैं। चोल राजा राजेन्द्र ने 11 वीं शताब्दी में यहाँएक जयस्तम्भ स्थापित किया था। स्थानीय लोगों की ऐसी श्रद्धा है कि सप्त चिरंजीवियों में से एक, परशुराम, इस पर्वत पर विचरण करते हैं। इस पर्वत से महेन्द्र—तनय नामक दो प्रवाह निकलते हैं।

मलय पर्वत :-

भारतीय वाड्मय में मलय गिरि का वर्णन अनेक कवियों ने किया है। चंदन वृक्षों के लिए प्रसिद्ध यह पर्वत कर्नाटक प्रान्त में दक्षिण मैसूर में स्थित है। यह नीलगिरि नाम से भी जाना जाता है। इसका एक शिखर भी नीलगिरि के नाम से प्रसिद्ध है।

सह्य पर्वत (सह्याद्री): -

भारत के पश्चिमी सागर-तट पर महाराष्ट्र और कर्नाटक में स्थित यह पर्वत गोदावरी और कृष्णा नदियों का उद्गम-स्थल है। त्र्यम्बकेश्वर, महाबलेश्वर, पंचवटी, मंगेशी, बालुकेश्वर, करवीर आदि अनेक तीर्थ सह्याद्रि के शिखरों पर तथा इससे उद्भूत नदियों के तटों पर विद्यमान हैं। यह पर्वत शिवाजी महाराज के कतृत्व का आधार क्षेत्र रहा है। अनेक इतिहास-प्रसिद्ध दुर्ग सह्याद्रि के शिखरों पर स्थित हैं, जिनमें उल्लेखनीय हैं—शिवनेरी, प्रतापगढ़, पन्हाला, विशालगढ़, पुरन्दर, सिंहगढ़ और रायगढ़।

हिमालय

भारत के उत्तर में स्थित, सदैव हिममण्डित, विश्व का सबसे ऊँचा पर्वत, जिसे कालिदास ने ‘देवतात्मा' विशेषण से सम्बोधित किया था (“अस्त्युतरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयी नाम नगाधिराज:।") । उत्तर की ओर से परकीय आक्रमणों को रोकने में सुदृढ़ प्राचीर की भाँति खड़े पर्वतराज हिमालय की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यह पर्वत भारत की अनेक महान् नदियों का उदगम-स्थल है। गंगा, यमुना,सिन्धु, ब्रह्मपुत्र जैसी महिमामयी विशाल नदियाँ हिमालय से ही नि:सृत हुई हैं। भगवान् शिव का प्रिय निवास कैलाश पर्वत हिमालय में ही स्थित है। नर-नारायण का पवित्र स्थान यहीं है। गंगोत्री, यमुनोत्री, मानसरोवर, बद्रीनाथ, केदारनाथ जैसे सुप्रसिद्ध तीर्थ इसी महती पर्वत-श्रृंखला के क्रोड़ में बसे हैं। हिमालय के प्रांगण में ही राजा भगीरथ ने गंगा के अवतरण के लिए घोर तप किया था। यहीं देवी पार्वती ने जन्म लिया, जिन्होंने अपने महान् तप से भगवान्शिव को पतिरूप में प्राप्त किया। यहीं बद्रीवन में भगवान् व्यास ने अनेक महाग्रन्थों का प्रणयन किया। महाभारत के युद्ध के बाद पाण्डवों ने हिमालय-गमन किया था। भारत की पारम्परिक, सांस्कृतिक जीवनगाथा के असंख्य आख्यान हिमालय से जुड़े हुए हैं। यह युगों-युगों से ऋषि-मुनियों, योगियों, तपस्वियों और दार्शनिकों का वासस्थान रहा है।

रैवतक पर्वत : -

गुजरात प्रान्त के काठियावाड़ जिले के प्रभास क्षेत्र का पवित्र पर्वत,जो गिरनार नाम से भी प्रसिद्ध है,द्वारिका से कुछही दूरी पर है। माघरचित 'शिशुपाल वध' नाटक में इसका सुन्दर वर्णन है। पुराणों के अनुसार भगवान् शंकर ने इस पर्वत पर वास किया था और उन्हें कैलाश पर्वत पर लौटा लाने का अनुरोध करने के लिए आये हुएदेवताओं को शंकर जी ने इसी क्षेत्र में रहने को कहा था। अतएव ऐसी मान्यता है कि रैवतक पर्वत पर सभी देवताओं का और शिवजी के अंश का निवास है। इस पर्वत पर अनेक पवित्र जल-कुण्ड औरमन्दिरविद्यमानहैं। जैन सम्प्रदाय के भी अनेक मन्दिर इस पर्वत पर विद्यमान हैं। इसके शिखरों में गोरखनाथ शिखर सबसे उलूंचा है।

विन्ध्याचल : -

भारत के मध्य भाग में गुजरात से बिहार तक विस्तीर्ण यह पर्वत नर्मदा और शोणभद्र नदियों का उद्गम-स्थल है। विन्ध्याचल सात कुलपर्वतों में से एक है। कहा जाता हैकि उत्तर भारत और दक्षिण भारत को विभाजित करने वाली विन्ध्य पर्वतमाला को लांघकर ऋषि अगस्त्य दक्षिण गये थे और उन्होंने उत्तरतथा दक्षिण कोएकसूत्र में बाँधने का यशस्वी कार्य सम्पन्न किया था। पुराणों के अनुसार, यह पर्वत हिमालय से ईष्र्या करके मेरु से भी ऊँचा उठ रहा था। देवताओं की प्रार्थना पर अगस्त्य ऋषि विन्ध्य पर्वत के पास गये। अपने गुरु को आया देख उसने झुककर उन्हें प्रणाम किया। ऋषिवर ने दक्षिण से अपने वापस लौटने तक उसी नम्र अवस्था में रहने का उसे आदेश दिया। तब से विन्ध्य पर्वत उसी विनतावस्था में उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। अमरकण्टक का रमणीक पवित्र तीर्थ विन्ध्य पर्वत-श्रृंखला पर ही स्थित है। अरावली राजस्थान का प्रमुख पर्वत,जिसके आश्रय से उत्तर-पश्चिम की ओर से होने वाले परकीय आक्रमणों का प्रतिरोध किया गया। महाराणाप्रताप के शौर्य और कर्तृत्व का साक्षी यह पर्वत उनकी कर्मभूमि रहा है। प्रसिद्ध हल्दीघाटी अरावली की उपत्यकाओं में ही स्थित है। अरावली के सर्वोच्च शिखर का नाम आबू(अर्बुदाचल) है, जहाँ जैन सम्प्रदाय के पवित्र तीर्थ हैं। इस पर्वत का प्राचीन संस्कृत नाम ‘पारियात्र' था जिसकी सात कुलपर्वतों में गणना होती थी।

(महेन्द्रो मलय: सह्यो शुक्तिमान् ऋक्षवानपि। विन्ध्यश्च परियात्रश्च सप्तैते कुलपर्वता: ॥)

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गडगा सरस्वती सिन्धुब्रह्मपुत्रश्च गण्डकी। कावेरी यमुना रेवा कृष्णा गोदा महानदी ॥5 ॥

गंगा : -

नामों से पुकारा जाताहै,हिमालय में गंगोत्री में गंगोत्री हिमानी के गोमुख विवर से निकलकर गंगा गिरि-शिखरों से क्रीड़ा करती हुई,हरिद्वार में समतल प्रदेश मेंप्रवेश करती है। आगे यहनदी उत्तर प्रदेश,बिहार,बंगाल कोअपने पवित्रप्रवाहसे पावनकरती हुईगंगासागर मेंजामिलती है। ऋग्वेद के नदी सूक्त के अनुसार वह भारत की नदियों में सर्वप्रथम है। गंगा के तट पर हरिद्वार, प्रयाग, काशी जैसे अनेक सुप्रसिद्ध तीर्थ हैं। इसके तटों पर अनादि काल से ऋषि, मुनि और तपस्वीगण साधना करते आये हैं। गंगा—जल पवित्रता और निर्मलता का उपमान है। वैज्ञानिक प्रयोगों से यह सिद्ध हो चुका हैकि इसकी स्वयं शुद्ध हो जाने की क्षमता विश्वभर क जलों में सर्वोपरिहै। हिन्दू इस पावन नदी को माता या मैया कहकर पुकारते हैं। पुराणों के अनुसार गंगा विष्णु के चरण से उत्पन्न हुई, ब्रह्मा के कमंडलु में समायी, शिव जी ने इसे अपनी जटा में धारण किया और सगरवंशीय राजा भगीरथ अपने पूर्व-पुरुषों का उद्धार करने हेतु इसे धरती पर लाये। भागवतपुराण में तत्सम्बन्धी कथा विस्तार से दी गयी है। आदित्यपुराण के अनुसार पृथ्वी पर गंगावतरण वैशाख शुक्ल तृतीया को तथा हिमालय से उसका निर्गम ज्येष्ठ शुक्ल दशमी (गंगा दशहरा ) को हुआ।

सरस्वती : -

वेदों में उल्लिखित पवित्र नदी, जो हिमालय से निकलकर वर्तमान हरियाणा, राजस्थान, गुजरात के क्षेत्रों से प्रवाहित होती हुई सिन्धुसागर में मिलती थी। कालांतर में यह नदी विलुप्त हो गयी। इसके तट ऋषियों की तपोभूमि रहे हैं। इसके आसपास का प्रदेश सारस्वत प्रदेश कहलाता था जो अपनी सांस्कृतिक समृद्धि के लिए प्रसिद्ध था। पुराणों में कहीं-कहीं सरस्वती को ब्रह्मा की पत्नी तथा ब्राह्मण ग्रन्थों में वाणी की देवी कहा गया है। सम्भव है कि इस नदी के तटवर्ती प्रदेश की विद्या—वैभव-सम्पन्नता के कारण इसे सरस्वती नाम मिला हो।

सिन्धु : -

पवित्र नदी, जिसका वैदिक साहित्य में भी उल्लेख आया है। हिमालय में कैलाश पर्वत से कुछदूर मानसरोवर के निकटसे उद्भूत होकर सिन्धुनदी कश्मीर, पंजाब औरसिन्ध प्रदेश में से प्रवाहित होती हुई पश्चिमी सिन्धु सागरमें जा मिलती है। सिन्धु नदी वेदों मेंउल्लिखित पवित्र नदी हैजिसके तटों पर वैदिक सभ्यता फली-फूली। ऐसी मान्यताहैकि 'हिन्दू' शब्द सिन्धुसे ही बना है। सिन्धु और उसकी सहायक नदियों सहित सात नदियों वाला प्रदेश सप्तसैंधव कहलाता था। वैदिक सभ्यता और संस्कृति यहाँ फली-फूली थी। किन्तु आज वही नदी और प्रदेश दोनों ही दुर्भाग्यवश पाकिस्तान में हैं।

ब्रह्मपुत्र : -

इसका उदगम-स्थल हिमालय में पवित्र मानसरोवर के समीप स्थित एक विशाल हिमानी है। यहमहानद पूर्व की ओर बहता हुआ असम और बंगाल में से होतेहुए गंगासागरमें मिलता है। भारतवर्ष की नदियों में ब्रह्मपुत्र की लम्बाई सर्वाधिक है। बड़ी दूर तक तिब्बत में सांपो नाम से बहने के पश्चात् अरुणाचल प्रदेश की उत्तरी सीमा पर यह भारत में प्रवेश करती है। गुवाहाटी में ब्रह्मपुत्र के किनारे एक पहाड़ के शिखर पर कामाख्या देवी का पवित्र शक्तिपीठ अवस्थित है। अपुनर्भव, भस्मक्तूट, मणिकर्णश्वर आदि अनेक तीर्थ इसके तटों पर स्थित हैं।

गण्डकी :-

नेपाल में मुक्तिनाथ के समीप दामोदर कुण्ड सेउद्भूत गण्डकी बिहार प्रदेश से होतीहुई गंगा में मिल जाती है। यह पवित्र शालिग्राम शिलाओं के लिएप्रसिद्ध है जिनकी पूजा भगवान् विष्णु के प्रतीक के रूप में की जाती है। इसीलिए इसका एक नाम नारायणी भी है।

कावेरी : -

कावेरीमुख्यत: कर्नाटक और तमिलनाडुमें बहने वाली पवित्र नदी,जो कुर्ग में सह्याद्रि केदक्षिणी छोर से निकलकर पूर्वी समुद्र-तट पर गंगासागर में विलीन हो जाती है। इसके प्रवाह के मध्य में तीन स्थानों पर क्रमश: आदिरंगम्, शिवसमुद्रम् तथा अन्तरंगम् नाम के तीन पवित्र द्वीप हैं जिन पर विष्णु-मन्दिर बने हैं। जो स्थान उत्तर भारत में गंगा- यमुना नदियों को प्राप्त है, वही स्थान दक्षिण भारत में कावेरी और ताम्रपणी को प्राप्त है। कावेरी से निकली नहरों ने तमिलनाडु प्रदेश को कृषि की समृद्धि प्रदान की है।

यमुना : -

यमुनाउत्तर भारत की पवित्र नदी, जो हिमालय में यमुनोत्री के शिखर से निकलकर प्रयाग क्षेत्र में गंगा मेंमिल जातीहै। गंगा-यमुना का यहसंगम-स्थल आस्तिकों के लिएतीर्थराजहै।इस नदी के तटपर इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली),मथुरा और वृंदावन जैसे ऐतिहासिक, धार्मिक नगर बसे हैं। नीलवर्णा यमुना के साथ श्रीकृष्ण का गहरा संबंध है। कृष्ण-भक्ति-साहित्य में कृष्ण के संबंध के कारण यमुना का महात्म्य भी गाया गया है। पुराणों में यमुना को सूर्यकन्या माना गया है। वेदों और ब्राह्मण ग्रंथों में भी इसका उल्लेख अनेक बार हुआ है।

रेवा : -

पुराणोक्ता रेवा नदी नर्मदा नाम से प्रसिद्ध है। इसका उदगम विन्ध्य पर्वत के अमरकण्टक शिखर में है। यह गुजरात में भड़ौंच के पास सिन्धु सागर में समाहित होती है। पौराणिक मान्यता के अनुसाररेवा नदी शिवके शरीर सेउत्पन्न हुईहै।रेवा के तट परअनेक तीर्थहैं। इनमें भेड़ाघाट, ओकारेश्वर, मांधाता, शुक्लतीर्थ, कपिलधारा आदि दर्शनीय हैं। स्कन्दपुराण के रेवाखण्ड में रेवा-तट के तीर्थों का विस्तृत वर्णन है। रानी अहिल्याबाई होलकरद्वारा बनवाये गये अनेक मन्दिर व घाट नर्मदा के तट पर विद्यमान हैं। कृष्णाआंध्र प्रदेश की प्रसिद्ध पुण्य सलिला नदी,जो सह्मद्रि पर्वत में महाबलेश्वर के उत्तरमें स्थित कराड़ नामक स्थान के समीप सेनिकलकर गंगासागर में जामिलती है। यहदक्षिण भारत की बड़ी नदियों में से है जिसे महाभारत में रोगनाशकारिणी बताया गया है। राजनिघण्टु के अनुसार इसका जल स्वच्छ,रुचिकर,दीपक और पाचक होताहै। भीमा औरतुंगभद्रा कुष्णा की दो प्रमुख सहायक नदियाँ हैं।

गोदावरी : -

गोदावरी ब्रह्मपुराण के अनुसार गौतम ऋषि शिव की जटा से गंगा को ब्रह्मगिरि (सह्याद्रि) में अपने आश्रम के समीप ले गये। इसीलिए वहाँप्रकट हुई गोदावरी को गौतमी और दक्षिण की गंगा भी कहा जाता है। इसका उद्गम सह्याद्रि में त्रयम्बकेश्वर (ब्रह्मगिरि) से है और यह महाराष्ट्र से आन्ध्र प्रदेश में बहती हुई गंगासागर में विलीन हो जाती है। भगवान् राम चन्द्र जी ने गोदावरी के किनारे पंचवटी में निवास किया था। समर्थ रामदास स्वामी ने इसी स्थान पर 13 वर्ष तक घोर तपस्या की थी। गोदावरी के किनारे नान्देड़ क्षेत्र में श्री गुरु गोविन्द सिंह की समाधि विद्यमान है। गोदावरी के तट पर नासिक,पैठण,कोटिपल्ली राजमहेन्द्री, भ्रदाचलम् इत्यादि अनेक पावन क्षेत्र विद्यमानहैं। ब्रह्मपुराण मेंगोदावरी-तट के लगभग एक सौतीर्थों का वर्णनहै। मुस्लिम आक्रामकों ने इनमें प्राचीन मन्दिरों का बहुत विध्वंस किया। मराठा उत्थान के पश्चात्पुन: अनेक मंदिर बने। पंचवटी का कालाराम मंदिर दक्षिण-पश्चिम भारत के सर्वोतम मन्दिरों में गिना जाता है।

महानदी : -

महानदी यह मध्य प्रदेश तथा उत्कल प्रदेश की सबसे बड़ी नदी है जो मध्य प्रदेश के रायपुर जिले के दक्षिण-पूर्व में स्थित सिंहवा पर्वत-श्रृंखला से निकलती है। कटक के पास अनेक धाराओं में बहती हुई यह पूर्व में गंगासागर में विलीन होती है। उत्कल प्रदेश का बहुत बड़ा क्षेत्र इसके जल से सिंचित होता है। उत्कल प्रदेश का बहुत बड़ा क्षेत्र इसके जल से सिंचित होता है।

अयोध्या मथुरा माया काशी काजिच अवन्तिका।वैशाली द्वारिका ध्येया पुरी तक्षशिला गया।6 ॥

अयोध्या

मर्यादापुरुषोतम भगवान् श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या प्राचीन कोसल जनपद (अबउत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले) में सरयू नदी के दाहिने तट पर बसी अति प्राचीन नगरी है। यह इक्ष्वाकुवंशी राजाओं की राजधानी थी। मर्यादापुरुषोत्तम भगवान्राम की यहप्रसिद्ध जन्मभूमिहै। श्रीराम के लोकविख्यात रामराज्य केपश्चात्उनकेज्येष्ठपुत्र कुश ने अपनी राजधानी अन्यत्र बना ली और अयोध्या में श्रीराम-जन्मस्थान पर मन्दिर बनवा दिया। कालान्तर में विक्रमादित्य ने वहाँ जीर्णोद्धार कर मन्दिर-निर्माण कराया। अब से लगभग 1000 वर्ष पूर्व किसी राजा ने मन्दिर का पुनर्नवीकरण किया। 1529 ई० में विदेशी बर्बर आक्रमणकारी बाबर ने यहाँ के श्रीराम-जन्मभूमि-मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाने का प्रयास किया,परन्तु रामभक्तों के अनवरत सशस्त्र प्रतिरोध के कारण अपने उद्देश्य में असफल होकर उसनेबिना मीनारों के तीनगुम्बदों वाले ढाँचे का निर्माण वहाँ किसी प्रकार करा दिया था जिसमें गुम्बदों के नीचे ध्वस्त किये गये मंदिर के जो खंभे लगाये गये थे उन पर मूतियाँ और मंगल-कलश उत्कीर्ण हैं। वे स्तम्भ अब वहाँ संग्रहालय में रखे हैं। मुख्य गुम्बद में चन्दन-काष्ठ लगा था औरप्रदक्षिणा भी थी। साधु-संत वहाँ भजन-पूजन करते थे, परन्तु औरंगजेब ने बर्बर सैन्यशक्ति द्वारा उस पर रोक लगायी। श्री राम-जन्मभूमि की मुक्ति के लिए समाज सतत संघर्ष करता रहा है जिसमें वह अनेक बार सफल हुआ और गुम्बद के नीचे भी पूजा होती रही। किन्तुविदेशी अवैध शासकों ने बार-बार व्यवधान डाले। गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरित मानस की रचना अयोध्या में ही की थी। इसके लिए वे काशी से अयोध्या पहुँचे और संवत् 1631 की रामनवमी का दिन उन्होंने इस पावन कार्य के शुभारम्भ हेतु चुना। स्वाभाविक था कि यह कार्य उन्होंने रामजन्मभूमि पर निवास करते हुए ही किया, जिस पर उस समय मसीत (मस्जिद) की आकृति का परित्यक्त भवन खड़ा था। गोस्वामी जी के शब्दों में उस समय उनकी आजीविका थी – “माँगे के खैबो मसीत को सोइबी लैबे को एक न दैबे की दोऊ”

प्रमुख संत-महात्माओं के सम्मेलन एवं धर्म-संसद में लिए गये निर्णयानुसार विक्रम संवत् 2046 की देवोत्थान एकादशी के दिन नये भव्य श्री राम-जन्मभूमि-मंदिर का शिलान्यास किया गया। संवत् 2047 की देवोत्थान एकादशी के दिन से पुन: श्रीराम-मन्दिर के निर्माण-कार्य को आगे बढ़ाने के लिए गये हुए रामभक्तों के मार्ग में सैकड़ों अवरोध डालने के पश्चात मुश्लिम परस्त क्रूर राज सत्ताधारियों ने उस दिन श्री राम-जन्मभूमि पर और उसके चार दिन पश्चात् हनुमानगढ़ी तथा अयोध्या के मन्दिरों और गलियों में आग्नेयास्त्रों से गोली-वर्षा कर बहुत से बलिदानी वीरों के प्राण ले लिये और सैकड़ों को आहत कर दिया। किन्तु राम-कार्य के लिए सर्वस्वार्पण का संकल्प तोड़ा न जा सका। और नये-पुराने 'धर्मनिरपेक्ष' शासकों के राजनीतिक छल-छद्यों तथा राज्यसत्ता के हठ पूर्ण दुरुपयोग के कारण अन्तत: वह दिन भी आ गया जब 6 दिसम्बर, 1992 के दिन रामभक्तों ने राष्ट्रीय अपमान के प्रतीक उस ढाँचे को हटाकर उस पवित्र स्थल का जीर्णोद्धार कर दिया। वहाँ रामलला का जो लघु मन्दिर अब रह गया है उसको उस स्थान के अनुरूप भव्य रूप देने के मार्ग में अब भी कुटिल बाधाएं खड़ी की जा रही हैं। जैन तीर्थकर आदिनाथ का जन्म भी अयोध्या में हुआ था। बौद्ध साहित्य में इस नगर को साकेत कहा गया। वाल्मीकि-रामायण में भगवान श्री राम ने जननी और जन्मभूमि को स्वर्ग से भी बढ़कर बताया है। रावण-वध के पश्चात् यह भावना व्यक्त कर वे लंका से शीघ्र अयोध्या लौट आये। सीता रसोई तथा हनुमानगढ़ी जैसे कुछ प्राचीन एवं अन्य अनेक नवीन मन्दिरों की यह नगरी जैन, बौद्ध, सिख, सनातनी आदि सभी धार्मिक पन्थों का पावन तीर्थ है। यहाँ अनेक जैन तथा बौद्ध मन्दिर हैं।

मथुरा

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में यमुना-तट परस्थित प्राचीन नगरी,जो भगवान् कृष्ण की जन्मभूमि रही है। इसका प्राचीन नाम मधुरा था,शायद वही कालान्तर में मथुरा हो गया। बालक ध्रुव ने नारद जी के उपदेशानुसार यहीं मधुवन में कठिन तपस्या करके भगवत दर्प्राशन प्राप्त किया। त्रेतायुग में भगवान् राम के आदेश से अत्याचारी लवणासुर का वध करके शत्रुध्न ने मथुरा का राज्य संभाला।द्वापर युग में भगवान् श्रीकृष्ण ने मथुरा के अत्याचारी राजा कंस को मारकर अपने अवतार-कार्य का श्रीगणेश यहीं से किया था। कलियुग में शकों ने भारत पर आक्रमण करके मथुरा और अवन्तिका पर भी अधिकार कर लिया था। उनको विक्रमादित्य ने पराजित किया। पुन: आक्रामक मुस्लिम शासनकाल मेंऔरंगजेब ने कृष्ण जन्मभूमि-मन्दिर को ध्वस्त कर वहाँ मस्जिद का निर्माण किया। मथुरा-वृन्दावन क्षेत्र कृष्णभक्तों के लिए सदैव अपार आकर्षण और श्रद्धा का केन्द्र रहा है। कृष्ण-जन्मस्थान को मुक्त कराना करोड़ों कृष्णभक्तों की साधना है जिसे पूरा करने के लिए प्रयास किये जा रहे हैं।

मायापुरी (हरिद्वार)

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गंगा-तट का यह प्रसिद्ध तीर्थ है। पहाड़ों से निकलकर गंगा यहीं मैदान में प्रवेश करती है। प्रसिद्ध कुम्भ मेला, जिसमें लाखों श्रद्धालु भाग लेते हैं, हरिद्वार में भी लगता है। जिस वर्ष चन्द्र-सूर्य मेष राशि में और गुरु कुम्भ राशि में एक ही समय में होते हैं, कुम्भ पर्व का योग आता है। हरिद्वारतीर्थ-क्षेत्र में गंगाद्वार,कुशावर्त,विल्वकेश्वर,नीलपर्वत ( नीलकण्ठ महादेव) और कनखल नामक प्रमुख पाँच तीर्थ-स्थान हैं। दक्ष प्रजापति ने अपना प्रसिद्ध यज्ञ कनखल में ही किया था जिसका, सती के यज्ञाग्नि में जल जाने पर, शिवगणों ने विध्वंस कर दिया।

काशी

पूर्वी उत्तर प्रदेश में गंगा के तट पर स्थित तथा भगवान् शंकर की महिमा से मण्डित काशी को विश्व के प्राचीनतम नगरों में अनन्यतम स्थान प्राप्त है। वरणा नदी और असी गंगा के मध्य स्थित होने से यह वाराणसी नाम से भी प्रसिद्ध है। बौद्ध जातक कथाओं के अनुसार काशी महाजनपद की यह राजधानी भारत के छ: प्रमुख नगरों से सबसे बड़ी थी। अनेक विद्याओं के महत्वपूर्ण अध्ययन-केन्द्र, विभिन्न पंथ-सम्प्रदायों के तीर्थस्थल और भगवत्प्राप्ति के लिए परम उपयुक्त क्षेत्र के रूप में इसकी प्रतिष्ठा है। यह शैव, शाक्त,बौद्ध और जैन पंथों का प्रमुख तीर्थ-क्षेत्र है। यहाँ के विश्वनाथ— मन्दिर में स्थित शिवलिंग की बारह ज्योतिर्लिगों में गणना होती है। काशी में शक्तिपीठ भी है। सातवें और तेईसवें जैन तीर्थकरों का यहीं आविर्भाव हुआ था। भगवान बुद्ध ने काशी के पास सारनाथ में अपना प्रथम धर्म-प्रवचन सुनाया था। जगदगुरु आद्य शंकराचार्य ने अपनी धार्मिक दिग्विजय-यात्रा यहीं से प्रारम्भ की थी। किसी नये पंथ, विचार अथवा सुधार का श्रीगणेश काशी में करना सफलता के लिए आवश्यक माना जाता था। कबीर, रामानंद, तुलसीदास सदृश भक्तों और संत कवियों ने भी काशी को अपनी कर्मभूमि बनाया था। शास्त्राध्ययन और शास्त्रार्थ की यहाँ अति प्राचीन परम्परा रही है।

मुगल आक्रामक औरंगजेब ने यहाँ स्थित विश्वनाथ-मंदिरको ध्वस्त कर उसके भग्नावशेषों पर मस्जिद बनवा दी। कालान्तर में रानी अहल्याबाई होलकर ने निकट ही नवीन विश्वनाथ—मंदिर की प्रतिष्ठापना की। इस मन्दिर के शिखर को महाराजा रणजीत सिंह ने स्वर्ण-पत्र से मण्डित किया था। काशी विश्वनाथ के मूल स्थान को मुक्त कराने के प्रयास किये जा रहे हैं।आधुनिक काल में महामना मदनमोहन मालवीय ने विश्व-प्रसिद्ध काशी हिन्दूविश्वविद्यालय की स्थापना कर विद्या—क्षेत्र के रूप में काशी की परम्परा को आगे बढ़ाया। यहाँ गंगा-तट पर दशाश्वमेध घाट प्रसिद्ध है, यहाँ भारशिव राजाओं ने कुषाणों को परास्त कर दस अश्वमेध यज्ञ किये थे।

कांची

सात मोक्षपुरियों में से एक-कांची दक्षिण भारत का प्रसिद्ध धार्मिक नगर और विद्या-केंद्र रहा है। इसे दक्षिण की काशी कहते हैं। प्राचीन काल से यह नगर शैव, वैष्णव, जैन तथा बौद्ध सम्प्रदायों का तीर्थ-क्षेत्र रहा है। इस नगरी के शिवकांची और विष्णुकांची नामक दो विभाग माने गये हैं। कांची के कामाक्षी और एकाम्बर नाथ के मंदिर प्रसिद्ध हैं। इस नगरी में 108 शिव-स्थल मानेगये हैं। विष्णुकांची में भगवान् वरदराज का विशाल मन्दिरहै। रामानुजाचार्य के तत्वज्ञान का उदगम-स्थान कांचीपुरी रही है। बौद्ध पण्डितों में नागार्जुन, बुद्धघोष, धर्मपाल, दिडनाग आदि का निवास कांची में ही था। ब्रह्माण्डपुराण में काशी और कांची को भगवान् शिव के नेत्र कहा गया है।

अवन्तिका

क्षिप्रा नदी के तट पर बसा मध्य प्रदेश का यह सुप्रसिद्ध नगर अब उज्जयिनी या उज्जैन के नाम से जाना जाता है। इसकी गणना भी सात मोक्षपुरियों में होती है। भगवान् शिव के द्वादश ज्योतिर्लिगों में महाकाल नामक शिवलिंग का यह पीठ है और भगवती सती के बाहुका एक अंश यहाँ गिरने के कारण इसे शक्तिपीठ भी माना जाता है। भगवान शंकर ने इसी स्थान पर त्रिपुरासुर पर विजयपायी थी। आचार्य सांदीपनि का आश्रम उज्जयिनी में ही था, जहाँ कृष्ण ने बलराम और सुदामा के साथ उनसे शिक्षा प्राप्त की थी। विद्या-केंद्र के रूप में अवन्तिका का महत्व दीर्घकाल तक बना रहा। भारतीय ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भूमध्य-रेखा और शून्यरेखांश का केंद्र-बिन्दु इसी नगरी में मिलता है। प्रति बारह वर्षों के बाद अवन्तिका नगरी में कुम्भ पर्व आता है। मौर्य शासनकाल में उज्जयिनी मालव प्रदेश की राजधानी थी। सम्राट अशोक के पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा ने यहीं प्रव्रज्या धारण की थी। बाद में यहाँ शकों का राज्य स्थापित हुआ, जिन्हें विक्रमादित्य ने पराजित किया। कालिदास, अमरसिंह, वररूचि, भतृहरि, भारवि आदि प्राचीन भारत के श्रेष्ठ साहित्यकारों और भाषाशास्त्रियों तथा प्रख्यात ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर का अवन्तिका से संबंध रहा है। यहाँक्षिप्रा नदी के तट पर सिद्ध वटवृक्ष चिरकाल से प्रतिष्ठित है। प्रयाग के अक्षय वट की भाँति इसे नष्ट करने के भी प्रयत्न अनेक मुस्लिम आक्रामकों ने किये, परन्तु जहांगीर सहित उनमें से कोई भी अपने दुष्प्रयत्न में सफल नहीं हुआ।

वैशाली

बिहार की प्राचीन नगरी, प्रसिद्ध लिच्छवि गणराज्य की राजधानी जिसे सम्पूर्ण वज्जि संघ की राजधानी होने का भी गौरव प्राप्त हुआ। यह नगरी एक समय अपनी भव्यता और वैभव के लिए सम्पूर्ण देश में विख्यात थी। 24 वें जैन तीर्थकर महावीर का जन्म वैशाली में ही हुआ था। इस नाते यहजैन पंथ का प्रसिद्ध तीर्थ एवं श्रद्धा-केंद्र है। बुद्धके समय में भारत के छ:प्रमुख नगरों में वैशाली भी एक थी। बुद्ध ने भी इस नगरी को अपना सान्निध्य प्रदान किया। वैशाली का नामकरण इक्ष्वाकुवंशी राजा विशाल के नाम पर हुआ माना जाता है। भगवान्राम ने मिथिला जाते हुए इसकी भव्यता का अवलोकन किया था।

द्वारिका गुजरात में सौराष्ट्र के पश्चिम में समुद्र-तट पर बसी यह नगरी श्रीकृष्ण द्वारा स्थापित गणराज्य की राजधानी थी। द्वारिका हिन्दुओं के चार धामों में से एक है। द्वारिका में रैवत नामक राजा ने दर्भ बिछाकर यज्ञ किया था। द्वारिकाधीश्वर श्रीकृष्ण के ही एक रूप श्रीरणछोड़ राय जी का विशाल मन्दिर द्वारिका का प्रमुख दर्शनीय स्थान है। रणछोड़राय जी के मन्दिर पर लहराने वाला धर्मध्वज संसार का सबसे बड़ा ध्वज है। इसी मन्दिर के परिसरमें जगदगुरु शंकराचार्य द्वारा स्थापित शारदा मठ है। भगवान श्रीकृष्ण के लीला-संवरण कर परमधाम-गमन के पश्चात् द्वारिका की अधिकांश भूमि समुद्र में डूब गयी।

पुरी (जगन्नाथपुरी)

उड़ीसा में गंगासागर तटपर स्थित जगन्नाथपुरी शैव, वैष्णव और बौद्ध, तीनों सम्प्रदायों के भक्तों का श्रद्धा-केंद्र है और पूरे वर्षभर प्रतिदिन सहस्त्रों लोग यहाँ दर्शनार्थ पहुँचते हैं। यह परमेश्वर के चार पावन धामों में से एक है। जगदगुरु शंकराचार्य का गोवर्धन मठ तथा चैतन्य महाप्रभु मठ भी पुरी में है। विख्यात जगन्नाथ मन्दिर करोड़ो लोगों का श्रद्धा-केंद्र है जिसे पुराणों में पुरुषोत्तम तीर्थ कहा गया है। वर्तमान जगन्नाथ मन्दिर 12 वीं शताब्दी में अनन्तचोल गंग नामक गंगवंशीय राजा ने बनवाया था, किन्तु ब्रह्मपुराण और स्कन्दपुराण के अनुसार (इस से पूर्व) यहाँ उज्जयिनी-नरेश इन्द्रद्युम्न ने मन्दिर-निर्माण कराया था। इस मंदिर में श्रीकृष्ण, बलरामऔरसुभद्रा की काष्ठ-मूतियाँ हैं। जगन्नाथ के महान् रथ की यात्रा भारत की एक प्रमुख यात्रा मानी जाती है। लाखों लोग भगवान् जगन्नाथ के रथ को खींचकर चलाते हैं। इस तीर्थ की एक विशेषता यह है कि यहाँ जाति-पाँति के छुआछुत का भेदभाव नहीं माना जाता। लोकोक्ति प्रसिद्ध है- 'जगतराथ' का भात, जगत पसारे हाथ, पूछेजात न पात।' पुरी के सिद्धि विनायक मन्दिर की विनायक मूर्ति मूर्तिकला की दृष्टि से भी दर्शनीय कृति है।

तक्षशिला

भारत वर्ष के पश्चिमोत्तर सीमा-प्रांत में,प्राचीन गांधार जनपद की द्वितीय राजधानी तक्षशिला सिन्ध और वितस्ता (झेलम) नदियों के मध्य स्थित प्राचीन ऐतिहासिक नगरी थी, जिसके भग्नावशेष वर्तमान रावलपिंडी से लगभग 30 कि०मी० पश्चिम में आज भी दृष्टिगोचर होते हैं। श्रीराम के भाई भरत ने इसे अपने पुत्र तक्ष के नाम पर बसाया था। प्राचीन भारत का यह प्रख्यात उच्च विद्या—केंद्र रहा है। ज्ञात इतिहास में विश्व में सर्वाधिक 1200 वर्षों तक निरंतर विद्यमान रहने वाला विश्वविद्यालय यहीं का था। तक्षशिला विश्वविद्यालय में पाणिनि, जीवक और कौटिल्य जैसी विभूतियों ने अध्ययन तथा अध्यापन किया था। तक्षशिला, प्राचीन भारत की राजनीतिक और व्यापारिक गतिविधियों का भी केंद्र रहा है । एरियन, स्ट्रेटों आदि ग्रीक इतिहासकारों तथा चीनी यात्री फाहियान ने इसकी समृद्धि का वर्णन किया है। सीमावर्ती प्रदेश होने के कारण इसका राजनीतिक महत्व बहुत रहा है। पश्चिमोत्तर के विदेशी आक्रमणों का प्रकोप इसे बारम्बार झेलना पड़ा। युगाब्द 5048 (ई० 1947) भारत-विभाजन के पश्चात् अब यह स्थान पाकिस्तान के अन्तर्गत है।

गया

गया बिहार प्रान्त में फल्गु नदी के तट पर बसा प्राचीन नगर है जिसका उल्लेख पुराणों, महाभारत तथा बौद्ध साहित्य में हुआ है। पुराणों के अनुसार गय नामक महापुण्यवान् विष्णुभक्त असुर के नाम पर इस तीर्थ-नगर का नामकरण हुआ। मान्यता है कि गया में जिसका श्राद्ध हो वह पापमुक्त होकर ब्रह्मलोक में वास करता है। भगवान् रामचन्द्र और धर्मराज ने गया में पितृश्राद्ध किया था। पितृश्राद्ध का यह प्रख्यात तीर्थ है। विष्णुपद मन्दिर यहाँका प्रमुख दर्शनीय स्थान है। गौतम बुद्ध को यहाँ से कुछ दूरी पर बोध प्राप्त हुआ था। वह स्थान बोध गया अथवा बुद्ध गया कहलाता है। वहाँ प्रसिद्ध बोधिवृक्ष तथ भगवान् बुद्ध का विशाल मन्दिर विद्यमान है।

प्रयाग: पाटलीपुत्र विजयानगरं महत्। इन्द्रप्रस्थ सोमनाथ: तथाऽमृतसर: प्रियम् ॥7 ॥

प्रयाग

उत्तर प्रदेश में गंगा-यमुना के संगम पर स्थित प्रयाग प्रसिद्ध तीर्थ है। अपने असाधारण महात्म्य के कारण इसे तीर्थराज कहा जाता है। गुप्त-सलिला सरस्वती का भी संगम होने के कारण इसे त्रिवेणी संगम भी कहते हैं। प्रयाग में प्रति बारहवें वर्ष कुम्भ, प्रति छठे वर्ष अर्द्ध कुम्भ और प्रतिवर्ष माघ मेला लगता है। इन मेलों में करोड़ों श्रद्धालु और साधु-संत पर्वस्नान करने आते हैं। प्रयाग क्षेत्र में प्रजापतिने यज्ञ किया था जिससे इसे प्रयाग नाम प्राप्त हुआ। भरद्वाज मुनि का प्रसिद्ध गरुकुल प्रयाग में ही था। वन जाते हुए श्रीराम, सीता और लक्ष्मण उस आश्रम में ठहरे थे। तुलसीकृत रामचरित मानस के अनुसार वहीं पर मुनि याज्ञवल्क्य ने भरद्वाज मुनि को रामकथा सुनायी थी। समुद्रगुप्त के वर्णन का एक उत्कृष्ट शिलास्तम्भ प्रयाग में पाया गया है। यहीं वह अक्षयवट है जिसके बारे में मान्यता है कि वह प्रलयकाल में भी नष्ट नहीं होता। इसी विश्वास और श्रद्धा को तोड़ने के लिए आक्रांता मुसलमानों विशेषत: जहांगीर ने उसे नष्ट करने के बहुत प्रयत्न किये, किन्तु वह वटवृक्ष आज भी वहाँ खड़ा है।

पाटलिपुत्र

बिहार का सुप्रसिद्ध प्राचीन ऐतिहासिक नगर, जो अनेक साम्राज्यों और राजवंशों की राजधानी रहा, आजकल पटना नाम से प्रसिद्ध है। प्राचीन समय में इसे पाटलिपुत्र या पाटलीपुत्र के अतिरिक्त कुसुमपुर, पुष्पपुर या कुसुमध्वज नामों से भी जाना जाता था। यह गंगा और शोणभद्र नदियों के संगम पर बसा है। ईसा से सैकड़ों वर्ष पूर्व बुद्ध के अनुयायी अजातशत्रु नामक राजा ने इस नगर का निर्माण करवाया था। स्वयं बुद्ध ने इसके उत्कर्ष की भविष्यवाणी की थी। यह दीर्घकाल तक मगध साम्राज्य की राजधानी रहा और इसने नन्द,मौर्य, शुग और गुप्त वंशों के महान् साम्राज्यों का उत्थान-पतन देखा। सिख पन्थ के दसवें गुरु श्री गोविन्द सिंह का जन्म पटना में ही हुआ था। स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद की भी यह कर्मभूमि रहा है।

विजयनगर

महान् विजयनगर साम्राज्य की स्थापना विद्यारण्य स्वामी (माधवाचार्य) के मार्गदर्शन में हरिहर और बुक़राय नामक दो वीर बंधुओं ने की थी, जिसकी यह राजधानी उन्होंने युगाब्द 4437 (सन् 1336) में बसायी। अपने गुरु विद्यारण्य स्वामी के नाम पर उन्होंने इसे विद्यानगर नाम दिया था। किन्तु बाद में यह विजय नगर से ही प्रसिद्ध हुआ। यह ऐतिहासिक नगर दक्षिण भारत में तुंगभद्रा नदी के तट पर बसा है। वेदमूलक हिन्दू धर्म तथा संस्कृति की सुरक्षा और संवर्धन विजयनगर साम्राज्य का उद्देश्य था। 'विजयनगरम्' में साम्राज्य- संस्थापक संगमवंश के पश्चात् सालुववंश और तुलुवबंश जैसे प्रतापी राजवंशों का भी आधिपत्य रहा। तुलुववंश के वीर पुरुष कृष्णदेवराय ने विजयनगर साम्राज्य का पर्याप्त उत्कर्ष किया और मुसलमानों द्वारा ध्वस्त किये गये मन्दिरों का जीर्णोद्वार किया। विजयनगर का साम्राज्ययुगाब्द4437 से4666 (ई० 1336 से 1565) तक उत्कर्ष पर रहा। उसके विदेशों से भी दौत्य—सम्बन्ध थे।

इन्द्रप्रस्थ

महाभारत में उल्लिखित यह नगर वर्तमान दिल्ली के समीप था, जिसे पाण्डवों ने बसाया था। कहा जाता है कि पहले यहाँ खाण्डव नामक बीहड़ वन था, जिसे काटकर इन्द्रप्रस्थ का निर्माण कराया गया। हस्तिनापुर का राज्य स्वयं लेने के लिए दुर्योधन के हठ और छल-प्रपंच के कारण कुरुवंश के राज्य का विभाजन कर पाण्डवों को यह बीहड़ प्रदेश दिया गया था। किन्तु मय दानव की अदभुत स्थापत्यकला ने इन्द्रप्रस्थ को अकल्पनीय भव्यता प्रदान कर दी। युधिष्ठिर ने यहीं राजसूय यज्ञ किया था। इसने अनेक उतार-चढ़ाव देखे।

सोमनाथ

गुजरात के दक्षिणी समुद्र-तट पर प्रभास नामक तीर्थ-स्थान में प्राचीन काल से ही अति वैभवपूर्ण नगर था। यहाँ सोमनाथ(शिव) मन्दिर अपनी भव्यता और वैभव के लिएविश्व भर मेंप्रसिद्ध था। कालान्तरमेंप्रभास नगर सोमनाथ नाम से हीप्रसिद्ध हो गया। लुटेरेमहमूद गजनवी ने सोमनाथ पर चढ़ाई करइसे ध्वस्त करके लूटलिया। गजनवी से लेकर औरंगजेब तक मुसलमानों ने अनेक बार इस मन्दिर पर आक्रमण किये। बार-बार इसका ध्वंस औरपुनर्निर्माण होता रहा। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद तत्कालीन गृहमंत्री सरदारपटेल के प्रयत्नों सेइस मन्दिर का पुनर्निर्माण हुआ।

अमृतसर

पंजाब का धार्मिक-ऐतिहासिक नगर, जो सिख पंथ का प्रमुख तीर्थ स्थान है।इसकी नींव सिख पंथ के चौथे गुरु रामदास ने युगाब्द 4678 (1577 ई०) मेंडाली। मन्दिर का निर्माण-कार्य आरम्भ होने से पूर्व उसके चारों ओर उन्होंने एक ताल खुदवाना आरम्भ किया। मन्दिर के निर्माण का कार्य उनके पुत्र तथा पाँचवे गुरु अर्जुनदेव ने हरिमन्दिर बनवाकर पूरा किया। सरोवर एवं हरिमंदिर के चारों ओरद्वार रखे गये जिससे सब ओर से श्रद्धालु उसमें आ सकें। महाराजा रणजीत सिंह ने मंदिर की शोभा बढ़ाने के लिए बहुत धन व्यय किया। तब से वह स्वर्णमन्दिर कहलाने लगा। अंग्रेजी दासता के काल में 13 अप्रैल 1919 को स्वर्णमंदिर से लगभग दो फलांग की दूरी पर जलियाँवाला बाग में स्वतंत्रता की माँग कर रहीएक शान्तिपूर्ण सार्वजनिक सभा पर जनरल डायर ने गोली चलवाकर भीषण नरसंहार किया था। डेढ़हजार व्यक्ति घायल हुएअथवा मारेगये थे। वहाँउन आत्म-बलिदानियों की स्मृति में एक स्मारक बनाया गया है।

ये समस्त नदी-पर्वत-नगर—तीर्थ हमारे लिए ध्यातव्य हैं।

चतुर्वेदाः पुराणानि सर्वोपनिषदस्तथा। रामायणं भारतं च गीता सद्दर्शनानि च ।। ८ ।।

वेद

संसार का प्राचीनतम साहित्य वेदों के रूप में उपलब्ध है, जो भारतीय आर्यों के सर्वप्रधान तथा सर्वमान्य ग्रंथ तो हैं ही, समस्त धर्म, दर्शन, संस्कृति, ज्ञान, विज्ञान के मूल स्रोत भी हैं। वेद चार हैं – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद। गुरु द्वारा शिष्य को कठस्थ कराये जाने की परम्परा के कारण इन्हें श्रुति भी कहते हैं। वेदों का चतुर्विध विभाजन यज्ञ के चार ऋत्विजों द्वारा प्रयुक्त मंत्रों के आधार पर किया गया है: (1) होता द्वारा देवों के आह्वान या स्तुति के लिए प्रयुक्त मंत्रों का संकलन – ऋग्वेद (2) अध्वर्यु द्वारा यज्ञ-कर्म सम्पादन में उपयोगी मंत्रों का संकलन – यजुर्वेद (3) उद्गाता द्वारा सामगान में प्रयुक्त मंत्रों का संकलन – सामवेद तथा (4) सम्पूर्ण यज्ञ के अध्यक्ष या कार्यनिरीक्षक ब्रह्मा के जानने योग्य उपर्युक्त तीनों वेदों के अतिरिक्त मंत्रों का संग्रह – अथर्ववेद है। वेदों के मंत्रों में प्राय: विभिन्न देवताओं की स्तुतियाँ हैं। स्तुति वाला मंत्रभाग संहिता कहलाता है। ऋग्वेद में छंदों में पद्यबद्ध ऋचाएँ हैं, यजुर्वेद में गद्य-पद्य दोनों प्रकार के यज्ञसम्बंधी मंत्र (यजुष्) हैं, सामदेव में सस्वर गाये जाने (सामगान) वाले मंत्र हैं तथा अथर्ववेद में विविध प्रकार की विद्याओं के मंत्र हैं। मंत्र के साथ उसके ऋषि,देवता तथा छन्द का नामजुड़ा रहता है। जिस तपस्वी महापुरुष को समाधि प्रज्ञा में उस मंत्र का साक्षात्कार हुआ,उसे उसका ऋषि तथा जिस शक्ति या तत्व की स्तुति और आहवान उसमें हो उसे उस मंत्र का देवता कहते हैं। वेदों का प्रमुख प्रयोजन यज्ञों को सम्पन्न कराने में है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए यज्ञविधि का सविस्तार वर्णन करने वाले ग्रंथों को ब्राह्मण ग्रंथ कहा जाता है। यह वेद का कर्मकांड वाला भाग है। इसके अतिरिक्त आरण्यक और उपनिषद्ग्रंथों का उपासना एवं ज्ञानकांड भी है, जिसे वेदांत कहते हैं। वेदों के अध्ययन में छ: शास्त्रों-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद और ज्योतिष – की सहायता ली जाती है जिन्हें वेदांग कहते हैं।

पुराण

वैदिक परम्परा के वे ग्रंथ जिनमें सृष्टि,मनुष्य,देवों,दानवों,राजाओं, महात्माओं,ऋषियों तथा मुनियों आदि के प्राचीन वृत्तांत लिपिबद्ध हैं, पुराण कहलाते हैं। पुराणों के पाँच लक्षण या विषय कहे गये हैं : सर्ग (सृष्टि), प्रतिसर्ग (विस्तार एवं प्रलय), वंश (सूर्य वंश, चंद्र वंश), मन्वन्तर तथा वंशानुचरित। पुराणों में ब्रह्मा,विष्णु, शिव सूर्य, गणेश और शक्ति की उपासना पर बल दिया गया है। 18 पुराण प्रसिद्ध हैं : ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण, विष्णुपुराण, वायुपुराण या

लिंगपुराण, वराहपुराण, स्कन्दपुराण, वामनपुराण, कुर्मपुराण, मत्स्यपुराण, गरुड़पुराण तथा ब्रह्माण्डपुराण। पुराणों के रचनाकार पराशर-पुत्र व्यास हैं,जिन्होंने अपने सूत शिष्य रोमहर्षण या लोमहर्षण (सूत जी) को पुराण विद्या में निपुण बनाया। रोमहर्षण से यह विद्या उनके पुत्र उग्रश्रवा को प्राप्त हुई। इन्हीं पिता-पुत्र ने शौनकादि सहस्त्रों ऋषियों को एक बहुत बड़े यज्ञ के समय नैमिषारण्य में अठारहपुराण सुनाये। लोमहर्षण के छ: शिष्यों और पुन: उनके शिष्यों ने भी पुराण परम्परा को आगे बढ़ाया। वर्तमान रूप में उपलब्धपुराण परवर्ती काल मेंपुन: सम्पादित या पुनलिखित हो सकते हैं, जिन पर शैव, वैष्णव व शाक्त सम्प्रदायों का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।

उपनिषद्

उपनिषद् (उप+नि+सत्) का अर्थ है सत् तत्व के निकट जाना अर्थात् उसका ज्ञान प्राप्त करना। वेद, ब्राह्मण ग्रंथ या आरण्यकों के वे प्राय: अन्तिम— भाग जिनमें आत्मा, परमात्मा, मोक्ष आदि अध्यात्म विद्या का निरूपण है,उपनिषद् कहलाये। प्रामाणिक प्रधान उपनिषदों के नाम हैं और कौषीतकी। इनमें ईशोपनिषद् यजुर्वेद का चालीसवाँ अध्याय है, शेष का संबंध भी ब्राह्मण ग्रंथों या आरण्य कों के माध्यम से किसी न किसी वेद से है। केन और छान्दोग्य सामवेदीयउपनिषद् हैं, कठ,तैत्तिरीय,बृहदारण्यक और श्वेताश्वतर यजुर्वेदीय उपनिषद, प्रश्न,मुण्डक और माण्डूक्य अथर्ववेदीय उपनिषद् तथा ऐतरेय और कौषीतकी ऋग्वेदीय उपनिषद्हैं। उपनिषदों में दो प्रकार की विद्याओं का उल्लेख है – परा विद्या और अपरा विद्या। स्वयं उपनिषदों का प्रतिपाद्य मुख्यत: पराविद्या है।

रामायण

भारत के दो श्रेष्ठ प्राचीन महाकाव्य हैं: रामायण और महाभारत, जिन्हें इतिहास—ग्रथों की संज्ञा प्राप्त हुई है। मुनि वाल्मीकि द्वारा रचित महाकाव्य रामायण में संस्कृत भाषा में सम्पूर्ण रामकथा का वर्णन किया गया है। नरश्रेष्ठ राम और उनके परिवार के लोगों तथा सम्पर्क में आये व्यक्तियों के चरित्रों में भारतीय संस्कृति केउच्च जीवन-मूल्यों की रमणीक एवं भव्य झाँकी प्रस्तुत की गयी है। अन्यान्य भारतीय भाषाओं के लिए रामायण सदैव उपजीव्य रहा है। वाल्मीकि-रामायण में वर्णित रामकथा का तुलसीदास ने रामचरितमानस के रूप में लोकभाषा अवधी में पुनलेंखन किया और उसे जन-जन तक पहुँचा दिया। बंगला की कृत्तिवासी रामायण, असमिया की माधव-कदली रामायण, तमिल की कम्ब रामायण के अतिरिक्त भी विभिन्न भारतीय भाषाओं में समय-समय पर रामायण ग्रंथों का प्रणयन होता रहा है। अध्यात्म रामायण और गुरु गोविन्दसिंह द्वारा रचित गोविन्द रामायण भी प्रसिद्ध हैं। अनेक जनजातियों में भी स्थानीय अंतर के साथ रामकथा प्रचलित है। भारत वर्ष का कोना-कोना राममय है,अतः स्वाभाविक रूप से लोकगीतों में भी रामकथा गूंथी गयी है।

भारत (महाभारत)

कुष्ण द्वैपायन व्यास द्वारा रचित भारत का श्रेष्ठ महाकाव्य है जिसमें पाण्डवों और कौरवों के संघर्ष और पाण्डवों की विजय की कथा के माध्यम से धर्म की संस्थापना और अधर्म के पराभव का शाश्वत संदेश दिया गया है। श्रीमद्भगवढ़ीता महाभारत का ही अंश है। यह महाकाव्य सैकड़ों उपाख्यानों का भंडार हैऔर इसके प्रसंगों, पात्रों तथा आख्यानों को आधार बनाकर भारत की सभी भाषाओं में विपुल साहित्य- रचना हुई है। कुरुवंश और विशेषत: कौरव- पाण्डवों की मुख्य कथा के अतिरिक्त इन सैकड़ों उपकथाओं के द्वारा,मानव जीवन से जुड़ी अगणित स्थितियों,समस्याओं, सिद्धांतों और समाधानों का संयोजन इस महाकाव्य के विशाल फलक पर किया गया है। एक कथन है कि जो महाभारत में नहीं है वहअन्यत्र कहीं भी नहीं है। भारतीय संस्कृति के उच्च-जीवनादर्शों के प्रतिपादक दो श्रेष्ठ काव्यों रामायण और महाभारत में से महाभारत अधिक जटिल जीवन का चित्रण करता है, क्योंकि इसमें जीवन के सभी पक्षों को विविध आयामों में आलोकित किया गया है।

गीता

कुरुक्षेत्र में महाभारत युद्ध के समय मोहग्रस्त अर्जुन को भगवान् कृष्ण ने जो उपदेश दिया था, वह श्रीमद्भगवद्गीता में संग्रहीत है। यह महाभारत के भीष्म पर्व का भाग है। इसमें आत्मा की अमरता तथा निष्काम कर्म के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। कर्मयोग, भक्तियोग, ध्यानयोग (राजयोग) और ज्ञानयोग का सुन्दर समन्वय इसमें हुआ है। इसमें 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं। गीता की गणना प्रस्थानन्त्रयी में की जाती है जिसमें इसके अतिरिक्त उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र सम्मिलित हैं। गीता पर अनेक विद्वानों तथा आचार्यों ने टीकाएँ लिखी हैं। गीता के महात्म्य में उपनिषदों को गो और गीता को उनका दुग्ध कहा गया है।

दर्शन

दर्शनशास्त्र सत्य के साक्षात्कार के उद्देश्य से किये जाने वाले बौद्धिक और आध्यात्मिक प्रयासों का शास्त्र है।आचार्य शंकर के शब्दों में श्रवण (अर्थात अध्ययन) , मनन और निदिध्यासन (ध्यान) के द्वारा आत्मस्वरूप परम सत् का साक्षात्कार 'दर्शन' है। इस शास्त्र में प्रकृति, आत्मा, परमात्मा के पर और अपर स्वरूप तथा जीवन के लक्ष्य का विवेचन होता है। वेद को आप्त (असंदिग्ध)ग्रंथ मानने वाले पारम्परिक दर्शन की छ: शाखाएँहैं जिनमें मोक्ष प्राप्त करना जीवन का अन्तिम लक्ष्य बताया गया है। इन छ:दर्शनों के नाम हैं : न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्व- मीमांसा औरउत्तर- मीमांसा (या वेदान्त) । इसके अतिरिक्त जैन और बौद्ध दर्शनों के सिद्धांतों का उद्भव भी पारम्परिक भारतीय दर्शनों के सिद्धान्तों से ही प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रेरणा लेकर हुआ है।

जैनागमास्त्रिपिटका गुरुग्रन्थः सतां गिरः । एष ज्ञाननिधिः श्रेष्ठः श्रद्धेयो हृदि सर्वदा ॥ ९॥

जैनागम

शैव, वैष्णव आदि अन्य सम्प्रदायों की भाँति जैन सम्प्रदाय ने भी अपने ग्रंथों को आगम, पुराण आदि में विभक्त किया है। तीर्थकरों के उपदेशों पर आधारित प्राचीनतम जैन धर्मग्रंथों में चतुर्दश पूर्व और एकादश अंग गिने जाते हैं, किन्तु पूर्व ग्रंथ अब लुप्त हो गये हैं। एकादश अंगों के पश्चात्उपांग,प्रकीर्ण सूत्र आदि की रचना की गयी है। ये अंग आगम कहलातेहैं। इनकी रचना अर्धामागधी प्राकृत भाषा में हुई है।

त्रिपिटक

बौद्ध मत के तीन मूल ग्रंथ-समूह-विनय पिटक,सुत्त पिटक और अभिधम्मपिटक,जिनमें भगवान् बुद्ध के वचन और उपदेश संकलित हैं। प्रत्येक पिटक में अनेक ग्रंथ हैं, अतः इनका पिटक अर्थात् पेटी नाम पड़ा। इनमें अन्तर्निहित ग्रंथों में ब्रह्मजाल सुत,समज्जफल सुत,पोट्ठपाद सुत्त,महानिदान सुत, मज्झिम निकाय,दीघ निकाय,संयुक्त निकाय उल्लेखनीय हैं। ये सभी पालि भाषा में हैं। विशेषत: हीनयान सम्प्रदाय के ये ही प्रधान ग्रंथ हैं। विनय पिटक में संघ के नियमों का,सुत्त पिटक में बुद्ध के वार्तालापों और उपदेशों का तथा अभिधम्म पिटक मेंदार्शनिक विचारों का वर्णन है।

गुरुग्रंथ

सिख पंथ के 9 गुरुओं की वाणी का संकलन'गुरु ग्रंथ साहिब' में हुआ है। सिख गुरुओं के अतिरिक्त 24 अन्य भारतीय संतो की वाणी भी इस ग्रंथ में संग्रहीत है। सर्वप्रथम संवत् 1661 (सन् 1604) में सिख पंथ के पाँचवे गुरु अर्जुन देव जी नेगुरु ग्रंथ साहब का संकलन किया था। बाद में गुरु तेगबहादुर तक अन्य गुरुओं की वाणी भी इसमें जोड़ी गयी। दशम गुरु गोविन्द सिंह की रचनाएँ एक अलग ग्रंथ में संग्रहीत हैं,जो दशम ग्रंथ कहलाता है। दशमेश गुरुगोविन्दसिंह ने ग्रंथ साहिब को गुरुगद्दी पर आसीन कराया। स्वयं अपने साक्ष्य के अनुसार ही 'गुरु ग्रंथ साहिब' वेद, शास्त्र और स्मृतियों का निचोड़ है।

उपर्युक्त ग्रंथो और साधु-सन्त-सज्जनों के उदगार – ये सब हमारी श्रेष्ठ ज्ञाननिधि हैं और हार्दिक श्रद्धा के योग्य हैं । 19 । ।

अरुन्धत्यनसूया च सावित्री जानकी सती। द्रौपदी कण्णगी गार्गी मीरा दुर्गावती तथा ।। १० ।।

अरुन्धती

ब्रह्मर्षि वसिष्ठ की धर्मपत्नी अरुन्धती की गणना श्रेष्ठ पतिव्रताओं में होती है। वे मुनि मेधातिथि की कन्या थीं। ब्रह्मदेव की प्रेरणा से पिता ने उन्हें सावित्री देवी के संरक्षण में रखा, जिनसे उन्होंने सद्विद्याएँ प्राप्त कीं। अरुन्धती न कभी अपने पति ब्रह्मर्षि वसिष्ठ से दूर रहती थीं और न किसी कर्म में उनका विरोध करती थीं। अरुन्धती के पातिव्रत्य की परीक्षा स्वयं भगवान् शंकर ने ली थी जिसमें सफल रहने पर उनकी कीर्ति और भी बढ़ी। आकाश में प्रदीप्त सप्ततारामंडल रूप सप्तर्षियों के साथ अरुन्धती नक्षत्र वसिष्ठ के समीप चमकता है।

अनसया

सती अनसूया अत्रि ऋषि की पत्नी थीं। घोर तपश्चर्या से भगवान् शंकर को प्रसन्न कर उन्होंने भगवान्दत्तात्रेय कोपुत्ररूप मेंप्राप्त किया था। वनवास की अवधि में रामचन्द्र सीता सहित अत्रि ऋषि के आश्रम में गये थे,जहाँऋषि-पत्नी अनसूया ने अपने प्रेमपूर्ण आतिथ्य से सीता को आह्लादित किया था और नारी धर्म तथा पातिव्रत्य का उपदेश दिया था। एक बार माण्डव्य ऋषि नेकिसी ऋषि-पत्नी को सूर्योदय होते ही अपने विधवा हो जाने का शाप दे दिया। सती अनसूया ने अपने तपोबल से सूर्योदय ही न होने दिया। सभी देव एवं ऋषि अनसूया की शरण गये और सूर्योदय के स्थगन से होने वाले त्रास को दूर करने का अनुरोध किया। सती अनसूया ने उनसे शापित स्त्री के पति कोपुनर्जीवित करने का वचन लेकर शाप-मुक्त कराया औरउसके सुहाग की रक्षा की, तभी सूर्योदय होने दिया।

सावित्री

महासतियों में उल्लेखनीय देवी सावित्री ने यह जानते हुए भी कि सत्यवान् अल्पायु है, उसका ही पतिरूप में वरण किया। जब सत्यवान् की जीवन-लीला समाप्त होने में चार दिन शेष रह गये तो सावित्री ने व्रत धारण किया। चौथे दिन सत्यवान् की मृत्युहुई औरयमराजउसके प्राण ले चले। सावित्री यमराज के पीछे-पीछेचली। मार्ग में यमराज और सावित्री में प्रश्नोत्तर हुआ। यमराज सावित्री के शालीन व्यवहार, बुद्धिमत्ता और एकनिष्ठ पतिपरायणता से बहुत प्रभावित हुए। प्रसन्न होकर उन्होंने सावित्री से वर माँगने को कहा। सावित्री ने ऐसे वर माँगे जिनमें उनके मायके औरससुरालदोनोंकुलों का कल्याण भी सिद्ध हुआ और यमराज को सत्यवान् केप्राण भी लौटाने पड़े। सावित्री ने अपने सतीत्व के बल पर अपने सौभाग्य की रक्षा की।

जानकी

मिथिला के राजर्षि जनक की पुत्री और मर्यादापुरुषोत्तम रामचन्द्र जी की पत्नी जानकी पातिव्रत्य का अनुपम आदर्श हैं। उन्हें जीवन में अपार कष्ट झेलने पड़े और कठिन परीक्षाओं से गुजरना पड़ा,किन्तु अपने अविचल पातिव्रत्य के बल परउन्होंने समस्त प्रतिकूलताओं को धैर्य व हर्षपूर्वक सहन किया, पति के साथ वनवास के कष्टों में आनन्द का अनुभव किया। राक्षसराज रावण उनका मनोबल डिगाने में असफल रहा। अग्नि-परीक्षा देकर सीता ने अपने शील एवं चारित्रय की निष्कलुषता सिद्ध की। वनवास की अवधि समाप्त होने के पश्चात् रामराज्य में प्रजारंजन के लिए जब राम ने सीता का परित्याग किया तो वे वन में वाल्मीकि मुनि के आश्रम में रहीं। सबको सीता के पातिव्रत्य और पवित्रता पर पूर्ण विश्वास हो गया। भूमि-पुत्री सीता ने पृथ्वी की सी सहनशीलता दिखाकर अपने नाम की सार्थकता सिद्ध की।

सती

दक्ष प्रजापति की कन्या, भगवान् शंकर की पत्नी। पिता दक्षराज ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया, परन्तु शिवजी के प्रति मनमुटाव के कारण समारोह में शिव-सती को निमंत्रित नहीं किया। सती अनामन्त्रित ही पिता के यहाँजापहुँची।वहाँदक्ष ने शंकर के लिएअपशब्द कहे और सती को अपमानजनक व्यवहार सहना पड़ा। पति का अनादर न सह सकने के कारण सती नेयज्ञ-कुण्ड में कुदकरदेह-त्याग किया। दक्षराज के व्यवहार औरपत्नी की मृत्युसे क्रूद्ध होकर शंकर जी ने अपने गणों से यज्ञ का ध्वंस करा दिया और दक्ष का वध किया। बाद में सती ने पर्वतराज हिमालय की कन्या के रूप में पुनर्जन्म पाया और पार्वती कहलायी। शक्ति और चण्डी भी इन्हीं के रूप हैं। अपने इन प्रचंड रूपों में इन्होंने असुरों का संहार किया और लोक को असुर-पीड़ासे मुक्तिदिलायी। सम्पूर्ण भारतमें सती के 51 शक्तिपीठस्थापितहैं। इनके पीछेकथा यहहै कि शिव सती की मृत देहको कधे परउठाये फिरने लगे। जहाँ-जहाँसती के अंग गल कर गिरे, वहीं शक्तिपीठ स्थापित हुए जो अब समग्र भारत की सांस्कृतिक एकता को अपने में समेटे हुएहैं।

ट्रौपदी

पाउचाल-नरेश दुपद की पुत्री और स्वयंवर की मत्स्यवेध प्रतिस्पर्धा में अर्जुन की विजय के पश्चात् कुरुकुल-वधू बनकर हस्तिनापुर पहुँची द्रौपदी महाभारत का अत्यंत तेजस्वी व्यक्तित्व है। कुलवधू के रूप में अपने औरपाण्डवों के भी न्यायोचित अधिकारों के लिए द्रौपदी झुककर समझौता करने को कभी तैयार नहीं हुई और अनीति व अन्याय के प्रतिशोध के लिए सदैव तत्पर रही। द्रौपदी की श्रीकृष्ण में अपार निष्ठा थी। श्रीकृष्ण को वह सगी बहिन के समान प्रिय थीं। द्रौपदी को जीवन में अनेक कष्ट और अपमान सहने पड़े। दु:शासन ने भरी सभा में वस्त्र-हरण का प्रयास कर इनकी मर्यादा भंग करनी चाही। वनवास-काल में जयद्रथ ने इनका अपहरण करने का प्रयास किया और अज्ञातवास के दिनों कीचक ने शील—हरण करना चाहा। वनवास की अवधि पूरी होने पर द्रौपदी ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने और अपने अपमान-अपराध करने वालों को दण्डित करने की प्रतिशोध—ज्वाला पाण्डवों के मन में धधकायी। देदीप्यमान नारीत्व की प्रतिमूर्ति द्रौपदी का तेज भारतीय नारियों के लिए सदैव प्रेरणा-स्रोत रहेगा।

कण्णगी

कण्णगी का नाम पातिव्रत्यएवं सतीत्व के अनुपमउदाहरण के रूप में लियाजाता है। दक्षिण भारत में तमिलनाडु प्रदेश के वंजिननगरम् नामक एक प्राचीन स्थान में कण्णगी का मन्दिर है। प्रसिद्ध तमिल कवि इलगो के काव्यग्रंथ 'शिलप्पधिकारम्' में कण्णगी के पातिव्रत्य का अनुपम चरित्र निरूपित हुआ है। इनके पति कोवलन् ने माधवी नाम की एक वारांगना के प्रेमपाश में बँधकर अपना सब कुछ गंवा दिया। विपन्न बना कोवलन् कण्णगी को संग लेकर काम-धंधे की आशा में मदुरइ नगरी में पहुँचा। वहाँ के राजा ने कोवलन्पर चोरी का मिथ्या आरोप लगाकरउसे प्राणदण्ड दे दिया। कण्णगी ने अग्नि देवता से अनुरोध किया कि वृद्ध, बालक, सज्जन, पतिव्रता और धार्मिक लोगों को छोड़कर शेष मदुरई नगरी को भस्म कर दें। सती कण्णगी के क्रोधावेश से मदुरई नगरी भस्म हो गयी।

गार्गी

वचक्नु ऋषि की विदुषी कन्या गार्गी ब्रह्मविद्या के अपने ज्ञान के कारण ब्रह्मवादिनी कहलाती थीं। राजा जनक की यज्ञशाला में ब्रह्मज्ञानी याज्ञवल्क्य के साथ दार्शनिक वाद-विवाद में इन्होंने भाग लिया। बृहदारण्यक उपनिषद् में याज्ञवल्क्य-गार्गी संवाद मिलता है। प्राचीन भारत में स्त्रियाँ नाना प्रकार की विद्याओं को प्राप्त किया करती थीं, यज्ञ आदि के सार्वजनिक समारोहों तथा शास्त्रार्थ में भी भाग लिया करती थीं। बौद्धिक कार्यकलाप तथा ज्ञान के क्षेत्र में उनकी भागीदारी में कोई अवरोध या प्रतिबन्ध नहीं था, यह गार्गी के जीवन-वृत्त से भलीभाँति प्रमाणित होता है।

मीरा

श्रीकृष्ण के अनुराग में रंगी मीरा युगाब्द47वीं (ई० 16वीं) शताब्दी की विख्यात भगवद्भक्त थीं। सम्पुर्ण भारत, विशेष रूप से हिन्दीभाषी क्षेत्र, मीरा के कृष्णभक्ति और कृष्ण-प्रेम के पदों से गुंजारित रहा है। रत्नसिंह राठौर की कन्या मीरा को बचपन से ही कृष्णभक्ति की लौ लग गयी थी। इनका विवाह महाराणा के पुत्र भोजराज के साथ हुआ था, किन्तु मीरा का मन कुष्णानुराग में डुबा था। ये सदैव भगवद्भक्ति में मग्न रहतीं। मन्दिरों और सन्त-मंडली के मध्य अपने ही रचे हुए भक्तिगीत के पदों का भावपूर्ण गायन और विभोर होकर नृत्य करती थीं। पति भोजराज की मृत्यु के बाद देवर विक्रमाजित ने अपनी भाभी को इस भक्ति-पथ से परावृत कर लोक-जीवन की ओर मोड़ना चाहा। उनका मन्दिर आदि सार्वजनिक स्थानों पर गाना और नाचना विक्रमाजित को अपने राजकुल कीमर्यादा के प्रतिकूल प्रतीत होता था। कृष्ण-प्रेम का हठ त्यागने को बाध्य करने के लिए मीरा को अनेक कष्ट दिये गये, जिन्हें मीरा ने हँसते-हँसते झेला पर उनकी प्रेम-अनन्यता में कोई अंतर नहीं आया। 'मेरे तो गिरिधर गोपाल,दूसरो न कोई'उनके जीवन का सरगम था। उनके पद अपनी भाव-प्रवणता में अनुपम हैं।

दुर्गावती

कलि संवत् की 47वीं (ईसा की 16 वीं) शताब्दी की भारतीय वीरांगना,जिसने यवनसेना से अत्यंत साहस और वीरतापूर्वक टक्कर ली और अंत में अपने शरीर को पापी शत्रुओं का स्पर्श न हो, यह विचारकर अपने खड्ग से आत्मबलिदान कर वीरगति पायी। गढ़ मंडला के राजा दलपतिशाह की मृत्यु हो जाने पर उनके राज्य पर संकट आ पड़ा था। मुगल बादशाह अकबर ने गढ़ मंडला पर अधिकार करने के लिए भारी सेना भेजी थी। हाथी पर सवार होकर रानी दुर्गावती अत्यंत वीरता से जूझीं तथा अपने सैनिकों को बराबर प्रेरित करती रहीं। दुर्भाग्य से आंतरिक फूट के कारण आत्मरक्षा करना संभव न हो सका। मुगलों की साम्राज्यपिपासा का प्रतिकारकरने वाली वीरांगनाओं में दुर्गावती का ऊँचा स्थान है।

लक्ष्मीरहल्या चेन्नम्मा रुद्रमाम्बा सुविक्रमा । निवेदिता सारदा च प्रणम्या मातृदेवता: ॥ ११ ॥

रानी लक्ष्मीबाई

स्वातंत्र्य-हेतु अंग्रेजों से जूझते हुए वीरगति पाने वाली,युगाब्द4958 (ई० 1857) के प्रथम स्वातंत्र्य— समर की वीरांगना। ये मराठा पेशवा के आश्रित मोरोपंत ताम्बे की कन्या थीं और झाँसी के राजा गंगाधरराव की रानी। राजा की अकालमृत्यु हो जाने परईस्ट इण्डिया कम्पनी सरकारने इनके दत्तकपुत्र के अधिकार को अमान्य कर झाँसी राज्य को कम्पनी के अधिकार में लेने की घोषणा की। इस अन्याय और अपमान का रानी लक्ष्मीबाई ने कठोर प्रतिकार किया। युगाब्द 4958 (सन् 1857) के स्वातंत्र्य-समर में वे भी कुद पड़ीं। अंग्रेजों से जूझते हुए रानी झाँसी से निकलकर ग्वालियर की ओर बढ़ीं और ग्वालियर का किला जीत लिया। ग्वालियर का राजा मराठा सामन्त होते हुए भी अंग्रेजों के विरुद्ध स्वाधीनता-सेनानियों की कोई सहायता न करके अंग्रेजों का ही साथ दे रहा था। वहाँसे रानी घोड़े पर सवार हो किले से बाहरनिकल पड़ीं। मार्ग में एक नदी के किनारे वे अंग्रेज सैनिकों से घिर गयीं। अन्तिम क्षण तक शत्रुओं को मौत के घाट उतारते हुए अंतत:उस वीरांगनानेयुद्धभूमिमेंही वीरगति पायी। रानी लक्ष्मीबाईअसाधारण शौर्य,धैर्य,संगठन-कुशलता, देशप्रेम और निर्भयता की प्रतीक हैं।

अहल्या(अहल्याबाईहोलकर)

देव-मन्दिरों का जीर्णोद्धार कर भारतीय संस्कृति की रक्षा करने वाली न्याय-परायणा, नीति-निपुणा,प्रजावत्सला रानी अहल्याबाई होलकर माणकोजी शिन्दे नामक पटेलकी कन्या और इन्दौर के राजा मल्हारराव होलकर के पुत्र खण्डेराव की पत्नी थीं। खण्डेराव कुंभेरी की लड़ाई में मारे गये। अहल्याबाई अपने पुत्र भालेराव के नाम से राजकाज की देखभाल करती थीं। भालेराव भी शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त हो गया, अत: रानी इन्दौर की शासिका बनीं। पूना में उस समय छलपूर्वक पेशवा बन बैठे रघुनाथराव ने अहल्याबाई का राज्य भी हस्तगत करना चाहा, परन्तु रानी की राजनीति के कारण उसकी लालसा पूरी नहीं हो सकी। अहल्याबाई ने तीस वर्षों तक राज्य किया। उन्होंने लोकोपयोगी कार्यों पर उदार मन से धन व्यय किया और काशी-विश्वेश्वर, सोरटी-सोमनाथ, विष्णुपदी (गया),परली-बैजनाथ आदि महान् मन्दिरों का जीर्णोद्धार किया।

चन्नम्मा

इतिहास में चन्नम्मा नाम की दो वीरांगनाएँ प्रसिद्ध हैं। इनमें से एक केलदी की रानी थी और दूसरी कित्तूर की रानी। औरंगजेब ने शिवाजी के प्रथमपुत्र सम्भाजी की हत्या करने के बाद उनके दूसरे पुत्र राजाराम का पीछा किया। इस संकट के समय केलदी की रानी चन्नम्मा ने राजाराम को अपने किले में आश्रय देकर नवोदित शिवराज्य का परोक्षत: संरक्षण किया तथा अपने सैन्य बल से मुगलों का प्रतिकार किया।

कित्तूर (कर्नाटक में एक जागीर) की रानी चन्नम्मा ने अपने पति की अकाल-मृत्यु के बाद अंग्रेजों की कित्तूर को हड़पने की योजना को विफल करने के लिए अंग्रेजों से डटकर टक्कर ली थी। अंग्रेज चन्नम्मा से संधि करने को विवश हुए। बाद में अंग्रेजों ने छल करके चन्नम्मा को बंदी बनाकर बेलहोंगल के किले में रखा। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के समान इन दोनों रानियों ने स्वातंत्र्य-हेतु जीवन उत्सर्ग किया।

रुद्रमाम्बा (रुद्राम्बा) [युगाब्द 44वीं (ई०13 वीं शती)]

आन्ध्र के काकतीय शासकों में छठे राजा गणपति देव की इकलौती पुत्री, जिसने पिता के मरणोपरान्त राज्य-भार संभाला। पिता ने अपनी पुत्री को राज्यकार्य की समुचित शिक्षा दी थी। पिता के साथ जययात्राओं में भाग लेकरइन्होंने अपनी वीरता की छाप छोड़ी थी। किन्तुएक स्त्री राज्य—सिंहासन पर बैठे, यहसामन्तों और माण्डलिकों को सहन न हो सका। उन्होंने विद्रोहकिया। सीमावर्ती राजाओं को भी यह स्वर्ण अवसर जान पड़ा। वीर नारी रुद्राम्बा ने इन सारे विरोधियों को पराभूत कर अपनी रणदक्षता का प्रमाण दिया। रुद्राम्बा का विवाह चालुक्य नरेश वीरभद्र से हुआ। इन्होंने दो दशकों तक काकतीय साम्राज्य का कुशल संचालन किया।

निवेदिता

ये आयरिश महिला थीं। इनका मूल नाम कुमारी मार्गरेट नोबेल था। स्वामी विवेकानन्द के व्यक्तित्व से प्रभावित और प्रेरित होकर ये उनकी शिष्या बनीं और युगाग्द 4999 (1898 ई०) में भारत आयीं। स्वामी जी ने उनका नाम भगिनी निवेदिता रख दिया। इन्होंने हिन्दू धर्म का सार आत्मसात् किया और अपने लेखन तथा वाणी द्वारा हिन्दूधर्म की श्रेष्ठता सिद्ध की। भारत आकर वे दीन-दुखियों की सेवा में लग गयीं। भगिनी निवेदिता ने क्रांतिकारियों को भी प्रेरणा और मार्गदर्शन प्रदान किया। भारतीय संस्कृति और धर्म से वे पूर्ण एकात्म और समरस हो गयी थीं।

भारत में आधुनिक नवजागरण के प्रयत्नों में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। उन्होंने WebofIndian Life आदि उत्कृष्ट ग्रंथों की भी रचना की।

सारदा

माँ सारदा श्री रामकृष्ण परमहंस की धर्मपत्नी थीं। अपने जीवन को वीतराग पति के अनुरूप ढालकर वे सच्चे अर्थ में उनकी सहधर्मचारिणी बनीं। परमहंस और सारदा माँ का संबंध लौकिक न होकर देहभाव से नितांत परे अलौकिक आध्यात्मिक था। श्री रामकृष्ण सारदा को माँ जगदम्बा के रूप में देखते थे और ये उन्हें जगदीश्वर समझती थीं। श्री रामकृष्ण के समाधिस्थ होने के बाद इन्होंने विवेकानन्द आदि उनके शिष्यों का पुत्रवत् पालन किया। स्वयं अपने जीवन की आध्यात्मिक साँचे में ढालकर माँ सारदा ने अपने पति के शिष्यों को भी आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्रदान किया।

श्रीरामो भरत: कृष्णो भीष्मो धर्मस्तथार्जुन: । मार्कण्डेयो हरिश्चन्द्रः प्रह्लादो नारदो ध्रुवः ॥12 ॥

श्रीराम

भगवान्विष्णु के सातवें अवतार के रूप में आराध्य श्री राम काजीवन औरचरित्र भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठजीवन-मूल्यों का प्रतीक है। मर्यादा-पालन का सर्वोत्तम आदर्श प्रस्तुत करने के कारण उन्हें मर्यादापुरुषोत्तम के रूपमें स्मरण किया जाता है। उन्होंने रावण की अनीतिपूर्ण राजसत्ता समाप्त कर रामराज्य के रूप में आदर्श व्यवस्था स्थापित की। श्री राम का दिव्य चरित्र सत्य,शील और सौन्दर्य से मण्डित है। भारतीय साहित्य में राम के दिव्य गुणों का आदि कवि वाल्मीकि से लेकर आजपर्यन्त अनेकानेक महर्षियों,संतों, दार्शनिकों, लेखकों और कवियों ने नानाविध वर्णन कियाहै। सूर्यवंशी राम काजन्म इक्ष्वाकु औररघुके कुलमेंहुआ था। दशरथ-पुत्र रघुकुल-तिलक राम ने भूमि को राक्षस-विहीन बनाने का संकल्प किया था। वनवास-काल में राम ने वनवासियों और वन-जातियों को संगठित एवं सुसंस्कारित कर उनकी सहायता से राक्षसों को पराजित कर लोक को निरापद बनाया। राम भारत के जन-जन के मन में बसे हुएहैं। वे भारतीय अस्मिता की पहचान,उसके हृदय का स्पन्दन और उसकी आकांक्षाओं के प्रतीक एवं केंद्र-बिन्दुहैं। भारत की चिरकालिक अभिलाषा का नाम रामराज्य है।

भरत

भरत नाम के पाँच प्रसिद्ध व्यक्ति हुएहैं। पहले भरत तो प्रथम मन्वन्तर के एक राजा थे जो विष्णुभक्त थे। दूसरे भरत भी योद्धा एवं राजा थे जिनके नाम पर एक मानवकुल प्रसिद्धहै। तीसरे दाशरथि राम के भाई और परम उपासक एवंभक्त-शिरोमणि,कैकेयी-सुत भरतहुएहैं। चौथे भरत चन्द्रवंशी राजा पुरु के वंश में दुष्यंत एवं शकुन्तला के पुत्र थे। इन्हीं की नवीं पीढी में कुरु हुए जिनके वंशज कौरव कहलाये। पाँचवे भरत प्रसिद्धऋषि और नाट्यशास्त्र के प्रणेता आचार्यहुए। जिनके नाम पर हमारे देश का नाम 'भारत' पड़ा, कहा जाता है, ऐसे दो भरत प्रसिद्ध हुए हैं :एकमहायोगीऋषभदेव केसबसेबड़ेपुत्रथेऔरदूसरेदुष्यंत-शकुंतला केपुत्र।दुष्यंत-शकुन्तला केपुत्र भरत चक्रवती,परमप्रतापी,प्रजापालक, धर्मात्मा, भगवद्भक्त एवं सैकड़ों बड़े-बड़े यज्ञों के करने वाले हुएहैं। ये पुरुवंशी थे। दुष्यंत का ऋषि की पालित कन्या शकुन्तला से गांधर्व विवाह हुआ था, जिससे भरत उत्पन्न हुए। दुष्यंत के बाद वे सम्राट् हुए। उन्होंने गंगा-तट पर 55 और यमुना-तट पर 78 अश्वमेध यज्ञ किये,दिग्विजय-यात्रा की और म्लेच्छों को पराजित कर निर्जन प्रदेशों में भगादिया,देवांगनाओं का दानवों से उद्धार किया तथा पृथ्वी के एकछत्र अधिपति बने।

कृष्ण

भगवान्विष्णु के अष्टम्अवतार रूपमें प्रसिद्ध,वसुदेव-देवकी के जाये तथा नन्द-यशोदा के लालित-पालित पुत्र, अनेक असुरों के संहारकर्ता, गोकुलवासियों की इन्द्रकोप से रक्षा-हेतु गोवर्धन धारण करने वाले, कस के दुर्जन-राज्य का अंत कर जरासंध को सत्रह बार परास्त करने वाले, सुदामा के प्रति आत्मीयता—निर्वाह कर मित्रता का श्रेष्ठ आदर्श प्रस्थापित करने वाले, युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में अग्रपूजा का सम्मान पाकर भी यज्ञ में उपस्थित ब्राह्मणों के पैर धोने वाले और भोज के पश्चात् सबके जूठे पत्तल उठाने वाले, महाभारत युद्ध में पाण्डवों को कौरवों पर विजय दिलाने वाले, धर्म-संस्थापक एवं कर्मयोगी, भगवद्गीता काउपदेश देने वाले, अपने वंश (यदुवंश) में उपजे दोषों के कारण उसका भी विध्वंस करने वाले श्रीकृष्ण षोडष कलायुक्त पूर्णावतार रूप में परम आराध्य हैं। न केवल भागवतपुराण के अपितु महाभारत महाकाव्य के भी वास्तविक नायक वही हैं। उनके चरित को आधार बनाकर भारत की सभी भाषाओं में उत्कृष्ट भक्ति-साहित्य का निर्माण हुआहै। श्रीकृष्ण के जन्म से पूर्वमथुरा में अन्धक और वृष्णि गणों का संघ था जिसके गणप्रमुख उग्रसेन श्रीकृष्ण के नाना देवक के बड़े भाई थे। कस ने इसी गणराज्य को एकतन्त्र में परिणत कर दिया था जिसे कृष्ण ने पुन: गणराज्य बनाया। कस का शवसुर जरासंध प्रतिशोध के लिए बारम्बार आक्रमण करने के पश्चात् जब विदेशियों को भी अपनी सहायता के लिए आमंत्रित करने लगा तो श्रीकृष्ण ने विदेशी कालयवन का अन्त कराने के साथ ही इस प्रवृत्ति को बढ़ने न देने के लिए अन्धक-वृष्णि गण को द्वारिका स्थानान्तरित कर दिया तथा बाद में जरासन्ध को युक्तिपूर्वक भीम के हाथों समाप्त कराया। वे अपने समय के सर्वश्रेष्ठ राजनीतिज्ञ भी थे और महायोगी भी।

भीष्म

महाभारत कालीन श्रेष्ठ पुरुष तथा कौरव-पाण्डवों के पितामह। ये कुरुवंशी राजा शान्तनु के पुत्र थे,नाम था देवव्रत। भगवती गंगा इनकी माता थीं,अतः इन्हें गांगेय भी कहते हैं। ये परशुराम के शिष्य और महान् योद्धा थे। शान्तनु-सत्यवती के विवाह की बाधा को दूर करने के लिए इन्होंने आजीवन ब्रहमचारी रहने तथा सिंहासन परन बैठने की कठोर प्रतिज्ञा की थी जिसका इन्होंने सदैव दृढ़ता से पालन किया। भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही ये भीष्म कहलाये। शस्त्र और शास्त्र दोनों विद्याओं में निष्णात भीष्म महाभारत युद्ध में कौरवों की ओर से लड़े थे और उनकी सेनाओं का सेनापतित्व भी किया था। अर्जुन के वाणोंसेबिंधा शरीर लिये भीष्मउत्तरायण होने तक शर—शय्या पर लेटे रहे और धर्मराज युधिष्ठिर को राजधर्म का उत्कृष्ट उपदेश दिया, जो महाभारत के शान्तिपर्वमें उपलब्धहै। इसमें भारतीय राजनीति,समाजनीति और धर्मनीति का विस्तृत वर्णन है।

युधिष्ठिर

पाँच पाण्डवों में सबसे बड़े और धर्मराज के नाम से विख्यात्। इन्होंने महाभारत युद्ध को टालने का यथासंभव प्रयास किया। ये कौरवों के अन्याय का बदला अन्यायी मार्ग से लेने के विरुद्ध थे। यही नहीं, अपितु कौरवों के शत्रुतापूर्ण छलों से बारम्बार पीड़ित होते रहने के उपरान्त भी इनके वनवास के समय जब चित्रसेन गन्धर्व ने दुर्योधन को बंदी बनाया तो धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों से कहा- “आपस के संघर्ष में हम पाँच और कौरव सौहैं,परन्तु अन्य लोगों से संघर्ष में हम एक सौ पाँच रहेंगे।" यक्ष द्वारा पूछेगये प्रश्नों के ठीक-ठीक उत्तर देकर उन्होंने एक भाई को जिलाने का वरदान पाया और विमाता माद्री के पुत्र को जिलाने की समदृष्टि का परिचय देकर अपने चारों मृत बन्धुओं को जिला लिया था। इन्होंने उजाड़ खाण्डवप्रस्थ को वासयोग्य बनाकर इन्द्रप्रस्थ नगर(दिल्ली) की स्थापना की और राजसूय यज्ञ का आयोजन किया था। महाभारत युद्ध के पश्चात् कलियुगारम्भ से 36 वर्ष पूर्व ये हस्तिनापुर केसिंहासन पर बैठे और द्वापर के अन्त में (3101 ई०पू०) राज्य-शासन परीक्षित को सौंपकर भाइयों और द्रौपदी सहित तीर्थयात्रा के बाद हिमालय पर चढ़ते चले गये। युधिष्ठिर को छोड़कर अन्य सब पाण्डव और द्रौपदी एक-एक कर मार्ग में ही गिर गये। युधिष्ठिर के नाम से भारत में एक संवत् भी प्रचलित है।

अर्जुन

महाभारत के वीर, पाँच पाण्डवों में तीसरे, अद्वितीय धनुर्धर, पार्थ,सव्यसाची और धनंजय नामों से अभिहित,द्रोणाचार्य के प्रिय शिष्य,स्वयंवर में शस्त्र— कौशल दिखाकर द्रौपदी को जीतने वाले, भारत के उत्तरीय प्रदेशों के दिग्विजयी, वीर अभिमन्यु के पिता, महाभारत युद्ध में पाण्डव पक्ष के मेरुदंड अर्जुन को महाभारत आरम्भ में कुरुक्षेत्र के मैदान में दोनों ओर स्वजनों के ही संहार की शोककारी परिस्थिति देखकर युद्ध से विरक्ति हो गयी थी। भगवान् श्रीकृष्ण ने,जो अर्जुन के घनिष्ठ सखा, सम्बन्धी और मार्गदर्शक थे तथा महाभारत युद्ध में उनके सारथी बने थे, उन्हें श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश देकर व्यामोह-मुक्त किया था। अर्जुन का चरित्र भगवान् के प्रति पूर्ण समर्पण का श्रेष्ठ उदाहरण है।

मार्कण्डेय

भूगुवंश में उत्पन्न नैष्ठिक ब्रह्मचारी और कठोर तपस्वी। बाल्यावस्था में ही भविष्यवक्ताओं ने इन्हेंअल्पायु घोषित कर दिया था,अतः इन्होंने ऋषि-मुनियोंसे आशीर्वाद लेकर घोर तपस्या करके मृत्यु पर विजय पायी थी और कल्पान्त में सृष्टि का प्रलय प्रत्यक्ष देखा था। रामायण में सर्वत्र इनका निर्देश दीर्घायु नाम से किया गया है। मार्कण्डेय मुनि ने पाण्डवों को धर्म का उपदेश दिया था, विशेष रूप से युधिष्ठिर इनके धर्मोपदेश एवं तत्वज्ञान से बहुत प्रभावित थे।

हरिश्चन्द्र

अयोध्या के इक्ष्वाकुवंशी राजा, जिन्होंने सत्य के दृढ़ व्रत का पालन किया। वसिष्ठऋषि से इनके सत्यव्रत की प्रशंसा सुनकर ईष्र्या से विश्वामित्र ऋषि ने इनके सत्यव्रत की परीक्षा ली और इनसे राज्यदान करवाया। दान के पश्चात्दक्षिणा-पूर्ति के लिए हरिश्चन्द्र ने पुत्र रोहित,पत्नी तारामती तथा स्वयं को भी बेच डाला और एक चाण्डाल के दास बनकर शमशान-भूमि पर शव जलाने का काम करने लगे। पुत्र रोहित सर्पदंश से मर गया तो तारामती उसे दाह-संस्कार हेतु उसी शमशान में लेकर आयी। हरिश्चन्द्र ने दाह-संस्कार का शुल्क लिये बिना रोहित का दाह-संस्कार करने देने से इन्कार कर दिया। सत्य-परीक्षा में उन्हें खरा उतरा देखकर विश्वामित्र प्रसन्न हुए। उन्होंने रोहित को जीवित किया और हरिश्चन्द्र को न केवल पूर्वस्थिति अपितु अक्षय कीर्ति प्राप्त हुई।

प्रह्लाद

श्रेष्ठ भगवद्भक्त प्रह्लाद दैत्य-सम्राट् हिरण्यकशिपु के पुत्र थे। भक्ति-मार्ग के विरोधी पिता ने पुत्र को ईश्वर-भक्ति से विमुख करने के उद्देश्य से नाना प्रकार के कष्ट दिये। किन्तु प्रह्लाद की ईश-भक्ति में आस्था अडिग रही। हिरण्यकशिपु की योजनासे प्रह्लाद की बुआ होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि-ज्वालाओं के मध्य जा बैठी, पर भगवद्भक्ति के प्रताप से होलिका जल गयी और प्रह्लाद का बाल भी बाँका नहीं हुआ। पिता ने इन्हें आग में तपे लोहे से बँधवाया, पर इससे भी प्रह्लाद को क्षति नहीं पहुँची। अपने इस अविचल भक्त की रक्षा के लिए स्वयं भगवान् नृसिंह रूप में प्रकटहुए और हिरण्यकशिपु का वध किया।

नारद

चारों वेद,इतिहास-पुराण, स्मृति,व्याकरण,दर्शनादि नाना विद्याओं में पारंगतदेवर्षि नारद भागवत धर्म के आधार पांचरात्र के प्रवर्तक, भक्ति,संगीत-विद्या, नीति आदि के मुख्याचार्य,नित्य परिव्राजक,रामकथा के आदिकवि वाल्मीकि तथा वैदिक संस्कृति के व्यवस्थापक एवं महाभारतकार वेदव्यास के प्रेरक,जीवमात्र के कल्याण के व्रती,बालक ध्रुव के उपदेष्टा,देव-दैत्य दोनों के ही सम्मान के पात्र और भगवद्भक्ति के प्रचारक,महान् वैष्णव हैं। इन्हें ब्रह्मा का मानस पुत्र कहा जाता है। भगवान्ब्रह्मासेप्राप्त वीणा लेकर बराबर भगवन्नामगुण गाते रहना ही इनका स्वभाव है। नारद सतत तीनों लोकों में भ्रमण करने वाले और कहाँ क्या चल रहा है, इसका ज्ञान रखने वाले आदि—संवाददाता हैं। ये धर्म-संस्थापना के भगवत्कार्य में सदैव सहयोगी रहते हैं।

ध्रुव

राजा उत्तानपाद के पुत्र, श्रेष्ठ भगवद्भक्त,जिन्होंने सुकोमल बाल्यावस्था में ही कठोर तपस्या कर भगवान्विष्णु को प्रसन्न किया और अपनी अटल भक्ति के प्रतीक बन आकाश में अविचल ध्रुव नक्षत्र के रूप में स्थित हुए। बचपन में इन्होंने अपनी विमाता सुरुचि के दुव्र्यवहार से भारी कष्ट झेला। माता सुनीति की आज्ञा और महर्षि नारद के उपदेश से पाँच वर्ष की सुकुमार अवस्था में ही राजकुमार ध्रुव के अन्त:करण में भगवद्भक्ति की प्रेरणा उत्पन्न हुई और उन्होंने यमुना-तट पर मधुवन में अखंड तप किया।

हनुमान्

भगवान्राम के अनन्य भक्त एवं सेवक श्री हनुमान सुमेरु के राजा केसरी और गौतम-कन्या अंजनी के पुत्र हैं। इन्हें पवन—पुत्र और महाबली के नाम से भी स्मरण किया जाता है। बचपन में सूर्य को फल समझकर उसे तोड़ लाने के लिए झपटकर उसका अतिक्रमण किया, अपने मित्र किष्किन्धापति सुग्रीव से राम-लक्ष्मण की भेंट करायी, सीता की खोज में राम के सहायक बने, सागर लांघकर लंका गये, राम की मुद्रिका सीता माता तक पहुँचायी, अनेक राक्षसों को मारा, लंका-दहन किया, राम-रावण-युद्ध में महान् पराक्रम किया तथा शक्ति लगने के कारण लक्ष्मण के मूच्छित होने पर संजीवनी ओषधि के लिए द्रोणगिरि को उठा लाये। अतुल पराक्रमी, महाबली हनुमान् की उपासना को आधार बनाकर संतों-भक्तों ने समय-समय पर सद्धार्मिकों में शक्ति और बल का संचार करने के उपाय किये हैं। अजेय शक्ति के धनी, निष्कलंक चारित्र्य से सम्पन्न, ज्ञानगुण के आगार, विवेकशील व ध्येयनिष्ठा से युक्त हनुमान् ने एक समर्पित कार्यकर्ता का अनुकरणीय आदर्श उपस्थित किया है।

जनक

जनक की गणना राजर्षियों में की जाती है। ये विदेह नाम से प्रख्यात थे। मिथिला में इनका राज्य था। ये महान आत्मज्ञानी, ब्रह्मज्ञानी थे। बड़े-बड़े योगी-तपस्वी इनसे आत्मज्ञान प्राप्त करने आते थे। राजा जनक की पुत्री होने से सीता जानकी कहलायीं। मत्र्यदेह का त्याग करजब जनक ऊध्र्वगमन करने लगे तो उन्होंने मार्ग में यमलोक देखा और अपना सारा पुण्य देकर वहाँ के दु:खी जीवों का उद्धार किया। संसार में रहकर भी कैसे निरासक्त रहा जा सकता है, इसका अनुपम उदाहरण राजर्षि जनक के पुण्यचरित से मिलता है। देहासक्ति से मुक्त होने के कारण ही इनके लिए विदेह विशेषण का प्रयोग किया जाता था।

व्यास

आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा का दिन व्यास-पूजा अर्थात् गुरुपूजा-दिवस के रूप में मनाया जाता है। मान्यता है कि प्रत्येक मन्वन्तर में भगवान्विष्णु'व्यास' अवतारग्रहण कर वेदों का उद्धार करते हैं। आज तक 28 व्यासावतार हुए हैं। प्रचलित वैवस्वत मन्वन्तर में कृष्ण-द्वैपायन व्यास का आविर्भाव हुआ। पराशर और सत्यवती के पुत्र कृष्ण-द्वैपायन व्यास ने 18 पुराणों की रचना की और अपने कुछ शिष्यों को वेदों का ज्ञान प्रदान कर उनके द्वारा उन्होंने वेदों की भिन्न-भिन्न शाखाओं का विस्तार कराया,ब्रह्मसूत्रों की रचना कर उपनिषदों का रहस्य जगत के सामने रखा, महाभारत जैसे अत्युत्कृष्ट महाकाव्य की रचना की जिसमें भारतीय संस्कृति को सुन्दर आख्यानों-उपाख्यानों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। नारद की आज्ञा से भक्तिरसपूर्ण श्रीमद्भागवत ग्रंथ का प्रणयन कर उन्होंने मन:शान्ति प्राप्त की। व्यास ने वैदिक संस्कृति की परम्परा को सुरक्षित रखने के लिए वेदों के तत्वों को विविध माध्यमों से लोक में प्रचारित किया।

वसिष्ठ

ऋग्वेद के सप्तम मण्डल के द्रष्टाऋषि,जो यज्ञ प्रक्रिया के प्रथमज्ञाता थे। वसिष्ठसूर्यवंश के कुलगुरु थे। उन्होंने ब्रह्मा की आज्ञा सेइस वंश का पौरोहित्य स्वीकार किया था।अपने तपोबल से रघुवंश के चक्रवर्ती नरेशों-दिलीप, रघु, रामचन्द्र आदि की श्रीवृद्धि की और अनेक संकटो से सूर्यवंश की रक्षा की। मध्य में एक बार कोई योग्य शासक न रहने पर उन्होंने राज्य-व्यव्स्था की भी स्वयं देखभाल की और उचित समय पर राज्य के उत्तराधिकारी को शासन सौंप दिया। वसिष्ठ के पास नन्दिनी नाम की एक कामधेनु थी जिसे हठात् बलपूर्वक प्राप्त करने के लिए विश्वामित्र ने वसिष्ठ से संघर्षकिया। विश्वामित्र ने क्षात्रतेज की तुलना में ब्रह्मतेज की श्रेष्ठता अनुभव की और राजपद त्याग कर तपस्या करके तपोबल से वसिष्ठको हराने का प्रयत्न बहुत समय तक करते रहे। किन्तु अन्तत: उन्होंने अपनी भूल स्वीकार कर ली। वसिष्ठ ब्राह्मणत्व के आदर्श हैं। विश्वामित्र के हाथों अपने सौपुत्रों के मारेजाने पर भी उनकेमनमें कोईविकारउत्पन्न नहीं हुआ। अरुन्धती वसिष्ठ जी की पत्नी हैं, जो उनके साथ सप्तर्षि—मंडल में स्थित हैं।

शुकदेव

भगवान् व्यास के पुत्र, जन्मना परम विरक्त, ब्रह्मविद्या के जिज्ञासु और भगवद्भक्ति के प्रचारक शुकदेवजी ने भागवत ग्रंथ का अध्ययन प्रमुखतया अपने पिता सेकिया था,भगवान्शंकर से श्रीकृष्णचंद्र की अमृतकथा सुनी थी,मिथिला-नरेश राजाजनक से ब्रह्मविद्या प्राप्त की थी और पाण्डवों के पौत्र राजा परीक्षित को,जिन्हें सातवेंदिन सर्पदंश से मृत्युका शाप मिला था,सात दिनों में सम्पूर्ण भागवत ग्रंथ सुनाया था।

बलि

महान विष्णुभक्त राजा बलि प्रसिद्ध भगवद्भक्त प्रह्लाद के पौत्र थे। इन्होंने अपने पराक्रम से देवलोक पर अधिकार कर लिया था। इन्द्रासन का अधिकारी बनने के लिए इन्होंने एक सौ अश्वमेध यज्ञ किये। अंतिम सौवें अश्वमेध यज्ञ के समय देवगण चिन्तित होकर भगवान् विष्णु की शरण में गये। विष्णु वामन रूप धारण कर यज्ञ-स्थल पर पहुँचे और बलि से तीन पद (पग) भूमि माँगी। दैत्यगुरु शुक्राचार्य के निषेध करने पर भी बलि ने वामन को तीन पद भूमि दान दे दी। भगवान्वामन ने प्रथम दो पदों से मत्र्यलोक और स्वर्गलोक नाप लिये। तब तीसरा पद रखने के लिएबलि ने अपना मस्तक झुका दिया। भगवान्प्रसन्न हुए। उन्होंने बलि राजा को पाताल का अधिपति बना दिया। राजा बलि का चरित्र दानशीलता, वचनबद्धता और विष्णुभक्ति का अनुपम उदाहरण है। कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा बलि-प्रतिपदा के रूप में मनायी जाती है और इस दिन बलिपूजन किया जाता है।

दधीचि

अथर्वा ऋषि के पुत्र महर्षि दधीचि त्याग और परोपकार के अद्वितीय आदर्श हैं। परम तपस्वी दधीचि के तप से देवराज इन्द्र को अपना सिंहासन छिनने की शंका हो गयी थी। उसने इनकी तपस्या में विध्न डालने के अनेक उपाय किये, पर असफल रहा। वही इन्द्र वृत्रासुर से पराजित होकर महर्षि दधीचि के यहाँ याचक के रूप मे उपस्थित हुआ और बोला," हम आपत्ति में पड़ आपसे याचना करने आये हैं। हमें आपके शरीर की अस्थि चाहिए।” उदारचेता महर्षि ने इन्द्र के पिछले कुत्योंको भुलाकर लोकहित के लिए योग-विधि से शरीर छोड़ दिया। तबइन्द्र ने उनकी अस्थियों से वज़ बनाया और वृत्रासुर को पराजित किया।

दधीचिउपनिषदोंमें वर्णित मधुविद्या के ज्ञाता थे। किन्तउसके साथ यहशाप भी जुड़ा हुआ था कि यदि वे किसी को वह विद्या बतायेंगे तो उनका शिर कटकर गिर जायेगा। इस बाधा से बचने के लिएअश्विनीकुमारोंनेउन्हें अश्व का शिर लगा दिया औरउन्होंनेउसी से मधुविद्या काउपदेश अश्विनीकुमारों को दिया। अश्व का शिर गिर जाने पर अश्विनीकुमारों की भिषकविद्या से उन्हें अपना मूल शिर पुन: पूर्ववत् मिल गया।

विश्वकर्मा

विश्व के आदि स्थपतिएवंशिल्पी,जिन्होंनेदेवलोक और मनुष्यलोक में अनेक भव्यनगरों का निर्माण किया। विष्णु के सुदर्शनचक्र, शिव के त्रिशूल, इन्द्र के वज़ और त्रिपुरदहनार्थ रुद्र के रथ के निर्माता भी विश्वकर्मा ही कहे जाते हैं। स्वयं कश्यप ऋषि ने विश्वकर्मा का अभिषेक किया था। समस्त शिल्पों के अधिदेवता विश्वकर्मा की माता का नाम महासती योगसिद्धा था जो प्रभास नामक वसुकी पुत्री थीं। विश्वरूप और वृज विश्वकर्मा के पुत्र हुए। हिन्दूशिल्पी अपने कर्म की उन्नति के लिए सूर्य की सिंहराशि से कन्या राशि में संक्रान्ति के दिन इनकी आराधना करते हैं और इस दिन शिल्प के किसी उपकरण को व्यवहार में नहीं लाते।

पृथु

राजा पृथुने धरती पर विभित्र प्रकार के धान्यों का आविष्कार किया, धरती में निहित रत्नों का अन्वेषण किया, धरती की सकल सम्पदाओं का दोहन किया, कृषि का अपूर्व विकास किया और प्रजा की समृद्धि के लिए पृथ्वी को वैभव सम्पन्न बनाया। फलत: यह धरती पृथु की कन्या कहलायी और पृथ्वी नाम से अभिहित हुई। ये अत्याचारी राजा वेन के पुत्र थे, अतः इन्हें वैन्य भी कहते हैं। राजा वेन का वध करके ऋषियों ने पृथु को राज्याभिषिक्त किया था।

वाल्मीकि

रामायण के रचयिताकवि,जिन्होंने संस्कृत मेंरामचरित का वर्णन किया। इनका महाकाव्य रामायण बाद में अनेकानेक कवियों-लेखकों के लिए उपजीव्य बना। कहा जाता है कि पहले ये लूटपाट का काम करते थे। नारद जी ने इन्हें राम का नाम स्मरण करने की प्रेरणा दी। एक बार एक व्याध ने क्रौंच युगल में से नर क्रौंच को बाण से मार गिराया। इस पर उसकी भार्या ने करुण क्रन्दन प्रारम्भ कर दिया। यह दृश्य देखकर वाल्मीकि के हृदय की करुणा काव्यधारा के रूप में फूट निकली। उनकी वाणी व्याध के प्रति शाप के रूप में प्रकट हुई, किन्तु विशेष बात यह रही कि वह अभिव्यक्ति छन्दोबद्ध थी। वही वाणी आद्य कविता कहलायी। जिस छन्द में शाप फूटा था, उसी अनुष्टुप छन्द में बाद में वाल्मीकि नेनारद जी के बताये श्री राम के अत्युज्ज्वल जीवन-चरित्र का वर्णन किया।

भार्गव(परशुराम)

भूगु कुल में उत्पन्न व्यक्तियों में जमदग्नि ऋषि औररेणुका देवी के पुत्र परशुराम का नाम सर्वप्रमुख है। इनकी गणना भगवान् विष्णु के दश अवतारों में हुई है। ये छठे अवतार थे। इन्होंने कश्यप ऋषि से मंत्र-विद्या और भगवान्शिव से धनुर्वेद प्राप्त किया था। ये महापराक्रमी हुए हैं। इनकी माता सूर्यवंश की राजकुमारी और इनकी पितामही (जमदग्नि की माता) कान्यकुब्ज के चंद्रवंश की राजकुमारी तथा विश्वामित्र की बड़ी बहिन थीं। इस प्रकार इनका निकट संबंध अपने समय के दोनों प्रसिद्ध क्षत्रिय राजवंशों से था। जब कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन नेइनकी अनुपस्थिति में इनके तपस्यारत पिता जमदग्नि का वध कर दिया तो इन्होंने क्रोधावेश में सहस्त्रार्जुन सहित विश्वभर के सारे अत्याचारी राजाओं और उनके जन-उत्पीड़नकारी सहायकों का संहार किया तथा समस्त पृथ्वी जीतकर अपने मंत्रविद्या-गुरु कश्यप ऋषि कोदानमेंदे दी और स्वयं पश्चिम-सागर के तट पर समुद्र में से नयी भूमि का निर्माण कर वहाँ तप करने लगे। इन्होंने कामरूप (असम) में भी तपस्या की और पर्वतों से घिरकर विशाल सागर सा बनाये ब्रह्मपुत्र महानद को, अपने परशु से पर्वत काटकर, भारत की ओर बहने का मार्ग दिया। उस तप:स्थान पर आज भी परशुरामकुंड प्रसिद्ध है। महाभारत के तीन दुर्धर्ष महावीर – भीष्म, द्रोण और कर्ण – इनके शिष्य और चौथे अर्जुन इनके शिष्य के शिष्य थे। शिव के परम भक्त परशुराम तेजस्विता, अत्याचार के प्रचंड प्रतिशोध एवं अनीतिविरोधी विकट प्रतिकार के प्रतीक हैं।

भगीरथश्चैकलव्यो मनुर्धन्वन्तरिस्तथा । शिबिश्च रन्तिदेवश्च पुराणोद्गीतकीर्तयः ॥ १४ ॥

भगीरथ

राजा सगर के वंशज और इक्ष्वाकुवंशी राजा दिलीप के पुत्र भगीरथ की कीर्ति गंगा को भूलोक पर लाकरअपने उन पूर्वजों (राजा सगर के पुत्रों) का उद्धार करने के कारण हैजो कपिल मुनि के कोप से दग्ध हुए थे। गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए राजा भगीरथ के पिता और पितामह ने भी प्रयास किये थे,पर वे सफल नहीं हो पाये थे। भगीरथ अपने कठोर तप से इस कार्य में सफल हुए, अतः गंगा को भागीरथी नाम से अभिहित किया जाता है। गंगा की धारा को भूतल पर लाकर राजा भगीरथ ने भारत को श्रीवृद्धि प्रदान की और पितृ-ऋण से भी मुक्त हुए। कठोर साधना के लिए भगीरथ—प्रयत्न एक मुहावरा बन गया है।

एकलव्य

आदर्श गुरुभक्त, श्रेष्ठ धनुर्धर, वचनधनी एकलव्य व्याधों के राजा हिरण्यधनु का पुत्र था। महाभारत काल के धनुर्विद्या के सर्वश्रेष्ठ आचार्य द्रोण से विद्या पाने की अभिलाषा लेकर एकलव्य उनके पास गया। किन्तु द्रोणाचार्य ने राज्य के उत्तराधिकारियों को दी जा रही शस्त्र-विद्या इस वनवासी बालक को देना राज्य के लिए अहितकर मानकर उसे सिखाने से इन्कार कर दिया। तब एकलव्य नेद्रोणाचार्य की मिट्टी की प्रतिमा बनायी,उसे गुरु मान्य किया अनुकरण करते हुए और मानो उनके आदेश-निर्देश से धनुर्विद्या का अभ्यास कर श्रेष्ठ धनुर्धारी बन गया। बाद में गुरुदक्षिणा में गुरु द्रोण द्वारा अंगूठा माँगे जाने पर बिना हिचक अपना अंगूठा देकर गुरुभक्ति का आदर्श प्रस्थापित किया। उसकी स्मृति में आज भी भील जनजाति के अनेक लोग धनुष-वाण चलाते समय अपने अंगूठे का प्रयोग नहीं करते।

मनु

मानव जाति के आदि-पुरुष और धर्मशास्त्र के प्रणेता मनुने जलप्लावन के समय पृथ्वी के डूब जाने पर अपनी नौका में सृष्टि के सब बीज सुरक्षित रख लिये थे, जिनके आधार पर जलप्लावन उतर जाने के बाद उन्होंने धरती को सर्व सम्पन्नता प्रदान की और नूतन मानव संस्कृति का निर्माण किया। ईसाइयों और मुसलमानों में भी नोअह और हजरत नूह के नाम से यही कथा प्रचलित है। मनु अनेक हुए हैं। पुराणों के अनुसार प्रत्येक कल्प के चौदह मन्वन्तरों में अलग-अलग चौदह मनुओं का शासन होता है। वर्तमान मनुवैवस्वत अर्थात् सूर्यपुत्र कहलाते हैं और अतः यह मन्वन्तर भी वैवस्वत मन्वन्तर कहलाता है।

धन्वन्तरि

देवताओं के वैद्य एवं आयुर्वेद शास्त्र' के प्रवर्तक। समुद्र-मंथन से आविभूत चौदह रत्नों में से एक धन्वन्तरि थे जो हाथ में अमृत-कलश धारण कर समुद्र में से प्रादुभूत हुए। भगवान्विष्णु के आशीर्वचनानुसार धन्वन्तरि ने द्वापर युग में काशिराज धन्व के पुत्र के रूप में पुनर्जन्म लिया, आयुर्वेद को आठ विभागों में विभक्त किया और प्रजा को रोग-मुक्त किया। वैद्यक और शल्यशास्त्र में पारंगत व्यक्तियों को धन्वन्तरि कहने का प्रचलन है। धन्वन्तरि के नाम पर आयुर्वेद के अनेक ग्रंथ प्रसिद्ध हैं।

शिबि

शरणागत-रक्षण का आदर्श प्रस्तुत करने वाले राजा शिबि उशीनर के राजा थे। एक बार इन्द्र ने उनकी शरणागत-रक्षणशीलता की परीक्षा लेने की ठानी। इसके लिए अग्नि भयभीत कबूतर का रूप धारण कर उड़ते हुए आयें और राजा शिबि की गोद में छिपने का प्रयास करने लगे। पीछे से बाज बनकर झपटते हुए इन्द्र आये और कबूतर को अपना भोज्य बताकर शिबि से उसकी माँग करने लगे। कबूतर के बदले और कुछ न लेने के हठ पर अड़ा हुआ बाज अन्त में इस बात पर माना कि शिबि कबूतर के ही भार के बराबर अपना मांस काटकर देंगे। जब राजा शिबि के एक-एक अंग का मांस कट जाने पर भी कबूतर के भार के समतुल्य नहीं हुआ तो उन्होंने अपने को सम्पूर्णत:बाज के सामने प्रस्तुत कर दिया। राजा शिबि को शरणागत-रक्षण की परीक्षा में खरा उतरा देखकर देवों ने साक्षात् प्रकट होकर उन्हें आशीर्वाद दिया और उनके शरीर को अक्षत कर दिया।

रन्तिदेव

महाराज संकुति के पुत्र, महाराज रन्तिदेव आतिथ्य-धर्म और परदु:खकातरता के मूर्तिमान प्रतीक थे। उन्होंने आगत की इच्छा जानते ही इच्छित वस्तु देने का व्रत धारण किया था। उदार आतिथ्य-सत्कार और दानशीलता के कारण राजकोष रिक्त हो गया। एक बार राज्य में भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। दीन-दु:खी और आर्तजनों को सब कुछ बाँटकर पूर्णतया अकिचन बनकर राजा रन्तिदेव अपनी पत्नी और संतान को लेकर वन में चले गये। वन में अड़तालीस दिन भूखे रहने के पश्चात् जब थोड़ा सा भोजन मिला तो वहाँ भी देवता अतिथि रूप धारण कर इनकी परीक्षा लेने आ पहुँचे। अपने सामने प्रस्तुत भोजन आगन्तुकों को देकर वे स्वयं भूख-प्यास से मूच्छित होकर गिर पड़े, किन्तु अतिथि-सेवा की कड़ी परीक्षा में खरे उतरे। इनकी एकमात्र अभिलाषा थी-“न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्ग नापुनर्भवम्। कामये दु:खतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम्।"

(मुझे न तो राज्य चाहिए, न स्वर्गचाहिएऔरन ही मोक्ष चाहिए। मेरी एकमात्र कामना यह है कि दु:खों से पीड़ित प्राणियों के कष्ट समाप्त हो जायें।)

बुद्धा जिनेन्द्रा गोरक्षः पाणिनिश्च पत०जलि ।शंकरो मध्वनिम्बाकौं श्रीरामानुजवल्लभौ । । १५।।

बुद्ध

बौद्ध मत के अनुसार सत्यज्ञान (बोध) – प्राप्त महापुरुष,जिनको बुद्ध कहा जाता है,अनेक हुए हैं। वर्तमान बौद्ध मत ('धर्मचक्र') के प्रवर्तक गौतमबुद्ध का बोध प्राप्त करने से पूर्व का नाम सिद्धार्थ था। इनका जन्म कपिलवस्तु में शाक्यगण-प्रमुख राजा शुद्धोदन के घर हुआ था। जगत के जीवों के दु:खों से द्रवित होकर तीस वर्ष की युवावस्था में सिद्धार्थ अपनी पत्नी यशोधरा,पुत्र राहुल और राजप्रासाद के सुख-आराम को छोड़कर शांति की खोज में निकल पड़े। कई वर्षतक घोर तप करने पर भी उन्हें शांति नहीं मिली। अन्त में गया के समीप पिप्पलिवन में एक पीपल के नीचे जब वे ध्यानमग्न थे,उन्हें बोध (ज्ञान) प्राप्त हुआ। उन्होंने अपना प्रथम उपदेश वाराणसी के समीप सारनाथ में दिया। अब वे 'बुद्ध' कहलाने लगे और जिस वृक्ष के नीचे उन्हें बोध प्राप्त हुआ था वह'बोधिवृक्ष' कहलाया। दार्शनिक वाद- विवाद में न पड़कर वेदु:खनिवृत्ति के मार्ग पर बल देते थे। उन्होंने चार आर्य सत्यों, अष्टांग मध्यम मार्ग, अहिंसा और करुणा का उपदेश दिया। अपने बताये मार्ग का प्रचार करने के लिए उन्होंने अनुयायी भिक्षुओं और भिक्षुणियों का संघ स्थापित किया। उनके उपदेशों का व्यापक प्रभाव पड़ा और बौद्धमत भारत तथा अन्य अनेक देशों में फैल गया। अस्सी वर्ष की आयु में कुशीनगर में उनका देहान्त हुआ। जातक ग्रंथों में बुद्ध के पूर्व-जन्मों की कथाएँ हैं। बौद्ध मतानुसार आगे भविष्य में भी अनेक बुद्ध होंगे।

जिनेन्द्र

जैन मत के 24 तीर्थकर (पूजनीय मुक्त पुरुष) माने गये हैं। इनमें प्रथम ऋषभदेव और वर्धमान महावीर अन्तिम तीर्थकर थे। सभी तीर्थकर 'जिन' या 'जिनेन्द्र' कहलाते हैं,जिसका अर्थ है— विजेता, जिसने अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है। जैन धर्ममत के दार्शनिक सिद्धान्तों के प्रवर्तक महावीर स्वामी का जन्म वैशाली के समीप कुण्डिग्राम में वृजिगण के एक राजा सिद्धार्थ के घर हुआ था। राजकुमार होते हुए भी महावीर ने संन्यास लेकर तपोमय जीवन व्यतीत किया। बारह वर्ष की कठोर साधना के फलस्वरूप उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। अब 'जिन' महावीर मथुरा, कोसल आदि में भ्रमण कर अपने मत का प्रचार करने लगे। महावीर ने अहिंसा पर सवाधिक आग्रह रखा और मोक्षसाधना के लिए सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, उपवास और कठित तप को मुख्य उपाय बताया। ये गौतम बुद्ध के लगभग समकालीन कहे जाते हैं।

गोरखनाथ

महान् योगी, ज्ञानी तथा सिद्ध पुरुष गुरु गोरखनाथ प्रसिद्ध योगी मत्स्येंद्रनाथ के शिष्य थे। भारत के अनेक भागों – यथा उत्तर प्रदेश, बंगाल, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र इत्यादि प्रांतों – के अतिरिक्त नेपाल में भी इनके मठ पाये जाते हैं। इन्होंने हठयोग की साधना का प्रचार किया, मन के निग्रह पर बल दिया और भारतीय साधना तथा साहित्य को बहुत प्रभावित किया। गोरखनाथ जी की चमत्कारिक योग-सिद्धियों से संबंधित अनेक कथाएँ प्रचलित हैं।

पाणिानि

महान् वैयाकरण एवं भाषा-विज्ञानी। इनका रचा व्याकरण-ग्रंथ 'अष्टाध्यायी' प्रचलित संस्कृत व्याकरण का आधार ग्रंथ है। प्रत्याहार एवं शब्दानुशासन, धातुपाठ, गणपाठ,उणादि सूत्र और लिंगानुशासन पाणिनीय व्याकरण के पाँच विभाग हैं। अष्टाध्यायी की रचना ईसा से सात सौ वर्ष पूर्व की प्रमाणित हुई है। पाणिनि के जीवन से संबंधित जानकारी अब भी अत्यल्प है। वे तक्षशिला के निकटशलातुर ग्राम में रहते थे। उनके असाधारण कार्य के स्वरूप कोदेखते हुए लगता हैकि उन्होंने सम्पूर्ण दे की यात्रा करके शब्द-सम्पदा का चयन और भाषा—प्रयोग का व्यापक अध्ययन किया होगा। उनकी मृत्यु शायद व्याघ्र द्वारा हुई।

पाणिनीय व्याकरण 14 माहेश्वर सूत्रों के आधार पर प्रतिष्ठित है,जिनके बारे में किंवदन्ती है कि वे भगवान्शिव के डमरू से निकले और शंकर के आदेश पर ही पाणिनि ने उन सूत्रों को आधार बनाकर व्याकरण-रचना की। सम्भव है कि पाणिनि के गुरु का नाम महेश्वर रहा हो जिन्होंने इन सूत्रों की रचना कर इनके आधार पर शेष कार्य करने का आदेश उन्हें दिया हो। पाणिनीय व्याकरण में शब्दोच्चारण का ध्वनिविज्ञान इतना उत्कृष्ट और परिपूर्ण है कि आज के ध्वनि-वैज्ञानिकों को भी दाँतों तले अंगुली दबानी पड़ती है। आज से ढाई सहस्त्र वर्ष से भी पूर्व भारत में विज्ञान के एक अंग की अत्युन्नत स्थिति किसी को भी सोचने के लिए विवश कर देने वाली है। आज माना जा रहा है कि संगणकों (कम्पूटर) के लिएमध्यवर्ती भाषा के रूपमें संस्कृत ही सर्वाधिक योग्य भाषा है। उत्तम व्याकरण के द्वारा संस्कृत के उन्नत स्वरूप को सुरक्षित करने में पाणिनि का योगदान अनुपम है।

पतंजलि

महान् वैयाकरण, आयुर्वेदाचार्य और योगदर्शनाचार्य, जिन्होंने वाणी की शुद्धि के लिए व्याकरण शास्त्र का ,शरीर-शुद्धि के लिए वैद्यक शास्त्र का और चित्त-शुद्धि के लिए योगशास्त्र का प्रणयन किया। गोनर्द प्रदेश में जन्मे पतंजलि ने पाणिनि की ' अष्टाध्यायी ' पर अपना उच्चकोटि का'महाभाष्य' लिखा तथा योगदर्शन के प्रतिपादनहेतु'योगसूत्र' की रचना की। प्रचलित राजयोग की सम्पूर्ण पद्धति, परिणाम और अन्तर्निहित सिंद्धात को इन्होंने 194 सूत्रों में संग्रहीत किया। योगसूत्रों में प्रतिपादित विषयों को साधारणत: चार भागों में बाँटा जा सकता है-योग-साधना सम्बन्धी विचार, यौगिक सिद्धियों का परिचय, योग के चरम बिंदुसमाधि का विवेचन और योग विद्या का दर्शन। पतङजलि के अनुसार चित्तवृत्तियों का निरोध योग है। चित्त की वृत्तियों के निरोध के बिनापुरुष (जीव) अपने शुद्ध रूप (कैवल्य) में नहीं स्थित होता। इस स्वरूपाव स्थान के लिए अष्टांग योग—यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का प्रतिपादन किया गया है। पतङजलि वैदिक संस्कृति के रक्षक सम्राट् पुष्यमित्र शुग के कुलगुरु और मार्गदर्शक कहे जाते हैं। उनका महाभाष्य संस्कृत व्याकरण का सर्वोच्च प्रमाण-ग्रंथ माना जाता है।

शंकराचार्य [युगाब्द 2593-2625(ई०पू० 509-477)]

मालाबार (केरल के कालडी ग्राम में जन्मे महान् दार्शनिक। बत्तीस वर्ष की अल्पायु में देहावसान होने से पूर्व इन्होंने जो-जो कार्य कर दिखाये उनका कोई समतुल्य नहीं। आचार्य शंकर ने गीता,ब्रह्मसूत्र और उपनिषदों पर अत्युच्च कोटि के भाष्य लिखे, दक्षिण से उत्तर, पश्चिम से पूर्व,सारे देश की यात्राएँ कर शास्त्रार्थ में सब ओर दिग्विजय प्राप्त की औरचारों दिशाओं में देश के चार कोनों में मठ स्थापित किये जो राष्ट्रीय एकता के दिक्पाल बनकर खड़े हैं। बौद्ध मत में विकार आ जाने पर उसे प्रभावहीन बनाकर वैदिक परम्परा की पुन:स्थापना करने में शंकर की महान् भूमिका रही है। उन्होंने ब्रह्म को एकमात्र सत्य माना और अद्वैत मत एवं मायावाद का प्रतिपादन किया। इस मत पर उनका मुख्य ग्रंथ 'शारीरक भाष्य' नाम से प्रसिद्ध है। आचार्य शंकर के विराधी उनको प्रच्छन्न बौद्ध कहते थे, क्योंकि उन्हें शंकर के अद्वैतवाद में बौद्धों के शून्यवाद की झलक दिखाई देती थी। दूसरी बात यह भी थी कि शंकराचार्य महात्मा बुद्ध का बहुत आदर करते थे। शंकराचार्य ने वेदान्त दर्शन को नवचैतन्य प्रदान किया और देश को सांस्कृतिक एकता में आबद्धकिया। अखिल भारतीयस्तर पर लोगों के व्यापक मेल-मिलाप के कारणभूत कुम्भमेले की विच्छिन्न हुई परम्परा और तीर्थयात्राओं को उन्होंने फिर से प्रारम्भ कराया और शैव, वैष्णव, शाक्त, गाणपत्य आदि के पारस्परिक मतभेदों को मिटाते हुए मन्दिरों में सर्वमान्य पंचायतन पूजा की पद्धति डाली। अपने दार्शनिक विचारों में संसार को मिथ्या मानते हुए भी, मातृभूमि के कण-कण में पुण्यभूमि का भाव जगाते हुए आचार्य शंकर अपनी देशयात्रा में पड़ने वाले नदी-पर्वतादि की स्तुति में काव्य-रचना करते चलते थे। पिता शिवगुरु और माता आर्याम्बा के ऐसे अद्भुत, मेधावी, अद्भुतकर्मा पुत्र ने आठ वर्ष की आयु में ही संन्यास ले लिया था। इनके गुरु गोविन्द भगवत्पाद प्रसिद्ध अद्वैतवादी चिन्तक गौड़पादाचार्य के शिष्य थे।

मध्वाचार्य

युगाब्द की 44वीं अर्थात् ईसवी 13वीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध दार्शनिक एवं द्वैतवाद के प्रवक्ता वैष्णव आचार्य, जिनका जन्म कर्नाटक में उडुपी के समीप हुआ था। ग्यारह वर्ष की अवस्था में मध्व ने श्री अच्युत प्रज्ञाचार्य से संन्यास-दीक्षा ले ली। वैष्णव मत के प्रचारार्थ इन्होंने दीर्घकाल तक भारत में यात्राएँ कीं। आचार्य मध्व ने जीव की नित्य पृथक सत्ता का प्रतिपादन किया। प्रस्थानक्रयी अर्थात्उपनिषद्,ब्रह्मसूत्र तथा भगवद्गीता पर आचार्य ने भाष्य ग्रंथ लिखे। मध्यकाल में भारतीय भाषाओं के भक्ति-साहित्य को आचार्य मध्व के मत और विचारों ने प्रेरित तथा प्रभावित किया।

निम्बाकाचार्य

आन्ध्र में गोदावरी-तट पर वैदूर्यपत्तन के पास निम्बार्क का आविर्भाव हुआ। ये द्वैताद्वैत मत के प्रवक्ता थे, जिसके अनुसार जीव और जगत ब्रह्म से भिन्न भी हैं और अभिन्न भी। दक्षिण में जन्मे निम्बाकाचार्य मथुरा के समीप ध्रुव क्षेत्र मे आश्रम बनाकर रहते थे। वेदान्त-पारिजात-सौरभ इनका वेदान्त सूत्रों पर लिखा भाष्य है। इन्होंने प्रस्थानक्रयी के स्थान पर प्रस्थानचतुष्ट्य को प्रधान माना और उसमें से चौथे प्रस्थान श्रीमद्भागवत को ही परम प्रमाण स्वीकार किया। भारतीय भाषाओंमें मध्य-काल में रचे गये वैष्णव भक्ति-साहित्य पर निम्बाकाचार्य के मत का बहुत प्रभाव पड़ा है।

रामानुजाचार्य (युगाब्द 4118-4237)

विशिष्टाद्वैत सिद्वांत के प्रवक्ता रामानुजाचार्य का जन्म दक्षिण भारत के तिरुकुन्नूर गाँव में केशव भट्ट के घर हुआ था। पिता की मृत्यु के समय रामानुज छोटे थे। कांची जाकर यादवप्रकाश नामक गुरु से इन्होंने विद्या प्राप्त की और बाद में यामुनाचार्य से वैष्णव दीक्षा प्राप्त की। महात्मा नाम्बि ने इन्हें श्री नारायण मंत्र की दीक्षा दी, जिसे लोक-कल्याण के लिए रामानुजाचार्य ने सब लोगों को सुनाया। अपने विशिष्टाद्वैत सिद्वांत के अनुसार इन्होंने प्रस्थानन्त्रयी पर 'श्रीभाष्य' लिखा। इन्होंने एक अंत्यज जाति के साधु से भी उपदेश प्राप्त किया था और अस्पृश्यता—निवारण के सामाजिक कार्य में लगे थे। इन्होंने शास्त्रीय आचार एवं भक्ति की भारत में पुन: प्रतिष्ठा की।

वल्लभाचार्य

कलियुग की 46वीं (अर्थात् ईसवी 15वीं) शताब्दी के प्रसिद्ध आचार्य, जिनका मत 'शुद्धाद्वैतवाद' के नाम से और जिनका भक्ति-मार्ग ‘पुष्टिमार्ग' के नाम से विख्यात है। आन्ध्र प्रदेश में जन्मे श्री वल्लभाचार्य गृहस्थ आचार्य थे। छोटी आयु में ही काशी में शास्त्राध्ययन पूर्ण कर चुकने पर ये वृन्दावन चले गये और कुछ दिन ब्रजवास करके तीर्थाटन को निकले। श्री विट्ठलनाथ इन के पुत्र थे। कहा जाता है कि वल्लभाचार्य की श्री चैतन्य महाप्रभु से भी भेंट हुई थी। भगवान् का अनुग्रह ही पुष्टि है और इसी अनुग्रह से भक्ति का उदय होताहै,ऐसी श्री वल्लभाचार्य की मान्यता थी। इन्होंने 'अणुभाष्य' नाम से ब्रह्मसूत्र का भाष्य लिखा। 52 वर्ष की अवस्था में ये वाराणसी में ज्योतिरूप में विलीन हो गये।

झुलेलालोऽथ चैतन्यः तिरुवल्लुवरस्तथा। नायन्मारालवाराश्च कंबश्च बसवेश्वरः ।। १६।।

झूलेलाल

सिन्ध प्रान्त के युगाब्द 41वीं शती (अर्थात् ईसा की 10वीं शताब्दी) के पूज्य पुरुष। मुसलमान नवाब ने सारी प्रजा का बलात् सामूहिक धर्मान्तरण करना चाहा। श्रीझूलेलाल ने अपने कर्तृत्व से उसकी इस दुष्ट योजना को विफल कर दिया। इन्हें वरुण देव का अवतार माना जाता है।

श्री चैतन्य

कलियुग की 45वीं (अर्थात्ईसा की 14वीं) शताब्दी में बंगाल प्रांत के नवद्वीप ग्राम मेंजन्मे गौर-सुन्दर निमाई अर्थात श्री चैतन्य महाप्रभु ने भक्ति तथा कृष्ण-कीर्तन की धारा प्रवाहित कर लोकचित्त को श्रीकृष्ण के रंग में रंग दिया। 24 वर्ष की आयु में गृहस्थाश्रम त्याग कर चैतन्य ने केशव भारती नामक संन्यासी से संन्यास-दीक्षा ग्रहण की। आध्यात्मिक महापुरुष होने के साथ ही वे महान् नैयायिक भी थे। उन्होंने न्यायशास्त्र पर एक उत्कृष्ट ग्रंथ भी लिखा था। उनकी कृष्ण-भक्ति उत्कृष्ट भाव वाली थी। उनके भाव विभोर नृत्य-कीर्तन में साथ देते हुए लोगों की भारी भीड़ उनके साथ चलती थी। नवद्वीप छोड़कर उन्होंने श्री जगन्नाथ धाम में निवास किया था। काशी, वृन्दावन, दक्षिण भारत और मध्य भारत की यात्राएँ भी उन्होंने कीं और अंत में जगन्नाथ धाम में पधार कर कहा जाता है कि जगन्नाथ जी के विग्रह में ही वे विलीन हो गये। जगन्नाथ पुरी में महाप्रभु चैतन्य का मठविद्यमान है।

तिरुवल्लुवर

'तिरुक्कुरल' नामक तमिल सुभाषित ग्रंथ के रचयिता तिरुवल्लुवर का जन्म कलियुग की 30वीं अर्थात् ईसा-पूर्व प्रथम शताब्दी में हुआ था। वे बुनकर का व्यवसाय करते थे। 'कुरल' (तिरुक्कुरल) में उन्होंने सम्पूर्ण मानवीय जीवन को प्रकाशित किया है। इस ग्रंथ में धर्म, अर्थ, काम, इन तीन पुरुषार्थों का प्रतिपादन हुआ है। 'कुरल' में 1330 द्विपदियाँ हैं। इसको तमिल साहित्य में बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त है और इसका भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त विदेशी भाषाओं में भी अनुवादहुआ है। तिरुक्कुरल में पारम्परिक हिन्दू विचार और जीवन-पद्धति की छाया सर्वत्र व्याप्त है।

नायन्मार

तमिलनाडु के 63 शैव संत,जिनका समय कलियुगाब्द 33वीं से 40वीं शती (अर्थात् ईसा की द्वितीय शताब्दी से नौवीं शताब्दी) तक माना जाता है। तमिलनाडु के प्रमुख शैव मन्दिरों में नायन्मार सन्तों की मूर्तियाँ स्थापित की गयी हैं। नायन्मार सन्त मोची से लेकर ब्राह्मण तक विभिन्न जातियों से सम्बन्धित थे। इनमें तीन महिलाएँ भी हैं। ये जातिभेद और छुआछूत को नहीं मानते थे। इन्हें समाज के सभी वर्गों और जातियों की श्रद्धा प्राप्त हुई थी। ऊंची जाति और तथाकथित छोटी जाति के नायन्मार सन्तों में परस्पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं था। शिव—भक्ति में और शिव-भक्तों की सेवा में पूर्णतया निमग्न नायन्मार संतों ने अपूर्व नि:स्वार्थ भावना, सामाजिक समता, सेवा और त्याग का आदर्श प्रस्तुत किया।

आलवार

दक्षिण भारत के वैष्णव सन्त, जिनकी संख्या बारह कही जाती है। इनमें नम्मालवार, कुलशेखर,तिरुमगई और आण्डाल का अधिक महत्व है। नायन्मार भक्तों के समान आलवार भी जातिप्रथा को नहीं मानते थे। इनके अनुयायियों और भक्तों में अनेक तथाकथित निम्न जातियों में से थे। आलवार भक्त भी थे और कवि भी। आलवार सन्तों के रचे गीतों का संग्रह'प्रबन्धम्'नामक ग्रंथ में हुआ है। तमिलनाडु के वैष्णव सम्प्रदाय में'प्रबन्धम्'का स्थान श्रीमद्भगवदगीता के बराबर माना जाता है। श्री रामानुजाचार्य के प्रपतिवाद का मूल आलवारों की विचारधारा में मिलता है।

कम्ब

तमिल के महान् रामकथा कवि, जिनकी लिखी रामायण को तमिलनाडु में वैसा ही ऊँचा स्थान प्राप्त है जैसा उत्तर भारत में तुलसीदास के रामचरित मानस को। ये तमिलनाडु के शैव और वैष्णव दोनों समाजों के श्रद्धेय महाकवि थे। तमिलनाडु के तिरुवयुन्दुर नामक गाँव में अब से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व जन्मे इस प्रतिभाशाली महाकवि को श्रीरंग के पण्डितों ने ‘कवि चक्रवर्ती ' उपाधि प्रदान करके इनके रामायण की श्रेष्ठता को स्वीकार किया था। दक्षिण में रामकथा-प्रचार का अविस्मरणीय कार्य कम्ब या (कम्बन्) के हाथों सम्पन्न हुआ।

बसवेश्वर

वीरशैव सम्प्रदाय के संस्थापक श्री बसवेश्वर ने कर्नाटक तथा आन्ध्र में अपने सम्प्रदाय के सिद्धान्तों और मान्यताओं का प्रचार किया। यह सम्प्रदाय मानव समाज में किसी प्रकार का भेदभाव स्वीकार नहीं करता। बाल्यावस्था से ही बसवेश्वर के अन्त:करण में प्रखर शिवभक्ति का उदय हुआ था। भगवान् वीर महेश्वर में इनकी आस्था अडिग थी। पिता नादिराज और माता मदाम्बिका के घर इनका कलियुगाब्द 42 वीं शती (ई० 11वीं सदी) में कर्नाटक में बागवाड़ी ग्राम में जन्म हुआ। संगमनाथ नामक संन्यासी ने इनका लिंगधारण संस्कार करवाया। ये कुछकाल तक कल्याण के राजा विज्जल के मंत्री भी रहे थे।

देवलो रविदासश्च कबीरो गुरुनानक: । नरसिस्तुलसीदासो दशमेशो दूढ़व्रत: ॥१७॥

देवल

इस नाम के दो ऋषि प्रसिद्ध हुए हैं। हरिवंश पुराण के अनुसार एक देवल प्रत्यूष वसु के पुत्र हुए हैं और दूसरे असित के पुत्र। ये दूसरे देवल रम्भा के शाप से ‘अष्टावक्र' हो गये थे। गीता में उल्लिखित यही देवल धर्मशास्त्र के प्रवक्ता थे। ये वेद-व्यास के शिष्य थे। आज भी देवल-स्मृति उपलब्ध है। इन्होंने धर्मान्तरितों को पुन: वापस लेने का विधान किया था।

रविदास

भक्तिकाल के प्रसिद्ध संत, जिनका काल युगाब्द 46-47वीं (अर्थात् ईसा की 16वीं) शताब्दी का रहा है। इनका जन्म चर्मकार परिवार में हुआ था। ये काशी के निवासी थे और प्रसिद्ध वैष्णव सन्त रामानन्द के अनुयायी थे। चर्मकार का व्यवसाय करते हुए इन्होंने अपनी असाधारण कृष्णभक्ति की अपनी रचनाओं में सहज निर्मल अभिव्यक्ति की। सन्त कबीर के विपरीत रविदास सौम्य स्वभाव के सन्त पुरुष थे। वृद्धावस्था की ओर बढ़ते कबीर के पास यदा-कदा वे सत्संग-लाभ करने जाते थे।

कबीर

कलियुग की 46वीं (अर्थात् ईसा की 15वीं) शताब्दी में काशी में जन्मे महात्मा कबीर प्रसिद्ध संत, कवि तथा समाज-सुधारक थे। इनका जन्म शायद हिन्दूघर में तथा पालन-पोषण मुस्लिम परिवार में हुआ।ये स्वामी रामानन्द के शिष्य बने। निर्गुण बह्म के उपासक कबीर स्वभाव के फक्कड़ और वाणी के स्पष्टवक्ता थे। उन्होंने सामाजिक रूढ़ियों, मूर्तिपूजा, छुआछूत और जाति-पाँति का तीव्र खंडन किया। उन्होंने ईश्वर को अपने अन्तर में खोजने का उपदेश दिया, संसार के प्रपंच में फंसे मनुष्य को ईश्वरोन्मुख करने के उद्देश्य से माया की कठोर भत्र्सना की। बाह्याडम्बरों का विरोध कर कबीर ने सच्ची मानसिक उपासना का मार्ग दिखाया। उन्होंने साखी (दोहे) और पद रचे, जो लोक में दूर-दूर तक व्याप्त हो गये। ‘बीजक' में कबीर की वाणी का संकलन है। उनकी मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने कबीरपंथ नाम से एक सम्प्रदाय स्थापित किया।

गुरु नानक [युगाब्द 4570-4640 (1469-1539ई०)]

महान् संत और सिख परपंरा के प्रवर्तक (प्रथम गुरु), जिन्होंने वेदान्त का ज्ञान लोकभाषा में प्रस्तुत किया। इनका जन्म पंजाब के तलवंडी गाँव में (जो अब ननकाना साहिब कहलाता है) कालूराम मेहता के घर हुआ। गुरु नानक शुद्ध हृदय के आध्यात्मिक पुरुष थे। उन्होंने जाति-पाँति और धर्म के बाह्याडम्बरों को अस्वीकार किया। उन्होंने सारे देश का भ्रमण किया तथा मक्का, मदीना और काबुल भी गये। उनकी वाणी गुरुग्रंथ साहिब में लिखी हुई है जिसे उन्होंने वेद,पुराण, स्मृति और शास्त्रों का सार कहा है। वे बाबर के आक्रमण के साक्षी रहे और उसे पाप की बारात कहा। मन्दिरों और मूर्तियों के विध्वंस के काल में'सगुण-निराकार'की उपासना का उपदेश देकर उन्होंने धर्म के मूल तत्वों की ओर ध्यान आकर्षित किया।