बाल संस्कार - बच्चो के आरंभ जीवन में मूल रूप आवश्यक संस्कार

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प्रस्तावना : -

समाज की परिस्थितियों एवं बालको के जीवन चर्या को देखकर चिंतित मन ने आगे आने वाली पीढ़ियों के संस्कार को भारतीय मुख्यधारा में परिवर्तित करने की इच्छा से और सभी गुरुजनों एवं सहपाठियों के मार्गदर्शन से बालको के आवश्यक संस्कारो को परिभाषित करने का प्रयास ।

समाज में विद्या एवं ज्ञान के उचित एवं आवश्यक विषयों को कब, कितना और कैसे बालको में देना चाहिए, इस विषय के प्रति समाज के लोगों को जागरूक करना आवश्यक हैं ।आज के समाज की स्थिति को देखकर ऐसा लग रहा हैं कि कुछ ही दिनों में समाज में संबंधो का महत्व , प्रेम , व्यवहार , आदर ,मानसम्मान , सेवा ,दया ,धर्म कार्य ............. यह सब केवल किताबो में ही पढ़ने के लिए रह जायेगा ।समय रहते भारतीय आधारित शिक्षा को अग्रसर नहीं किया गया तो इसका बहुत ही भयंकर परिणाम आगे दिखाई देगा । माता - पिता और बच्चो के बीच के सम्न्धो में दूरियां , अपने से बड़ो को सम्मान ना देना ,उनका अनादर करना , अपने संस्कारो के प्रति अविश्वास प्रकट करना , अपने आदर्शो को न मानना इत्यादि दुरसंस्कारो का पोषण अपने अन्दर इसलिए हो रहा है क्योंकि हमने अपने धार्मिक विद्या एवं संस्कारो का परित्याग कर दिया गया है ।

सभी को इतना ज्ञात होना चाहिए कि जितना लौंकिक ज्ञान आवश्यक है उससे कहीं अधिक अपने धर्म का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है । क्योंकि भारतीय पद्धति की शिक्षा में जीवन जीने का कौशल्य , आदर ,सम्मान ,भाव , प्रेम , सेवा , त्याग......... आदर्श जीवन जीने की पूर्ण कला इसमें निहित है । विद्या एवं ज्ञान अर्जित करने का सर्वोत्तम आयु बाल्यावस्था होती है । बाल्यावस्था में बालको को जितना ज्ञान अर्जित करने में आसानी और उसका पालन हो सकता है उतना एक आयु गट पूर्ण होने के बाद कई समस्यायें होती है ।

धार्मिक शिक्षा का बीज बाल्यावस्था में बो दिया जाता है तो बहुत ही सुन्दर वृक्ष का स्वरुप देखने को मिलाता जिसमे सभी को छाया देने की क्षमता , व्यवहार में सममनाता ,सभी से प्रेम , आदर ,सम्मान , सेवा , त्याग ......इत्यादि स्वरूपों के दर्शन होते है । धार्मिक ज्ञान के बिना मनुष्य पशु सामान है । बालको को पाश्चात्य सभ्यता , बोली भाषा और उनके ऐसा आचरण करना बहुत पसंद है और ऋषियों के चारित्र , धर्म एवं इश्वर के प्रति हिन् भावना रखना । यह सब पाश्चात्य ( पश्चिमी ) सभ्यता ,संस्कार एवं शिक्षा का प्रभाव है ।

शिक्षा एवं ज्ञान कि कोई सीमा नहीं होती है परन्तु प्रारंभिक शिक्षा धार्मिक हो इस विषय को दृढ़ता पूर्वक पालन करना चाहिए । धार्मिक शिक्षा के उपरांत अन्य विषय का अभ्यासआरंभ करना चाहिए । जिस प्रकार विष का स्वभाव भयंकर और मृत्यु मुख पहुंचा सकता है परन्तु औषधि रूप में वही विष अमृत का कार्य कराती है । उसी प्रकार धार्मिक शिक्षा के उचित ज्ञान के पश्चात् अन्य विषयों का ज्ञान वर्धन कराने से अन्य दूषित संस्कारो का प्रभाव नही पड़ता । धर्म मनुष्यों को जीवन , प्राण , इस लोक से परलोक में कल्याण करने वाला है ।

परलोक में केवल धर्म कार्य और निष्ठां ही साथ जाती है , स्त्री , पुत्र, सम्बन्धी , साथी वहा कोई भी काम नहीं आता है । इस कारण मनुष्य को सर्वदा धर्म का संवर्धन एवं संचय चाहिए । हमारे पूर्वजो ऋषि मुनियों ने सदाचार और सद्गुण को धर्म के रूप में परिभाषित किया है । भागवत गीता के १६ वें और 17 वें अध्याय में दैवी सम्पति और त्यग के माध्यम से धर्म को परिभाषित किया है । यम - नियम के सूत्ररूप के माध्यम से महर्षि पतंजलि जी ने भी योगदर्शन के पाद से धर्म की व्याख्या को परिभाषित किया है । मनुजी ने भी सरांस में ६।९२ में धर्म के कुछ गुणों को परिभाषित करने का प्रयास किया है । सर्व व्यखानो और ग्रंथो को समझाने के बाद यह निष्कर्ष निकलता है कि सदार्च और सदगुण ही धर्म को परिभाषित करते है ।

मन,वाणी और अपने शारीर द्वारा जो भी उत्तम कार्य हम अपने और सम्पूर्ण संसार के हित के लिए करते है वही सदाचार है और जिससे हमारे आतंरिक भाव में पवित्रता उत्पन्न होती है वह सद्गुण है । स्वाभाविक रूप से यह प्रशन भी मन में विचरता है की धर्म की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? इसका उत्तर एक ही हो सकता है कि हम ज्ञान धर्म का प्रसार करने वाले सत्पुरुषो की सांगत में सत्संग में अपने भाव को डुबाया जाये ।

जिस प्रकार मनु जी ने कहा हैं की -

वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियं आत्मनः ।

एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् ।।

वेद, स्मृति , सदाचार और स्वयं रूचिनुसार परिणाम में हितकर यह चार प्रकार धर्म की व्याख्या के बिंदु है | सत्यसंग से इन सभी विषयों को एकत्रित रूप में धारण कर सकते है | इन सभी विषयो में विरोधाभास एवं आतंरिक प्रश्नों का निराकरण भी सत्यसंग से हो सकता है,इसलिए सभी को महापुरुषों की सांगत में रहना चाहिए जहाँ सतागति प्राप्त होती है | हमें अह गत होना चाहिए की हमारे पुराणों, वेदों , इतिहासों में जो श्रुति स्मृति में व्याख्या की गई है वह धर्म कि हि व्याख्या है | इसलिए उनमे दी हुई शिक्षा भी धर्म की शिक्षा है |इसलिए सही मानव को धरम की रक्षा के लिए प्राणों का भी मोह नहीं करना चाहए : समय आने पर धर्म के लिए प्राणों की आहुति धर्म के यज्ञ में कर देनी चाहिए क्योंकि धर्म के लिए अपनी आहुति देने वाला उत्तम गति को प्राप्त होता हैं | गुरु गोविन्द सिंह जी के चारो लालो के विषय में आप सभी को ज्ञात ही होगा | उन बालको ने छोटी उम्र में ही धर्म को झुकाने नहीं दिया और अपने प्राणों की आहुति देकर इतहास के पन्नो में सर्वदा के लिए जिवंत रह कर सतगति को प्राप्त हुए | मनु जी भी कहते है-

श्रुतिस्मृत्युदितं धर्ममनुतिष्ठन्हि मानवः।

इह कीर्तिमवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमं सुखम् ||

संसार में मनुष्य कीर्ति को प्राप्त करता हैं और मृत्यु पश्चात् परमात्मा के दर्शन और अनन्य सुख को भोगता है जो मनुष्य वेद और स्मृति में बता हुए नियमो , कर्तव्यों और धर्मो का पालन करता है| इसलिये हे बालको! तुम्हारे लिये सबसे बढ़कर जो उपयोगी बातें हैं, उन पर तुम लोगों को विशेष ध्यान देना चाहिये। ऐसे तो जीवन में धारण करने योग्य बहुत-सी बातें हैं परन्तु अपने जीवन और प्राण के सामान समझकर छः बातों को विशेष रूप से पालन करने का प्रयास करना चाहिए |

  • सदाचार
  • संयम
  • ब्रह्मचर्य का पालन
  • विद्याभ्यास
  • माता, पिता और आचार्य गुरुजनों की सेवा
  • ईश्वर की भक्ति

सदाचार : -

शास्त्रा अनुसार एवं शास्त्र अनुरूप सम्पूर्ण कार्यो को करना सदाचार है। संयम, ब्रह्मचर्य का पालन, ज्ञान अर्जित करना , माता-पिता-आचार्य एवं गुरुजनों की सेवा एवं ईश्वर की आराधना इत्यादि सभी शास्त्र अंतर्गत होने के कारण सदाचार के अन्तर्गत आ जाते हैं। इसलिये बालकों के हित के विस्तार पर अलग-अलग विचार किया जाता है और भी बहुत-सी बातें बालको के लिये उपयोगी हैं, जिनमेंसे यहाँ सदाचार के भाव से कुछ बताई जाती हैं। बालकों को प्रथम आचार की ओर ध्यान देना चाहिये,क्योंकि आचार से ही सारे धर्मो की उत्पत्ति होती है।

महाभारतअनुशासन पर्व के अध्याय १४९में भीष्मजीने कहा है-

सर्वागमानामाचारः प्रथम परिकल्पते।

आचारप्रभवो धर्मो धर्मस्य प्रभुरच्युतः ।|

सभी शास्त्रों के अनुसार सबसे पहले आचार के बारे में प्रमुख रूप से बताया जाता है | आचार से ही धर्म की उत्पत्ति होती है और धर्म के प्रभु श्री सचिदानंद भगवान् हैं।'इस आचार के मुख्य दो रूप हैं-शौचाचार और सदाचार। जल, मिट्टी और अन्य साधनों से शरीर को स्वच्छ करना तथा भोजन, वस्त्र, घर और बर्तन आदि को शास्त्र के दिए हुए नियमो द्वारा साफ रखना शौचाचार है।

सभी लोगो के साथ योग्य व्यवहार करना एवं शास्त्रोक्त पद्धति उत्तम

कर्मोंका आचरण करना

सदाचार है। इससे दुर्गुण और

दुराचारोंका नाश होकर बाहर और भीतरकी पवित्रता होती

है तथा सद्गुणोंका आविर्भाव होता है।

प्रथम प्रात:काल सूर्योदयसे पूर्व उठकर शौच*-स्नान

करना चाहिये। फिर नित्यकर्म करके बड़ोंके चरणोंमें प्रणाम

करना चाहिये। इसके बाद शरीरकी आरोग्यता एवं बलकी

वृद्धिके लिये पश्चिमोत्तान, शीर्षासन, विपरीतकरणी आदि

आसन एवं व्यायाम करना चाहिये। फिर दुग्धपान करके

विद्याका अभ्यास करें। आसन और व्यायाम सायंकाल करनेकी

इच्छा हो तो बिना दुग्धपान किये ही विद्याभ्यास करें।

विद्या पढ़नेके बाद दिनके दूसरे पहरमें ठीक समयपर

आचमन करके सावधानीके साथ पवित्र और सात्त्विक भोजन

करें।

यह खयाल रखना चाहिये कि भूखसे अधिक भोजन

कभी न किया जाय। मनुजी कहते हैं-

* मल त्याग करके तीन बार मृत्तिकासहित जलसे गुदा धोवे, फिर

जबतक दुर्गन्ध एवं चिकनाई रहे तबतक केवल जलसे धोवे। मल या मूत्रके

त्याग करनेके बाद उपस्थको भी जलसे धोवे। मल त्यागनेके बाद मृत्तिका लेकर

दस बार बायें हाथको और सात बार दोनों हार्थोको मिलाकर धोना चाहिये।

जलसे मृत्तिकासहित पैरोंको एक बार तथा पात्रको तीन बार धोना चाहिये। हाथ

और पैर धोनेके उपरान्त मुखके सारे छिद्रोंको धोकर दातुन करके कम-से-कम

बारह कुल्ले करने चाहिये।