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मन,वाणी और अपने शारीर द्वारा जो भी उत्तम कार्य हम अपने और सम्पूर्ण संसार के हित के लिए करते है वही सदाचार है और जिससे हमारे आतंरिक भाव में पवित्रता उत्पन्न होती है वह सद्गुण है । स्वाभाविक रूप से यह प्रशन भी मन में विचरता है की धर्म की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? इसका उत्तर एक ही हो सकता है कि हम ज्ञान धर्म का प्रसार करने वाले सत्पुरुषो की सांगत में सत्संग में अपने भाव को डुबाया जाये ।  
 
मन,वाणी और अपने शारीर द्वारा जो भी उत्तम कार्य हम अपने और सम्पूर्ण संसार के हित के लिए करते है वही सदाचार है और जिससे हमारे आतंरिक भाव में पवित्रता उत्पन्न होती है वह सद्गुण है । स्वाभाविक रूप से यह प्रशन भी मन में विचरता है की धर्म की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? इसका उत्तर एक ही हो सकता है कि हम ज्ञान धर्म का प्रसार करने वाले सत्पुरुषो की सांगत में सत्संग में अपने भाव को डुबाया जाये ।  
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जिस प्रकार मनु जी ने कहा हैं की -<blockquote>वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियं आत्मनः । </blockquote><blockquote>एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् ।।</blockquote>वेद, स्मृति , सदाचार और स्वयं रूचिनुसार परिणाम में हितकर यह चार प्रकार धर्म की व्याख्या के बिंदु है | सत्यसंग से इन सभी विषयों को एकत्रित रूप में धारण कर सकते है | इन सभी विषयो  में विरोधाभास एवं आतंरिक प्रश्नों का निराकरण भी सत्यसंग से हो सकता है,इसलिए सभी को महापुरुषों की सांगत में रहना चाहिए जहाँ सतागति  प्राप्त होती है | हमें अह गत होना चाहिए की हमारे पुराणों, वेदों , इतिहासों में जो श्रुति स्मृति में व्याख्या की गई है वह धर्म कि हि व्याख्या है | इसलिए उनमे दी हुई शिक्षा भी धर्म की शिक्षा है |इसलिए सही मानव को धरम की रक्षा के लिए प्राणों का भी मोह नहीं करना चाहए : समय आने पर धर्म के लिए प्राणों की आहुति धर्म के यज्ञ में कर देनी चाहिए क्योंकि धर्म के लिए अपनी आहुति देने वाला उत्तम गति को प्राप्त होता हैं | गुरु गोविन्द सिंह जी के चारो लालो के विषय में आप सभी को ज्ञात ही होगा | उन बालको ने छोटी उम्र में ही धर्म को झुकाने नहीं दिया और अपने प्राणों की आहुति देकर इतहास के पन्नो में सर्वदा के लिए जिवंत रह कर सतगति को प्राप्त हुए |
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जिस प्रकार मनु जी ने कहा हैं की -<blockquote>वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियं आत्मनः । </blockquote><blockquote>एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् ।।</blockquote>वेद, स्मृति , सदाचार और स्वयं रूचिनुसार परिणाम में हितकर यह चार प्रकार धर्म की व्याख्या के बिंदु है सत्यसंग से इन सभी विषयों को एकत्रित रूप में धारण कर सकते है इन सभी विषयो  में विरोधाभास एवं आतंरिक प्रश्नों का निराकरण भी सत्यसंग से हो सकता है,इसलिए सभी को महापुरुषों की सांगत में रहना चाहिए जहाँ सतागति  प्राप्त होती है हमें अह गत होना चाहिए की हमारे पुराणों, वेदों , इतिहासों में जो श्रुति स्मृति में व्याख्या की गई है वह धर्म कि हि व्याख्या है इसलिए उनमे दी हुई शिक्षा भी धर्म की शिक्षा है ।इसलिए सही मानव को धरम की रक्षा के लिए प्राणों का भी मोह नहीं करना चाहए : समय आने पर धर्म के लिए प्राणों की आहुति धर्म के यज्ञ में कर देनी चाहिए क्योंकि धर्म के लिए अपनी आहुति देने वाला उत्तम गति को प्राप्त होता हैं गुरु गोविन्द सिंह जी के चारो लालो के विषय में आप सभी को ज्ञात ही होगा उन बालको ने छोटी उम्र में ही धर्म को झुकाने नहीं दिया और अपने प्राणों की आहुति देकर इतहास के पन्नो में सर्वदा के लिए जिवंत रह कर सतगति को प्राप्त हुए
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मनु जी भी कहते है-<blockquote>श्रुतिस्मृत्युदितं धर्ममनुतिष्ठन्हि मानवः।</blockquote><blockquote>इह कीर्तिमवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमं सुखम् ||</blockquote>संसार में मनुष्य कीर्ति को प्राप्त करता हैं और मृत्यु पश्चात् परमात्मा के दर्शन और अनन्य  सुख को भोगता है जो मनुष्य वेद और स्मृति में बता हुए नियमो , कर्तव्यों और धर्मो का पालन करता है| इसलिये हे बालको! तुम्हारे लिये सबसे बढ़कर जो उपयोगी बातें हैं, उन पर तुम लोगों को विशेष ध्यान देना चाहिये। ऐसे तो जीवन में धारण करने योग्य बहुत-सी बातें हैं परन्तु अपने जीवन और प्राण के सामान समझकर छः बातों को विशेष रूप से पालन करने का प्रयास करना चाहिए |
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मनु जी भी कहते है-<blockquote>श्रुतिस्मृत्युदितं धर्ममनुतिष्ठन्हि मानवः।</blockquote><blockquote>इह कीर्तिमवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमं सुखम् ।।</blockquote>संसार में मनुष्य कीर्ति को प्राप्त करता हैं और मृत्यु पश्चात् परमात्मा के दर्शन और अनन्य  सुख को भोगता है जो मनुष्य वेद और स्मृति में बता हुए नियमो , कर्तव्यों और धर्मो का पालन करता है। इसलिये हे बालको! तुम्हारे लिये सबसे बढ़कर जो उपयोगी बातें हैं, उन पर तुम लोगों को विशेष ध्यान देना चाहिये। ऐसे तो जीवन में धारण करने योग्य बहुत-सी बातें हैं परन्तु अपने जीवन और प्राण के सामान समझकर छः बातों को विशेष रूप से पालन करने का प्रयास करना चाहिए
 
* सदाचार  
 
* सदाचार  
 
* संयम  
 
* संयम  
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शास्त्रा अनुसार एवं शास्त्र अनुरूप  सम्पूर्ण कार्यो को करना सदाचार है। संयम, ब्रह्मचर्य का पालन, ज्ञान अर्जित करना , माता-पिता-आचार्य एवं गुरुजनों की सेवा एवं ईश्वर की आराधना इत्यादि सभी शास्त्र अंतर्गत होने के कारण सदाचार के अन्तर्गत आ जाते हैं। इसलिये बालकों के हित के विस्तार पर अलग-अलग विचार किया जाता है और  भी बहुत-सी बातें बालको के लिये उपयोगी हैं, जिनमेंसे यहाँ सदाचार के भाव से कुछ बताई जाती हैं। बालकों को प्रथम आचार की ओर ध्यान देना चाहिये,क्योंकि आचार से ही सारे धर्मो की उत्पत्ति होती है।
 
शास्त्रा अनुसार एवं शास्त्र अनुरूप  सम्पूर्ण कार्यो को करना सदाचार है। संयम, ब्रह्मचर्य का पालन, ज्ञान अर्जित करना , माता-पिता-आचार्य एवं गुरुजनों की सेवा एवं ईश्वर की आराधना इत्यादि सभी शास्त्र अंतर्गत होने के कारण सदाचार के अन्तर्गत आ जाते हैं। इसलिये बालकों के हित के विस्तार पर अलग-अलग विचार किया जाता है और  भी बहुत-सी बातें बालको के लिये उपयोगी हैं, जिनमेंसे यहाँ सदाचार के भाव से कुछ बताई जाती हैं। बालकों को प्रथम आचार की ओर ध्यान देना चाहिये,क्योंकि आचार से ही सारे धर्मो की उत्पत्ति होती है।
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महाभारतअनुशासन पर्व के अध्याय १४९में भीष्मजीने कहा है-<blockquote>सर्वागमानामाचारः प्रथम परिकल्पते।</blockquote><blockquote>आचारप्रभवो धर्मो धर्मस्य प्रभुरच्युतः ।|</blockquote>सभी शास्त्रों के अनुसार सबसे पहले आचार के बारे में प्रमुख रूप से बताया जाता है | आचार से ही धर्म की उत्पत्ति होती है और धर्म के प्रभु श्री सचिदानंद भगवान् हैं।'इस आचार के मुख्य दो रूप हैं-शौचाचार और सदाचार। जल, मिट्टी और अन्य साधनों से शरीर को स्वच्छ करना तथा भोजन, वस्त्र, घर और बर्तन आदि को शास्त्र के दिए हुए नियमो द्वारा साफ रखना शौचाचार है।
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महाभारतअनुशासन पर्व के अध्याय १४९में भीष्मजीने कहा है-<blockquote>सर्वागमानामाचारः प्रथम परिकल्पते।</blockquote><blockquote>आचारप्रभवो धर्मो धर्मस्य प्रभुरच्युतः ।।</blockquote>सभी शास्त्रों के अनुसार सबसे पहले आचार के बारे में प्रमुख रूप से बताया जाता है आचार से ही धर्म की उत्पत्ति होती है और धर्म के प्रभु श्री सचिदानंद भगवान् हैं।'इस आचार के मुख्य दो रूप हैं-शौचाचार और सदाचार। जल, मिट्टी और अन्य साधनों से शरीर को स्वच्छ करना तथा भोजन, वस्त्र, घर और बर्तन आदि को शास्त्र के दिए हुए नियमो द्वारा साफ रखना शौचाचार है।
    
सभी लोगो के साथ योग्य व्यवहार करना एवं शास्त्रों में बताये गए पद्धति का उत्तम कर्मों द्वारा आचरण करना सदाचार है। इससे गलत आदतों , गुणों और गलत आचरणों एवं गलत विचारो का नाश होकर बाहर और भीतर की पवित्रता होती है तथा सद्गुणों की उत्तपत्ति एवं विकास होता है।  
 
सभी लोगो के साथ योग्य व्यवहार करना एवं शास्त्रों में बताये गए पद्धति का उत्तम कर्मों द्वारा आचरण करना सदाचार है। इससे गलत आदतों , गुणों और गलत आचरणों एवं गलत विचारो का नाश होकर बाहर और भीतर की पवित्रता होती है तथा सद्गुणों की उत्तपत्ति एवं विकास होता है।  
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प्रात:काल सूर्य उगने से पूर्व उठकर प्रातः मंत्र बिस्तर पर बैठे बोलना , धरती माता से छमा याचना कर धरती पर पग रखना ,  शौच आदि प्रातः विधि से निवृत होकर । योग साधना , व्यायाम आदि शारीर को बलवान और रोगमुक्त बनाने के लिए क्जराना चाहिए | फिर स्नान - नित्यकर्म पूजा पाठ करके बड़ों के चरणोंमें प्रणाम करना चाहिये। फिर दुग्ध पान करके विद्या एवं पठान का अभ्यास करें। लेखन पठन इत्यादि के बाद दिन के दूसरे पहर में ठीक समय पर आचमन प्रक्षालन करके सावधानी के साथ पवित्र और सात्त्विक भोजन करें। यह ध्रयान रखना चाहिये कि भूख से अधिक भोजन कभी न किया जाए और भूख से अधिक भोजन लेकर भोजन पात्र में ना छोड़े |
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प्रात:काल सूर्य उगने से पूर्व उठकर प्रातः मंत्र बिस्तर पर बैठे बोलना , धरती माता से छमा याचना कर धरती पर पग रखना ,  शौच आदि प्रातः विधि से निवृत होकर । योग साधना , व्यायाम आदि शारीर को बलवान और रोगमुक्त बनाने के लिए क्जराना चाहिए फिर स्नान - नित्यकर्म पूजा पाठ करके बड़ों के चरणोंमें प्रणाम करना चाहिये। फिर दुग्ध पान करके विद्या एवं पठान का अभ्यास करें। लेखन पठन इत्यादि के बाद दिन के दूसरे पहर में ठीक समय पर आचमन प्रक्षालन करके सावधानी के साथ पवित्र और सात्त्विक भोजन करें। यह ध्रयान रखना चाहिये कि भूख से अधिक भोजन कभी न किया जाए और भूख से अधिक भोजन लेकर भोजन पात्र में ना छोड़े
    
मनुजी कहते हैं-
 
मनुजी कहते हैं-
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उपस्पृश्य द्विजो नित्यमन्नमद्यात्समाहितः।
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भुक्त्वा चोपस्पृशेत्सम्यगद्भिः खानि च संस्पृशेत् ॥ ( २ ।५३ )
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'द्विज को चाहिये कि सदा आचमन करके ही सावधान हो अन्न का भोजन करे और भोजन के अनन्तर भी अच्छी प्रकार
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आचमन करे और छः छिद्रों (अर्थात् नाक, कान और नेत्रों) का जलसे स्पर्श करे।'
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पूजयेदशनं नित्यमद्याच्चैतदकुत्सयन्।
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दृष्ट्वा हृष्येत्प्रसीदेच्च प्रतिनन्देच्च सर्वशः॥  (२। ५४)
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'भोजन का नित्य आदर करे और भोजन कैसा भी हो उसकी निन्दा न करते हुए भोजन करे, उसे देख हर्षित होकर प्रसन्नता प्रकट करे और सब प्रकार से उसका अभिनन्दन करे।'
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पूजितं ह्यशनं नित्यं बलमूर्ज च यच्छति।
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अपूजितं तु तद्भुक्तमुभयं नाशयेदिदम्॥  (२। ५५)
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'क्योंकि नित्य आदर पूर्वक किया हुआ भोजन बल और वीर्य प्रदान करते  है और अनादर से किया हुआ भोजन उन दोनों का नाश करता है।'
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अनारोग्यमनायुष्यमस्वयं चातिभोजनम्।
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अपुण्यं लोकविद्विष्ट तस्मात्तत्परिवर्जयेत्॥  (२।५७)
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'भूख से अधिक भोजन करना आरोग्य, आयु, स्वर्ग और पुण्य का नाश करता है और लोक निंदा का भागी होना पड़ता  है, इसलिये अधिक भोजन करना  त्याग दे। भोजन करने के बाद दिन में कुछ समय विश्रांति लेनी चाहिए और संध्या भोजन पश्चात् कुछ समय टहलना चाहिए । भोजन के तुरंत बाद पठन लेखन के लिए तुरंत नहीं बैठना चाहिए कम से कम एक घंटे का अंतर होना चाहिए ।
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