बाल संस्कार - पुण्यभूमि भारत

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Bharat man1.jpg

उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्वेश्चेव दक्षिणम्।

वर्ष तद्भारत नाम भारती यत्र सन्तति:।

हिन्द महासागर के उत्तर में तथा हिमालय के दक्षिण में स्थित महान देश भारतवर्ष के नाम से जाना जाता है, यहाँ का पुत्र रूप समाज भारतीय हैं । प्रत्येक भारतीय को यह देश प्राणों से प्यारा है। क्योंकि इसका कण-कण पवित्र है, तभी तो प्रत्येक सच्चा भारतीय (हिन्दू) गाता है-"कण-कण में सोया शहीद, पत्थर-पत्थर इतिहास है"। इस भूमि पर पग-पग में उत्सर्ग और शौर्य का इतिहास अंकित है। स्वामी विवेकानन्द ने श्रीपाद शिला पर इसका जगन्माता के रूप में साक्षात्कार किया। वह भारत माता हमारी आराध्या है। उसके स्वरूप का वर्णन वाणी व लेखनी द्वारा असंभव है, फिर भी माता के पुत्र के नाते उसके भव्य-दिव्य स्वरूप का अधिकाधिक ज्ञान हमें प्राप्त करना चाहिए। कैलास से कन्याकुमारी, अटक से कटक तक विस्तृत इस महान भारत के प्रमुख ऐतिहासिक स्थलों व धार्मिक स्थानों का वर्णन यहाँ दिया जा रहा हैं ।

इस लेख में पुण्यभूमि भारत की विशेष परिचयों को दर्शाया गया है जिनसे हमारे पुरातन इतिहास को वर्त्तमान की धारा के साथ परिचय बनाया जा सके । इतिहास के शौर्य को भुलाने के कारण आज की पीढ़ी अपने आपको निर्बल और असहाय समझती है ।

पुण्यभूमि भारत का परिचय निम्नलिखित बिन्दुओ द्वारा :-

  1. पवित्र नदियाँ
  2. पंच सरोवर
  3. सप्त पर्वत
  4. चार धाम
  5. मोक्षदायिनी सप्तपुरी
  6. द्वादश ज्योतिलिंग
  7. शक्तिपीठ
  8. उत्तर-पश्चिम एवं उत्तर भारत
  9. पूर्वोत्तर एवं पूर्वी भारत
  10. मध्य भारत
  11. दक्षिण भारत

आइये अब हम सभी इन सभी बिन्दुओ को विस्तृत रूप से जानने का प्रयास करेंगे ।

पवित्र नदियाँ

अनेक पवित्र नदियाँ अपने पवित्र जल से भारत माता का अभिसिंचन करती हैं। सम्पूर्ण देश में इन नदियों को आदर व श्रद्धा के साथ स्मरण किया जाता है। इनके पवित्र तटों पर विभिन्न धार्मिक व सांस्कृतिक आयोजन किये जाते हैं, प्रत्येक हिन्दू इनके जल में डुबकी लगाकर अपने आपको को धन्य मानता है। ये नदियाँ भारत के उतार-चढ़ाव की साक्षी हैं। हमारी सांस्कृतिक धरोहर के रूप में अंसख्य तीर्थ इन नदियों के तटों पर विकसित हुए।

इन पवित्र नदियों पर यह विस्तृत लेख देखें ।

गंगा

गंगा भारत की पवित्रतम नदी है। सूर्यवंशी राजा भगीरथ के प्रयासों से यह भारत-भूमि पर अवतरित हुई। उत्तरप्रदेश के उत्तरकाशी जिले में गंगोत्री शिखर पर गोमुख इसका उद्गम स्थान है। गंगोत्री के हिम से पुण्यसलिला गंगा अनवरत जल प्राप्त करती रहती है। यह गंगा-जल की ही विशेषता है कि अनेक वर्षों तक रखा रहने पर भी यह दूषित नहीं होता। गंगा-जल का एक छींटा पापी को भी पवित्र करने की क्षमता रखता है। गंगा के तट पर हरिद्वार, प्रयाग, काशी, पाटलिपुत्र आदि पवित्र नगर श्रद्धालुजनों को आध्यात्मिक शान्ति प्रदान करते हैं। गंगा भागीरथी, जाह्नवी, देवनदी आदि नामों से भी पुकारी जाती है। यमुना, गण्डक, सोन, कोसी के जल को समेटते हुए गंगा समुद्र में मिलने से लगभग 300 कि मी. पहले ही कई शाखाओं में विभक्त होकर ब्रह्मपुत्र के साथ मिलकर विश्व के सबसे बड़े त्रिभुजाकार तटवर्ती मैदान (डेल्टा) का निर्माण करती, गोमुख गंगोत्री से १४५० कि.मी. लम्बी यात्रा पूर्ण कर पतितपावनी गंगा गंगासागर में मिल जाती है। लगभग १२५ कि. मी. दक्षिण में गांगासागर नाम का पवित्र स्थल है, यहीं पर कपिल मुनि का आश्रम था जहाँ सगर-पुत्रों की भस्मी को आत्मसात कर गंगा ने उनका उद्धार किया था। हिन्दू की मान्यता है कि गंगा के किनारे किये गये पुण्य कर्मों का फल कई गुना अधिक हो जाता है। गंगा-तट पर पहुँचकर पापी के हुदय में अच्छे भावों का संचार होने लगता है। आषाढ़, कार्तिक, माघ, वैशाख की पूर्णिमा, ज्येष्ठ शुक्ल दशमी, माघ शुक्ल सप्तमी तथा सोमवती अमावस्या को गंगा में स्नान करने से अक्षय पुण्य प्राप्त होता है। ऋग्वेद, महाभारत, भागवत पुराण, रामायण आदि में गंगा का महात्म्य विस्तार से वर्णित है। सच्चाई तो यह है कि गांगा सब तीर्थों का प्राण है। भागवत पुराण के अनुसार गंगावतरण वैशाख शुक्ल तृतीया को तथा हिमालय से मैदान में निर्गम ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को हुआ।

यमुना

सूर्य-पुत्री यमुना भारत की पवित्रतम नदियों में से एक है। गांगा के स्मरण के साथ-साथ यमुना का भी स्मरण किया जाता है, तभी तो स्नान करते समय इसका आहवान करके पवित्र होने की कामना की जाती है

“गंगे च यमुने चैव गोदावर सरस्वती। नर्मदे सिन्धु कावेरेि जलेअस्मिन् सन्निधिों कुरू।"

यमुना का उद्गम यमुनोत्री शिखर से है। जहाँ देवी यमुना का मन्दिर बना हुआ है। हिमालय के पर्वतीय क्षेत्र में १५० कि.मी. की यात्रा करते हुए यह नदी अनेक छोटे-बड़े स्त्रोतों से जल ग्रहण कर बड़ी नदी बनकर मैदानी भाग में प्रवेश करती है। गांगा के लगभग समानान्तर बहते हुए यमुना प्रयाग में गंगा में मिल जाती है। मथुरा, वृदांवन, आगरा, इन्द्रप्रस्थ(दिल्ली) आदि प्राचीन नगर इसके किनारे बसे हैं। यमुना को यम की बहिन कहा जाता है। यम द्वितीय (मैयादूज) को यमुना में स्नान करना बड़ा पुण्य-प्रदाता है। कार्तिक मास यमुनास्नान के लिए सर्वोत्तम माना जाता है।

सिन्धु

सिन्धु को केवल भारतवर्ष की वरन विश्व की विशाल नदी होने का श्रेय प्राप्त है। सिन्धु का उद्गम-स्थान तिब्बत में स्थित कैलास -मानसरोवर के पास है। २५० कि. मी. तिब्बत में तथा ५५० कि.मी. जम्मू-कश्मीर राज्य में बहने के बाद यह पाकिस्तान में प्रवेश करती है। कश्मीर में सिन्धु नदी ५२०० मीटर गहरी घाटी में होकर बहती है। पाकिस्तान में सिन्धु नदी में सतलुज तथा सहायक नदियाँ झेलम (वितस्ता), चिनाव(चन्द्रभाग), रावी, व्यास आपस में संगम बनाती हुई मिलती हैं। सिन्धु के समान विशालता के कारण ही इसका नाम सिन्धु पड़ा। इसकी लम्बाई २८८० कि. मी. है। इसका जल-ग्रहण क्षेत्र ११,६६,००० वर्ग कि.मी. में विस्तृत है। कराची के समीप यह नदी सिन्धुसागर में मिल जाती है। कैलास मानसरोवर, साधुवेला, सक्खर इसी के तट पर स्थित हैं। ऋग्वेद में वर्णित सप्त सिन्धु प्रदेश इसके दोनों ओर पंजाब तक विस्तृत था। महाभारत में इस प्रदेश को सौवीर कहा गया है। वर्तमान पाकिस्तान में सिन्ध प्रान्त इसी नदी के आस-पास स्थित प्रदेश है। वैदिक संस्कृति का विकास यहीं हुआ। मोहन जोदड़ो व हड़प्पा की खुदाई से प्राप्त जानकारी से इस प्रदेश के प्राचीन वैभव का पता चलता है।

सरस्वती

वेदों में उल्लिखित यह पवित्र नदी हिमालय से निकलकर वर्तमान हरियाणा, राजस्थान, गुजरात प्रदेशों को सींचती हुई सिन्धुसागर में मिलती थी। कालान्तर में भूगर्भित हलचलों के कारण अम्बाला के आस-पास का क्षेत्र ऊंचा हो गया, जिससे इस नदी का जल अन्य सरेिताओं में मिल गया और यह नदी विलुप्त हो गयी। एक अन्य खोज के अनुसार इस नदी का जल रिस-रिसकर पृथ्वी के अन्दर चला गया। आज भी हरियाणा तथा राजस्थान प्रदेशों में पृथ्वी के अन्दर ही अन्दर प्रवाहित हो रही है। गुजरात के कच्छ के रण में विलीन होने वाली लूनी नदी को इसका अवशेष कहा जा सकता है। वेदों की रचना इस नदी के आसपास के प्रदेश (सारस्वत प्रदेश) में हुई। मनु के अनुसार पृथूदक (पेहव) इसी नदी के तट पर बसा था ।

"सरस्वत्यश्च तीथॉनि तीर्थभ्यश्च पृथूदकम्।

पृथूदकात् पुण्यतमं नान्यत तीर्थ नरोत्तम।" (महाभारत वनपर्व)

ऋग्वेद में सरस्वती का वर्णन केवल नदी के रूप में नहीं , वाणी व विद्या की देवी के रूप में भी हुआ है। यह सत्य तथा अच्छाई की प्रेरणा देती है। गंगा के समान इसके तट पर अनेक तीर्थों का विकास हुआ है। महाभारत, स्कन्द व पद्म पुराण, देवी भागवत आदि ग्रन्थों में इसका वर्णन बड़ी श्रद्धाभक्ति के साथ किया गया है। सरस्वती हिमालय से निकल कर पृथूदक, कुरूक्षेत्र, विराट, पुष्कर, अर्बुदारण्य, सिद्धपुर, प्रभास आदि स्थानों से होते हुए सागर से मिलती है।

यह पवित्र नदी नेपाल में मुक्तिनाथ से थोड़ा आगे दामोदर कुण्ड से निकलती है। इसे नारायणी तथा शालिग्रामी भी कहते हैं। इस नदी क्षेत्र से प्राकृत और विभिन्न स्वरूप वाले शालिग्राम प्राप्त होते हैं। मुक्तिनाथ इसके तट पर स्थित प्रमुख शक्तिपीठ है। सती का गण्डस्थल यहीं गिरा था जहाँ आज भव्य मन्दिर है। इसी कारण इसे गण्डकी के नाम से पुकारा जाता है। यह नदी बिहार राज्य में प्रवेश करती है और गंगा में मिल जाती हैं ।

ब्रह्मपुत्र

सप्त महानदों (पुल्लिंग) में ब्रह्मपुत्र प्रमुख है। इसका उद्गम-स्थान पवित्र मानसरोवर के समीप एक विशाल हिमानी है। तिब्बत में १२०० कि मी. पूर्व की ओर बहते हुए दक्षिण-पश्चिम की ओर मुड़कर भारत में प्रवेश करती है। तिब्बती क्षेत्र में इसे सांपों नाम दिया गया। अरुणाचल व असम में इसे लोहित कहा जाता है। कामाख्या शक्ति-पीठ इसके तट पर स्थित है।अपुनर्भव, भस्मकूट, उर्वशीकुण्ड, मणिकणेश्वर, पण्डुनाथ पर्वत (मधु-कैटभ का वध-स्थल), अश्वकरत्न (कल्कि अवतार से सम्बन्धित) आदि प्रमुख तटवर्ती तीर्थ हैं। तेजपुर, गुवाहाटी, डिब्रूगढ़, शिवसागरआदि समीपवर्ती नगर हैं। भारत में ५०० किमी. से अधिक दूरी तक बहने के बाद यह दक्षिण दिशा की ओर मुड़कर बांग्लादेश में पहुँचती है। बंगाल में गंगा (पद्म) व मेघना से मिलकर विश्वविख्यात सुन्दरवन डेल्टा का निर्माण करती हैं। ब्रह्मपुत्र की लम्बाई २९०० कि.मी. से कुछ अधिक ही है।

रेवा (नर्मदा )

अमरकोश के अनुसार रेवा नर्मदा का ही दूसरा नाम है । रेवा को मैकाल - कन्या के नाम से भी पुकारा जाता है क्योंकि मैकाल से इसका एक स्त्रोत प्रारंभ होता है जबकि दूसरा भाग अमरकोटक से उद्भूत होता है और फिर दोनों मिलकर एक हो जाते हैं। नर्मदा मध्य भारत में गंगा के समान वन्दनीय है। अमरकंटक से पश्चिम दिशा में बहते हुए भड़ौच के पास खंभात की खाड़ी के समुद्र में मिल जाती है। नर्मदा के तट के साथ असंख्य तीर्थों का प्रादुर्भाव हुआ है। रुद्र के अंश से उत्पन्न होने के कारण यह जड़-चेतन सबको पवित्र करने में समर्थ है। इसका नाम रुद्र कन्या भी है। इसके तट पर ओंकारेश्वर, मान्धाता, शुक्ल तीर्थ, भेड़ाघाट, जबलपुर, अमरकण्टक, कपिलधारा आदि पावन स्थल व नगर स्थापित हैं। व्यास व शुकदेव ने बरकेल नामक स्थान पर आकर नर्मदा में स्नान किया। बरकेल आज भी सामवेदी ब्राह्मणों के लिए प्रसिद्ध है। यहीं पर व्यासजी का मन्दिर व शुकदेव महादेव के मन्दिर बने हैं। सती अनसूया का मन्दिर भी पास हो बना है। नर्मदा की कुल लम्बाई १३०० कि.मी. है।

गोदावरी

१४५० कि.मी. लम्बी गोदावरी दक्षिण भारत की गांगा कहलाती है। महाराष्ट्र प्रान्त के नासिक जिले में एक गाँव है त्रयम्बक। यहीं ब्रह्मगिरि से निकल कर गोदावरी पूर्व की ओर बहती हुई गंगा सागर में मिलती है। इसका एक नाम गौतमी भी है, क्योंकि गौतम ऋषि की तपस्या के कारण यह अवतरित है। त्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिग, नासिक(पंचवटी), पैठण, राजमहेन्द्र,भद्राचलमू, नान्देड़ (गुरु गोविन्द सिंह की समाधि), कोटा पल्ली आदि पावन क्षेत्र इसके तट पर हैं। मुस्लिम आक्रान्ताओं ने तीर्थों की पवित्रता को अनेक बार भंग किया। मराठा उत्थान के समय अनेक मन्दिरों का निर्माण व जीणोद्धार किया गया। वधाँ, प्राणहिता, इन्द्रावती, साबरी प्रवरा, वैन गांगा आदि इसकी सहायक नदियाँ हैं।

कृष्णा

कृष्णा प्रायद्वीपीय भारत की प्रमुख नदी है। यही नदी सहयाद्रि पर्वत-माला में महाबलेश्वर के उत्तर में स्थित कराड नामक स्थान से निकलती है। यह स्थान सिन्धु सागर के ६० किमी. पूर्व में है। वारणा से होते हुए यह दक्षिण-पूर्व की ओर बढ़कर कर्नाटक में प्रवेश करती है। कृष्ण की दो प्रमुख सहायक नदियाँ भीमा और तुगभद्रा हैं। चन्द्रभागा पण्ढरपुर के समीप भीमा से मिलती है। आन्ध्रप्रदेश के काफी विस्तृत क्षेत्र में बहते हुए कृष्णा महेन्द्र पर्वत-श्रृंखला को काट कर गंगासागर की ओर बढ़ती है और बृहद डेल्टा बनाते हुए सागर में मिल जाती है। इस नदी के तट पर सतारा, सांगली, रायचूर, विजयवाड़ा, नागार्जुन सागर आदि स्थित हैं। नदी की कुल लम्बाई १२८० कि.मी. है।

कावेरी

कावेरी प्रमुख नदियों में सबसे दक्षिण में स्थित है। यह कूर्ग जिले में स्थित है। सहयाद्रि पर्वत के दक्षिणी छोर से निकल कर दक्षिण-पूर्व बहते हुए सागर में मिलती है। मिलने से पूर्व कई शाखाओं में बँट जाती है और उपजाऊ डेल्टा बनाती है। इसकी लम्बाई ८०० कि.मी.है। अग्नि व विष्णु पुराण में कावेरी का वर्णन विस्तार से हुआ है। कावेरी के उद्गम स्थल के पास ही देवी कावेरी का प्राचीन मन्दिर है। कई छोटी-छोटी नदियाँ कावेरी में मिलती हैं। कनकवती, हेमवती, लक्ष्मणतीर्थ प्रमुख सहायक नदियाँ हैं। यह नदी कहीं पर बहुत चौड़ी व संकरी है। तीन स्थानों पर यह दो शाखाओं में बँटकर पुन:एक हो जाती है। इस प्रकार बीच में तीन पवित्र द्वीप बन गये हैं। आदिरंगमू या श्रीरंगपत्तन, मध्य में शिवसमुद्रम् तथा अन्तरंगम् या श्रीरंगमू में भगवान विष्णु के पवित्र मन्दिर बने हैं। चिदम्बरम् नामक पवित्र शैव तीर्थ तथा प्राचीन जम्बूकेश्वरम् मन्दिर श्रीरंगम के पास स्थित हैं। तंजावूर, कुंभकोणम तथा त्रिचिरापल्ली इसी पवित्र नदी के समीपवर्ती तीर्थ हैं। प्रसिद्ध कम्बारामायण के रचयिता कवि कम्बन का क्षेत्र कावेरी-तट ही हैं।

महानदी

उत्कल (उड़ीसा) राज्य की यह प्रमुख नदी मध्यप्रदेश के रायपुर जिले के दक्षिण पूर्व में सिहाँवा पर्वत श्रेणी से निकलकर उड़ीसा में कटक के पास सागर में मिलती है। नदी का कुल बहाव ८६० कि.मी. है। बहाव की आधी दूरी छत्तीसगढ़ के रायपुर, बस्तर, बिलासपुर तथा रायगढ़ जिलों में कोयना, पंचगंगा, घटप्रभा, मल्लप्रभा आदि लघु सरिताओं का जल समेटे तय करती है। शिवनाथ, जोंक, हस्दों इसकी सहायक नदियाँ हैं। महानदी का जल सिंचाई व विद्युत-निर्माण के लिए उपयोग किया जाता है। विश्व का सबसे लम्बा बांध हीराकुण्ड महानदी पर ही बना है। उपर्युक्त प्रमुख नदियों के अतिरिक्त निम्न नदियों का भी स्मरण बड़ी श्रद्धाभक्ति के साथ किया जाता है। इनमें स्नान करने पर शाप-ताप शान्त हो जाते हैं तथा मानव देवत्व की ओर अग्रसर होता हैं। ये नदियाँ हैं महेन्द्रतनया, वेत्रिवती, क्षिप्रा, भीमा, ताप्ती, चम्बल, गोमती, चर्मण्वती आदि।

पॉच सरोवर

जिस प्रकार भारत के चार कोनों पर चार धाम (उत्तरी सीमा पर बद्रीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम्, पूर्व में जगन्नाथपुरीतथा पश्चिम में द्वारिका स्थापित कर देश की एकता को सुदृढ़ किया गया। उसी प्रकार मनीषियों ने पंच सरोवरों की मान्यता देकर समस्त भारतवासियों को प्रान्त व जातिभेद से ऊपर उठकर भारत को एक राष्ट्र के रूप में सुदूढ़ करने की प्रेरणा दी। सभी हिन्दू इनके प्रतिश्रद्धाभाव रखते हैं। ये पॉच सरोवर निम्नलिखित हैं)

१. विन्दु सरोवर

२. नारायण सरोवर

३. पम्पा सरोवर

४. पुष्कर झील

५, मान सरोवर

विन्दु सरोवर

विन्दु सरोवर दो हैं : 1. भुवनेश्वर के मुख्य बाजार में स्थित 2. विन्दु सरोवर सिद्धपुर। देश की एकात्मता की दृष्टि सेपूर्व दिशा स्थित भुवनेश्वर का विन्दुसरोवर अधिक महत्वपूर्ण है। यह एक सुविस्तृत सरोवर है। सरोवर के मध्य एकविशाल मन्दिरहै। इसमेंभगवान् नारायण,शिव-पार्वती, गणेश की सुन्दर प्रतिमाएँ हैं। सरोवर केचारों ओर बहुत सेमन्दिरबने हैं। इस सरोवर में समस्त तीथों का जल लाकर डाला हुआ है,अतः यह परम पवित्र माना जाता हैं। भारतवर्ष में पितृश्राद्ध के लिए गया प्रसिद्ध है तो मातृश्राद्ध के लिए सिद्धपुर स्थित विन्दुसरोवर की मान्यता है। इसे मातृगया भी कहा जाता है। प्राचीन नाम श्रीस्थल है। पवित्र सरस्वती से लगभग डेढ़-दो किलोमीटर दूरएक सरोवरहै। लगभग 12 मीटर लम्बा व 12मीटरचौड़ा यह सरोवर कर्दम ऋषि, कपिल मुनि, समुद्र-मन्थन औरभगवान परशुराम की कथाओं से सम्बद्ध है। सरोवर के पास गोविन्द माधव मन्दिर विद्यमान है। तीर्थयात्री सरोवरमें स्नान कर मातृ-श्राद्ध करते हैं। दक्षिणी छोरपर बने मन्दिर में महर्षि कर्दम, देवहूति और महर्षि कपिल की मूर्तियाँ हैं। इसके अतिरिक्त राधा-कृष्ण, लक्ष्मी-नारायण, सिद्धेश्वरमहादेव के मन्दिर,ज्ञानवापी(बावली) तथा वल्लभाचार्य महाप्रभु की बैठक यहाँ विद्यमान है।

नारायणसरोवर

कच्छ के रनों का यह अति प्राचीन तीर्थ क्षेत्र है। यहाँ स्वच्छ जल का एक पवित्र तालाब है।इसका निर्माण नारायण भगवान् ने गांगोत्री से पवित्रजल लाकर किया।स्वयं नाराण यहाँपर कुछ काल रहे। सरोवर के पास आदि नारायण, गोवर्द्धननाथ और टीकम जी के सुन्दर मन्दिर बने हैं। श्रीवल्लभाचार्य महाप्रभु की बैठक भी नारायण सरोवर के पास है। नारायणसरोवर से लगभग 3 कि.मी. दूर कोटेश्वर महादेव का प्राचीन मन्दिर है।कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर यहाँ एक मेला लगता है। तीर्थ-यात्रियों की सुविधा के लिए यहाँ कई धर्मशालाएँ बनी हुई हैं।

मानसरोवर

सम्पूर्ण हिमालय पार कर तिब्बत (त्रिविष्टप) के शीतल पठार में स्थित मानसरोवरआदिकाल से मानव को आमंत्रित करता आ रहा है। युगों से लोग इसे पवित्र तथा शान्तिदायक क्षेत्र मानकर कलास-मानसरोवर की यात्रा करते आ रहे हैं। यहाँ पर दो सरोवर हैं। एक को राक्षसताल कहते हैं, राक्षसराज रावण ने यहाँ खड़े होकर भगवान् शांकर की आराधना की थी। दूसरा सरोवर मानसरोवर है, इस सरोवर का जल अत्यन्त स्वच्छ व नीलाभ है। मानसरोवर का आकारअण्डाकारहै, यहाँ पहुँच करतीर्थयात्री अमित सन्तोष व शान्ति का अनुभव करता है। मानसरोवर में हंस मिलते हैं। मानसरोवर का जल अधिक शीतल नहींहै, इसमें आनन्दपूर्वक स्नान किया जा सकता है। यद्यपि मानसरोवर से प्रत्यक्ष रूप से कोई झरना या नदी नहीं निकलती किन्तु पर्याप्त ऊंचाई पर होने के कारण सरयू और पुष्टि करतेहैं। मानसरोवर से लगभग 32 कि.मी. उत्तर-पश्चिम में कैलास पर्वत है। कैलास पर्वत भगवान् शिव का स्थान है। कुछ लोग तो केंलास को शिवस्वरूप मानते हैं। पास में ही गौरीकुण्डहै। मानसरोवर कीमहत्ता शक्तिपीठ के रूप में मान्य हैं। सती की दाहिनी हथेली यहाँ गिरी थी। तभी से यह स्थान शक्तिपीठ के रूप में पूजित है।

पुष्कर

महाभारत के वन पर्व में ऋषि पुलस्त्य भीष्मजी के सामने अनेक तीर्थों का वर्णन करते हुए पुष्कर को सबसे अधिक पवित्र बताते हैं।पुष्करतीर्थों के गुरु हैं। वाल्मीकि-रामायण में भी पुष्कर की महिमा गायी गयी है। सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी यहाँ निरन्तर वास करते हैं। ब्रह्माजी ने पुष्कर की स्थापना की। यहाँ एक पवित्र सरोवर है जिसमें स्नान करने से मानव शान्ति प्राप्त करता है। सरोवर के पास ब्रह्मा जी का विशाल व भव्य मन्दिर है। श्री बद्री नारायण मन्दिर, वाराह मन्दिर, कपालेश्वर महादेव, श्री रंग मन्दिर आदि यहाँ के प्रमुख मन्दिर हैं। पुष्कर में पुष्कर सरोवर के अतिरिक्त सरस्वती नदी में स्नान करना पुण्यकारक माना जाता है। ब्रह्मा जी का मन्दिर व वाराहजी का मन्दिर मुस्लिम धर्मान्धता के कारण औरंगजेब के काल में तोड़ दिये गये थे। ब्रह्माजी का वर्तमान मन्दिर सन 1809 में बनाया गया और वाराह मन्दिर सन 1727 में बना। पुष्कर को मन्दिरों की नगरी कहा जा सकता है। यहाँ लगभग चार सौ मन्दिर हैं।

सर्वतीर्थयू राजेन्द्र तीर्थ त्रैलोक्यविश्रुतम्।

पुष्करं नाम विख्यात महाभाग: समविशेत्।

पम्पा सरोवर

दक्षिण दिशा में स्थित है।भगवान् श्रीराम ने अपने अनुज लक्ष्मण के साथ इस सरोवर के तीर परविश्राम किया था। वाल्मीकि-रामायण में पम्पासार का सुन्दर वर्णन किया गया है।तुगंभद्रा नदी के दक्षिण में यह सरोवरस्थित है। किष्किन्धा, ऋष्यमूक पर्वत, स्फटिक-शिला पम्पा सरोवर के समीप फेंले रामायणकालीन ऐतिहासिक स्थान हैं। पम्पा सरोवर के पास पहाड़ी पर छोटे-छोटे जीर्ण मन्दिर हैं। एक मन्दिर में लक्ष्मीनारायण की ब्रह्मपुत्र का उद्गम-स्थान वास्तव में यही सरोवर है, अनेक विद्वान इसकी युगल मूर्ति है। पास में शबरी गुफा भी स्थित है।

सप्त पर्वत

जिस प्रकार पीयूष-प्रवाहिनी नदियाँ राष्ट्र की एकात्मता को सुदृढ़ कड़ियाँ हैं वैसे ही देश के विभिन्न क्षेत्रों में स्थित पर्वत और शिखर सर्वत्र सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं। एकात्मता-स्तोत्र में वर्णित पर्वतों के नाम हैं-हिमालय, महेन्द्र, मलयगिरी, सहयाद्रि, रैवतक, विंध्याचल तथा अरावली। इनके अतिरिक्त अमरकण्टक, सरगमाथा, अर्बुदांचल, कैलास आदि शिखरऔर बद्रीनाथ, केदारनाथ आदि पर्वतीय स्थल भी वन्दनीय हैं।

हिमालय

यह विश्व का सर्वोच्च पर्वत है जिसमें अनेक हिमाच्छादित श्रृंग, हिमानियाँ तथा विस्तृत घाटियाँ हैं। यहाँ पर देवी-देवताओं का वास है। अत: महाकवि कालिदास ने इसका देवतात्मा' नाम से उल्लेख किया। सिन्धु, गांगा, सतलुज, गण्डक, ब्रह्मपुत्र आदि नदियों के उद्गम यहीं हैं। बद्रीनाथ, केदारनाथ, कलास, मानसरोवर, वैष्णवी देवी, अमरनाथ नामक सैकड़ों पुण्यस्थल हिमालय में हैं। अनेक ऋषि-महात्माओं का यह तप स्थल रहा है। संसार का सबसे ऊँचा पर्वत-शखर "सागरमाथा (एवरेस्ट)' हिमालय केअन्तर्गतआता है। कचनजघा, नन्दादेवी, गौरीशांकर, धौलागिरि आदि मेंभी हिमालय की अन्य जॉची चोटियाँ हैं। हिमालय भारत के उत्तरी भाग में २४०० कि. मी. लम्बाई व १५० से ४०० कि.मी. चौड़ाई में विस्तृत है। ऋग्वेद केअनुसार हिमालय ईश्वर की महानता का परिचायक हैं, वह निम्न प्रकार वर्णित हैं:

"यस्येमे हिमवन्तो महित्वा, यस्य समुद्र रसयाहाहु:।

यस्येमे प्रदिशो यस्यबाहू, कस्मै देवाय हविषाविधेम।" (ऋग्वेद १-१२१-४)

अरावली

दिल्ली के दक्षिणी सिरे से प्रारम्भ होकर हरियाणा, राजस्थान व गुजरात तक दक्षिण-पश्चिम दिशा में यह पर्वतमाला फैली हुई है। यह विश्व के प्राचीन पर्वतों में से एक है। स्कन्दपुराण व महाभारत में इसका वर्णन आया है।यह पर्वत महाराणा प्रताप के उत्सर्ग, कर्तृत्व तथा शौर्य का साक्षी है। मेवाड़ को विदेशी आक्रान्ताओं से मुक्त कराने का महान व सफल अभियान इसी पर्वत की उपत्यकाओं में फलीभूत हुआ। इस पर्वत की गोद में अनेक प्राचीन पावन तीर्थस्थल तथा ऐतिहासिक नगर विद्यमान हैं।अरावली का सर्वोच्च शिखरआबू(अर्बुदांचल) है। यह जैन तीर्थ के रूप में विख्यात है। सात कुल-पर्वतों मेंअरावली की गणना की जाती है। पारियात्र’इसी का संस्कृत नाम है। सात कुल-पर्वतों की नामावली निम्न श्लोक में दी हुई है

महेन्द्रो मलय: सहूयो सुक्तिमान् ऋक्षवानपिं।

विन्ध्यश्च पारियात्रश्च सप्तैता: कुलपर्वताः। (मार्कण्डेय पुराण)

विंध्याचल

भारत के मध्यवर्ती भाग में गुजरात से लेकर बिहार व उत्कल तक विस्तृत है। यह पर्वत नर्मदा के उत्तर में ४0,000 वर्गमील क्षेत्र में फैला है। इसकी पूर्व से पश्चिम तक लम्बाई लगभग 1000 कि.मी.है। विंध्याचल की औसत ऊंचाई ७00 मीटर है। केवल कुछ शिखर लगभग १000 मीटर ऊँचे हैं। अम्बा पानी, होरोया, दशारती, सलकनपुर, मृगनाथ, भानुआ भण्ड इस श्रेणी के प्रमुख शिखरहैं। विंध्याचल से मध्यभारत की कई प्रमुख व पवित्र नदियाँ निकलती हैं।चम्बल, बेतवा, केन, क्षिप्रा, बनास, सोन इनमें प्रमुख हैं। नर्मदा नदी का उद्गम-स्थल अमरकण्टक, विंध्याचल व सतपुड़ा श्रृंखला को आपस में मिलाता है। उज्जयिनी, जबलपुर जैसे नगर इस पर्वत की गोदमें बसेहैं। नागोद(चूना पत्थर) तथा पन्ना की प्रसिद्ध खानें भी इसी में हैं। कई तीर्थ स्थान जैसे विंध्यवासिनी (मिर्जापुर), महाकाली मन्दिर (काली खोह), अष्टभुजा देवी इसी के अन्तर्गत आते हैं। दुग सप्तशती, देवी भागवत तथा स्कन्द पुराण मेंइस पर्वत के विषय में उल्लेख मिलता हैं। 1. अस्युक्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः (कुमारसंभवम्) विंध्याचल सात कुल-पर्वतों मेंप्रमुख है। महर्षि अगस्त्य इस पर्वत को पार कर उत्तर व दक्षिण का भेद मिटाने के लिए यात्रा पर निकले तथा कावेरी नदी के तट पर आश्रम बनाकर तपस्यारत हो गये।

रैवतक पर्वत

गुजरात प्रान्त के काठियावाड़ जिले में यह पर्वत स्थित है। यह पर्वत पावन प्रभास क्षेत्र तक विस्तृत है। जैन सम्प्रदाय के ५ पवित्र तीर्थों में से एक शत्रुजय या पालीताना भी इसी के अन्तर्गत आता है। यह गिरनार के नाम से भी जाना जाता है। माघकवि द्वारा रचित ग्रन्थ शिशुपाल-वध" में इसका सुन्दर वर्णन किया गया है। कोटिरुद्र संहिता के अनुसार भगवान् शांकर ने यहाँ निवास किया। सोमनाथ नामक ज्योतिर्लिग यहाँ से थोड़ी ही दूरी पर विराजमान है। रैवतक पर्वत शिव का प्रिय स्थान है, अत: उन्होंने अन्य देवताओं को भी वहाँ आमन्त्रित कर वहीं वास करने को राजी कर लिया। इस पर्वत पर अनेक पवित्र मन्दिर व पवित्र जलकुण्ड विद्यमान हैं। रैवतक पर्वत का गोरखनाथ शिखर सबसे ऊँचा है। सम्पूर्ण देश से तीर्थयात्री यहाँ आते हैं।

महेन्द्र पर्वत

उत्कल(उड़ीसा) का यह प्रमुख पर्वत गांजाम जिले में फैला हुआ है। भारत के पूर्वी तट पर स्थित पूर्वी घाट पर्वतमाला का यह उत्तरी छोर तथा उच्च पर्वत है। समुद्र-तल से इसकी ऊँचाई लगभग १५00 मीटर है। पुराणों में वर्णित सात कुल-पर्वतों में इसका भी स्थान है। रामायण, महाभारत, पुराण आदि ग्रन्थों में इसका श्रद्धा के साथ उल्लेख आता है। कालिदास ने रघुदिग्विजय प्रसंग में इस पर्वत का तीर्थ तथा मनोरम स्थल के रूप में वर्णन किया है। यहाँ पर अनेक प्राचीन व भव्य मन्दिर बने हैं। गोकर्णीश्वर मन्दिर यहाँ का सबसे प्रमुख मन्दिर है।राजेन्द्र चोल ने अपनी विजय की स्मृति में एक स्तंभ का निर्माण कराया। उड़िया कवि राधानाथ राय ने महेन्द्र पर्वत की सुरम्यता व शान्त वातावरण का सजीव चित्रण किया है। महेन्द्रतनय नामक स्रोत का प्रादुर्भाव यहीं से है। सप्त चिरंजीवियों में से एक भगवान परशुराम का आवास इसी पर्वत पर है।

मलयपर्वत

कर्नाटक के दक्षिणी भाग तथा तमिलनाडु राज्य में मलय पर्वत का विस्तार है। भारतीय वाडमय में मलयगिरेि का वर्णन अनेक कवियों ने किया है। यहाँ पर चन्दन के सघन वन हैं।अनेक सुवासित ओषधियाँ तथा मसालों की कृषि भी इसके ढालों पर की जाती है। नीलगिरि इसका अन्य नाम है। कई ऋषियों ने यहाँ तपस्या की। उनसे सम्बन्धित स्थान व तीर्थ स्थान इस पर्वत पर आज भी विद्यमान हैं।

सह्याद्री

भारत के पश्चिमी तट के गुजरात महाराष्ट्र तथा कर्नाटक राज्य में सह्याद्रि पर्वतमाला का विस्तार है। दक्षिण भारत की प्रमुख नदियों (गोदावरी, कृष्णा, कावेरी) के उद्गम-स्थान इसी श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं। त्रयम्बकेश्वर, महाबलेश्वर,भीमशकिर, ब्रह्मगिरि, भगवती भवानी, बौद्ध चैत्य प्रसिद्ध तीर्थ क्षेत्र इसी पर्वत-श्रेणी में विराजमान हैं। छत्रपति शिवाजी महाराज से सम्बन्धित कई दुर्ग (शिवनेरी, पन्हालगढ़, प्रतापगढ़, चाकन, रायगढ़) और शिवाजी महाराज की समाधि इस पर्वत की ऐतिहासिक धरोहर हैं। सह्याद्रि उत्तर-दक्षिण खड़ी दीवार के रूप में है। तटीय क्षेत्र में जाने के लिए थाल घाट, भोरघाट, नाना दरी, पालघाट होकर रेल व सड़क मार्ग बनाये गये हैं। सूरत, मुम्बई, रत्नागिरि, पजिम, मंगलौरआदि नगर इसके पश्चिम में समुद्र की ओर स्थित हैं। ब्रह्माजी ने सृष्टि के प्रारम्भ में यहाँ पर यज्ञ किया। दो देंत्यों अतिबल और महाबल ने यज्ञ में बाधा डाली तो विष्णुऔर भगवती आदि ने उनको मारकर यज्ञ को निर्विघ्न पूर्ण करा दिया। भगवान् विष्णु यहाँ पर अतिबलेश्वर, ब्रह्मा कोटीश्वर तथा शंकर महाबलेश्वर के रूप में विराजमान होकर आज भी प्रतिष्ठित हैं।

चार धाम

भारत वर्ष अनादि काल से एक इकाई के रूप में विद्यमान रहा है।विशाल द्वीप पर यह एक पवित्र स्थल स्थापित है। यह भारत के अत्यन्तइसकी एकात्मता चारों दिशाओं में स्थित चारधामों के द्वारा और अधिकआदरणीय तीर्थस्थानों में से एक है। अति प्राचीन काल से यह मन्दिर पुष्ट हुई है। धुर दक्षिण में स्थिति रामेश्वर धाम में अधिष्ठित प्रतिमा काअत्यन्त पवित्र मान्यतायुक्त और सभी वगों के द्वारा पूजित रहा है। इसकी अभिषेक गंगाजल से किया जाता है। जातिबन्धन से मुक्त होकर पूजा-अर्चना के लिए इनकी यात्रा का विधान है । देश के सभी प्रान्तों के निवासी इनकी यात्रा कर स्वयं को धन्य मानते है ।

बद्री नाथ

बद्रीनाथ धाम भारत का सबसे प्राचीन तीर्थ क्षेत्र है। इसकी स्थापना सत्ययुग में हुई थी । सत्ययुग में नर और नारायण ने, त्रेता में भगवान दत्तात्रेय ने, द्वापर में वेद-व्यास और कलियुग में शंकराचार्य ने इस क्षेत्र की प्रतिष्ठा बढायी । बद्रीनाथ का मंदिर नारायण पर्वत की तलहटी में अलकनंदा के दायें किनारे पर स्थित है । यह स्थान माना दर्रे से ४० कि.मी. दक्षिण में है। नीति दर्रा यहाँ से कुछ दूर है। आदिशंकराचार्य ने इसके महत्वा को समझकर मंदिर में उस प्राचीन प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराइ जो नारद कुण्ड में गिरकर खो गई थी। चंद्रवंशी गडवाल-नरेश ने विशार्ल मंदिर का निर्माण करवाया । महारानी अहिल्याबाई ने मंदिर पर सोने का शिखर चढ़वाया जो आज भी अपनी चमक बनाये हुए है । मन्दिर के समीप पांच तीर्थ ऋषि गंगा , कुर्मधारा, प्रहलाद धरा , तप्त कुण्ड और नारद कुण्ड स्थापित है बद्रीनाथ धाम में मार्कण्डेय शिला, नृसिंह शिला, गरुड़ शिला नाम से पवित्र शिलाएँ स्थापित है । बद्रीनाथ से थोडा उत्तर में अलकनंदा के तट पर ब्रह्मपाल नामक पुण्यक्षेत्र है । यहाँ पर पूर्वजो का श्राद्ध करने से उन्हें अमित संतोष मिलाता है । आठ मील दूर पर वसुधारा तीर्थ है जहाँ आठ वसुओं ने अपनी मुक्ति के लिए तप किया था। सदीं के दिनों में इस मन्दिर के कपाट बन्द रहते हैं तथा गर्मी आने पर पुन: खुल जाते हैं। जोशीमठ में शीतकाल में बद्रीनाथ की चल प्रतिमा लाकर स्थापित की जाती है और यहीं पर इसकी पूजा-अर्चना की जाती हैं।

रामेश्वरम् धाम

तमिलनाडु राज्य के रामनाथपुरम जिले में रामेश्वरम् नामक एक विशाल द्वीप पर यह एक पवित्र स्थल स्थापित हैं । यह भारत के अत्यंत आदरणीय तीर्थस्थानों में से एक है । अति प्राचीन काल से यह मन्दिर अत्यंत पवित्र मान्यतायुक्त और सभी वर्गों के द्वारा पूजित रहा है । इसकी स्थापना श्रीराम ने की थी अतः इसका नाम रामेश्वर पड़ा । स्कन्द पुराण ',रामायण , रामचरित मानस , शिव पुराण नामक ग्रंथो में रामेश्वरम् की महिमा का वर्णन किया गया है ।

लंका परचढ़ाई से पूर्व भगवान् राम ने यहाँ शिवपूजन कर आशीर्वाद प्राप्त किया। इसी प्रकार रावण-वध के बाद जगतमाता सीता के साथ सत्ययुग में हुई थी। सत्ययुग में नर और नारायण ने, त्रेता में भगवान लौटने पर भी श्रीराम ने यहाँ पूजन किया तथा ब्रह्महत्या करने का दत्तात्रेय ने, द्वापर में वेद-व्यास और कलियुग में आदि शंकराचार्य ने इस क्षेत्र की प्रतिष्ठा बढ़ायी। बद्रीनाथ का मन्दिर नारायण पर्वत की तलहटी प्रायश्चित किया। पवनपुत्र हनुमान द्वारा कलास से लाया गया। शिवलिंग भी पास में ही स्थापित है। रामेश्वर के परकोटे में 22 पवित्र कुंप हैं जिनमें तीर्थयात्री स्नान कर स्वयं को धन्य मानते हैं। लंका पर चढ़ाई के लिए जो पुल बनवाया था, राम ने विभीषण की प्रार्थना पर अपने धनुष से तोड़ दिया। उसी स्थान परधनुषकोटितीर्थ स्थापित है।अवशत्थामा द्रौपदी-पुत्रों की हत्या का प्रायश्चित करने यहाँ आया था। रामेश्वरम् धाम के आसपासअनेक छोटे-बड़े मन्दिर हैं, जैसे लक्ष्मणेश्वर शिव, पंचमुखी हनुमान, श्रीराम-जानकी मन्दिर। महाशिवरात्रि, वैशाख पूर्णिमा, ज्येष्ठ पूर्णिमा, आषाढ़ कृष्ण अष्टमी, नवरात्र रामनवमी, वर्ष-प्रतिपदा, विजयादशमीआदि पर्वों पर यहाँ विशेष पूजा की जाती है तथा महोत्सव मनाये जाते हैं।

द्वारिका धाम

चारधाम तथा सप्तपुरियों मेंश्रेष्ठ द्वारिका भगवान् कृष्ण को अति प्रिय रही है। आदि शंकराचार्य ने यहाँ शारदा पीठ की स्थापना की और अपने शिष्य सुरेश्वराचार्य (मण्डन मिश्र) को पीठाधीश्वर के रूप में अधिष्ठित किया। महाभारत, हरिवंश पुराण, वायुपुराण, भागवत, स्कन्दपुराण में द्वारिका का गौरवपूर्ण वर्णन है। भगवान् कृष्ण ने अपना अन्तिम समय यहीं पर व्यतीत किया था। कृष्ण ने पापी कंस का वध मथुरा में किया था । उससे क्रोधित होकर मगधराज जरासंघ ने कालयवन को साथ लेकर मथुरा पर आक्रमण किया। कृष्ण ने बचाव के लिए सौराष्ट्र में समुद्रतट पर जाना उचित समझा। वहाँ उन्होंने सुदृढ़दुर्ग का निर्माण किया और द्वारिका की स्थापना की। कृष्ण के इहलोक लीला-संवरण के साथ ही द्वारिका समुद्र में डूब गयी। आज द्वारिका एक छोटा नगर अवश्य है, परन्तु अपने अन्तस्तल में गौरवपूर्ण सांस्कृतिक व ऐतिहासिक धरोहर छिपाकर रखे हुए है। यहाँ के मन्दिरों में रणछोड़राय का प्रमुख मन्दिर है। इसे द्वारिकाधीश मन्दिर भी कहते हैं। यह सात मंजिलों वाला भव्य मन्दिर है। कहते हैं रणछोड़राय की मूल मूर्ति को बोडाणा भक्त डाकोरजी ले गये। आजकल वह वहीं विराजमान है और रणछोड़राय मन्दिर में स्थापित मूर्ति लाडवा ग्राम के एक कुप से प्राप्त हुई थी। रणछोड़रायजी के मन्दिर के दक्षिण में त्रिविक्रम मन्दिर तथा उत्तर में प्रद्युम्न जी का मन्दिर है। बेट द्वारिका, सुदामा पुरी (पोरबन्दर) पास में ही स्थित है। महाप्रभु वल्लभाचार्य तथा श्री रामानुजाचार्य द्वारिका पधारे थे। स्वामी माधवाचार्य सन १२३६-४० के मध्य यहाँ आये।

जगन्नाथ पुरी

जगन्नाथ पुरी उड़ीसा में गंगासागर तट पर स्थित पावन तीर्थ स्थान है। यह शैव, वैष्णव तथा बौद्ध सम्प्रदाय के भक्तों का श्रद्धा-कन्द्र है। यह चारपावन धामों तथा 51 शक्तिपीठों में से एक है। पुराणों में पुरुषोत्तम तीर्थ नाम से इसका वर्णन किया गया है। स्कन्द व ब्रह्मपुराण के अनुसार जगन्नाथ मन्दिर गांगवंशीय राजा अनंग भीमदेव ने 12वीं शताब्दी में बनवाया। 16वीं शताब्दी में बंगाल के मुसलमान शासक हुसेनशाह तथा पठान काला पहाड़ ने पुरी के मन्दिर को क्षतिग्रस्त किया। मराठों ने जगन्नाथ मन्दिर की व्यवस्था के लिए वार्षिक 27 हजार रुपये की राशि अनुदान के रूप में स्वीकृत की। श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा की काष्ठ-मूर्तियाँ मन्दिर में प्रतिष्ठित हैं। इन मूर्तियों को रथयात्रा के अवसर पर निकाल कर रथों में स्थापित कर समुद्रतट-स्थित मौसी जी के मन्दिर में 10 दिन रखा जाता है। यात्रा में लाखों श्रद्धालु भाग लेते हैं। मूतियों की वापसी भी बड़े धूमधाम और हर्षोंल्लास के साथ सम्पन्न होती है। इस तीर्थ की विशेषता यह है कि यहाँ किसी प्रकार के जाति-भेद को कोई स्थान नहीं है। इस संबंध में एक लोकोक्ति प्रसिद्ध हो गयी है :

"जगन्नाथ का भात, जगत् पसारे हाथ, पूछे जात न पात।"

जगन्नाथपुरी में कई पवित्र स्थल स्नान के लिए महत्वपूर्ण हैं जिनमें महोदधि, रोहिणीकुण्ड, शवेत गांग, लोकनाथ सरोवर तथा चक्रतीर्थ प्रमुख हैं। गुंडीचा मन्दिर (मौसी का मन्दिर), श्री लोकनाथ मन्दिर, सिद्धि-विनायक मन्दिर यहाँ के अन्य मन्दिर हैं। जगन्नाथपुरी से 18 कि.मी. दूर साक्षी गोपाल मन्दिर है, इसके दर्शन के बिना जगन्नाथपुरी की यात्रा अधूरी मानी जाती है। आदि शंकराचार्य ने इस पवित्र स्थान की यात्रा की और गोवर्धन पीठ की स्थापना की। रामानुजाचार्य और रामानन्द ने भी इस क्षेत्र की यात्रा की। रामानन्द जी के प्रमुख शिष्य कबीर ने समता का संदेश प्रचारित किया। आज भी बड़ी संख्या कबीरपंथी पुरी में रहते हैं तथा भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा में बढ़चढ़कर भागीदारी करते हैं।

मोक्षदायिनी सप्त पुरी

अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवन्तिका।

पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिक:।

अयोध्या, मथुरा हरिद्वार, काशी, कांचीपुरम् अवन्तिका (उज्जयिनी) तथा द्वारिका, ये सात मोक्षदायिनी पुरियाँ है। ये पुरियाँ सम्पूर्ण देश में अलग-अलग क्षेत्र व दिशा में स्थित होने के कारण राष्ट्र की एकात्मता की सुदूढ़ कड़ियाँ हैं। प्रत्येक भारतीय, भले ही वह किसी भी जाति, पंथ या प्रान्त का हो, श्रद्धा के साथ इन (सप्तपुरियों) की यात्रा के लिए लालायित रहता है।

अयोध्या

भगवान श्रीराम का जन्म-स्थान अयोध्या सरयू के तट पर स्थित अति प्राचीन नगर है। स्वयं मनु ने इस नगर को स्थापित किया। स्कन्दपुराण के अनुसार यह सुदर्शन पर बसी है। अयोध्या शब्द की व्युत्पत्ति को समझाते हुए स्कन्द पुराण कहता है कि अयोध्या शत्रु द्वारा अविजित है। अत: अयोध्या ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश का समन्वित रूप है। सूष्टिकर्ता ब्रह्मा ने स्वयं यहाँ की यात्रा की और ब्रह्मकुण्ड की स्थापना की। इक्ष्वाकुवंशी राजाओं ने इसे अपनी राजधानी बनाया।

श्री राम-जन्मभूमि होने का श्रेय पाने के कारण अयोध्या साकेत हो गयी। मर्यादापुरुषोत्तम के साथ अयोध्या के समस्त प्राणी उनके दिव्य धाम को चले गये, तब श्रीराम के पुत्र कुश ने इसे पुन: बसाया।अयोध्या के इतिहास से पता चलता है कि वर्तमान अयोध्या सम्राट विक्रमादित्य की बसायी हुई है। उन्होंने अयोध्या में सरोवर, देवालय आदि बनवाये । सिद्ध सन्तों की कृपा से राम-जन्मस्थल पर दिव्य मन्दिर का निर्माण कराया। यह कोटि-कोटि हिन्दुओं का श्रद्धा-केन्द्र रहा है। यह कसौटी के ८४ स्तम्भों के ऊपर आधारित था। मुस्लिम आक्रान्ता बाबर ने सन १५२८ ई. में इस भव्य मन्दिर का विध्वंस कर दिया और इसके अवशेषों से अधूरी मस्जिद (बिना मीनार के तीन गुम्बद) बनवा दी। रामभक्तों ने जन्म-स्थान परपूजा का अधिकार कभी नहीं छोड़ा और न ही उस पर विधर्मियों के अधिकार को स्वीकार किया। अत: सतत संघर्ष करते रहे। इस संघर्ष में 7 युद्धों में तीन लाख से अधिक रामभक्तों ने अपने प्राणों की आहुति दी।

इसी संघर्ष की कड़ी में संवत २०४६ वि. में देवोत्थान एकादशी को नये मन्दिर के निर्माण के लिए शिलान्यास का कार्य सम्पन्न हुआ। सन २०४७ को देवोत्थान एकादशी को मन्दिर-निर्माण के कार्य को आगे बढ़ाने के लिए प्रतीक रूप में कार्य सेवा का श्रीगणेश हुआ। अयोध्या न केवल वैष्णव सम्प्रदाय वरन् शैव, शाक्त, बौद्ध, जैन सभी मतमतान्तरों का पवित्र स्थान है। दशम गुरु श्री गोविन्दसिंह ने रामजन्मभूमि की मुक्ति का प्रयास किया था।

यहाँ पर हनुमानगढ़ी मन्दिर, कनक भवन, सीता रसोई, नागेश्वर मन्दिर, दर्शनेश्वर शिव मन्दिर आदि धार्मिक स्थान विद्यमान हैं। रामघाट, स्वर्गद्वार, ऋणमोचन,जानकी घाट, लक्ष्मण घाट आदि सरयू-तट पर बने घाट हैं जहाँ डुबकी लगाकर तीर्थयात्री धन्य हो उठता है।

मथुरा

यमुना के दायें किनारे पर स्थित पावन नगरी मथुरा है। इसकी स्थापना भगवान राम के छोटे भाई शत्रुघ्न ने त्रेतायुग में लवणासुर को मार कर की थी। कालान्तर में यह नगर यादवों के द्वारा शासित हुआ। सत्ययुग में इसका नाम मथुरा या मधुवन था। नारद के निर्देशानुसार ध्रुव ने यहीं पर तपस्यारत रहकर भगवत्-प्राप्ति की। बाद में मधु नामक राक्षस ने मथुरा या मधुपुरी नामक नगर बसाया। इसी मधु और उसके पुत्र लवणासुर को मार कर शत्रुघ्न ने इसे पुन: बसाया। यदुवंशी राजा उग्रसेन के शासन-काल में मथुरा का वैभव शिखर पर था, परन्तु उनके बेटे कंस ने अपने पूर्वजों के पुण्य को मिट्टी में मिला दिया तथा जनता को संत्रस्त किया। भगवान श्रीकृष्ण ने कंस को मार कर मथुरा का उद्धार किया। यहीं पर कंस किले में लीलाधर श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। सम्राट विक्रमादित्य ने श्रीकृष्ण-जन्मस्थान पर एक भव्य मन्दिर बनवाया जिसे मुगलशासन के समय धर्मान्ध औरंगजेब ने ध्वस्त कर वहाँ एक मस्जिद बनवा दी ।

मथुरा में अनेकघाट तथा प्राचीन मन्दिरहैं। द्वारिकाधीश जी का सबसे प्रसिद्ध मन्दिर है। मथुरा के चार कोनों पर चार शिवमन्दिर-भूतेश्वर, रंगेश्वर, पिपलेश्वर तथा गोकणोश्वर विराजमान हैं। वाराह मन्दिर, श्रीराधाविहारी मन्दिर, चामुण्डा मन्दिर (शक्तिपीठ) श्रीराम मन्दिर अन्य प्रमुख मन्दिर हैं। मथुरा के पास ही वृंदावन का पावन क्षेत्र है जहाँ अनेक मन्दिर तथा श्रीकृष्ण व राधा से सम्बन्धित स्थल हैं। वराहपुराण, भागवत, महाभारत, बौद्धग्रन्थों में मथुरा का वर्णन आया है। यह मोक्षदायिनीपुरी है तथा सब प्रकार के पापों का शमन करनेवाली नगरी हैं।

हरिद्वार (माया)

पावन क्षेत्र हरिद्वार को मायापुरी या गंगाद्वार नाम से भी जाना जाता है। मुसलमान इतिहासकार इस तीर्थ को गंगद्वार, वैष्णव हरिद्वार तथा शैव हरिद्वार के नाम से पुकारते हैं। टीम कोयराट ने, जिसने जहांगीर के शासनकाल में यहां की यात्रा की, इसे "शिव की राजधानी' बताया। चीनी यात्री हवेनसांग ने भी अपने यात्रा-वृत्तांत में हरिद्वार का वर्णन किया है। पवित्र गँगा ३२० कि.मी. की पर्वत-क्षेत्र की यात्रा करने के बाद यहीं पर मैदानी भाग में प्रवेश करती हैं। यहाँ अनेक नवीन-प्राचीन आश्रम, मन्दिर तथा तीर्थक्षेत्र हैं। विल्वकेश्वर, नीलकण्ठ, गांगद्वार, कनखल तथा कुशावर्त प्रमुख तीर्थक्षेत्र हैं। दक्ष प्रजापति ने कनखल में ही वह इतिहास-प्रसिद्ध यज्ञ किया था जिसका सती के यज्ञागिन में जल जाने पर शिवगणों ने विध्वंस कर दिया था। हरिद्वार में कुंभ का मेला प्रति 12 वें वर्ष लगता है। हरिद्वार में भारत में विकसित सभी पंथ-सम्प्रदायों के पवित्र स्थान विराजमान हैं। यहाँ के हरि की पौड़ी तथा अन्य घाटोंपर गांगास्नान करने से अक्षय पुण्य मिलता है। हरिद्वार के आसपास के क्षेत्र में सप्तसरोवर, मनसादेवी, भीमगोड़ा, ऋषिकेश आदि तीर्थ स्थापित हैं। भारत की सांस्कृतिक व धार्मिक सम्पदा का दिग्दर्शन कराने वाला सात मंजिला 'भारत माता मन्दिर’ निवर्तमान जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी सत्यमित्रानन्दजी के अथक प्रयासों से बन चुका है। तार्किक व वैज्ञानिक स्तर पर धार्मिक मूल्यों के संरक्षण में रत "शान्तिकुंज" और "ब्रह्मवर्चस" हरिद्वार में ही हैं।

काशी

पूर्वी उत्तर प्रदेश में गंगा के तट पर स्थित, भगवान् शांकर की महिमा से मण्डित काशी (वाराणसी) को विश्व का प्राचीनतम नगर होने का गौरव प्राप्त है। यहाँ परशक्तिपीठ है, ज्योतिर्लिग है तथा यह सप्तपुरियों में से एक है। ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण, नारद पुराण, महाभारत, रामायण, स्कन्द पुराण आदि ग्रन्थों में काशी का वैभव-वर्णन श्रद्धा के साथ किया गया है। वरणा व असी नदी के मध्य स्थित होने के कारण इसका वाराणसी नाम प्रसिद्ध हुआ। बौद्धतीर्थ सारनाथ पास में ही स्थित है। विभिन्न विद्याओं के अध्ययन-केन्द्र, सभी पंथ-सम्प्रदायों के तीर्थ स्थल तथा भगवत्प्राप्ति के परम उपयुक्त क्षेत्र के रूप में काशी की प्रतिष्ठा है। शैव, शाक्त, वैष्णव, बौद्ध, जैन पंथों के उपासक काशी को पवित्र मानकर यात्रा-दर्शन करने यहाँ आते हैं। सातवें तथा तेइसवें तीर्थकरों का यहाँ आविर्भाव हुआ। भगवान बुद्ध ने अपना पहला उपदेश सारनाथ में दिया। आदि शंकराचार्य ने अपनी धार्मिक दिग्विजय यात्रा यहीं से प्रारंभ की थी। कबीर, रामानन्द, तुलसी सदृश संतों ने काशी को अपनी कर्मभूमि बनाया। काशी में शास्त्रों के अध्ययन, अध्यापन की प्राचीन परम्परा रही है। भारत की सांस्कृतिक एकता को अक्षुण्ण रखने में काशी ने भारी योगदान किया है। यहाँ पर तीन विश्वविद्यालय तथा कई संस्कृत अध्ययन केन्द्र हैं। प्रसिद्ध ज्योतिर्लिग काशी विश्वनाथ मन्दिर को औरंगजेब ने ध्वस्त कर उसके भग्नावशेषों पर मस्जिद बनवायी। कालान्तर में महारानी अहिल्याबाई ने मस्जिद के पास ही नवीन विश्वनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा करायी । महाराज रणजीत सिंह ने मन्दिर पर स्वर्णआच्छादित शिखर चढ़ाया। काशी विश्वनाथ के मूल स्थान को मुक्त कराने के प्रयास तेज हो गये हैं। मणिकर्णिका घाट, दशाश्वमेध घाट, केदारघाट, हनुमान घाट प्रमुख घाट हैं। हजारों मन्दिरों की नगरी काशी भारत की सांस्कृतिक राजधानी कही जा सकती है।

द्वारिकापुरी

भगवान् कृष्ण की प्रिय द्वारिका (गुजरात)में समुद्र-तट पर स्थित है। इसका विस्तृत विवरण चारधाम खण्ड में किया जा चुका है।

कांचीपुरम

उत्तर भारत में जो स्थान काशी को प्राप्त हैं. दक्षिण भारत में वही स्थान कांचीवरम् या कांची पुरम् को प्राप्त है। इसे दक्षिण की काशी कहा जाता है। कांची पुरम् तमिलनाडु के चिंगल पेठ जिले में मद्रास से लगभग ४० कि. मी. दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। यह पल्लव राजाओं की राजधानी रही है। प्राचीन काल से शैव, वैष्णव, जैन तथा बौद्ध मतावलम्बी लोगों का यह प्रधान तीर्थ क्षेत्र रहा है। इस नगर के शिवकांची व विष्णुकांची नाम के दोभाग हैं। इस नगर में १०८ शिवस्थल माने गये हैं। कामाक्षी, एकाम्बर नाथ, कलासनाथ, राजसिंहेश्वर, वरदराज नामक यहाँ के प्रमुख मन्दिर हैं। जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने यहाँ कामकोटि पीठ की स्थापना की। रामानुजाचार्य के तत्त्वज्ञान का उद्गम-स्थान कांचीवरम् ही है। बौद्ध विद्वानों- नागार्जुन, बुद्धघोष, दिडनाग आदि का निवास भी कांची में था। ब्रह्मपुराण के अनुसार कांची को भगवान् शिव का नेत्र माना गया है। कांची ५१ शक्ति पीठों में से भी एक है। यहाँ सती का कंकाल गिरा था। कामाक्षी मन्दिर को शक्तिपीठ माना गया हैं।

अवन्तिका

क्षिप्रा नदी के दायें तट पर बसा मध्य प्रदेश का यह प्रसिद्ध नगर द्वादश ज्योतिर्लिगों में महाकालेश्वर के नाम से जाना जाता हैं। वर्तमान समय में इसे उज्जैन या उज्जयिनी कहते हैं। कनकश्रृंग, कुशस्थली, कुमुदवती, विशाला नाम से भी यह नगर जाना जाता रहा है।भगवती सती का ऊध्र्व ओष्ठ यहाँ पर गिरा था। अत: यहाँ क्षिप्रा नदी के तट पर शक्तिपीठ की स्थापना की गयी । भगवान शंकर ने त्रिपुरासुर-वध यहीं किया था। आचार्यश्रेष्ठ सांदीपनि का आश्रम उज्जयिनी में ही था जहाँ कृष्ण ने सुदामा के साथ विभिन्न विद्याओं में कुशलता प्राप्त की। प्रति बारहवें वर्ष जब सूर्य मेष राशि में तथा बृहस्पति सिंह राशि में आते हैं तो महान पर्व कुंभ का आयोजन यहाँ पर किया जाता है। इस महापर्व पर सम्पूर्ण देश के श्रद्धालुओं का बृहत्समागम होता है। सन्तमण्डली एकत्रित होकर समाज में हो रहे विकास व परिवर्तन का विश्लेषण करती है और जीवन-मूल्यों की रक्षा के लिए मार्गदर्शन करती है। मौर्यकाल में उज्जयिनी मालवा प्रदेश की राजधानी थी। सम्राट अशोक के पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा ने यहीं प्रव्रज्या धारण की। यह कई महाप्रतापी सम्राटों की राजधानी भी रही।भर्तृहरि, विक्रमादित्य, भोज ने इसके वैभव को बढ़ाया। कालिदास, वररूचि, भर्तृहरि, भारवि आदि श्रेष्ठ कवि-लेखकों, भाषाशास्त्रियों तथा प्रख्यात ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर का कार्यक्षेत्र अवन्तिका रही है। भगवान् बुद्ध के समय में अवन्तिका राजगृह से पेठाणा जाने वाले व्यापारिक मार्ग की विश्राम-स्थली थी। महाभारत स्कन्दपुराण, शिवपुराण, अग्निपुराण में उज्जयिनी की महिमा का वर्णन किया गया है। महाकाल यहाँ का सबसे प्रमुख मन्दिर है। हरसिद्धिदेवी, गोपाल मन्दिर, गढ़कालिका, कालमैरव, सिद्धवट, सांदीपनि आश्रम, यन्त्रमहल, भर्तृहरि गुफा यहाँ के महत्वपूर्ण स्थल हैं।

द्वादश ज्योतिर्लिंग

अनादि काल सेभारत एक इकाई के रूप में विकसित हुआ है। यहाँ विकसित सभी मत-सम्प्रदायों के तीर्थ-स्थान सम्पूर्ण देश में फैले हैं।शैव मत केअनुयायियों के लिए पूज्य १२ शिव-मन्दिरों के शिवलिंगों कोद्वादश ज्योतिर्लिग नाम से अभिहित किया गया है। ये सम्पूर्ण देश में फैले होने के कारण राष्ट्र की एकात्मता के भी प्रतीक हैं। शिव पुराण में वर्णन आया है कि आशुतोष भगवान् शांकरप्राणियों के कल्याण के लिए तीर्थों में वास करते हैं। जिस-जिस पुण्य क्षेत्र में भक्तजनों ने उनकी अर्चना की, उसी क्षेत्र में वे आविभूत हुए तथा ज्योतिर्लिग के रूप में स्थित हो गये। उनमें से सर्वप्रमुख 12 की गणना द्वादश ज्योतिर्लिगों के रूप में की जाती है, जो निम्नलिखित हैं :

सौराष्ट्र सोमनाथ च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।

उज्जयेिन्यां महाकालामोडकारं परमेश्वरम् ।

केदारं हिमवत्पृष्ठे डाकिन्याँ भीमशंकरम्।

वाराणस्याँच विश्वेश त्रयम्बक गोतमी तटे।

वैद्यनाथ चिताभूमो नागेश दारुका बने।

सेतुबन्धे च रामेश घुश्मेशां च शिवालये।

द्वादशैतानि नामांनि प्रातरुत्थाय य: पठेत्।

सप्तजन्म कृर्त पाप स्मरणेन विनश्यति।

सोमनाथ

सौराष्ट्र (काठियावाड़) प्रदेश में स्थित सोमनाथ द्वादश ज्योतिर्लिगों में प्रथम है। दक्ष प्रजापति के शाप सेमुक्ति के लिए चन्द्रमा ने यहाँ तप किया मत्र्यलोके महाकाल लिंगत्रयं नमोस्तुते। तथा शापमुक्त हो गये। भगवान् श्री कृष्ण केचरणोंमें यहीं परजरा नामक व्याध का बाण लगा। इस प्रकार यह स्थान उनकी अन्तिम लीलास्थली रहा है। ऋग्वेद, स्कन्द पुराण, श्रीमद्भागवत, शिव पुराण, महाभारत आदि ग्रन्थों में प्रभास क्षेत्र की महिमा का विस्तार से वर्णन किया गया हैं। अति प्राचीन काल से यह स्थान पूजित रहा है। ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि यहाँ ६४९ ईसा-पूर्व भव्य मन्दिर था जो विदेशी समुद्री डाकुओं के अत्याचार का शिकार हुआ। ईसवी सन् ४०६ में सोमनाथ देवस्थानम् फिरअस्तित्व में था, इसके प्रमाण हैं। सन् ४८७ के आसपास शैवभक्त वल्लभीशासकों ने इसका पुनर्निर्माण कराया।एक शिलालेख के अनुसार मालवा के राजा भोजराज परमार ने भी इसका निर्माण कराया। मुसलमान इतिहासकारों नेइसके वैभव का वर्णन किया है।इब्न असीर ने इसके रख रखाव तथा पूजन-अर्चन के विषय में लिखा है : "१० हजार गाँवों के जागीर मन्दिर के लिए निर्धारित है। मूर्ति के अभिषेक के लिए गांग-जल आता है। १००० पुजारी पूजा करते हैं। मुख्य मन्दिर ५६रत्नजटित खंभो परआधारित है।" यहाँ पर चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण, पूर्णिमा (श्रावण मास की) तथा शिवरात्रि के अवसरों पर बृहत् मेलों का आयोजन किया जाता था, जिनमें पूरे देश से भक्तजन व व्यापारी आते थे। अरब, ईरान से भी व्यापारी यहाँ पर आते थे। सन् १०२५ में महमूद गजनवी की गिद्ध दृष्टि मन्दिर की सम्पत्ति पर पड़ी और उसने इसकी पवित्रता नष्ट कर अकूत सम्पत्ति लूटी। परन्तु गुजरात के महाराजा भीम ने इसका पुनर्निर्माण करा दिया। सन ११६९ में राजा कुमारपाल ने यहाँ एक मन्दिर बनवाया। सिद्धराज जयसिंह ने भी मन्दिर कीपुन:प्रतिष्ठा में सहायता की। परन्तु मुसलमान आक्रमणकारियों के अत्याचार बन्द नहीं हुए। सन् १२९७ में अलाउद्दीन खिलजी ने, सन १३९० में मुजफ्फरशाह प्रथम ने, १४९० में मोहम्मद बेगड़ा ने, सन् १५३० में मुजफ्फरशाह द्वितीय ने तथा सन् १७०१ में औरंगजेब ने इस मन्दिर का विध्वंस किया। सन् १७८३ ई. में महारानी अहिल्याबाई ने भी यहाँ एक मन्दिर बनवाया। इस प्रकार दासता के कालखण्ड में यह अनेक बार टूटा और हर बारइसका पुनर्निर्माण कराया गया।अन्त में भारत के स्वतन्त्र हो जाने पर लौह पुरुष सरदार पटेल की पहल पर मूल ब्रह्मशिला परभव्य डा. राजेन्द्र प्रसाद ने मन्दिर में ज्योतिर्लिग स्थापित कर उसकी प्राण-प्रतिष्ठा करायी।इस प्रकार सोमनाथ मन्दिर फिर अपने प्राचीन गौरव के अनुकूल प्रतिष्ठित हो गया।

मल्लिकार्जुन

मल्लिकार्जुन नामक ज्योतिर्लिग श्रीशैल पर्वत पर स्थित है। श्रीशैल आन्ध्र प्रदेश में कर्नूल जिले के अन्तर्गत पवित्र कृष्णा नदी के तटपर है। इसे दक्षिण का कैलास भी कहा जाता है। कृष्णा नदी की जिस शाखा पर यह तीर्थ स्थित हैं उसे पातालगंगा नाम दिया गया है। श्रीशैल पर भगवान शंकर पार्वती के साथ सदैव विराजमान रहते हैं. यह मान्यता हैं। यहाँ पार्वती को मल्लिका तथा शिव को अर्जुन नाम दिया गया है। पौराणिक कथा के अनुसारअपने रुष्टपुत्र स्वामी कार्तिकेय को मनाने के लिए शिव-शक्ति यहाँ पधारे और ज्योतिर्लिग के रूप में विराजमान हो गये ।एक स्थानीय कथा के अनुसार एक राजकन्या अपने पिता के दुर्व्यवहार से बचने के लिए श्रीशैल पर्वत पर गोप-ग्वालों के मध्य रहने लगी। ग्वालों की एक शयामा गाय थी जो खूब दूध देती थी। कुछ दिन उस गाय ने दूध देना बन्द कर दिया । जाँच करने पर पता चला कि गाय स्वेच्छा से शिखर पर स्थित शिवलिंग पर अपना दूध चढ़ा देती है। तब वहाँ एक मन्दिर का निर्माण कराया गया और शिवलिंग मल्लिकार्जुन के नाम से जगतप्रसिद्ध हुआ। यहाँ पर स्थित एक शिलालेख के अनुसार स्वयं शिव एक आखेटक के रूप में पधारे तथा यहाँ के शान्त और मनोरम वातावरण के कारण यहीं विराजित हो गये । इस मन्दिर को पुरातत्वेत्ता डेढ़ से दो हजार वर्ष पुराना मानते हैं। शिवरात्रि के अवसर पर यहाँ विशाल मेला लगता है। मन्दिर की पश्चिमी दिशा में जगदम्बा का मन्दिर हैं। यहाँ पर पार्वती को माधवी या भ्रमराम्बा के नाम से पुकारा जाता है।भ्रमराम्बा ५१ शक्तिपीठों में से एक है। नवरात्र में यहाँ मेला लगता है। यहाँ पर सती की ग्रीवा का पतन हुआ था। महाभारत के वन पर्व, शिव पुराण तथा पद्म पुराण में इस क्षेत्र के मन्दिर का निर्माण कराया गया। ११ मई १९५१ को भारत के प्रथम राष्ट्रपति महात्म्य का वर्णन किया गया है।

महाकालेश्वर

महाकालेश्वर ज्योतिलिंग क्षिप्रा नदी के तट पर स्थित उज्जयिनी (अवन्तिक) नगरी में है। उज्जयिनी भारत की सप्तपुरियों में से एक है। सप्तपुरी प्रकरण में इसका वर्णन है।

ओम्कारेश्वर

ओम्कारेश्वर मध्यभारत का प्रमुख पावन तीर्थ स्थल है।भारत के तीर्थ स्थानों की परम्परा मेंइसका अति महत्वपूर्ण स्थान है। नर्मदा(रेव) नदी के पवित्र तट पर स्थित ओम्कारेश्वर मन्दिर शिवभक्तों को अतिप्रिय हैं। नर्मदा नदी यहाँ कई शाखाओं में बंट कर बहती है। जिससे नदी के मध्य एक द्वीप बन जाता है। इसे मान्धाता द्वीप या शिवपुरी कहा जाता है। यह ज्योतिर्लिग दो स्थानों पर ओम्कारेश्वर तथा अमरेश्वर के रूप में स्थित है इक्ष्वाकु वंशीय राजा मान्धाता ने यहाँ भगवान् शिव की पूजा की थी। तपस्या से प्रसन्न शिव ने यहीं लिंग रूप में रहने का आश्वासन दिया। ओम्कारेश्वर अनगढ़ प्रतिमा है जिसके चारों ओर जल भरा रहता है। शिव-विग्रह के पास में ही पार्वती की, और मन्दिर के परकोटे में पंचमुखी गणेश जी की प्रतिमा है। प्रतापी पेशवाओं ने इसका जीणोद्धार कराया।अमरेश्वर तीर्थ भी इसी से सम्बन्धित है। यहाँ पर रानी अहिल्याबाई का बनवाया हुआ मन्दिर हैं ।

ओम्कारेश्वर / अमरेश्वर के सम्बन्ध में पौराणिक उल्लेख इस प्रकार है:

विंध्याचल पर्वत ने ऑकारेश्वर की पूजा की। पूजा से शिव प्रसन्न हुए, तब विन्धय ने पार्थिव तथा यत्र रूप में शिव को वहीं विराजित रहने की प्रार्थना की। तभी यह ज्योतिर्लिग दो स्थानों पर अवस्थित हो गया । कार्तिक मास की पूर्णिमा व महाशिवरात्रि पर यहाँ विशाल मेला लगता हैं।भक्त सच्चे मन से पूजा कर अपनी मनोकामना पूर्ण करते हैं।

केदारनाथ

हिमालय के सुरम्यक्षेत्र में केदारपर्वत पर केदारेश्वर अथवा केदारनाथ ज्योतिर्लिग विराजमान है। सत्ययुग में उपमन्यु ने यहाँ भगवान् शिव की आराधना कीथी।द्वापरमें पाण्डवों ने भी यहाँ तपस्या की थी। शिव पुराण के अनुसार नर-नारायण ने इस क्षेत्र में भगवान् शिव की आराधना की। उससे प्रसन्न हो शिव ने वर माँगने को कहा तो उन्होंने शिव से लोक-कल्याण के लिए वहीं प्रतिष्ठित होने की प्रार्थना की, फलस्वरूप देवाधि-देव केदार तीर्थ में ज्योतिर्लिग के रूप में स्थित हो गये । स्कन्द पुराण मेंभी केदार क्षेत्र का उल्लेख आया है। महाभारत के वनपर्व में इस क्षेत्र का वर्णन आया है। इसक्षेत्र में स्नान-दान सेअक्षयपुण्य प्राप्त होता है।भारवि व कालिदास ने इस क्षेत्र कीप्राकृतिक सुषमा तथा आध्यात्मिक शान्ति का मार्मिक चित्रण किया है। यहीं अर्जुन ने दिव्यास्त्रों कीप्राप्ति के लिए तपस्या की। तब उसकी परीक्षा के लिए किरात रूप में शांकर ने युद्ध किया और प्रसन्न होकर पाशुपत अस्त्र प्रदान किया। केदार क्षेत्र सिद्धों यक्षों तथा साधुओं का निवास है। भगवान् शिव यहाँ योग मुद्रा में विराजमान हैं।

केदारनाथ समुद्रतल से ६९४० मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ सदैव हिम जमा रहता है। ग्रीष्म ऋतु में हिम पिघलने परमन्दिर के कपाट कुछ दिनों के लिए खुलते हैं, तभी केदारेश्वर के दर्शन होते हैं। केदारनाथ के पास से मन्दाकिनी नदी निकलती हैं। यह नदी रुद्र प्रयाग में अलकनन्दा में मिल जाती है जो आगे चलकर भागीरथी से मिलकर पतित पावनी गंगा का रूप लेती है।पास में ही गौरीकुण्ड हैजहाँ भगवती पार्वती ने स्नान किया था। भगवान् शिव औरपार्वती के विवाह के साक्षी रूप प्रज्वलित अग्नि अग्निकुण्ड के रूप में आज भी विद्यमान है। हरिद्वार में कुंभ और अर्द्धकुंभ के अवसरपर केदारनाथ की यात्रा का विशेष महात्म्य है।

भीमाशंकर

देवाधिदेव भगवान् शंकर के प्रमुखतम ज्योतिर्लिगों में एक भीमशंकर है। इसकी स्थिति कई स्थानों पर मानी गयी है। शिवपुराण में कोटिरुद्रसंहिता अध्याय 20 के अनुसार भीम-शंकर मन्दिर कामरूप(असम) प्रदेश मेंगोहाटी के निकटब्रह्मापुर पर्वत पर स्थित है। स्थानीय राजा शिव के अनन्य उपासक थे। एक बार भीमक नामक राक्षस ने उसके राज्य में भयंकर उत्पात मचाया। उस राक्षस ने पूजा में रात शिवभक्तों को मारने के लिए ज्योंही तलवार से वार करना चाहा, भगवान् शांकर ने स्वयं प्रकट होकर राक्षस का वध कर डाला। तब से राजा की प्रार्थना परभगवान् ज्योतिर्लिग के रूप में ब्रह्मपुत्र पर्वत पर विराजमान् हो गये। शिवपुराण के इसी अध्याय मेंआये वर्णन के अनुसारभगवान् यहाँ अवतीर्ण हुए तथा उनका मूल निवास सहयाद्रि है। भीमा नदी के तटपर सहयाद्रि पर्वतमाला में यह भव्य किन्तु प्राचीन मन्दिर है। जहाँ पर यह मन्दिर है उसे डाकिनी शिखर भी कहते हैं। यहाँ नाना फडनवीस का बनवाया हुआ एक नया तथा भव्य मन्दिरभी है।पुराण-कथा के अनुसार त्रिपुरासुर को मारने के बाद भगवान् शांकरइस स्थान पर विश्राम करने के लिए रुक गये। स्थानीय राजा भीमक की प्रार्थना पर भगवान् शिव लोककल्याण हेतु यहीं पर अवस्थित हो गये। कुछ लोग भीम शांकर की स्थिति उत्तर प्रदेश के नैनीताल जिलों में काशीपुर के पास मानते हैं। यहाँ उज्जनक नामक गाँव में भीमशंकर महादेव का भव्य व विशाल मन्दिर है। शिवपुराण में डाकिनी में भी शांकर की स्थिति बतायी है। स्थानीय जनता के अनुसार यहाँ का पुराना नाम डाकिनी था। सभी स्थानों पर विशेष पर्व पर मेले लगते हैंऔर दूर-दूर से भक्तजन आते हैं।

विश्वनाथ

विश्वनाथ ज्योतिर्लिग काशी में विराजमान है। यह अति प्राचीन तीर्थ स्थान है। भगवान् शिव को काशी सर्वाधिक प्रिय है। धार्मिक व ऐतिहासिक सांस्कृतिक महत्व की काशी नगरी का वर्णन व महात्म्य अनेक ग्रन्थों में किया गया है। यह मोक्षप्रदायिनी सप्तपुरियों में प्रमुख है। इसका विस्तृत वर्णन सप्तपुरी प्रकरण में किया जा चुका है।

त्रयम्बकेश्वर

दक्षिण-गंगा, पुण्यसलिला गोदावरी के तट पर प्रसिद्ध त्रयम्बकेश्वर महादेव के रूप में ज्योतिर्लिग विराजमान है। पास में ही थोड़ी दूर पर ब्रह्मगिरि पर्वत से गोदावरी निकलती है। नासिक त्रयम्बकेश्वर से लगभग १० कि. मी. दूरी पर स्थित है। ब्रह्मगिरि पर्वत पर सिद्ध ऋषि गौतम तपस्यारत थे। उनकी तपस्या के फलस्वरूप गोदावरी अवतरित हुई तथा सारा क्षेत्रधन-धान्य से भरपूर हो गया। गोदावरी का दूसरा नाम गौतमी भी है। गौतमी और ऋषि की प्रार्थना पर भगवान् शिव ने पुण्यतोया गोदावरी के तट पर सदैव वास करने की कृपा की और त्रयम्बकेश्वर के नाम से पूजित हुए। त्रयम्बकेश्वर इहलोक में सभी इच्छाओं को पूर्ण करनेवाले तथा मोक्षप्रदाता हैं। कुंभ-स्नान के समय सभी तीर्थ गोदावरी तट पर आकर विराजमान हो जाते हैं। मुख्य मन्दिर में तीन छोटे विग्रह

हैं जो ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के प्रतीक हैं।थोड़ी दूरी पर कुशावर्त सरोवर है। तीर्थयात्री इस सरोवर की परिक्रमा करते हैं। पास में गंगा मन्दिर तथा परशुराम, गायत्री आदि के मन्दिर हैं। ब्रह्मगिरेि पर पहुँचने के लिए ७०० सीढ़ियाँ पार करनी पड़ती हैं। इनके दूसरी ओर राम व लक्ष्मण कुण्ड विद्यमान हैं।

वैद्यनाथ

“वैद्यनाथ चिता भूमौ" के अनुसार जसी डीह के देवधन में वैद्यनाथ ज्योतिर्लिग के रूप में शिव सनातन समय से विराजमान हैं। "परल्याँ वैद्यनाथ च" के अनुसार पूर्व-रियासत हैदराबाद के परली गाँव के शिवमन्दिर को इस ज्योतिलिंग का स्थान होने का श्रेय प्राप्त है। शिवपुराण तथा बृहद्धर्म केअनुसार बंगाल के जिला सन्थाल परगना के अन्तर्गत स्थितवैद्यनाथ चिताभूमि में होने के कारण वास्तविक ज्योतिलिंग है। त्रेतायुग में लंकेश रावण ने शिवजी को प्रसन्न करने के लिए कलास पर्वत पर कठोरतपस्या की। उसकी तपस्या से प्रसन्न शिव ने इस शर्त पर कैलास -स्थित विग्रह को लंका ले जाने की अनुमति दी कि वह मार्ग में विग्रह को भूमि पर नहीं रखेगा। रावण उसे लेकर चला तो चिताभू मे आने पर उसे लघुशका अनुभव हुईऔर पास में खड़े एक गोप को वह विग्रह थमाकर लघुशंका से निवृत्त होने चला गया। परन्तु गोप उसका भार संभाल न सका तथा उसने उसे भूमि पर रख दिया। वापस आने पर रावण के लाख प्रयन्त करने परभी जब शिवलिंग टस से मस न हुआ तो उसे वहींछोड़कर वह लंका चला गया। तब सभी देवों ने विधिवत शिविलिंग को वहीं पूजा कर प्रस्थापित कर दिया। यही वैद्यनाथ ज्योतिर्लिग के रूप में प्रसिद्ध हो गया। यह मनोकामना पूर्ण करने वाला तीर्थ है। दूर-दूर से तीर्थयात्री पवित्र नदी-सरोवरों का जल लाकर यहाँ चढ़ाते हैं। इसी स्थल ;पर सती का हुदय गिरा था, अत: शक्तिपीठ के रूप में भी इसकी मान्यता है।भगवती शक्ति का मन्दिर भी यहाँ बना हुआ है। परली-स्थित ज्योतिर्लिग परभनी के पास एक पर्वत-शिखर पर बने मन्दिर में विराजमान है।इसके पास से एक छोटी नदी बहती हैऔरछोटा सा शिवकुण्ड नामक सरोवर भी है।

वैद्यनाथ ज्योतिर्लिग तीर्थक्षेत्र में कार्तिक, माघ और फाल्गुन की पूर्णिमा व चतुर्दशी को मेला लगता है।

नागेश्वर

नागेश्वर ज्योतिर्लिग तीन स्थानों पर अवस्थित माना गया है।शिवपुराण के वर्णन के अनुसारद्वारिका के पास स्थित नागेश्वर की ज्योतिर्लिग के रूप में पुष्टि दृढ़ होती है।इस ज्योतिलिंग की स्थापना की कथा एक शिवभक्त सुप्रिय व्यापारी से सम्बन्धित है। एक राक्षस ने सुप्रिय को उसके अनुचरों सहित बन्दी बना लिया। दारुक नामक उस राक्षस ने उन सबकी हत्या करने की ठानी, परन्तु भगवत्-कृपा से सुप्रिय को एक दिव्यास्त्र प्राप्त हो गया जिससे उसने उस राक्षस का वध कर डाला और शिवधाम को प्राप्त हुआ। दूसरा स्थान जो नागेश्वर ज्योतिर्लिग से सम्बन्धित है, महाराष्ट्र में औण्ढा नागनाथ ग्राम है। गुछ लोगों के मतानुसार उत्तर प्रदेश प्रान्त के अल्मोड़ा से २८ कि. मी. उत्तर में स्थित जागेश्वर शिवलिंग नागेश्वर है। इसके आसपास कई मन्दिर व रमणीक स्थल हैं। आसपास ही वेणीनाग, धौले, कालिया जैसे नागों के स्थल होने के कारण भी यह स्थान नागेश्वर कहलाता है।

रामेश्वरम

यह ज्योतिर्लिग भगवान् श्रीरामद्वारा स्थापित है,इस कारण ही इसका नाम रामेश्वर हुआ। भारत के चारों कोनों में स्थित चार धामों में से रामेश्वरम् एक है।चारोंधामों का वर्णन करते समय इसका विस्तृत विवरण पहले प्रस्तुत किया जा चुका है।

घुश्मेश्वर

द्वादश ज्योतिलिंग में अन्तिम घुश्मेश्वर है। घुश्मेश्वर या घुसुणेश्वर नाम से भी इसका वर्णन किया जाता है । घुश्मेश्वर मंदिर दौलताबाद (देवगिरि) के पास स्थित वेरूल गाँव में है। यह प्रसिद्ध गुफा-मन्दिर एलोरा से मात्र एक-डेढ़ किमी.पर है। कुछ महानुभाव एलोरा के कैलास मन्दिर को ही घुश्मेश्वर मानते हैं। घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिग की स्थापना पतिपरायणा तथा शिवभक्ति घुश्मा की तपस्या तथा निष्काम भावना के कारण हुई। घुश्मा का अतीव सुन्दर बालक उसकी सौत सुदेहा के षड्यंत्र का शिकार हुआ। सुदेहा ने बालक के शव को एक सरोवर में फेंकवा दिया। घुश्मा सदैव की भांति शिवपूजा में व्यस्त रही तथा पूजा-समाप्ति पर जब पार्थिव लिंग विसर्जित कर लौटने लगी तो उसका पुत्र जीवित होकर उसके चरणों में आ गिरा। परन्तु घुश्मा इस सब को प्रभुलीला मानकर आनन्दमग्न हो गयी। तब शिव स्वयं प्रकट हो गये। घुश्मा ने सुदेहा को क्षमा करने की प्रार्थना की, साथ ही लोक-कल्याण हेतु शिव से वहीं विराजित रहने का वर माँगा। भगवान् शांकर एवमस्तु कहकर वहीं वास करने लगे। उसी स्थान पर मन्दिर बना। महारानी अहिल्याबाई ने यहाँ अति सुन्दर मन्दिर का निर्माण कराया। मन्दिर के पास शिवालय नामक पवित्र सरोवर हैं। पास में ही सहसलिंग, पातालेश्वर व सूर्यश्वर के मन्दिर है। शिवपुराण में घुश्मेश्वर की महिमा का वर्णन इस प्रकार है:

"ईदुशां चैव लिंग च दूष्ट्रवा पापै: प्रमुच्यते।

सुख संवर्धते पुसां शुक्ल पक्षे यथा शशी।"

घुश्मेश्वर मन्दिर पर श्रावण पूर्णिमा तथा महाशिवरात्रि के अवसर पर मेला लगता है। दूर-दूर से भक्त यहाँआते और धर्मलाभ प्राप्त करते हैं।

शक्तिपीठ

भारतवर्ष भौगोलिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से एक रहा है । समय - समय पर विकसित उपासना पद्धतियों से इसकी एकात्मता अधिक पुष्ट हुई है । विभिन्न पन्थो के पवित्र तीर्थ समस्त राष्ट्र में फैले हुए है । सम्पूर्ण भारत भूमि उनके लिए पवित्र है । शैव मतावलम्बियों के प्रमुख तीर्थ आसेतु - हिमाचल सभी दिशाओं में फैले है । शक्ति के उपासको के पूज्य तीर्थ शक्तिपीठ भी इसी प्रकार सर्व दूर एकात्मता का सन्देश देते है । इनकी संख्या ५१ है । तंत्र - चूड़ामणि में ५३ शक्ति पीठो का वर्णन किया गया है , परन्तु वामगंड (बाएं कपोल ) के गिरने की पुनरुक्ति हुई है , अतः ५२ शक्ति पीठ रह जाते है । प्रसिद्धि ५१ शक्तिपीठो की ही है । शिव - चरित्र , दाक्षायणीतंत्र एवं योगिनीहृदय - तंत्र में इक्यावन ही गिनाये गये है ।

एक प्रसिद्द पौराणिक कथा के अनुसार आद्या शक्ति ने प्रजापति दक्ष के घर जन्म लिया । प्रजापति दक्ष ने अपनी इस पुत्री का नाम सती रखा । बड़ी होने पर सती ने पति रूप में शिव की प्राप्ति के लिए तप किया । प्रसन्न होकर भगवान शिव ने सती को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया और कैलास पर जा विराजे । कुछ समय पश्चात् प्रजापति दक्ष ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया । इस आयोजन में दक्ष ने भगवान शिव को छोड़कर सभी देवो और देवियों को आमंत्रित किया । पिता के यहाँ यज्ञ होने का समाचार पाकर भगवती सती बिना आमंत्रण के ही पिता के घर जा पहुँची । यज्ञ में शिवजी की उपेक्षा को सती सहन न कर सकी और योगबल से प्रदीप्त अग्नि में प्राण त्याग दिये । समाचार मिलाने पर शिव क्षोभ से भर गये । दक्ष - यज्ञ को नष्ट कर सती के शव को कंधे पर रखकर शिवजी उन्मत हो घुमते रहे । सर्वदेवमय परमेश्वर विष्णु ने शिव - मोह - शमन तथा साधको की सिद्धि एवं कल्याण के लिए सुदर्शन चक्र द्वारा सती के शव के विभिन्न अंगो को भिन्न - भिन्न स्थलों पर गिरा दिया । जहाँ - जहाँ वे अंग पतित हुए (पड़े), वहीँ - वहीँ शक्तिपीठ स्थापित हुए । इनका वर्णन निम्नानुसार है :-

१ . हिंगुला : बलोचिस्तान (वर्तमान पाकिस्तान के अन्तर्गत)प्रान्त में कराची से पश्चिमोत्तर दिशा में लगभग १४५ किलोमीटर दूर हिंगोस नदी के तट पर देवी भैरवी ज्योति के रूप में गुफा के अन्दर प्रतिष्ठित हैं।

२ . किरीट : हावड़ा-बरहरवा मार्ग पर खगराघाट रोड स्टेशन से १२ कि.मी. दूर वटनगर नामक स्थान पर गंगा के पवित्र तट पर देवी विमला रूप में विराजमान है।

३. वृन्दावन : मथुरा में मथुरा-वृन्दावन मार्ग पर स्थित भूतेश्वर महादेव मन्दिर में देवी उमाशक्ति रूप में भूतेश भैरव के साथ पूजित है।

४. करवीर : कोल्हापुर (महाराष्ट्र) का महालक्ष्मी मन्दिर जिसे अम्बाजी का मन्दिर भी कहा जाता है, यहीं पर देवी जाग्रत रूप में महिषमर्दिनी नाम से प्रतिष्ठित है।

५. सुगन्धा : पूर्वी बंगाल (वर्तमान बांगला देश)में उग्रतारा शक्तिपीठ के नाम से विख्यात शिकारपुर नामक ग्राम में देवी सुनन्दा नदी के तट पर स्थित है। आज यहाँ प्राचीन मन्दिर खण्डहर रूप

में अवशिष्ट है।

६. अपणाँ ( करतोया तट) : बांगलादेशान्तर्गत बौगड़ा सयान - स्थानक (रेलवे स्टेशन) से लगभग 32 कि.मी. दूर नैऋत्यकोण (दक्षिण-पश्चिम) में भवानीपुर ग्राम में करतोया नदी के तट पर देवी

अपणाँ नाम से स्थित है। यह स्थान भी आज उपेक्षित पड़ा हैं ।

७. श्रीपर्वत : लद्दाख (लेह) मेंश्रीपर्वत शिखर पर देवी श्रीसुन्दरी रूप में विराजमान है। सिलहट (असम) के पास जैतपुर नामक स्थान पर भी इस पीठ के स्थित होने की बात कही जाती है, परन्तु

पीठ - स्थान की ठीक ठीक जानकारी नहीं मिलाती ।

८. वाराणसी : काशी में गांगा-तट पर स्थित मणिकर्णिका घाट के पास स्थित मन्दिर में देवी विशालाक्षी रूप में कालभैरव के साथ प्रतिष्ठित है।

९. गोदावरी तट : आन्ध प्रदेश की राजमहेन्द्री नगरी के समीप गोदावरी नामक संयान-स्थानक (रेलवे स्टेशन) है। यहीं पर गोदावरी नदी के तटपर कुब्बूर नामक स्थान के कोटितीर्थ में देवी

विश्वमातृका रूप में विराजमान व पूजित है।

१० .गण्ड़की : नेपाल में गण्डकी के उद्गम स्थल पर मुक्तिनाथ मन्दिर में सिद्धपीठ है। यहीं पर आद्याशति देवी गण्डकी के रूप में स्थित है।

११. शुचि (शुवीन्द्रम्) : कन्याकुमारी से १२ किलोमीटर दूर शुचीन्द्रम में स्थाणु शिवमन्दिर में यह शक्तिपीठ है। यहाँ देवी नारायणी रूप में संहार भैरव के साथ विराजमान है।

१२. पंच सागर : सती की अधोदन्त-पत्ति (निचले जबड़े के दांत) सागर के मध्य पतित हुई।अत: सागर में देवी अम्बिका रूप में महारुद्र भैरव के साथ प्रतिष्ठित है। कुछ विद्वान मीनाक्षी मन्दिर

मदुराई में इसकी स्थिति मानते हैं।

१३. ज्वालामुखी : पठानकोट से वैद्यनाथ जाने वाले संयान मार्ग (रेलवे लाइन) पर ज्वालामुखी स्थानक से २५ कि.मी. दूर यह शक्तिपीठ हैं। यहाँ पर देवी ज्वाला रूप में प्रतिष्ठित हैं।

१४. भौरव पर्वत : उज्जैन (अवन्तिका) में क्षिप्रा तट पर स्थित भैरव पर्वत पर देवी अवन्ती नाम से प्रतिष्ठित हैं। गिरनार में भी भैरव पर्वत है, अत: वहाँ भी शक्तिपीठ माना जाता है।

१५. अट्टहास : पं. बंगाल में अहमदपुर-कटवा संयान-मार्ग पर लाभपुर नामक स्थान है। वहीं पर देवी फूल्लरा नाम से विद्यमान हैं ।

१६. जनस्थान : नासिक पंचवटी मेंभद्रकाली मन्दिरभी शक्तिपीठ है। यहाँ भगवती देवी भ्रामरी भद्रकाली रूप में प्रतिष्ठित हैं।

१७. अमरनाथ : अमरनाथ (गुफ) में देवी महामाया रूप में स्थित है। यहाँ पर सती का कंठ गिरा था ।

१८. नन्दीपुर :पश्चिम बंगाल प्रान्त में सैथिया संयान-स्थानक (रेलवे स्टेशन) के पास एक वट वृक्ष के नीचेशक्तिपीठअवस्थित है।इस स्थान का नाम नंदपुर है। यहाँ कोई मन्दिर नहीं है। वट वृक्ष के

नीचे ही देवी नांदनी रूप में प्रतिष्ठित मानी जाती हैं।

१९. श्रीशैल :आन्ध्रप्रदेश में श्रीशैल पर्वत पर भगवान् शिव मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिग के रूप में प्रतिष्ठित हैं। वहीं पर भ्रमराम्बा मन्दिर शक्तिपीठ है। इस मन्दिर में देवी महालक्ष्मी रूप में

विराजमान है।

२०. नलहाटी : हावड़ा-क्यूल संयान मार्ग पर नलहाटी स्थानक से तीन किमी. नैऋत्य कोण (दक्षिण-पशिचम) में एक टीले पर यह शक्तिपीठ है। टोले पर उदरनली (ऑत) जैसी आक्रांति बनी है।

उसी की पूजा की जातीहै। यहाँ देवी कालिका रूप में प्रतिष्ठित मानी जाती हैं।

२१. मिथिला : नेपाल में जनकपुर (मिथिला) की परिधि में अनेक देवी-मन्दिर हैं जिनमें वनदुग-मन्दिर, जयमंगला मन्दिर व उग्रतारा मन्दिर की शक्तिपीठ माना जाता हैं। यहाँ देवी महोदर रूप में

विराजित हैं।

२२. रत्नावली : इस पीठ की स्थिति दो स्थानों पर मानी गयी है एक मद्रास (चेन्नई) के पास तथा दूसरा स्थान कन्याकुमारी है। यहाँ देवी कुमारी रूप में प्रतिष्ठित है।

२३. प्रभास : यह शक्तिपीठ प्रभास क्षेत्र में हैं। यहाँ पर गिरनार पर्वत परअम्बाजी का मन्दिर है जिसमें देवी चंद्रभागा वक्रतुण्ड भैरव के साथ विराजमान है। एक मान्यता के अनुसार महाकाली

शिखर पर स्थित काली मन्दिर शक्तिपीठ हैं।

२४. जालन्धर : पंजाब के जालन्धर नगर में विश्वमुखी देवी का मन्दिरशक्तिपीठ के रूप में पूजितहै। यहाँआद्यशक्ति त्रिपुरमालिनी के रूप में प्रतिष्ठित है।

२५. रामगिरि : प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थल चित्रकूट के रामगिरि पर शारदा मन्दिर है। यहीं शक्तिपीठ है। यहाँ देवी शिवानी रुप में विराजमान हैं।

26. वैद्यनाथ : प्रसिद्ध ज्योतिर्लिग वैद्यनाथ के मन्दिर के सामनेशक्ति-मन्दिर स्थित है। यहाँ देवी जयदुर्गा नाम से विराजित है। यहाँ सती-देह का हुदय गिरा था, अत: देवी को हुदयेश्वरी जयदुगर्ग

के नाम से पुकारा जाता है।

२७. वक्रकेश्वर : पं. बंगाल के वीरभूम जिले में ऑडाल सैथिया संयान मार्ग (रेलवे लाइन) स्थित दुबराजपुर के पास वक्रेश्वर नामक स्थान परशमशान-भूमि में यहशक्तिपीठ है। देवी यहाँ

महिर्षमर्दिनी रूप में विराजमान हैं।

२८. कन्यकाश्रम : कन्याकुमारी में भद्रकाली मन्दिर शक्तिपीठ है। यहाँ देवी शर्वाणी रूप में विराजित है। यहाँ सती का पृष्ठभाग गेिरा था।

२९. बहुला : अहमद पुर कटवा संयान मार्ग के कटवा स्थानक के पास केतु-ब्रह्मा नामक गाँव में यह शक्तिपीठ है। यहाँ देवी चण्डिका (बहुल) रूप में प्रतिष्ठित है।

३०. चट्टल : पू. बंगाल (बांगला देश) के प्रसिद्ध नगरचटग्राम के पास सीता-कुण्ड नामक स्थान पर चन्द्रशेखर पर्वत पर भवानी मन्दिर हैं, उसी में देवी भवानी रूप में विराजमान हैं।

३१. उज्जयिनी : उज्जैन में रुद्रसागर के पास हरसिद्धि देवी का मन्दिर है। इस मन्दिर में देवी की प्रतिमा नहीं है। यहाँ पर सती की कूर्पर(कोहनी) गिरी थी, अत: कोहनी की ही पूजा की जाती हैं ।

३२. मणिवेदिक : प्रसिद्ध तीर्थ पुष्कर के समीप गायत्री पर्वत पर यह शक्तिपीठ है। यहाँ सती के दोनों मणिबन्ध (कलाई) गिरेथे। यहाँ देवी गायत्री रूप में पूजित है।

३३. मानस : यह स्थान मानसरोवर के पास स्थित है। यहाँ देवी दाक्षायणी नाम से प्रतिष्ठित है। इस शक्तिपीठ को मानस-पीठ नाम से भी जाना जाता है।

३४. यशोर : बांगला देश के खुलना जिले में एक ईश्वरपुर नामक ग्राम है।इसी का पुराना नाम यशोर(यशोदर) है। यहीं पर देवी यशोरेश्वरी नाम से विराजमान हैं।

३५. प्रयाग : अक्षयवट के पास ललितादेवी मन्दिर शक्तिपीठ हैं, यद्यपि प्रयाग नगर में एक और ललितादेवी मंदिर भी है ।

३६. उत्कल - विराजा क्षेत्र : पवित्र धाम जगन्नाथपुरी में जगन्नाथ मंदिर परिसर में विमला देवी मंदिर है, यह शक्तिपीठ है । कुछ विद्वान याजपुर के विरजा देवी के मंदिर को शक्तिपीठ मानते है ।

३७. कांची : सप्त मोक्षदायिनी पुरियों में कांची के शिवकांची का काली मन्दिर शक्तिपीठ हैं। यहाँ देवी देवगभी रूप में विद्यमान है।

३८. शोण : प्रसिद्ध तीर्थ अमरकण्टक में शोणभद्र (सोन नदी) के उद्गम स्थल के समीप देवी शोणाक्षी रूप में विराजमान हैं।

३९. कामगिरि :असम में गुवाहाटी के समीप कामगिरि पर कामाख्या मन्दिर प्रसिद्ध शक्तिपीठहै। यहाँ देवी कामाख्या रूपमें पूजित है।

४०. गुहयेश्वरी (नेपाल) : नेपाल में पशुपतिनाथ (काठमाण्डु) के पास बागमती नदी के तट पर गुहुयेश्वरी देवी का मन्दिर भी शक्तिपीठ हैं। यहाँ देवी महामाया के रूप में विराजित है।

४१. जयन्ती : मेघालय में शिलांग से ५० किमी. दूर जयन्तिया पहाड़ियों में यह शक्तिपीठ है। यहाँ देवी जयन्ती रूप में प्रतिष्ठित हैं ।

४२. पाटलिपुत्र (मगध) : पटना (पाटलिपुत्र) नगर में पटनेश्वरी मन्दिर शक्तिपीठ है। यहाँ देवी सर्वानन्दकारी रूप में विराजित है।

४३. त्रिसवोता : पं. बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले में शालवाड़ी नामक ग्राम तिस्ता (त्रिस्रोत) नदी के तट पर बसा है। यहीं शक्तिपीठ में देवी भ्रामरी रूप में प्रतिष्ठित हैं।

४४. त्रिपुरा : त्रिपुरा प्रान्त के राधा-किशोरपुर ग्राम के पास आग्नेयकोण (दक्षिण-पूर्व) में पहाड़ी पर त्रिपुरसुन्दरी का प्रसिद्ध मन्दिर ही शक्तिपीठ है।

४५. विभाष : पं. बंगाल के मिदनापुर जिले में तमलुक का काली मन्दिर शक्तिपीठ है। यहाँ देवी कपालिनी रूप में प्रतिष्ठित हैं।

४६. कुरुक्षेत्र : कुरुक्षेत्र में हैपायन सरोवर के पास यह शक्तिपीठ है। यहाँ देवी सावित्री रूप में स्थाणु भैरव के साथ प्रतिष्ठित है।

४७. लंका : यह शक्तिपीठ लंका में है, यहाँ (अशोक वाटिका में) देवी मन्दिर में प्रतिष्ठित है। सती का नूपुर यहाँ गिरा था। यहाँ देवी इन्द्राक्षी रूप में राक्षसेश्वर भैरव के साथ प्रतिष्ठित मानी जाती

है ।

४८. युगाद्या : वर्द्धवान् संयान-स्थानक (रेलवे स्टेशन) से 35 कि.मी. उत्तर में क्षीर ग्राम में यह शक्तिपीठ है। यहाँ देवी भूतधात्री रूप में अधिष्ठित है।

४९. विराट : राजस्थान प्रान्त में जयपुर से 70 किमी. उत्तर विराट नामक ग्राम में देवी अम्बिका रूप में विराजमान हैं। यहाँ सती के दायें पैर की अंगुलियाँ गिरने से शक्तिपीठ बना।

५०. कालीपीठ : कलकत्ते का प्रसिद्ध काली मनिन्दर शक्तिपीठ के रूप में प्रसिद्ध है। कुछ विद्वानों के अनुसार टाली-गंज का आदिकाली मन्दिर शक्तिपीठ है। यहाँ देवी महाकाली के रूप में

पूजित है।

५१. कणांट : जहाँ सती के दोनों कान गिरे, वह स्थान कणॉट कहलाया। यह कहीं कनॉटक में विद्यमान है। ठीक स्थिति की जानकारी नहीं है।इस शक्तिपीठमें देवीजयदुर्गा रूपमें प्रतिष्ठित मानी

जाती हैं।

उपर्युक्त शक्तिपीठों के अतिरिक्त कांगड़ा की महामाया, विश्वेश्वरी (विजेश्वरी), नगरकोट की देवी, चिंतपूर्णी माता, चर्चिका देवी(उड़ीसा) और चण्डीतला (सियालदह के पास) को भी कुछ विद्वान शक्तिपीठ मानते हैं। शक्तिपीठों के अतिरिक्त आद्या शक्ति भगवती के प्रमुख मन्दिर वैष्णवी देवी (जम्मू), विन्ध्यवासिनी (मिर्जापुर), शाकम्भरी (सहारनुपर), नैनादेवी (अम्बाला), कालीमठ (बदरी-केदारनाथ क्षेत्र), कालिका (हिमाचल) आदि प्रसिद्ध हैं।

उत्तर- पश्चिम एवं उत्तर भारत

अमरनाथ

कश्मीर हिमालय में स्थित महादेव शिव का स्थान है। यहाँ लगभग १५ फूट ऊँची प्राकृतिक गुफा में हिम का शिवलिंग है। हिम का यह शिवलिंग प्रत्येक मास की शुक्ल प्रतिपदा को बनना प्रारम्भ होता है, पूर्णिमा को पूर्णकार होकर कृष्णपक्ष में धीरे-धीरे घटता है। श्रावण पूर्णिमा (रक्षाबन्धन) को यहाँ बृहत् समागम होता है। देश के सभी भागों से एकत्र भक्तजन श्रद्धा से पूजा-अर्चना करते हैं।

श्रीनगर

वर्तमान जम्मू-कश्मीर राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी है। आद्य शंकराचार्य ने इस क्षेत्र की यात्रा की और एक पहाड़ी पर शिवलिंग स्थापित किया। इस पहाड़ी का नाम शकराचार्य पर्वत और मन्दिर शंकराचार्य मन्दिर के नाम से विख्यात हैं। शंकराचार्य पर्वत की तलहटी में शंकराचार्य द्वारा स्थापित मठ भी है। पास में एक मस्जिद भी हैं जो मन्दिर के ध्वंसावशोष से बनी है। स्थानीय जनता इसे काली मन्दिर का स्थान मानती है और लोग मस्जिद के कोने में स्थित जलस्रोत की पूजा कर सन्तुष्टिप्राप्त करते हैं। श्रीनगर में हरिपर्वत पर निर्मित एक परकोटे में मन्दिर और गुरुद्वारा बने हैं। सैन्य-सुरक्षित क्षेत्र होने के कारण इनकी पवित्रता अभी तक अक्षुण्ण है। श्रीनगर के आसपास अनेक तीर्थ स्थल बिखरे पड़े हैं। जिनमें क्षीरभवानी, अनन्त नाग, मार्तण्डमन्दिर(मट्टन),पुंछ(बूढ़ेअमरनाथ) आदि प्रमुख हैं।श्रावण मास मेंअमरनाथ जाने वाली यात्रा (छड़ी साहब) यहीं से प्रारम्भ होती है।

वाराहमूल (बारामूला)

श्रीनगर से पश्चिमोत्तर दिशा में वाराह मूल स्थित है।इसका सम्बन्ध वाराह अवतार से जोड़ा जाता है। जब हिरण्याक्ष्य पृथ्वी का अपहरण कर पाताल ले गया तो भगवान् विष्णु ने वाराह अवतार धारण कर उस अत्याचारीसे पृथ्वी को मुक्त कराया। कई प्राचीन मन्दिर तथा तीर्थों के ध्वंस अवशेष यहाँ आज भी विद्यमान हैं।

वैष्णवी देवी

जम्मू से लगभग ७० कि. मी. दूर माता वैष्णवी का पावन स्थान है। जम्मू के बाद कटरा नामक स्थान से १३ किमी. चढ़ाई पैदल चलकर यात्री माता के दर्शन करता है। यहाँ एक पर्वत-कन्दरा में महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली की मूर्तियाँ स्थापित हैं इन प्रतिमाओं के चरणों से निरन्तर जल प्रवाहित होता रहता है। इसे बाणगंगा कहते हैं। वैष्णवी देवी सिद्धपीठ माना जाता है।

जम्मू

यह वर्तमान जम्मू-कश्मीर की शीतकालीन राजधानी है। यहाँ कई प्राचीन तथा भव्य मन्दिरहैं। जम्मू नगर की स्थापना राजा जम्बूलोचन ने ३ हजार वर्ष पूर्व की। जम्बूलोचन केभाई नेतवी नदी के तटपर एक दुर्ग बनवाया। उसके अवशोष नदी के तट पर आज भी विद्यमान हैं। यहाँ मौर्य तथा गुप्तकालीन अवशेष भी मिले हैं।जम्मू डोगरा की केन्द्रीय कार्यस्थली रहा है। प्रसिद्ध रघुनाथ मन्दिर यहीं पर स्थित है।

पुरुषपुर (पेशावर)

वायव्य (पश्चिमोत्तर) प्रान्त की राजधानी। खैबर दरें से आने वाली विदेशी आक्रान्ताओं को धूल चटाने का सौभाग्य इस नगर को प्राप्त हुआ है। पुरूषपुर कुभा (काबुल) नदी के तट पर स्थित है। इस नदी का उद्गम वर्तमान काबुल नगर से आगे हिन्दुकुश पर्वतमाला में है।

तक्षशिला

प्राचीन शिक्षा-केन्द्र जो रावलपिण्डी के पास स्थित हैं। आचार्य चाणक्य इसी विद्यापीठ के स्नातक थे जो कालान्तर में यही परआचार्य बने तथा चन्द्रगुप्त आदि राष्ट्रपुरूषों का निर्माण कर उन्होंने आचार्य विशेषण को सार्थक किया।अपने पूर्वज महाराजा परिक्षित की सर्पदंश से हुई मृत्यु का प्रतिकार करने के लिए जन्मेजय ने यहीं नागयज्ञ किया था। महर्षि वैशम्पायन ने महाभारत का प्रथम पाठ यहीं पर सुनाया था। पाणिनि ने भी यहाँ अध्ययन किया।

काबुल (कुभानगर)

आधुनिकअफगानिस्तान की राजधानी, हिन्दूकुश पर्वतमाला की तराई में स्थित है। महाभारतकालीन उपगणस्थान (अफगानिस्ता) जिसे अहिंगण स्थान भी कहा जाता था। यह प्राचीन नगर है। काबूल से आगे ईरान (आर्यान) की सीमा तक क्रमु (वर्तमान कुर्रम), सुवास्तु (स्वात),गोमती(गुमल) आदि नदियों के क्षेत्र में विकसित गणराज्यों का यह केन्द्र रहा है। इन गणराज्यों ने दो शताब्दियों तक मुस्लिम आक्रमण रोके रखा।

पंजा साहिब

तक्षशिला के समीप स्थित इस स्थान की गुरु नानक देव ने यात्रा की तथा पीरअली कन्धारी नामक धर्मान्ध मुस्लिम पीर के अत्याचारों से जनता को मुक्ति दिलाकर अजस्त्रधारा जल की उत्पत्ति की। पीर अली ने क्रोधित होकर एक विशाल पर्वतखण्ड गुरु नानक की ओर धकेल दिया।अपनी ओर पर्वतखण्ड को आता देख श्री नानकदेव ने अपना पंजा अड़ाकर उसे रोक दिया। आज भी वह पंजा और उसकी रेखाएँ यहाँ स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। विधर्मी लोगों द्वारा खोदने पर पंजा पुन: वैसा ही हो जाता है। यहाँ पवित्र गुरुद्वारा तथा तालाब है। वैशाख मास की प्रथम तिथि को यहाँ मेला लगता था,परन्तुआजकल सीमित संख्या में ही तीर्थयात्री यहाँ पहुँच पाते हैं ।

साधुवेला तीर्थ

पाकिस्तान के सिन्ध प्रान्त में सक्खर नगर के पास यह तीर्थ क्षेत्र स्थित हैं। यहाँ अनेक पक्के घाट तथा ध्यान करने के स्थान बने हैं। तीर्थ क्षेत्र में भगवान् राम, लक्ष्मण, सीता, पवनपुत्र हनुमान, गणेश दुग, महादेव शिव के मन्दिर बने हैं। पाकिस्तान बनने से पूर्व यहाँ नियमित रूप से कथा-प्रवचन, कीर्तन व धमॉपदेश होते थे, परन्तु पाकिस्तान बनने के बाद यहाँ की दशा शोचनी हो गयी है।

कटाक्षराज (कटास राज )

लाहौर, पेशावर रेल मार्ग पर कटाक्षराज नामक स्थान पर यह प्रसिद्ध तीर्थ क्षेत्र है। यहाँ पर प्रतिवर्ष वैशाख संक्रांति के अवसर पर ५ दिन का मेला लगा करता था। संक्रांति के दिन यहाँ स्थित तालाब में स्नान का विशेष महात्म्य है।तालाब का नाम अमर कुण्डहै। पाकिस्तान बनने के बाद यहाँ पर मेला बन्द हो गया। अब पुन:इस क्षेत्र की यात्रा प्रारम्भ हुई है। तालाब के पानी का उपयोग आसपास के गावों में सिंचाई के लिए किया जाने लगा है।

ननकाना साहब

सिक्खों का प्रमुख तीर्थ स्थान हैं यहाँ प्रथम गुरु नानकदेव जी का जन्म तलवंडी नामक स्थान पर हुआ था। वहीं पर गुरुद्वारा बना है। प्रारम्भ में यहाँ पर तीर्थयात्रा की कोई व्यवस्था नहीं थी, परन्तु इधर पिछले कुछ वर्षों से गुरु नानक देव के जन्म-दिवस पर यात्रा की व्यवस्था की जाती हैं ।

हिंगलाज

यह ५१ शक्तिपीठों में से एक है। परन्तु पाकिस्तान (बलोचस्थान) में होने के कारण यहाँ भक्तगण इस पीठ के दर्शनों से वंचित रहते हें। यह स्थान हिंगोल नदी के तट पर स्थित है। प्रमुख स्थान गुफा में है जहाँ भगवती के दर्शन पृथ्वी सेनिकली ज्योति के रूप में होते हैं। साथ में काली मां के भी दर्शन किये जा सकते हैं। भगवती सती का ब्रह्मरिन्ध यहाँ गिरा था; उसी स्थान पर शक्तिपीठ का उद्भव हुआ।

मुलस्थान (मुल्तान)

पंजाब (पाकिस्तान) में स्थित यह नगर दैत्यराज हिरण्यकशिपु की राजधानी तथा भक्त प्रहलाद का जन्म-स्थान है। यहीं पर नृसिंह अवतारलेकर भगवान् ने निरंकुश हिरण्यकशिपु का वध किया।भगवान् नूसिंह काभव्य मन्दिर जीर्ण-शीर्ण अवस्था मेंआज भी है। नृसिंह चतुर्दशों को यहाँ मेला लगता था। पास में ही सूर्यकुण्ड सरोवर है वहाँ पर माघ शुक्ल षष्ठी व सप्तमी को भी मेला लगता था, परन्तु आज सब अस्त - व्यस्त है । प्रहलादपुरी इसका पुराना नाम था।

लवपुर (लाहौर)

भगवान् राम के पुत्र लव द्वारा बसाया गया। प्राचीन नगर। महाराजा रणजीत सिंह की राजधानी यह नगर रहा। धर्मवीर हकीकत की समाधि यहीं पर है। गुरु अर्जुनदेव का बलिदान यहींहुआ। कई मन्दिर व गुरुद्वारे यहाँ आज वीरान पड़े है। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान रावी-तट पर स्थित इसी नगर में कांग्रेस ने १९२९ में पूर्ण स्वराज्य-प्राप्ति को अपना लक्ष्य घोषित किया।

करवीर

यहाँभगवती जगज्जननी का मन्दिर है. इसे शक्तिपीठ माना गया है। सिन्ध प्रांत में यह स्थित है। पौराणिक मान्यता के अनुसार सती के नेत्र यहाँ गिरे थे।

मोहनजोदड़ो व हड़प्पा

सिन्धुघाटी सभ्यता से सम्बन्धित नियोजित नगर-द्वय । लगभग ६००० वर्ष पहले इन नगरों का विकास हुआ था। बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में यहाँ खुदाई प्रारम्भ की गयी। तब ही इनका पता चला। इन नगरों का विकास नियोजित व व्यवस्थित रूप से किया गया था। सड़क मार्ग, पीने नगरों में उत्तम रीति से उपलब्ध करायी गयीं थीं। हड़प्पा नगर साहीवाल जिला पं. पंजाब में तथा मोहनजोदड़ो सिन्ध (पाकिस्तान) में स्थित है।

कराची

सिन्धु नदी के मुहाने पर स्थित यह नगर पाकिस्तान का प्रमुख पत्तन (बन्दरगाह) है। पाकिस्तान का यूरोप के देशों के साथ व्यापार में इसका सर्वाधिक योगदान रहता है। अखण्ड भारत में कराची का पृष्ठपेद्रश पंजाब व गुजरात तक फैला था। विभाजन के बाद कराची पाकिस्तान में चला गया, जिससे भारत के उत्तर-पशिचमी भागों के लिए नये पत्तन का निर्माण आवश्यक हो गया। कच्छ की खाड़ी पर स्थित कांदला पत्तन के विकास से यह कमी पूरी हो पायी है।

श्री महावीर जी

यह जैन समाज का प्रमुख तीर्थ है। यहाँ वर्षभर लाखों तीर्थयात्री भगवान् महावीर स्वामी के दर्शनार्थ आते रहते हैं। श्रद्धालुओं का ऐसा विश्वास है कि यहाँ उनकीमनोकामना पूरी हो जाती है। मन्दिर में महावीर स्वामी की कत्थई रंग की प्राचीन प्रतिमा स्थापित है। यह प्रतिमा एक भक्त ग्वाले को भूमि केअन्दर दबी मिली थी जिसे पास में प्रतिष्ठित करा दिया गया। मन्दिर का निर्माण भरतपुर के दीवान जोधराज ने कराया। मन्दिर के चारों ओर तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए कई धर्मशालाएँ बनी हैं। जैनियों के अतिरिक्त भी सभी स्थानीय लोग महावीर जी के प्रति श्रद्धा रखते हैं। सम्पूर्ण उत्तर भारत में इस तीर्थ की अतिशय क्षेत्र के रूप में मान्यता है।

रणथम्भौर ( सवाई माधोपुर )

यह एक ऐतिहासिक दुर्ग है। दुर्ग के परकोटे में गणेश जी की विशाल प्रतिमा है। अलाउद्दीन खिलजी को पराजित करने वाले हमीरसिंह कीराजधानी यहाँ थी। किले के पास ही पहाड़ी पर अमरेश्वर-शैलेश्वर के प्राचीन मन्दिर हैं।थोड़ी दूरी पर सीता जी का मन्दिर है जहाँ पर सीताजी के चरणों के पास से निरन्तर जल प्रवाहित होता रहता है।

जयपुर

जयुपर राजस्थान की वर्तमान राजधानी व प्रसिद्ध नगर है। इसकी स्थापना महाराजा जयसिंह ने की थी। नगर के भवन प्राय: गुलाबी पत्थर के बने हैं। नगर के चारों ओर चारदीवारी बनायी गयी हैं, जिसमें सात द्वार बनाये गये हैं। नगर में कई दर्शनीय व पूजनीय स्थान है। हवामहल, सिटी पैलेस, राम बाग, जन्तर-मन्तर, केन्द्रीय संग्रहालय प्रमुख दर्शनीय स्थान हैं।आमेर का किला, नाहरगढ़ का किला जयपुर के पास पुराने किले हैं। श्री गोविन्द देव, श्री गोकुलनाथ जी नामक पवित्र मन्दिर हैं। इन मन्दिरों में स्थापित प्रतिमाओं को औरंगजेब के शासनकाल में वृन्दावन से यहाँ लाया गया था। इनके अतिरिक्त विश्वेश्वर महादेव, राधा-दामोदर अन्य प्रमुख मन्दिर हैं। जयपुर का जन्तर-मन्तर ज्योतिष तथा खगोलीय ज्ञान के लिए महत्वपूर्ण है ।

अजमेर ( अजयमेरु )

पहाड़ियों से घिरा हुआ सुरम्य स्थल हैअजमेर। पहाड़ी की तलहटी में तारागढ़ नामक दुर्ग है।अजमेर अजयमेरू का अपभ्रंश है। चौहान राजा अजयपाल ने इसकी स्थापना की थी तथा सुरक्षा की दृष्टि से एक सुदृढ़ किला भी बनवाया। पृथ्वीराज विजय’ तथा ‘हम्मीर महाकाव्य में इस बात का प्रमाण भी मिलता है। कुछ विद्वानों के अनुसार महाभारत काल में अजय मेरू विद्यमान था। महमूद गजनवी ने सन् १०२५ में इस नगर को लूटा। अजमेर कभी चौहान, कभी पठान, कभी राठौर तो कभी मुगल शासकों के अधीन रहा। अजमेर के आसपास के राज्य को पुराने समय में सपादक्ष के नाम सेपुकारा जाता था। कर्नल टॉड के अनुसारअजमेर का आधा दिन का झोपड़ा' हिन्दू मन्दिर का विध्वंस करके बनाया गया था। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह अजमेर का मुख्य आकर्षण है। ख्वाजा विदेश आक्रान्ता शहाबुद्दीन गौरी के साथ दिल्ली आये और अजमेर में रहने लगे। संक्षेप में अजयमेरू (अजमेर) ने उत्थान व पतन दोनों इझेले हैं।अजमेर के पास ही पवित्र पुष्कर झील है।

जोधपुर

जोधपुर थार के मरूस्थल का प्रवेश-द्वार कहा जा सकता है। इसकी स्थापना सन 1459 ई. में कु. जोधासिंह ने कीथी। यहाँ पर पहाड़ी पर एक सुदृढ़ किला बना हुआ है। नगर के चारों ओर परकोटा है। अनेक झील, महल तथा मन्दिर नगर के सौन्दर्य को बढ़ाते हैं। मोतीमहल, फूलमहल तथा मानमहल यहाँ के दर्शनीय भवन हैं। अनेक वैष्णव, शैव तथा जैन मन्दिर यहाँ पर विद्यमान हैं। जोधपुर में विजयादशमी आदि पवाँ पर मेले का आयोजन भी किया जाता है।

कोटा-बूढ़ी

नगरद्वय राजस्थान के प्रमुख नगरहैं और राजपूतीइतिहास के साक्षी हैं। यहाँ (कोटा) का पुराना राजवंश वल्लभ सम्प्रदाय में दीक्षित रहा है। अतः यहाँ वल्लभ सम्प्रदाय के कई पुराने व सुन्दर मन्दिर हैं।पुराने किले में भी मधुरेश, श्री नवनीतप्रिया, बालकृष्ण आदि मन्दिरहैं। नगर के पूर्व में किशोर सागर नामक पवित्र सरोवर हैं। भीमताल, क्षेमकरी देवी मन्दिर, रामेश्वर आदि बून्दी के समीपवर्ती धार्मिक स्थान हैं।

नाथद्वारा

उदयपुर से ४८ कि.मी. दूर बनास नदी पर नाथद्वार स्थित है। यहाँ भगवान् श्रीनाथ का सुन्दर मन्दिर है। श्री नाथजी की प्रतिमा मूलत: वज्रभूमि में गोवर्धन पर प्रतिष्ठित थी। औरंगजेब के शासन के दौरान वहाँ से हटाकर नाथद्वारा मेंप्रस्थापित करा दी गयी। स्वयं महाप्रभु वल्लभाचार्य श्री विग्रह को लेकरआये थे। अत: यह स्थान वल्लभाचार्य के शिष्यों का प्रमुख तीर्थ स्थल है। नाथद्वारा में वनमाली जी का मन्दिर, मीरा मन्दिर, नवनीतलाल जी का मन्दिर तथा अन्य प्रमुख मन्दिरहैं। नाथद्वारा मन्दिर के माध्यम से यहाँ हस्तलिखित व मुद्रित ग्रन्थों का विशाल पुस्तकालय संचालित किया जाता है।

एकलिंग जी

उदयपुर से नाथद्वारा जाते समय रास्ते में भगवान् एकलिंगजी का पवित्र स्थान पड़ता है। एकलिंग जी मेवाड़भूषण बप्पा रावल से लेकर महाराणा राजसिंह तक प्रतापी नरेशों की प्रेरणा देने वाला आराध्य देव है। महाराणा प्रताप ने इन्हीं एकलिंग जी का पुण्य स्मरण करमुगलों से लोहा लिया औरअपनी मातृभूमि मेवाड़ की स्वतंत्रता अक्षुण्ण रखी। यहाँ भगवान् एकलिंग जी का चतुर्मुखी विग्रह एक विशाल मन्दिर में प्रतिष्ठित है।थोड़ी दूर पर इन्द्र सागर नामक सरोवर है। सरोवर के आसपास गणेश, धारेश्वर, लक्ष्मी के मन्दिर बने हैं। वनवासिनी देवी का पवित्र मन्दिर यहाँ से कुछ दूर है।

आबू (अर्बुदाचल )

राजस्थान का यह अति सुन्दर व पवित्र स्थान अरावली पर्वतमाला के दक्षिणी भाग में स्थित है। यह पावन क्षेत्र समुद्रतल से १२२० मीटर ऊँचाई पर है। महाभारत के अनुसार मथुरा से द्वारिका जाते हुए भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ रुके थे। यहाँ पर वसिष्ठ मुनि का आश्रम था,अत:अति प्राचीन समय से यह पवित्र तीर्थ स्थान रहा है। उत्तरी पहाड़ी पर विश्व-प्रसिद्ध दिलवाड़ा के जैन मन्दिरहैं जो कला की दृष्टि से विश्व में बेजोड़ कहे जा सकते हैं। दूर-दूर से जैन तीर्थयात्री यहाँआते रहते हैं। एक शिखर पर अचलेश्वर लिंग तु वर्तते यत्र वीरक। (स्कन्दपुराण-माहेश्वर खण्ड-५९२६८) इस क्षेत्र की अधिष्ठात्री देवी अर्बुदादेवी का मन्दिर है और थोड़ी दूर पर अचलेश्वर महादेव विराजमान हैं। अचलेश्वर महादेव परमार व चौहान नरेशों के कुलदेवता के रूप में पूजित हैं। स्कन्द पुराण में इसकी महिमा का बखान है।'आबू-नरेश धारावर्ष ने कुतुबुद्दीन ऐबक को सन् ११९७ ई. तथा शहाबुद्दीन गौरी को सन् ११७८ ई. में परास्त कर इस प्रेदश में घुसने से रोक दिया।आबू वैष्णव,शैव व जैन सम्प्रदाय के लोगों का तीर्थ स्थान तो है ही, ब्रह्मा कुमारी पंथ का भी पवित्रतम केन्द्र है।

चित्तौड़गढ़

राणा सांगा, बप्पा रावल के शौर्य से अलंकृत चित्तौड़गढ़ गम्भीर नदी के पूर्वी तट पर स्थित है। चित्तौड़गढ़ का निर्माण कब हुआ, कहना कठिन है। कुछ विद्वानों का कहना है कि इसका निर्माण पाण्डवों ने किया तथा इसका मूल नाम चित्रा कोट है। यह मेवाड़ राज्य की राजधानी रहा हैं महारानी पदिमनी ने इसी गढ़ में जौहर किया। पन्ना धाय के बलिदान (उदय सिंह की रक्षा के लिए अपने पुत्र चन्दन का बलिदान) का साक्षी भी है यह दुर्ग। दिल्ली का सुल्तान मोहम्मद तुगलक हमीर के हाथों यहीं पर परास्त हुआ तथा ५० लाख रूपये, एक सौ हाथी तथा विशाल क्षेत्र भेंट करने पर मुक्त हो सका था। यह दुर्ग राजस्थान के उन शूरवीरों का अमर स्मारक है जिन्होंने परतंत्रता के स्थान पर मरना बेहतर समझा और मातृभूमि की मुक्ति के लिए न केवल संघर्षरत रहे वरन् आक्रमणकारियों की आंधी को शान्त कर दिया। हल्दीघाटी, जयस्तंभ, प्रताप स्मारक, चेतक समाधि, शैव, वैष्णव व जैन मन्दिर यहाँ के आसपास ऐतिहासिक आकर्षण हैं।

बाड़मेर, बीकानेर, और जैसलमेर

ये तीनों नगर मरुस्थलीय क्षेत्र के प्रमुख ऐतिहासिक स्थल हैं। यहाँ मन्दिर व खण्डहरों में हमारे संघर्ष का इतिहास बिखरा पड़ा है। जैसलमेर में कई प्राचीन व भव्य जैन मन्दिरहैं। यहाँ पर एक पुराना किला भी है जो अब स्थान-स्थान पर टूट रहा है। बाड़मेरऔर बीकानेर में भी कई जैन मन्दिर हैं। बीकानेर के पासअशोक के पौत्र का बनवाया हुआ मन्दिरआज भी विद्यमान है। लोककला की दृष्टि से ये नगर समृद्ध हैं। यहाँ पर कई मेले और उत्सव प्रतिवर्ष मनाये जाते हैं।

अमृतसर

पंजाब का धार्मिक-ऐतिहासिक नगर जो सिख पन्थ का प्रमुख तीथ-स्थान है। उसकी नींव सिख पन्थ के चौथे गुरु रामदास ने युगाब्द ४६७९ (सन् १५७७ ई.) में डाली। मन्दिर का निर्माण-कार्य आरम्भ होने से पूर्व उसके चारों ओर एक सरेवर बनवाया। मन्दिर-निर्माण का कार्य उनके पुत्र तथा पाँचवे गुरु श्री अर्जुनदेव ने हरिमन्दिर (स्वर्णमन्दिर) बनवाकर पूरा किया। सरोवर एवं हरिमन्दिर के पूर्ण होने पर गुरु अर्जुनदेव ने कहा भगवान् की कृपा से ही यह कार्य पूर्ण हो सका है। जो भी इस सरोवर में स्नान करेगा उसे भारत के 64 तीर्थों के स्नान का पुण्य मिलेगा। महाराजा रणजीत सिंह ने मन्दिर कीशोभा बढ़ाने के लिए बहुत धन व्यय किया । अंग्रेजी दासता के काल में 13अप्रैल 1919 को स्वर्ण मन्दिर से लगभग दो फलॉग की दूरी पर जलियांवाला बाग में स्वतंत्रता की माँग कर रही एक शान्ति-पूर्ण सभा पर जनरल डायर ने गोलीचलाकर भीषण नरसंहार किया था। डेढ़ हजार व्यक्ति घायल हुए अथवा मारे गयेथे। वहाँ पर उन आत्म बलिदानियों की स्मृति में एक स्मारक बनाया गया है। बाग की दीवार पर उस बर्बरतापूर्ण घटना की साक्षीरूप गोलियों के निशान आज भी विद्यमान हैं। नगर में स्वर्ण मन्दिर केअतिरिक्त दुग्र्याणा मन्दिर, सत्य नारायण मन्दिर तथा लक्ष्मीनारायण मन्दिर प्रमुख धार्मिक स्थल हैं।

ज्वालामुखी

हिमाचल प्रदेश के अन्तर्गत ज्वालामुखीदेवी प्रमुख शक्तिपीठ है। सती की जिहुवा इस स्थान पर गिरी थी। ज्वालामुखी देवी का ऊपरी भाग स्वर्णमण्डित है। मन्दिर के भीतरी भाग में कई स्थानों से अग्नि की लपटें निकलती रहती हैं। मन्दिर की पिछली दीवार से भी कई प्रकाश-पुंज निकलते हैं मन्दिर के सामने एक कुओं तथा एक कुण्ड है। आस-पास मेला लगता है। दूर-दूर से भक्त देवी-दर्शन के लिए यहाँ आते रहते हैं।

नैना देवी

आनन्दपुर साहिब से लगभग ३५ कि.मी. दूर एक मनोरम पहाड़ी पर भगवती नैना देवी का मन्दिर है। यह तीर्थ विलासपुर के समीप स्थित है। दशवें गुरु गोविन्दसिंह जी ने यहाँ चण्डी यज्ञ तथा तपश्चर्या की थी। नैना देवी एक सिद्धपीठहै।प्रतिवर्ष श्रावण शुक्लप्रतिपदा से नवमी तक यहाँ मेला लगता है। नवरात्र में असंख्य तीर्थयात्री यहाँ देवी-दर्शन को आते हैं।

आनन्दपुर साहिब

आनन्दपुर साहिब एक ऐतिहासिक व धार्मिक नगरहै। इसकी स्थापना नवें गुरु तेगबहादुर जी ने की थी। यहाँ पर कई प्रसिद्ध गुरुद्वारे हैं। यथा-श्री केशवगढ़ साहिब, लौहगढ़ तथा आन्नदगढ़ साहिब । कशगढ़ साहिब गुरुद्वारे के स्थान पर गुरु गोविन्दसिंह ने वैशाखी के पावन पर्व पर 'पंच प्यारों को दीक्षा देकर खालसा पंथ का श्रीगणेश किया तथा हिन्दू धर्म की रक्षा का दायित्व पूरा करने के लिए सैनिक वेश (पाँच कक्के)धारण करने का आदेश दिया । स्मरण रहे कि पंच प्यारे भारत के विभिन्न प्रान्तों के तथा भिन्न-भिन्न जातियों से लिये गये थे। यहाँ पर वैशाखी, होली के पर्वो पर बुहद् समागम आयोजित किये जाते हैं।

सरहिन्द

पंजाब प्रान्त के पटियाला जिले में सरहिन्द नामक स्थान सिख पंथ के अनुयायी जनों का प्रमुख प्रेरणा-स्रोत है। जब दशम् गुरु आततायियों से लोहा ले रहे थे, उस समय उनके पुत्र भी उनके साथ योगदान कर रहे थे। सरहिन्द के मुसलमान शासक ने गुरु गोविन्द सिंहपर दबाव डालने के लिए उनके सुकुमार पुत्रोंफतेह सिंह व जोरावर सिंह को धोखे से बन्दी बना लिया। मुसलमानों ने उन बच्चों को तौबा करने और इस्लाम कबूल करने के लिए अनेक लालच दिये। जब वे "स्वधर्म निधनों श्रेय: परधामों भयावह" केअनुसार टस सेमस नहीं हुए तो उन निर्दय विधर्मियों ने दोनों को किले की दीवार में जिन्दा चुनवा दिया। हरिसिंह नलवा के बाद में सरहिन्द के नवाब से गुरुपुत्रों की क्रूर हत्या का बदला लिया। आज देवी, काली अर्जुन देवी तथा अन्य कई मन्दिरहैं। नवरात्र में यहाँ विशाल सरहिन्द में स्थापित पवित्र गुरुद्वारा गुरुपुत्रों की शहादत का स्मारक बना हुआ है ।

चण्डीगढ़

वर्तमान हरियाणा व पंजाब की राजधानी चंडीगढ़ नियोजन की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ नगर माना जाता है। इसका नाम यहाँ के प्राचीन चंडीदेवी मन्दिर के कारण चंडीगढ़ पड़ा। चंडी देवी का मन्दिर प्राचीन तथा सिद्ध पीठ के रूप में प्रसिद्ध है। यहाँ पर कई दर्शनीय पार्क तथा प्रसिद्ध संग्रहालय हैं। औद्योगिक विकास की दृष्टि से इस नगर ने काफी प्रगति की हैं।

शिमला

हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला भारतवर्ष का प्रमुख पर्यटन-स्थल है।यहाँ की जलवायुशीतल व स्वास्थ्यवर्धक है।शीत ऋतु मेंयहाँ पर्याप्त हिमपात होता है। अनेक पर्यटक हिमपात के मनोरम दृश्य का आनन्द लेने सर्दियों में यहाँ पहुँचते हैं। अंग्रेजी शासनकाल में ब्रिटिश सरकार के प्रमुख कार्यालय ग्रीष्म ऋतु में शिमला में स्थानान्तरित हो जाते थे, अत: उस दौरान कई सरकारी भवनों तथा विश्रामगृहों का निर्माण हुआ। शिमला में भगवती दुग, काली आदि के कई प्रसिद्ध मन्दिर हैं।

कुरुक्षेत्र

विश्व के सर्वोत्कृष्ट ज्ञान 'गीता' का उपदेश कुरुक्षेत्र के पवित्र स्थल पर प्रकट हुआ। महाभारत के इस प्राचीन युद्धक्षेत्र का हमारे देश के इतिहास की प्रमुख घटनाओं से घनिष्ठतम सम्बन्ध है। थानेश्वर, पानीपत, तरावड़ी, कंथलआदि इतिहास-प्रसिद्ध युद्धमैदान कुरुक्षेत्र की भूमि में ही स्थित हैं। ३२६ ईसा-पूर्व से लेकर सन् ४८० ई.तक यह क्षेत्र मौर्य शासकों के अधिकार में रहा। कालान्तर में गुप्तवंश के राजाओं के राज्य का प्रमुख क्षेत्र रहा। इस दौरान यहाँ का सर्वतोमुखी विकास हुआ। प्रसिद्ध कवि बाणभट्ट ने हर्षचरित' में इस क्षेत्र के ऐश्वर्य का विस्तार से वर्णन किया है। महाभारत, पद्म पुराण, स्कन्दपुराण, शतपथ ब्राह्मण, यजुर्वेद आदि ग्रन्थों में इसका श्रद्धा के साथ वर्णन किया गया है। इस पवित्र क्षेत्र में अनेक यज्ञों का विश्वकल्याण के लिए आयोजन किया गया। यहाँ अनेक वाराहतीर्थ, शुकदेव मन्दिर, गीता मन्दिर,भगवती सती मन्दिर) विराजित हैं । द्वेपायन सरोवर के पास स्थित देवी-मन्दिर प्रधान शक्तिपीठ हैं। कहते हैं यहाँ सती का दक्षिण गुल्फ गिरा था।अन्त:सलिला सरस्वती इसी स्थान के पास से बहती थी। सूर्य-ग्रहण के समय यहाँ विशाल मेला लगता है। इस मेले में भारत के सभी प्रान्तों के नर-नारी एकत्र होते हैं तथा पवित्र सरोवर में स्नान कर पुण्य प्राप्त करते हैं।

इन्द्रप्रस्थ(दिल्ली)

महाभारत में उल्लिखित यह नगर वर्तमान दिल्ली के समीप था, जिसे पाण्डवों ने बसाया था। कहा जाता है कि पहले या खाण्डव नामक बीहड़ वन था, जिसे काटकरइन्द्रप्रस्थ का निर्माण कराया गया। हस्तिनापुर का राज्य स्वयं लेने के लिए दुर्योधन के हठ और छल-प्रपंच के कारण कुरुवंश के राज्य का विभाजन कर पाण्डवों को यह बीहड़ प्रदेश दिया गया था। किन्तुमय दानव की अद्भुत स्थापत्यकला ने इन्द्रप्रस्थ की भव्यता प्रदान कर दी। युधिष्ठर ने यहीं राजसूय यज्ञ किया था। यह वर्तमान भारत संघ की राजधानी है। यहाँ अनेक ऐतिहासिक व धार्मिक स्थान हैं। विष्णुध्वज (कुतुबमीनार), पाण्डवों का किला, लालकोट, शीशगंज, रकाबगंज, भाई मतिदास चौकआदि ऐतिहासिक स्थान आज भी भारत के ज्ञान, वैभव और शौर्य की कहानी कहते हैं। योगमाया देवी, कालिका देवी, बिरला मन्दिर, संकट मोचन हनुमान मन्दिर, बौद्ध विहार, लालजैन मन्दिर, शीशगंज गुरुद्वारा, रकाबगंज गुरुद्वारा, दीवान हाल, आर्य समाज मन्दिर तथा गौरी-शांकर मन्दिर आदि नये-पुराने धार्मिक स्थल जनता की श्रद्धा के केन्द्र हैं। विदेशी आक्रमणों की आधी में दिल्ली कई बार उजड़ी और बसी है। यहाँ केअनेक प्राचीन मन्दिरऔर ऐतिहासिक स्थानों का रूप ही आक्रमणकारियों ने बदल दिया। आज जहाँ जामा मस्जिद है वहाँ कभी विशाल शिवालय था। दक्षिणी दिल्ली में एक पहाड़ी पर कालिका देवी का प्राचीन मन्दिर है, इसे शक्तिपीठ माना जाता है।

स्थानेश्वर

कुरुक्षेत्र के पास स्थित वर्तमान हरियाणा का प्रमुख ऐतिहासिक नगर। पवित्र सरोवर (ब्रह्मासर, ज्योतिसर), तीर्थ क्षेत्र (काम्यकत्वन, आदितिवन, इसको स्थाण्वीश्वर नाम से भी जाना जाता है। यहाँ पर पवित्र सरोवर के तटपर भगवान् शिव का प्राचीन मन्दिरहै। पुराणों में इस सरोवर व मन्दिर की महिमा का वर्णन किया गया है। महाभारत युद्ध के समय भी इस पवित्र तीर्थ की मान्यता थी। युद्ध से पूर्व पाण्डवों ने यहीं पर शिव की पूजा-अर्चना की और विजय का आशीर्वाद प्राप्त किया।

पानीपत

अनेक युद्धों का साक्षी पानीपत आजकल हरियाणा राज्य का प्रमुख औद्योगिक नगर है। पानीपत के प्रथम, द्वितीय और तृतीय युद्ध यहाँ लड़े गये। इन युद्धों का भारत के इतिहास मेंअतिविशिष्ट स्थान है। पानीपत ने भारत के उत्थान व पतन को कई बार देखा है।

कपिस्थल, पृथुदक, गुरुग्राम

कंथल (कप-स्थल), पेहोवा(पृथूदक) भी अति प्राचीन नगर और धार्मिक स्थान हैं। दिल्ली के निकट स्थित गुरुग्राम (गुड़गांव) सिद्धदेवीपीठ है। गुरुग्राम का सम्बन्ध कौरवों व पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य जी से है। आज भी यहाँ द्रोणाचार्य का मन्दिर बना हुआ है। भगवती देवी का भी यहाँ प्राचीन मन्दिर है। चैत्र नवरात्र में यहाँ दूर-दूर से देवी के भक्त आते हैं और मां भगवती के चरणों में श्रद्धा-सुमन चढ़ाते हैं हिमालय क्षेत्र में अनेक प्रमुख स्थान, पवित्र तीर्थ तथा मनोरम सुषमायुक्त नगर व क्षेत्र हैं। देश की एकात्मता व समरसता की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण स्थानों का विवरण यहाँ दिया जा रहा है।

यमुनोत्री व गंगोत्री

देवापग, पतित-पावनी गंगा का उद्गम गंगोत्री है। गांगोत्री शिखर समुद्रतल से लगभग ६५०० मीटर ऊँचा है। यहाँ सदैव हिमपात होता रहता है, अत: सारा प्रदेश हिमाच्छादित रहता है। पर्वतीय ढालों पर हिमानियाँ फिसलती हैं। ऐसी ही एक हिमानी गांगोत्री के नाम से जानी जाती है तथा इसके पिघलने से गंगा सदा स्वच्छ जल से आपूरित रहती है। यहाँ का मुख्य मन्दिर आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित है। इस मन्दिरमें गांगा मैया की भव्य प्रतिमा है। पास में ही सूर्यकुण्ड, ब्रह्मकुण्ड तथा भागीरथ शिला है। जाड़ोंमें जब शीत का प्रकोप बहुत बढ़ जाता हैं तो पुजारी गंगा जी लिए बन्द हो जाता है। गंगोत्री के समान ही यमुनोत्री पवित्र शिखरहै। यह यमुना का उद्गम स्थान हैं। यद्यपि सारा क्षेत्र हिमाचछादित है. हिमानियों का सर्वत्र प्रसार हैं। तो भी यहाँ कई गर्म पानी के कुण्ड हैं। कई कुण्डों का जल तो इतना गरम है कि पोटली में आलू,चावल बांध कर थोड़ी देर पानी में डुबो देने से पक जाते हैं। बराबर में ही कनिन्दगिरि है जहाँ से हिम पिघल-पिघल कर यमुना में बहता जाता है।अत: यमुना का एक नाम कालिन्दी भी है। एक गर्म जल का झरना भी यमुना जी के मन्दिर के पास है। यमुना जी के मन्दिर में यमुना जी की प्रतिमा विराजमान है। हिमालय के गांगोत्री-यमुनोत्री क्षेत्र से उत्तर में तिब्बत जाने के लिए कई संकरे दरें हैं। नीति, माणा और शिप किला इनमें प्रमुख हैं। सीमावर्ती क्षेत्र होने के कारण सुरक्षा की दृष्टि से यह अति महत्व का क्षेत्र है।

नन्दादेवी

कुमायूँ. हिमालय के अन्तर्गत कईपर्वत-शखर स्थित है। केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री का वर्णन पहले किया जा चुका है। नीलकण्ठ, कामेत तथा नन्दा देवीअन्य प्रमुख उच्च शिखर हैं। नन्दादेवी इनमें सर्वोच्च है।इसकी समुद्रतल से ऊँचाई ७८१७ मीटर है। नन्दादेवी साक्षात् भगवती देवी का स्वरूप है। भाद्र शुक्ला सप्तमी को इस क्षेत्र की यात्रा होती है। यह यात्रा कब प्रारम्भ हुई कुछ पता नहीं चलता है।आसपास शिलासमुद्र, नन्दापीठ तीर्थ स्थित है। नन्दादेवी ने अत्याचारीअसुरों का वध कर इस क्षेत्र को मुक्ति प्रदान की थी।

ऋषिकेश

हरिद्वार से उत्तर-पूर्व में स्थित यह पवित्र तीर्थ शैव व वैष्णव दोनों द्वारा समान रूप से पूजनीय है। यहाँ से तीर्थयात्री गंगोत्री, यमुनोत्री, बद्रीनाथ, केदारनाथ की यात्रा के लिएआगे बढ़ते हैं। श्रीराम मन्दिर,भरत मन्दिर, वराह मन्दिर प्रमुख मन्दिर हैं। मुनि की रेती, स्वगाँश्रम, परमार्थ निकेतन, लक्ष्मण झूला यहाँ के पवित्र दर्शनीय स्थान हैं।

मुक्तिनाथ

नेपाल स्थित यह नगर प्रसिद्ध तथा प्राचीन धार्मिक नगर है। भगवान् शंकर और विष्णु यहाँ पर्वत रूप में स्थित हैं। पुलह और पुलस्त्य ऋषियों ने इस क्षेत्र को अपनी तपस्या से पावन किया। पवित्र शालिग्राम शिलाओं के लिए विख्यात गण्डकी नदी मुक्तिनाथ के पास से बहती है। यही वह स्थान है जहाँ भगवान विष्णुने भक्त हाथी को बलशाली ग्रह के जबड़ों से मुक्त कराया था। भगवती सती का दाहिना गण्डस्थल यहीं पर गिरा था। अत: भगवती के प्रमुख शक्तिपीठों में इसकी गणना की जाती है।

पशुपतिनाथ ( काठमाण्डू )

नेपाल की राजधानी काठमाण्डू में विराजित पशुपतिनाथ भगवान् शिव कीअष्ट मूर्तियों में प्रमुख है। विश्वभर के शैव मतानुयायी पशुपति नाथ के प्रति अविचल श्रद्धा रखते हैं। काठमाण्डू तीर्थस्थान बागमती व विष्णुमती नदियों के संगम पर बसा है। बागमती के तट पर नेपाल के रक्षक मस्येन्द्रनाथ और विष्णुमती के तट पर पशुपति नाथ विराजमान हैं। पशुपतिनाथ मन्दिरमें पंचमुखी शिवअधिष्ठित हैं। बाहर नन्दी की विशाल प्रस्तर-मूर्ति है। पशुपति नाथ सेथोड़ी दूर गुहुयेश्वरी देवी का मन्दिर है। यह विशाल व भव्य मन्दिर ५१ शक्तिपीठों में से एक है। यहाँ सती के दोनों जानु गिरे थे। धवलगिरि, गौरीशंकर सरगमाथा (एवरेस्ट) तथा कचनजघा नेपाल स्थित हिमालय के उच्चतम शिखर हैं। धार्मिक व आध्यात्मिक दृष्टि से ये शिखर श्रद्धा के केन्द्र हैं। महाभारतादि ग्रन्थों में इनका वर्णन आया है। सागरमाथा (एवरेस्ट) विश्व का सर्वोच्च पर्वत है। इसकी समुद्रतल से ऊँचाई ८८४८ मीटर है। कच्चनजंघा नेपाल-सिक्किम सीमा स्थित पर्वत श्रृंग है। समुद्र-ताल से कंचनजघा की ऊंचाई लगभग ८५०० मीटर है।

लुम्बिनी

हिमालय की तलहटी में भगवान् बुद्ध से सम्बन्धित अनेक स्थान महत्वपूर्ण हैं। जिनमें लुम्बिनी, कपिलवस्तु, श्रावस्ती, कुशीनगर तथा कौशाम्बी प्रमुख हैं। कपिलवस्तु के पास लुम्बनी में भगवान बुद्ध का जन्म हुआ। यहाँ पर अनेक बौद्ध विहार थे, जो अब नष्ट हो चुके हैं। सम्राट अशोक के एक स्तम्भ से, यहीं पर बुद्ध का जन्म हुआ, यह पता चलता है । स्तम्भ के पास ही एक ही स्तूप भी है जिसमे भगवान बुद्ध की प्रतिमा स्थित है ।

श्रावस्ती

श्रावस्ती बलरामपुर (उत्तरप्रदेश) के समीप स्थित सहेट-महेठ गाँव ही है। कहते हैं श्रावस्ती की स्थापना भगवान राम के पुत्र लव ने की थी। महाभारत काल में युधिष्ठिर के अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े की रक्षा के लिए अर्जुन व सुधन्वा के मध्य यहीं पर युद्ध हुआ।भगवान बुद्ध यहाँ दीर्घकाल तक रहे।तीसरेतीर्थकर सम्भवनाथ का जन्मभी यहीं हुआ था। इस प्रकार श्रावस्ती बौद्ध व जैन दोनों का तीर्थ स्थान है। यहाँ पर कई जैन व बौद्ध मन्दिर धर्मशालाएँ तथा बौद्ध मठ हैं।

कुशीनगर

कुशीनगर(देवरिया)में 80 वर्ष कीआयु में भगवान्बुद्ध ने निर्वाण प्राप्त किया। बौद्ध मत से सम्बन्धित परिनिर्वाण स्तूप तथा विहार स्तूप विशेष उल्लेखनीय हैं।पुरातत्व विभाग द्वारा की गई खुदाई से इसके गौरवशाली अतीत की झांकी प्राप्त होतीहै।प्रयाग के पास स्थित कौशाम्बी भी भगवान बुद्ध से सम्बन्धित ऐतिहासिक नगरी है। काशी के पास विद्यमान उपनगर सारनाथ में भगवान् बुद्ध ने अपना पहला उपदेश जनता को सुनाया,अत: यहभी प्रसिद्ध बौद्ध तीर्थ के रूप में जाना जाता है। भगवान् बुद्ध तथा हिमालयक्षेत्र मेंस्थिति प्रमुख क्षेत्रों के वर्णन के बाद अब उत्तर प्रदेश के प्रमुख नगरों का वर्णन यहाँ दिया जा रहा है।

हस्तिनापुर

उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में गांगा के किनारे यह गौरवशाली नगर स्थित है। हस्तिनापुर कुरुवंशी राजाओं की राजधानी रहा है। पुराने समय में हस्तिनापुर गांगा के किनारे स्थित था। बाद में गंगा की प्रमुख धारा यहाँ से लगभग 10 किमी. दूर हटगयी और हस्तिनापुर के पास एक पतली सी धारा रह गयी जो अब बूढ़ी गंगा के नाम से जानी जाती है। बौद्ध साहित्य में भी हस्तिनापुर को कुरुओं की राजधानी के रूप में निरूपित किया गया है। तीन जैन तीर्थकरोंशान्तिनाथ, कुन्थुनाथ औरअहंन्नाथ का जन्म यहीं है। स्तम्भ के पास ही एक स्तूप भी है जिसमें भगवान् बुद्ध की प्रतिमा हुआ था।इन तीर्थकरों ने यहीं तपस्या की।आदि तीर्थकर श्रषभदेव जी भी यहाँ पधारे थे। अत: यह अतिशय क्षेत्र कहलाता है। यहाँ जैन मन्दिर तथा धर्मशालाएँ हैं।आज हस्तिनापुर जैनतीर्थों के रूप में पूजित है।

नैमिषारण्य

पुराणों का उद्गम स्थान नैमिषारण्य गोमती नदी के किनारे स्थितहै। नौ अरण्यों (वनों) में नैमिषारण्य प्रमुख माना जाता है। निमिष (समय की अतिसूक्ष्म इकाई) मात्र में दैत्यों का वध कर इस क्षेत्र को शान्तिक्षेत्र बनाने के कारण वराह पुराण में इसे नैमिषारण्य कहा गया है। भगवान् के मनोमय चक्र की नेमि(हाल) यहाँ गिरी थी इसलिए भी यह नैमिषारण्य कहलाया। वायुपुराण के अनुसार आज भी सूक्ष्म शरीरधारी ऋषिगण लोककल्याण के लिए स्वाध्याय में संलग्न हैं। लोमहर्षक के पुत्र सौति उग्रश्रवा ने यहीं ऋषियों कोपुराण सुनाये। बलरामजीभी यहाँ पधारे और एक यज्ञ किया। यहाँ एक भव्य प्राकृतिक सरोवर है जिसके गोलाकार मध्यवर्ती भाग से जल निकलता रहता है। इसके चारों ओर कई मन्दिर व देवस्थान हैं।सोमवती अमावस्या को यहाँ मेला लगता है। प्रति वर्ष फाल्गुन अमावस्या से फाल्गुन पूर्णिमा तक यहाँ की परिक्रमा की जाती है।

गोलागोकर्ण नाथ

छोटी काशी नाम से प्रसिद्ध प्राचीन तीर्थ गोला गोकर्णनाथ भगवान शिव का प्रिय स्थान है। यहाँ भगवान शिव का आत्मतत्व लिंग अधिष्ठित है। प्रमुख मन्दिर एक विशाल सरोवर के किनारे स्थित है। मन्दिर व सरोवर बहुत अच्छी अवस्था में नहीं है। वहाँ स्वच्छता की व्यवस्था अति आवश्यक है। भारत में दो गोकर्णनाथक्षेत्र एक दक्षिण मेंतथा दूसरा गोला गोकर्णनाथ यहाँ विद्यमान है। देवताओं द्वारा स्थापित भगवान् शिव का विग्रह यहाँप्राचीन काल से पूजित रहा है। आसपास के तीर्थों में भद्रकुण्ड, पुनभूकुण्ड, देवेश्वर महादेव, बटेश्वर तथा स्वर्णश्वर महादेव प्रमुख हैं। यहाँ शिवरात्रि तथा श्रावण पूर्णिमा को मेला लगता है।

लक्ष्मणपुर( लखनऊ )

रघुकुलभूषण श्रीराम के अनुज लक्ष्मणजी नेइस नगर की स्थापना की गोमती नदी के दोनों तटों पर बसा है। अतिप्राचीन नगर होने के कारण इसने भारत के उत्कर्ष औरअपकर्ष दोनों को देखा है। परतंत्रता के काल में इस नगर की मौलिकता समाप्त हो गयी। प्राचीन ऐतिहासिक स्थलों पर नये स्थान तत्कालीन शासकों ने जबरदस्ती बना दिये। प्रेसीडेन्सी भवन तथा इमामबाड़ा इसके प्रमुख उदाहरण हैं। वर्तमान में लखनऊ उत्तर प्रदेश प्रान्त की राजधानी है।

गोरखपुर

नाथ सम्प्रदाय का सबसे प्रमुख तीर्थस्थान गोरखपुर हीहै। योगियों में श्रेष्ठ गोरखनाथ जी ने जिस स्थान पर तपस्या की और जहाँ उन्होंने गहन समाधि का अभ्यास किया, वहीं पर बाबा गोरखनाथ का पावन मंदिर बना हुआ है। मुस्लिम शासनकाल में अनेक प्रतिकूल परिस्थितियों में भी इस तीर्थ की पवित्रता अक्षुण्ण रही। यह गोरख पंथियों की वीरता का ही प्रमाण है।अलाउद्दीन खिलजी ने एक बार इसकी पवित्रता भंग करने की कोशिश की थी, योगियों ने तुरन्त इसकी पवित्रता को प्रतिष्ठित कर दिखाया। औरंगजेब के शासनकाल में एक बार यह पवित्र मन्दिर ध्वस्त किया गया था,परन्तु फिर भत्तों की कर्मठता ने इसे अमरत्व प्रदान कर दिया। मन्दिर के केन्द्र में एक विस्तृत यज्ञस्थली है और पाश्र्व में एक दीपशिखा चारों ओर प्रकाश बिखेरती है। गीता प्रेस के वर्णन के बिना गोरखपुर का वर्णन अधूरा ही माना जायेगा। गोरखपुर स्थित यह प्रेस श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका और भाई जी हनुमान प्रसाद पोद्दार की कर्मठता का जीता जागता उदाहरण है।इस प्रेस नेअति अल्प मूल्य परहिन्दूधर्म-ग्रन्थों का प्रचार-प्रसार किया औरइस प्रकार सांस्कृतिक धरोहर के पुनरुत्थान और संरक्षण के लिए सराहनीय योगदान दिया। प्रेस के परिसर में निर्मित लीलाचित्र मन्दिर दर्शनीय है।

सीतामढ़ी

जगज्जननी सीता का उद्भव यहीं हुआ था। यह स्थान लखनदेई नामक नदी के तट पर स्थित है। कहते हैं एक बार मिथिला राज्य में भयंकर अकाल पड़ा। इन्द्र को प्रसन्न करने के लिए एक विशाल यज्ञ थी। लक्ष्मणपुर या लखनावती इसके प्राचीन नाम है। यह नगर पवित्र किया गया। मिथिला नरेश ने स्वयं हल चलाया तो वहाँ पर एक दिव्य कन्या प्रकटहुई। सीता (हल की खड) से उत्पन्न होने के कारण उसका नाम सीता पड़ा । यहाँ सीताजी का मन्दिर बना है। जिस स्थान पर सीताजी प्रकट हुई वहाँ यज्ञवेदी बनी हुई है।

जनकपुर (मिथिला)

जनकपुर का प्राचीन नाम मिथिला, तैरमुक्त विदेहनगर रहा। जनकपुर या मिथिला नेपाल राज्य के अन्तर्गत पड़ता है। यह मिथिला राज्य की राजधानी थी। महाराज जनक ने यहीं पर सीता स्वयंवर का आयोजन धनुष-यज्ञ के रूप में किया था। जनकपुर मेंएक प्राचीन दुर्ग के खण्डहर मिलते हैं जिसके चारों ओर शिलानाथ, कपिलेश्वर, क्षीरेश्वर तथा मिथिलेश्वर नामक प्राचीन शिव-मन्दिर हैं। गौतम, विश्वामित्र, याज्ञवल्क्य के आश्रम भी यहाँ पर थे। महाभारत युद्ध के बाद यह क्षेत्र निर्जन हो गया था। एकान्त के कारण कई सिद्ध ऋषियों ने यहाँ तपस्या की औरअक्षयवट के नीचे से राम पंचायतन की मूर्तियाँ निकलवाकर जनकपुर में प्रतिष्ठित करायीं।

मधुवनी

उत्तरी बिहार का अति प्राचीन नगर है। सीतामढ़ी से पूर्व की ओर स्थित इस नगर में प्राचीन मन्दिर है। आसपास के क्षेत्र में कई पुराने धार्मिक स्थल हैं।

पाटलिपुत्र

बिहार का सुप्रसिद्ध प्राचीन ऐतिहासिक नगर,जो अनेक साम्राज्यों और राज्यों की राजधानी रहा,आजकल पटना नाम से प्रसिद्ध है। प्राचीन समय में उसे पाटलिपुत्र' या पाटलीपुत्र के अतिरिक्त कुसुमपुर, पुष्पपुरी" या कुसुमध्वज नामों से भी जाना जाता था। यह गंगा और शोणभद्र (सोन) नदियों के संगम पर बसा है। ईसा से सैकड़ों वर्ष पूर्व बुद्ध के अनुयायी अजातशत्रु नामक राजा ने इस नगर का निर्माण करवाया था। स्वयं बुद्ध ने इसके उत्कर्ष की भविष्यवाणी की थी। यह दीर्घकाल तक मगध साम्राज्य की राजधानी रहा और इसने नन्द, मौर्य,शगु और गुप्त वंशों के महान् साम्राज्यों का उत्थान-पतन देखा। सिख पन्थ के दसवें गुरु श्री गोविन्द सिंह का जन्म पटना में ही हुआ था। स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद की भी यह कर्मभूमि रहा है। पाटलिपुत्र शक्तिपीठ के रूप में भी महत्वपूर्ण स्थान रखता है। जिस स्थान पर भगवती सती के पट(वस्त्र) गिरे, वहाँ पटन देवी का मन्दिर चिर काल से शक्तिपीठ के रूप में पूजित है। गुरु गोविन्द सिंह के जन्म-स्थान परपटना साहिब का प्रसिद्ध गुरुद्वारा बना हुआ है। प्रतिवर्ष पौष शुक्ल सप्तमी को यहाँ गुरु गोविन्द सिंह का जन्म महोत्सव धूमधाम से मनाया जाता है।पटना सिद्ध क्षेत्र माना गया है। यहाँ कई जैन मन्दिर तथा बौद्ध मठ विद्यमान हैं। प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य आर्यभट्ट का जन्म यहीं हुआ था।आचार्य चाणक्य और चन्द्रगुप्त ने भी पाटलिपुत्र में ही जन्म लेकर मां भारती की सेवा की।

वैशाली

बिहार की प्राचीन नगरी है। प्रसिद्ध लिच्छवि गणराज्य की राजधानी जिसे सम्पूर्ण वजिज संघ की राजधानी होने का भी गौरव प्राप्त है। यह नगरी एक समय अपनी भव्यता और वैभव के लिए सम्पूर्ण देश में विख्यात थी। २४ वें जैन तीर्थकर महावीर का जन्म वैशाली में ही हुआ था। इस नाते यह जैन पंथ का प्रसिद्ध तीर्थ एवं श्रद्धा का केन्द्र है। बुद्ध के समय में भारत के छ: प्रमुख नगरों में वैशाली भी एक थी।बुद्ध ने भी इस नगरी को अपना सान्निध्य प्रदान किया। वैशाली का नामकरण इक्ष्वाकुवंशी राजा विशाल के नाम पर हुआ माना जाता है। भगवान् राम ने मिथिला जाते हुए इसकी भव्यता का अवलोकन किया था।

राजगृह

पटना से लगभग १०० किमी. दक्षिण-पूर्व में पहाड़ियों से घिरा हुआ 'राजगिर" (राजगृह) अति प्राचीन नगर है। यहाँ के प्रमुख स्थान हैं राजगृह, वसुमति, बृहद्पुर, गिरिव्रज। यह नगर बौद्ध, जैन तथा सनातनी हिन्दुओं का तीर्थ स्थान है। अनेक शताब्दियों तक राजगिरि मगध गणराज्य की राजधानी रहा। यहाँ परबौद्ध व जैन पंथों का विकास हुआ। इक्कीसवें तीर्थकर मुनि सुव्रतनाथ का जन्म, तप, ज्ञान, कल्याणक यहीं हुए।अन्तिम तीर्थकर महावीर स्वामी ने राजगिर में कई चातुर्मास किये। राजगिर के चारों ओर पाँच पहाड़ियाँ हैं जिन पर जैन व बौद्ध मन्दिर हैं। पहाड़ियों में कई झरने व कुण्ड हैं जिनमें ब्रह्मकुण्ड, सप्तर्षिधारा,गंगा-यमुना कुण्ड, अनन्त कुण्ड, काशीधारा प्रमुख हैं। झरनों में अनेक गन्धक के झरने हैं जिनमें व्याधि-हरण की अद्भुतक्षमता है। रास्वसंघ केआद्य सरसंघचालक डा. हेडगेवार भी यहाँ पधारे थे। वेणुवन, गृधकुटतथा सप्तपणीं बौद्धों के प्रसिद्धतीर्थ स्थान हैं। करकन्द निवास,पीपला गुफा, सोन भण्डार, रणभूमि (भीम-जरासंघ की), जीवक का आम्र कुंज, विश्वशांति स्तूप, बाण गंगा नामक कई दर्शनीय स्थान यहाँ हैं।

नालन्दा

राजगृह से लगभग 11 कि.मी. दूर नालन्दा विश्वविद्यालय के खण्डहर विद्यमान हैं। इसका इतिहास बहुत प्राचीन है। ईसा के कई शताब्दी पूर्व इसकी स्थापना हुई। इस विश्वविद्यालय में संसार के समस्त देशों से विद्याथीं विद्यार्जन के लिएआतेथे।अनेक शताब्दियों तक यह विश्वविद्यालय ज्ञान-सुरभि चतुर्देिक फैलाता रहा। नागार्जुन,शीलभद्र, दिडनाग, धर्मकीर्ति आदि विख्यात आचार्यइस विश्वविद्यालय के शिक्षक रहे।मुस्लिम आक्रमण के समय यह विश्वविद्यालय छवस्त कर दिया गया। इस विश्वविद्यालय का पुस्तकालय इतना विशाल था कि बख्तियार खिलजी ने जब उसमें आग लगवायी तो वह कई मास तक जलता रहा। नालंदा बौद्ध, जैन तथा सनातनियों का पूज्य स्थल है। यहाँ सूर्य मन्दिर व सरोवर तथा कई जैन व बौद्ध मन्दिर विद्यमान हैं। नालंदा की खुदाई से अनेक महत्वपूर्ण सामग्री प्राप्त हुई जिनसे इसके वैभव का पता चलता है।

पावापुरी

यह प्रसिद्ध जैन तीर्थ हैं। 24वें तीर्थकर महावीर स्वामी ने यहाँ दीपावली के दिन निर्वाण प्राप्त किया। जहाँ महावीर स्वामी का शरीरान्त उसके बीचोंबीच संगमरमर का भव्य मन्दिर बना है। इसे जल मन्दिर कहा जाता है। जलमन्दिरमें महावीर स्वामी, गौतम स्वामी और सुधर्मस्वामी के चरण-चिह्न अंकित हैं। यहाँ पर दिगम्बर व शवेताम्बर दो सम्प्रदायों के मन्दिरऔर धर्मशालाएँ हैं।प्रतिवर्ष दीपावली केअवसर पर सम्पूर्ण देश से जैन मतावलम्बी यहाँ एकत्रित होते हैं।इसका प्राचीन नाम अपापा पुरी है।

पारसनाथ पहाड़ी ( सम्मेदशिखर )

पारसनाथ पहाड़ी 23वें तीर्थकर पारसनाथ जी से सम्बन्धित है। यहाँ उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया था। पारसनाथ पहाड़ी बहुत ही सुरम्य व प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर है। पहाड़ी परभगवान पारसनाथ का सुन्दर मन्दिर हैं जिसमें पारसनाथ की काले पत्थर की भव्य प्रतिमा स्थापित है। स्थानीय जनता पारस नाथ पहाड़ी को देवी स्थल मानकर श्रद्धा रखती है। इसे सम्मेद शिखर भी कहते हैं। सभी जैन सम्प्रदाय इसे परम पवित्र क्षेत्र मानते हैं। यहाँ परएक अन्य मन्दिर में तीर्थकरों की मूर्तियाँ स्थापित हैं। एक स्थानीय मान्यता के अनुसार इस पर्वत की वन्दना से नरकवास से बचा जा सकता है।

महिषी

महिषी मण्डन मिश्र का निवास स्थान है। इसका प्राचीन नाम सहषाँ भी है। यही वह स्थान है जहाँ पर मण्डन मिश्र और जगद्गुरु आदि शंकराचार्य का इतिहास-प्रसिद्ध शास्त्रार्थ हुआ था। मण्डन मिश्र आदि जगद्गुरु के तकों का सामना नहीं कर सके और पराभूत हो शांकराचार्य के शिष्य बन गये। परन्तु मण्डन मिश्र की धर्मपत्नी ने शांकराचार्य से दाम्पत्य जीवन से सम्बन्धित प्रश्न पूछकर उन्हें निरुत्तर कर दिया। तब शांकराचार्य ने उस प्रश्न का उत्तर देने के लिए समय माँगा लिया। तत्पश्चात् एक राजा की मृत देह में प्रवेश कर उन्होंने इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त किया, तभी शांकराचार्य को विजयी माना गया। यह स्थान उत्तर बिहार में नेपाल सीमा के पास स्थित है।

राँची

हजारीबाग के पठारी व पर्वतीय प्रदेश में स्थित यह आधुनिकऔद्योगिक हुआ, वहाँ एक प्राचीन मन्दिर बना हुआ है। समीप ही एक सरोवर और नगर है। इसे बिहार की ग्रीष्मकालीन राजधानी होने का भी श्रेय प्राप्त है। रॉची समुद्रतल से लगभग 700 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। रॉची के चारों ओर प्राकृतिक छटा बिखरी पड़ी है। इसके पास में एक पहाड़ी पर स्थित शिव मन्दिर रॉची के सौन्दर्य को भव्यता प्रदान करता हैं। बिहार के सुन्दरतम प्राकृतिक जल-प्रपात रॉची के समीपवर्ती प्रदेश में पड़ते हैं। इनमें सुवर्ण रेखा नदी पर 107 मीटर ऊँचा हुण्डु, प्रपात तथा इसकी सहायक नदी परजोन्हा प्रपात प्रमुख हैं। रॉची बिहार का औद्योगिक नगर है।जहाँ यंत्र-निर्माण तथा खनिजों से सम्बन्धित उद्योगों का विकास हुआ है। झारखण्ड प्रदेश बनाने के उपरान्त अब रॉची उसकी राजधानी है।

जमशेदपुर ( टाटा नगर )

आज से लगभग ९० वर्ष पूर्व कोई नहीं जानता था कि थोड़े ही दिनों में छोटा सा साक्ची गाँव दुनियाभर में इस्पातनगरी के रूप में प्रसिद्ध हो जायेगा। परन्तुआज यह बात प्रसिद्ध उद्यमी जमशेदजी टाटा के अथक परिश्रम से सर्वविदित है। १९०७ में श्री टाटा ने यहाँ इस्पात का एक कारखाना लगाया और देखते ही देखते पुराना साकची गाँव जमशेदपुर (टाटा नगर) में बदल गया।जमशेदपुर इस बात का जीता-जागता प्रमाण है कि भारत में सभी समुदायों के लोगों को उन्नति के न केवल समान अवसरप्राप्त हैं वरन् वे उन्नति करते-करते चरमोत्कर्ष पर पहुँच सकते हैं।स्मरण रहे कि जमशेद जी टाटा पारसी समुदाय से सम्बन्धित हैं। यह समुदाय सैकड़ों वर्ष पहले मध्य पूर्व से इस्लाम के अनुयायियों से मार खाकर भारत में आया और यहाँ की उन्नति में ही अपनी उन्नति समझने लगा। जमशेदपुर भारत के स्वच्छतम नगरों में गिना जाता है। पास में पहाड़ी पर विजयतारा देवी का मन्दिर, रुद्र हनुमान मन्दिरऔर गुफा में दलमेश्वर शिव, शीतलादेवी तथा कालमैरव मन्दिर स्थित हैं।

गया

बिहार राज्य में फल्गु नदी के तटपर बसा प्राचीन नगरहै। जिसका उल्लेख पुराणों, महाभारत तथा बौद्ध साहित्य में हुआ है। पुराणों के अनुसार गाय नामक महापुण्यवान् विष्णुभक्त असुर के नाम पर इस तीर्थ नगर का नामकरण हुआ। मान्यता है कि गया में जिसका श्राद्ध हो वह पाप मुक्त होकरब्रह्मलोक में वास करता है।भगवान् रामचन्द्र और धर्मराज ने गया में पितृश्राद्ध किया था। पितृश्राद्ध का यह विख्यात तीर्थ है। विष्णुपद मन्दिर यहाँ का प्रमुख दर्शनीय स्थान है। गौतम बुद्ध को यहाँ से कुछ दूरी पर बोध प्राप्त हुआ था। वह स्थान बोध गया अथवा बुद्ध गया। कहलाता है। वहाँ प्रसिद्ध बोधिवृक्ष तथा भगवान् बुद्ध का विशाल मन्दिर विद्यमान है। महाभारत के वन पर्व में तथा वायु पुराण में गया का विस्तार के साथ वर्णन' किया गया है। सम्पूर्ण मगध क्षेत्र में गया पुणक्षेत्र माना गया है।" विष्णुपद, गदाधर प्रमुख मन्दिर तथा सीताकुण्ड, ब्रह्मकुण्ड, रामशिला, मतंगवापी, धर्मारण्य आदि पवित्र सरोवर व तीर्थ स्थल गया में विद्यमान हैं।

प्रयाग

उत्तरप्रदेश में गांगा-यमुना के संगम पर स्थित प्रयाग प्रसिद्धतीर्थ है। अपने असाधारण महात्म्य के कारण इसे त्रिवेणी संगम भी कहते हैं। प्रयाग में प्रति बारहवें वर्ष कुम्भ, प्रति छठे वर्षअर्द्ध कुम्भ और प्रतिवर्ष माघ मेला लगता है।इन मेलों में करोड़ों श्रद्धालु और साधु-संत पर्व स्नान करने आते हैं। प्रयाग क्षेत्र में प्रजापति ने यज्ञ किया था जिससे इसे प्रयाग नाम प्राप्त हुआ। भारद्वाज मुनि का प्रसिद्ध गुरुकुल प्रयाग में ही था। वन जाते हुए श्रीराम, सीता और लक्ष्मण उसआश्रम में ठहरेथे। तुलसीकृत रामचरित-मानस के अनुसार वहीं परमुनि याज्ञवल्क्य नेभारद्वाज मुनि को रामकथा सुनायी थी। समुद्रगुप्त के शासन के वर्णन का एक उत्कृष्ट शिलास्तम्भ प्रयाग में पाया गया है। यहीं वह वटवृक्ष (अक्षयवट) है जिसके बारे में मान्यता है कि वह प्रलयकाल में भी नष्ट नहीं होता।" इसी विश्वास और श्रद्धा को तोड़ने के लिए आक्रांता मुसलमानों- विशेषत: जहांगीर- ने उसे नष्ट करने के बहुत प्रयत्न किये, किन्तु वह वटवृक्ष आज भी वहाँ खड़ा है। प्रयाग में माघ मास में स्नान का विशेष महात्म्य हैं।" प्रयाग के गांगापार का भाग प्रतिष्ठानपुर (यूसी) कहलाता है।

गयायाँ नहि तत् स्थानं यत्र तीर्थ न विद्यते। सान्निध्यं सव्र तीथॉनां गया तीर्थ ततो वरम्।

मगधे च गया। पुण्या नदी पुण्या पुन: पुनः।

आदि वट समाख्यातः कल्पान्तेऽय च दृश्यते। शोते विष्णुर्यस्प यत्रे अतोऽयमव्यय, स्मृतः।

प्रयागो तु नरो यस्तु माघस्नानं करोति च।

न तस्य फलसंख्यास्ति श्रृंष्णु देवर्षिसत्तम। (पदम् पुराण)

चित्रकूट

चित्रकूट हिन्दुओं के पवित्रतम् स्थानों में है। यह उत्तरप्रदेश के बाँदा जिले में मध्यप्रदेश सीमा पर स्थित हैं। पास में ही कामदगिरि नामक पर्वत भी है। वनवास के समय भगवान् श्रीराम, माँ सीता व लक्ष्मण यहाँ पधारे थे। चित्रकूटही वह स्थान है, जहाँभरतजी ने श्रीराम से भेंट कर उनकी चरण-पादुकाएँ प्राप्त कीं।' गोस्वामी तुलसीदास ने यहीं प्रभु श्रीराम का साक्षात्कार करजीवन को धन्य किया।" वाल्मीकि- रामायण में कहा गया है कि चित्रकूट के दर्शन करते रहने से मानव कल्याण-मार्ग पर चलते हुए मोह और अविवेक से दूर रहता है। भगवान् श्रीराम के चरणों से पवित्र चित्रकूट में महाराज युधिष्ठिर ने कठोर तपस्या की। महाराज नल ने चित्रकूटमेंतप द्वारा अपनेअशुभ कमाँ को जलाकर खोया राज्य पुन:प्राप्त किया। महाकवि कालिदास ने अपने 'मेघदूतम्' में चित्रकूट के सौन्दर्य का मनोहारी वर्णन किया है। पयस्विनी नदी के तट पर स्थित चित्रकूट में रामनवमी, दीपावली तथा चन्द्र व सूर्य ग्रहण के अवसरोंपर मेले आयोजित किये जाते हैं और परिक्रमा की जाती है। यहाँ रामघाट, राम-लक्ष्मण मन्दिर, अनसूया आश्रम, भरतकूप, कोटितीर्थ, हनुमानधारा, गुप्त गोदावरी, देवगांगा आदि धार्मिक व ऐतिहासिक स्थान हैं। अत्रि ऋषि इस क्षेत्र के अधिष्ठाता हैं। अत्रि-अनसूया आश्रम में भगवती सीता ने अनसूया से पति-परायण होने के लिए उपदेश प्राप्त किया था। रामघाट के पास स्थित यज्ञवेदी मन्दिर वह स्थान है जहाँ ब्रह्माजी ने सबसे पहले यज्ञ किया था। यहीं परश्रीराम वभरतमिलाप हुआ। चित्रकूट के पास की बस्ती का नाम सीतापुर है। यहाँ पर जानकी नाम का पवित्र सरोवर है। यहाँ शक्तिपीठ भी हैं।

विंध्यवासिनी ( मिर्जापुर )

मिर्जापुर गांगातट पर बसा प्राचीन नगर है। यहाँ पर गंगा के किनारे-किनारे कई घट व मन्दिर हैं। सबसे प्रसिद्ध मन्दिर श्रीतारकेश्वरनाथ महादेव का है। थोड़ी दूरी पर वामन भगवान् का मन्दिर है। यहाँ वामन द्वादशी (भाद्रपद शुक्ल द्वादश) पर मेला लगता है। दुग्धेश्वर शिवमन्दिरअन्य प्रमुख मन्दिर हैं। मिर्जापुर के पास ही विन्ध्यवासिनी नामक प्रसिद्ध देवी का सिद्धपीठ है। यह मन्दिर विध्यांचल के पूर्वी छोर पर एक पहाड़ी पर अधिष्ठित है। महाशक्ति के द्वादश स्वरूपों मे विंध्यवासिनी एक है। इनको कौशिकी देवी भी कहा जाता है। विंध्याचल में महाकाली औरअष्टभुजा के रूप में भी महाशक्ति विराजित है। विंध्यवासिनी से ३ कि.मी.पर महाकाली और महाकाली से लगभग १५ किमी. पर अष्टभुजा देवी मन्दिर विद्यमान है। इस क्षेत्र के अन्य प्रमुख मन्दिर खर्पोरेश्वर शिव,हनुमान, अन्नपूर्णा, श्रीकृष्ण, सीताकुण्ड आदि हैं।

खजुराहो

मूर्तिकला की दृष्टि से सर्वोत्कृष्ट मन्दिरों के लिए विख्यात खजुराहो मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले के अन्तर्गत पड़ता है। लगभग चार शताब्दियों तक खजुराहो चन्देल नरेशों की राजधानी रहा। उसी दौरान इन कलात्मक मन्दिरों का निर्माण हुआ। वास्तव में खजुराहो एक गाँव है जो काजरों अथवा निनोरा ताल के किनारे बसा है। गाँव के बाहर मन्दिरों का एक समूह है, इनमें शैवशाक्त, वैष्णव,जैन व बौद्धमतावलम्बियों के मन्दिरों की संख्या कई हैं। प्रमुख मन्दिरों में कण्डरिया महादेव, काली मन्दिर, विश्वनाथ,चतुर्भुज मन्दिर, मतंगेश्वर,आदिनाथ व पाश्र्वनाथ मन्दिर हैं। ये मन्दिरभी मुस्लिम आक्रान्ताओं की बर्बरता का शिकारहुए। सन् १८९४-९५ ई. में सिकन्दर लोदी ने इनके कुछ भाग को ध्वस्त कर दिया था।

झाँसी

महारानी लक्ष्मीबाई की राजधानी झांसी इतिहास प्रसिद्ध नगर है। यहाँ पर एक पुराना दुर्ग है। इस दुर्ग में ही रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजी सेना से लोहा लिया था। झांसी के राजा गांगाधर राव निस्सन्तान स्वर्गवासी हो गये थे। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने उनके दत्तक पुत्र को मान्यता नहीं दी और झांसी को अंग्रेजी साम्राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी। उधर सम्पूर्ण देश में स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए संघर्ष की रूपरेखा तैयार की जा रही थी। रानीअंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ी और युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुई। दुर्ग के अतिरिक्त भी कई ऐतिहासिक भवन व प्राचीन मन्दिर झांसी में विद्यमान हैं।

ग्वालियर

ग्वालियर मध्यप्रदेश का प्रमुख नगर व तोमरतथा सिन्धिया राजवंशों की राजधानी रहा है। ग्वालियर ने अनेक उत्थान व पतन देखें हैं। ग्वालियर नगर ३ छोटे नगरों का मिला जुला रूप है। यहाँ पहाड़ी पर विशाल दुर्ग है। गुप्त, प्रतिहार, तोमर, मराठा कालीन कई स्थान यहाँ पर हैं। भगवान श्रीविष्णु का चतुर्भुज मन्दिर यहाँ का प्रमुख मन्दिर है। गूजरी महल, जयविलास प्रसाद, सास बहु का मन्दिर, तेलिका मन्दिर,तानसेन का समाधि आदि ग्वालियर के प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं।

References