Difference between revisions of "बनारस की वेधशाला"

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इसी प्रकार मुझे बताता गया कि यंत्रों (साधनों ) पर माप हेतु विभाग बनाये गये हैं, परन्तु उन पर माप अंकित नहीं है। यदि उन पर उपविभाग और अंक होते तो उनके द्वारा हमें प्राचीन अक्षरों या अंक विषयक जानकारी प्राप्त होती । संभव है उनके माप हमें हिन्दुओं के प्राचीन माप विषयक जानकारी देते हैं। वास्तव में किसी भी अवलोकन या माप लेने में अत्यन्त चौकसी रखनी चाहिए। क्यों कि प्रायोगिक अवलोकन लेने में भूमिति जैसी स्थिति है, जहाँ कुछ बिन्दुओं का स्थान अनेक रेखाएँ निश्चित करने हेतु पर्याप्त है। इसी प्रकार कुछ निश्चित अवलोकन और सुनिश्चित तथ्यों की सहायता से बहुत सारे निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। इससे, ऐसे प्रत्येक अवसर का लाभ उठाना चाहिए, जो अन्य किसी दिशा में न होकर भविष्य के अवलोकनों को फलदायी बनाने की दिशा में होगा। हमें इस पर ध्यान देना चाहिए कि ज्ञान प्रयोगों की संख्या के अनुपात में नहीं, परन्तु उसकी अपेक्षा बहुत बड़े अनुपात में बढ़ता है और एक अकेला अवलोकन कदाचित नगण्य अथवा निर्स्थक लगने पर भी अन्य अवलोकनों के साथ मिलकर बहुत बड़ा असर पैदा कर सकता है। यों तो, जिस प्रकार भूमिति में एक बिन्दु द्वारा कुछ भी निश्चित नहीं हो पाता; जब कि दो बिन्दु मिलकर एक रेखा बन जाती है, यदि उनमें अन्य दो बिन्दु जोड़े जाएँ तो छः रेखाएँ प्राप्त होती हैं। इतना ही नहीं परन्तु छः वृत्त और एक परवलय के माप और स्थान भी मिलते हैं। यदि हम अन्य दो बिन्दुओं को जोड़ें (जो अकेले होते तो मात्र एक ही रेखा दे पाते) तो उनके द्वारा पन्‍्द्रह रेखाएँ, बीस वृत्त, पन्द्रह परवलय और छः अतिवलय या उपवलय निश्चित हो सकते हैं। जिसके आधार पर अन्य असंख्य, विविध प्रकार के निष्कर्ष प्राप्त किये जा सकते हैं। प्रथम दृष्टि से केवल पन्द्रह रेखाएँ ही दिखाई देंगी, तथापि इसी प्रकार से अन्य आकृतियाँ क्रमशः रची जा सकती हैं। इसी प्रकार कतिपय विशिष्ट स्थितियों में अन्य निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं । इसी तर्क के आधार पर बनारस की वेधशाला में केवल खगोलीय दृष्टिकोण से लिये गये अवलोकन व्यापार, इतिहास, कालगणना तथा अन्य अनेक क्षेत्रों में उपयोगी हो सकतेहैं ।
 
इसी प्रकार मुझे बताता गया कि यंत्रों (साधनों ) पर माप हेतु विभाग बनाये गये हैं, परन्तु उन पर माप अंकित नहीं है। यदि उन पर उपविभाग और अंक होते तो उनके द्वारा हमें प्राचीन अक्षरों या अंक विषयक जानकारी प्राप्त होती । संभव है उनके माप हमें हिन्दुओं के प्राचीन माप विषयक जानकारी देते हैं। वास्तव में किसी भी अवलोकन या माप लेने में अत्यन्त चौकसी रखनी चाहिए। क्यों कि प्रायोगिक अवलोकन लेने में भूमिति जैसी स्थिति है, जहाँ कुछ बिन्दुओं का स्थान अनेक रेखाएँ निश्चित करने हेतु पर्याप्त है। इसी प्रकार कुछ निश्चित अवलोकन और सुनिश्चित तथ्यों की सहायता से बहुत सारे निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। इससे, ऐसे प्रत्येक अवसर का लाभ उठाना चाहिए, जो अन्य किसी दिशा में न होकर भविष्य के अवलोकनों को फलदायी बनाने की दिशा में होगा। हमें इस पर ध्यान देना चाहिए कि ज्ञान प्रयोगों की संख्या के अनुपात में नहीं, परन्तु उसकी अपेक्षा बहुत बड़े अनुपात में बढ़ता है और एक अकेला अवलोकन कदाचित नगण्य अथवा निर्स्थक लगने पर भी अन्य अवलोकनों के साथ मिलकर बहुत बड़ा असर पैदा कर सकता है। यों तो, जिस प्रकार भूमिति में एक बिन्दु द्वारा कुछ भी निश्चित नहीं हो पाता; जब कि दो बिन्दु मिलकर एक रेखा बन जाती है, यदि उनमें अन्य दो बिन्दु जोड़े जाएँ तो छः रेखाएँ प्राप्त होती हैं। इतना ही नहीं परन्तु छः वृत्त और एक परवलय के माप और स्थान भी मिलते हैं। यदि हम अन्य दो बिन्दुओं को जोड़ें (जो अकेले होते तो मात्र एक ही रेखा दे पाते) तो उनके द्वारा पन्‍्द्रह रेखाएँ, बीस वृत्त, पन्द्रह परवलय और छः अतिवलय या उपवलय निश्चित हो सकते हैं। जिसके आधार पर अन्य असंख्य, विविध प्रकार के निष्कर्ष प्राप्त किये जा सकते हैं। प्रथम दृष्टि से केवल पन्द्रह रेखाएँ ही दिखाई देंगी, तथापि इसी प्रकार से अन्य आकृतियाँ क्रमशः रची जा सकती हैं। इसी प्रकार कतिपय विशिष्ट स्थितियों में अन्य निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं । इसी तर्क के आधार पर बनारस की वेधशाला में केवल खगोलीय दृष्टिकोण से लिये गये अवलोकन व्यापार, इतिहास, कालगणना तथा अन्य अनेक क्षेत्रों में उपयोगी हो सकतेहैं ।
  
प्राचीन लेखकों की वैज्ञानिक खोज विषयक विरोधाभासी अभिप्रायों का भी निराकरण हो जाता है और खाल्डियन धूमकेतुओं के पुनरागमन अथवा ग्रहणों विषयक भविष्यवाणी करने में सक्षम थे या नहीं इस विषय में लेखकों के तत्सम्बन्धी अभिषप्राय परस्पर भिन्न हो जाते है, क्यों कि प्रत्येक शिक्षक या पंथ का गुरु जो कुछ भी ज्ञान भारतीय स्रोत से प्राप्त करता था, हमेशा स्रोत की प्रसिद्धि नहीं करता था और भारत को श्रेय देना नहीं चाहता था। इस प्रकार विट्रवियस खाल्डियन के बेरोसस को अन्तर्गोल सौर घड़ी का आविष्कारक मानता है, जब कि यह ज्ञान उसे ब्राह्मणों से प्राप्त हुआ है यह स्पष्ट प्रतीत होता है क्योंकि बनारस में ऐसी ही सौर घड़ी विद्यमान है।
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प्राचीन लेखकों की वैज्ञानिक खोज विषयक विरोधाभासी अभिप्रायों का भी निराकरण हो जाता है और खाल्डियन धूमकेतुओं के पुनरागमन अथवा ग्रहणों विषयक भविष्यवाणी करने में सक्षम थे या नहीं इस विषय में लेखकों के तत्सम्बन्धी अभिषप्राय परस्पर भिन्न हो जाते है, क्यों कि प्रत्येक शिक्षक या पंथ का गुरु जो कुछ भी ज्ञान धार्मिक स्रोत से प्राप्त करता था, हमेशा स्रोत की प्रसिद्धि नहीं करता था और भारत को श्रेय देना नहीं चाहता था। इस प्रकार विट्रवियस खाल्डियन के बेरोसस को अन्तर्गोल सौर घड़ी का आविष्कारक मानता है, जब कि यह ज्ञान उसे ब्राह्मणों से प्राप्त हुआ है यह स्पष्ट प्रतीत होता है क्योंकि बनारस में ऐसी ही सौर घड़ी विद्यमान है।
  
भारत में विज्ञान के विकास का दूसरा कारण यह है कि भारतीय संस्कृति विश्व के अन्य राष्ट्रीं से अधिक पुरातन है। यह भी हम जानते हैं कि जो लोग सुसंस्कृत होते हैं उनका झुकाव कलाओं की साधना की ओर स्वतः होता है। उनकी आज की स्थिति से ही ज्ञात होता है कि ये लोग अति प्राचीनकाल से सुसंस्कृत हैं ।
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भारत में विज्ञान के विकास का दूसरा कारण यह है कि धार्मिक संस्कृति विश्व के अन्य राष्ट्रीं से अधिक पुरातन है। यह भी हम जानते हैं कि जो लोग सुसंस्कृत होते हैं उनका झुकाव कलाओं की साधना की ओर स्वतः होता है। उनकी आज की स्थिति से ही ज्ञात होता है कि ये लोग अति प्राचीनकाल से सुसंस्कृत हैं ।
  
भारतीय खगोलशाख्ियों के द्वारा किये गये अवलोकन मुख्यतः उनकी पाण्डुलिपियों में प्राप्त होते हैं, फलतः उनकी जानकारी स्थानीय लोगों के साथ व्यापक संवाद आयोजन कर के ही प्राप्त की जा सकती है। इसीलिए बनारस के यंत्रों का सावधानी पूर्वक परीक्षण करना आवश्यक है। ऐसे अवलोकन प्राप्त होने पर भविष्य में उनका उपयोग करने में हम सक्षम बन सकते हैं ।
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धार्मिक खगोलशाख्ियों के द्वारा किये गये अवलोकन मुख्यतः उनकी पाण्डुलिपियों में प्राप्त होते हैं, फलतः उनकी जानकारी स्थानीय लोगों के साथ व्यापक संवाद आयोजन कर के ही प्राप्त की जा सकती है। इसीलिए बनारस के यंत्रों का सावधानी पूर्वक परीक्षण करना आवश्यक है। ऐसे अवलोकन प्राप्त होने पर भविष्य में उनका उपयोग करने में हम सक्षम बन सकते हैं ।
  
एक सामान्य मान्यता बन गई है कि भारतीय खगोलशाख्ियों की अवगणना की जाए और कहा जाए कि उनका सर्व ज्ञान केवल ग्रहणों के भविष्य कथन में केन्द्रित है। वास्तव में हमारे खगोलशास्त्र में ग्रहणगणना करना कोई साधारण बात नहीं है। यदि ब्राह्मण गणना की संक्षिप्त पद्धति से सुपरिचित हैं अथवा जिससे यह प्रक्रिया एकदम सरल बन जाती है ऐसी कोई पद्धति उन्हें अवगत है तो उनकी इन पद्धतियों के विषय में छानबीन करना आवश्यक हो जाता है। यह सब इसलिए आवश्यक है कि इसके सम्बन्ध में हमारी पद्धतियाँ अत्यन्त अटपटी और उबाऊ हैं। यह भी ज्ञात हुआ कि ब्राह्मण धूमकेतुओं के पुनः वापिस आने के स्थानों की गणना के भी जानकार थे। यह सब (यंत्रशास्त्र और तत्त्वज्ञान के समग्र सिद्धान्तों सहित) अत्यन्त कठिन और अटपटा कार्य है। यदि वे इस कार्य को करने में समर्थ रहे हैं तो (मेरे अभिप्राय में) उन्हें खगोलशास्त्र को उसके चरम विकास तक पहुँचाने विषयक किसी विशेष प्रमाण की आवश्यकता नहीं रहती ।
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एक सामान्य मान्यता बन गई है कि धार्मिक खगोलशाख्ियों की अवगणना की जाए और कहा जाए कि उनका सर्व ज्ञान केवल ग्रहणों के भविष्य कथन में केन्द्रित है। वास्तव में हमारे खगोलशास्त्र में ग्रहणगणना करना कोई साधारण बात नहीं है। यदि ब्राह्मण गणना की संक्षिप्त पद्धति से सुपरिचित हैं अथवा जिससे यह प्रक्रिया एकदम सरल बन जाती है ऐसी कोई पद्धति उन्हें अवगत है तो उनकी इन पद्धतियों के विषय में छानबीन करना आवश्यक हो जाता है। यह सब इसलिए आवश्यक है कि इसके सम्बन्ध में हमारी पद्धतियाँ अत्यन्त अटपटी और उबाऊ हैं। यह भी ज्ञात हुआ कि ब्राह्मण धूमकेतुओं के पुनः वापिस आने के स्थानों की गणना के भी जानकार थे। यह सब (यंत्रशास्त्र और तत्त्वज्ञान के समग्र सिद्धान्तों सहित) अत्यन्त कठिन और अटपटा कार्य है। यदि वे इस कार्य को करने में समर्थ रहे हैं तो (मेरे अभिप्राय में) उन्हें खगोलशास्त्र को उसके चरम विकास तक पहुँचाने विषयक किसी विशेष प्रमाण की आवश्यकता नहीं रहती ।
  
 
सामान्य रूप से ऐसी जानकारी प्राप्त हुई है कि ब्राह्मण उनकी ग्रहण गणना हमारी तरह खगोलीय कोष्ठकों द्वारा न कर, नियमों की सहायता से करते हैं। अब ये नियम हमारे कोष्ठकों जितने ही सही हैं अथवा नहीं हैं, यदि वे सही नहीं हैं तो वे कदाचित खाल्डियनों के “सरोस' चक्र अर्थात्‌ २२३ चान्द्र मास अथवा 'निरोस चक्र' अर्थात्‌ ६०० वर्षों के चक्र के अनुसार - क्रियान्विति की पद्धति होनी चाहिए, जो ग्रहण के सन्निकटस्थ समय के अनुमान में उपयोगी रही होगी । यदि वे हमारे जितने ही सही रहे हों अथवा लगभग सही हों तो यह मानना पड़ेगा कि वे अत्यन्त विशिष्ट प्रकार की बीजगणितीय गणनाओं के जानकार होने चाहिए। इतना ही नहीं उनकी पारम्परिक अपूर्णांक के सिद्धान्त की समझ अच्छी होनी चाहिए। क्यों कि उस आवर्तीय आसादन हेतु उसकी आवश्यकता पड़ती है। इस विषय में मैं अधिक दृढ़ हूँ, क्यों कि मैंने सुना है कि ब्राह्मणों के पास ग्रहणों की गणना करने के अलग अलग नियम हैं और इन नियमों में अपेक्षाकृत जितनी शुद्धता की आवश्यकता है उसकी तुलना में वे कम अटपटे हैं। यह तथ्य बीजगणितीय सूत्रों द्वारा निष्कर्षित आसादन के साथ पूर्णतः सुसंगत है, इससे भी अधिक न्यूटन के श्रेणी सिद्धान्त के साथ घनिष्ठ परिचय व्यक्त करता है। यह यथार्थ प्रथम दृष्टि से असंभव दिखाई देता है परन्तु जब हम इस तथ्य को पुनः याद करें या ब्राह्मणों के पास कतिपय अरबी ग्रन्थ भी हैं और अरबियों ने बीजगणित में बहुत अच्छी प्रगति की है तो यह यथार्थ हमें पूर्णतः सुसंगत लगेगा । हमें यह भी कहा गया था कि उनके पास धनात्मक समीकरण हल करने की संपूर्ण पद्धति भी थी। इस प्रकार उनके पास डायोफन्टास की तेरह पुस्तकें थीं। जिनमें से प्रथम सात विनष्ट हो चुकी थीं और शेष छः में विषय का विश्लेषण किया गया है, जिससे हम सुपरिचित हैं। अतएव यह असंभव नहीं है कि ब्राह्मण भी बीजगणित के विषय में हमारी तुलना में अधिक अच्छी समझ रखते थे।
 
सामान्य रूप से ऐसी जानकारी प्राप्त हुई है कि ब्राह्मण उनकी ग्रहण गणना हमारी तरह खगोलीय कोष्ठकों द्वारा न कर, नियमों की सहायता से करते हैं। अब ये नियम हमारे कोष्ठकों जितने ही सही हैं अथवा नहीं हैं, यदि वे सही नहीं हैं तो वे कदाचित खाल्डियनों के “सरोस' चक्र अर्थात्‌ २२३ चान्द्र मास अथवा 'निरोस चक्र' अर्थात्‌ ६०० वर्षों के चक्र के अनुसार - क्रियान्विति की पद्धति होनी चाहिए, जो ग्रहण के सन्निकटस्थ समय के अनुमान में उपयोगी रही होगी । यदि वे हमारे जितने ही सही रहे हों अथवा लगभग सही हों तो यह मानना पड़ेगा कि वे अत्यन्त विशिष्ट प्रकार की बीजगणितीय गणनाओं के जानकार होने चाहिए। इतना ही नहीं उनकी पारम्परिक अपूर्णांक के सिद्धान्त की समझ अच्छी होनी चाहिए। क्यों कि उस आवर्तीय आसादन हेतु उसकी आवश्यकता पड़ती है। इस विषय में मैं अधिक दृढ़ हूँ, क्यों कि मैंने सुना है कि ब्राह्मणों के पास ग्रहणों की गणना करने के अलग अलग नियम हैं और इन नियमों में अपेक्षाकृत जितनी शुद्धता की आवश्यकता है उसकी तुलना में वे कम अटपटे हैं। यह तथ्य बीजगणितीय सूत्रों द्वारा निष्कर्षित आसादन के साथ पूर्णतः सुसंगत है, इससे भी अधिक न्यूटन के श्रेणी सिद्धान्त के साथ घनिष्ठ परिचय व्यक्त करता है। यह यथार्थ प्रथम दृष्टि से असंभव दिखाई देता है परन्तु जब हम इस तथ्य को पुनः याद करें या ब्राह्मणों के पास कतिपय अरबी ग्रन्थ भी हैं और अरबियों ने बीजगणित में बहुत अच्छी प्रगति की है तो यह यथार्थ हमें पूर्णतः सुसंगत लगेगा । हमें यह भी कहा गया था कि उनके पास धनात्मक समीकरण हल करने की संपूर्ण पद्धति भी थी। इस प्रकार उनके पास डायोफन्टास की तेरह पुस्तकें थीं। जिनमें से प्रथम सात विनष्ट हो चुकी थीं और शेष छः में विषय का विश्लेषण किया गया है, जिससे हम सुपरिचित हैं। अतएव यह असंभव नहीं है कि ब्राह्मण भी बीजगणित के विषय में हमारी तुलना में अधिक अच्छी समझ रखते थे।

Revision as of 14:58, 18 June 2020

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सौभाग्य से खगोलशास्त्र के लिए बनारस में एक विशाल वृत्तांश विद्यमान है जो उसके स्थापनाकाल से ही, वेधशाला निर्माण हुई तब से ही याम्योत्तर समतल में स्थापित किया गया है। इतना ही नहीं, यह वृत्तांश पत्थर द्वारा निर्मित स्थावर चिनाई है, जिससे उसके दिगंश बदले नहीं जा सकते या यूरोपीय वृत्तांशों की तरह मुड़ भी नहीं सकते हैं । अतएव उसके द्वारा ताराओं के याम्योत्तर और उन्नतांश मापे जा सर्के, ऐसे हैं। आवश्यकता है थोड़ी सी युक्ति की, जिससे मात्र याम्योत्तर और विषुववृत्त के सापेक्ष में उस साधन के स्थान के आधार पर उपर्युक्त गणना विशेष रूप से ठोस परिणामलक्षी हो सकती है, जिसके आधार पर बहुत से उपयोगी निष्कर्ष प्राप्त हो सकते हैं तथा इस अत्यन्त कुतूहलपूर्ण और कठिन मुद्दे का निराकरण हो सकता है।

यह भी संभव है कि फ्रांतिवृत्त की तियंकता से सम्बद्द कुछ जानकारी भी बनारस की वेधशाला से प्राप्त होगी क्यों कि प्राचीन अवलोकन संतोषजनक ढंग से कभी कभी सूचित करनेवाले होते हुए भी, इनमें से कुछ अवलोकन सुसंगत नहीं हैं और खगोलशाखियों के साथ इस वार्षिक कमी के १/४ भाग जितना मात्रा भेद भी है। यह मेरी धारणा है कि साधनों में से एक की ऊपर के दर्शक, जो किसी निश्चित तारे की दिशा में है अथवा तो आकाश में किसी निश्चित महत्त्वपूर्ण वृत बताता है, इसके आधार पर निश्चित किया जा सकता है।

इसी प्रकार मुझे बताता गया कि यंत्रों (साधनों ) पर माप हेतु विभाग बनाये गये हैं, परन्तु उन पर माप अंकित नहीं है। यदि उन पर उपविभाग और अंक होते तो उनके द्वारा हमें प्राचीन अक्षरों या अंक विषयक जानकारी प्राप्त होती । संभव है उनके माप हमें हिन्दुओं के प्राचीन माप विषयक जानकारी देते हैं। वास्तव में किसी भी अवलोकन या माप लेने में अत्यन्त चौकसी रखनी चाहिए। क्यों कि प्रायोगिक अवलोकन लेने में भूमिति जैसी स्थिति है, जहाँ कुछ बिन्दुओं का स्थान अनेक रेखाएँ निश्चित करने हेतु पर्याप्त है। इसी प्रकार कुछ निश्चित अवलोकन और सुनिश्चित तथ्यों की सहायता से बहुत सारे निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। इससे, ऐसे प्रत्येक अवसर का लाभ उठाना चाहिए, जो अन्य किसी दिशा में न होकर भविष्य के अवलोकनों को फलदायी बनाने की दिशा में होगा। हमें इस पर ध्यान देना चाहिए कि ज्ञान प्रयोगों की संख्या के अनुपात में नहीं, परन्तु उसकी अपेक्षा बहुत बड़े अनुपात में बढ़ता है और एक अकेला अवलोकन कदाचित नगण्य अथवा निर्स्थक लगने पर भी अन्य अवलोकनों के साथ मिलकर बहुत बड़ा असर पैदा कर सकता है। यों तो, जिस प्रकार भूमिति में एक बिन्दु द्वारा कुछ भी निश्चित नहीं हो पाता; जब कि दो बिन्दु मिलकर एक रेखा बन जाती है, यदि उनमें अन्य दो बिन्दु जोड़े जाएँ तो छः रेखाएँ प्राप्त होती हैं। इतना ही नहीं परन्तु छः वृत्त और एक परवलय के माप और स्थान भी मिलते हैं। यदि हम अन्य दो बिन्दुओं को जोड़ें (जो अकेले होते तो मात्र एक ही रेखा दे पाते) तो उनके द्वारा पन्‍्द्रह रेखाएँ, बीस वृत्त, पन्द्रह परवलय और छः अतिवलय या उपवलय निश्चित हो सकते हैं। जिसके आधार पर अन्य असंख्य, विविध प्रकार के निष्कर्ष प्राप्त किये जा सकते हैं। प्रथम दृष्टि से केवल पन्द्रह रेखाएँ ही दिखाई देंगी, तथापि इसी प्रकार से अन्य आकृतियाँ क्रमशः रची जा सकती हैं। इसी प्रकार कतिपय विशिष्ट स्थितियों में अन्य निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं । इसी तर्क के आधार पर बनारस की वेधशाला में केवल खगोलीय दृष्टिकोण से लिये गये अवलोकन व्यापार, इतिहास, कालगणना तथा अन्य अनेक क्षेत्रों में उपयोगी हो सकतेहैं ।

प्राचीन लेखकों की वैज्ञानिक खोज विषयक विरोधाभासी अभिप्रायों का भी निराकरण हो जाता है और खाल्डियन धूमकेतुओं के पुनरागमन अथवा ग्रहणों विषयक भविष्यवाणी करने में सक्षम थे या नहीं इस विषय में लेखकों के तत्सम्बन्धी अभिषप्राय परस्पर भिन्न हो जाते है, क्यों कि प्रत्येक शिक्षक या पंथ का गुरु जो कुछ भी ज्ञान धार्मिक स्रोत से प्राप्त करता था, हमेशा स्रोत की प्रसिद्धि नहीं करता था और भारत को श्रेय देना नहीं चाहता था। इस प्रकार विट्रवियस खाल्डियन के बेरोसस को अन्तर्गोल सौर घड़ी का आविष्कारक मानता है, जब कि यह ज्ञान उसे ब्राह्मणों से प्राप्त हुआ है यह स्पष्ट प्रतीत होता है क्योंकि बनारस में ऐसी ही सौर घड़ी विद्यमान है।

भारत में विज्ञान के विकास का दूसरा कारण यह है कि धार्मिक संस्कृति विश्व के अन्य राष्ट्रीं से अधिक पुरातन है। यह भी हम जानते हैं कि जो लोग सुसंस्कृत होते हैं उनका झुकाव कलाओं की साधना की ओर स्वतः होता है। उनकी आज की स्थिति से ही ज्ञात होता है कि ये लोग अति प्राचीनकाल से सुसंस्कृत हैं ।

धार्मिक खगोलशाख्ियों के द्वारा किये गये अवलोकन मुख्यतः उनकी पाण्डुलिपियों में प्राप्त होते हैं, फलतः उनकी जानकारी स्थानीय लोगों के साथ व्यापक संवाद आयोजन कर के ही प्राप्त की जा सकती है। इसीलिए बनारस के यंत्रों का सावधानी पूर्वक परीक्षण करना आवश्यक है। ऐसे अवलोकन प्राप्त होने पर भविष्य में उनका उपयोग करने में हम सक्षम बन सकते हैं ।

एक सामान्य मान्यता बन गई है कि धार्मिक खगोलशाख्ियों की अवगणना की जाए और कहा जाए कि उनका सर्व ज्ञान केवल ग्रहणों के भविष्य कथन में केन्द्रित है। वास्तव में हमारे खगोलशास्त्र में ग्रहणगणना करना कोई साधारण बात नहीं है। यदि ब्राह्मण गणना की संक्षिप्त पद्धति से सुपरिचित हैं अथवा जिससे यह प्रक्रिया एकदम सरल बन जाती है ऐसी कोई पद्धति उन्हें अवगत है तो उनकी इन पद्धतियों के विषय में छानबीन करना आवश्यक हो जाता है। यह सब इसलिए आवश्यक है कि इसके सम्बन्ध में हमारी पद्धतियाँ अत्यन्त अटपटी और उबाऊ हैं। यह भी ज्ञात हुआ कि ब्राह्मण धूमकेतुओं के पुनः वापिस आने के स्थानों की गणना के भी जानकार थे। यह सब (यंत्रशास्त्र और तत्त्वज्ञान के समग्र सिद्धान्तों सहित) अत्यन्त कठिन और अटपटा कार्य है। यदि वे इस कार्य को करने में समर्थ रहे हैं तो (मेरे अभिप्राय में) उन्हें खगोलशास्त्र को उसके चरम विकास तक पहुँचाने विषयक किसी विशेष प्रमाण की आवश्यकता नहीं रहती ।

सामान्य रूप से ऐसी जानकारी प्राप्त हुई है कि ब्राह्मण उनकी ग्रहण गणना हमारी तरह खगोलीय कोष्ठकों द्वारा न कर, नियमों की सहायता से करते हैं। अब ये नियम हमारे कोष्ठकों जितने ही सही हैं अथवा नहीं हैं, यदि वे सही नहीं हैं तो वे कदाचित खाल्डियनों के “सरोस' चक्र अर्थात्‌ २२३ चान्द्र मास अथवा 'निरोस चक्र' अर्थात्‌ ६०० वर्षों के चक्र के अनुसार - क्रियान्विति की पद्धति होनी चाहिए, जो ग्रहण के सन्निकटस्थ समय के अनुमान में उपयोगी रही होगी । यदि वे हमारे जितने ही सही रहे हों अथवा लगभग सही हों तो यह मानना पड़ेगा कि वे अत्यन्त विशिष्ट प्रकार की बीजगणितीय गणनाओं के जानकार होने चाहिए। इतना ही नहीं उनकी पारम्परिक अपूर्णांक के सिद्धान्त की समझ अच्छी होनी चाहिए। क्यों कि उस आवर्तीय आसादन हेतु उसकी आवश्यकता पड़ती है। इस विषय में मैं अधिक दृढ़ हूँ, क्यों कि मैंने सुना है कि ब्राह्मणों के पास ग्रहणों की गणना करने के अलग अलग नियम हैं और इन नियमों में अपेक्षाकृत जितनी शुद्धता की आवश्यकता है उसकी तुलना में वे कम अटपटे हैं। यह तथ्य बीजगणितीय सूत्रों द्वारा निष्कर्षित आसादन के साथ पूर्णतः सुसंगत है, इससे भी अधिक न्यूटन के श्रेणी सिद्धान्त के साथ घनिष्ठ परिचय व्यक्त करता है। यह यथार्थ प्रथम दृष्टि से असंभव दिखाई देता है परन्तु जब हम इस तथ्य को पुनः याद करें या ब्राह्मणों के पास कतिपय अरबी ग्रन्थ भी हैं और अरबियों ने बीजगणित में बहुत अच्छी प्रगति की है तो यह यथार्थ हमें पूर्णतः सुसंगत लगेगा । हमें यह भी कहा गया था कि उनके पास धनात्मक समीकरण हल करने की संपूर्ण पद्धति भी थी। इस प्रकार उनके पास डायोफन्टास की तेरह पुस्तकें थीं। जिनमें से प्रथम सात विनष्ट हो चुकी थीं और शेष छः में विषय का विश्लेषण किया गया है, जिससे हम सुपरिचित हैं। अतएव यह असंभव नहीं है कि ब्राह्मण भी बीजगणित के विषय में हमारी तुलना में अधिक अच्छी समझ रखते थे।

यदि ऐसा मान लिया जाय कि वह वेधशाला (संभाव्यता के प्रत्येक नियम के विरुद्ध) केवल प्रदर्शन हेतु निर्मित की गई थी अथवा उसके निर्माण में महत्त्वपूर्ण कुछ नहीं है; अथवा किसी प्रकार के अवलोकन नहीं लिखे गये थे अथवा उसके स्वरूप, स्थिति या साधनों की रचना से भी उसकी किसी प्रकार की उपयोगिता नहीं दिखाई देती है - तब भी, इस विषय का परिश्रम व्यर्थ नहीं होगा; क्यों कि इससे भारत के भूगोल, खगोल, जलवायु आदि से सम्बन्धित असंख्य अवलोकन प्राप्त हो सकते हैं। यह जानकारी केवल समस्या हल करने से भी अधिक सृजनात्मक सिद्ध होगी। भारत के सर्वेक्षण कुछ क्षतिग्रस्त हैं और इसका मुख्य कारण यह है कि भारत के किसी भी स्थान के- पॉडिचेरी को छोड़कर - रेखांश योग्य ढंग से निश्चित नहीं किये गये हैं। अक्षांशों के विषय में भी लगभग ऐसा ही है। और वास्तव में अधिकतर ब्रिटिश नकशे अक्षांश - रेखांश को निश्चित किये बिना केवल पर्वतों की आदर्श शुंखला और काल्पनिक जंगलों को भर कर दंभी सर्वेक्षकों के द्वारा खंडशः बनाये गये थे और ऐसे ही लोगों के द्वारा एकत्रित किये गये थे। वे चित्रकला तो अच्छी जानते थे परन्तु परिशुद्धता अथवा उसकी उपयोगिता के विषय में Sart थे। अतएव ऐसे साधनों के कारण देश अपने वास्तविक स्थान से भयंकर रूप से दूर हट गये हैं। इसी प्रकार, भूगोल को भी उससे यत्किंचित भी लाभ नहीं हुआ । ऐसे नकशे आशीर्वाद रूप नहीं बल्कि अनिष्टरूप हैं; ऐसे नकशे और सर्वेक्षणों को सुधारने की एकमात्र पद्धति है कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं के स्थान खगोलशास्त्रीय पद्धति से निश्चित करना । इससे भिन्न भिन्न सर्वेक्षणों को उचित ढंग से साथ में रखने में भी सहायता मिलेगी और बनारस तथा अन्य ऐसे स्थानों के रेखांश भी उससे प्राप्त हो सकेंगे। इस हेतु की सिद्धि में उसका प्रदान रहेगा तो यह यात्रा निस्संदेह अति उपयोगी सिद्ध होगी ।

इतना ही नहीं, मौसम विज्ञान, वायुद्बाव शाख््र, खगोलशाख्त्र, विद्युत्शास्त्र आदि अनेक विज्ञानों से सम्बद्ध अवलोकन बनारस की यात्रा से संभव हो सकते हैं, यद्यपि इस प्रकार के विशिष्ट मुद्दों की सूची अनंत है। केवल इतना ही कहना करना पर्याप्त है कि ज्ञान वृद्धि हेतु वे सभी उपयोगी होंगे, इतना ही नहीं उसे क्रियान्वित करने में समय की भी बचत होगी। यदि खगोल के किसी मर्मज्ञ को कंपनी द्वारा अपने तथा अधीनस्थ क्षेत्र के प्रमुख नगरों एवं स्थलों के अक्षांश - रेखांश मापन हेतु कुछ अच्छे साधनों के साथ भेजा जाता है तो वह व्यक्ति केवल निर्धारित क्षेत्र का सही सर्वेक्षण तथा देश की वर्तमान और पुरातन स्थिति से सम्बद्ध जानकारी ही नहीं प्राप्त करेगा अपितु सार्वजनिक रूप से मापन किया जा सकनेवाला खगोलीय तथा भौतिक अवलोकनों का भंडार एकत्रित करने का अवसर प्राप्त करेगा । यदि यों माना जाय कि इस प्रकार की प्रक्रिया स्थानिक लोगों में नाराजगी उत्पन्न करेगी तो इस नाराजगी को दूर करने के लिए इस प्रक्रिया को याम्योत्तर या रेखांश मापन में सहज रूप से परिवर्तित किया जा सकता है।

(लेखक : रूबेन बरो (सन्‌ १७८३), धर्मपाल की पुस्तक - १८वीं शताब्दी में भारत में विज्ञान और तन्त्रज्ञान से उद्धत)