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इस तरह इस से यह स्पष्ट होता है कि आत्म तत्व (इस मुख्य सेट का) यानी अध्यात्म के क्षेत्र के बुद्धि, मन और इन्द्रियाँ यह एक-एक हिस्से (सब-सेट) हैं। इसे समझने के उपरांत साईंस जो आज पंचमहाभूतों में उलझ गया है उस का मन, बुद्धि और अहंकार के अध्ययन का क्षेत्र खुल जाता है।
 
इस तरह इस से यह स्पष्ट होता है कि आत्म तत्व (इस मुख्य सेट का) यानी अध्यात्म के क्षेत्र के बुद्धि, मन और इन्द्रियाँ यह एक-एक हिस्से (सब-सेट) हैं। इसे समझने के उपरांत साईंस जो आज पंचमहाभूतों में उलझ गया है उस का मन, बुद्धि और अहंकार के अध्ययन का क्षेत्र खुल जाता है।
== वर्तमान विज्ञान एवं तंत्रज्ञान पर भारतीय तन्त्रज्ञान नीति के कुछ महत्वपूर्ण बिंदु  ==
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जब हम मौजूदा विज्ञान या तंत्रज्ञान का प्रयोग करें तो इन मुख्य बातों का ध्यान रखना है:
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# विज्ञान और तन्त्रज्ञान दोनों तटस्थ होते हैं। उन्हें हितकारी या विनाशक तो बनानेवाला और उसका उपयोग कल्याण के लिये करता है या नाश के लिये इस पर निर्भर है। विज्ञान और तन्त्रज्ञान केवल पात्र मनुष्य को ही मिले यह सुनिश्चित करना आवश्यक है। इस दृष्टि से विविध तंत्रज्ञानों के लिये पात्रता के निकष लगाकर उसमें पात्र सिद्ध हुए युवकों को ही तन्त्रज्ञान का अंतरण करना है।
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# पारिवारिक उद्योगों के लिये तन्त्रज्ञान विकास को प्रोत्साहन देना। केवल आपद्धर्म के रूप में कुछ सुरक्षा उद्योगों को जब तक वैश्विक परिदृष्य बदलने में हम सफल नहीं हो जाते तब तक इस में छूट देनी होगी।
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# नैनो, जैविक या न्यूक्लियर जैसे तन्त्रज्ञान का विकास और सुपात्रों को अंतरण भी केवल आपद्धर्म के रूप में करना। यहाँ सुपात्र की कसौटी अत्यंत कठोर होगी।
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# सर्वे भवन्तु सुखिन: ही हमारी विज्ञान और तन्त्रज्ञान नीति का एकमात्र मार्गदर्शक सूत्र होगा। इसका व्यावहारिक स्वरूप निम्न होगा:
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## ऐसे तन्त्रज्ञान जिनसे चराचर का हित होता है - स्वीकार्य हैं।
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## जिन तंत्रज्ञानों से किसी को लाभ तो होता है लेकिन हानि किसी की नहीं होती - स्वीकार्य हैं।
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## जिन तंत्रज्ञानों से चराचर सभी की हानि होती है - अस्वीकार्य हैं।
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## जिन के प्रयोग से कुछ लोगों का लाभ होता है और कुछ लोगों की हानि होती है - अस्वीकार्य हैं।
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# उपर्युक्त में से तीसरे और चौथे प्रकार के तन्त्रज्ञान ही दुनिया भर की तंत्रज्ञानों से निर्मित समस्याओं के मूल कारण हैं। वर्तमान में ऐसे तंत्रज्ञानों का ही बोलबाला है। इसलिये धीरे धीरे लेकिन कठोरता से ऐसे तंत्रज्ञानों का उपयोग और विकास रोकना होगा।
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# कौटुम्बिक उद्योगों के लिये उपयुक्त तंत्रज्ञानों के विकास को प्रोत्साहन देना और बड़े उद्योगों के लिये उपयुक्त तंत्रज्ञानों को हतोत्साहित करना। कौटुम्बिक उद्योग समाज की आवश्यकताओं के साथ अपने को समायोजित करते हैं। जब की बड़े उद्योग अपने हित के लिये समाज को विज्ञापनबाजी, भ्रष्टाचार आदि के माध्यम से समायोजित करते हैं। कौटुम्बिक उद्योगों की अर्थव्यवस्था में धन विकेंद्रित हो जाता है। सम्पत्ति का वितरण लगभग समान होता है। बड़े उद्योगों की अर्थव्यवस्था में अमीर, और अमीर बनते हैं। गरीबी और अमीरी की खाई बढती जाती है। अर्थ का प्रभाव और अभाव ऐसी दोनों बीमारियों से समाज ग्रस्त हो जाता है। अर्थ का अभाव और प्रभाव निर्माण होकर समाज को अशांत और दु:खी बना देता है।
   
== एँथ्रॉपॉलॉजी (Anthropology) के तहत् शोध कार्य ==
 
== एँथ्रॉपॉलॉजी (Anthropology) के तहत् शोध कार्य ==
 
अंग्रेजों के काल से ही भारत में जो शोध कार्य शुरू हुए, उन का आधार एँथ्रॉपॉलॉजी ही रहा। एँथ्रॉपॉलॉजी के धुरंधर विद्वान क्लॉड लेवी स्ट्रॉस के अनुसार “पराधीन, पराजित और खंडित समाज” इस की विषय वस्तू होते हैं। विजेता समाज विजित समाजों का अध्ययन करने के लिये जो उपक्रम करते हैं वही एँथ्रॉपॉलॉजी है। एँथ्रॉपॉलॉजी के अनुसार अपने समाज का अध्ययन नहीं किया जाता। पराजित समाज के विद्वान भी विजेता समाज का ऐसा अध्ययन नहीं करते। किन्तु धार्मिक (भारतीय) समाज के विद्वान अपने ही समाज का अध्ययन एँथ्रॉपॉलॉजी के अनुसार किये जा रहे हैं<ref>भारतीय चित्त, मानस और काल, धर्मपाल, पृष्ठ १४</ref>। आज भारत में यह सब अध्ययन धार्मिक (भारतीय) दृष्टि से नहीं अपितु यूरोपीय दृष्टि से चल रहे हैं।  
 
अंग्रेजों के काल से ही भारत में जो शोध कार्य शुरू हुए, उन का आधार एँथ्रॉपॉलॉजी ही रहा। एँथ्रॉपॉलॉजी के धुरंधर विद्वान क्लॉड लेवी स्ट्रॉस के अनुसार “पराधीन, पराजित और खंडित समाज” इस की विषय वस्तू होते हैं। विजेता समाज विजित समाजों का अध्ययन करने के लिये जो उपक्रम करते हैं वही एँथ्रॉपॉलॉजी है। एँथ्रॉपॉलॉजी के अनुसार अपने समाज का अध्ययन नहीं किया जाता। पराजित समाज के विद्वान भी विजेता समाज का ऐसा अध्ययन नहीं करते। किन्तु धार्मिक (भारतीय) समाज के विद्वान अपने ही समाज का अध्ययन एँथ्रॉपॉलॉजी के अनुसार किये जा रहे हैं<ref>भारतीय चित्त, मानस और काल, धर्मपाल, पृष्ठ १४</ref>। आज भारत में यह सब अध्ययन धार्मिक (भारतीय) दृष्टि से नहीं अपितु यूरोपीय दृष्टि से चल रहे हैं।  
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पर्यावरण प्रदूषण की समस्या के निराकरण की साईंस की दृष्टि धार्मिक (भारतीय) विज्ञान की दृष्टि, इन दोनों को समझने से इन का परस्पर संबंध और इनमे अंगी और अंग सम्बन्ध समझ में आ जाएंगे। वर्तमान में पर्यावरण के प्रदूषण को दूर करने के लिए बहुत गंभीरता से विचार हो रहा है। प्रमुखता से जल, हवा और पृथ्वी के प्रदूषण का विचार इसमें है। यह साईंटिफिक ही है। लेकिन यह अधूरा है। धार्मिक (भारतीय) विज्ञान की दृष्टि से पर्यावरण याने प्रकृति के आठ घटक हैं। जल, हवा और पृथ्वी इन तीन महाभूतों का जिनका आज विचार हो रहा है, उनके अलावा आकाश और तेज ये दो महाभूत और मन, बुद्धि और अहंकार ये त्रिगुण मिलाकर अष्टधा प्रकृति बनती है। इनमें प्रदूषण के लिए जब तक, मन और बुद्धि के प्रदूषण का विचार और इस प्रदूषण का निराकरण नहीं होगा पर्यावरण प्रदूषण के निराकरण की कोई योजना सफल नहीं होनेवाली। इस का तात्पर्य है कि वर्तमान साईंस अंग है और धार्मिक (भारतीय) विज्ञान अंगी है। इस अंगांगी भाव को स्थापित करने से ही प्रस्थान त्रयी की पुन: सार्वकालिक और सार्वत्रिक प्रमाण के रूप से स्थापना हो सकेगी तथा प्रमाण से संबंधित विवाद का शमन होगा।
 
पर्यावरण प्रदूषण की समस्या के निराकरण की साईंस की दृष्टि धार्मिक (भारतीय) विज्ञान की दृष्टि, इन दोनों को समझने से इन का परस्पर संबंध और इनमे अंगी और अंग सम्बन्ध समझ में आ जाएंगे। वर्तमान में पर्यावरण के प्रदूषण को दूर करने के लिए बहुत गंभीरता से विचार हो रहा है। प्रमुखता से जल, हवा और पृथ्वी के प्रदूषण का विचार इसमें है। यह साईंटिफिक ही है। लेकिन यह अधूरा है। धार्मिक (भारतीय) विज्ञान की दृष्टि से पर्यावरण याने प्रकृति के आठ घटक हैं। जल, हवा और पृथ्वी इन तीन महाभूतों का जिनका आज विचार हो रहा है, उनके अलावा आकाश और तेज ये दो महाभूत और मन, बुद्धि और अहंकार ये त्रिगुण मिलाकर अष्टधा प्रकृति बनती है। इनमें प्रदूषण के लिए जब तक, मन और बुद्धि के प्रदूषण का विचार और इस प्रदूषण का निराकरण नहीं होगा पर्यावरण प्रदूषण के निराकरण की कोई योजना सफल नहीं होनेवाली। इस का तात्पर्य है कि वर्तमान साईंस अंग है और धार्मिक (भारतीय) विज्ञान अंगी है। इस अंगांगी भाव को स्थापित करने से ही प्रस्थान त्रयी की पुन: सार्वकालिक और सार्वत्रिक प्रमाण के रूप से स्थापना हो सकेगी तथा प्रमाण से संबंधित विवाद का शमन होगा।
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== वर्तमान विज्ञान एवं तंत्रज्ञान पर भारतीय तन्त्रज्ञान नीति के कुछ महत्वपूर्ण बिंदु  ==
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# विज्ञान और तन्त्रज्ञान दोनों तटस्थ होते हैं। उन्हें हितकारी या विनाशक तो बनानेवाला और उसका उपयोग कल्याण के लिये करता है या नाश के लिये इस पर निर्भर है। विज्ञान और तन्त्रज्ञान केवल पात्र मनुष्य को ही मिले यह सुनिश्चित करना आवश्यक है। इस दृष्टि से विविध तंत्रज्ञानों के लिये पात्रता के निकष लगाकर उसमें पात्र सिद्ध हुए युवकों को ही तन्त्रज्ञान का अंतरण करना है।
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# पारिवारिक उद्योगों के लिये तन्त्रज्ञान विकास को प्रोत्साहन देना। केवल आपद्धर्म के रूप में कुछ सुरक्षा उद्योगों को जब तक वैश्विक परिदृष्य बदलने में हम सफल नहीं हो जाते तब तक इस में छूट देनी होगी।
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# नैनो, जैविक या न्यूक्लियर जैसे तन्त्रज्ञान का विकास और सुपात्रों को अंतरण भी केवल आपद्धर्म के रूप में करना। यहाँ सुपात्र की कसौटी अत्यंत कठोर होगी।
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# सर्वे भवन्तु सुखिन: ही हमारी विज्ञान और तन्त्रज्ञान नीति का एकमात्र मार्गदर्शक सूत्र होगा। इसका व्यावहारिक स्वरूप निम्न होगा:
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## ऐसे तन्त्रज्ञान जिनसे चराचर का हित होता है - स्वीकार्य हैं।
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## जिन तंत्रज्ञानों से किसी को लाभ तो होता है लेकिन हानि किसी की नहीं होती - स्वीकार्य हैं।
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## जिन तंत्रज्ञानों से चराचर सभी की हानि होती है - अस्वीकार्य हैं।
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## जिन के प्रयोग से कुछ लोगों का लाभ होता है और कुछ लोगों की हानि होती है - अस्वीकार्य हैं।
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# उपर्युक्त में से तीसरे और चौथे प्रकार के तन्त्रज्ञान ही दुनिया भर की तंत्रज्ञानों से निर्मित समस्याओं के मूल कारण हैं। वर्तमान में ऐसे तंत्रज्ञानों का ही बोलबाला है। इसलिये धीरे धीरे लेकिन कठोरता से ऐसे तंत्रज्ञानों का उपयोग और विकास रोकना होगा।
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# कौटुम्बिक उद्योगों के लिये उपयुक्त तंत्रज्ञानों के विकास को प्रोत्साहन देना और बड़े उद्योगों के लिये उपयुक्त तंत्रज्ञानों को हतोत्साहित करना। कौटुम्बिक उद्योग समाज की आवश्यकताओं के साथ अपने को समायोजित करते हैं। जब की बड़े उद्योग अपने हित के लिये समाज को विज्ञापनबाजी, भ्रष्टाचार आदि के माध्यम से समायोजित करते हैं। कौटुम्बिक उद्योगों की अर्थव्यवस्था में धन विकेंद्रित हो जाता है। सम्पत्ति का वितरण लगभग समान होता है। बड़े उद्योगों की अर्थव्यवस्था में अमीर, और अमीर बनते हैं। गरीबी और अमीरी की खाई बढती जाती है। अर्थ का प्रभाव और अभाव ऐसी दोनों बीमारियों से समाज ग्रस्त हो जाता है। अर्थ का अभाव और प्रभाव निर्माण होकर समाज को अशांत और दु:खी बना देता है।
    
== निष्कर्ष ==
 
== निष्कर्ष ==
Line 314: Line 316:  
# जीवन के धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान की समझ नष्ट हो गई है। वर्तमान अधार्मिक (अभारतीय) प्रतिमान को ही अपना प्रतिमान माना जा रहा।  
 
# जीवन के धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान की समझ नष्ट हो गई है। वर्तमान अधार्मिक (अभारतीय) प्रतिमान को ही अपना प्रतिमान माना जा रहा।  
 
# एकात्मता का जप करते हुए अनात्मवादी, विखण्डित पद्दति से विचार हो रहा है।  
 
# एकात्मता का जप करते हुए अनात्मवादी, विखण्डित पद्दति से विचार हो रहा है।  
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== शोध विषय सूची ==
 
== शोध विषय सूची ==

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