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पश्चिमी विचार में जड को समझने की, यंत्रों को समझने की सटीकता तो है। किन्तु चेतन को नकारने के कारण चेतन के क्षेत्र में इस का उपयोग मर्यादित (लिमिटेड) रह जाता है। परिवर्तन तो जड में ही होता है। लेकिन वह चेतन की उपस्थिति के बिना नहीं हो सकता। इस लिये चेतन का जितना भौतिक हिस्सा है उस हिस्से के लिये साईंस को प्रमाण मानना उचित ही है। इस भौतिक हिस्से के मापन की भी मर्यादा है। जड भौतिक शरीर के साथ जब मन की या आत्म शक्ति जुड जाति है तब वह केवल जड की भौतिक शक्ति नहीं रह जाती। और प्रत्येक जीव यह जड और चेतन का योग ही होता है। इस लिये चेतन के मन, बुद्धि, अहंकार आदि विषयों में फिझिकल साईंस की कसौटीयों को प्रमाण नहीं माना जा सकता। अनिश्चितता का प्रमेय (थियरी ऑफ अनसर्टेंटी), क्वॉटम मेकॅनिक्स, अंतराल भौतिकी (एस्ट्रो फिजीक्स), कण भौतिकी (पार्टिकल फिजीक्स) आदि साईंस की आधुनिक शाखाओं ने देकार्ते के प्रतिमान की मर्यादाएं स्पष्ट कर दीं है।
 
पश्चिमी विचार में जड को समझने की, यंत्रों को समझने की सटीकता तो है। किन्तु चेतन को नकारने के कारण चेतन के क्षेत्र में इस का उपयोग मर्यादित (लिमिटेड) रह जाता है। परिवर्तन तो जड में ही होता है। लेकिन वह चेतन की उपस्थिति के बिना नहीं हो सकता। इस लिये चेतन का जितना भौतिक हिस्सा है उस हिस्से के लिये साईंस को प्रमाण मानना उचित ही है। इस भौतिक हिस्से के मापन की भी मर्यादा है। जड भौतिक शरीर के साथ जब मन की या आत्म शक्ति जुड जाति है तब वह केवल जड की भौतिक शक्ति नहीं रह जाती। और प्रत्येक जीव यह जड और चेतन का योग ही होता है। इस लिये चेतन के मन, बुद्धि, अहंकार आदि विषयों में फिझिकल साईंस की कसौटीयों को प्रमाण नहीं माना जा सकता। अनिश्चितता का प्रमेय (थियरी ऑफ अनसर्टेंटी), क्वॉटम मेकॅनिक्स, अंतराल भौतिकी (एस्ट्रो फिजीक्स), कण भौतिकी (पार्टिकल फिजीक्स) आदि साईंस की आधुनिक शाखाओं ने देकार्ते के प्रतिमान की मर्यादाएं स्पष्ट कर दीं है।
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एक और बात यह है, कि किसी भी क्षेत्र में हम मात्र पश्चिम की नाकन करके आगे नहीं बढ़ सकते। हर व्यक्ति एक स्वतंत्र शरीर, प्राण मन, बुद्धि और चित्त का स्वामी रहता है। मेरे लिये जो अच्छा है वही मुझे करना चाहिये। अन्यों की नकल कर मै बडा नही बन सकता। गुरूदेव रवींद्रनाथ ठाकूर कहते थे {{Citation needed}}'हर देश को परमात्मा ने भिन्न प्रश्नपत्रिका दी हुई है। अन्य देशों की नकल कर हम अपने प्रश्नों के उत्तर नहीं पा सकते। अपने प्रश्नों के उत्तर हमें ही खोजने होंगे। जैसे हर देश दूसरे देश से भिन्न होता है उसी तरह हर व्यक्ति भी दूसरे व्यक्ति से भिन्न होता है। प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति भिन्न होती है। यह स्वाभाविक भी है। आयुर्वेद में कहा है जहां का रोग वहीं की औषधि। औषधि को अन्य किसी परिसर में ढ़ूंढने की आवश्यकता नहीं है।
    
== भारतीय  जीवनदृष्टि और इस पर आधारित व्यवहार सूत्र ==
 
== भारतीय  जीवनदृष्टि और इस पर आधारित व्यवहार सूत्र ==
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<blockquote>अयं निज: परोवेत्ति गणना लघुचेतसाम् {{Citation needed}}</blockquote><blockquote>उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम्</blockquote>भावार्थ : यह मेरा यह पराया यह तो संकुचित मन और भावना के लक्षण है। जिन के हृदय बडे होते है, मन विशाल होते है उन के लिये तो सारा विश्व ही एक परिवार होता है। ऐसा विशाल मन और हृदय रखनेवाला मानव समाज बनाने की आकांक्षा और प्रयास हमारे पूर्वजों ने किये। वास्तव में एकत्रित परिवार जिस भावना और व्यवहारों के आधारपर सुव्यवस्थित ढॅग़ से चलता है उसी प्रकार पूरा विश्व भी चल सकता है। यह विश्वास और ऐसा करने की सामर्थ्य हमारे पूर्वजों में थी। यह बात आज भी असंभव नहीं है। वैसी दुर्दमनीय आकांक्षा और तप-सामर्थ्य हमें जगाना होगा।
 
<blockquote>अयं निज: परोवेत्ति गणना लघुचेतसाम् {{Citation needed}}</blockquote><blockquote>उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम्</blockquote>भावार्थ : यह मेरा यह पराया यह तो संकुचित मन और भावना के लक्षण है। जिन के हृदय बडे होते है, मन विशाल होते है उन के लिये तो सारा विश्व ही एक परिवार होता है। ऐसा विशाल मन और हृदय रखनेवाला मानव समाज बनाने की आकांक्षा और प्रयास हमारे पूर्वजों ने किये। वास्तव में एकत्रित परिवार जिस भावना और व्यवहारों के आधारपर सुव्यवस्थित ढॅग़ से चलता है उसी प्रकार पूरा विश्व भी चल सकता है। यह विश्वास और ऐसा करने की सामर्थ्य हमारे पूर्वजों में थी। यह बात आज भी असंभव नहीं है। वैसी दुर्दमनीय आकांक्षा और तप-सामर्थ्य हमें जगाना होगा।
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वैश्वीकरण की पाश्चात्य घोषणाएं तो बस एक दिखावा और छलावा मात्र है। जिन समाजों में पति-पत्नि एक छत के नीचे उम्र गुजार नही सकते उन्हे हम भारतीयों को सीखाने का कोई अधिकार नहीं है। वसुधैव कुटुंबकम् कैसे होगा यह हम उन्हें सिखाएंगे।
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=== एकात्म जीवनदृष्टि ===
 
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=== ९. कृतज्ञता ===
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पाश्चात्य समाजों में कृतज्ञता व्यक्त करने की पद्दति भारतीय पद्दति से भिन्न है। किसी से उपकार लेनेपर थँक यू और किसी को अपने कारण तकलीफ होनेपर सॉरी ऐसा तुरंत कहने की पाश्चात्य पद्दति है। इतना संक्षेप में कृतज्ञता या खेद व्यक्त करके विषय पूरा हो जाता है। दूसरे ही क्षण वह जिस बात के लिये थँक यू कहा है या सॉरी कहा है उसे भूल जाता है। दूसरे ही क्षण से उस के लिये वह उपकार का या पश्चात्ताप का विषय नहीं रह जाता। 
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धार्मिक (भारतीय) मान्यताओं में इस से बहुत अधिक गंभीरता से इस बात का विचार किया गया है। केवल एक दो शब्दों से किये उपकार का प्रतिकार नही हो सकता। या दिये दुख को नि:शेष नहीं किया जा सकता। यह तो प्रत्यक्ष कृति से ही दिया जाना चाहिये। इसलिये जरा जरा सी बातपर थँक यू या सॉरी कहने की प्रथा भारतीय समाज में नही है। पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव में पश्चिमी तौर तरीकों का अंधानुकरण हो ही रहा है। 
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कृतज्ञता यह मनुष्य का लक्षण है। कृतज्ञता का अर्थ है किसी ने मेरे उपर किये उपकार का स्मरण रखना और उस के उपकार के प्रतिकार में उसे जब आवश्यकता है ऐसे समय उसपर उपकार करना। 
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==== ९.१ पंच ॠण ====
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==== ९.२ देने की संस्कृती ( दान की प्रवृत्ति ) ====
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गुरूकुलों में से जब स्नातक शिक्षा पूर्ण कर सांसारिक जीवन में प्रवेश की गुरू से अनुमति लेकर विदा होते थे तब समावर्तन विधि करने की प्रथा थी। इस विधि में स्नातक को पूर्व में किये गये संकल्पों की याद दिलाई जाती थी। यह वास्तव में वर्तनसूत्र ही थे। यह संकल्प १५ थे। इन में कहा गया है कि दान श्रद्धा से दो। भय के कारण दो। लज्जा के कारण दो। मित्रता के कारण दो। अर्थात् किसी भी कारण से दान देते रहो।
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कुछ लोग मानते हैं कि सत्ययुग में सत्य, ज्ञान, तप और दान इन चार खंभों के आधारपर सृष्टि के व्यवहार चलते  थे। हर युग में एक एक आधार कम हुआ। और कलियुग में सृष्टि केवल दान पर चलेगी। कलियुग में दान का इतना महत्व माना गया है। धार्मिक (भारतीय) समाज में दान की परंपरा के विषय में एक और मुहावरा है। देने वाला देता जाए। लेने वाला लेता जाए। लेने वाला एक दिन देने वाले के देने वाले हाथ ले ले। अर्थात् आवश्यकतानुसार दान अवश्य ले। किन्तु ऐसा दान लेकर परिश्रम से, तप से, औरों को दान देने की क्षमता और मानसिकता विकसित करे। पुरुषार्थ की पराकाष्ठा करो। खूब धन कमाओ। लेकिन यह सब "मै अधिक प्रमाण में दान दे सकूं" इस भावना से करो।
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धार्मिक (भारतीय) शब्द ' दान ' और अंग्रेजी डोनेशन इन में अंतर है। डोनेशन देने वाला बडा होता है। लेनेवाला छोटा माना जाता है। किन्तु दान देते समय भावना भिन्न होती है। एक श्रेष्ठ कार्य के लिये यह सामनेवाला मुझसे दान लेकर मुझे मेरी सामाजिक जिम्मेदारी से उतराई होने का अवसर दिला रहा है। यह इस का मेरे उपर उपकार है। मै इसे दान देकर इस का ॠणी बन रहा हूं। दान लेनेवाला भी गरिमा के साथ श्रेष्ठ सामाजिक हित के लिये दान माँगता था।
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दान देने की इस सार्वजनिक प्रवृत्ति के पीछे पंचॠणों से उतराई होने की भावना ही काम करती थी।
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=== १० माता भूमि पुत्रोऽहं पृथिव्या ===
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अति प्राचीन काल से धार्मिक (भारतीय) समाज सृष्टि के अत्यंत उपकारी घटकों को माता के रूप में देखता आया है। जिन के बारे में हमें प्यार, आत्मीयता, मन की निकटता और आदर होता है ऐसे सभी घटकों को ‘माता कहते है। वेद वचन है - माता भूमि पुत्रोऽहं पृथिव्या:।‘ मेरी प्यारी, मेरे सभी प्रमादों को क्षमा करनेवाली, मेरी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करनेवाली  यह भूमि मेरी माता है। और मै उस का पुत्र (पुत्री ) हूँ।
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इसीलिये हम कहते है भारत हमारी माता है। गाय हमारी माता है। तुलसी हमारी माता है। गंगा (या स्थानिक नदी भी) हमारी माता है।  महाराष्ट्र में तो संतों को भी माता या माऊलि कहा जाता है। ज्ञानदेव माऊलि, तुकाराम माऊलि आदि।
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=== ११ अष्टांग योग ===
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गतिमानता तो जगत का नियम है। गति करता है इसीलिये जगत कहलाता है। किन्तु वर्तमान में मानव जीवन ने जो गति प्राप्त की है वह उसे तेजी से आत्मनाश की ओर ले जा रही है। ऐसी स्थिति में संयम की पहले कभी भी नही थी इतनी आवश्यकता निर्माण हो गई है।संयम का अर्थ है इन्द्रिय निग्रह। वासनाओं पर नियंत्रण। वासनाओं को दबाना भिन्न बात है। मन पर संयम निर्माण करने के लिये अपने पूर्वज पतंजलि मुनि ने धार्मिक (भारतीय) चिंतन से ‘अष्टांग योग’ नामक एक अपूर्व ऐसी भेंट जगत को दी है। मानव व्यक्तित्व के पांच प्रमुख घटक होते है। शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, चित्त ये वे पांच घटक है। ये पांच तत्व प्रत्येक मनुष्य के भिन्न होते है। इन के माध्यम से जब परमात्मा अपने को अभिव्यक्त करता है तो वह इकाई व्यक्ति कहलाती है। और उस का रूप-लक्षण व्यक्तित्व कहलाता है। यह पाश्चात्य संकल्पना पर्सनॅलिटी (मुखौटा) से भिन्न संकल्पना है। पर्सनॅलिटी में मुखौटा अर्थात् दिखता कैसा है, यह महत्वपूर्ण है, बाहरी व्यवहार से, शिष्टाचार से संबंध है।
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व्यक्तित्व में अंतर्बाह्य कैसा है इसे महत्व है। संस्कार कैसे हैं इसे महत्व है। जिस की बुद्धि का नियंत्रण मन पर, मन का नियंत्रण इंद्रियों पर और इंद्रियों का शरीर पर नियंत्रण होता है उस का व्यक्तित्व विकसित माना जाता है। ऐसा होने से व्यक्तिगत और समाज जीवन सुचारू रूप से चलता है। किन्तु सामान्य मनुष्य की प्रवृत्ति इस के बराबर विपरीत होती है। उस के शरीर का नियंत्रण इंद्रियों पर, इंद्रियों का मन पर, और मन का बुद्धि पर होता है। व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन इस से अव्यवस्थित हो जाता है। ऐसा ना हो इसीलिये व्यक्तित्व के श्रेष्ठ विकास के लिये मार्गदर्शन करने के लिये ‘अष्टांग योग’ की प्रस्तुति हुई है।
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योग भी अपने आप में सदाचार से जीने के लिये मार्गदर्शन करनेवाला एक संपूर्ण जीवनदर्शन है।
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धार्मिक (भारतीय) मान्यता के अनुसार मोक्ष की प्राप्ति के चार प्रमुख मार्ग है। ज्ञानमार्ग, निष्काम कर्म मार्ग, भक्तिमार्ग और अष्टांग योग मार्ग। इन में योगमार्ग सबसे कठिन लेकिन शीघ्र मोक्षगामी बनाने वाला मार्ग है। पूर्व कर्मों के फलों को नष्ट करने की संभावनाएं अन्य तीन मार्गों में नहीं है। किन्तु इस का लाभ केवल मोक्षप्राप्ति के इच्छुक मुमुक्षु को ही होता है ऐसा नहीं है। योग के दो हिस्से है। बहिरंग योग और अंतरंग योग। इन में से बहिरंग योग का लाभ तो समाज के हर घटक को हर अवस्था में मिल सकता है। योगिक साधना से ज्ञानार्जन के करण और अंत:करण के घटकों का विकास किया जा सकता है। इसीलिये योग विषय का शिक्षा की दृष्टि से अनन्य साधारण महत्व है। 
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मन की शिक्षा यह शिक्षा का प्रमुख और प्राथमिक अंग है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था ‘मुझे यदि फिर से शिक्षा का अवसर मिले और क्या सीखना चाहिये यह निर्णय भी मेरे हाथ में हो तो मै सर्वप्रथम अपने मन को नियंत्रित करने की शिक्षा प्राप्त करूंगा। बाद में तय करूंगा की अन्य कौन सी जानकारी मुझे चाहिये।‘ और मन की शिक्षा के लिये वर्तमान में योग जैसा प्रभावी मार्ग नहीं है। श्रेष्ठ शिक्षा के विषय में ऐसा कहा जाता है कि {{Citation needed}}:<blockquote>साक्षरा विपरिताश्चेत राक्षसा एव केवलम्। सरसो विपरितश्चेत सरसत्वं न मुंचते ॥</blockquote>भावार्थ : मनुष्य शिक्षण के द्वारा केवल साक्षर हुआ होगा तब विपरीत परिस्थिति में उस में छिपा हीन भाव ही प्रकट होगा। राक्षस ही प्रकट होगा। किन्तु उसे यदि मन की शिक्षा मिली है, उस का मन सुसंस्कृत हुआ है तो वह विपरीत परिस्थिती में भी अपने संस्कार नही छोडेगा।
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संत बहिणाबाई मन की चंचलता का वर्णन करते समय कहती है - <blockquote>मन वढाय वढ़ाय उभ्या पिकातलं ढोर।  किती हाका फिरूनि येतं पिकावर ॥</blockquote>कृष्ण ने जब दुर्योधन से पूछा,' अरे ! तू इतना बुद्धिमान है, फिर तेरा व्यवहार ऐसा क्यों रहा ? '।
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उत्तर में दुर्योधन कहता है - जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्ति:। जानाम्यधर्मं नच मे निवृत्ती: ॥<ref>Prapanna Gita 57</ref>
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भावार्थ : मेरी बुद्धि को तो पता था कि धर्म क्या है अधर्म क्या है ? अच्छा क्या है और बुरा क्या है ? किन्तु मेरा मन मुझे अच्छे के विरोध में और बुरे के पक्ष में खडा करता था’।
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अष्टांग योग के पहले हिस्से को बहिरंग योग कहते है। इस के पाँच चरण होते है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार।
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दूसरे हिस्से को अंतरंग योग कहते है। इस के तीन चरण है। धारणा, ध्यान और समाधि।
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इन तीन चरणों में मार्गदर्शन केवल जिसे आत्मनुभूति हुई है ऐसा सद्गुरू ही कर सकता है। जैसे स्वामी विवेकानंद को रामकृष्ण परमहंस जीने किया था। बहिरंग योग में बाहर से मार्गदर्शन किया जा सकता है।
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अष्टांग योग के भी दो प्रकार है। पहला है सहज योग या राजयोग,  दूसरा है हठयोग। हठयोग में साँस पर बलपूर्वक नियंत्रण किया जाता है। इसलिये हठयोग अरुणावस्था तक वर्जित माना जाता है। विशेषत: हठयोग की शुद्धिक्रियाएं और प्राणायाम प्रकार। सामान्यत: योग कहने से तात्पर्य होता है अष्टांग योग से और वह भी सहजयोग या राजयोग से ही।
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बहिरंग योग ज्ञानार्जन प्रक्रिया के विकास का एक अत्यंत मौलिक और प्रभावी साधन है। इसलिये शिक्षा का विचार इस के बिना संभव नही है। बहिरंग योग में भी यम, (सामाजिक वर्तनसूत्र) और नियम (व्यक्तिगत वर्तनसूत्र) यह श्रेष्ठ व्यक्तित्व के लिये अत्यंत अनिवार्य विषय है। इन के सुयोग्य विकास के आधार पर ही एक प्रभावी और श्रेष्ठ व्यक्तित्व की नींव रखी जा सकती है। किन्तु वर्तमान योग शिक्षण में यम और नियमों की उपेक्षा ही होती दिखाई देती है। इन्हे आवश्यक महत्व नहीं दिया जाता। यम, नियमों का आधार बनाए बिना योग में आगे बढने का अर्थ है सदाचार की मानसिकता बनाए बगैर व्यक्तित्व का विकास। यम, नियमों की उपेक्षा करने से, अहंकार से भरे योगिराज चांगदेव बन सकते है ज्ञानदेव नही। यम, नियमों की मदद से मनुष्य सदाचारी बनता है। सदाचार की मानसिकता से उस का शारिरिक और मानसिक स्वास्थ्य अच्छा रहता है। आसन और प्राणायाम की मदद से श्रेष्ठ शारिरिक क्षमताएं विकसित होती है। और प्रत्याहार के माध्यम से मन संयमी, एकाग्र और नियंत्रित होता है।
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यम पांच है। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। सामान्यत: प्रत्येक यम का उपयोग सामाजिक संबंधों के लिये है।
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* '''सत्य''' का अर्थ है मन, वचन और कर्म से सत्य व्यवहार। सत्यनिष्ठा का अर्थ है सत्य के लिये कीमत चुकाने की मानसिकता। मेरा अहित होगा यह जानकर भी जब मै सत्य व्यवहार करता हूं तो मै सत्यनिष्ठ हूं। यही सत्यनिष्ठा की कसौटी है।
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* '''अहिंसा''' का अर्थ है मन, वचन और कर्म से किसी को दुख नही देना। किसी का अहित नही करना।
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* '''अस्तेय''' का अर्थ है चोरी नहीं करना। मै मेरे परिश्रम से अर्जित जो है उसी का सेवन करूंगा। ऐसा दृढनिश्चय। सडक पर मिली वस्तु भी मेरे लिये वर्जित है। मेरे परिश्रम से अर्जित जो बात नहीं है उस का सेवन करना चोरी है। भ्रष्टाचार तो डकैती है। भ्रष्टाचार नहीं करना अस्तेय है।
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* '''अपरिग्रह''' का अर्थ है संचय नहीं करना। अपने लिये आवश्यक बातों का अनावश्यक संचय नहीं करना। मेरे लोभ के कारण मै अन्यों के लिये आवश्यकताओं की पूर्ति भी असंभव कर दूं, यह बात तो और भी बुरी है।
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* '''ब्रह्मचर्य''' का अर्थ है संयम। केवल स्त्री-पुरुष संबंधों तक यह सीमित नहीं है। उपभोग लेनेवाले सभी इंद्रिय और मन पर संयम। आठ प्रकार से ब्रह्मचर्य नष्ट हो सकता है।
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** स्मरणं कीर्तनं केलि: प्रेक्षणं गुह्यभाषणं। संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रिया निष्पत्तीरेव च ॥ एतन्मप्रथुनमष्टांगम् प्रवदन्ति मनीषिन:। विपरीतं ब्रह्मयामेतदेवाष्ट लक्षणम् ॥
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** अर्थ : वासनाओं का स्मरण, मन में चिंतन, विषयवस्तु की कल्पना कर किया व्यवहार, विषयवस्तु का दर्शन, विषयवस्तु की चर्चा, विषयवस्तु की प्राप्ति का संकल्प, विषयवस्तु पाने का प्रयत्न और सब से अंतिम प्रत्यक्ष विषय्वस्तू का उपभोग ऐसे आठ प्रकार से ब्रह्मचर्य का भंग होता है। इन से दूर रहने का अर्थ है ब्रह्मचर्य।
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नियम भी पांच है। शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान।
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* '''शौच''' का अर्थ है अंतर्बाह्य स्वच्छता। अंतर से अभिप्राय अंत:करण अर्थात् मन, बुद्धि चित्त की शुद्धता से है। बाह्य से अर्थ है शरीर की, वस्त्रों की, परिसर की स्वच्छता और शुद्धता।
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* '''संतोष''' का अर्थ है जो मिला है उस में समाधान रखने की मानसिकता। किन्तु भगवान होगा तो मुझे खाने को तो देगा ही ऐसा मानना संतोष नहीं है। संतोष कोई पुरुषार्थ का शत्रू नहीं है। पराकोटी का पुरुषार्थ करो। लेकिन जो फल मिलेगा उसे स्वीकार करो। सफलता से उद्दंड न बनना और असफलता से निराश नहीं होना, इसी को ही संतोष कहते है।
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* '''तपस'''  का अर्थ है ध्येय की प्राप्ति के लिये ध्येय की प्राप्ति तक निरंतर परिश्रम करना। तप के दायरे में शरीर, इंद्रियाँ, मन और बुद्धि ऐसे चारों का दीर्घोद्योगी होना आ जाता है। तप केवल हिमालय चढने वाले के लिये ही नहीं अपितु दैनंदिन स्वाध्याय करनेवाले के लिये भी आवश्यक है।
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* स्वाध्याय से तात्पर्य है अध्ययन की आदत। स्वाध्याय का अर्थ है वर्तमान में अपने विषय का जितना भी ज्ञान उपलब्ध है उस का अध्ययन करना। अपनी बुद्धि, तप, अनुभव के आधारपर उपलब्ध ज्ञान को पूर्णता की ओर ले जाना। फिर उसे अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करना। पूर्व में वर्णित समावर्तन के संकल्पों में ‘स्वाध्यायान्माप्रमद:’ ऐसा भी एक संकल्प था। इस का अर्थ यह था की प्रत्येक स्नातक अपना विद्याकेंद्र का अध्ययन करने के उपरांत भी मृत्यूपर्यंत स्वाध्याय करता रहता था। कारीगरी, कला, कौशल, ज्ञान विज्ञान आदि अपने कर्म-क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति स्वाध्याय करता था। स्वाध्याय करने के लिये वचनबध्द था। नकल करनेवाले कभी नेतृत्व नहीं कर सकते। जो देश मौलिक शोध के क्षेत्र में आगे रहेगा वही विश्व का नेतृत्व करेगा। १८ वीं सदीतक भारत ऐसी स्थिति में था। स्वाध्याय की हमारी खण्डित परंपरा को जगाने से ही भारत विश्व का नेतृत्व करने में सक्षम होगा।
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* '''ईश्वर प्रणिधान''' से अभिप्राय है ईश्वर की आराधना। जिस सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, सर्वज्ञानी परमात्माने मुझे मनुष्य जन्म दिया है, मेरे भरण-पोषण के लिये विभिन्न संसाधन निर्माण किये है उस के प्रति श्रद्धा का भाव मन में निरंतर रखना। जगत में जड़ और चेतन ऐसे दो पदार्थ है। जड़ पृथ्वी सूर्य की परिक्रमाएं करती है। वास्तव में गति के नियम के अनुसार उसे सीधी रेखा में ही गति करनी चाहिये। गति का एक और नियम कहता है की यदि कोई वस्तू अपनी गति करने की दिशा में परिवर्तन करती है तो वह किसी शक्ति के कारण ही। बस इसी शक्ति को हमारे पूर्वजों ने परमात्मा की शक्ति कहा है। कुछ वैज्ञानिक कहेंगे कि यह परमात्मा की शक्ति से नहीं होता। यह अपने आप होता है। किन्तु ऐसे वैज्ञानिक किसी के किये संसार में कुछ भी नही होता इसे भी मानते है। किन्तु पश्चिमी प्रभाव में वे इस शक्ति को परमात्मा कहने को तैयार नहीं है। ऐसे लोगों की ओर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। अणु में ॠणाणू (इलेक्ट्रॉन) नामक एक अति सूक्ष्म कण होता है। वह अणु के केंद्र के इर्दगिर्द प्रचंड गति से घूमता रहता है। यह सृष्टि निर्माण से चल रहा है। और सृष्टि के अंततक चलेगा। इस ॠणाणू को चलाता कौन है ? इसे ऊर्जा कौन देता है ? वैज्ञानिक कहते हैं, एक बहुत विशाल अण्डा था उस का विस्फोट हुआ और सृष्टि बन गई। किन्तु सब से पहला प्रश्न तो यह है की यह विशाल अण्डा आया कहाँ से ? दूसरे जब विस्फोट होता है तो अव्यवस्था निर्माण होती है। किन्तु प्रत्यक्ष में तो सृष्टि एकदम नियमों के आधार पर एक व्यवस्था से चलती है। यह व्यवस्था किसने स्थापित की ? गति के नियम किसने बनाए ? गुलाब के फूल को गुलाबी किसने बनाया ? और गुलाबी ही क्यों बनाया? इन सभी और ऐसे अनगिनत प्रश्नों के उत्तर में हमारे पूर्वजों ने कहा 'यह सब परमात्मा की लीला है'। परमात्मा को लगा, मैं एक से अनेक हो जाऊं। सोऽकामयत् एकोऽहं बहुस्याम:। और जैसे मकडी अपने में से ही तंतू निकालकर जाल बनाती है, परमात्मा ने अपनी इच्छाशक्ति से और अपने में से ही पूरी सृष्टि निर्माण की। इसीलिये धार्मिक (भारतीय) मनीषि घोषणा करते हैं कि जड़ और चेतन यह सब अनन्त चैतन्य परमात्मा से ही बनें हैं। इन में अंतर है तो बस चेतना के स्तर का। अनूभूति के स्तर का। इसे समझना और इस के अनुसार चराचर में एक ही परमात्वतत्व है ऐसा व्यवहार करने का अर्थ है ईश्वर प्रणिधान।
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=== १२ एकात्म जीवनदृष्टि ===
   
एकात्म जीवनदृष्टि अर्थात् ‘समग्रता से विचार’। किसी भी बात का विचार और कृति करने से पहले उस बात के विचार या कृति के करने के चराचर पर होनेवाले परिणामों का विचार करना। और चराचर के अहित की बात नहीं करना। धार्मिक (भारतीय) पद्धति में अध्ययन करते समय पहले संपूर्ण को समझना आवश्यक माना जाता है। इस के बाद उस पूरे के टुकडों का अध्ययन करना अधिक उपयुक्त होता है। पाश्चात्य पद्दति में पहले पूर्ण को यथासंभव बारीक टुकडों में बाँटा जाता है। फिर हर बारीक टुकडेपर अधिक से अधिक विचार किया जाता है। फिर इन टुकडों में किये विचारों को जोडकर पूरे का अनुमान लगाया जाता है। इस पाश्चात्य प्रणाली का वर्णन कुछ इस प्रकार किया गया है। टु नो मोअर ऍंड मोअर थिंग्ज् टिल यू नो एव्हरीथिंग अबाऊट नथिंग। अधिक से अधिक की सीमा है सब कुछ। और छोटी से छोटे की सीमा है कुछ नही। अर्थात् कुछ नही के बारे में सब कुछ जानना।  
 
एकात्म जीवनदृष्टि अर्थात् ‘समग्रता से विचार’। किसी भी बात का विचार और कृति करने से पहले उस बात के विचार या कृति के करने के चराचर पर होनेवाले परिणामों का विचार करना। और चराचर के अहित की बात नहीं करना। धार्मिक (भारतीय) पद्धति में अध्ययन करते समय पहले संपूर्ण को समझना आवश्यक माना जाता है। इस के बाद उस पूरे के टुकडों का अध्ययन करना अधिक उपयुक्त होता है। पाश्चात्य पद्दति में पहले पूर्ण को यथासंभव बारीक टुकडों में बाँटा जाता है। फिर हर बारीक टुकडेपर अधिक से अधिक विचार किया जाता है। फिर इन टुकडों में किये विचारों को जोडकर पूरे का अनुमान लगाया जाता है। इस पाश्चात्य प्रणाली का वर्णन कुछ इस प्रकार किया गया है। टु नो मोअर ऍंड मोअर थिंग्ज् टिल यू नो एव्हरीथिंग अबाऊट नथिंग। अधिक से अधिक की सीमा है सब कुछ। और छोटी से छोटे की सीमा है कुछ नही। अर्थात् कुछ नही के बारे में सब कुछ जानना।  
    
इसलिये जब धार्मिक (भारतीय) दृष्टि से अर्थशास्त्र का विचार होता है तो उस में शिक्षणशास्त्र, मानसशास्त्र और अन्य सामाजिक शास्त्रों का भी विचार होता है। पाश्चात्य अर्थशास्त्र में ‘आर्थिक मानव’ की कल्पना है। धार्मिक (भारतीय) अर्थशास्त्र में ‘आर्थिक मानव’ की कल्पना भी नहीं की जा सकती। वस्तुस्थिति में भी मानव का विचार आर्थिक मानव, कानूनी मानव, सामाजिक मानव, पारिवारिक मानव या आध्यात्मिक मानव ऐसा टुकडों में किया ही नही जा सकता। मानव तो यह सब मिलाकर ही होता है। उस की आर्थिक सोच हो सकती है। किन्तु पारिवारिक भावना को अलग रखकर उस की आर्थिक सोच का विचार नहीं किया जा सकता।  
 
इसलिये जब धार्मिक (भारतीय) दृष्टि से अर्थशास्त्र का विचार होता है तो उस में शिक्षणशास्त्र, मानसशास्त्र और अन्य सामाजिक शास्त्रों का भी विचार होता है। पाश्चात्य अर्थशास्त्र में ‘आर्थिक मानव’ की कल्पना है। धार्मिक (भारतीय) अर्थशास्त्र में ‘आर्थिक मानव’ की कल्पना भी नहीं की जा सकती। वस्तुस्थिति में भी मानव का विचार आर्थिक मानव, कानूनी मानव, सामाजिक मानव, पारिवारिक मानव या आध्यात्मिक मानव ऐसा टुकडों में किया ही नही जा सकता। मानव तो यह सब मिलाकर ही होता है। उस की आर्थिक सोच हो सकती है। किन्तु पारिवारिक भावना को अलग रखकर उस की आर्थिक सोच का विचार नहीं किया जा सकता।  
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=== १३ आत्मवत् सर्वभूतेषू ===
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=== आत्मवत् सर्वभूतेषू ===
 
पूरी सृष्टि एक ही आत्मतत्व का विस्तार है। इसी धार्मिक (भारतीय) मान्यता के आधारपर यह वर्तन सूत्र बना है। मै जैसे परमात्मतत्व हूं इसी तरह अन्य जड़ चेतन सभी परमात्मतत्व ही है। इसलिये मै अन्यों के साथ ऐसा व्यवहार करूं जैसी मेरी अन्यों से अपेक्षा है। और ऐसा व्यवहार नहीं करूं जैसे व्यवहार की मै अपने लिये औरों से अपेक्षा नहीं करता।   
 
पूरी सृष्टि एक ही आत्मतत्व का विस्तार है। इसी धार्मिक (भारतीय) मान्यता के आधारपर यह वर्तन सूत्र बना है। मै जैसे परमात्मतत्व हूं इसी तरह अन्य जड़ चेतन सभी परमात्मतत्व ही है। इसलिये मै अन्यों के साथ ऐसा व्यवहार करूं जैसी मेरी अन्यों से अपेक्षा है। और ऐसा व्यवहार नहीं करूं जैसे व्यवहार की मै अपने लिये औरों से अपेक्षा नहीं करता।   
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यह एक ऐसा वर्तनसूत्र है जिस के बारे में कहा जा सकता है - ' येन एकेन विज्ञातेन सर्वं विज्ञातं भवति '। इस एक वर्तनसूत्र के व्यवहार से सारा समाज सदाचारी बन सकता है। इस वर्तनसूत्र से लगभग सारी समस्याओं का समाधान मिल जाता है। एक दृष्टि से देखें तो यह मानवता की कसौटी भी है। मानवता का व्यवहार और मानवताविरोधी व्यवहार जानने का यह साधन भी है। इस सूत्र का उपयोग करने की पद्धति समझना महत्वपूर्ण है। 
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यह एक ऐसा वर्तनसूत्र है जिस के बारे में कहा जा सकता है {{Citation needed}}- ' येन एकेन विज्ञातेन सर्वं विज्ञातं भवति '। इस एक वर्तनसूत्र के व्यवहार से सारा समाज सदाचारी बन सकता है। इस वर्तनसूत्र से लगभग सारी समस्याओं का समाधान मिल जाता है। एक दृष्टि से देखें तो यह मानवता की कसौटी भी है। मानवता का व्यवहार और मानवताविरोधी व्यवहार जानने का यह साधन भी है।  
* पहला चरण : समस्या की ठीक प्रस्तुति
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=== उद्धरेत् आत्मनात्मानम् ===
** जैसे दहेज प्रथा को समस्या माना जाता है। किन्तु समस्या दहेज देना या लेना नही है। कोई भी पिता अपनी बेटी को यथासंभव अधिक से अधिक देना ही चाहता है। कई बार तो वरपक्ष की दहेज की अपेक्षा से अधिक भी दे देता है। समस्या तो तब निर्माण होती है जब पिता जितना देना चाहता है उस से अधिक देने के लिये उसपर दबाव आता है। इसलिये मूल समस्या है वधू के पिता पर उस की इच्छा से अधिक दहेज देनेका दबाव। 
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उद्धरेत् आत्मनात्मानम् का ही दूसरा अर्थ है स्वावलंबन। वैसे परस्परावलंबन के बगैर समाज चलता नहीं है। लेकिन ऐसा सहकार्य की अपेक्षा में बैठे हना ठीक नहीं है।  सहकार्य के नही मिलनेपर भी आगे बढने की मानसिकता और क्षमता का ही अर्थ है स्वावलंबन अर्थात् उद्धरेत् आत्मनात्मानम् ।   
 
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* दूसरे चरण में यह तय कीजिये की पीडित कौन है।
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** दहेज के मामले में वधू के पिता यह समस्या-पीडित है।
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* अब उस पीडित के स्थानपर मै हूं, ऐसी कल्पना करिये। और बेटी के ससुरालवालों से मै कैसे व्यवहार की अपेक्षा करता हूं यह सोचिये। वरपक्ष की ओर से ऐसा दबाव मुझपर नहीं आए यही तो वधू का पिता सोचेगा !
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* बस अब वरपक्ष के लोग आत्मवत् सर्वभूतेषू तत्व लगाएं। वधू पिता के स्थानपर वे हैं ऐसी कल्पना करें। वधूपिता के रूप में जैसी वरपक्ष से अपेक्षा होगी वैसे ही अपेक्षा वे प्रत्यक्ष में वधूपक्ष से रखें। अर्थात् वधूपिता की इच्छा से अधिक देने के लिये दबाव नही डालें। ऐसा दबाव नही डालना यह है मानवीय व्यवहार और वधूपिता की इच्छा के विपरीत अधिक देने के लिये दबाव डालना, यह है अमानवीय व्यवहार।
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यही सूत्र अब चोरी की समस्या के लिये लगाकर देखें। जिस की वस्तू या धन चोरी हो गया है वह है समस्या पीडित। चोर जब जिस के घर वह चोरी कर रहा है उस की भूमिका से विचार करेगा तब उसे लगेगा, मेरी मेहनत की कमाई को कोई चुराए नहीं। तो मै भी किसी की मेहनत की कमाई नहीं चुराऊं। 
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अब यही तत्व रिश्वतखोरी की समस्या को लगाएं। इस समस्या में रिश्वत देनेवाला समस्य-पीडित है। रिश्वत लेनेवाला जब रिश्वत देनेवाले की भूमिका से विचार करेगा, तो वह कभी रिश्वत नहीं लेगा। क्यों की किसी को भी रिश्वत देकर काम करवाना अच्छा नहीं लगता।
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स्त्रियों के साथ पुरुषों का व्यवहार यह भी एक समस्या है। शारिरिक दृष्टि से दुर्बल होने के कारण, इस में समस्या पीडित स्त्री ही होती है। समस्या यह है की पुरुष स्त्री का सम्मान नही करता। जब पुरुष अपने को स्त्री की भूमिका में रखकर विचार करेगा तब वह हमेशा स्त्री के साथ सम्मानजनक व्यवहार ही करेगा। मेरी बेटी, मेरी बहन, मेरी पत्नि और मेरी माता को लोग सम्मान से देखें ऐसा मुझे लगता है तो मैने भी अन्य किसी की बेटी, बहन, पत्नि और माता के साथ सम्मान से ही व्यवहार करना चाहिये। इसी को धार्मिक (भारतीय) संस्कृति में संस्कृत में कहा है ' मातृवत् परदारेषू। हर पराई स्त्री मेरे लिये माता के समान है।
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=== १४ उध्दरेद् आत्मनात्मानम् ===
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सामान्यत: बच्चा १२ वर्ष की आयुतक विचार करने लग जाता है। उस की तर्क, अनुमान आदि बुद्धि की शाखाएं सक्रिय हो जातीं है। यह वर्तनसूत्र सामान्य रूप में इस आयु से उपर की आयु के सभी के लिये है। मेरे विकास के लिये मुझे ही प्रयास करने होंगे। सामान्यत: मेरे विकास के कारण मेरा ही लाभ होगा। अन्यों का होगा यह आवश्यक नहीं है। फिर अन्य लोग मेरे लिये प्रयास नहीं करेंगे। 
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हर व्यक्ति एक स्वतंत्र शरीर, प्राण मन, बुद्धि और चित्त का स्वामी रहता है। मेरे लिये जो अच्छा है वही मुझे करना चाहिये। अन्यों की नकल कर मै बडा नही बन सकता। गुरूदेव रवींद्रनाथ ठाकूर कहते थे ' हर देश को परमात्मा ने भिन्न प्रश्नपत्रिका दी हुई है। अन्य देशों की नकल कर हम अपने प्रश्नों के उत्तर नहीं पा सकते। अपने प्रश्नों के उत्तर हमें ही खोजने होंगे। जैसे हर देश दूसरे देश से भिन्न होता है उसी तरह हर व्यक्ति भी दूसरे व्यक्ति से भिन्न होता है। प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति भिन्न होती है। यह स्वाभाविक भी है। आयुर्वेद में कहा है जहां का रोग वहीं की औषधि। औषधि को अन्य किसी परिसर में ढ़ूंढने की आवश्यकता नहीं है। पूर्व में वर्णित यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे से भी तो यही ध्वनित होता है।
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वास्तव में देखा जाए तो यह वर्तनसूत्र सामान्य आदमी जानता भी है और सामान्य रूप में व्यवहार भी करता है।  किन्तु वर्तमान धार्मिक (भारतीय) नेतृत्व की मानसिकता और वर्तमान शिक्षा के कारण यह सूत्र आग्रहपूर्वक बताने की आवश्यकता निर्माण हुई है। स्वामी विवेकानंद ने वर्तमान शिक्षा का वर्णन किया है ' टुडेज एज्यूकेशन इज ऑल राँग। माईंड इज क्रॅम्ड विथ फॅक्ट्स् बिफोर इत इज टॉट हाऊ टु थिंक '। विचार कैसे करना यह सिखाए बगैर ही वर्तमान शिक्षा में बच्चे के दिमाग में जानकारी ठूंसी जाती है। विचार कैसे करना से तात्पर्य सर्वहितकारी पद्दति से कैसे सोचना इस से है।
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उध्दरेत् आत्मनात्मानम् का ही दूसरा अर्थ है स्वावलंबन। वैसे परस्परावलंबन के बगैर समाज चलता नहीं है। लेकिन ऐसा सहकार्य की अपेक्षा में बैठे हना ठीक नहीं है।  सहकार्य के नही मिलनेपर भी आगे बढने की मानसिकता और क्षमता का ही अर्थ है स्वावलंबन अर्थात् उध्दरेद् आत्मनात्मानम्।
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=== १५ कृण्वंतो विश्वमार्यंम् ===
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कृण्वंतो विश्वमार्यंम् का अर्थ है हम समूचे विश्व को आर्य बनाएंगे। हमें पढाए जा रहे विकृत इतिहास के अनुसार आर्य यह जाति है। ऐसा सिखाना ना केवल गलत है अपितु देश के अहित का भी है। वास्तव में आर्य का अर्थ है श्रेष्ठ। प्राचीन और मध्यकालीन पूरे धार्मिक (भारतीय) साहित्य में आर्य शब्द का प्रयोग ' विचार और व्यवहार से श्रेष्ठ ' इसी अर्थ से किया गया मिलेगा। किन्तु भारत में भिन्न भिन्न कारणों से फूट डालने के अंग्रेजी षडयंत्र के अनुसार आर्य को जाति बनाकर प्रस्तुत किया गया। इसे हिन्दुस्तान पर आक्रमण करनेवाली जाति बताया गया। आर्य अनार्य, आर्य-द्रविड ऐसा हिन्दू समाज को तोडने का काफी सफल प्रयास अंग्रेजों ने किया। इसी कारण आज भी, जब यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो गया है की आर्य ऐसी कोई जाति नहीं थी, फिर भी यही पढ़ाया जा रहा है।
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यहाँ एक बात की ओर ध्यान देना महत्वपूर्ण है। आर्य जाति के लोग उत्तर ध्रुव से आये। ये लोग लंबे तगडे, मजबूत और गेहुं रंग के थे। उन्होंने यहाँ के निवासी द्रविडों को दक्षिण में खदेड दिया। ऐसा लिखा इतिहास आज भी अधिकृत माना जाता है। इस प्रमाणहीन सफेद झूठ को सत्य मान लिया गया है। तर्क के लिये मान लीजिये कि आर्य यह जाति थी। तो कृण्वंतो विश्वमार्यम् का अर्थ होगा ठिगने लोगों को उंचा बनाना, काले या पीले रंग के लोगों को गेहुं रंग के बनाना। इतनी मूर्खतापूर्ण बात और कोई नहीं हो सकती। किन्तु अंग्रेजों की मानसिक गुलामी करनेवाले लोगों को आर्य-अनार्य, आर्य-द्रविड, आदिवासी-अन्य ऐसे शब्दों को रूढ कर धार्मिक (भारतीय) समाज में फूट डालने की अंग्रेजों की चाल अब भी समझ में नहीं आ रही। चमडी का रंग, उंचाई यह बातें आनुवंशिक और भाप्रगोलिक कारणों से होतीं है। यह सामान्य ज्ञान की बात है। किन्तु इसे प्रमाणों के आधार पर भी गलत सिद्ध करने के उपरांत भी 'साहेब वाक्यं प्रमाणम्' माननेवाले तथाकथित इतिहास विशेषज्ञों की फौज विरोध में खडी हो जाती है। 
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सरस्वती शोध संस्थान ने आर्यों का मूल भारत ही है यह सप्रमाण सिद्ध कर दिया है। फिर भी हमने इतिहास में 'आर्यों का आक्रमण ' सिखाना नहीं छोडा है। मेकॉले शिक्षा का परिणाम कितना गहरा है यही इस से स्थापित होता है। 
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केवल तत्वज्ञान श्रेष्ठ होना या सर्वहितकारी होना पर्याप्त नहीं होता। उस तत्वज्ञान के पीछे व्यवहार के आधार पर जब तक शक्ति खडी नहीं की जाती विश्व उस तत्वज्ञान को स्वीकार नहीं करती। सत्यमेव जयते यह अर्धसत्य है। सत्य के पक्ष में जब शक्ति होती है तब ही सत्य की विजय होती है। इतिहास के अनुसार यही पूर्ण सत्य है। अर्थात् केवल कृण्वंतो विश्वमार्यम् कहना पर्याप्त नहीं है। सर्वप्रथम हमें ही विचार और व्यवहार से आर्य बनना होगा। ऐसे सज्जन आर्यों को संगठित करना होगा। दुर्जनों के मन में डर पैदा करनेवाली और सज्जनों को आश्वस्त करनेवाली शक्ति के रूप में खडा होना होगा। तब ही विश्व भी आर्य बनने का प्रयास करेगी।   
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और एक बात भी ध्यान में लेनी होगी। वर्तमान में हमारे ऊपर सामाजिक दृष्टि से अहिंसा का भूत बैठा हुआ है। इस का प्रभाव बहुत गहरा है। हमारे गीतों में, कहावतों में ऐसे विचार आने लग गये है। एक देशभक्ति के गीत में कहा गया है - सर कटा सकते है लेकिन सर झुका सकते नही। इसी अर्थ की भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमान अटलबिहारी वाजपेयीजी की कविता है ' टूट सकते है, मगर झुक नही सकते '। इस का थोडा विश्लेषण करेंगे तो हमारी धारणा कितनी गलत है यह ध्यान में आएगा। हम अभिमान से कह रहे है कि हम मर जाएंगे लेकिन शत्रू के आगे सर नही झुकाएंगे। यहाँ यह माना गया है की हमारा पक्ष सत्य का है। न्याय का है। यदि ऐसा है तो सर कटवाने से तो असत्य की ही विजय हो जाएगी। वास्तव में सर कटाने या झुकाने के विकल्प तो शत्रू के लिये है। जिस का पक्ष असत्य का है। अन्याय का है। हमारा पक्ष सत्य का, न्याय का है, इसलिये हमारे लिये केवल विजय ही एकमात्र विकल्प है। ऐसा ही एक गीत है झण्डा ऊंचा रहे हमारा। इस में भी कवि कहता है - चाहे जान भले ही जाए, सत्य विजय करके दिखलायें। अब यदि हमारी जान जाएगी तो विजय सत्य की कैसे होगी। 
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एक अंग्रेजी चित्रपट है ' पॅटन 'जनरल पॅटन अपने सिपाहियों से कहता है,'  विश्व में अपने देश के लिये मरकर कोई नही जीता है। वह जीता है शत्रू के उस के देश के लिये मरने के कारण। इसलिये निम्न दो बातों को समझना होगा। 
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* घर बैठे भजन करने से कृण्वंतो विश्वमार्यम् नहीं होनेवाला। उस के लिये तो राम की तरह प्रतिज्ञा करनी होगी।  'निसचर हीन करऊं मही '  विश्व में जहाँ भी अन्याय और अत्याचार हो रहा होगा उसे हम वहाँ जाकर नष्ट करेंगे।
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* हमारा पक्ष सत्य का है। इसलिये हमारे पास केवल विजय के सिवाय अन्य कोई विकल्प नहीं है। इतिहास की भी यही सीख है। जबतक हमारे अश्वमेध के अश्व चतुरंगिणी सेना के साथ विश्वभर मे घूमते थे बाहर से किसी की हमारे देशपर आक्रमण करने की हिम्मत नहीं होती थी। हमारी सम्राट परंपरा नष्ट हुई और भारतवर्षपर आक्रमणों का ताँता लग गया। आक्रमणों के उपरांत भी हमने सीमोल्लंघन कर प्रत्याक्रमण नहीं किये। इसी के कारण हमारा संख्यात्मक और गुणात्मक दोनों प्रकार से ह्रास होता जा रहा है। इसे समझना ही कृण्वंतो विश्वमार्यम् को समझना है।
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डॉ. श्री अब्दुल कलाम जब राष्ट्रपति थे, एक युवक सम्मेलन में उन्होंने यही प्रश्न पूछा था की हमने आक्रमण क्यों नही किया ? हमने आक्रमण नहीं किया यह हमारी बहुत बडी भूल थी यही उन्हें बताना था। जिस सजीव वस्तू का विकास थम जाता है, उस का ह्रास होना यह स्वाभाविक बात है। धार्मिक (भारतीय) समाज का इतिहास यही कहता है। जबतक हम सम्राट व्यवस्था के माध्यम से अपनी संस्कृति का विस्तार करते रहे हम संख्या और क्षेत्र में बढते गये। जैसे ही हमने विस्तार करना बंद किया हम सिकुडने लग गये। किन्तु हमारा विस्तारवाद और चीन का विस्तारवाद इन में गुणात्मक अंतर होगा। चीन ने अपना विस्तार किया। और पूरी तिब्बती प्रजा को नामशेष कर दिया। हमारा विस्तार अन्य समाजों को नष्ट करनेवाला विस्तार नहीं होगा। यह सर्वहितकारी होगा। उस भाप्रगोलिक क्षेत्र की दुर्जन शक्ति को नष्ट करनेतक ही वह सीमित होगा। धार्मिक (भारतीय) मानस में आयी झुकने और टूटने की इस विकृति को परिश्रमपूर्वक और ककठोरता से दूर करना होगा।
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=== १६ पूर्णत्व की आस ===
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ईशावास्योपनिषद मे कहा है<ref>ईशावास्योपनिषद</ref>  <blockquote>ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्ण मुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥</blockquote><blockquote>भावार्थ : वह ( ब्रह्म ) स्वत:ही पूर्ण है। उस में से कुछ अलग निकाला तो भी वह पूर्ण ही रहता है। और जो निकाला है वह भी पूर्ण ही रहता है। उस में बाहर से कुछ जोडने से भी उस का पूर्णत्व नष्ट नहीं होता।</blockquote>पूरी धार्मिक (भारतीय) जीवनशैली को इस पूर्णता की आस लेकर बाँधने का प्रयास हमारे पूर्वजों ने किया था। चार पाँच पीढियों पहले भारत में सिलाई मशीन से बने वस्त्र नहीं पहनते थे। इन वस्त्रों की विशेषता यह थी की इन में इन साडी या धोती में थोडा कम या थोडा अधिक वस्त्र होने से कोई विसंगति का अनुभव नहीं होता था। द्रौपदी ने साडी पहनी थी इसीलिये वह साडी का थोडा पल्लू फाडकर कृष्ण की जखम में पट्टी बाँध सकी थी। क्या वर्तमान जीन पँट पहननेवाली लडकी जीन पँट से ऐसा कर सकती है ?  इस वस्त्र का उपयोग भी पुरी तरह होता था। धोती जीर्ण हुई तो उस के तौलिये बना देते थे। वह भी जीर्ण हो गये तो रुमाल बन जाते थे। जख्मों को बाँधने की पट्टियाँ बन जाती थीं। पोंछे बन जाते थे। किन्तु वर्तमान वस्त्रों में कमी आ गई या जीर्ण हो गये तो उन का कोई उपयोग नहीं रह जाता।
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पहले घरों की रचना ऐसी थी की एकाध कमरा कम या अधिक होने से कोई समस्या नहीं होती थी। किन्तु वर्तमान आंतर-सुशोभन (इंटीरियर डेकोरेशन) के जमाने में एक कमरा कम हो गया तो सोने का कैसे होगा ? या स्वागत कक्ष का क्या होगा ? ऐसी समस्याएं खडी हो जातीं है।  
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शून्य और अनंत यह दोनों ही संकल्पनाएँ इस पूर्णत्व की शोध प्रक्रिया का ही प्रतिफल है। ० से ९ तक के ऑंकडे भी पूर्णत्व के प्रतीक ही है। वेदों से भी अत्यंत प्राचीन काल से चले आ रहे इन धार्मिक (भारतीय) ऑंकडों में और एक ऑंकडा जोडने की आजतक किसी को आवश्यकता नहीं लगी। यही इस अंक प्रणालि के पूर्णत्व का लक्षण है। हमारे धार्मिक (भारतीय) पूर्वजों ने विकसित की हुई अंकगणित की जोड, घट, गुणाकार, भागाकार, वर्गमूल, घनमूल, कलन और अवकलन की आठ क्रियाएं भी पूर्णता का ही लक्षण है। इसी तरह गो-आधारित कृषि का तंत्र भी ऐसा पूर्ण है की जबतक सृष्टि में मानव है यह कृषि प्रणालि मानव की अन्न की आवश्यकताएं हमेशा पूर्ण करती रहेगी।
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वास्तव में मोक्ष या परमात्मपद प्राप्ति या पूर्णत्व की प्राप्ति ही तो मानव जीवन का लक्ष्य है। कारण यह है की केवल परमात्मा ही पूर्ण है। उसी तरह हर जीव भी अपने आप में पूर्ण है। पूर्ण है का अर्थ है पूर्णत्व के लिए आवश्यक सभी बातें उसमें हैं। मनुष्य जीवन का लक्ष्य ही इस तरह से सबसे पहले अपने आप को विकसित कर पूर्णत्व(लघु) प्राप्त करना और आगे इस लघु पूर्ण को विकसित कर उसको एक पूर्ण (परमात्मा) में विलीन कर देना है।
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अब पूर्णत्व के कुछ उदाहरण देखेंगे: कुटुंब व्यवस्था, गो आधारित खेती, अंकगणित की आठ मूल क्रियाएं, ० से ९ तक के ऑंकडे, देवनागरी लिपी।
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सामान्यत: बच्चा १२ वर्ष की आयु तक विचार करने लग जाता है। उस की तर्क, अनुमान आदि बुद्धि की शाखाएं सक्रिय हो जातीं है। यह वर्तनसूत्र सामान्य रूप में इस आयु से उपर की आयु के सभी के लिये है। मेरे विकास के लिये मुझे ही प्रयास करने होंगे। सामान्यत: मेरे विकास के कारण मेरा ही लाभ होगा। अन्यों का होगा यह आवश्यक नहीं है। फिर अन्य लोग मेरे लिये प्रयास नहीं करेंगे।  
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=== पूर्णत्व की आस ===
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ईशावास्योपनिषद मे कहा है<ref>ईशावास्योपनिषद</ref>  <blockquote>ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥</blockquote><blockquote>भावार्थ : वह ( ब्रह्म ) स्वत:ही पूर्ण है। उस में से कुछ अलग निकाला तो भी वह पूर्ण ही रहता है। और जो निकाला है वह भी पूर्ण ही रहता है। उस में बाहर से कुछ जोडने से भी उस का पूर्णत्व नष्ट नहीं होता।</blockquote>शून्य और अनंत यह दोनों ही संकल्पनाएँ इस पूर्णत्व की शोध प्रक्रिया का ही प्रतिफल है। ० से ९ तक के आंकडें भी पूर्णत्व के प्रतीक ही है। वेदों से भी अत्यंत प्राचीन काल से चले आ रहे इन धार्मिक (भारतीय) आंकड़ों में और एक आंकड़ा जोडने की आज तक किसी को आवश्यकता नहीं लगी। यही इस अंक प्रणाली के पूर्णत्व का लक्षण है। हमारे पूर्वजों द्वारा विकसित की हुई अंकगणित की जोड, घट, गुणाकार, भागाकार, वर्गमूल, घनमूल, कलन और अवकलन की आठ क्रियाएं भी पूर्णता का ही लक्षण है। इसी तरह गो-आधारित कृषि का तंत्र भी ऐसा पूर्ण है की जब तक सृष्टि में मानव है यह कृषि प्रणाली मानव की अन्न की आवश्यकताएं हमेशा पूर्ण करती रहेगी।
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वास्तव में मोक्ष या परमात्मपद प्राप्ति या पूर्णत्व की प्राप्ति ही तो मानव जीवन का लक्ष्य है। कारण यह है कि केवल परमात्मा ही पूर्ण है। उसी तरह हर जीव भी अपने आप में पूर्ण है। पूर्ण है का अर्थ है पूर्णत्व के लिए आवश्यक सभी बातें उसमें हैं। मनुष्य जीवन का लक्ष्य ही इस तरह से सबसे पहले अपने आप को विकसित कर पूर्णत्व (लघु) प्राप्त करना और आगे इस लघु पूर्ण को विकसित कर उसको एक पूर्ण (परमात्मा) में विलीन कर देना है।
 
== भारतीय विद्वानों में हीनता बोध ==
 
== भारतीय विद्वानों में हीनता बोध ==
 
गुलामी गई किन्तु गुलामी की मानसिकता नहीं गई। स्वामी विवेकानंद कहते थे कि हम अपने मनीषियों और तपस्वियों के अनुभव को नहीं मानेंगे, किन्तु वही बात जब किसी मिश्टर हक्सले या मिश्टर टिंडल ने कही है, तो उसे सत्य मान लेंगे। साहेब वाक्यं प्रमाणम् की मानसिकता आज भी बदली नहीं है।
 
गुलामी गई किन्तु गुलामी की मानसिकता नहीं गई। स्वामी विवेकानंद कहते थे कि हम अपने मनीषियों और तपस्वियों के अनुभव को नहीं मानेंगे, किन्तु वही बात जब किसी मिश्टर हक्सले या मिश्टर टिंडल ने कही है, तो उसे सत्य मान लेंगे। साहेब वाक्यं प्रमाणम् की मानसिकता आज भी बदली नहीं है।

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