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=== पंच ॠण ===
 
=== पंच ॠण ===
ॠण का अर्थ है कर्ज। कृतज्ञता का अर्थ है औरों के द्वारा अपने हित में किये उपकारों को याद रखना। और यथासंभव उस से उतराई होने का प्रयास करना। पशु पक्षियों की स्मृति कम होती है। संवेदनाएं भी कम होती है। बुद्धि और चित्त भी मनुष्य की तुलना में दुर्बल होता है। इसलिये उसे उपकारकर्ता के उपकारों का स्मरण नही रहता। किन्तु मनुष्य के लिये उपकारों का भूलना अच्छी बात नही मानी जाती। वह यदि किये उपकार भूल जाता है तो उसे कृतघ्न कहा जाता है। कृतघ्नता को मनुष्यता का लक्षण नही माना जाता।      
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ॠण कल्पना भी मानव मात्र को सन्मार्गपर रखने के लिये हमारे पूर्वजोंद्वारा प्रस्तुत किया गया एक जीवनदर्शन है। ॠण का अर्थ है कर्जा। किसी द्वारा मेरे ऊपर किये उपकार का बोझ। पशु, पक्षी, प्राणी, कीटक आदि जीवों की स्मृति, संवेदनशीलता, बुद्धि का विकास अत्यंत अल्प होता है। इस कारण से इन में ना ही किसी पर उपकार करने की भावना रहती है और ना ही किसी के उपकार से उॠण होने की। इसलिये पशु, पक्षी, प्राणी, कीटक इन सभी के लिये कृतज्ञता या उपकार से उॠण होना आदि बातें लागू नहीं है। मानव की यह सभी क्षमताएं अति विकसित होती है। इसलिये मानव के लिये उपकारों से उॠण होना आवश्यक माना गया है। मनुष्य जन्म लेता है एक अर्भक के रूप में। अर्भकावस्था में वह पूर्णत: परावलंबी होता है। अन्यों की मदद के बिना वह जी भी नहीं सकता। उस के माता-पिता, पंचमहाभूतों से बने हवा-पानी, बिस्तर आदि, पडोसी, वप्रद्य, औषधि बनानेवाले उत्पादक, दुकानदार, विक्रेता, आदि अनंत प्रकार के लोगों के प्रत्यक्षा या अप्रत्यक्ष सहयोग के अभाव में भी बच्चे का जीना संभव नहीं है। जन्म से पूर्व भी माता-पिता के माता-पिता और उन के माता-पिता ऐसे पितरों के कारण ही उसे मानव जन्म का सौभाग्य मिला है। गर्भसंभव से लेकर बच्चा माता की कोख में लेटे हुए लोगों से कई बातें सीखता है। जन्म के बाद भी सीखता ही रहता है। माता-पिता के माध्यम से कई तरह क मार्गदर्शन गर्भकाल में और जन्म के उपरांत भी लेता रहता है इस कारण कई घटकों के किये उपकारों के कारण ही वह मानव बन पाता है। हर मनुष्य जन्म में उपकार बढते जाते है। उपकारों का बोझ बढता जाता है। बोझ कम ना करने की स्थिति में मनुष्य हीन योनि या मनुष्य योनि में हीन स्तर को प्राप्त होता है। इन उपकारों को धार्मिक (भारतीय) मनीषियों ने पॉच प्रमुख हिस्सों में बाँटा है। वे निम्न हैं:      
    
हम जब जन्म लेते है और आगे जीवन जीते है तो कई घटकों से हम मदद पाते है। इन घटकों का वर्गीकरण हमारे पूर्वजों ने पाँच प्रमुख हिस्सों में किया है। '''वे हैं भूतॠण, पितरॠण, ॠषिॠण, समाजॠण या नृॠण और देवॠण'''।
 
हम जब जन्म लेते है और आगे जीवन जीते है तो कई घटकों से हम मदद पाते है। इन घटकों का वर्गीकरण हमारे पूर्वजों ने पाँच प्रमुख हिस्सों में किया है। '''वे हैं भूतॠण, पितरॠण, ॠषिॠण, समाजॠण या नृॠण और देवॠण'''।
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इन देवताओं के ऋण से मुक्ति यज्ञ के द्वारा होती है। अग्निहोत्रों से होती है। यज्ञ के कारण इन देवताओं की पुष्टि होती है। इनके पुष्ट होने से तात्पर्य है इनका प्रदूषण दूर होना। इनका प्रदूषण दूर होने से मनुष्य और समाज का भी भला होता है।
 
इन देवताओं के ऋण से मुक्ति यज्ञ के द्वारा होती है। अग्निहोत्रों से होती है। यज्ञ के कारण इन देवताओं की पुष्टि होती है। इनके पुष्ट होने से तात्पर्य है इनका प्रदूषण दूर होना। इनका प्रदूषण दूर होने से मनुष्य और समाज का भी भला होता है।
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=== चतुर्विध पुरुषार्थ ===
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पुरुषार्थ शब्द आते ही पुरुष प्रधानता का संशय संशयात्माओं को आने लगता है। धार्मिक (भारतीय) प्राचीन साहित्य में पुरुष शब्द के अर्थ में पुरुष और स्त्री दोनों का समावेष होता है। धार्मिक (भारतीय) वर्तनसूत्रों में चार पुरुषार्थों का महत्वपूर्ण स्थान है। यह पुरुषार्थ है धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। काम का अर्थ है कामनाएं, इच्छाएं। और अर्थ से तात्पर्य है इन इच्छाओं की पूर्ति के लिये किये प्रयासों से। इच्छाएं नही होंगी तो जीवन थम जाएगा। और इच्छाओं की पूर्ति के लिये प्रयास नही होंगे तो भी जीवन चलेगा नही। जीने के लिये हवा, पानी और सूर्य प्रकाश तो सहज ही उपलब्ध है। किन्तु मनुष्य की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति तो प्रयासों से ही हो सकती है। इसलिये इच्छाओं को भी पुरुषार्थ कहा गया है। इसलिये अर्थ और काम इन दोनों को पुरुषार्थ कहा गया है। मनुष्य की इच्छाएं अमर्याद होती है। यह सभी को ज्ञात है। कुछ इच्छाएं धर्म के अनुकूल होती है। कुछ इच्छाएं धर्म के प्रतिकूल भी होती है। इन इच्छाओं की पूर्ति के प्रयास भी विविध मार्गों से किये जाते है। इन में कुछ धर्म से सुसंगत होते है। और कुछ धर्म विरोधी भी होते है। कामनाओं को और उन की पूर्ति के लिये किये गये प्रयत्नों को, दोनों को ही धर्म के दायरे में रखना आवश्यक होता है। ऐसा करने से मनुष्य का अपना जीवन और जिस समाज का वह हिस्सा है वह समाज जीवन दोनों सुचारू रूप से चलते है। वास्तव में इन पुरुषार्थो में प्रारंभ तो काम पुरुषार्थ से होता है। उस के बाद अर्थ पुरुषार्थ आता है। किन्तु धर्म पुरुषार्थ को क्रम में सर्वप्रथम स्थानपर रखने का कारण यही है कि सर्वप्रथम धर्मानुकूलता की कसौटी पर इच्छाओं की परीक्षा करो, उन में से धर्मविरोधी इच्छाओं का त्याग करो। केवल धर्मानुकूल इच्छाओं की पूर्ति के प्रयास करो। इसी प्रकार इच्छापूर्ति के प्रयासों में भी अर्थात् अर्थ पुरुषार्थ के समय भी धर्म के अनुकूल प्रयास ही करो। धर्मविरोधी प्रयासों का त्याग करो। 
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मनुस्मृति में (6-176) मे यही कहा है<ref>मनुस्मृति (6-176)</ref> <blockquote>परित्यजेदर्थकामौ यास्यातां धर्मवर्जितौ ।। 6-176 ।। </blockquote>श्रीमद्भगवद्गीता में भी श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है। धर्म का अविरोधी काम मैं ही हूं। मोक्ष पुरुषार्थ तो ऐसा करने से अनायास ही प्राप्त होता है। वैसे भी सामान्य मनुष्य के लिये मोक्ष पुरुषार्थ बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। वह तो जब सामान्य मनुष्य मानसिक, बौद्धिक और चैतसिक विकास कर मुमुक्षु पद प्राप्त कर लेता है तब उस में मोक्षप्राप्ति की कामना जागती है। ऐसे मुमुक्षु लोगों के लिये मोक्ष पुरुषार्थ की योजना है। अन्यों के लिये तो धर्म, अर्थ और काम इस त्रिवर्ग का ही महत्व है।
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==== काम और अर्थ पुरुषार्थ ====
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काम पुरुषार्थ अर्थात् धर्मानुकूल कामनाएं। धर्मसुसंगत इच्छाएं और आकांक्षाएं। सभी इच्छाओं को पुरुषार्थ नही कहा जाता। सामान्यत: पुत्रेषणा अर्थात् मै श्रेष्ठ बच्चों को जन्म दूं। वित्तेषणा अर्थात् मै अकूत धन कमाऊं। और लोकेषणा अर्थात् लोग मेरी सराहना करें। मेरा आदर सम्मान करें। ऐसी तीन प्रमुख इच्छाएं तो हर व्यक्ति के मन में होती ही है। किंतु केवल ऐसी इच्छा पुरुषार्थ नहीं कहलातीं। श्रेष्ठ पुत्र/पुत्री की प्राप्ति के लिये मेरा विवाह श्रेष्ठ सुशील कन्या से हो ऐसी इच्छा करना तो ठीक है। काम पुरुषार्थ ही है। किन्तु ऐसी किसी श्रेष्ठ पराई स्त्री के या जो मेरे साथ विवाह के लिये तैयार नही है ऐसी कन्या के साथ मै बलपूर्वक विवाह करने की इच्छा करूं तो यह धर्म का विरोध करनेवाली इच्छा है  और यह काम पुरुषार्थ नही काम पुरुषार्थ के विरोधी इच्छा मानी जाएगी। ऐसी इच्छा को अकरणीय माना गया है।
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अर्थ पुरुषार्थ अर्थात् धर्मानुकूल कामनाओं की पूर्ति के लिये किये गये धर्मानुकूल प्रयास। अर्थ पुरुषार्थ के लिये केवल प्रयासों का धर्मानुकूल होना पर्याप्त नहीं है। इच्छाएं भी धर्मानुकूल होना अनिवार्य है। तब ही वह प्रयास पुरुषार्थ कहलाया जा सकेगा। ऊपर हमने देखा कि श्रेष्ठ सुशील स्त्री से विवाह की कामना तो धर्मानुकूल ही है। इस इच्छा की पूर्ति के लिये जब मै अपने ओज, तेज, बल, विक्रम, शील, विनय आदि गुणों से ऐसी कन्या को प्रभावित कर मेरे साथ विवाह के लिये उद्यत करता हूं तब वह धर्मानुकूल अर्थ पुरुषार्थ कहता है।
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=== परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम् {{Citation needed}} ===
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सत्कर्म और दुष्कर्म की इतनी सरल और सटीक व्याख्या शायद ही किसी ने की होगी।
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संत तुलसीदासजी कहते है - परहित सरिस पुण्य नही भाई परपीडा सम नही अधमाई। तो संत तुकाराम कहते है पुण्य पर उपकार पाप ते परपीडा। मैने यदि अत्याचार किये तो आज नहीं कल, इस जन्म में नही तो अगले जन्मों में मुझे भी दण्ड मिलेगा ऐसी धार्मिक (भारतीय) समाज की श्रद्धा है। इस श्रद्धा के कारण ही किसी भी (सम्राट अशोक का अपवाद छोडकर) धार्मिक (भारतीय) राजा या सम्राट ने विजित राज्य की जनता पर कभी अत्याचार नहीं किये। किन्तु इहवादी धार्मिक (भारतीय) अर्थात् जो पुनर्जन्म या कर्मसिद्धांत पर विश्वास नहीं करते और अभारतीयों की बात भिन्न है।
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मेरे इस जन्म से पहले मै नहीं था और ना ही मेरी मृत्यू के बाद मै रहूंगा, ऐसा ये लोग समझते है। इन्हें इहवादी कहा जाता है। ऐसे लोग दुर्बल लोगों को, जो पलटकर उन के द्वारा दी गई पीडा का उत्तर नहीं दे सकते, ऐसे लोगों को पीडा देने में हिचकिचाते नहीं है। योरप के कई समाजों ने जैसे स्पेन, पुर्तगाल, इटली, फ्रांस, इंग्लंड आदि ने विश्वभर में उपनिवेश निर्माण किये थे। यह सब ये समाज इसलिये कर पाए और किया क्योंकि इन की मान्यता इहवादी थी। ऐसा करने में इन्हें कोई पापबोध नहीं हुआ। इन्ही को भौतिकतावादी भी कहते है। जो यह मानते हैं की जड़ के विकास में किसी स्तर पर अपने आप जीव का और आगे मनुष्य का निर्माण हो गया। ऐसे लोग पाप-पुण्य को नहीं मानते।<blockquote>परोपकाराय फलन्ति वृक्ष:। परोपकारार्थ वहन्ति नद्य:।। {{Citation needed}}</blockquote><blockquote>परोपकाराय दुहन्ति गाव:। परोपकारार्थमिदं शरीरम्।।</blockquote>प्रकृति के सभी अंश निरंतर परोपकार करते रहते है। पेड फल देते हैं। नदियाँ जल देतीं हैं। गाय दूध देती है। मैं तो इन सब से अधिक चेतनावान हूं, बुद्धिमान हूं, क्षमतावान हूं। इसलिये मुझे भी अपनी शक्तियों का उपयोग लोगों के उपकार के लिये ही करना चाहिये। यह है धार्मिक (भारतीय) विचार।
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धार्मिक (भारतीय) मान्यता के अनुसार तो पाप और पुण्य दोनों ही मन, वचन ( वाणी ) और कर्म ( कृति ) इन तीनों से होते है। और इन तीनों के पाप के बुरे और पुण्य के अच्छे फल मिलते हैं। मन में भी किसी के विषय में बुरे विचार आने से पाप हो जाता है। और उस का मानसिक क्लेष के रूप में फल भुगतना पडता है। हमारे बोलने से भी यदि किसी को दुख होता है तो ऐसे ही दुख देनेवाले वचन सुनने के रूप में हमें इस पाप का फल भोगना ही पडता है। कृति तो प्रत्यक्ष शारीरिक पीडा देनेवाला कार्य है। उस का फल शारीरिक दृष्टि से भोगना ही पडेगा। आगे कर्मसिद्धांत में हम इस की अधिक विवेचना करेंगे। 
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यहाँ अपराध और पाप इन में अंतर भी समझना आवश्यक है। वर्तमान कानून के विरोधी व्यवहार को अपराध कहते है। ऐसी कृति से किसी को हानि होती हो या ना होती हो वह अपराध है। और प्रचलित कानून की दृष्टि से दंडनीय है। किंतु हमारी कृति से जब तक किसी को दुख नहीं होता, किसी की हानि नहीं होती तब तक वह पाप नहीं है। धार्मिक (भारतीय) सोच में कानून को महत्व तो है किन्तु उस से भी अधिक महत्व पाप-पुण्य विचार को है। 
      
=== तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा<ref>ईशावास्योपनिषद्, प्रथम मन्त्र </ref> अर्थात् संयमित उपभोग : ===
 
=== तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा<ref>ईशावास्योपनिषद्, प्रथम मन्त्र </ref> अर्थात् संयमित उपभोग : ===
अष्टांग योग में पांच यमों का वर्णन है। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। ये वे पाँच यम है। यम सामाजिक स्तरपर पालन करने के लिये होते है। इन में अपरिग्रह का अर्थ है अपने उपभोग के लिये उपयोगी वस्तुओं का अपनी आवश्यकताओं से अधिक संचय नहीं करना। कोई यदि उस की आवश्यकता से अधिक संचय और उपभोग करता है तो वह चोरी करता है ऐसी धार्मिक (भारतीय) मान्यता है। यह धार्मिक (भारतीय) मान्यता थोडी कठोर लगती है। किन्तु इस तत्व में संसार की एक बहुत बडी समस्या का समाधान छुपा हुआ है। वर्तमान अर्थशास्त्रीयों के समक्ष सब से बडी अनुत्तरित समस्या यह है की प्रकृति मर्यादित है और मनुष्य की (इच्छाएं) अमर्याद हैं। मर्यादित प्रकृति से अमर्याद इच्छाओं की पूर्ति संभव नहीं है। और यह गणित यदि नहीं बिठाया गया तो पूरा विश्व संसाधनों की लडाई में नष्ट हो जाएगा। तेल पर अधिकार प्राप्त करने के लिये अमरीका के इराक पर हुए हमले से यही सिद्ध हुआ है। लेकिन पाश्चात्य विकास की कल्पना में आज किये गए वस्तु और सेवाओं के उपभोग से अगले दिन अधिक उपभोग को ही विकास माना जाता है। इस विकास कल्पना ने प्राकृतिक संसाधनों की मर्यादितता का संकट खडा कर दिया है। और दुर्भाग्य से भारत जैसे ही अन्य विश्व के लगभग सभी देशों के अर्थशास्त्रीयों ने भी इसी विकास कल्पना को और इस आत्मघाती अर्थशास्त्र को अपना लिया है। इस कारण यह संकट अब गंभीरतम बन गया है।  
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अष्टांग योग में पांच यमों का वर्णन है। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। ये वे पाँच यम है। यम सामाजिक स्तर पर पालन करने के लिये होते है। इन में अपरिग्रह का अर्थ है अपने उपभोग के लिये उपयोगी वस्तुओं का अपनी आवश्यकताओं से अधिक संचय नहीं करना। कोई यदि उस की आवश्यकता से अधिक संचय और उपभोग करता है तो वह चोरी करता है ऐसी धार्मिक (भारतीय) मान्यता है। यह धार्मिक (भारतीय) मान्यता थोडी कठोर लगती है। किन्तु इस तत्व में संसार की एक बहुत बडी समस्या का समाधान छुपा हुआ है। वर्तमान अर्थशास्त्रीयों के समक्ष सब से बडी अनुत्तरित समस्या यह है की प्रकृति मर्यादित है और मनुष्य की (इच्छाएं) अमर्याद हैं। मर्यादित प्रकृति से अमर्याद इच्छाओं की पूर्ति संभव नहीं है। और यह गणित यदि नहीं बिठाया गया तो पूरा विश्व संसाधनों की लडाई में नष्ट हो जाएगा। तेल पर अधिकार प्राप्त करने के लिये अमरीका के इराक पर हुए हमले से यही सिद्ध हुआ है। लेकिन पाश्चात्य विकास की कल्पना में आज किये गए वस्तु और सेवाओं के उपभोग से अगले दिन अधिक उपभोग को ही विकास माना जाता है। इस विकास कल्पना ने प्राकृतिक संसाधनों की मर्यादितता का संकट खडा कर दिया है। और दुर्भाग्य से भारत जैसे ही अन्य विश्व के लगभग सभी देशों के अर्थशास्त्रीयों ने भी इसी विकास कल्पना को और इस आत्मघाती अर्थशास्त्र को अपना लिया है। इस कारण यह संकट अब गंभीरतम बन गया है।  
    
इस समस्या का बुद्धियुक्त उत्तर ईशावास्योपनिषद में मार्गदर्शित ' तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा ' अर्थात् ' संयमित उपभोग ' से ही मिल सकता है। जब तक उपभोग को नियंत्रण में नहीं रखा जाएगा, न्यूनतम नहीं रखा जाएगा और आज है उसे भी न्यून करने के प्रयास नहीं किये जाएंगे, इस समस्या का समाधान नही मिल सकता।  
 
इस समस्या का बुद्धियुक्त उत्तर ईशावास्योपनिषद में मार्गदर्शित ' तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा ' अर्थात् ' संयमित उपभोग ' से ही मिल सकता है। जब तक उपभोग को नियंत्रण में नहीं रखा जाएगा, न्यूनतम नहीं रखा जाएगा और आज है उसे भी न्यून करने के प्रयास नहीं किये जाएंगे, इस समस्या का समाधान नही मिल सकता।  
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==== कुटुंब ====
 
==== कुटुंब ====
भारतीय एकत्रित परिवार आज भी विदेशी लोगों के लिये आकर्षण का विषय है। बडी संख्या में वर्तमान जीवनशैली और वर्तमान शिक्षा के कारण टूट रहे यह परिवार अब तो भारतीयों के भी चिंता और अध्ययन का विषय बन गये है। 
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कुटुंब व्यवस्था के कुछ महत्वपूर्ण विशेष निम्न हैं:
 
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अंग्रेजी में एक काहावत है ' क्राईंग चाईल्ड ओन्ली गेट्स् मिल्क् ' अर्थात् यदि बच्चा भूख से रोएगा नही तो उसे दूध नहीं मिलेगा। इस कहावत का जन्म उन के अधिकारों के लिये संघर्ष के वर्तनसूत्र में है। अन्यथा ऐसी कोई माँ (अंग्रेज भी) नहीं हो सकती जो बच्चा रोएगा नहीं तो उसे भूखा रखेगी। 
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स्त्री परिवार व्यवस्था का आधारस्तंभ है। घर के मुख्य स्त्री की भूमिका घर में अत्यंत महत्वपूर्ण है। वह ठीक रहेगी तो वह घर कुटुंब बनता है। स्त्री को सम्मान से देखना और उस के अनुसार व्यवहार करना हर कुटुंब के लिये अनिवार्य ऐसी बात है। वेसे तो घर में स्त्री की भिन्न भिन्न भूमिकाएं होतीं है। किन्तु इन सब में माता की भूमिका ही स्त्री की प्रमुख भूमिका मानी गई है। उसे विषयवासणा का साधन नहीं माना गया है। वह क्षण काल की पत्नी और अनंत काल की माता मानी जाती है। इसीलिये स्त्री को  जिस घर में आदर, सम्मान मिलता है और जिस घर की स्त्री ऐसे आदर सम्मान के पात्र होती है वह घर कुटुंब बन जाता है।
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बच्चा जब पैदा होता है तो उसे केवल अपनी भूख और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिये। इतनी ही समझ होती है। वह केवल अपने लिये जीनेवाला जीव होता है। परिवार उसे सामाजिक बनाता है। पैवार उसे केवल अपने हित की सोचनेवाले अर्भक को संस्कारित कर उसे अपने व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठाकर, केवल अपनों के लिये जीनेवाला घर का मुखिया बना देता है।
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हमारे पूर्वजों ने बहुत सोच समझकर, परिश्रमपूर्वक परिवार व्यवस्था का निर्माण किया था। केवल व्यवस्था ही निर्माण नहीं की तो उसे पूर्णत्व की स्थितितक ले गये। उस व्यवस्था में ही ऐसे घटक विकसित किये जो उस व्यवस्था को बनाए भी रखते थे और बलवान भी बनाते थे। इसीलिये धार्मिक (भारतीय) परिवार व्यवस्था कालजयी बनी है। इस कुटुंब व्यवस्था के कुछ महत्वपूर्ण विशेष निम्न हैं:  
   
* सुसंस्कृत, सुखी, समाधानी और सामाजिक सहनिवास के संस्कारों की व्यवस्था  
 
* सुसंस्कृत, सुखी, समाधानी और सामाजिक सहनिवास के संस्कारों की व्यवस्था  
* सामान्य ज्ञान एका पीढी से अगली पीढी तक संक्रमित करने की व्यवस्था  
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* सामान्य ज्ञान एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी तक संक्रमित करने की व्यवस्था  
* अपने परिवार की विशेषताएं जैसे ज्ञान, अनुभव और कुशलताएं एक पीढी से दुसरी पीढी को विरासत के रूप में संक्रमित करने की व्यवस्था  
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* अपने परिवार की विशेषताएं जैसे ज्ञान, अनुभव और कुशलताएं एक पीढ़ी से दुसरी पीढ़ी को विरासत के रूप में संक्रमित करने की व्यवस्था  
 
* कुटुंब प्रमुख परिवार के सब के हित में जिये ऐसी मानसिकता। और केवल जिये इतना ही नहीं अपितु परिवार के सभी घटकों को मनपूर्वक लगे भी यह महत्वपूर्ण बात है।  
 
* कुटुंब प्रमुख परिवार के सब के हित में जिये ऐसी मानसिकता। और केवल जिये इतना ही नहीं अपितु परिवार के सभी घटकों को मनपूर्वक लगे भी यह महत्वपूर्ण बात है।  
 
* जो कमाएगा वह खिलाएगा और जो जन्मा है वह खाएगा।  
 
* जो कमाएगा वह खिलाएगा और जो जन्मा है वह खाएगा।  
* अपनी क्षमता के अनुसार पारिवारिक जिम्मेदारी उठाना परिवार की समृध्दि बढाने में योगदान देना और परिवार के साझे संचय में से न्यूनतम का उपयोग करना। इसी व्यवहार के कारण देश समृध्द था।  
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* अपनी क्षमता के अनुसार पारिवारिक जिम्मेदारी उठाना परिवार की समृद्धि बढाने में योगदान देना और परिवार के साझे संचय में से न्यूनतम का उपयोग करना। इसी व्यवहार के कारण देश समृद्ध था।  
 
* बडों का आदर करना, छोटों को प्यार देना, अतिथि का सत्कार करना, स्त्री का सम्मान करना, परिवार के हित में ही अपना हित देखना, अपनों के लिये किये त्याग के आनंद की अनूभूति, घर के नौकर-चाकर, भिखारी, मधुकरी माँगनेवाले, पशु, पक्षी, पौधे आदि परिवार के घटक ही हैं, इस प्रकार उन सब से व्यवहार करना आदि बातें बच्चे परिवार में बढते बढते अपने आप सीख जाते थे।   
 
* बडों का आदर करना, छोटों को प्यार देना, अतिथि का सत्कार करना, स्त्री का सम्मान करना, परिवार के हित में ही अपना हित देखना, अपनों के लिये किये त्याग के आनंद की अनूभूति, घर के नौकर-चाकर, भिखारी, मधुकरी माँगनेवाले, पशु, पक्षी, पौधे आदि परिवार के घटक ही हैं, इस प्रकार उन सब से व्यवहार करना आदि बातें बच्चे परिवार में बढते बढते अपने आप सीख जाते थे।   
* मृत्यू का डर बताकर बीमे के दलाल कहते है की ‘आयुर्बीमा का कोई विकल्प नही है’। किन्तु बडे परिवार के किसी भी घटक को आयुर्विमा की कोई आवश्यकता नहीं होती। आपात स्थिति में पूरा परिवार उस घटक का केवल आर्थिक ही नहीं, भावनात्मक और शारिरिक बोझ भी सहज ही उठा लेता है। इस भावनात्मक सुरक्षा के लिये आयुर्बीमा में कोई विकल्प नहीं है।
   
* अनाथालय, विधवाश्रम, वृध्दाश्रम आदि की आवश्यकता वास्तव में समाज जीवन में आई विकृतियों के कारण है। इन सब समस्याओं की जड़ तो अधार्मिक (अभारतीय) जीवनशैली में है। टूटते घरों में है। टूटती ग्रामव्यवस्था और ग्रामभावना में है।  
 
* अनाथालय, विधवाश्रम, वृध्दाश्रम आदि की आवश्यकता वास्तव में समाज जीवन में आई विकृतियों के कारण है। इन सब समस्याओं की जड़ तो अधार्मिक (अभारतीय) जीवनशैली में है। टूटते घरों में है। टूटती ग्रामव्यवस्था और ग्रामभावना में है।  
 
* आर्थिक दृष्टि से देखें तो विभक्त परिवार को उत्पादक अधिक आसानी से लुट सकते है। विज्ञापनबाजी का प्रभाव जितना विभक्त परिवार पर होता है एकत्रित परिवार पर नहीं होता है।  
 
* आर्थिक दृष्टि से देखें तो विभक्त परिवार को उत्पादक अधिक आसानी से लुट सकते है। विज्ञापनबाजी का प्रभाव जितना विभक्त परिवार पर होता है एकत्रित परिवार पर नहीं होता है।  
* एकत्रित परिवार एक शक्ति केंद्र होता है। अपने हर सदस्य को शक्ति और आत्मविश्वास देता है। विभक्त परिवार से एकत्रित परिवार के सदस्य का आत्मविश्वास बहुत अधिक होता है। पूरे परिवार की शक्ति मेरे पीछे खडी है ऐसी भावना के कारण  एकत्रित परिवार के सदस्य को यह आत्मविश्वास प्राप्त होता है। इस संदर्भ में एक मजेदार और मार्मिक ऐसी दो पंक्तियाँ हिंदी प्रदेश में सुनने में आती है। जा के घर में चार लाठी वो चौधरी जा के घर में पाँच वो पंच। और जा के घर में छ: वो ना चौधरी गणे ना पंच ॥ अर्थात् जिस के एकत्रित परिवार में चार लाठी यानी चार मर्द हों वह चौधरी याने लोगों का मुखिया बन जाता है। जिस के घर में पाँच मर्द हों वह गाँव का पंच बन सकता है। और जिस के घर में छ: मर्द हों उस के साथ तो गाँव का चौधरी और गाँव का पंच भी उस से सलाह लेने आता है।
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* एकत्रित परिवार एक शक्ति केंद्र होता है। अपने हर सदस्य को शक्ति और आत्मविश्वास देता है। विभक्त परिवार से एकत्रित परिवार के सदस्य का आत्मविश्वास बहुत अधिक होता है। पूरे परिवार की शक्ति मेरे पीछे खडी है ऐसी भावना के कारण  एकत्रित परिवार के सदस्य को यह आत्मविश्वास प्राप्त होता है।   
 
* एकत्रित परिवार का प्रतिव्यक्ति खर्च भी विभक्त परिवार से बहुत कम होता है। सामान्यत: विभक्त परिवार का खर्च एकत्रित परिवार के खर्चे से डेढ़ गुना अधिक होता है।   
 
* एकत्रित परिवार का प्रतिव्यक्ति खर्च भी विभक्त परिवार से बहुत कम होता है। सामान्यत: विभक्त परिवार का खर्च एकत्रित परिवार के खर्चे से डेढ़ गुना अधिक होता है।   
 
* वर्तमान भारत की तुलना यदि ५० वर्ष पूर्व के भारत से करें तो यह समझ में आता है कि ५० वर्ष पूर्व परिवार बडे और संपन्न थे। उद्योग छोटे थे। उद्योगपति अमीर नहीं थे। किन्तु आज चन्द उद्योग बहुत विशाल और उद्योजक अमीर बन बैठे हैं। परिवार छोटे और उद्योगपतियों की तुलना में कंगाल या गरीब बन गये है। चंद उद्योगपति और राजनेता अमीर बन गये है। सामान्य आदमी ( देश की आधी से अधिक जनसंख्या ) गरीबी की रेखा के नीचे धकेला गया है।  
 
* वर्तमान भारत की तुलना यदि ५० वर्ष पूर्व के भारत से करें तो यह समझ में आता है कि ५० वर्ष पूर्व परिवार बडे और संपन्न थे। उद्योग छोटे थे। उद्योगपति अमीर नहीं थे। किन्तु आज चन्द उद्योग बहुत विशाल और उद्योजक अमीर बन बैठे हैं। परिवार छोटे और उद्योगपतियों की तुलना में कंगाल या गरीब बन गये है। चंद उद्योगपति और राजनेता अमीर बन गये है। सामान्य आदमी ( देश की आधी से अधिक जनसंख्या ) गरीबी की रेखा के नीचे धकेला गया है।  
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==== ८.२ ग्रामकुल ====
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==== ग्रामकुल ====
अपने पूर्वजों ने समाज व्यवस्था की दृष्टि से केवल परिवार व्यवस्था का ही निर्माण किया था ऐसा नहीं। श्रेष्ठ ग्रामकुल की रचना भी की थी। महात्मा गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी द्वारा लिखे १८ वीं सदी के भारत के गाँवों की जानकारी से यह पता चलता है की धार्मिक (भारतीय) गाँव भी पारिवारिक भावना से बंधे हुए थे। परिवार की ही तरह गाँवों की भी व्यवस्थाएं बनीं हुई थीं। जैसे परिवार के लोग एक दूसरे से आत्मीयता के धागे से बंधे होते है उसी प्रकार से गाँव के लोग भी आत्मीयता के धागे से बंधे हुए थे। इस गाँव में हमारे गाँव की बिटिया ब्याही है। मै यहाँ पानी नहीं पी सकता ऐसा कहनेवाले कुछ लोग तो आज भी हिंदीभाषी गाँवों मे मिल जाते है। परिवार में जैसे पैसे के लेनदेन से व्यवहार नहीं होते उसी प्रकार गाँव में भी नहीं होते थे। गाँव के प्रत्येक मानव, जीव, जन्तु के निर्वाह की व्यवस्था बिठाई हुई थी। और निर्वाह भी सम्मान के साथ। परिवार का कोई घटक परिवार को छोड अन्यत्र जाता है तो जैसे परिवार के सभी लोगों को दुख होता है। उसी तरह कोई गाँव छोडकर जाता था तो गाँव दुखी होता था। मिन्नतें करता था। उस के कष्ट दूर करने की व्यवस्थाएं करता था। लेकिन ये बातें अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों की समझ से परे है। जब उन के आका अंग्रेज इस व्यवस्था को नहीं समझ सके तो उन के चेले क्या समझेंगे?
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अपने पूर्वजों ने समाज व्यवस्था की दृष्टि से केवल परिवार व्यवस्था का ही निर्माण किया था ऐसा नहीं। श्रेष्ठ ग्रामकुल की रचना भी की थी। महात्मा गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी द्वारा लिखे १८ वीं सदी के भारत के गाँवों की जानकारी से यह पता चलता है की धार्मिक (भारतीय) गाँव भी पारिवारिक भावना से बंधे हुए थे। परिवार की ही तरह गाँवों की भी व्यवस्थाएं बनीं हुई थीं। जैसे परिवार के लोग एक दूसरे से आत्मीयता के धागे से बंधे होते है उसी प्रकार से गाँव के लोग भी आत्मीयता के धागे से बंधे हुए थे। इस गाँव में हमारे गाँव की बिटिया ब्याही है। मै यहाँ पानी नहीं पी सकता ऐसा कहनेवाले कुछ लोग तो आज भी हिंदीभाषी गाँवों मे मिल जाते है। परिवार में जैसे पैसे के लेनदेन से व्यवहार नहीं होते उसी प्रकार गाँव में भी नहीं होते थे। गाँव के प्रत्येक मानव, जीव, जन्तु के निर्वाह की व्यवस्था बिठाई हुई थी। और निर्वाह भी सम्मान के साथ। परिवार का कोई घटक परिवार को छोड अन्यत्र जाता है तो जैसे परिवार के सभी लोगों को दुख होता है। उसी तरह कोई गाँव छोडकर जाता था तो गाँव दुखी होता था। मिन्नतें करता था। उस के कष्ट दूर करने की व्यवस्थाएं करता था।
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==== ८.३ वसुधैव कुटुंबकम् ====
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==== वसुधैव कुटुंबकम् ====
 
<blockquote>अयं निज: परोवेत्ति गणना लघुचेतसाम् {{Citation needed}}</blockquote><blockquote>उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम्</blockquote>भावार्थ : यह मेरा यह पराया यह तो संकुचित मन और भावना के लक्षण है। जिन के हृदय बडे होते है, मन विशाल होते है उन के लिये तो सारा विश्व ही एक परिवार होता है। ऐसा विशाल मन और हृदय रखनेवाला मानव समाज बनाने की आकांक्षा और प्रयास हमारे पूर्वजों ने किये। वास्तव में एकत्रित परिवार जिस भावना और व्यवहारों के आधारपर सुव्यवस्थित ढॅग़ से चलता है उसी प्रकार पूरा विश्व भी चल सकता है। यह विश्वास और ऐसा करने की सामर्थ्य हमारे पूर्वजों में थी। यह बात आज भी असंभव नहीं है। वैसी दुर्दमनीय आकांक्षा और तप-सामर्थ्य हमें जगाना होगा।
 
<blockquote>अयं निज: परोवेत्ति गणना लघुचेतसाम् {{Citation needed}}</blockquote><blockquote>उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम्</blockquote>भावार्थ : यह मेरा यह पराया यह तो संकुचित मन और भावना के लक्षण है। जिन के हृदय बडे होते है, मन विशाल होते है उन के लिये तो सारा विश्व ही एक परिवार होता है। ऐसा विशाल मन और हृदय रखनेवाला मानव समाज बनाने की आकांक्षा और प्रयास हमारे पूर्वजों ने किये। वास्तव में एकत्रित परिवार जिस भावना और व्यवहारों के आधारपर सुव्यवस्थित ढॅग़ से चलता है उसी प्रकार पूरा विश्व भी चल सकता है। यह विश्वास और ऐसा करने की सामर्थ्य हमारे पूर्वजों में थी। यह बात आज भी असंभव नहीं है। वैसी दुर्दमनीय आकांक्षा और तप-सामर्थ्य हमें जगाना होगा।
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=== ९. कृतज्ञता ===
 
=== ९. कृतज्ञता ===
पाश्चात्य समाजों में कृतज्ञता व्यक्त करने की पध्दति धार्मिक (भारतीय) पध्दति से भिन्न है। किसी से उपकार लेनेपर थँक यू और किसी को अपने कारण तकलीफ होनेपर सॉरी ऐसा तुरंत कहने की पाश्चात्य पध्दति है। इतना संक्षेप में कृतज्ञता या खेद व्यक्त करके विषय पूरा हो जाता है। दूसरे ही क्षण वह जिस बात के लिये थँक यू कहा है या सॉरी कहा है उसे भूल जाता है। दूसरे ही क्षण से उस के लिये वह उपकार का या पश्चात्ताप का विषय नहीं रह जाता।   
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पाश्चात्य समाजों में कृतज्ञता व्यक्त करने की पद्दति भारतीय पद्दति से भिन्न है। किसी से उपकार लेनेपर थँक यू और किसी को अपने कारण तकलीफ होनेपर सॉरी ऐसा तुरंत कहने की पाश्चात्य पद्दति है। इतना संक्षेप में कृतज्ञता या खेद व्यक्त करके विषय पूरा हो जाता है। दूसरे ही क्षण वह जिस बात के लिये थँक यू कहा है या सॉरी कहा है उसे भूल जाता है। दूसरे ही क्षण से उस के लिये वह उपकार का या पश्चात्ताप का विषय नहीं रह जाता।   
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धार्मिक (भारतीय) मान्यताओं में इस से बहुत अधिक गंभीरता से इस बात का विचार किया गया है। केवल एक दो शब्दों से किये उपकार का प्रतिकार नही हो सकता। या दिये दुख को नि:शेष नहीं किया जा सकता। यह तो प्रत्यक्ष कृति से ही दिया जाना चाहिये। इसलिये जरा जरा सी बातपर थँक यू या सॉरी कहने की प्रथा धार्मिक (भारतीय) समाज में नही है। पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव में पश्चिमी तौर तरीकों का अंधानुकरण हो ही रहा है। इस के फलस्वरूप 'आप को मेरे कारण तकलीफ हुई। मान लिया ना ! और सॉरी कह दिया ना। अब क्या ‘मेरी जान लोगे’ ऐसा कहनेवाले धार्मिक (भारतीय) भी दिखाई देने लगे है। इसलिये कृतज्ञता के संबंध में धार्मिक (भारतीय) सोच का अधिक अध्ययन कर उसे व्यवहार में लाने की आवश्यकता है।
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धार्मिक (भारतीय) मान्यताओं में इस से बहुत अधिक गंभीरता से इस बात का विचार किया गया है। केवल एक दो शब्दों से किये उपकार का प्रतिकार नही हो सकता। या दिये दुख को नि:शेष नहीं किया जा सकता। यह तो प्रत्यक्ष कृति से ही दिया जाना चाहिये। इसलिये जरा जरा सी बातपर थँक यू या सॉरी कहने की प्रथा भारतीय समाज में नही है। पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव में पश्चिमी तौर तरीकों का अंधानुकरण हो ही रहा है।
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कृतज्ञता यह मनुष्य का लक्षण है। कृतज्ञता का अर्थ है किसी ने मेरे उपर किये उपकार का स्मरण रखना और उस के उपकार के प्रतिकार में उसे जब आवश्यकता है ऐसे समय उसपर उपकार करना। पशुओं में कृतज्ञता का अभाव ही होता है। शेर और उसे जाल में से छुडाने वाले चूहे की कथा बचपन में बच्चों को बताना ठीक ही है। किन्तु कृतज्ञता की भावना मन में गहराई तक बिठाने के लिये, बडे बच्चों को भी इस विषय की सुधारित कथा बताने की आवश्यकता है। 
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कृतज्ञता यह मनुष्य का लक्षण है। कृतज्ञता का अर्थ है किसी ने मेरे उपर किये उपकार का स्मरण रखना और उस के उपकार के प्रतिकार में उसे जब आवश्यकता है ऐसे समय उसपर उपकार करना।  
 
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यह सुधारित कथा ऐसी है। शेर के उपकारों को स्मरण कर चूहे ने शेर जिस जाल में फँसा था उसे काटा। इस से वह शेर ने चूहे को दिये जीवनदान के उपकार से मुक्त हो गया। यहाँ तक छोटे बच्चों के लिये ठीक है। बडे बच्चों की सुधारित कहानी में शेर चुहे का बहुत बडा गौरव करता है। चूहा विनम्रता से कहता है ‘शेर द्वारा मेरे उपर किये उपकार के कारण मैने यह कृतज्ञता के भाव से किया है। इस में मेरा कोई बडप्पन नहीं है ‘। इस पर शेर कहता है देखो यह कहानी मानव जगत की है। पशु जगत की नहीं है। मानव समाज में तो कृतज्ञता का भाव एक सहज स्वाभाविक बात मानी जाती है। किन्तु पशु जगत में तो ऐसी कोई परंपरा या नियम नहीं है। इस लिये मैने तुम्हें विशेष सम्मानित किया है। तात्पर्य यह है कि जो मनुष्य अपने पर किये उपकारों को भूल जाता है, या स्मरण होकर भी उन उपकारों से उॠण होने के लिये प्रयास नहीं करता वह मनुष्य नहीं पशु ही है।
      
==== ९.१ पंच ॠण ====
 
==== ९.१ पंच ॠण ====
ॠण कल्पना भी मानव मात्र को सन्मार्गपर रखने के लिये हमारे पूर्वजोंद्वारा प्रस्तुत किया गया एक जीवनदर्शन है। ॠण का अर्थ है कर्जा। किसी द्वारा मेरे ऊपर किये उपकार का बोझ। पशु, पक्षी, प्राणी, कीटक आदि जीवों की स्मृति, संवेदनशीलता, बुद्धि का विकास अत्यंत अल्प होता है। इस कारण से इन में ना ही किसी पर उपकार करने की भावना रहती है और ना ही किसी के उपकार से उॠण होने की। इसलिये पशु, पक्षी, प्राणी, कीटक इन सभी के लिये कृतज्ञता या उपकार से उॠण होना आदि बातें लागू नहीं है। मानव की यह सभी क्षमताएं अति विकसित होती है। इसलिये मानव के लिये उपकारों से उॠण होना आवश्यक माना गया है। मनुष्य जन्म लेता है एक अर्भक के रूप में। अर्भकावस्था में वह पूर्णत: परावलंबी होता है। अन्यों की मदद के बिना वह जी भी नहीं सकता। उस के माता-पिता, पंचमहाभूतों से बने हवा-पानी, बिस्तर आदि, पडोसी, वप्रद्य, औषधि बनानेवाले उत्पादक, दुकानदार, विक्रेता, आदि अनंत प्रकार के लोगों के प्रत्यक्षा या अप्रत्यक्ष सहयोग के अभाव में भी बच्चे का जीना संभव नहीं है। जन्म से पूर्व भी माता-पिता के माता-पिता और उन के माता-पिता ऐसे पितरों के कारण ही उसे मानव जन्म का सौभाग्य मिला है। गर्भसंभव से लेकर बच्चा माता की कोख में लेटे हुए लोगों से कई बातें सीखता है। जन्म के बाद भी सीखता ही रहता है। माता-पिता के माध्यम से कई तरह क मार्गदर्शन गर्भकाल में और जन्म के उपरांत भी लेता रहता है इस कारण कई घटकों के किये उपकारों के कारण ही वह मानव बन पाता है। हर मनुष्य जन्म में उपकार बढते जाते है। उपकारों का बोझ बढता जाता है। बोझ कम ना करने की स्थिति में मनुष्य हीन योनि या मनुष्य योनि में हीन स्तर को प्राप्त होता है। इन उपकारों को धार्मिक (भारतीय) मनीषियों ने पॉच प्रमुख हिस्सों में बाँटा है। वे निम्न हैं:
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==== ९.२ देने की संस्कृती ( दान की प्रवृत्ति ) ====
 
==== ९.२ देने की संस्कृती ( दान की प्रवृत्ति ) ====
 
गुरूकुलों में से जब स्नातक शिक्षा पूर्ण कर सांसारिक जीवन में प्रवेश की गुरू से अनुमति लेकर विदा होते थे तब समावर्तन विधि करने की प्रथा थी। इस विधि में स्नातक को पूर्व में किये गये संकल्पों की याद दिलाई जाती थी। यह वास्तव में वर्तनसूत्र ही थे। यह संकल्प १५ थे। इन में कहा गया है कि दान श्रद्धा से दो। भय के कारण दो। लज्जा के कारण दो। मित्रता के कारण दो। अर्थात् किसी भी कारण से दान देते रहो।  
 
गुरूकुलों में से जब स्नातक शिक्षा पूर्ण कर सांसारिक जीवन में प्रवेश की गुरू से अनुमति लेकर विदा होते थे तब समावर्तन विधि करने की प्रथा थी। इस विधि में स्नातक को पूर्व में किये गये संकल्पों की याद दिलाई जाती थी। यह वास्तव में वर्तनसूत्र ही थे। यह संकल्प १५ थे। इन में कहा गया है कि दान श्रद्धा से दो। भय के कारण दो। लज्जा के कारण दो। मित्रता के कारण दो। अर्थात् किसी भी कारण से दान देते रहो।  
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* '''संतोष''' का अर्थ है जो मिला है उस में समाधान रखने की मानसिकता। किन्तु भगवान होगा तो मुझे खाने को तो देगा ही ऐसा मानना संतोष नहीं है। संतोष कोई पुरुषार्थ का शत्रू नहीं है। पराकोटी का पुरुषार्थ करो। लेकिन जो फल मिलेगा उसे स्वीकार करो। सफलता से उद्दंड न बनना और असफलता से निराश नहीं होना, इसी को ही संतोष कहते है।  
 
* '''संतोष''' का अर्थ है जो मिला है उस में समाधान रखने की मानसिकता। किन्तु भगवान होगा तो मुझे खाने को तो देगा ही ऐसा मानना संतोष नहीं है। संतोष कोई पुरुषार्थ का शत्रू नहीं है। पराकोटी का पुरुषार्थ करो। लेकिन जो फल मिलेगा उसे स्वीकार करो। सफलता से उद्दंड न बनना और असफलता से निराश नहीं होना, इसी को ही संतोष कहते है।  
 
* '''तपस'''  का अर्थ है ध्येय की प्राप्ति के लिये ध्येय की प्राप्ति तक निरंतर परिश्रम करना। तप के दायरे में शरीर, इंद्रियाँ, मन और बुद्धि ऐसे चारों का दीर्घोद्योगी होना आ जाता है। तप केवल हिमालय चढने वाले के लिये ही नहीं अपितु दैनंदिन स्वाध्याय करनेवाले के लिये भी आवश्यक है।  
 
* '''तपस'''  का अर्थ है ध्येय की प्राप्ति के लिये ध्येय की प्राप्ति तक निरंतर परिश्रम करना। तप के दायरे में शरीर, इंद्रियाँ, मन और बुद्धि ऐसे चारों का दीर्घोद्योगी होना आ जाता है। तप केवल हिमालय चढने वाले के लिये ही नहीं अपितु दैनंदिन स्वाध्याय करनेवाले के लिये भी आवश्यक है।  
* स्वाध्याय से तात्पर्य है अध्ययन की आदत। स्वाध्याय का अर्थ है वर्तमान में अपने विषय का जितना भी ज्ञान उपलब्ध है उस का अध्ययन करना। अपनी बुद्धि, तप, अनुभव के आधारपर उपलब्ध ज्ञान को पूर्णता की ओर ले जाना। फिर उसे अगली पीढी को हस्तांतरित करना। पूर्व में वर्णित समावर्तन के संकल्पों में ‘स्वाध्यायान्माप्रमद:’ ऐसा भी एक संकल्प था। इस का अर्थ यह था की प्रत्येक स्नातक अपना विद्याकेंद्र का अध्ययन करने के उपरांत भी मृत्यूपर्यंत स्वाध्याय करता रहता था। कारीगरी, कला, कौशल, ज्ञान विज्ञान आदि अपने कर्म-क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति स्वाध्याय करता था। स्वाध्याय करने के लिये वचनबध्द था। नकल करनेवाले कभी नेतृत्व नहीं कर सकते। जो देश मौलिक शोध के क्षेत्र में आगे रहेगा वही विश्व का नेतृत्व करेगा। १८ वीं सदीतक भारत ऐसी स्थिति में था। स्वाध्याय की हमारी खण्डित परंपरा को जगाने से ही भारत विश्व का नेतृत्व करने में सक्षम होगा।  
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* स्वाध्याय से तात्पर्य है अध्ययन की आदत। स्वाध्याय का अर्थ है वर्तमान में अपने विषय का जितना भी ज्ञान उपलब्ध है उस का अध्ययन करना। अपनी बुद्धि, तप, अनुभव के आधारपर उपलब्ध ज्ञान को पूर्णता की ओर ले जाना। फिर उसे अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करना। पूर्व में वर्णित समावर्तन के संकल्पों में ‘स्वाध्यायान्माप्रमद:’ ऐसा भी एक संकल्प था। इस का अर्थ यह था की प्रत्येक स्नातक अपना विद्याकेंद्र का अध्ययन करने के उपरांत भी मृत्यूपर्यंत स्वाध्याय करता रहता था। कारीगरी, कला, कौशल, ज्ञान विज्ञान आदि अपने कर्म-क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति स्वाध्याय करता था। स्वाध्याय करने के लिये वचनबध्द था। नकल करनेवाले कभी नेतृत्व नहीं कर सकते। जो देश मौलिक शोध के क्षेत्र में आगे रहेगा वही विश्व का नेतृत्व करेगा। १८ वीं सदीतक भारत ऐसी स्थिति में था। स्वाध्याय की हमारी खण्डित परंपरा को जगाने से ही भारत विश्व का नेतृत्व करने में सक्षम होगा।  
 
* '''ईश्वर प्रणिधान''' से अभिप्राय है ईश्वर की आराधना। जिस सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, सर्वज्ञानी परमात्माने मुझे मनुष्य जन्म दिया है, मेरे भरण-पोषण के लिये विभिन्न संसाधन निर्माण किये है उस के प्रति श्रद्धा का भाव मन में निरंतर रखना। जगत में जड़ और चेतन ऐसे दो पदार्थ है। जड़ पृथ्वी सूर्य की परिक्रमाएं करती है। वास्तव में गति के नियम के अनुसार उसे सीधी रेखा में ही गति करनी चाहिये। गति का एक और नियम कहता है की यदि कोई वस्तू अपनी गति करने की दिशा में परिवर्तन करती है तो वह किसी शक्ति के कारण ही। बस इसी शक्ति को हमारे पूर्वजों ने परमात्मा की शक्ति कहा है। कुछ वैज्ञानिक कहेंगे कि यह परमात्मा की शक्ति से नहीं होता। यह अपने आप होता है। किन्तु ऐसे वैज्ञानिक किसी के किये संसार में कुछ भी नही होता इसे भी मानते है। किन्तु पश्चिमी प्रभाव में वे इस शक्ति को परमात्मा कहने को तैयार नहीं है। ऐसे लोगों की ओर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। अणु में ॠणाणू (इलेक्ट्रॉन) नामक एक अति सूक्ष्म कण होता है। वह अणु के केंद्र के इर्दगिर्द प्रचंड गति से घूमता रहता है। यह सृष्टि निर्माण से चल रहा है। और सृष्टि के अंततक चलेगा। इस ॠणाणू को चलाता कौन है ? इसे ऊर्जा कौन देता है ? वैज्ञानिक कहते हैं, एक बहुत विशाल अण्डा था उस का विस्फोट हुआ और सृष्टि बन गई। किन्तु सब से पहला प्रश्न तो यह है की यह विशाल अण्डा आया कहाँ से ? दूसरे जब विस्फोट होता है तो अव्यवस्था निर्माण होती है। किन्तु प्रत्यक्ष में तो सृष्टि एकदम नियमों के आधार पर एक व्यवस्था से चलती है। यह व्यवस्था किसने स्थापित की ? गति के नियम किसने बनाए ? गुलाब के फूल को गुलाबी किसने बनाया ? और गुलाबी ही क्यों बनाया? इन सभी और ऐसे अनगिनत प्रश्नों के उत्तर में हमारे पूर्वजों ने कहा 'यह सब परमात्मा की लीला है'। परमात्मा को लगा, मैं एक से अनेक हो जाऊं। सोऽकामयत् एकोऽहं बहुस्याम:। और जैसे मकडी अपने में से ही तंतू निकालकर जाल बनाती है, परमात्मा ने अपनी इच्छाशक्ति से और अपने में से ही पूरी सृष्टि निर्माण की। इसीलिये धार्मिक (भारतीय) मनीषि घोषणा करते हैं कि जड़ और चेतन यह सब अनन्त चैतन्य परमात्मा से ही बनें हैं। इन में अंतर है तो बस चेतना के स्तर का। अनूभूति के स्तर का। इसे समझना और इस के अनुसार चराचर में एक ही परमात्वतत्व है ऐसा व्यवहार करने का अर्थ है ईश्वर प्रणिधान।  
 
* '''ईश्वर प्रणिधान''' से अभिप्राय है ईश्वर की आराधना। जिस सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, सर्वज्ञानी परमात्माने मुझे मनुष्य जन्म दिया है, मेरे भरण-पोषण के लिये विभिन्न संसाधन निर्माण किये है उस के प्रति श्रद्धा का भाव मन में निरंतर रखना। जगत में जड़ और चेतन ऐसे दो पदार्थ है। जड़ पृथ्वी सूर्य की परिक्रमाएं करती है। वास्तव में गति के नियम के अनुसार उसे सीधी रेखा में ही गति करनी चाहिये। गति का एक और नियम कहता है की यदि कोई वस्तू अपनी गति करने की दिशा में परिवर्तन करती है तो वह किसी शक्ति के कारण ही। बस इसी शक्ति को हमारे पूर्वजों ने परमात्मा की शक्ति कहा है। कुछ वैज्ञानिक कहेंगे कि यह परमात्मा की शक्ति से नहीं होता। यह अपने आप होता है। किन्तु ऐसे वैज्ञानिक किसी के किये संसार में कुछ भी नही होता इसे भी मानते है। किन्तु पश्चिमी प्रभाव में वे इस शक्ति को परमात्मा कहने को तैयार नहीं है। ऐसे लोगों की ओर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। अणु में ॠणाणू (इलेक्ट्रॉन) नामक एक अति सूक्ष्म कण होता है। वह अणु के केंद्र के इर्दगिर्द प्रचंड गति से घूमता रहता है। यह सृष्टि निर्माण से चल रहा है। और सृष्टि के अंततक चलेगा। इस ॠणाणू को चलाता कौन है ? इसे ऊर्जा कौन देता है ? वैज्ञानिक कहते हैं, एक बहुत विशाल अण्डा था उस का विस्फोट हुआ और सृष्टि बन गई। किन्तु सब से पहला प्रश्न तो यह है की यह विशाल अण्डा आया कहाँ से ? दूसरे जब विस्फोट होता है तो अव्यवस्था निर्माण होती है। किन्तु प्रत्यक्ष में तो सृष्टि एकदम नियमों के आधार पर एक व्यवस्था से चलती है। यह व्यवस्था किसने स्थापित की ? गति के नियम किसने बनाए ? गुलाब के फूल को गुलाबी किसने बनाया ? और गुलाबी ही क्यों बनाया? इन सभी और ऐसे अनगिनत प्रश्नों के उत्तर में हमारे पूर्वजों ने कहा 'यह सब परमात्मा की लीला है'। परमात्मा को लगा, मैं एक से अनेक हो जाऊं। सोऽकामयत् एकोऽहं बहुस्याम:। और जैसे मकडी अपने में से ही तंतू निकालकर जाल बनाती है, परमात्मा ने अपनी इच्छाशक्ति से और अपने में से ही पूरी सृष्टि निर्माण की। इसीलिये धार्मिक (भारतीय) मनीषि घोषणा करते हैं कि जड़ और चेतन यह सब अनन्त चैतन्य परमात्मा से ही बनें हैं। इन में अंतर है तो बस चेतना के स्तर का। अनूभूति के स्तर का। इसे समझना और इस के अनुसार चराचर में एक ही परमात्वतत्व है ऐसा व्यवहार करने का अर्थ है ईश्वर प्रणिधान।  
    
=== १२ एकात्म जीवनदृष्टि ===
 
=== १२ एकात्म जीवनदृष्टि ===
एकात्म जीवनदृष्टि अर्थात् ‘समग्रता से विचार’। किसी भी बात का विचार और कृति करने से पहले उस बात के विचार या कृति के करने के चराचर पर होनेवाले परिणामों का विचार करना। और चराचर के अहित की बात नहीं करना। धार्मिक (भारतीय) पद्धति में अध्ययन करते समय पहले संपूर्ण को समझना आवश्यक माना जाता है। इस के बाद उस पूरे के टुकडों का अध्ययन करना अधिक उपयुक्त होता है। पाश्चात्य पध्दति में पहले पूर्ण को यथासंभव बारीक टुकडों में बाँटा जाता है। फिर हर बारीक टुकडेपर अधिक से अधिक विचार किया जाता है। फिर इन टुकडों में किये विचारों को जोडकर पूरे का अनुमान लगाया जाता है। इस पाश्चात्य प्रणाली का वर्णन कुछ इस प्रकार किया गया है। टु नो मोअर ऍंड मोअर थिंग्ज् टिल यू नो एव्हरीथिंग अबाऊट नथिंग। अधिक से अधिक की सीमा है सब कुछ। और छोटी से छोटे की सीमा है कुछ नही। अर्थात् कुछ नही के बारे में सब कुछ जानना।  
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एकात्म जीवनदृष्टि अर्थात् ‘समग्रता से विचार’। किसी भी बात का विचार और कृति करने से पहले उस बात के विचार या कृति के करने के चराचर पर होनेवाले परिणामों का विचार करना। और चराचर के अहित की बात नहीं करना। धार्मिक (भारतीय) पद्धति में अध्ययन करते समय पहले संपूर्ण को समझना आवश्यक माना जाता है। इस के बाद उस पूरे के टुकडों का अध्ययन करना अधिक उपयुक्त होता है। पाश्चात्य पद्दति में पहले पूर्ण को यथासंभव बारीक टुकडों में बाँटा जाता है। फिर हर बारीक टुकडेपर अधिक से अधिक विचार किया जाता है। फिर इन टुकडों में किये विचारों को जोडकर पूरे का अनुमान लगाया जाता है। इस पाश्चात्य प्रणाली का वर्णन कुछ इस प्रकार किया गया है। टु नो मोअर ऍंड मोअर थिंग्ज् टिल यू नो एव्हरीथिंग अबाऊट नथिंग। अधिक से अधिक की सीमा है सब कुछ। और छोटी से छोटे की सीमा है कुछ नही। अर्थात् कुछ नही के बारे में सब कुछ जानना।  
    
इसलिये जब धार्मिक (भारतीय) दृष्टि से अर्थशास्त्र का विचार होता है तो उस में शिक्षणशास्त्र, मानसशास्त्र और अन्य सामाजिक शास्त्रों का भी विचार होता है। पाश्चात्य अर्थशास्त्र में ‘आर्थिक मानव’ की कल्पना है। धार्मिक (भारतीय) अर्थशास्त्र में ‘आर्थिक मानव’ की कल्पना भी नहीं की जा सकती। वस्तुस्थिति में भी मानव का विचार आर्थिक मानव, कानूनी मानव, सामाजिक मानव, पारिवारिक मानव या आध्यात्मिक मानव ऐसा टुकडों में किया ही नही जा सकता। मानव तो यह सब मिलाकर ही होता है। उस की आर्थिक सोच हो सकती है। किन्तु पारिवारिक भावना को अलग रखकर उस की आर्थिक सोच का विचार नहीं किया जा सकता।  
 
इसलिये जब धार्मिक (भारतीय) दृष्टि से अर्थशास्त्र का विचार होता है तो उस में शिक्षणशास्त्र, मानसशास्त्र और अन्य सामाजिक शास्त्रों का भी विचार होता है। पाश्चात्य अर्थशास्त्र में ‘आर्थिक मानव’ की कल्पना है। धार्मिक (भारतीय) अर्थशास्त्र में ‘आर्थिक मानव’ की कल्पना भी नहीं की जा सकती। वस्तुस्थिति में भी मानव का विचार आर्थिक मानव, कानूनी मानव, सामाजिक मानव, पारिवारिक मानव या आध्यात्मिक मानव ऐसा टुकडों में किया ही नही जा सकता। मानव तो यह सब मिलाकर ही होता है। उस की आर्थिक सोच हो सकती है। किन्तु पारिवारिक भावना को अलग रखकर उस की आर्थिक सोच का विचार नहीं किया जा सकता।  
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हर व्यक्ति एक स्वतंत्र शरीर, प्राण मन, बुद्धि और चित्त का स्वामी रहता है। मेरे लिये जो अच्छा है वही मुझे करना चाहिये। अन्यों की नकल कर मै बडा नही बन सकता। गुरूदेव रवींद्रनाथ ठाकूर कहते थे ' हर देश को परमात्मा ने भिन्न प्रश्नपत्रिका दी हुई है। अन्य देशों की नकल कर हम अपने प्रश्नों के उत्तर नहीं पा सकते। अपने प्रश्नों के उत्तर हमें ही खोजने होंगे। जैसे हर देश दूसरे देश से भिन्न होता है उसी तरह हर व्यक्ति भी दूसरे व्यक्ति से भिन्न होता है। प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति भिन्न होती है। यह स्वाभाविक भी है। आयुर्वेद में कहा है जहां का रोग वहीं की औषधि। औषधि को अन्य किसी परिसर में ढ़ूंढने की आवश्यकता नहीं है। पूर्व में वर्णित यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे से भी तो यही ध्वनित होता है।  
 
हर व्यक्ति एक स्वतंत्र शरीर, प्राण मन, बुद्धि और चित्त का स्वामी रहता है। मेरे लिये जो अच्छा है वही मुझे करना चाहिये। अन्यों की नकल कर मै बडा नही बन सकता। गुरूदेव रवींद्रनाथ ठाकूर कहते थे ' हर देश को परमात्मा ने भिन्न प्रश्नपत्रिका दी हुई है। अन्य देशों की नकल कर हम अपने प्रश्नों के उत्तर नहीं पा सकते। अपने प्रश्नों के उत्तर हमें ही खोजने होंगे। जैसे हर देश दूसरे देश से भिन्न होता है उसी तरह हर व्यक्ति भी दूसरे व्यक्ति से भिन्न होता है। प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति भिन्न होती है। यह स्वाभाविक भी है। आयुर्वेद में कहा है जहां का रोग वहीं की औषधि। औषधि को अन्य किसी परिसर में ढ़ूंढने की आवश्यकता नहीं है। पूर्व में वर्णित यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे से भी तो यही ध्वनित होता है।  
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वास्तव में देखा जाए तो यह वर्तनसूत्र सामान्य आदमी जानता भी है और सामान्य रूप में व्यवहार भी करता है।  किन्तु वर्तमान धार्मिक (भारतीय) नेतृत्व की मानसिकता और वर्तमान शिक्षा के कारण यह सूत्र आग्रहपूर्वक बताने की आवश्यकता निर्माण हुई है। स्वामी विवेकानंद ने वर्तमान शिक्षा का वर्णन किया है ' टुडेज एज्यूकेशन इज ऑल राँग। माईंड इज क्रॅम्ड विथ फॅक्ट्स् बिफोर इत इज टॉट हाऊ टु थिंक '। विचार कैसे करना यह सिखाए बगैर ही वर्तमान शिक्षा में बच्चे के दिमाग में जानकारी ठूंसी जाती है। विचार कैसे करना से तात्पर्य सर्वहितकारी पध्दति से कैसे सोचना इस से है।  
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वास्तव में देखा जाए तो यह वर्तनसूत्र सामान्य आदमी जानता भी है और सामान्य रूप में व्यवहार भी करता है।  किन्तु वर्तमान धार्मिक (भारतीय) नेतृत्व की मानसिकता और वर्तमान शिक्षा के कारण यह सूत्र आग्रहपूर्वक बताने की आवश्यकता निर्माण हुई है। स्वामी विवेकानंद ने वर्तमान शिक्षा का वर्णन किया है ' टुडेज एज्यूकेशन इज ऑल राँग। माईंड इज क्रॅम्ड विथ फॅक्ट्स् बिफोर इत इज टॉट हाऊ टु थिंक '। विचार कैसे करना यह सिखाए बगैर ही वर्तमान शिक्षा में बच्चे के दिमाग में जानकारी ठूंसी जाती है। विचार कैसे करना से तात्पर्य सर्वहितकारी पद्दति से कैसे सोचना इस से है।  
    
उध्दरेत् आत्मनात्मानम् का ही दूसरा अर्थ है स्वावलंबन। वैसे परस्परावलंबन के बगैर समाज चलता नहीं है। लेकिन ऐसा सहकार्य की अपेक्षा में बैठे हना ठीक नहीं है।  सहकार्य के नही मिलनेपर भी आगे बढने की मानसिकता और क्षमता का ही अर्थ है स्वावलंबन अर्थात् उध्दरेद् आत्मनात्मानम्।  
 
उध्दरेत् आत्मनात्मानम् का ही दूसरा अर्थ है स्वावलंबन। वैसे परस्परावलंबन के बगैर समाज चलता नहीं है। लेकिन ऐसा सहकार्य की अपेक्षा में बैठे हना ठीक नहीं है।  सहकार्य के नही मिलनेपर भी आगे बढने की मानसिकता और क्षमता का ही अर्थ है स्वावलंबन अर्थात् उध्दरेद् आत्मनात्मानम्।  
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== जीवन का पूरा प्रतिमान ही अभारतीय ==
 
== जीवन का पूरा प्रतिमान ही अभारतीय ==
अंग्रेजों ने हमारे पूरे जीवन के धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान को ही नष्ट कर उस के स्थान पर अपना अंग्रेजी जीवन का प्रतिमान स्थापित कर दिया है। जीवन दृष्टि, जीवन शैली (व्यवहार सूत्र) और सामाजिक जीवन की व्यवस्थाएं इन को मिलाकर जीवन का प्रतिमान बनता है। हमारी जीवन दृष्टि, जीवन शैली (व्यवहार सूत्र) और सामाजिक जीवन की व्यवस्थाएं सभी अधार्मिक (अभारतीय) बन गये हैं। यदि कुछ शेष है तो पिछली पीढियों के कुछ लोग जो धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि को जानने वाले हैं। व्यवहार तो उन के भी मोटे तौर पर अधार्मिक (अभारतीय) जीवनदृष्टि के अनुरूप ही होते हैं। युवा पीढी के तो शायद ही कोई धार्मिक (भारतीय) जीवन दृष्टि से परिचित होंगे। जब जीवन दृष्टि से ही युवा पीढी अपरिचित है तो धार्मिक (भारतीय) जीवनशैली और जीवन व्यवस्थाओं की समझ की उन से अपेक्षा भी नहीं की जा सकती।
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अंग्रेजों ने हमारे पूरे जीवन के धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान को ही नष्ट कर उस के स्थान पर अपना अंग्रेजी जीवन का प्रतिमान स्थापित कर दिया है। जीवन दृष्टि, जीवन शैली (व्यवहार सूत्र) और सामाजिक जीवन की व्यवस्थाएं इन को मिलाकर जीवन का प्रतिमान बनता है। हमारी जीवन दृष्टि, जीवन शैली (व्यवहार सूत्र) और सामाजिक जीवन की व्यवस्थाएं सभी अधार्मिक (अभारतीय) बन गये हैं। यदि कुछ शेष है तो पिछली पीढियों के कुछ लोग जो धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि को जानने वाले हैं। व्यवहार तो उन के भी मोटे तौर पर अधार्मिक (अभारतीय) जीवनदृष्टि के अनुरूप ही होते हैं। युवा पीढ़ी के तो शायद ही कोई धार्मिक (भारतीय) जीवन दृष्टि से परिचित होंगे। जब जीवन दृष्टि से ही युवा पीढ़ी अपरिचित है तो धार्मिक (भारतीय) जीवनशैली और जीवन व्यवस्थाओं की समझ की उन से अपेक्षा भी नहीं की जा सकती।
    
१९४७ में हम स्वाधीन हुए। स्वतंत्र नहीं। स्वतंत्र होने का तो कोई विचार भी हमारे मन में कभी आता नहीं है। स्वतंत्र का अर्थ है अपने तंत्रों के साथ याने अपनी व्यवस्थाओं के साथ जीनेवाले। अंग्रेजों ने भारत में स्थापित की हुई शासन, प्रशासन, न्याय, अर्थ, उद्योग, कृषि, जल प्रबंधन, शिक्षा आदि में से एक भी व्यवस्था को हमने अपनी जीवन दृष्टि और जीवन शैली के अनुसार बदलने का विचार भी नहीं किया है। प्रत्यक्ष बदलना तो बहुत दूर की बात है।
 
१९४७ में हम स्वाधीन हुए। स्वतंत्र नहीं। स्वतंत्र होने का तो कोई विचार भी हमारे मन में कभी आता नहीं है। स्वतंत्र का अर्थ है अपने तंत्रों के साथ याने अपनी व्यवस्थाओं के साथ जीनेवाले। अंग्रेजों ने भारत में स्थापित की हुई शासन, प्रशासन, न्याय, अर्थ, उद्योग, कृषि, जल प्रबंधन, शिक्षा आदि में से एक भी व्यवस्था को हमने अपनी जीवन दृष्टि और जीवन शैली के अनुसार बदलने का विचार भी नहीं किया है। प्रत्यक्ष बदलना तो बहुत दूर की बात है।

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