Changes

Jump to navigation Jump to search
Line 30: Line 30:  
{{div col end}}
 
{{div col end}}
   −
== अधार्मिक (अभारतीय) तत्वज्ञान, जीवनदृष्टि और इन पर आधारित व्यवहार सूत्र ==
+
== अभारतीय (मूलतः पश्चिमी) जीवनदृष्टि और इस पर आधारित व्यवहार सूत्र ==
वर्तमान विश्व में प्रमुख रूप से जीवन के दो प्रतिमान अस्तित्व में हैं। एक है धार्मिक (भारतीय) '''प्रतिमान'''। यह अभी सुप्त अवस्था में है। जागृत होने के लिये प्रयत्नशील है।  दूसरा है '''यूरो-अमरिकी प्रतिमान'''। यहूदी, ईसाई और मुस्लिम समाज इस दूसरे प्रतिमान को मानने वाले हैं। इस प्रतिमान ने धार्मिक (भारतीय) समाज के साथ ही विश्व के अन्य सभी समाजों को गहराई से प्रभावित किया है। धार्मिक (भारतीय) समाज छोड कर अन्य सभी समाजों ने इसे सर्वार्थ से या तो अपना लिया है या तेजी से अपना रहे हैं। केवल धार्मिक (भारतीय) समाज ही अपनी आंतरिक शक्ति के आधार पर पुन: जागृत होने के लिये प्रयत्नशील है। इस यूरो-अमरिकी प्रतिमान को मानने वाले दो तबके हैं। यूरो-अमरिकी मजहबी दृष्टि के अनुसार विश्व के निर्माण की मान्यता एक जैसी ही है।
+
अभारतीय प्रतिमान को हम '''यूरो-अमरिकी प्रतिमान''' भी कह सकते हैं । यहूदी, ईसाई और मुस्लिम समाज इस प्रतिमान को मानने वाले हैं। इस प्रतिमान ने विश्व के अन्य सभी समाजों को गहराई से प्रभावित किया है। भारतीय समाज छोड कर अन्य सभी समाजों ने इसे सर्वार्थ से या तो अपना लिया है या तेजी से अपना रहे हैं। इस यूरो-अमरिकी प्रतिमान को मानने वाले दो तबके हैं।
* एक तबका है ईसाईयत के तत्वज्ञान को आधार मानने वाला। इन का तत्वज्ञान निम्न है: येहोवा/गॉड/ अल्ला ने पाँच दिन सृष्टि का निर्माण किया और छठे दिन मानव का निर्माण कर मानव से कहा कि ' यह चर-अचर सृष्टि तुम्हारे उपभोग के लिये है'। यूरो अमरिकी समाज पर फ्रांसिस बेकन और रेने देकार्ते इन दो फिलॉसॉफरों की फिलॉसॉफिी का गहरा प्रभाव है। इन का तत्वज्ञान कहता है कि प्रकृति मानव की दासी है। इसे कस कर अपनी जकड में रखना चाहिये। मानव जम कर इस का शोषण कर सके इसी लिये इस का निर्माण हुआ है। इस लिये प्रकृतिे का मानव ने जम कर (टू द हिल्ट) शोषण करना चाहिये।
+
* एक तबका यहूदी/ ईसाई (Judeo-Christian) तत्वज्ञान को आधार मानने वाला है । यह तत्वज्ञान निम्न है: येहोवा / गॉड / अल्ला ने पाँच दिन सृष्टि का निर्माण किया और छठे दिन मानव का निर्माण कर मानव से कहा कि 'यह चर-अचर सृष्टि तुम्हारे उपभोग के लिये है'। यूरो अमरिकी समाज पर फ्रांसिस बेकन और रेने देकार्ते इन दो फिलॉसॉफरों की फिलोसोफी का गहरा प्रभाव है। इन का तत्वज्ञान कहता है कि प्रकृति मानव की दासी है। इसे कस कर अपनी जकड में रखना चाहिये। मानव जम कर इस का शोषण कर सके इसी लिये इस का निर्माण हुआ है। इस लिये प्रकृति का मानव ने जम कर (टू द हिल्ट) शोषण करना चाहिये।
* और दूसरा है यूरो-अमरिकी और उन का अनुसरण करने वाले दार्शनिकों का और साईंटिस्टों का। वैसे तो आधुनिक साईंस ने ईसाईयत के कई गंभीर सिध्दांतों की धज्जियाँ उडा दी है, लेकिन फिर भी मोटा-मोटी दोनों तबकों का तत्वज्ञान एक ही है। इस लिये जीवन का प्रतिमान भी एक ही है।  यूरो-अमरिकी साईंटिस्टों और उन का अनुसरण करने वाले धार्मिक (भारतीय) समेत विश्व के सभी साईंटिस्टों की विश्वदृष्टि का आधार '''डार्विन की 'विकास वाद' और मिलर की 'जड से रासायनिक प्रक्रिया से जीव निर्माण'''' की परिकल्पनाएं ही हैं। मानव इन रासायनिक प्रक्रियाओं के पुलिंदों में सर्वश्रेष्ठ है। इस लिये इसे अपने स्वार्थ के लिये अन्य रासायनिक प्रक्रियाएं नष्ट करने का पूरा अधिकार है।
+
* दूसरा तबका है यूरो-अमरिकी साईंटिस्टों का। यूरो-अमरिकी साईंटिस्टों और उन का अनुसरण करने वाले भारत समेत विश्व के सभी साईंटिस्टों की विश्वदृष्टि का आधार '''डार्विन की 'विकास वाद' और मिलर की 'जड से रासायनिक प्रक्रिया से जीव निर्माण'''' की परिकल्पनाएं ही हैं। मानव इन रासायनिक प्रक्रियाओं के पुलिंदों में सर्वश्रेष्ठ है। इस लिये इसे अपने स्वार्थ के लिये अन्य रासायनिक प्रक्रियाएं नष्ट करने का पूरा अधिकार है।
मजहब या रिलीजन, फिलॉऑफरों की फिलॉसॉफि और साईंटिस्टों के ऐसे तीनों के प्रभाव के कारण जो अधार्मिक (अभारतीय) जीवन दृष्टि बनीं है उस के तीन मुख्य पहलू हैं:
+
यद्दपि आधुनिक साईंस ईसाईयत के कई गंभीर सिध्दांतों के विरोध में है, लेकिन फिर भी मोटा-मोटी दोनों तबकों का तत्वज्ञान एक ही है। इस लिये जीवन का प्रतिमान भी एक ही है। मजहब या रिलीजन, फिलॉसॉफरों की फिलोसोफी और साईंटिस्टों, तीनों के प्रभाव के कारण जो अभारतीय जीवन दृष्टि बनीं है उस के तीन मुख्य पहलू हैं:
 
#व्यक्तिवादिता : सारी सृष्टि केवल मेरे उपभोग के लिये बनीं है।
 
#व्यक्तिवादिता : सारी सृष्टि केवल मेरे उपभोग के लिये बनीं है।
 
# जडवादिता : सृष्टि में सब जड ही है। चेतनावान कुछ भी नहीं है।
 
# जडवादिता : सृष्टि में सब जड ही है। चेतनावान कुछ भी नहीं है।
Line 47: Line 47:  
# इहवादिता (धिस इज द ओन्ली लाईफ। देयर वॉज नथिंग बिफोर एँड देयर शॅल बी नथिंग बियाँड धिस लाईफ - This is the only life. There was nothing before and there shall be nothing beyond this life)।
 
# इहवादिता (धिस इज द ओन्ली लाईफ। देयर वॉज नथिंग बिफोर एँड देयर शॅल बी नथिंग बियाँड धिस लाईफ - This is the only life. There was nothing before and there shall be nothing beyond this life)।
 
# मेरी रासायनिक प्रक्रिया (जीवन) अच्छी चले (स्वार्थ) यह महत्वपूर्ण है। इस लिये किसी अन्य रासायनिक प्रक्रिया में बाधा आती है (परपीडा होती है) तो भले आये। अन्य कोई रासायनिक प्रक्रिया बंद होती है (जीवन नष्ट होता है) तो भले हो जाये।
 
# मेरी रासायनिक प्रक्रिया (जीवन) अच्छी चले (स्वार्थ) यह महत्वपूर्ण है। इस लिये किसी अन्य रासायनिक प्रक्रिया में बाधा आती है (परपीडा होती है) तो भले आये। अन्य कोई रासायनिक प्रक्रिया बंद होती है (जीवन नष्ट होता है) तो भले हो जाये।
# चैतन्य को नकारने के कारण सृष्टि के विभिन्न अस्तित्वों में स्थित अंतर्निहित एकात्मता को अमान्य करने के कारण टुकडों में विचार करने की सोच। (पीसमील एॅप्रोच - piecemeal approach) ।
+
# चैतन्य को नकारने के कारण सृष्टि के विभिन्न अस्तित्वों में स्थित अंतर्निहित एकात्मता को अमान्य करने के कारण टुकडों में विचार करने की सोच। (पीसमील एप्रोच - piecemeal approach) ।
# सभी सामाजिक और सृष्टिगत संबंधों का आधार स्वार्थ ही है। सामाजिक संबंधों का आधार इसी लिये 'काँट्रॅक्ट' या करार या समझौता या एॅग्रीमेंट होता है।
+
# सभी सामाजिक और सृष्टिगत संबंधों का आधार स्वार्थ ही है। सामाजिक संबंधों का आधार इसी लिये 'काँट्रॅक्ट' या करार या समझौता या एग्रीमेंट होता है।
    
#
 
#
Line 59: Line 59:  
# जडवाद : जड का अर्थ है अजीव। पूरी सृष्टि अजीव पदार्थों की बनीं है। साईंस के अनुसार सारी सृष्टि में चेतन कुछ भी नहीं है। स्वयंप्रेरणा, स्वत: कुछ करने की शक्ति सृष्टि में कहीं नहीं है। साईंस भावना, प्रेम, सहानुभूति आदि नहीं मानता। मिलर की परिकल्पना के अनुसार जिन्हे हम जीव समझते है वे वास्तव में रासायनिक प्रक्रियाओं के पुलिंदे होते है।
 
# जडवाद : जड का अर्थ है अजीव। पूरी सृष्टि अजीव पदार्थों की बनीं है। साईंस के अनुसार सारी सृष्टि में चेतन कुछ भी नहीं है। स्वयंप्रेरणा, स्वत: कुछ करने की शक्ति सृष्टि में कहीं नहीं है। साईंस भावना, प्रेम, सहानुभूति आदि नहीं मानता। मिलर की परिकल्पना के अनुसार जिन्हे हम जीव समझते है वे वास्तव में रासायनिक प्रक्रियाओं के पुलिंदे होते है।
 
# यांत्रिक दृष्टिकोण : टुकडों के ज्ञान को जोडकर संपूर्ण को जानना तब ही संभव होगा जब उस पूर्ण की बनावट यांत्रिक होगी। यंत्र में एक एक पुर्जा कृत्रिम रूप से एक दूसरे के साथ जोडा जाता है। उसे अलग अलग कर उसके कार्य को समझना सरल होता है। ऐसे प्रत्येक पुर्जे का कार्य समझ कर पूरे यंत्र के कार्य को समझा जा सकता है। व्होल इस सैम ऑफ़ इट्स पार्ट्स (Whole is sum of its parts)
 
# यांत्रिक दृष्टिकोण : टुकडों के ज्ञान को जोडकर संपूर्ण को जानना तब ही संभव होगा जब उस पूर्ण की बनावट यांत्रिक होगी। यंत्र में एक एक पुर्जा कृत्रिम रूप से एक दूसरे के साथ जोडा जाता है। उसे अलग अलग कर उसके कार्य को समझना सरल होता है। ऐसे प्रत्येक पुर्जे का कार्य समझ कर पूरे यंत्र के कार्य को समझा जा सकता है। व्होल इस सैम ऑफ़ इट्स पार्ट्स (Whole is sum of its parts)
इस विचार में जड को समझने की, यंत्रों को समझने की सटीकता तो है। किन्तु चेतन को नकारने के कारण चेतन के क्षेत्र में इस का उपयोग मर्यादित रह जाता है। चेतन का निर्माण जड पंचमहाभूत, मन, बुद्धि और अहंकार तथा आत्म तत्व इन के योग से होता है। परिवर्तन तो जड में ही होता है। लेकिन वह चेतन की उपस्थिति के बिना नहीं हो सकता। इस लिये चेतन का जितना भौतिक हिस्सा है उस हिस्से के लिये साईंस को प्रमाण मानना उचित ही है। इस भौतिक हिस्से के मापन की भी मर्यादा है। जड भौतिक शरीर के साथ जब मन की या आत्म शक्ति जुड जाति है तब वह केवल जड की भौतिक शक्ति नहीं रह जाती। और प्रत्येक जीव यह जड और चेतन का योग ही होता है। इस लिये चेतन के मन, बुद्धि, अहंकार आदि विषयों में फिझिकल साईंस की कसौटीयों को प्रमाण नहीं माना जा सकता।
+
== वर्तमान तन्त्रज्ञान दृष्टि की सीमाएं - आरंभिक चिंतन  ==
 +
हम भारतीय दृष्टि का अध्ययन करने के उपरान्त, वर्तमान तंत्रज्ञान दृष्टि एवं भारतीय दृष्टिकोण के बीच में गहराई से विश्लेषण करेंगे । यहाँ हम केवल कुछ बिन्दुओं पर विचार रख रहे हैं।  
   −
अनिश्चितता का प्रमेय (थियरी ऑफ अनसर्टेंटी), क्वॉटम मेकॅनिक्स, अंतराल भौतिकी (एस्ट्रो फिजीक्स), कण भौतिकी (पार्टिकल फिजीक्स) आदि साईंस की आधुनिक शाखाओं ने देकार्ते के प्रतिमान की मर्यादाएं स्पष्ट कर दीं है।
+
पश्चिमी विचार में जड को समझने की, यंत्रों को समझने की सटीकता तो है। किन्तु चेतन को नकारने के कारण चेतन के क्षेत्र में इस का उपयोग मर्यादित (लिमिटेड) रह जाता है। परिवर्तन तो जड में ही होता है। लेकिन वह चेतन की उपस्थिति के बिना नहीं हो सकता। इस लिये चेतन का जितना भौतिक हिस्सा है उस हिस्से के लिये साईंस को प्रमाण मानना उचित ही है। इस भौतिक हिस्से के मापन की भी मर्यादा है। जड भौतिक शरीर के साथ जब मन की या आत्म शक्ति जुड जाति है तब वह केवल जड की भौतिक शक्ति नहीं रह जाती। और प्रत्येक जीव यह जड और चेतन का योग ही होता है। इस लिये चेतन के मन, बुद्धि, अहंकार आदि विषयों में फिझिकल साईंस की कसौटीयों को प्रमाण नहीं माना जा सकता। अनिश्चितता का प्रमेय (थियरी ऑफ अनसर्टेंटी), क्वॉटम मेकॅनिक्स, अंतराल भौतिकी (एस्ट्रो फिजीक्स), कण भौतिकी (पार्टिकल फिजीक्स) आदि साईंस की आधुनिक शाखाओं ने देकार्ते के प्रतिमान की मर्यादाएं स्पष्ट कर दीं है।
 
  −
अपने अधिकार कोई छोडना नहीं चाहता। यह बात स्वाभाविक है। इसी के कारण आज का साईंटिस्ट प्रमाण के क्षेत्र में अपना महत्व खोना नहीं चाहता। ऐसे साईंटिस्ट साईंस की सीमाएं या मर्यादाएं नहीं जानते है। इन मर्यादाओं को नहीं समझने के बाद भी, यह साईंटिस्ट अपने अधिकार के क्षेत्र (भौतिक शास्त्र) के बाहर के विषयों में भी साईंस के आधार पर अपनी राय देते हैं ।
  −
 
  −
साईंस की कसौटी की मर्यादा समझने के उपरांत अब यह प्रश्न है कि साईंस की मर्यादा से बाहर के विषयों में किसे प्रमाण मानना चाहिए?
      
== भारतीय विद्वानों में हीनता बोध ==
 
== भारतीय विद्वानों में हीनता बोध ==

Navigation menu