पूर्वी भारत में बर्फ बनाने की प्रक्रिया

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[1]पूर्वी भारत में बर्फ तैयार करने की प्रक्रिया चर्चा का विषय है। मैं आपके समक्ष पूर्व भारत के प्रयागराज , मूतगिल तथा कोलकता में इसे तैयार करने की प्रक्रिया प्रस्तुत करना चाहता हूँ जो उत्तरी अक्षांश पर २५*/२” और २३*/२” के मध्य स्थित है। किसी दूसरे स्थान पर मैं ने कभी भी किसी भी व्यक्ति से नहीं सुना कि वहां तालाबों या कुंड़ियों में या सड़क पर एकत्रित पानी में प्राकृतिक रूप से जमी बर्फ उसने देखी हो और न ही वहाँ कभी तापमानयंत्र ने ही शून्य डिग्री दर्ज किया है। लेकिन पहले बहुत ही कम लोगोंं ने इस तरह से बर्फ जमने की खोज की लेकिन बहुत ही कम बार | इन स्थानों पर बर्फ बनाने की प्रक्रिया में सामान्य रूप से सुबह-सुबह (विशेष रूप से कुछ विशिष्ट प्रकार के मौसम के सिवाय जिसे मैं विशिष्ट रूप से बाद में निरूपित करूंगा) सूर्योदय से पूर्व प्राय: बर्फ एकत्रित की जा सकती है और यह कार्य वर्ष में करीब तीन महीने दिसंबर से फरवरी तक किया जा सकता है।

प्रयागराज में (जिस स्थान पर मैंने सैद्धांतिक रूप से इस संबंध में जाँच की) मुझसे संबंधित एक बर्फ निर्माता ने गर्मी के मौसम में उपयोग के लिए सर्दी के मौसम में पर्याप्त मात्रा में बर्फ बनाई । उसके द्वारा अपनाई गई पद्धति इस प्रकार थी । एक बड़े खुले मैदान में तीन या चार बड़े गड्ढे खोदे जाते जिनमें से प्रत्येक करीब ३० फीट चौरस तथा दो फीट गहरा होता था। इसके तल में आठ इंच या एक फूट मोटाई की गन्ने या बड़ी धार्मिक मक्का के सूखे डंठल बिछाकर गादी बनाई जाती। इस गादी पर एक दूसरे से सटे हुए मिट्टी के छोटे-छोटे कड़ाह पानी भरकर बर्फ जमने के लिए रखे जाते । ये अकाचित तथा मुश्किल से एक चौथाई इंच मोटे तथा डेढ़ इंच गहरे होते थे तथा मिट्टी से इस तरह से संरंध्र रूप में बनाए जाते थे कि ये देखे जा सर्के तथा कड़ाह के बाह्य भाग से इनसे पानी रिस सके। शाम के झुटपुटे में इन्हें उबाल कर ठंड़ा किये हुए साफ पानी से भरा जाता हैं। बर्फनिर्माता इन गडदो से सामान्यत: सूर्य के क्षितिज में ऊपर आने पर बर्फ को टोकरियों में भर कर निकालते हैं तथा उसे रोज किसी उच्च एवं शुष्क स्थिति में निर्मित बड़े परीक्षण केन्द्र में ले जाते है जहाँ उसे चौदह से पंद्रह फीट गहरे गड़ढे में पहले भूसा के साथ लपेट कर तथा फिर मोटे कम्बल में लपेटकर अच्छी तरह दबाकर रख दिया जाता है। वहां इसकी अपनी संघटित ठंडी से जमकर ठोस पदार्थ का आकार ले लेती है। गड़ढ़े का मुँह ऊपर से भूसा और कम्बल से तरह से बंद कर दिया जाता है कि उसमें हवा न जाए तथा उसके ऊपर छपार की छत बनाकर उसे पूरी तरह से ढक दिया जाता है। यहाँ यह दर्ज करना आवश्यक है कि बर्फ की मात्रा भौतिक रूप से मौसम पर निर्भर करती है। इसलिये कभी कभी ऐसा भी होता है कि कोई भी जमाब नहीं होता है। अन्य किस्सों में कभी कभी संभवतः आधी ही मात्रा जमेगी । मैंने प्राय: देखा है कि समग्र पानी बर्फ के खंडों के रूप में जम जाता है। मौसम जितना साफ, हल्का एवं निरशभ्र होगा तो उतना ही वह जमाव के लिए अधिक अनुकूल होगा क्योंकि कई बार हवा की दिशा बदलने पर बादल निश्चित रूप से बाधक स्थिति उत्पन्न कर देते हैं। क्योंकि मैंने प्राय: कहा है कि मानव शरीर को अनुभव होने वाली कड़ाके की सर्दी की रात में मुश्किल से ही बर्फ जमती है जबकि रात अत्यंत शांत एवं निरशभ्र होती है तथा अपेक्षाकृत कुछ गरमी भी होती है तब कड़ाह का पानी जम जाता है। मौसम के प्रभाव का भारी असर एक गड़ढ़े का पानी जमने पर पड़ता है जबकि कई बार दूसरी स्थितियों में जमाव की इसी तरह की तैयारी कोसों दूर होती है।

बर्फ तैयार करने की इस प्रक्रिया का भौतिक कारण यह बताया जा सकता है कि थर्मामीटर मौसम की गरमी को कुछ भी क्यों न बताए, कुछ भागों में जहाँ ठंड के मौसम में दिसंबर, जनवरी एवं फरवरी के महीनों में कड़ाके की सर्दी भले ही शून्य तापमान पर क्यों न पहुँच जाए, गड़ूढों में रखे बर्तन में रंध्रयुक्त मिट्टी के बर्तनों में रखा पानी इस स्थिति में जमीन की गरमी के होने के बावजूद भी जम जाएगा तथा प्रात: काल के पश्चात्‌ गर्मी पड़ने के समय तक जमा रहेगा। मेरा मानना है कि वह संभव हो सकता है लेकिन साथ ही, मैं यह भी पर्यवेक्षण करने के लिए कहूँगा क्योंकि मैंने द्वनिया के उस हिस्से में स्थित अपने निवास स्थान के पास कहीं भी कोई भी बर्फ जमी हुई नहीं देखी। मैं नहीं कह सकता कि थर्मामीटर ने रात में शून्य डिग्री सैल्सियस तक तापमान मापा था क्योंकि मैंने कभी भी आवश्यक पर्यवेक्षण नहीं किया । लेकिन उन गड़ढों में रखे गए कड़ाह के अतिरिक्त और किसी भी स्थान पर अन्य किसी भी स्थिति में पानी नहीं जमा । मौसम का संभवत: पानी के जमने में किसी हद तक योगदान उस समय हो सकता है जब उसे जमीन की गर्मी से दूरी पर रखा जाए। मैंने पहले भी स्वयं पर्यवेक्षण किया है कि गडदो में इस विधि से रखे पात्रों में बर्फ उन रातों में अधिक रूप में जमी जब मौसम स्वच्छ तथा निरभ्र रहा था तथा आधी रात के पश्चात्‌ ओस पड़ी था। कई भद्रजनों (अब इंग्लैंड में) ने इसी तरह की टिप्पणियाँ मेरे साथ इन गड़्ढ़ों में रखे बर्फ के पात्रों को देखने के पश्चात्‌ की हैं। गन्नों या धार्मिक मक्का के डंठलों की मुलायम गादी कडाहों के नीचे ठंडी हवा के लिए रास्ता देती है जो कि बर्तन के बाह्य भाग से छिद्रों के माध्यम से गर्मी की आनुपातिक मात्रा बाष्पीकृत रूप में निकल जाती है।

पात्र संरंध्र होने से उसमें अंदर ठंडी हवा जाने का अवकाश रहता है तथा उनकी स्थिति मैदानी भागों में जमीन के अंदर कुछ फुट होने से उनमें बाहर की हवा नहीं जा पाती अत: जमे हुए खंडो को वियोजित नहीं कर पाती । इस जमाव की पद्धति के लिए पानी को उबालकर ठंडा करके भरने की पूर्व तैयारी इसे एक आवश्यक महत्त्वपूर्ण स्थिति प्रदान करती है लेकिन दार्शनिक तार्किकता के साथ यह कितना सुसंगत हो सकता है; इसके बारे में मुझे कुछ भी निश्चित करने की आवश्यकता नहीं है।

इस स्थिति में ऐसा लगता है कि पानी को किसी भी अन्य बाह्य पदार्थों के संपर्क से मुक्त स्थिति में रखने पर तथा हवा के लिए बृहत्‌ ऊपरी सतह देने पर तथा अंदर बाह्म हवा के संपर्क न करने देने पर पानी जम सकता है, भले ही वायुमंडल का तापमान फेरनहाइट के थर्मामीटर में हिमांक से कुछ ऊपर क्यों न दर्ज किया जा रहा हो। इस जमी हुई बर्फ की बड़ी मात्रा एक जगह एकत्रित करके तथा उसे समुचित रूप से विधिवत संरक्षित रखकर भीषण गर्मी में अन्य द्रवों के प्रशीतन के लिए उपयुक्त पद्धति से उपयोग किया जाता है। इसकी सहायता से आगे की कार्यवाही में कई शीतल पेय बनाए जाते हैं; जैसे शरबत, क्रीम या फिर द्रव जिनका शीतल पेय के रूप में प्रयोग करना हो। उन्हें जमाने के लिए शंक्वाकार चाँदी के प्यालों में पदार्थ भरकर उनके ढक्‍्कनों को अच्छी तरह से बंद कर दिया जाए तथा उन्हें बड़े पात्र में बर्फ में सॉल्टपीटर तथा सामान्य नमक को समान मात्रा में भरकर उसे घोलने के लिए उसमें थोड़ा पानी मिलाकर रखा जाए। इस संयोजन से उसमें रखे हुए प्यालों के अंदर भरे हुए पदार्थ हमारे यहाँ यूरोप में जमाई गई आइसक्रीम की भाँति जम जाते हैं। लेकिन सादा पानी इस पद्धति से जमाए जाने पर जमकर इतना सख्त हो जाता है कि उसे तोड़ने के लिए मुदूगर या चाकू की आवश्यकता होती है। बर्फ के इन खंडों पर थर्मामीटर रखने पर थर्मामीटर हिमांक से दो या तीन अंश नीचे गिरा तापमान दर्शाता है। अतः प्राकृतिक रूप से बर्फ बनने के लिये आवश्यक इतना कम तापमान नहीं होने पर बर्फ बनाई जा सकती है, एकत्रित की जा सकती है, ठंड निर्माण की जा सकती है और पारा गलनबिन्दु से नीचे जा सकता है। एशिया के लोग (जिनका मुख्य प्रयोजन वैभव की प्राप्ति है। मुझे भी बर्फ का आनन्द प्राप्त हुआ था जब धथर्मामीटर ११२० तापमान दर्शा रहा था) इससे लाभान्वित हो सकते हैं क्योंकि यहाँ सर्दी बहुत ही कम महीनों में पड़ती है तथा गर्मी का समय काफी लम्बा होता है। इस तरह से प्राप्त बर्फ को वे संरक्षित रखकर गर्मी के मौसम में तापमान बढ़ने पर उसका उपयोग करके गर्मी से राहत प्राप्त कर सकते हैं तथा इससे भारत के कुछ भागों में जहां गर्मी बहुत पड़ती है, वहाँ इससे अत्यंत लाभ प्राप्त हो सकता है; साथ ही, इसकी सहायता से अनेक अन्य आविष्कार भी किए जा सकते हैं ।

  1. लेखक : सर रॉबर्ट वार्कर, सन्‌ १७७५ में प्रकाशित, धर्मपाल की पुस्तक - १८वीं शताब्दी में भारत में विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान से उद्धृत