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# '''सन्तानों को निर्णय लेने के अवसर उपलब्ध करवाना''' - यह पहला काम है । कुटुम्बजीवन की, समाजजीवन की, राष्ट्रजीवन की अनेक घटनाओं का विश्लेषण करना, इनके कारण और परिणामों के विषय में तर्क करना, इसके हल क्या हो सकते हैं, इसकी चर्चा करना लाभदायी हो सकता है । चर्चा के समय उनके तर्कों और अवलोकनों को उचित मोड़ देना, उनके सुझावों पर साधकबाधक चर्चा करना उपयोगी होता है। अधिकांश होता यह है कि अखबारों में आने वाली अनेक घटनाओं, स्थितियों और व्यवहारों पर बिना विश्लेषण किये, उनके घटने की प्रक्रियाओं का बिना विचार किये सीधी आलोचनात्मक टिप्पणी की जाती है या अभिप्राय बनाया जाता है । इसका तो कोई फल नहीं होता ।
 
# '''सन्तानों को निर्णय लेने के अवसर उपलब्ध करवाना''' - यह पहला काम है । कुटुम्बजीवन की, समाजजीवन की, राष्ट्रजीवन की अनेक घटनाओं का विश्लेषण करना, इनके कारण और परिणामों के विषय में तर्क करना, इसके हल क्या हो सकते हैं, इसकी चर्चा करना लाभदायी हो सकता है । चर्चा के समय उनके तर्कों और अवलोकनों को उचित मोड़ देना, उनके सुझावों पर साधकबाधक चर्चा करना उपयोगी होता है। अधिकांश होता यह है कि अखबारों में आने वाली अनेक घटनाओं, स्थितियों और व्यवहारों पर बिना विश्लेषण किये, उनके घटने की प्रक्रियाओं का बिना विचार किये सीधी आलोचनात्मक टिप्पणी की जाती है या अभिप्राय बनाया जाता है । इसका तो कोई फल नहीं होता ।
 
# '''विवेक जाग्रत करने के लिये घटनाओं की प्रक्रियाओं पर ध्यान देना''' अधिक आवश्यक है । उदाहरण के लिये समाज में अब बलात्कार क्यों बढ़ गये हैं अथवा आर्थिक भ्रष्टाचार क्‍यों होता है अथवा लड़कियाँ लड़कों का वेश क्यों पहनती हैं अथवा विद्यार्थी परीक्षा में नकल क्यों करते हैं आदि प्रश्नों की खुली चर्चा अच्छे वातावरण में होनी चाहिये । चर्चा करने के लिये समय, धैर्य, सद्भावना और बुद्धि की आवश्यकता होती है । इनकी सीमा आ जाय इतनी लम्बी चर्चायें नहीं चलनी चाहिये । विवेक जाग्रत करने के लिये निर्णय लेने की प्रक्रिया में उन्हें सहभागी बनाना चाहिये । अपना निर्णय मान्य किया जाता है यह देखकर उसके साथ जिम्मेदारी की भावना भी आती है । परन्तु ये निर्णय स्वनिरपेक्ष होने चाहिये । उदाहरण के लिये “तुम बताओ आज क्या खाना बनेगा' अथवा “तुम बताओ घर में कैसा डाइनिंग टेबल लायेंगे' और वे कुछ भी उत्तर दे देंगे यह ठीक नहीं है । इसमें न निर्णय में कोई तुक है न जिम्मेदारी है । डाइनिंग टेबल की उपयोगिता, सुविधा, गुणवत्ता, हमारा बजट, बाजार की स्थिति आदि का विचार करना, बाजार में जाना, उसे परखना, पसन्द करना, उसे घर ले आना, यथास्थान जमाना - यहाँ तक के सारे काम किये तो वह समझदारी है । इस प्रकार से लिये गये निर्णय की जब अन्य समझदार लोग सराहना करते हैं तभी निर्णय करने वाले के विवेक की परीक्षा होती है और उसमें यश मिलता है ।
 
# '''विवेक जाग्रत करने के लिये घटनाओं की प्रक्रियाओं पर ध्यान देना''' अधिक आवश्यक है । उदाहरण के लिये समाज में अब बलात्कार क्यों बढ़ गये हैं अथवा आर्थिक भ्रष्टाचार क्‍यों होता है अथवा लड़कियाँ लड़कों का वेश क्यों पहनती हैं अथवा विद्यार्थी परीक्षा में नकल क्यों करते हैं आदि प्रश्नों की खुली चर्चा अच्छे वातावरण में होनी चाहिये । चर्चा करने के लिये समय, धैर्य, सद्भावना और बुद्धि की आवश्यकता होती है । इनकी सीमा आ जाय इतनी लम्बी चर्चायें नहीं चलनी चाहिये । विवेक जाग्रत करने के लिये निर्णय लेने की प्रक्रिया में उन्हें सहभागी बनाना चाहिये । अपना निर्णय मान्य किया जाता है यह देखकर उसके साथ जिम्मेदारी की भावना भी आती है । परन्तु ये निर्णय स्वनिरपेक्ष होने चाहिये । उदाहरण के लिये “तुम बताओ आज क्या खाना बनेगा' अथवा “तुम बताओ घर में कैसा डाइनिंग टेबल लायेंगे' और वे कुछ भी उत्तर दे देंगे यह ठीक नहीं है । इसमें न निर्णय में कोई तुक है न जिम्मेदारी है । डाइनिंग टेबल की उपयोगिता, सुविधा, गुणवत्ता, हमारा बजट, बाजार की स्थिति आदि का विचार करना, बाजार में जाना, उसे परखना, पसन्द करना, उसे घर ले आना, यथास्थान जमाना - यहाँ तक के सारे काम किये तो वह समझदारी है । इस प्रकार से लिये गये निर्णय की जब अन्य समझदार लोग सराहना करते हैं तभी निर्णय करने वाले के विवेक की परीक्षा होती है और उसमें यश मिलता है ।
# '''तत्काल विचार करना और उसके आधार पर व्यवहार करना इनका स्वभाव होता है''' । इन्हें पाँच या दस वर्ष की अवधि का एक साथ विचार करना, उसके आधार पर योजना करना, योजना को सफल बनाने हेतु रणनीति तैयार करना आदि व्यावहारिक बुद्धि जिसमें कसी जाय ऐसे कामों में लगाना चाहिये । यह उनका अच्छा प्रशिक्षण है । उदाहरण के लिये हमें घर के लिये चौपहिया गाड़ी खरीद करनी है परन्तु बैंक से ऋण नहीं लेना है तो कया उपाय हो सकते हैं यह प्रश्न हो सकता है । घर में पचीस लोगों की भोजन की व्यवस्था करनी है वह उत्तम पद्धति से कैसे की जाय यह प्रश्न है या आज की बाजार की स्थिति देखते हुए अथर्जिन के लिये कौन सा करिअर बेहतर होगा यह प्रश्न भी हो सकता है । देखा यह जाता है कि ऐसा कम अधिक गम्भीर प्रश्नों पर तरुण विचार ही नहीं करते, मन में आता है वैसा निर्णय करते हैं और उनकी स्वतन्त्रता की दुहाई देकर बड़े उसे मान्य करते हैं । उसके विपरीत परिणाम देखने के बाद भी खास विचार होता है ऐसा भी नहीं है ।
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# '''तत्काल विचार करना और उसके आधार पर व्यवहार करना इनका स्वभाव होता है''' । इन्हें पाँच या दस वर्ष की अवधि का एक साथ विचार करना, उसके आधार पर योजना करना, योजना को सफल बनाने हेतु रणनीति तैयार करना आदि व्यावहारिक बुद्धि जिसमें कसी जाय ऐसे कामों में लगाना चाहिये । यह उनका अच्छा प्रशिक्षण है । उदाहरण के लिये हमें घर के लिये चौपहिया गाड़ी खरीद करनी है परन्तु बैंक से ऋण नहीं लेना है तो कया उपाय हो सकते हैं यह प्रश्न हो सकता है । घर में पचीस लोगों की भोजन की व्यवस्था करनी है वह उत्तम पद्धति से कैसे की जाय यह प्रश्न है या आज की बाजार की स्थिति देखते हुए अर्थार्जन के लिये कौन सा करिअर बेहतर होगा यह प्रश्न भी हो सकता है । देखा यह जाता है कि ऐसा कम अधिक गम्भीर प्रश्नों पर तरुण विचार ही नहीं करते, मन में आता है वैसा निर्णय करते हैं और उनकी स्वतन्त्रता की दुहाई देकर बड़े उसे मान्य करते हैं । उसके विपरीत परिणाम देखने के बाद भी खास विचार होता है ऐसा भी नहीं है ।
 
# तरुण और युवा कितने भी बड़े हो गये हैं, स्वतन्त्रता की चाह रखने वाले हो तो भी बड़े बड़े हैं इस बात का दोनों को स्मरण रखना आवश्यक है । मित्र होते हुए भी बड़ों ने बड़ों जैसा और छोटों ने छोटों जैसा व्यवहार करना चाहिये । तरुणाई प्रदर्शित करने वाली सभी बातों में - खानपान, वेशभूषा, मनोरंजन, अध्ययन, सूझबूझ आदि - बड़ों का बड़प्पन दिखना ही चाहिये, मित्र जैसा व्यवहार करने के लिये प्रौढ़ों ने तरुण बनने की आवश्यकता नहीं होती । माता-पुत्री या पिता-पुत्र में अनेक बातों में बराबरी या स्पर्धा नहीं होनी चाहिये । घर का बजट बनाना, खर्च की प्राथमिकतायें तय करना, काम का आयोजन करना, काम को जिद के साथ पूर्ण करना आदि जिम्मेदारियाँ इन्हें सौंपी जा सकती हैं ।
 
# तरुण और युवा कितने भी बड़े हो गये हैं, स्वतन्त्रता की चाह रखने वाले हो तो भी बड़े बड़े हैं इस बात का दोनों को स्मरण रखना आवश्यक है । मित्र होते हुए भी बड़ों ने बड़ों जैसा और छोटों ने छोटों जैसा व्यवहार करना चाहिये । तरुणाई प्रदर्शित करने वाली सभी बातों में - खानपान, वेशभूषा, मनोरंजन, अध्ययन, सूझबूझ आदि - बड़ों का बड़प्पन दिखना ही चाहिये, मित्र जैसा व्यवहार करने के लिये प्रौढ़ों ने तरुण बनने की आवश्यकता नहीं होती । माता-पुत्री या पिता-पुत्र में अनेक बातों में बराबरी या स्पर्धा नहीं होनी चाहिये । घर का बजट बनाना, खर्च की प्राथमिकतायें तय करना, काम का आयोजन करना, काम को जिद के साथ पूर्ण करना आदि जिम्मेदारियाँ इन्हें सौंपी जा सकती हैं ।
  

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