पुण्यभूमि भारत - द्वादश ज्योतिर्लिंग

From Dharmawiki
Revision as of 17:05, 26 March 2021 by Adiagr (talk | contribs) (नया लेख बनाया)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

द्वादश ज्योतिर्लिंग

अनादि काल सेभारत एक इकाई के रूप में विकसित हुआ है। यहाँ विकसित सभी मत-सम्प्रदायों के तीर्थ-स्थान सम्पूर्ण देश में फैले हैं।शैव मत केअनुयायियों के लिए पूज्य १२ शिव-मन्दिरों के शिवलिंगों कोद्वादश ज्योतिर्लिग नाम से अभिहित किया गया है। ये सम्पूर्ण देश में फैले होने के कारण राष्ट्र की एकात्मता के भी प्रतीक हैं। शिव पुराण में वर्णन आया है कि आशुतोष भगवान् शांकरप्राणियों के कल्याण के लिए तीर्थों में वास करते हैं। जिस-जिस पुण्य क्षेत्र में भक्तजनों ने उनकी अर्चना की, उसी क्षेत्र में वे आविभूत हुए तथा ज्योतिर्लिग के रूप में स्थित हो गये। उनमें से सर्वप्रमुख 12 की गणना द्वादश ज्योतिर्लिगों के रूप में की जाती है, जो निम्नलिखित हैं :

सौराष्ट्र सोमनाथ च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।

उज्जयेिन्यां महाकालामोडकारं परमेश्वरम् ।

केदारं हिमवत्पृष्ठे डाकिन्याँ भीमशंकरम्।

वाराणस्याँच विश्वेश त्रयम्बक गोतमी तटे।

वैद्यनाथ चिताभूमो नागेश दारुका बने।

सेतुबन्धे च रामेश घुश्मेशां च शिवालये।

द्वादशैतानि नामांनि प्रातरुत्थाय य: पठेत्।

सप्तजन्म कृर्त पाप स्मरणेन विनश्यति।

सोमनाथ

सौराष्ट्र (काठियावाड़) प्रदेश में स्थित सोमनाथ द्वादश ज्योतिर्लिगों में प्रथम है। दक्ष प्रजापति के शाप सेमुक्ति के लिए चन्द्रमा ने यहाँ तप किया मत्र्यलोके महाकाल लिंगत्रयं नमोस्तुते। तथा शापमुक्त हो गये। भगवान् श्री कृष्ण केचरणोंमें यहीं परजरा नामक व्याध का बाण लगा। इस प्रकार यह स्थान उनकी अन्तिम लीलास्थली रहा है। ऋग्वेद, स्कन्द पुराण, श्रीमद्भागवत, शिव पुराण, महाभारत आदि ग्रन्थों में प्रभास क्षेत्र की महिमा का विस्तार से वर्णन किया गया हैं। अति प्राचीन काल से यह स्थान पूजित रहा है। ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि यहाँ ६४९ ईसा-पूर्व भव्य मन्दिर था जो विदेशी समुद्री डाकुओं के अत्याचार का शिकार हुआ। ईसवी सन् ४०६ में सोमनाथ देवस्थानम् फिरअस्तित्व में था, इसके प्रमाण हैं। सन् ४८७ के आसपास शैवभक्त वल्लभीशासकों ने इसका पुनर्निर्माण कराया।एक शिलालेख के अनुसार मालवा के राजा भोजराज परमार ने भी इसका निर्माण कराया। मुसलमान इतिहासकारों नेइसके वैभव का वर्णन किया है।इब्न असीर ने इसके रख रखाव तथा पूजन-अर्चन के विषय में लिखा है : "१० हजार गाँवों के जागीर मन्दिर के लिए निर्धारित है। मूर्ति के अभिषेक के लिए गांग-जल आता है। १००० पुजारी पूजा करते हैं। मुख्य मन्दिर ५६रत्नजटित खंभो परआधारित है।" यहाँ पर चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण, पूर्णिमा (श्रावण मास की) तथा शिवरात्रि के अवसरों पर बृहत् मेलों का आयोजन किया जाता था, जिनमें पूरे देश से भक्तजन व व्यापारी आते थे। अरब, ईरान से भी व्यापारी यहाँ पर आते थे। सन् १०२५ में महमूद गजनवी की गिद्ध दृष्टि मन्दिर की सम्पत्ति पर पड़ी और उसने इसकी पवित्रता नष्ट कर अकूत सम्पत्ति लूटी। परन्तु गुजरात के महाराजा भीम ने इसका पुनर्निर्माण करा दिया। सन ११६९ में राजा कुमारपाल ने यहाँ एक मन्दिर बनवाया। सिद्धराज जयसिंह ने भी मन्दिर कीपुन:प्रतिष्ठा में सहायता की। परन्तु मुसलमान आक्रमणकारियों के अत्याचार बन्द नहीं हुए। सन् १२९७ में अलाउद्दीन खिलजी ने, सन १३९० में मुजफ्फरशाह प्रथम ने, १४९० में मोहम्मद बेगड़ा ने, सन् १५३० में मुजफ्फरशाह द्वितीय ने तथा सन् १७०१ में औरंगजेब ने इस मन्दिर का विध्वंस किया। सन् १७८३ ई. में महारानी अहिल्याबाई ने भी यहाँ एक मन्दिर बनवाया। इस प्रकार दासता के कालखण्ड में यह अनेक बार टूटा और हर बारइसका पुनर्निर्माण कराया गया।अन्त में भारत के स्वतन्त्र हो जाने पर लौह पुरुष सरदार पटेल की पहल पर मूल ब्रह्मशिला परभव्य डा. राजेन्द्र प्रसाद ने मन्दिर में ज्योतिर्लिग स्थापित कर उसकी प्राण-प्रतिष्ठा करायी।इस प्रकार सोमनाथ मन्दिर फिर अपने प्राचीन गौरव के अनुकूल प्रतिष्ठित हो गया।

मल्लिकार्जुन

मल्लिकार्जुन नामक ज्योतिर्लिग श्रीशैल पर्वत पर स्थित है। श्रीशैल आन्ध्र प्रदेश में कर्नूल जिले के अन्तर्गत पवित्र कृष्णा नदी के तटपर है। इसे दक्षिण का कैलास भी कहा जाता है। कृष्णा नदी की जिस शाखा पर यह तीर्थ स्थित हैं उसे पातालगंगा नाम दिया गया है। श्रीशैल पर भगवान शंकर पार्वती के साथ सदैव विराजमान रहते हैं. यह मान्यता हैं। यहाँ पार्वती को मल्लिका तथा शिव को अर्जुन नाम दिया गया है। पौराणिक कथा के अनुसारअपने रुष्टपुत्र स्वामी कार्तिकेय को मनाने के लिए शिव-शक्ति यहाँ पधारे और ज्योतिर्लिग के रूप में विराजमान हो गये ।एक स्थानीय कथा के अनुसार एक राजकन्या अपने पिता के दुर्व्यवहार से बचने के लिए श्रीशैल पर्वत पर गोप-ग्वालों के मध्य रहने लगी। ग्वालों की एक शयामा गाय थी जो खूब दूध देती थी। कुछ दिन उस गाय ने दूध देना बन्द कर दिया । जाँच करने पर पता चला कि गाय स्वेच्छा से शिखर पर स्थित शिवलिंग पर अपना दूध चढ़ा देती है। तब वहाँ एक मन्दिर का निर्माण कराया गया और शिवलिंग मल्लिकार्जुन के नाम से जगतप्रसिद्ध हुआ। यहाँ पर स्थित एक शिलालेख के अनुसार स्वयं शिव एक आखेटक के रूप में पधारे तथा यहाँ के शान्त और मनोरम वातावरण के कारण यहीं विराजित हो गये । इस मन्दिर को पुरातत्वेत्ता डेढ़ से दो हजार वर्ष पुराना मानते हैं। शिवरात्रि के अवसर पर यहाँ विशाल मेला लगता है। मन्दिर की पश्चिमी दिशा में जगदम्बा का मन्दिर हैं। यहाँ पर पार्वती को माधवी या भ्रमराम्बा के नाम से पुकारा जाता है।भ्रमराम्बा ५१ शक्तिपीठों में से एक है। नवरात्र में यहाँ मेला लगता है। यहाँ पर सती की ग्रीवा का पतन हुआ था। महाभारत के वन पर्व, शिव पुराण तथा पद्म पुराण में इस क्षेत्र के मन्दिर का निर्माण कराया गया। ११ मई १९५१ को भारत के प्रथम राष्ट्रपति महात्म्य का वर्णन किया गया है।

महाकालेश्वर

महाकालेश्वर ज्योतिलिंग क्षिप्रा नदी के तट पर स्थित उज्जयिनी (अवन्तिक) नगरी में है। उज्जयिनी भारत की सप्तपुरियों में से एक है। सप्तपुरी प्रकरण में इसका वर्णन है।

ओम्कारेश्वर

ओम्कारेश्वर मध्यभारत का प्रमुख पावन तीर्थ स्थल है।भारत के तीर्थ स्थानों की परम्परा मेंइसका अति महत्वपूर्ण स्थान है। नर्मदा(रेव) नदी के पवित्र तट पर स्थित ओम्कारेश्वर मन्दिर शिवभक्तों को अतिप्रिय हैं। नर्मदा नदी यहाँ कई शाखाओं में बंट कर बहती है। जिससे नदी के मध्य एक द्वीप बन जाता है। इसे मान्धाता द्वीप या शिवपुरी कहा जाता है। यह ज्योतिर्लिग दो स्थानों पर ओम्कारेश्वर तथा अमरेश्वर के रूप में स्थित है इक्ष्वाकु वंशीय राजा मान्धाता ने यहाँ भगवान् शिव की पूजा की थी। तपस्या से प्रसन्न शिव ने यहीं लिंग रूप में रहने का आश्वासन दिया। ओम्कारेश्वर अनगढ़ प्रतिमा है जिसके चारों ओर जल भरा रहता है। शिव-विग्रह के पास में ही पार्वती की, और मन्दिर के परकोटे में पंचमुखी गणेश जी की प्रतिमा है। प्रतापी पेशवाओं ने इसका जीणोद्धार कराया।अमरेश्वर तीर्थ भी इसी से सम्बन्धित है। यहाँ पर रानी अहिल्याबाई का बनवाया हुआ मन्दिर हैं ।

ओम्कारेश्वर / अमरेश्वर के सम्बन्ध में पौराणिक उल्लेख इस प्रकार है:

विंध्याचल पर्वत ने ऑकारेश्वर की पूजा की। पूजा से शिव प्रसन्न हुए, तब विन्धय ने पार्थिव तथा यत्र रूप में शिव को वहीं विराजित रहने की प्रार्थना की। तभी यह ज्योतिर्लिग दो स्थानों पर अवस्थित हो गया । कार्तिक मास की पूर्णिमा व महाशिवरात्रि पर यहाँ विशाल मेला लगता हैं।भक्त सच्चे मन से पूजा कर अपनी मनोकामना पूर्ण करते हैं।

केदारनाथ

हिमालय के सुरम्यक्षेत्र में केदारपर्वत पर केदारेश्वर अथवा केदारनाथ ज्योतिर्लिग विराजमान है। सत्ययुग में उपमन्यु ने यहाँ भगवान् शिव की आराधना कीथी।द्वापरमें पाण्डवों ने भी यहाँ तपस्या की थी। शिव पुराण के अनुसार नर-नारायण ने इस क्षेत्र में भगवान् शिव की आराधना की। उससे प्रसन्न हो शिव ने वर माँगने को कहा तो उन्होंने शिव से लोक-कल्याण के लिए वहीं प्रतिष्ठित होने की प्रार्थना की, फलस्वरूप देवाधि-देव केदार तीर्थ में ज्योतिर्लिग के रूप में स्थित हो गये । स्कन्द पुराण मेंभी केदार क्षेत्र का उल्लेख आया है। महाभारत के वनपर्व में इस क्षेत्र का वर्णन आया है। इसक्षेत्र में स्नान-दान सेअक्षयपुण्य प्राप्त होता है।भारवि व कालिदास ने इस क्षेत्र कीप्राकृतिक सुषमा तथा आध्यात्मिक शान्ति का मार्मिक चित्रण किया है। यहीं अर्जुन ने दिव्यास्त्रों कीप्राप्ति के लिए तपस्या की। तब उसकी परीक्षा के लिए किरात रूप में शांकर ने युद्ध किया और प्रसन्न होकर पाशुपत अस्त्र प्रदान किया। केदार क्षेत्र सिद्धों यक्षों तथा साधुओं का निवास है। भगवान् शिव यहाँ योग मुद्रा में विराजमान हैं।

केदारनाथ समुद्रतल से ६९४० मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ सदैव हिम जमा रहता है। ग्रीष्म ऋतु में हिम पिघलने परमन्दिर के कपाट कुछ दिनों के लिए खुलते हैं, तभी केदारेश्वर के दर्शन होते हैं। केदारनाथ के पास से मन्दाकिनी नदी निकलती हैं। यह नदी रुद्र प्रयाग में अलकनन्दा में मिल जाती है जो आगे चलकर भागीरथी से मिलकर पतित पावनी गंगा का रूप लेती है।पास में ही गौरीकुण्ड हैजहाँ भगवती पार्वती ने स्नान किया था। भगवान् शिव औरपार्वती के विवाह के साक्षी रूप प्रज्वलित अग्नि अग्निकुण्ड के रूप में आज भी विद्यमान है। हरिद्वार में कुंभ और अर्द्धकुंभ के अवसरपर केदारनाथ की यात्रा का विशेष महात्म्य है।

भीमाशंकर

देवाधिदेव भगवान् शंकर के प्रमुखतम ज्योतिर्लिगों में एक भीमशंकर है। इसकी स्थिति कई स्थानों पर मानी गयी है। शिवपुराण में कोटिरुद्रसंहिता अध्याय 20 के अनुसार भीम-शंकर मन्दिर कामरूप(असम) प्रदेश मेंगोहाटी के निकटब्रह्मापुर पर्वत पर स्थित है। स्थानीय राजा शिव के अनन्य उपासक थे। एक बार भीमक नामक राक्षस ने उसके राज्य में भयंकर उत्पात मचाया। उस राक्षस ने पूजा में रात शिवभक्तों को मारने के लिए ज्योंही तलवार से वार करना चाहा, भगवान् शांकर ने स्वयं प्रकट होकर राक्षस का वध कर डाला। तब से राजा की प्रार्थना परभगवान् ज्योतिर्लिग के रूप में ब्रह्मपुत्र पर्वत पर विराजमान् हो गये। शिवपुराण के इसी अध्याय मेंआये वर्णन के अनुसारभगवान् यहाँ अवतीर्ण हुए तथा उनका मूल निवास सहयाद्रि है। भीमा नदी के तटपर सहयाद्रि पर्वतमाला में यह भव्य किन्तु प्राचीन मन्दिर है। जहाँ पर यह मन्दिर है उसे डाकिनी शिखर भी कहते हैं। यहाँ नाना फडनवीस का बनवाया हुआ एक नया तथा भव्य मन्दिरभी है।पुराण-कथा के अनुसार त्रिपुरासुर को मारने के बाद भगवान् शांकरइस स्थान पर विश्राम करने के लिए रुक गये। स्थानीय राजा भीमक की प्रार्थना पर भगवान् शिव लोककल्याण हेतु यहीं पर अवस्थित हो गये। कुछ लोग भीम शांकर की स्थिति उत्तर प्रदेश के नैनीताल जिलों में काशीपुर के पास मानते हैं। यहाँ उज्जनक नामक गाँव में भीमशंकर महादेव का भव्य व विशाल मन्दिर है। शिवपुराण में डाकिनी में भी शांकर की स्थिति बतायी है। स्थानीय जनता के अनुसार यहाँ का पुराना नाम डाकिनी था। सभी स्थानों पर विशेष पर्व पर मेले लगते हैंऔर दूर-दूर से भक्तजन आते हैं।

विश्वनाथ

विश्वनाथ ज्योतिर्लिग काशी में विराजमान है। यह अति प्राचीन तीर्थ स्थान है। भगवान् शिव को काशी सर्वाधिक प्रिय है। धार्मिक व ऐतिहासिक सांस्कृतिक महत्व की काशी नगरी का वर्णन व महात्म्य अनेक ग्रन्थों में किया गया है। यह मोक्षप्रदायिनी सप्तपुरियों में प्रमुख है। इसका विस्तृत वर्णन सप्तपुरी प्रकरण में किया जा चुका है।

त्रयम्बकेश्वर

दक्षिण-गंगा, पुण्यसलिला गोदावरी के तट पर प्रसिद्ध त्रयम्बकेश्वर महादेव के रूप में ज्योतिर्लिग विराजमान है। पास में ही थोड़ी दूर पर ब्रह्मगिरि पर्वत से गोदावरी निकलती है। नासिक त्रयम्बकेश्वर से लगभग १० कि. मी. दूरी पर स्थित है। ब्रह्मगिरि पर्वत पर सिद्ध ऋषि गौतम तपस्यारत थे। उनकी तपस्या के फलस्वरूप गोदावरी अवतरित हुई तथा सारा क्षेत्रधन-धान्य से भरपूर हो गया। गोदावरी का दूसरा नाम गौतमी भी है। गौतमी और ऋषि की प्रार्थना पर भगवान् शिव ने पुण्यतोया गोदावरी के तट पर सदैव वास करने की कृपा की और त्रयम्बकेश्वर के नाम से पूजित हुए। त्रयम्बकेश्वर इहलोक में सभी इच्छाओं को पूर्ण करनेवाले तथा मोक्षप्रदाता हैं। कुंभ-स्नान के समय सभी तीर्थ गोदावरी तट पर आकर विराजमान हो जाते हैं। मुख्य मन्दिर में तीन छोटे विग्रह

हैं जो ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के प्रतीक हैं।थोड़ी दूरी पर कुशावर्त सरोवर है। तीर्थयात्री इस सरोवर की परिक्रमा करते हैं। पास में गंगा मन्दिर तथा परशुराम, गायत्री आदि के मन्दिर हैं। ब्रह्मगिरेि पर पहुँचने के लिए ७०० सीढ़ियाँ पार करनी पड़ती हैं। इनके दूसरी ओर राम व लक्ष्मण कुण्ड विद्यमान हैं।

वैद्यनाथ

“वैद्यनाथ चिता भूमौ" के अनुसार जसी डीह के देवधन में वैद्यनाथ ज्योतिर्लिग के रूप में शिव सनातन समय से विराजमान हैं। "परल्याँ वैद्यनाथ च" के अनुसार पूर्व-रियासत हैदराबाद के परली गाँव के शिवमन्दिर को इस ज्योतिलिंग का स्थान होने का श्रेय प्राप्त है। शिवपुराण तथा बृहद्धर्म केअनुसार बंगाल के जिला सन्थाल परगना के अन्तर्गत स्थितवैद्यनाथ चिताभूमि में होने के कारण वास्तविक ज्योतिलिंग है। त्रेतायुग में लंकेश रावण ने शिवजी को प्रसन्न करने के लिए कलास पर्वत पर कठोरतपस्या की। उसकी तपस्या से प्रसन्न शिव ने इस शर्त पर कैलास -स्थित विग्रह को लंका ले जाने की अनुमति दी कि वह मार्ग में विग्रह को भूमि पर नहीं रखेगा। रावण उसे लेकर चला तो चिताभू मे आने पर उसे लघुशका अनुभव हुईऔर पास में खड़े एक गोप को वह विग्रह थमाकर लघुशंका से निवृत्त होने चला गया। परन्तु गोप उसका भार संभाल न सका तथा उसने उसे भूमि पर रख दिया। वापस आने पर रावण के लाख प्रयन्त करने परभी जब शिवलिंग टस से मस न हुआ तो उसे वहींछोड़कर वह लंका चला गया। तब सभी देवों ने विधिवत शिविलिंग को वहीं पूजा कर प्रस्थापित कर दिया। यही वैद्यनाथ ज्योतिर्लिग के रूप में प्रसिद्ध हो गया। यह मनोकामना पूर्ण करने वाला तीर्थ है। दूर-दूर से तीर्थयात्री पवित्र नदी-सरोवरों का जल लाकर यहाँ चढ़ाते हैं। इसी स्थल ;पर सती का हुदय गिरा था, अत: शक्तिपीठ के रूप में भी इसकी मान्यता है।भगवती शक्ति का मन्दिर भी यहाँ बना हुआ है। परली-स्थित ज्योतिर्लिग परभनी के पास एक पर्वत-शिखर पर बने मन्दिर में विराजमान है।इसके पास से एक छोटी नदी बहती हैऔरछोटा सा शिवकुण्ड नामक सरोवर भी है।

वैद्यनाथ ज्योतिर्लिग तीर्थक्षेत्र में कार्तिक, माघ और फाल्गुन की पूर्णिमा व चतुर्दशी को मेला लगता है।

नागेश्वर

नागेश्वर ज्योतिर्लिग तीन स्थानों पर अवस्थित माना गया है।शिवपुराण के वर्णन के अनुसारद्वारिका के पास स्थित नागेश्वर की ज्योतिर्लिग के रूप में पुष्टि दृढ़ होती है।इस ज्योतिलिंग की स्थापना की कथा एक शिवभक्त सुप्रिय व्यापारी से सम्बन्धित है। एक राक्षस ने सुप्रिय को उसके अनुचरों सहित बन्दी बना लिया। दारुक नामक उस राक्षस ने उन सबकी हत्या करने की ठानी, परन्तु भगवत्-कृपा से सुप्रिय को एक दिव्यास्त्र प्राप्त हो गया जिससे उसने उस राक्षस का वध कर डाला और शिवधाम को प्राप्त हुआ। दूसरा स्थान जो नागेश्वर ज्योतिर्लिग से सम्बन्धित है, महाराष्ट्र में औण्ढा नागनाथ ग्राम है। गुछ लोगों के मतानुसार उत्तर प्रदेश प्रान्त के अल्मोड़ा से २८ कि. मी. उत्तर में स्थित जागेश्वर शिवलिंग नागेश्वर है। इसके आसपास कई मन्दिर व रमणीक स्थल हैं। आसपास ही वेणीनाग, धौले, कालिया जैसे नागों के स्थल होने के कारण भी यह स्थान नागेश्वर कहलाता है।

रामेश्वरम

यह ज्योतिर्लिग भगवान् श्रीरामद्वारा स्थापित है,इस कारण ही इसका नाम रामेश्वर हुआ। भारत के चारों कोनों में स्थित चार धामों में से रामेश्वरम् एक है।चारोंधामों का वर्णन करते समय इसका विस्तृत विवरण पहले प्रस्तुत किया जा चुका है।

घुश्मेश्वर

द्वादश ज्योतिलिंग में अन्तिम घुश्मेश्वर है। घुश्मेश्वर या घुसुणेश्वर नाम से भी इसका वर्णन किया जाता है । घुश्मेश्वर मंदिर दौलताबाद (देवगिरि) के पास स्थित वेरूल गाँव में है। यह प्रसिद्ध गुफा-मन्दिर एलोरा से मात्र एक-डेढ़ किमी.पर है। कुछ महानुभाव एलोरा के कैलास मन्दिर को ही घुश्मेश्वर मानते हैं। घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिग की स्थापना पतिपरायणा तथा शिवभक्ति घुश्मा की तपस्या तथा निष्काम भावना के कारण हुई। घुश्मा का अतीव सुन्दर बालक उसकी सौत सुदेहा के षड्यंत्र का शिकार हुआ। सुदेहा ने बालक के शव को एक सरोवर में फेंकवा दिया। घुश्मा सदैव की भांति शिवपूजा में व्यस्त रही तथा पूजा-समाप्ति पर जब पार्थिव लिंग विसर्जित कर लौटने लगी तो उसका पुत्र जीवित होकर उसके चरणों में आ गिरा। परन्तु घुश्मा इस सब को प्रभुलीला मानकर आनन्दमग्न हो गयी। तब शिव स्वयं प्रकट हो गये। घुश्मा ने सुदेहा को क्षमा करने की प्रार्थना की, साथ ही लोक-कल्याण हेतु शिव से वहीं विराजित रहने का वर माँगा। भगवान् शांकर एवमस्तु कहकर वहीं वास करने लगे। उसी स्थान पर मन्दिर बना। महारानी अहिल्याबाई ने यहाँ अति सुन्दर मन्दिर का निर्माण कराया। मन्दिर के पास शिवालय नामक पवित्र सरोवर हैं। पास में ही सहसलिंग, पातालेश्वर व सूर्यश्वर के मन्दिर है। शिवपुराण में घुश्मेश्वर की महिमा का वर्णन इस प्रकार है:

"ईदुशां चैव लिंग च दूष्ट्रवा पापै: प्रमुच्यते।

सुख संवर्धते पुसां शुक्ल पक्षे यथा शशी।"

घुश्मेश्वर मन्दिर पर श्रावण पूर्णिमा तथा महाशिवरात्रि के अवसर पर मेला लगता है। दूर-दूर से भक्त यहाँआते और धर्मलाभ प्राप्त करते हैं।