पुण्यभूमि भारत - चार धाम

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चार धाम

भारत वर्ष अनादि काल से एक इकाई के रूप में विद्यमान रहा है। भारत की एकात्मता चारों दिशाओं में स्थित चार धामों के द्वारा और अधिक पुष्ट हुई है। जातिबन्धन से मुक्त होकर पूजा-अर्चना के लिए इनकी यात्रा का विधान है । देश के सभी प्रान्तों के निवासी इनकी यात्रा कर स्वयं को धन्य मानते है ।

बद्री नाथ

बद्रीनाथ धाम भारत का सबसे प्राचीन तीर्थ क्षेत्र है। इसकी स्थापना सत्ययुग में हुई थी । सत्ययुग में नर और नारायण ने, त्रेता में भगवान दत्तात्रेय ने, द्वापर में वेद-व्यास और कलियुग में शंकराचार्य ने इस क्षेत्र की प्रतिष्ठा बढायी। बद्रीनाथ का मंदिर नारायण पर्वत की तलहटी में अलकनंदा के दायें किनारे पर स्थित है। यह स्थान माना दर्रे से ४० कि.मी. दक्षिण में है। नीति दर्रा यहाँ से कुछ दूर है। आदिशंकराचार्य ने इसके महत्व को समझकर, मंदिर में उस प्राचीन प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराई जो नारद कुण्ड में गिरकर खो गई थी। चंद्रवंशी गढ़वाल-नरेश ने विशाल मंदिर का निर्माण करवाया। महारानी अहिल्याबाई ने मंदिर पर सोने का शिखर चढ़वाया जो आज भी अपनी चमक बनाये हुए है। मन्दिर के समीप पांच तीर्थ ऋषि गंगा, कुर्मधारा, प्रहलाद धरा, तप्त कुण्ड और नारद कुण्ड स्थापित है। बद्रीनाथ धाम में मार्कण्डेय शिला, नृसिंह शिला, गरुड़ शिला नाम से पवित्र शिलाएँ स्थापित है। बद्रीनाथ से थोडा उत्तर में अलकनंदा के तट पर ब्रह्मपाल नामक पुण्यक्षेत्र है। यहाँ पर पूर्वजो का श्राद्ध करने से उन्हें अमित संतोष मिलाता है। आठ मील दूर पर वसुधारा तीर्थ है जहाँ आठ वसुओं ने अपनी मुक्ति के लिए तप किया था। सदीं के दिनों में इस मन्दिर के कपाट बन्द रहते हैं तथा गर्मी आने पर पुन: खुल जाते हैं। जोशीमठ में शीतकाल में बद्रीनाथ की चल प्रतिमा लाकर स्थापित की जाती है और यहीं पर इसकी पूजा-अर्चना की जाती हैं।

रामेश्वरम धाम

तमिलनाडु राज्य के रामनाथपुरम जिले में रामेश्वरम नामक एक विशाल द्वीप पर यह एक पवित्र स्थल स्थापित हैं। यह भारत के अत्यंत आदरणीय तीर्थस्थानों में से एक है। अति प्राचीन काल से यह मन्दिर अत्यंत पवित्र मान्यतायुक्त और सभी वर्गों के द्वारा पूजित रहा है । इसकी स्थापना श्रीराम ने की थी अतः इसका नाम रामेश्वर पड़ा । स्कन्द पुराण, रामायण, रामचरित मानस, शिव पुराण नामक ग्रंथो में रामेश्वरम की महिमा का वर्णन किया गया है ।

लंका पर चढ़ाई से पूर्व भगवान राम ने यहाँ शिव पूजन कर आशीर्वाद प्राप्त किया। इसी प्रकार रावण-वध के बाद जगतमाता सीता के साथ सत्ययुग में हुई थी। सत्ययुग में नर और नारायण ने, त्रेता में भगवान लौटने पर भी श्रीराम ने यहाँ पूजन किया तथा ब्रह्महत्या करने का दत्तात्रेय ने, द्वापर में वेद-व्यास और कलियुग में आदि शंकराचार्य ने इस क्षेत्र की प्रतिष्ठा बढ़ायी। बद्रीनाथ का मन्दिर नारायण पर्वत की तलहटी पर स्थापित किया। पवनपुत्र हनुमान द्वारा कैलाश से लाया गया शिवलिंग भी पास में ही स्थापित है। रामेश्वर के परकोटे में 22 पवित्र कुंप हैं जिनमें तीर्थयात्री स्नान कर स्वयं को धन्य मानते हैं। लंका पर चढ़ाई के लिए जो पुल बनवाया था, राम ने विभीषण की प्रार्थना पर अपने धनुष से तोड़ दिया। उसी स्थान पर धनुषकोटितीर्थ स्थापित है। अश्वत्थामा द्रौपदी-पुत्रों की हत्या का प्रायश्चित करने यहाँ आया था। रामेश्वरम् धाम के आसपास अनेक छोटे-बड़े मन्दिर हैं, जैसे लक्ष्मणेश्वर शिव, पंचमुखी हनुमान, श्रीराम-जानकी मन्दिर। महाशिवरात्रि, वैशाख पूर्णिमा, ज्येष्ठ पूर्णिमा, आषाढ़ कृष्ण अष्टमी, नवरात्र रामनवमी, वर्ष-प्रतिपदा, विजयादशमी आदि पर्वों पर यहाँ विशेष पूजा की जाती है तथा महोत्सव मनाये जाते हैं।

द्वारिका धाम

चारधाम तथा सप्तपुरियों में श्रेष्ठ द्वारिका भगवान कृष्ण को अति प्रिय रही है। आदि शंकराचार्य ने यहाँ शारदा पीठ की स्थापना की और अपने शिष्य सुरेश्वराचार्य (मण्डन मिश्र) को पीठाधीश्वर के रूप में अधिष्ठित किया। महाभारत, हरिवंश पुराण, वायुपुराण, भागवत, स्कन्दपुराण में द्वारिका का गौरव पूर्ण वर्णन है। भगवान कृष्ण ने अपना अन्तिम समय यहीं पर व्यतीत किया था। कृष्ण ने पापी कंस का वध मथुरा में किया था। उससे क्रोधित होकर मगधराज जरासंघ ने कालयवन को साथ लेकर मथुरा पर आक्रमण किया। कृष्ण ने बचाव के लिए सौराष्ट्र में समुद्र तट पर जाना उचित समझा। वहाँ उन्होंने सुदृढ़दुर्ग का निर्माण किया और द्वारिका की स्थापना की। कृष्ण के इहलोक लीला-संवरण के साथ ही द्वारिका समुद्र में डूब गयी। आज द्वारिका एक छोटा नगर अवश्य है, परन्तु अपने अन्तस्तल में गौरवपूर्ण सांस्कृतिक व ऐतिहासिक धरोहर छिपाकर रखे हुए है। यहाँ के मन्दिरों में रणछोड़राय का प्रमुख मन्दिर है। इसे द्वारिकाधीश मन्दिर भी कहते हैं। यह सात मंजिलों वाला भव्य मन्दिर है। कहते हैं रणछोड़राय की मूल मूर्ति को बोडाणा भक्त डाकोरजी ले गये। आजकल वह वहीं विराजमान है और रणछोड़राय मन्दिर में स्थापित मूर्ति लाडवा ग्राम के एक कुप से प्राप्त हुई थी। रणछोड़रायजी के मन्दिर के दक्षिण में त्रिविक्रम मन्दिर तथा उत्तर में प्रद्युम्न जी का मन्दिर है। बेट द्वारिका, सुदामा पुरी (पोरबन्दर) पास में ही स्थित है। महाप्रभु वल्लभाचार्य तथा श्री रामानुजाचार्य द्वारिका पधारे थे। स्वामी माधवाचार्य सन १२३६-४० के मध्य यहाँ आये।

जगन्नाथ पुरी

जगन्नाथ पुरी उड़ीसा में गंगासागर तट पर स्थित पावन तीर्थ स्थान है। यह शैव, वैष्णव तथा बौद्ध सम्प्रदाय के भक्तों का श्रद्धा-कन्द्र है। यह चारपावन धामों तथा 51 शक्तिपीठों में से एक है। पुराणों में पुरुषोत्तम तीर्थ नाम से इसका वर्णन किया गया है। स्कन्द व ब्रह्मपुराण के अनुसार जगन्नाथ मन्दिर गांगवंशीय राजा अनंग भीमदेव ने 12वीं शताब्दी में बनवाया। 16वीं शताब्दी में बंगाल के मुसलमान शासक हुसेनशाह तथा पठान काला पहाड़ ने पुरी के मन्दिर को क्षतिग्रस्त किया। मराठों ने जगन्नाथ मन्दिर की व्यवस्था के लिए वार्षिक 27 हजार रुपये की राशि अनुदान के रूप में स्वीकृत की। श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा की काष्ठ-मूर्तियाँ मन्दिर में प्रतिष्ठित हैं। इन मूर्तियों को रथयात्रा के अवसर पर निकाल कर रथों में स्थापित कर समुद्रतट-स्थित मौसी जी के मन्दिर में 10 दिन रखा जाता है। यात्रा में लाखों श्रद्धालु भाग लेते हैं। मूतियों की वापसी भी बड़े धूमधाम और हर्षोंल्लास के साथ सम्पन्न होती है। इस तीर्थ की विशेषता यह है कि यहाँ किसी प्रकार के जाति-भेद को कोई स्थान नहीं है। इस संबंध में एक लोकोक्ति प्रसिद्ध हो गयी है :

"जगन्नाथ का भात, जगत् पसारे हाथ, पूछे जात न पात।"

जगन्नाथपुरी में कई पवित्र स्थल स्नान के लिए महत्वपूर्ण हैं जिनमें महोदधि, रोहिणीकुण्ड, शवेत गांग, लोकनाथ सरोवर तथा चक्रतीर्थ प्रमुख हैं। गुंडीचा मन्दिर (मौसी का मन्दिर), श्री लोकनाथ मन्दिर, सिद्धि-विनायक मन्दिर यहाँ के अन्य मन्दिर हैं। जगन्नाथपुरी से 18 कि.मी. दूर साक्षी गोपाल मन्दिर है, इसके दर्शन के बिना जगन्नाथपुरी की यात्रा अधूरी मानी जाती है। आदि शंकराचार्य ने इस पवित्र स्थान की यात्रा की और गोवर्धन पीठ की स्थापना की। रामानुजाचार्य और रामानन्द ने भी इस क्षेत्र की यात्रा की। रामानन्द जी के प्रमुख शिष्य कबीर ने समता का संदेश प्रचारित किया। आज भी बड़ी संख्या कबीरपंथी पुरी में रहते हैं तथा भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा में बढ़चढ़कर भागीदारी करते हैं।

References