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मनुष्य के इस जन्म का जीवन गर्भाधान से आरम्भ होता है<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। जीवन की शुरूआत की यह कथा रोमांचक है। इस घटना को भारत की मनीषा ने इतना महत्त्वपूर्ण माना है कि इसके अनेक शास्त्रों की रचना हुई है और आचार का विस्तार से वर्णन किया गया है। सभी शास्त्रों का समन्वय करने पर हमें अधिजनन अर्थात्‌ जन्म के सम्बन्ध में शास्त्र प्राप्त होता है। योग, ज्योतिष, धर्मशासत्र, संगोपनशास्त्र आदि विभिन्न शास्त्रों का इस शास्त्र की रचना में योगदान है। इसकी स्वतन्त्र रूप से विस्तृत चर्चा करना बहुत उपयोगी सिद्ध होगा । यहाँ हम उस शास्त्र की चर्चा न करके इस जन्म का जीवन कैसे शुरू होता है और कैसे विकसित होता जाता है, इसकी ही चर्चा करेंगे ।मनुष्य के इस जन्म के जीवन और प्रारम्भ के चरण की चर्चा के कुछ बिन्दु इस प्रकार है
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मनुष्य के इस जन्म का जीवन गर्भाधान से आरम्भ होता है<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। जीवन की शुरूआत की यह कथा रोमांचक है। इस घटना को भारत की मनीषा ने इतना महत्त्वपूर्ण माना है कि इसके अनेक शास्त्रों की रचना हुई है और आचार का विस्तार से वर्णन किया गया है। सभी शास्त्रों का समन्वय करने पर हमें अधिजनन अर्थात्‌ जन्म के सम्बन्ध में शास्त्र प्राप्त होता है। योग, ज्योतिष, धर्मशासत्र, संगोपनशास्त्र आदि विभिन्न शास्त्रों का इस शास्त्र की रचना में योगदान है। इसकी स्वतन्त्र रूप से विस्तृत चर्चा करना बहुत उपयोगी सिद्ध होगा । यहाँ हम उस शास्त्र की चर्चा न करके इस जन्म का जीवन कैसे शुरू होता है और कैसे विकसित होता जाता है, इसकी ही चर्चा करेंगे ।मनुष्य के इस जन्म के जीवन और प्रारम्भ के चरण की चर्चा के कुछ बिन्दु इस प्रकार हैं:
    
== गर्भाधान ==
 
== गर्भाधान ==
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== काम करने की आवश्यकता ==
 
== काम करने की आवश्यकता ==
इस सुभाषित का स्मरण करें<ref>'''''भर्तृहरिरचित नीतिशतकम्, श्लोक १२''''' </ref>: <blockquote>साहित्यसंगीतकलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः ।</blockquote><blockquote>तृणं न खादन्नपि जीवमानस्तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ॥12॥</blockquote><blockquote>अर्थात्‌ साहित्य, संगीत और कला जिसे अवगत नहीं । ऐसा मनुष्य पूँछ और सींग से रहित पशु जैसा है। वह घास खाये बिना ही जीवित रहता है इसे पशुओं का बहुत भाग्य समझना चाहिये ।</blockquote>साहित्य और संगीत की चर्चा हमने ऊपर की । अब कला का विचार करना चाहिये । भाषा और संगीत वाक्‌ कर्मन्द्रिय से जुडे विषय हैं उस प्रकार कला का सम्बन्ध हाथ नामक कर्मेन्द्रिय से है । मनुष्य को हाथ काम करने के लिये ही प्राप्त हुए हैं । काम करने के संस्कार शिशु को प्रारंभ से ही मिलने चाहिए । शिशु यह करना भी चाहता है। उसे अवसर मिलना चाहिये । वस्तु को पकड़ने, तोड़ने और फैंकने से उसका प्रारम्भ होता है । पानी में, रेत में, मिट्टी में खेलने से हाथ का अभ्यास होता है । घर के बर्तन, डिब्बे, अन्य सामान आदि को इधर से उधर रखने से, डिब्बे भरने और खाली करने से, बर्तन रखने से, आसन, चाद, बिस्तर बिछाने और समटने से, कपड़े धोने से हाथ नामक कर्मेन्द्रिय का विकास होता है । अन्य लाभ तो मूल्यवान हैं ही । तीन वर्ष की आयु के बाद तह करना, काटना, चूरा करना, गूँधना, कूटना, छीलना, मरोड़ना, खींचना, झेलना आदि अनेक कामों का अविरत अभ्यास होना चाहिये । रंग, आकृति, नकाशी आदि का अनुभव आवश्यक है । सूई धागे का प्रयोग, मोती पिरोना, मिट्टी के खिलौने बनाना, गेरु से रंगना आदि असंख्य काम करने के अवसर उसे मिलने चाहिये । हाथ को कुशल कारीगर बनाना यही ध्येय है । हाथ से काम करते आना भौतिक समृद्धि का स्रोत भी है। इस प्रकार से कर्मन्द्रियाँ भी ज्ञानार्जन की दिशा में प्रगति करने का बडा माध्यम है ।
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इस सुभाषित का स्मरण करें<ref>'''''भर्तृहरिरचित नीतिशतकम्, श्लोक १२''''' </ref>: <blockquote>साहित्यसंगीतकलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः ।</blockquote><blockquote>तृणं न खादन्नपि जीवमानस्तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ॥12॥</blockquote><blockquote>अर्थात्‌ साहित्य, संगीत और कला जिसे अवगत नहीं । ऐसा मनुष्य पूँछ और सींग से रहित पशु जैसा है। वह घास खाये बिना ही जीवित रहता है इसे पशुओं का बहुत भाग्य समझना चाहिये ।</blockquote>साहित्य और संगीत की चर्चा हमने ऊपर की । अब कला का विचार करना चाहिये । भाषा और संगीत वाक्‌ कर्मन्द्रिय से जुड़े विषय हैं उस प्रकार कला का सम्बन्ध हाथ नामक कर्मेन्द्रिय से है । मनुष्य को हाथ काम करने के लिये ही प्राप्त हुए हैं । काम करने के संस्कार शिशु को प्रारंभ से ही मिलने चाहिए । शिशु यह करना भी चाहता है। उसे अवसर मिलना चाहिये । वस्तु को पकड़ने, तोड़ने और फैंकने से उसका प्रारम्भ होता है । पानी में, रेत में, मिट्टी में खेलने से हाथ का अभ्यास होता है । घर के बर्तन, डिब्बे, अन्य सामान आदि को इधर से उधर रखने से, डिब्बे भरने और खाली करने से, बर्तन रखने से, आसन, चाद, बिस्तर बिछाने और समटने से, कपड़े धोने से हाथ नामक कर्मेन्द्रिय का विकास होता है । अन्य लाभ तो मूल्यवान हैं ही । तीन वर्ष की आयु के बाद तह करना, काटना, चूरा करना, गूँधना, कूटना, छीलना, मरोड़ना, खींचना, झेलना आदि अनेक कामों का अविरत अभ्यास होना चाहिये । रंग, आकृति, नकाशी आदि का अनुभव आवश्यक है । सूई धागे का प्रयोग, मोती पिरोना, मिट्टी के खिलौने बनाना, गेरु से रंगना आदि असंख्य काम करने के अवसर उसे मिलने चाहिये । हाथ को कुशल कारीगर बनाना यही ध्येय है । हाथ से काम करते आना भौतिक समृद्धि का स्रोत भी है। इस प्रकार से कर्मन्द्रियाँ भी ज्ञानार्जन की दिशा में प्रगति करने का बडा माध्यम है ।
    
== सद्गुण और सदाचार ==
 
== सद्गुण और सदाचार ==

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