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→‎भाषाविकास: लेख सम्पादित किया
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मनुष्य की विशेषता भाषा है। आज हम भाषा को जितना महत्त्व देते हैं उससे उसका कई गुना अधिक महत्त्व है। भाषा ज्ञानक्षेत्र के सभी आधारभूत विषयों का भी आधार है। किसी भी प्रकार का संवाद करने के लिये, विचारों और भावनाओं की अभिव्यक्ति और अनुभूति के लिये शास्त्र समझने के लिये, उसकी रचना करने के लिये भाषा आवश्यक है। शिशु को भाषा के संस्कार गर्भावस्‍था से ही होते हैं। वह अनिवार्य रूप से मातृभाषा ही होती है। अतः जन्म के बाद भी भाषा सीखने के लिये मातृभाषा ही सहायक होती है। यह हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत का नहीं अपितु भाषा का प्रश्न है।  
 
मनुष्य की विशेषता भाषा है। आज हम भाषा को जितना महत्त्व देते हैं उससे उसका कई गुना अधिक महत्त्व है। भाषा ज्ञानक्षेत्र के सभी आधारभूत विषयों का भी आधार है। किसी भी प्रकार का संवाद करने के लिये, विचारों और भावनाओं की अभिव्यक्ति और अनुभूति के लिये शास्त्र समझने के लिये, उसकी रचना करने के लिये भाषा आवश्यक है। शिशु को भाषा के संस्कार गर्भावस्‍था से ही होते हैं। वह अनिवार्य रूप से मातृभाषा ही होती है। अतः जन्म के बाद भी भाषा सीखने के लिये मातृभाषा ही सहायक होती है। यह हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत का नहीं अपितु भाषा का प्रश्न है।  
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भाषा के दो पक्ष हैं - शब्द और अर्थ। आश्चर्यजनक रीति से शिशु अर्थ प्रथम ग्रहण करता है बाद में शब्द । जिस भाषा में उसने अर्थ ग्रहण किया है उसी भाषा का शब्द भी उसे सिखाना चाहिये। इस दृष्टि से मातृभाषा का महत्त्व सर्वाधिक है। शिशु प्रथम अर्थ ग्रहण करता है इसलिये उसे जिसमें अच्छे भाव, गहनअर्थ, स्पष्ट विचार हों ऐसी ही भाषा सुनने को मिलनी चाहिये । हमें लगता है कि उसे गहन बातें नहीं समझती हैं, परन्तु यह हमारा श्रम है। उसे शब्द नहीं समझते और शब्दों में अभिव्यक्ति भी नहीं आती परन्तु बोलने वाले का विचार यदि स्पष्ट है, वह यदि समझकर बोलता है, प्रामाणिकता से बोलता है, सत्य बोलता है, श्रद्धापूर्वक बोलता है तो उसी रूप में शिशु भी उसे ग्रहण करता है। उसे ऐसी भाषा सुनने को मिले यह देखने का दायित्व बड़ों का है । इस दृष्टि से वाचन, चर्चा, भाषण, श्रवण आदि का बहुत उपयोग होता है। यह सब सुनते सुनते वह अपने आप बोलने लगता है। जैसा सुना वैसा बोला यह भाषा का मूल नियम है । उस दृष्टि से उसे बोलने के अधिकाधिक अवसर मिलना आवश्यक है। पाँच वर्ष की आयु तक शुद्ध उच्चारण, समुचित आरोहअवरोह, विराम चिह्नों का बोध, शब्द और अर्थ का सम्बन्ध, आधारभूत व्याकरण, वाक्यरचना आदि का क्रियात्मक ज्ञान हो जाता है। यदि नहीं हुआ तो शिक्षकों की कुछ गड़बड़ है ऐसा मानना चाहिये। नासमझ मातापिता मौखिक भाषाव्यवहार सिखाने के स्थान पर पढ़ने और लिखने पर अधिक जोर देते हैं और सम्भावनाओं को नष्ट कर देते हैं।
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भाषा के दो पक्ष हैं - शब्द और अर्थ। आश्चर्यजनक रीति से शिशु अर्थ प्रथम ग्रहण करता है बाद में शब्द। जिस भाषा में उसने अर्थ ग्रहण किया है उसी भाषा का शब्द भी उसे सिखाना चाहिये। इस दृष्टि से मातृभाषा का महत्त्व सर्वाधिक है। शिशु प्रथम अर्थ ग्रहण करता है इसलिये उसे जिसमें अच्छे भाव, गहनअर्थ, स्पष्ट विचार हों ऐसी ही भाषा सुनने को मिलनी चाहिये। हमें लगता है कि उसे गहन बातें नहीं समझती हैं, परन्तु यह हमारा श्रम है। उसे शब्द नहीं समझते और शब्दों में अभिव्यक्ति भी नहीं आती परन्तु बोलने वाले का विचार यदि स्पष्ट है, वह यदि समझकर बोलता है, प्रामाणिकता से बोलता है, सत्य बोलता है, श्रद्धापूर्वक बोलता है तो उसी रूप में शिशु भी उसे ग्रहण करता है। उसे ऐसी भाषा सुनने को मिले यह देखने का दायित्व बड़ों का है। इस दृष्टि से वाचन, चर्चा, भाषण, श्रवण आदि का बहुत उपयोग होता है। यह सब सुनते सुनते वह अपने आप बोलने लगता है। जैसा सुना वैसा बोला यह भाषा का मूल नियम है। उस दृष्टि से उसे बोलने के अधिकाधिक अवसर मिलना आवश्यक है। पाँच वर्ष की आयु तक शुद्ध उच्चारण, समुचित आरोहअवरोह, विराम चिह्नों का बोध, शब्द और अर्थ का सम्बन्ध, आधारभूत व्याकरण, वाक्यरचना आदि का क्रियात्मक ज्ञान हो जाता है। यदि नहीं हुआ तो शिक्षकों की कुछ गड़बड़ है ऐसा मानना चाहिये। नासमझ मातापिता मौखिक भाषाव्यवहार सिखाने के स्थान पर पढ़ने और लिखने पर अधिक जोर देते हैं और सम्भावनाओं को नष्ट कर देते हैं।
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अंग्रेजी सिखाने का मोह तो और भी नाश करता है। इससे समझदारीपूर्वक बचने की आवश्यकता है । भाषा के सम्बन्ध में और भी एक बात उल्लेखनीय है । शिशु को पुस्तकों की दुनिया से परिचित करना चाहिये। इसका अर्थ उन्हें पुस्तक पढ़ना सिखाना नहीं है। उसे पुस्तकों का स्पर्श करना, खोलना, बन्द करना, आलमारी से निकालना और रखना, पुस्तकों के विषय में बातें करना पढ़ने के प्रति आकर्षण निर्माण करना बहुत लाभकारी रहता है। इसी को संस्कार करना कहते हैं। इसी माध्यम से विद्याप्रीति निर्माण करने का काम भी किया जाता है। विद्या की देवी सरस्वती, लिपिविधाता गणेश, आद्यसम्पादक वेदव्यास आदि का परिचय भी बहुत मायने रखता है । घर में सब पढ़ते हों तो विद्याकीय वातावरण भी बनता है। भाषा अर्थात्‌ सत्य के विविध आविष्कार। इस सृष्टि को धारण करने वाले विश्वनियम हैं धर्म और धर्म की वाचिक अभिव्यक्ति है सत्य। सत्य भाषा के अर्थ पक्ष का मूल स्रोत है। भाषा के शब्द पक्ष का मूल स्रोत है ओंकार जिसे नादब्रह्म कहा गया है। अर्थात्‌ भाषा के माध्यम से नादब्रह्म और सत्य को ही हम जीवन के विभिन्न सन्दर्भों में प्रस्तुत कर रहे हैं। इतनी श्रेष्ठ भाषा को हम पढ़ने लिखने की यान्त्रिक क्रिया में जकड़ कर संकुचित बना देते हैं। इसीसे बचना चाहिये। भाषा का सम्बन्ध वाक् कर्मन्द्रिय से है। वाक् कर्मन्द्रिय का दूसरा विषय है स्वर। स्वर संगीत का मूल है । संगीत की देवी भी सरस्वती ही है । इस दृष्टि से संगीत का अच्छा अनुभव मिलना उसके विकास की दृष्टि से आवश्यक है। सद्गुण और सदाचार की प्रेरणा के लिये, मानसिक शान्ति और सन्तुलन के लिये तथा स्वर को ग्रहण करने और व्यक्त करने के लिये संगीत का अनुभव आवश्यक है। इस प्रकार वागीन्द्रिय के विकास की सारी सम्भावनाओं को पूर्ण साकार करने के प्रयास शिशुअवस्था में ही मातापिता को करना चाहिये। व्यक्तित्व विकास का यह महत्त्वपूर्ण आयाम है।
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अंग्रेजी सिखाने का मोह तो और भी नाश करता है। इससे समझदारीपूर्वक बचने की आवश्यकता है। भाषा के सम्बन्ध में और भी एक बात उल्लेखनीय है । शिशु को पुस्तकों की दुनिया से परिचित करना चाहिये। इसका अर्थ उन्हें पुस्तक पढ़ना सिखाना नहीं है। उसे पुस्तकों का स्पर्श करना, खोलना, बन्द करना, आलमारी से निकालना और रखना, पुस्तकों के विषय में बातें करना पढ़ने के प्रति आकर्षण निर्माण करना बहुत लाभकारी रहता है। इसी को संस्कार करना कहते हैं। इसी माध्यम से विद्याप्रीति निर्माण करने का काम भी किया जाता है। विद्या की देवी सरस्वती, लिपिविधाता गणेश, आद्यसम्पादक वेदव्यास आदि का परिचय भी बहुत मायने रखता है । घर में सब पढ़ते हों तो विद्याकीय वातावरण भी बनता है। भाषा अर्थात्‌ सत्य के विविध आविष्कार। इस सृष्टि को धारण करने वाले विश्वनियम हैं धर्म और धर्म की वाचिक अभिव्यक्ति है सत्य। सत्य भाषा के अर्थ पक्ष का मूल स्रोत है। भाषा के शब्द पक्ष का मूल स्रोत है ओंकार जिसे नादब्रह्म कहा गया है। अर्थात्‌ भाषा के माध्यम से नादब्रह्म और सत्य को ही हम जीवन के विभिन्न सन्दर्भों में प्रस्तुत कर रहे हैं। इतनी श्रेष्ठ भाषा को हम पढ़ने लिखने की यान्त्रिक क्रिया में जकड़ कर संकुचित बना देते हैं। इसीसे बचना चाहिये। भाषा का सम्बन्ध वाक् कर्मन्द्रिय से है। वाक् कर्मन्द्रिय का दूसरा विषय है स्वर। स्वर संगीत का मूल है । संगीत की देवी भी सरस्वती ही है । इस दृष्टि से संगीत का अच्छा अनुभव मिलना उसके विकास की दृष्टि से आवश्यक है। सद्गुण और सदाचार की प्रेरणा के लिये, मानसिक शान्ति और सन्तुलन के लिये तथा स्वर को ग्रहण करने और व्यक्त करने के लिये संगीत का अनुभव आवश्यक है। इस प्रकार वागीन्द्रिय के विकास की सारी सम्भावनाओं को पूर्ण साकार करने के प्रयास शिशुअवस्था में ही मातापिता को करना चाहिये। व्यक्तित्व विकास का यह महत्त्वपूर्ण आयाम है।
    
== काम करने की आवश्यकता ==
 
== काम करने की आवश्यकता ==

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