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पाठ्यक्रम और पठनपाठन पद्धति का मेल होना चाहिये । हर विषय को सीखने के तरीके अलग अलग होते हैं । उदाहरण के लिये गणित गणन कर, संगीत गाकर, विज्ञान प्रयोग कर, इतिहास कहानी सुनकर सीखे जाते हैं । हम सारे विषय भाषा की पद्धति से ही पढ़ाते हैं और उसी प्रकार से उसकी परीक्षा भी लेते हैं । इसे बदलना चाहिये और यह बदल पाठ्यक्रम में दिखाई देना चाहिये ।
 
पाठ्यक्रम और पठनपाठन पद्धति का मेल होना चाहिये । हर विषय को सीखने के तरीके अलग अलग होते हैं । उदाहरण के लिये गणित गणन कर, संगीत गाकर, विज्ञान प्रयोग कर, इतिहास कहानी सुनकर सीखे जाते हैं । हम सारे विषय भाषा की पद्धति से ही पढ़ाते हैं और उसी प्रकार से उसकी परीक्षा भी लेते हैं । इसे बदलना चाहिये और यह बदल पाठ्यक्रम में दिखाई देना चाहिये ।
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आज प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में पाठ्यक्रम लगभग सभी विद्यार्थियों को और अधिकांश शिक्षकों को मालूम ही नहीं होता । वे पुस्तकें पढ़ाते और पढ़ते हैं, पाठ्यक्रम नहीं । वास्तव में पाठ्यपुस्तकें पाठ्यक्रम को सीखने के लिये अनेक में से एक साधन होता है । उसके स्थान पर पुस्तकें ही पाठ्यक्रम का पर्याय और परीक्षा का आलम्बन बन गईं हैं । विश्व में कहीं पर भी यह सिद्धान्त मान्य नहीं है फिर भी हमने अधिकृत रूप से पाठ्यपुस्तकों को ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बना दिया है ।
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आज प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में पाठ्यक्रम लगभग सभी विद्यार्थियों को और अधिकांश शिक्षकों को मालूम ही नहीं होता । वे पुस्तकें पढ़ाते और पढ़ते हैं, पाठ्यक्रम नहीं । वास्तव में पाठ्यपुस्तकें पाठ्यक्रम को सीखने के लिये अनेक में से एक साधन होता है । उसके स्थान पर पुस्तकें ही पाठ्यक्रम का पर्याय और परीक्षा का आलम्बन बन गईं हैं । विश्व में कहीं पर भी यह सिद्धान्त मान्य नहीं है तथापि हमने अधिकृत रूप से पाठ्यपुस्तकों को ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बना दिया है ।
    
इसमें परिवर्तन कर पाठ्यक्रमों को पाठ्यपुस्तकों से मुक्त करना चाहिये । पाठ्यपुस्तकें जहां आवश्यक हैं वहीं उनकी आवश्यकता माननी चाहिये, सर्वत्र नहीं । उन्हें एकमेव साधन मानने से अथवा उन्हें ही साध्य मानने से बड़े अनर्थ पैदा होते हैं ।
 
इसमें परिवर्तन कर पाठ्यक्रमों को पाठ्यपुस्तकों से मुक्त करना चाहिये । पाठ्यपुस्तकें जहां आवश्यक हैं वहीं उनकी आवश्यकता माननी चाहिये, सर्वत्र नहीं । उन्हें एकमेव साधन मानने से अथवा उन्हें ही साध्य मानने से बड़े अनर्थ पैदा होते हैं ।
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== साधनसामग्री ==
 
== साधनसामग्री ==
 
साधनसामग्री के विषय में हमें कुछ इस प्रकार विचार करना चाहिये:
 
साधनसामग्री के विषय में हमें कुछ इस प्रकार विचार करना चाहिये:
* साधसामग्री के विषय में हमारा अविचार बहुत प्रबल हो गया है। हमें लगता है कि बिना सामग्री के अध्ययन हो ही नहीं सकता । इसलिए हम अधिकाधिक सामग्री इकट्ठी करने पर बल देते हैं। परन्तु इतनी अधिक सामग्री की आवश्यकता ही नहीं है । जिस प्रकार की सामग्री का हम प्रयोग करते हैं उस प्रकार की सामग्री की भी आवश्यकता नहीं है । अतः: सामग्री के बारे में हमें विवेकपूर्वक विचार करना चाहिये ।
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* साधसामग्री के विषय में हमारा अविचार बहुत प्रबल हो गया है। हमें लगता है कि बिना सामग्री के अध्ययन हो ही नहीं सकता । अतः हम अधिकाधिक सामग्री इकट्ठी करने पर बल देते हैं। परन्तु इतनी अधिक सामग्री की आवश्यकता ही नहीं है । जिस प्रकार की सामग्री का हम प्रयोग करते हैं उस प्रकार की सामग्री की भी आवश्यकता नहीं है । अतः: सामग्री के बारे में हमें विवेकपूर्वक विचार करना चाहिये ।
 
* प्राथमिक विद्यालयों में जब अध्ययन की क्षमताओं का विकास करना ही लक्ष्य है तब ज्ञानार्जन के करणों का उपयोग ही न हो सके ऐसी सामग्री अध्ययन में बाधा निर्माण करती है । उदाहरण के लिये गणनयंत्र ( केल्क्युलेटर ), मिट्टी के खिलौने बनाने के लिये प्लेस्टिसिन, तैयार चित्र आदि की आवश्यकता नहीं है । इनसे क्रमश: गणनक्षमता, हाथ की क्षमता और कल्पनाशक्ति के लिये अवरोध निर्माण होता है ।  
 
* प्राथमिक विद्यालयों में जब अध्ययन की क्षमताओं का विकास करना ही लक्ष्य है तब ज्ञानार्जन के करणों का उपयोग ही न हो सके ऐसी सामग्री अध्ययन में बाधा निर्माण करती है । उदाहरण के लिये गणनयंत्र ( केल्क्युलेटर ), मिट्टी के खिलौने बनाने के लिये प्लेस्टिसिन, तैयार चित्र आदि की आवश्यकता नहीं है । इनसे क्रमश: गणनक्षमता, हाथ की क्षमता और कल्पनाशक्ति के लिये अवरोध निर्माण होता है ।  
* साधनसामग्री के आधिक्य से पढ़ने की मजदूरी ही बढ़ती है. और आकलनशक्ति, कल्पनाशक्ति, सृजनशक्ति आदि के लिये अवसर ही नहीं मिलता है । उदाहरण के लिये बच्चों को कहानी बताने के लिये एक भी साधन नहीं होने से लेकर चलनचित्र तक की विभिन्न प्रकार की सामग्री का प्रयोग हो सकता है। इनमें सब में अधिक परिणामकारी केवल मुंह से अभिनय के साथ कहानी बताना होता है जबकि चलनचित्र से कहानी बताना सबसे कम । हमारे मन में चित्र उल्टा ही बैठा हुआ होता है और हम चलनचित्र को अधिक महत्त्व देते हैं । बड़ी कक्षाओं में पावर पॉइंट प्रेजेंटेशन का प्रयोग हम प्रतिष्ठित मानते हैं परन्तु वक्ता श्रोता दोनों की एकाग्रता, आकलन और कुल मिलाकर बुद्धि की ग्रहणशीलता कम होती है । बहुत अधिक लिखित सामग्री के कारण स्मृति पर तो परिणाम हुआ ही है । हम हर वक्तव्य का ध्वनिमुद्रण कर लेते हैं और हमारी एकाग्रता, स्मृति और तत्परता तीनों कम होते हैं । मोबाइल के कारण स्मृति कितनी क्षीण हुई है इसका हम सब अनुभव कर ही रहे हैं । संक्षेप में ज्ञानार्जन के करणों का स्थान लेने वाली हर सामग्री ज्ञानार्जन में अवरोध ही है ।
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* साधनसामग्री के आधिक्य से पढ़ने की मजदूरी ही बढ़ती है. और आकलनशक्ति, कल्पनाशक्ति, सृजनशक्ति आदि के लिये अवसर ही नहीं मिलता है । उदाहरण के लिये बच्चोंं को कहानी बताने के लिये एक भी साधन नहीं होने से लेकर चलनचित्र तक की विभिन्न प्रकार की सामग्री का प्रयोग हो सकता है। इनमें सब में अधिक परिणामकारी केवल मुंह से अभिनय के साथ कहानी बताना होता है जबकि चलनचित्र से कहानी बताना सबसे कम । हमारे मन में चित्र उल्टा ही बैठा हुआ होता है और हम चलनचित्र को अधिक महत्त्व देते हैं । बड़ी कक्षाओं में पावर पॉइंट प्रेजेंटेशन का प्रयोग हम प्रतिष्ठित मानते हैं परन्तु वक्ता श्रोता दोनों की एकाग्रता, आकलन और कुल मिलाकर बुद्धि की ग्रहणशीलता कम होती है । बहुत अधिक लिखित सामग्री के कारण स्मृति पर तो परिणाम हुआ ही है । हम हर वक्तव्य का ध्वनिमुद्रण कर लेते हैं और हमारी एकाग्रता, स्मृति और तत्परता तीनों कम होते हैं । मोबाइल के कारण स्मृति कितनी क्षीण हुई है इसका हम सब अनुभव कर ही रहे हैं । संक्षेप में ज्ञानार्जन के करणों का स्थान लेने वाली हर सामग्री ज्ञानार्जन में अवरोध ही है ।
 
* इसके विपरीत विज्ञान जैसे विषय में प्रयोग होता ही नहीं है । बहुत सारी बातें बोलकर ही सिखाई जाती हैं।
 
* इसके विपरीत विज्ञान जैसे विषय में प्रयोग होता ही नहीं है । बहुत सारी बातें बोलकर ही सिखाई जाती हैं।
 
* विषय के अनुरूप सामग्री चाहिये यह भी सार्वत्रिक रूप से समझ में आने वाली बात है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि शिक्षक अपनी कल्पना से किसी भी प्रकार की सामग्री का उपयोग कर सकता है । जब ऐसा होता है तब वह सही अर्थ में उपयोगी होती है । अन्यथा कर्मकाण्ड ही होता है ।
 
* विषय के अनुरूप सामग्री चाहिये यह भी सार्वत्रिक रूप से समझ में आने वाली बात है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि शिक्षक अपनी कल्पना से किसी भी प्रकार की सामग्री का उपयोग कर सकता है । जब ऐसा होता है तब वह सही अर्थ में उपयोगी होती है । अन्यथा कर्मकाण्ड ही होता है ।
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विचार करने लायक कुछ बिंदु इस प्रकार हैं:
 
विचार करने लायक कुछ बिंदु इस प्रकार हैं:
* सबसे पहली है बैठकव्यवस्था । सभी शास्त्र कहते हैं कि बैठने के लिये मेजकुरसी और बेच और डेस्क उचित व्यवस्था नहीं है । वह शरीर, मन, बुद्धि के लिये अनुकूल नहीं है । जिस व्यवस्था में शरीर का नीचे का हिस्सा बन्द करके नहीं रखा जाता वहाँ शरीर बिना कारण के थकता है, मन सरलता से एकाग्र नहीं हो पाता और बुद्धि को ऊर्जा कम पड़ती है। इसलिए बैठक व्यवस्था का ध्यान रखना आवश्यक है । खड़े खड़े पढ़ाने की स्थिति भी ठीक नहीं है ।
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* सबसे पहली है बैठकव्यवस्था । सभी शास्त्र कहते हैं कि बैठने के लिये मेजकुरसी और बेच और डेस्क उचित व्यवस्था नहीं है । वह शरीर, मन, बुद्धि के लिये अनुकूल नहीं है । जिस व्यवस्था में शरीर का नीचे का हिस्सा बन्द करके नहीं रखा जाता वहाँ शरीर बिना कारण के थकता है, मन सरलता से एकाग्र नहीं हो पाता और बुद्धि को ऊर्जा कम पड़ती है। अतः बैठक व्यवस्था का ध्यान रखना आवश्यक है । खड़े खड़े पढ़ाने की स्थिति भी ठीक नहीं है ।
 
* जूते पहनकर अध्ययन अध्यापन करना पवित्रता की भारतीय भावना से विपरीत ही है ।
 
* जूते पहनकर अध्ययन अध्यापन करना पवित्रता की भारतीय भावना से विपरीत ही है ।
 
* दिन में दोपहर का समय अध्ययन अध्यापन के लिये प्रतिकूल है ।
 
* दिन में दोपहर का समय अध्ययन अध्यापन के लिये प्रतिकूल है ।
* तीस, पैंतीस या चालीस मिनट का कालांश और सभी विषयों के लिये समान अवधि भी यांत्रिक व्यवस्था का ही एक नमूना है और अध्ययन प्रक्रिया के लिये अवरोधरूप ही है । इन सभी विषयों की विस्तार से चर्चा “भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम' ग्रंथ में की गई है इसलिए यहाँ इन बातों का उल्लेख मात्र किया है ।जैसे जैसे हम व्यावहारिक बातों की ओर बढ़ते हैं परिस्थिति के अनुकूल सबकुछ करना होता है । केवल सिद्धान्त से काम नहीं चलता । परन्तु सिद्धान्त को छोड़ने या उससे समझौता करने को व्यवहार नहीं कहते इतना ध्यान रखने की आवश्यकता है ।
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* तीस, पैंतीस या चालीस मिनट का कालांश और सभी विषयों के लिये समान अवधि भी यांत्रिक व्यवस्था का ही एक नमूना है और अध्ययन प्रक्रिया के लिये अवरोधरूप ही है । इन सभी विषयों की विस्तार से चर्चा “भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम' ग्रंथ में की गई है अतः यहाँ इन बातों का उल्लेख मात्र किया है ।जैसे जैसे हम व्यावहारिक बातों की ओर बढ़ते हैं परिस्थिति के अनुकूल सबकुछ करना होता है । केवल सिद्धान्त से काम नहीं चलता । परन्तु सिद्धान्त को छोड़ने या उससे समझौता करने को व्यवहार नहीं कहते इतना ध्यान रखने की आवश्यकता है ।
    
==References==
 
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