Difference between revisions of "पाठ्यक्रम, साधनसामग्री और व्यवस्था"

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== यांत्रिकता एक रूपता है ==
 
== यांत्रिकता एक रूपता है ==
वर्तमान शैक्षिक ढांचे का मुख्य लक्षण है यांत्रिकता <ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ४, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>।
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वर्तमान शैक्षिक ढांचे का मुख्य लक्षण है यांत्रिकता <ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ४, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। विद्यालय भवन में और कक्षाकक्ष में हमें यह लक्षण दिखाई देता है । यांत्रिकता प्रकट होती है एकरूपता में । कुछ बिंदु स्पष्ट रूप से हम गिन सकते हैं:
 +
* समान आयु के विद्यार्थियों के लिए समान पाठ्यक्रम
 +
* सभी विद्यार्थियों के लिए एक ही पाठ्यक्रम
 +
* समान पाठ्यक्रम के लिये सबके लिये समान अवधि
 +
* सभी विषयों के लिये परीक्षा का समान स्वरूप
 +
* सभी विषयों में उत्तीर्ण होने का समान मापदण्ड
 +
* उत्तीर्ण होने के लिये सभी विद्यार्थियों के लिये एक ही लक्ष्य
 +
* प्रवेश के लिये, पढ़ने के लिये, उत्तीर्ण होने के लिये एक ही आयुसीमा
 +
ऐसे और भी आयाम बताये जा सकते हैं परन्तु इतने भी समझने के लिये पर्याप्त है। यांत्रिकता को हमने समानता का नाम देकर उलझा दिया है। एकरूपता को समान मानने की मानसिकता इतनी गहरा गई है कि अब व्यक्ति के हिसाब से कुछ अन्तर करने का प्रयास होता है तो अनेक प्रकार के प्रश्न और विरोध निर्माण हो जाते हैं।
  
विद्यालय भवन में और कक्षाकक्ष में हमें यह लक्षण दिखाई
+
अब हमें यह समझना और समझाना होगा कि एकरूपता यंत्रों के लिये होती है, जीवित मनुष्यों के लिये नहीं। मनुष्यों की रुचि, स्वभाव, क्षमतायें, गति, आवश्यकतायें सब अपनी अपनी और एकदूसरे से अलग होती हैं। समानता और एकरूपता का मुद्दा ही सुलझाना होगा। मनुष्य का विश्व आन्तरिक समानता से चलता है । जो जैसा है वैसा है। विश्व में एक जैसे कोई भी दो पदार्थ होते नहीं हैं। सब अपनी अपनी गति से, अपनी अपनी पद्धति से, अपनी अपनी रुचि से चलें यही स्वाभाविक विकास का क्रम है। जहां एकरूपता होनी चाहिये वहाँ एकरूपता का और जहां नहीं होनी चाहिये वहाँ उसका आग्रह नहीं रखना ही आवश्यक है । एकरूपता नहीं, समानता के सूत्र पर ही पाठ्यक्रम, पठनसामग्री, समयसारिणी, व्यवस्था आदि का नियोजन करना चाहिये।
 
 
देता है । यांत्रिकता प्रकट होती है एकरूपता में । कुछ बिंदु
 
 
 
स्पष्ट रूप से हम गिन सकते हैं ...
 
 
 
०... समान आयु के विद्यार्थियों के लिए समान पाठ्यक्रम
 
 
 
०... सभी विद्यार्थियों के लिए एक ही पाठ्यक्रम
 
 
 
०... समान पाठ्यक्रम के लिये सबके लिये समान अवधि
 
 
 
सभी विषयों के लिये परीक्षा का समान स्वरूप
 
 
 
०... सभी विषयों में उत्तीर्ण होने का समान मापदण्ड
 
 
 
०... उत्तीर्ण होने के लिये सभी विद्यार्थियों के लिये एक ही
 
 
 
लक्ष्य
 
 
 
०... प्रवेश के लिये, पढ़ने के लिये, उत्तीर्ण होने के लिये
 
 
 
एक ही आयुसीमा
 
 
 
............. page-187 .............
 
 
 
पर्व ४ : शिक्षक, विद्यार्थी एवं अध्ययन
 
 
 
ऐसे और भी आयाम बताये जा सकते हैं परन्तु इतने
 
 
 
भी समझने के लिये पर्याप्त है ।
 
 
 
यांत्रिकता को हमने समानता का नाम देकर उलझा
 
 
 
दिया है । एकरूपता को समान मानने की मानसिकता इतनी
 
 
 
गहरा गई है की अब व्यक्ति के हिसाब से कुछ अन्तर करने
 
 
 
का प्रयास होता है तो अनेक प्रकार के प्रश्न और विरोध
 
 
 
निर्माण हो जाते हैं ।
 
 
 
अब हमें यह समझना और समझाना होगा की
 
 
 
एकरूपता यंत्रों के लिये होती है, ज़िंदा मनुष्यों के लिये नहीं ।
 
 
 
मनुष्यों की रुचि, स्वभाव, क्षमतायें, गति, आवश्यकतायें सब
 
 
 
अपनी अपनी और एकदूसरे से अलग होती हैं । समानता
 
 
 
और एकरूपता का मुद्दा ही सुलझाना होगा ।
 
 
 
मनुष्य का विश्व आन्तरिक समानता से चलता है ।
 
 
 
जो जैसा है वैसा है । विश्व में एक जैसे कोई भी दो पदार्थ
 
 
 
होते नहीं हैं । सब अपनी अपनी गति से, अपनी अपनी
 
 
 
पद्धति से, अपनी अपनी रुचि से चलें यही स्वाभाविक
 
 
 
विकास का फ्रम है । जहां एकरूपता होनी चाहिये वहाँ
 
 
 
एकरूपता का और जहां नहीं होनी चाहिये वहाँ उसका
 
 
 
आग्रह नहीं रखना ही आवश्यक है ।
 
 
 
एकरूपता नहीं, समानता के सूत्र पर ही पाठ्यक्रम,
 
 
 
पठनसामग्री, समयसारिणी, व्यवस्था आदि का नियोजन
 
 
 
करना चाहिये ।
 
  
 
== पाठ्यक्रम ==
 
== पाठ्यक्रम ==
एक बालक को क्या पढ़ाना है उसका निर्धारण
+
एक बालक को क्या पढ़ाना है उसका निर्धारण उसकी पात्रता के आधार पर होता है। उसकी पात्रता निर्धारित करने के अनेक तरीके हैं । आज तो ये तरीके बहुत यांत्रिक स्वरूप के हैं यथा उसकी आयु कितनी है, और पूर्व परीक्षा में उसे कितने अंक मिले हैं। परन्तु पात्रता निश्चित करने के शास्त्रीय और व्यावहारिक तरीके अपनाने चाहिये । इसकी चर्चा पूर्व के अध्याय में की ही गई है। हमें उसके अनुरूप व्यवस्थायें करनी होंगी। पात्रता निश्चित करने के मापदण्ड शास्त्रों के आधार पर प्रथम बनाने होंगे।
 
 
उसकी पात्रता के आधार पर होता है । उसकी पात्रता
 
 
 
निर्धारित करने के अनेक तरीके हैं । आज तो ये तरीके
 
 
 
बहुत यांत्रिक स्वरूप के हैं यथा उसकी आयु कितनी है
 
 
 
और पूर्व परीक्षा में उसे कितने अंक मिले हैं । परन्तु पात्रता
 
 
 
निश्चित करने के शास्त्रीय और व्यावहारिक तरीके अपनाने
 
 
 
चाहिये । इसकी चर्चा पूर्व के अध्याय में की ही गई है ।
 
 
 
हमें उसके अनुरूप व्यवस्थायें करनी होंगी । पात्रता निश्चित
 
 
 
करने के मापदण्ड शास्त्रों के आधार पर प्रथम बनाने होंगे ।
 
 
 
जिस प्रकार रोग का निदान करने के लिये चिकित्सक होते
 
 
 
१७१
 
 
 
हैं, जिस प्रकार किसके लिये कौनसा
 
 
 
आहार उचित है यह निश्चित करने के लिये वैद्य होते हैं,
 
 
 
जिस प्रकार किसके लिये कौनसे नाप का कपड़ा चाहिये यह
 
 
 
निश्चित करने के लिये दर्जी होता है, किसके लिये कौनसे
 
 
 
नाप के जूते चाहिये यह निश्चित करने के लिये मोची होता
 
 
 
है उसी प्रकार किसके लिये कौनसी शिक्षा आवश्यक है यह
 
 
 
निश्चित करने के लिये शिक्षक होता है । पात्रता निश्चित
 
  
करने के सिद्धान्त अनेक शास्त्र के आधार पर मनोविज्ञान के
+
जिस प्रकार रोग का निदान करने के लिये चिकित्सक होते हैं, जिस प्रकार किसके लिये कौन सा आहार उचित है यह निश्चित करने के लिये वैद्य होते हैं, जिस प्रकार किसके लिये कौनसे नाप का कपड़ा चाहिये यह निश्चित करने के लिये दर्जी होता है, किसके लिये कौन से नाप के जूते चाहिये यह निश्चित करने के लिये मोची होता है उसी प्रकार किसके लिये कौन सी शिक्षा आवश्यक है यह निश्चित करने के लिये शिक्षक होता है। पात्रता निश्चित करने के सिद्धान्त अनेक शास्त्रके आधार पर मनोविज्ञान के प्राध्यापक निश्चित कर सकते हैं और उन्हें लागू करने का काम शिक्षक कर सकता है। शक्षकों के प्रशिक्षण का यह एक अनिवार्य मुद्दा होना चाहिये।
 
 
प्राध्यापक निश्चित कर सकते हैं और उन्हें लागू करने का
 
 
 
काम शिक्षक कर सकता है । शिक्षकों के प्रशिक्षण का यह
 
 
 
एक अनिवार्य मुद्दा होना चाहिये ।
 
  
 
== पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्त ==
 
== पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्त ==
पाठ्यक्रम हमारे उद्देश्य के अनुरूप होना चाहिये यह
+
पाठ्यक्रम हमारे उद्देश्य के अनुरूप होना चाहिये यह तो सार्वत्रिक सिद्धान्त है और विश्व में मान्य है । परन्तु जिस देश के विद्यार्थियों के लिये वह बनने वाला है उस देश की जीवनदृष्टि और राष्ट्रीय आवश्यकताओं की पूर्ति का आधार लेना चाहिये यह भी सार्वत्रिक सिद्धान्त है । आज भारत के सन्दर्भ में इस बात का विशेष रूप से उल्लेख करना पड़ता है क्योंकि हम वैश्विकता के मोह में भारतीयता को भुलाकर ही चलते हैं । अत: प्रथम सिद्धान्त है जीवनदृष्टि के आधार पर पाठ्यक्रम निर्धारित होना ।
 
 
तो सार्वत्रिक सिद्धान्त है और विश्व में मान्य है । परन्तु जिस
 
  
देश के विद्यार्थियों के लिये वह बनने वाला है उस देश की
+
दूसरा मुद्दा यह है कि पाठ्यक्रम व्यक्ति के लिये होता है परन्तु व्यक्ति को समाज, सृष्टि और देश के लिये लायक और जिम्मेदार नागरिक बनाने के लिये होता है । आज हम व्यक्ति के विकास को लक्ष्य बनाकर चल रहे हैं । व्यक्ति का विकास यह प्राथमिक और व्यावहारिक लक्ष्य है परन्तु व्यक्ति के विकास को राष्ट्रीय आलंबन होना अनिवार्य है ।यह भी भारतीय जीवनदृष्टि का एक अनिवार्य हिस्सा है । पाठ्यक्रम में धर्मशिक्षा और कर्मशिक्षा को अनिवार्य रूप से स्थान देना चाहिये । भारत में हम जनसंख्या को उल्टी दृष्टि से देखते हैं । जनसंख्या हमें एक समस्या लगती है जबकि वह हमारे लिये मूल्यवान सम्पत्ति है । इसे समस्या मानना भी पश्चिम के प्रभाव से हमने आरम्भ किया है । वहाँ वह समस्या हो सकती है, हमारे लिये नहीं । हमें यंत्रों की आवश्यकता ही नहीं है क्‍योंकि प्रकृतिदत्त यंत्र मनुष्यशरीर के रूप में हमारे पास है ही । मानवशरीर को यंत्र कहना उसका अपमान नहीं है। शरीर तो यंत्र है ही । शरीर के स्थान पर निर्जीव सामग्री से बने यंत्र का प्रयोग करना इस जिंदा शरीर का अपमान है। इस शरीर रूपी यंत्र को सक्षम बनाना और उसके आधार पर उत्पादन क्षमता बढ़ाना हमारी प्रथम राष्ट्रीय आवश्यकता है। शरीर के साथ ही मनुष्य का मन प्रथम से ही ठीक करना चाहिये । तभी वह अपने दायित्वों को निभाने के लिये तत्पर भी होगा और सक्षम भी होगा । इन दो बिन्दुओं को लेकर ही धर्मशिक्षा और कर्मशिक्षा का स्वीकार करना चाहिये । यह बात केवल प्राथमिक शिक्षा के लिये नहीं है, उच्चशिक्षा तक यही सिद्धान्त लागू है। 
  
जीवनदृष्टि और राष्ट्रीय आवश्यकताओं की पूर्ति का आधार
+
वर्तमान पाठ्यक्रम बहुत अधिक पुस्तकीय हो गया है। वैसे तो पाठनपद्धति उसे अधिक पुस्तकीय बना देती है तथापि हमारी परीक्षा पद्धति को देखते हुए यह बात भी सिद्ध होती है कि पाठ्यक्रम भी पुस्तकीय ही है। हमने वाचन और लेखन को इतना अधिक महत्त्व दिया है कि सारी शिक्षा साक्षरता का ही पर्याय बन गई है और साक्षरता लिखने, पढ़ने और बोलने में ही सीमित हो गई है। हम शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक रूप से आलसी और अकर्मण्य हो गए हैं और उसमें ही महत्ता मानते हैं। इसके इलाज के लिये हमें धर्मप्रधान और कर्मप्रधान पाठ्यक्रमों की आवश्यकता है।
 
 
लेना चाहिये यह भी सार्वत्रिक सिद्धान्त है । आज भारत के
 
 
 
सन्दर्भ में इस बात का विशेष रूप से उल्लेख करना पड़ता है
 
 
 
क्योंकि हम वैश्विकता के मोह में भारतीयता को भुलाकर ही
 
 
 
चलते हैं । अत: प्रथम सिद्धान्त है जीवनदृष्टि के आधार पर
 
 
 
पाठ्यक्रम निर्धारित होना ।
 
 
 
दूसरा मुद्दा यह है कि पाठ्यक्रम व्यक्ति के लिये होता
 
 
 
है परन्तु व्यक्ति को समाज, सृष्टि और देश के लिये लायक
 
 
 
और जिम्मेदार नागरिक बनाने के लिये होता है । आज हम
 
 
 
व्यक्ति के विकास को लक्ष्य बनाकर चल रहे हैं । व्यक्ति
 
 
 
का विकास यह प्राथमिक और व्यावहारिक लक्ष्य है परन्तु
 
 
 
व्यक्ति के विकास को राष्ट्रीय आलंबन होना अनिवार्य है ।
 
 
 
यह भी भारतीय जीवनदृष्टि का एक अनिवार्य हिस्सा है ।
 
 
 
पाठ्यक्रम में धर्मशिक्षा और कर्मशिक्षा को अनिवार्य
 
 
 
रूप से स्थान देना चाहिये । भारत में हम जनसंख्या को
 
 
 
उल्टी दृष्टि से देखते हैं । जनसंख्या हमें एक समस्या लगती
 
 
 
है जबकि वह हमारे लिये मूल्यवान सम्पत्ति है । इसे समस्या
 
 
 
मानना भी पश्चिम के प्रभाव से हमने शुरू किया है । वहाँ
 
 
 
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
 
 
 
वह समस्या हो सकती है, हमारे लिये... आवश्यकताओं के. अनुरूप बनाना. चाहिये. यह
 
 
 
नहीं । हमें यंत्रों की आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि... निर्विवाद है ।
 
 
 
प्रकृतिदत्त यंत्र मनुष्यशरीर के रूप में हमारे पास है ही । विकृतिकरण का जो मुद्दा है वह भी समझने जैसा है ।
 
 
 
मानवशरीर को यंत्र कहना उसका अपमान नहीं है । शरीर . योग का हमने स्वीकार तो किया हुआ है परन्तु उसे
 
 
 
तो यंत्र है ही । शरीर के स्थान पर निर्जीव सामग्री से बने. शारीरिक शिक्षा का अंग बना दिया है जबकी वह
 
 
 
यंत्र का प्रयोग करना इस जिंदा शरीर का अपमान है । इस. मनोविज्ञान का अंग होना चाहिये । वास्तव में योग ही
 
 
 
शरीर रूपी यंत्र को सक्षम बनाना और उसके आधार पर... भारतीय मनोविज्ञान है । आयुर्वेद को एलोपथी के मापदण्डों
 
 
 
उत्पादनक्षमता बढ़ाना हमारी प्रथम राष्ट्रीय आवश्यकता है। के अनुसार ढाल लिया है जबकि वह अध्यात्मशासत्र और
 
 
 
शरीर के साथ ही मनुष्य का मन प्रथम से ही ठीक करना. योग के साथ सुसंगत होना चाहिये । गृहशास्त्र को हमने
 
 
 
चाहिये । तभी वह अपने दायित्वों को निभाने के लिये . व्यवसाय की तरह स्वीकार कर लिया है और घर को
 
 
 
तत्पर भी होगा और सक्षम भी होगा । इन दो बिन्‍्दुओं को उपेक्षित कर दिया है। संस्कृति को कल्चर के रूप में
 
 
 
लेकर ही धर्मशिक्षा और कर्मशिक्षा का स्वीकार करना... अपना कर उसे अर्थहीन बना दिया है । ऐसे अनेक विषय हैं
 
 
 
चाहिये । यह बात केवल प्राथमिक शिक्षा के लिये नहीं है, जो व्यक्तिगत से लेकर राष्ट्रजीवन के लिये अनिवार्य हैं परन्तु
 
 
 
उच्चशिक्षा तक यही सिद्धान्त लागू है । सिखाये नहीं जाते । अत: पाठ्यक्रमों को बनाते समय हमें
 
 
 
वर्तमान पाठ्यक्रम बहुत अधिक पुस्तकीय हो गया... बहुत कुछ विचार में लेना होगा ।
 
 
 
है । वैसे तो पाठनपद्धति उसे अधिक पुस्तकीय बना देती है पाठ्यक्रम को अध्ययनक्रम के रूप में बदलना
 
 
 
तथापि हमारी परीक्षा पद्धति को देखते हुए यह बात भी . चाहिये | विद्यार्थी को स्वयं अध्ययन करना है और शिक्षक
 
 
 
सिद्ध होती है कि पाठ्यक्रम भी पुस्तकीय ही है। हमने. को उसमें सहायता करना है इस बात को ध्यान में रखकर
 
 
 
वाचन और लेखन को इतना अधिक महत्त्व दिया है कि... विद्यार्थी का स्तर देखकर पाठ्यक्रम बनाना चाहिये । अर्थात्‌
 
 
 
सारी शिक्षा साक्षरता का ही पर्याय बन गई है और साक्षरता. वह इस प्रकार से लचीला होना चाहिये कि हर विद्यार्थी उसे
 
 
 
लिखने, पढ़ने और बोलने में ही सीमित हो गई है । हम. अपनी आवश्यकता के अनुसार उपयोग में ले सके । यह
 
 
 
शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक रूप से आलसी और . सिद्धांत छोटी से लेकर बड़ी कक्षाओं में लागू होता है।
 
 
 
अकर्मण्य हो गए हैं और उसमें ही महत्ता मानते हैं । इसके. पाठ्यक्रम शिक्षक को पूर्ण नहीं करना है, विद्यार्थी को पूर्ण
 
 
 
इलाज के लिये हमें धर्मप्रधान और कर्मप्रधान पाठ्यक्रमों. करना है, वह भी अपनी गति से इस बात का ध्यान रखना
 
 
 
की आवश्यकता है । चाहिये ।
 
  
 
== पाठ्यक्रम में भारतीय विद्याओं को जोड़ना ==
 
== पाठ्यक्रम में भारतीय विद्याओं को जोड़ना ==
हर विषय का दूसरे विषय के साथ संबंध है यह
+
व्यक्ति को लायक बनाने के लिये अनेक भारतीय विद्यायें हैं जिन्हें आज हमने या तो भुला दिया है या उपेक्षित कर दिया है या उनका विकृतिकरण किया है। इन विषयों का प्रथम तो स्वरूप ठीक कर उन्हें पाठ्यक्रमों का अंग बनाना चाहिये । ये विषय हैं योग, आयुर्वेद, गृहशास्त्र, धर्मशास्त्र, उद्योग और संस्कृति। इन सबको व्यावहारिक और आवश्यकताओं के अनुरूप बनाना चाहिये यह निर्विवाद है | विकृतिकरण का जो मुद्दा है वह भी समझने जैसा है । योग का हमने स्वीकार तो किया हुआ है परन्तु उसे शारीरिक शिक्षा का अंग बना दिया है जबकी वह मनोविज्ञान का अंग होना चाहिये। वास्तव में योग ही भारतीय मनोविज्ञान है । आयुर्वेद को एलोपथी के मापदण्डों के अनुसार ढाल लिया है जबकि वह अध्यात्म शास्त्र और योग के साथ सुसंगत होना चाहिये | गृह शास्त्र को हमने व्यवसाय की तरह स्वीकार कर लिया है और घर को उपेक्षित कर दिया है। संस्कृति को कल्चर के रूप में अपना कर उसे अर्थहीन बना दिया है | ऐसे अनेक विषय हैं जो व्यक्तिगत से लेकर राष्ट्रजीवन के लिये अनिवार्य हैं परन्तु सिखाये नहीं जाते । अत: पाठ्यक्रमों को बनाते समय हमें बहुत कुछ विचार में लेना होगा । पाठ्यक्रम को अध्ययनक्रम के रूप में बदलना चाहिये । विद्यार्थी को स्वयं अध्ययन करना है और शिक्षक को उसमें सहायता करना है इस बात को ध्यान में रखकर विद्यार्थी का स्तर देखकर पाठ्यक्रम बनाना चाहिये । अर्थात्‌ वह इस प्रकार से लचीला होना चाहिये कि हर विद्यार्थी उसे अपनी आवश्यकता के अनुसार उपयोग में ले सके | यह सिद्धांत छोटी से लेकर बड़ी कक्षाओं में लागू होता है। पाठ्यक्रम शिक्षक को पूर्ण नहीं करना है, विद्यार्थी को पूर्ण करना है, वह भी अपनी गति से इस बात का ध्यान रखनाचाहिये । हर विषय का दूसरे विषय के साथ संबंध है यह समझकर और वे सभी अध्यात्मशास्त्र के अंग हैं यह समझकर पाठ्यक्रम बनने चाहिये यह प्रथम आवश्यकता है | हर विषय का सांस्कृतिक स्वरूप ध्यान में लेकर वे बनने चाहिए यह दूसरा मुद्दा है और हर विषय को आयु की अवस्था को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम में नियोजित करने चाहिये यह तीसरी आवश्यकता है ।
 
 
व्यक्ति को बनाने के लिये अनेक भारतीय... शिकर और वे सभी अध्यात्मशास्र के अंग हैं यह
 
 
 
) है जिन्हें लायक मना अनेक भारतीय समझकर पाठ्यक्रम बनने चाहिये यह प्रथम आवश्यकता
 
 
 
विद्यायें हैं जिन्हें आज हमने या तो भुला दिया है या
 
 
 
है। हर विषय का सांस्कृतिक स्वरूप ध्यान में लेकर वे
 
 
 
उपेक्षित कर दिया है या उनका विकृतिकरण किया है । इन बनने चाहिए यह दूसरा मुद्दा है और हर विषय को आयु की
 
 
 
विषयों का प्रथम तो स्वरूप ठीक कर उन्हें पाठ्यक्रमों का
 
 
 
कि अवस्था को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम में नियोजित करने
 
 
 
अंग बनाना चाहिये ।
 
 
 
5 चाहिये यह तीसरी आवश्यकता है ।
 
 
 
ये विषय हैं योग, आयुर्वेद, गृहशास्त्र, धर्मशास्त्र,
 
 
 
उद्योग और संस्कृति । इन सबको व्यावहारिक और
 
 
 
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पर्व ४ : शिक्षक, विद्यार्थी एवं अध्ययन
 
  
 
== पाठ्यक्रम पढ़ाना पाठ्यपुस्तक नहीं ==
 
== पाठ्यक्रम पढ़ाना पाठ्यपुस्तक नहीं ==
पाठ्यक्रम और पठनपाठन पद्धति का मेल होना
+
पाठ्यक्रम और पठनपाठन पद्धति का मेल होना चाहिये । हर विषय को सीखने के तरीके अलग अलग होते हैं । उदाहरण के लिये गणित गणन कर, संगीत गाकर, विज्ञान प्रयोग कर, इतिहास कहानी सुनकर सीखे जाते हैं । हम सारे विषय भाषा की पद्धति से ही पढ़ाते हैं और उसी प्रकार से उसकी परीक्षा भी लेते हैं । इसे बदलना चाहिये और यह बदल पाठ्यक्रम में दिखाई देना चाहिये ।
 
 
चाहिये । हर विषय को सीखने के तरीके अलग अलग होते
 
 
 
हैं । उदाहरण के लिये गणित गणन कर, संगीत गाकर,
 
 
 
विज्ञान प्रयोग कर, इतिहास कहानी सुनकर सीखे जाते हैं ।
 
 
 
हम सारे विषय भाषा की पद्धति से ही पढ़ाते हैं और उसी
 
 
 
प्रकार से उसकी परीक्षा भी लेते हैं । इसे बदलना चाहिये
 
 
 
और यह बदल पाठ्यक्रम में दिखाई देना चाहिये ।
 
 
 
art weft और माध्यमिक विद्यालयोंमें
 
 
 
पाठ्यक्रम लगभग सभी विद्यार्थियों को और अधिकांश
 
 
 
शिक्षकों को मालूम ही नहीं होता । वे पुस्तकें पढ़ाते और
 
 
 
पढ़ते हैं, पाठ्यक्रम नहीं । वास्तव में पाठ्यपुस्तकें
 
 
 
पाठ्यक्रम को सीखने के लिये अनेक में से एक साधन
 
 
 
होता है । उसके स्थान पर पुस्तकें ही पाठ्यक्रम का पर्याय
 
 
 
और परीक्षा का आलम्बन बन गईं हैं । विश्व में कहीं पर भी
 
 
 
यह सिद्धान्त मान्य नहीं है फिर भी हमने अधिकृत रूप से
 
 
 
पाठ्यपुस्तकों को ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बना दिया है ।
 
 
 
इसमें परिवर्तन कर पाठ्यक्रमों को पाठ्यपुस्तकों से मुक्त
 
 
 
करना चाहिये । पाठ्यपुस्तरकें जहां आवश्यक हैं वहीं उनकी
 
 
 
आवश्यकता माननी चाहिये, सर्वत्र नहीं । उन्हें एकमेव
 
 
 
साधन मानने से अथवा उन्हें ही साध्य मानने से बड़े अनर्थ
 
 
 
पैदा होते हैं ।
 
 
 
पाठ्यक्रम पूर्ण करने को ही लक्ष्य बनाना उचित नहीं
 
 
 
है। इसका अर्थ यह नहीं है कि बिना उसे पूर्ण किए ही
 
 
 
विद्यार्थी को उत्तीर्ण घोषित करना । उसे अपनी गति से पूर्ण
 
 
 
करने देना चाहिये । वह यह कार्य जल्दी कर सके इसके
 
 
 
लिये उसे सक्षम बनाना चाहिये परन्तु उसे कृत्रिम या
 
 
 
अनुचित पद्धति से पूर्ण करने को लक्ष्य नहीं बनाना
 
 
 
चाहिये । अर्थात इस विषय में शैक्षिक से भी अधिक
 
 
 
मनोवैज्ञानिक पहलुओं का ही विचार करना पड़ेगा । शिक्षा
 
 
 
का कार्य इतना अधिक विश्वास, श्रद्धा, प्रामाणिकता,
 
 
 
समर्पण, निष्ठा आदि तत्त्वों पर निर्भर है कि सिद्धांतों को मूर्त
 
 
 
करने के लिये या उन्हें निरर्थक बना देने के लिये हमारे पास
 
 
 
कोई बाह्य यंत्रणा होती नहीं है। शिक्षा का मामला
 
 
 
93
 
 
 
सर्वाधिक नैतिक मामला है ।
 
 
 
वास्तव में पाठ्यक्रम बनाना स्वयं अध्यापन कार्य
 
 
 
करने वाले शिक्षक का कार्य है। आज उसका
 
 
 
सार्वत्रिकीिकरण हो गया है और पढ़ाने वाले व्यक्ति और
 
  
पाठ्यक्रम बनाने वाले व्यक्ति या संस्थायें भिन्न और
+
आज प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में पाठ्यक्रम लगभग सभी विद्यार्थियों को और अधिकांश शिक्षकों को मालूम ही नहीं होता । वे पुस्तकें पढ़ाते और पढ़ते हैं, पाठ्यक्रम नहीं । वास्तव में पाठ्यपुस्तकें पाठ्यक्रम को सीखने के लिये अनेक में से एक साधन होता है । उसके स्थान पर पुस्तकें ही पाठ्यक्रम का पर्याय और परीक्षा का आलम्बन बन गईं हैं । विश्व में कहीं पर भी यह सिद्धान्त मान्य नहीं है तथापि हमने अधिकृत रूप से पाठ्यपुस्तकों को ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बना दिया है ।
  
एकदूसरे से अलग हो गईं हैं । इसका विपरीत परिणाम
+
इसमें परिवर्तन कर पाठ्यक्रमों को पाठ्यपुस्तकों से मुक्त करना चाहिये । पाठ्यपुस्तकें जहां आवश्यक हैं वहीं उनकी आवश्यकता माननी चाहिये, सर्वत्र नहीं । उन्हें एकमेव साधन मानने से अथवा उन्हें ही साध्य मानने से बड़े अनर्थ पैदा होते हैं ।
  
सर्वत्र दिखाई देता है । हमें ये दोनों संस्थायें एक कैसे हों
+
पाठ्यक्रम पूर्ण करने को ही लक्ष्य बनाना उचित नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं है कि बिना उसे पूर्ण किए ही विद्यार्थी को उत्तीर्ण घोषित करना । उसे अपनी गति से पूर्ण करने देना चाहिये । वह यह कार्य जल्दी कर सके इसके लिये उसे सक्षम बनाना चाहिये परन्तु उसे कृत्रिम या अनुचित पद्धति से पूर्ण करने को लक्ष्य नहीं बनाना चाहिये। अर्थात इस विषय में शैक्षिक से भी अधिक मनोवैज्ञानिक पहलुओं का ही विचार करना पड़ेगा । शिक्षा का कार्य इतना अधिक विश्वास, श्रद्धा, प्रामाणिकता, समर्पण, निष्ठा आदि तत्त्वों पर निर्भर है कि सिद्धांतों को मूर्त करने के लिये या उन्हें निरर्थक बना देने के लिये हमारे पास कोई बाह्य यंत्रणा होती नहीं है। शिक्षा का मामला सर्वाधिक नैतिक मामला है ।
  
यह देखना होगा ।
+
वास्तव में पाठ्यक्रम बनाना स्वयं अध्यापन कार्य करने वाले शिक्षक का कार्य है। आज उसका सार्वित्रिकीकरण हो गया है और पढ़ाने वाले व्यक्ति और पाठ्यक्रम बनाने वाले व्यक्ति या संस्थायें भिन्न और एक दूसरे से अलग हो गईं हैं । इसका विपरीत परिणाम सर्वत्र दिखाई देता है । हमें ये दोनों संस्थायें एक कैसे हों यह देखना होगा ।
  
 
== साधनसामग्री ==
 
== साधनसामग्री ==
साधनसामग्री के विषय में हमें कुछ इस प्रकार विचार
+
साधनसामग्री के विषय में हमें कुछ इस प्रकार विचार करना चाहिये:
 
+
* साधसामग्री के विषय में हमारा अविचार बहुत प्रबल हो गया है। हमें लगता है कि बिना सामग्री के अध्ययन हो ही नहीं सकता । अतः हम अधिकाधिक सामग्री इकट्ठी करने पर बल देते हैं। परन्तु इतनी अधिक सामग्री की आवश्यकता ही नहीं है । जिस प्रकार की सामग्री का हम प्रयोग करते हैं उस प्रकार की सामग्री की भी आवश्यकता नहीं है । अतः: सामग्री के बारे में हमें विवेकपूर्वक विचार करना चाहिये ।
करना चाहिये ...
+
* प्राथमिक विद्यालयों में जब अध्ययन की क्षमताओं का विकास करना ही लक्ष्य है तब ज्ञानार्जन के करणों का उपयोग ही न हो सके ऐसी सामग्री अध्ययन में बाधा निर्माण करती है । उदाहरण के लिये गणनयंत्र ( केल्क्युलेटर ), मिट्टी के खिलौने बनाने के लिये प्लेस्टिसिन, तैयार चित्र आदि की आवश्यकता नहीं है । इनसे क्रमश: गणनक्षमता, हाथ की क्षमता और कल्पनाशक्ति के लिये अवरोध निर्माण होता है ।  
 
+
* साधनसामग्री के आधिक्य से पढ़ने की मजदूरी ही बढ़ती है. और आकलनशक्ति, कल्पनाशक्ति, सृजनशक्ति आदि के लिये अवसर ही नहीं मिलता है । उदाहरण के लिये बच्चोंं को कहानी बताने के लिये एक भी साधन नहीं होने से लेकर चलनचित्र तक की विभिन्न प्रकार की सामग्री का प्रयोग हो सकता है। इनमें सब में अधिक परिणामकारी केवल मुंह से अभिनय के साथ कहानी बताना होता है जबकि चलनचित्र से कहानी बताना सबसे कम । हमारे मन में चित्र उल्टा ही बैठा हुआ होता है और हम चलनचित्र को अधिक महत्त्व देते हैं । बड़ी कक्षाओं में पावर पॉइंट प्रेजेंटेशन का प्रयोग हम प्रतिष्ठित मानते हैं परन्तु वक्ता श्रोता दोनों की एकाग्रता, आकलन और कुल मिलाकर बुद्धि की ग्रहणशीलता कम होती है । बहुत अधिक लिखित सामग्री के कारण स्मृति पर तो परिणाम हुआ ही है । हम हर वक्तव्य का ध्वनिमुद्रण कर लेते हैं और हमारी एकाग्रता, स्मृति और तत्परता तीनों कम होते हैं । मोबाइल के कारण स्मृति कितनी क्षीण हुई है इसका हम सब अनुभव कर ही रहे हैं । संक्षेप में ज्ञानार्जन के करणों का स्थान लेने वाली हर सामग्री ज्ञानार्जन में अवरोध ही है ।
साधसामग्री के विषय में हमारा अविचार बहुत प्रबल
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* इसके विपरीत विज्ञान जैसे विषय में प्रयोग होता ही नहीं है । बहुत सारी बातें बोलकर ही सिखाई जाती हैं।
 
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* विषय के अनुरूप सामग्री चाहिये यह भी सार्वत्रिक रूप से समझ में आने वाली बात है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि शिक्षक अपनी कल्पना से किसी भी प्रकार की सामग्री का उपयोग कर सकता है । जब ऐसा होता है तब वह सही अर्थ में उपयोगी होती है । अन्यथा कर्मकाण्ड ही होता है ।
हो गया है। हमें लगता है कि बिना सामग्री के
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* साधनसामग्री से विद्यालय और घर को भर देना शिक्षा को अच्छी और परिणामकारी नहीं बनाता है, उल्टे अध्ययन की प्रक्रिया को कुंठित करता है इस बात को अधिकाधिक प्रचारित करने की आवश्यकता है ।
 
 
अध्ययन हो ही. नहीं सकता । इसलिए हम
 
 
 
अधिकाधिक सामग्री इकट्ठी करने पर बल देते हैं।
 
 
 
परन्तु इतनी अधिक सामग्री की आवश्यकता ही नहीं
 
 
 
है । जिस प्रकार की सामग्री का हम प्रयोग करते हैं
 
 
 
उस प्रकार की सामग्री की भी आवश्यकता नहीं है ।
 
 
 
अतः: सामग्री के बारे में हमें विवेकपूर्वक विचार
 
 
 
करना चाहिये ।
 
 
 
प्राथमिक विद्यालयों में जब अध्ययन की क्षमताओं
 
 
 
का विकास करना ही लक्ष्य है तब ज्ञानार्जन के
 
 
 
करणों का उपयोग ही न हो सके ऐसी सामग्री
 
 
 
अध्ययन में बाधा निर्माण करती है । उदाहरण के
 
 
 
लिये गणनयंत्र ( केल्क्युलेटर ), मिट्टी के खिलौने
 
 
 
बनाने के लिये प्लेस्टिसिन, तैयार चित्र आदि की
 
 
 
आवश्यकता नहीं है । इनसे क्रमश: गणनक्षमता, हाथ
 
 
 
की क्षमता और कल्पनाशक्ति के लिये अवरोध
 
 
 
निर्माण होता है ।
 
 
 
साधनसामग्री के आधिक्य से पढ़ने की मजदूरी ही
 
 
 
बढ़ती है. और आकलनशक्ति, कल्पनाशक्ति,
 
 
 
सृजनशक्ति आदि के लिये अवसर ही नहीं मिलता
 
 
 
है । उदाहरण के लिये बच्चों को कहानी बताने के
 
 
 
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लिये एक भी साधन नहीं होने से लेकर
 
 
 
चलनचित्र तक की विभिन्न प्रकार की सामग्री का
 
 
 
प्रयोग हो सकता है। इनमें सब में अधिक
 
 
 
परिणामकारी केवल मुंह से अभिनय के साथ कहानी
 
 
 
बताना होता है जबकि चलनचित्र से कहानी बताना
 
 
 
सबसे कम । हमारे मन में चित्र उल्टा ही बैठा हुआ
 
 
 
होता है और हम चलनचित्र को अधिक महत्त्व देते
 
 
 
हैं । बड़ी कक्षाओं में पावर पॉइंट प्रेजेंटेशन का प्रयोग
 
 
 
हम प्रतिष्ठित मानते हैं परन्तु वक्ता श्रोता दोनों की
 
 
 
एकाग्रता, आकलन और कुल मिलाकर बुद्धि की
 
 
 
ग्रहणशीलता कम होती है । बहुत अधिक लिखित
 
 
 
सामग्री के कारण स्मृति पर तो परिणाम हुआ ही है ।
 
 
 
हम हर वक्तव्य का ध्वनिमुद्रण कर लेते हैं और हमारी
 
 
 
एकाग्रता, स्मृति और तत्परता तीनों कम होते हैं ।
 
 
 
मोबाइल के कारण स्मृति कितनी क्षीण हुई है इसका
 
 
 
हम सब अनुभव कर ही रहे हैं । संक्षेप में ज्ञानार्जन
 
 
 
के करणों का स्थान लेने वाली हर सामग्री ज्ञानार्जन
 
 
 
में अवरोध ही है ।
 
 
 
इसके विपरीत विज्ञान जैसे विषय में प्रयोग होता ही
 
 
 
नहीं है । बहुत सारी बातें बोलकर ही सिखाई जाती
 
 
 
हैं।
 
 
 
विषय के अनुरूप सामग्री चाहिये यह भी सार्वत्रिक
 
 
 
रूप से समझ में आने वाली बात है। सब्से
 
 
 
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि शिक्षक अपनी कल्पना से
 
 
 
किसी भी प्रकार की सामग्री का उपयोग कर सकता
 
 
 
है । जब ऐसा होता है तब वह सही अर्थ में उपयोगी
 
 
 
होती है । अन्यथा कर्मकाण्ड ही होता है ।
 
 
 
साधनसामग्री से विद्यालय और घर को भरदेना शिक्षा
 
 
 
को अच्छी और परिणामकारी नहीं बनाता है,
 
 
 
उल्टे अध्ययन की प्रक्रिया को कुंठित करता है
 
 
 
इस बात को अधिकाधिक प्रचारित करने की
 
 
 
आवश्यकता है ।
 
 
 
श्9्ढ
 
 
 
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
 
  
 
== व्यवस्था ==
 
== व्यवस्था ==
हम विद्यालय की भौतिक व्यवस्थाओं की बात नहीं
+
हम विद्यालय की भौतिक व्यवस्थाओं की बात नहीं कर रहे हैं । उनकी भी चर्चा करना आवश्यक है ही । उनके बारे में भी बहुत अलग प्रकार से विचार करने की आवश्यकता है । तथापि हम यहाँ शैक्षिक व्यवस्था की ही बात कर रहे हैं ।
 
 
कर रहे हैं । उनकी भी चर्चा करना आवश्यक है ही । उनके
 
 
 
बारे में भी बहुत अलग प्रकार से विचार करने की
 
 
 
आवश्यकता है । तथापि हम यहाँ शैक्षिक व्यवस्था कि ही
 
 
 
बात कर रहे हैं ।
 
 
 
विचार करने लायक कुछ बिंदु इस प्रकार हैं ...
 
 
 
०... सबसे पहली है बैठकव्यवस्था । सभी शास्त्र कहते हैं
 
 
 
कि बैठने के लिये मेजकुरसी और बेच और डेस्क
 
 
 
उचित व्यवस्था नहीं है । वह शरीर, मन, बुद्धि के
 
 
 
लिये अनुकूल नहीं है । जिस व्यवस्था में शरीर का
 
 
 
नीचे का हिस्सा बन्द करके नहीं रखा जाता वहाँ
 
 
 
शरीर बिना कारण के थकता है, मन सरलता से
 
 
 
एकाग्र नहीं हो पाता और बुद्धि को ऊर्जा कम पड़ती
 
 
 
है। इसलिए बैठक व्यवस्था का ध्यान रखना
 
 
 
आवश्यक है । खड़े खड़े पढ़ाने की स्थिति भी ठीक
 
 
 
नहीं है ।
 
 
 
०... जूते पहनकर अध्ययन अध्यापन करना पवित्रता की
 
 
 
भारतीय भावना से विपरीत ही है ।
 
 
 
०... दिन में दोपहर का समय अध्ययन अध्यापन के लिये
 
 
 
प्रतिकूल है ।
 
 
 
e तीस, पैंतीस या चालीस मिनट का कालांश और
 
 
 
सभी विषयों के लिये समान अवधि भी यांत्रिक
 
 
 
व्यवस्था का ही एक नमूना है और अध्ययन प्रक्रिया
 
 
 
के लिये अवरोधरूप ही है ।
 
 
 
इन सभी विषयों की विस्तार से चर्चा “भारतीय शिक्षा
 
 
 
के व्यावहारिक आयाम' ग्रंथ में की गई है इसलिए यहाँ इन
 
 
 
बातों का उल्लेख मात्र किया है ।जैसे जैसे हम व्यावहारिक
 
 
 
बातों की ओर बढ़ते हैं परिस्थिति के अनुकूल सबकुछ
 
 
 
करना होता है । केवल सिद्धान्त से काम नहीं चलता ।
 
 
 
परन्तु सिद्धान्त को छोड़ने या उससे समझौता करने को
 
  
व्यवहार नहीं कहते इतना ध्यान रखने की आवश्यकता है ।
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विचार करने लायक कुछ बिंदु इस प्रकार हैं:
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* सबसे पहली है बैठकव्यवस्था । सभी शास्त्र कहते हैं कि बैठने के लिये मेजकुरसी और बेच और डेस्क उचित व्यवस्था नहीं है । वह शरीर, मन, बुद्धि के लिये अनुकूल नहीं है । जिस व्यवस्था में शरीर का नीचे का हिस्सा बन्द करके नहीं रखा जाता वहाँ शरीर बिना कारण के थकता है, मन सरलता से एकाग्र नहीं हो पाता और बुद्धि को ऊर्जा कम पड़ती है। अतः बैठक व्यवस्था का ध्यान रखना आवश्यक है । खड़े खड़े पढ़ाने की स्थिति भी ठीक नहीं है ।
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* जूते पहनकर अध्ययन अध्यापन करना पवित्रता की भारतीय भावना से विपरीत ही है ।
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* दिन में दोपहर का समय अध्ययन अध्यापन के लिये प्रतिकूल है ।
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* तीस, पैंतीस या चालीस मिनट का कालांश और सभी विषयों के लिये समान अवधि भी यांत्रिक व्यवस्था का ही एक नमूना है और अध्ययन प्रक्रिया के लिये अवरोधरूप ही है । इन सभी विषयों की विस्तार से चर्चा “भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम' ग्रंथ में की गई है अतः यहाँ इन बातों का उल्लेख मात्र किया है ।जैसे जैसे हम व्यावहारिक बातों की ओर बढ़ते हैं परिस्थिति के अनुकूल सबकुछ करना होता है । केवल सिद्धान्त से काम नहीं चलता । परन्तु सिद्धान्त को छोड़ने या उससे समझौता करने को व्यवहार नहीं कहते इतना ध्यान रखने की आवश्यकता है ।
  
 
==References==
 
==References==

Latest revision as of 21:47, 23 June 2021

यांत्रिकता एक रूपता है

वर्तमान शैक्षिक ढांचे का मुख्य लक्षण है यांत्रिकता [1]। विद्यालय भवन में और कक्षाकक्ष में हमें यह लक्षण दिखाई देता है । यांत्रिकता प्रकट होती है एकरूपता में । कुछ बिंदु स्पष्ट रूप से हम गिन सकते हैं:

  • समान आयु के विद्यार्थियों के लिए समान पाठ्यक्रम
  • सभी विद्यार्थियों के लिए एक ही पाठ्यक्रम
  • समान पाठ्यक्रम के लिये सबके लिये समान अवधि
  • सभी विषयों के लिये परीक्षा का समान स्वरूप
  • सभी विषयों में उत्तीर्ण होने का समान मापदण्ड
  • उत्तीर्ण होने के लिये सभी विद्यार्थियों के लिये एक ही लक्ष्य
  • प्रवेश के लिये, पढ़ने के लिये, उत्तीर्ण होने के लिये एक ही आयुसीमा

ऐसे और भी आयाम बताये जा सकते हैं परन्तु इतने भी समझने के लिये पर्याप्त है। यांत्रिकता को हमने समानता का नाम देकर उलझा दिया है। एकरूपता को समान मानने की मानसिकता इतनी गहरा गई है कि अब व्यक्ति के हिसाब से कुछ अन्तर करने का प्रयास होता है तो अनेक प्रकार के प्रश्न और विरोध निर्माण हो जाते हैं।

अब हमें यह समझना और समझाना होगा कि एकरूपता यंत्रों के लिये होती है, जीवित मनुष्यों के लिये नहीं। मनुष्यों की रुचि, स्वभाव, क्षमतायें, गति, आवश्यकतायें सब अपनी अपनी और एकदूसरे से अलग होती हैं। समानता और एकरूपता का मुद्दा ही सुलझाना होगा। मनुष्य का विश्व आन्तरिक समानता से चलता है । जो जैसा है वैसा है। विश्व में एक जैसे कोई भी दो पदार्थ होते नहीं हैं। सब अपनी अपनी गति से, अपनी अपनी पद्धति से, अपनी अपनी रुचि से चलें यही स्वाभाविक विकास का क्रम है। जहां एकरूपता होनी चाहिये वहाँ एकरूपता का और जहां नहीं होनी चाहिये वहाँ उसका आग्रह नहीं रखना ही आवश्यक है । एकरूपता नहीं, समानता के सूत्र पर ही पाठ्यक्रम, पठनसामग्री, समयसारिणी, व्यवस्था आदि का नियोजन करना चाहिये।

पाठ्यक्रम

एक बालक को क्या पढ़ाना है उसका निर्धारण उसकी पात्रता के आधार पर होता है। उसकी पात्रता निर्धारित करने के अनेक तरीके हैं । आज तो ये तरीके बहुत यांत्रिक स्वरूप के हैं यथा उसकी आयु कितनी है, और पूर्व परीक्षा में उसे कितने अंक मिले हैं। परन्तु पात्रता निश्चित करने के शास्त्रीय और व्यावहारिक तरीके अपनाने चाहिये । इसकी चर्चा पूर्व के अध्याय में की ही गई है। हमें उसके अनुरूप व्यवस्थायें करनी होंगी। पात्रता निश्चित करने के मापदण्ड शास्त्रों के आधार पर प्रथम बनाने होंगे।

जिस प्रकार रोग का निदान करने के लिये चिकित्सक होते हैं, जिस प्रकार किसके लिये कौन सा आहार उचित है यह निश्चित करने के लिये वैद्य होते हैं, जिस प्रकार किसके लिये कौनसे नाप का कपड़ा चाहिये यह निश्चित करने के लिये दर्जी होता है, किसके लिये कौन से नाप के जूते चाहिये यह निश्चित करने के लिये मोची होता है उसी प्रकार किसके लिये कौन सी शिक्षा आवश्यक है यह निश्चित करने के लिये शिक्षक होता है। पात्रता निश्चित करने के सिद्धान्त अनेक शास्त्रके आधार पर मनोविज्ञान के प्राध्यापक निश्चित कर सकते हैं और उन्हें लागू करने का काम शिक्षक कर सकता है। शक्षकों के प्रशिक्षण का यह एक अनिवार्य मुद्दा होना चाहिये।

पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्त

पाठ्यक्रम हमारे उद्देश्य के अनुरूप होना चाहिये यह तो सार्वत्रिक सिद्धान्त है और विश्व में मान्य है । परन्तु जिस देश के विद्यार्थियों के लिये वह बनने वाला है उस देश की जीवनदृष्टि और राष्ट्रीय आवश्यकताओं की पूर्ति का आधार लेना चाहिये यह भी सार्वत्रिक सिद्धान्त है । आज भारत के सन्दर्भ में इस बात का विशेष रूप से उल्लेख करना पड़ता है क्योंकि हम वैश्विकता के मोह में भारतीयता को भुलाकर ही चलते हैं । अत: प्रथम सिद्धान्त है जीवनदृष्टि के आधार पर पाठ्यक्रम निर्धारित होना ।

दूसरा मुद्दा यह है कि पाठ्यक्रम व्यक्ति के लिये होता है परन्तु व्यक्ति को समाज, सृष्टि और देश के लिये लायक और जिम्मेदार नागरिक बनाने के लिये होता है । आज हम व्यक्ति के विकास को लक्ष्य बनाकर चल रहे हैं । व्यक्ति का विकास यह प्राथमिक और व्यावहारिक लक्ष्य है परन्तु व्यक्ति के विकास को राष्ट्रीय आलंबन होना अनिवार्य है ।यह भी भारतीय जीवनदृष्टि का एक अनिवार्य हिस्सा है । पाठ्यक्रम में धर्मशिक्षा और कर्मशिक्षा को अनिवार्य रूप से स्थान देना चाहिये । भारत में हम जनसंख्या को उल्टी दृष्टि से देखते हैं । जनसंख्या हमें एक समस्या लगती है जबकि वह हमारे लिये मूल्यवान सम्पत्ति है । इसे समस्या मानना भी पश्चिम के प्रभाव से हमने आरम्भ किया है । वहाँ वह समस्या हो सकती है, हमारे लिये नहीं । हमें यंत्रों की आवश्यकता ही नहीं है क्‍योंकि प्रकृतिदत्त यंत्र मनुष्यशरीर के रूप में हमारे पास है ही । मानवशरीर को यंत्र कहना उसका अपमान नहीं है। शरीर तो यंत्र है ही । शरीर के स्थान पर निर्जीव सामग्री से बने यंत्र का प्रयोग करना इस जिंदा शरीर का अपमान है। इस शरीर रूपी यंत्र को सक्षम बनाना और उसके आधार पर उत्पादन क्षमता बढ़ाना हमारी प्रथम राष्ट्रीय आवश्यकता है। शरीर के साथ ही मनुष्य का मन प्रथम से ही ठीक करना चाहिये । तभी वह अपने दायित्वों को निभाने के लिये तत्पर भी होगा और सक्षम भी होगा । इन दो बिन्दुओं को लेकर ही धर्मशिक्षा और कर्मशिक्षा का स्वीकार करना चाहिये । यह बात केवल प्राथमिक शिक्षा के लिये नहीं है, उच्चशिक्षा तक यही सिद्धान्त लागू है।

वर्तमान पाठ्यक्रम बहुत अधिक पुस्तकीय हो गया है। वैसे तो पाठनपद्धति उसे अधिक पुस्तकीय बना देती है तथापि हमारी परीक्षा पद्धति को देखते हुए यह बात भी सिद्ध होती है कि पाठ्यक्रम भी पुस्तकीय ही है। हमने वाचन और लेखन को इतना अधिक महत्त्व दिया है कि सारी शिक्षा साक्षरता का ही पर्याय बन गई है और साक्षरता लिखने, पढ़ने और बोलने में ही सीमित हो गई है। हम शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक रूप से आलसी और अकर्मण्य हो गए हैं और उसमें ही महत्ता मानते हैं। इसके इलाज के लिये हमें धर्मप्रधान और कर्मप्रधान पाठ्यक्रमों की आवश्यकता है।

पाठ्यक्रम में भारतीय विद्याओं को जोड़ना

व्यक्ति को लायक बनाने के लिये अनेक भारतीय विद्यायें हैं जिन्हें आज हमने या तो भुला दिया है या उपेक्षित कर दिया है या उनका विकृतिकरण किया है। इन विषयों का प्रथम तो स्वरूप ठीक कर उन्हें पाठ्यक्रमों का अंग बनाना चाहिये । ये विषय हैं योग, आयुर्वेद, गृहशास्त्र, धर्मशास्त्र, उद्योग और संस्कृति। इन सबको व्यावहारिक और आवश्यकताओं के अनुरूप बनाना चाहिये यह निर्विवाद है | विकृतिकरण का जो मुद्दा है वह भी समझने जैसा है । योग का हमने स्वीकार तो किया हुआ है परन्तु उसे शारीरिक शिक्षा का अंग बना दिया है जबकी वह मनोविज्ञान का अंग होना चाहिये। वास्तव में योग ही भारतीय मनोविज्ञान है । आयुर्वेद को एलोपथी के मापदण्डों के अनुसार ढाल लिया है जबकि वह अध्यात्म शास्त्र और योग के साथ सुसंगत होना चाहिये | गृह शास्त्र को हमने व्यवसाय की तरह स्वीकार कर लिया है और घर को उपेक्षित कर दिया है। संस्कृति को कल्चर के रूप में अपना कर उसे अर्थहीन बना दिया है | ऐसे अनेक विषय हैं जो व्यक्तिगत से लेकर राष्ट्रजीवन के लिये अनिवार्य हैं परन्तु सिखाये नहीं जाते । अत: पाठ्यक्रमों को बनाते समय हमें बहुत कुछ विचार में लेना होगा । पाठ्यक्रम को अध्ययनक्रम के रूप में बदलना चाहिये । विद्यार्थी को स्वयं अध्ययन करना है और शिक्षक को उसमें सहायता करना है इस बात को ध्यान में रखकर विद्यार्थी का स्तर देखकर पाठ्यक्रम बनाना चाहिये । अर्थात्‌ वह इस प्रकार से लचीला होना चाहिये कि हर विद्यार्थी उसे अपनी आवश्यकता के अनुसार उपयोग में ले सके | यह सिद्धांत छोटी से लेकर बड़ी कक्षाओं में लागू होता है। पाठ्यक्रम शिक्षक को पूर्ण नहीं करना है, विद्यार्थी को पूर्ण करना है, वह भी अपनी गति से इस बात का ध्यान रखनाचाहिये । हर विषय का दूसरे विषय के साथ संबंध है यह समझकर और वे सभी अध्यात्मशास्त्र के अंग हैं यह समझकर पाठ्यक्रम बनने चाहिये यह प्रथम आवश्यकता है | हर विषय का सांस्कृतिक स्वरूप ध्यान में लेकर वे बनने चाहिए यह दूसरा मुद्दा है और हर विषय को आयु की अवस्था को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम में नियोजित करने चाहिये यह तीसरी आवश्यकता है ।

पाठ्यक्रम पढ़ाना पाठ्यपुस्तक नहीं

पाठ्यक्रम और पठनपाठन पद्धति का मेल होना चाहिये । हर विषय को सीखने के तरीके अलग अलग होते हैं । उदाहरण के लिये गणित गणन कर, संगीत गाकर, विज्ञान प्रयोग कर, इतिहास कहानी सुनकर सीखे जाते हैं । हम सारे विषय भाषा की पद्धति से ही पढ़ाते हैं और उसी प्रकार से उसकी परीक्षा भी लेते हैं । इसे बदलना चाहिये और यह बदल पाठ्यक्रम में दिखाई देना चाहिये ।

आज प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में पाठ्यक्रम लगभग सभी विद्यार्थियों को और अधिकांश शिक्षकों को मालूम ही नहीं होता । वे पुस्तकें पढ़ाते और पढ़ते हैं, पाठ्यक्रम नहीं । वास्तव में पाठ्यपुस्तकें पाठ्यक्रम को सीखने के लिये अनेक में से एक साधन होता है । उसके स्थान पर पुस्तकें ही पाठ्यक्रम का पर्याय और परीक्षा का आलम्बन बन गईं हैं । विश्व में कहीं पर भी यह सिद्धान्त मान्य नहीं है तथापि हमने अधिकृत रूप से पाठ्यपुस्तकों को ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बना दिया है ।

इसमें परिवर्तन कर पाठ्यक्रमों को पाठ्यपुस्तकों से मुक्त करना चाहिये । पाठ्यपुस्तकें जहां आवश्यक हैं वहीं उनकी आवश्यकता माननी चाहिये, सर्वत्र नहीं । उन्हें एकमेव साधन मानने से अथवा उन्हें ही साध्य मानने से बड़े अनर्थ पैदा होते हैं ।

पाठ्यक्रम पूर्ण करने को ही लक्ष्य बनाना उचित नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं है कि बिना उसे पूर्ण किए ही विद्यार्थी को उत्तीर्ण घोषित करना । उसे अपनी गति से पूर्ण करने देना चाहिये । वह यह कार्य जल्दी कर सके इसके लिये उसे सक्षम बनाना चाहिये परन्तु उसे कृत्रिम या अनुचित पद्धति से पूर्ण करने को लक्ष्य नहीं बनाना चाहिये। अर्थात इस विषय में शैक्षिक से भी अधिक मनोवैज्ञानिक पहलुओं का ही विचार करना पड़ेगा । शिक्षा का कार्य इतना अधिक विश्वास, श्रद्धा, प्रामाणिकता, समर्पण, निष्ठा आदि तत्त्वों पर निर्भर है कि सिद्धांतों को मूर्त करने के लिये या उन्हें निरर्थक बना देने के लिये हमारे पास कोई बाह्य यंत्रणा होती नहीं है। शिक्षा का मामला सर्वाधिक नैतिक मामला है ।

वास्तव में पाठ्यक्रम बनाना स्वयं अध्यापन कार्य करने वाले शिक्षक का कार्य है। आज उसका सार्वित्रिकीकरण हो गया है और पढ़ाने वाले व्यक्ति और पाठ्यक्रम बनाने वाले व्यक्ति या संस्थायें भिन्न और एक दूसरे से अलग हो गईं हैं । इसका विपरीत परिणाम सर्वत्र दिखाई देता है । हमें ये दोनों संस्थायें एक कैसे हों यह देखना होगा ।

साधनसामग्री

साधनसामग्री के विषय में हमें कुछ इस प्रकार विचार करना चाहिये:

  • साधसामग्री के विषय में हमारा अविचार बहुत प्रबल हो गया है। हमें लगता है कि बिना सामग्री के अध्ययन हो ही नहीं सकता । अतः हम अधिकाधिक सामग्री इकट्ठी करने पर बल देते हैं। परन्तु इतनी अधिक सामग्री की आवश्यकता ही नहीं है । जिस प्रकार की सामग्री का हम प्रयोग करते हैं उस प्रकार की सामग्री की भी आवश्यकता नहीं है । अतः: सामग्री के बारे में हमें विवेकपूर्वक विचार करना चाहिये ।
  • प्राथमिक विद्यालयों में जब अध्ययन की क्षमताओं का विकास करना ही लक्ष्य है तब ज्ञानार्जन के करणों का उपयोग ही न हो सके ऐसी सामग्री अध्ययन में बाधा निर्माण करती है । उदाहरण के लिये गणनयंत्र ( केल्क्युलेटर ), मिट्टी के खिलौने बनाने के लिये प्लेस्टिसिन, तैयार चित्र आदि की आवश्यकता नहीं है । इनसे क्रमश: गणनक्षमता, हाथ की क्षमता और कल्पनाशक्ति के लिये अवरोध निर्माण होता है ।
  • साधनसामग्री के आधिक्य से पढ़ने की मजदूरी ही बढ़ती है. और आकलनशक्ति, कल्पनाशक्ति, सृजनशक्ति आदि के लिये अवसर ही नहीं मिलता है । उदाहरण के लिये बच्चोंं को कहानी बताने के लिये एक भी साधन नहीं होने से लेकर चलनचित्र तक की विभिन्न प्रकार की सामग्री का प्रयोग हो सकता है। इनमें सब में अधिक परिणामकारी केवल मुंह से अभिनय के साथ कहानी बताना होता है जबकि चलनचित्र से कहानी बताना सबसे कम । हमारे मन में चित्र उल्टा ही बैठा हुआ होता है और हम चलनचित्र को अधिक महत्त्व देते हैं । बड़ी कक्षाओं में पावर पॉइंट प्रेजेंटेशन का प्रयोग हम प्रतिष्ठित मानते हैं परन्तु वक्ता श्रोता दोनों की एकाग्रता, आकलन और कुल मिलाकर बुद्धि की ग्रहणशीलता कम होती है । बहुत अधिक लिखित सामग्री के कारण स्मृति पर तो परिणाम हुआ ही है । हम हर वक्तव्य का ध्वनिमुद्रण कर लेते हैं और हमारी एकाग्रता, स्मृति और तत्परता तीनों कम होते हैं । मोबाइल के कारण स्मृति कितनी क्षीण हुई है इसका हम सब अनुभव कर ही रहे हैं । संक्षेप में ज्ञानार्जन के करणों का स्थान लेने वाली हर सामग्री ज्ञानार्जन में अवरोध ही है ।
  • इसके विपरीत विज्ञान जैसे विषय में प्रयोग होता ही नहीं है । बहुत सारी बातें बोलकर ही सिखाई जाती हैं।
  • विषय के अनुरूप सामग्री चाहिये यह भी सार्वत्रिक रूप से समझ में आने वाली बात है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि शिक्षक अपनी कल्पना से किसी भी प्रकार की सामग्री का उपयोग कर सकता है । जब ऐसा होता है तब वह सही अर्थ में उपयोगी होती है । अन्यथा कर्मकाण्ड ही होता है ।
  • साधनसामग्री से विद्यालय और घर को भर देना शिक्षा को अच्छी और परिणामकारी नहीं बनाता है, उल्टे अध्ययन की प्रक्रिया को कुंठित करता है इस बात को अधिकाधिक प्रचारित करने की आवश्यकता है ।

व्यवस्था

हम विद्यालय की भौतिक व्यवस्थाओं की बात नहीं कर रहे हैं । उनकी भी चर्चा करना आवश्यक है ही । उनके बारे में भी बहुत अलग प्रकार से विचार करने की आवश्यकता है । तथापि हम यहाँ शैक्षिक व्यवस्था की ही बात कर रहे हैं ।

विचार करने लायक कुछ बिंदु इस प्रकार हैं:

  • सबसे पहली है बैठकव्यवस्था । सभी शास्त्र कहते हैं कि बैठने के लिये मेजकुरसी और बेच और डेस्क उचित व्यवस्था नहीं है । वह शरीर, मन, बुद्धि के लिये अनुकूल नहीं है । जिस व्यवस्था में शरीर का नीचे का हिस्सा बन्द करके नहीं रखा जाता वहाँ शरीर बिना कारण के थकता है, मन सरलता से एकाग्र नहीं हो पाता और बुद्धि को ऊर्जा कम पड़ती है। अतः बैठक व्यवस्था का ध्यान रखना आवश्यक है । खड़े खड़े पढ़ाने की स्थिति भी ठीक नहीं है ।
  • जूते पहनकर अध्ययन अध्यापन करना पवित्रता की भारतीय भावना से विपरीत ही है ।
  • दिन में दोपहर का समय अध्ययन अध्यापन के लिये प्रतिकूल है ।
  • तीस, पैंतीस या चालीस मिनट का कालांश और सभी विषयों के लिये समान अवधि भी यांत्रिक व्यवस्था का ही एक नमूना है और अध्ययन प्रक्रिया के लिये अवरोधरूप ही है । इन सभी विषयों की विस्तार से चर्चा “भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम' ग्रंथ में की गई है अतः यहाँ इन बातों का उल्लेख मात्र किया है ।जैसे जैसे हम व्यावहारिक बातों की ओर बढ़ते हैं परिस्थिति के अनुकूल सबकुछ करना होता है । केवल सिद्धान्त से काम नहीं चलता । परन्तु सिद्धान्त को छोड़ने या उससे समझौता करने को व्यवहार नहीं कहते इतना ध्यान रखने की आवश्यकता है ।

References

  1. धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ४, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे