Difference between revisions of "पर्व 1: उपोद्धात्‌ - प्रस्तावना"

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Revision as of 22:28, 4 March 2020

इस ग्रन्थमाला में बार बार प्रतिपादन किया गया है कि शिक्षा धर्म सिखाती है । ऐसा भी सहज समझ में आता है कि शिक्षा व्यक्ति के और समाज को गढने का महत्त्वपूर्ण साधन है । शिक्षा ज्ञान और संस्कार की परम्परा बनने का एकमेव साधन है । परन्तु ऐसा करने के लिये शिक्षा को राष्ट्र की जीवनदृष्टि के साथ समरस होना होता है।

इस चार पंक्तियों में लिखी गई एक से अधिक संज्ञाओं के अर्थ ही आज विपरीत बन गये हैं और विवाद के विषय बन गये हैं । उदाहरण के लिये “धर्म' संज्ञा को ही ले सकते हैं । आज यहाँ अज्ञान से और कहीं जानबूझकर धर्म को लेकर विवाद किया जाता है और अशान्ति फैलाई जाती है । ऐसी ही दूसरी संज्ञा है जीवनदृष्टि । वैश्विकता के नाम पर राष्ट्र और राष्ट्र की जीवनदृष्टि दोनों की अपेक्षा होती है । यह जानने के उपरान्त नहीं होता, अज्ञानवश ही होता है।

भारतीय शिक्षा के विषय में निरूपण शुरू करने से पूर्व हमें ऐसी कतिपय संज्ञाओं के विषय में स्पष्ट होना होगा । साथ ही सहस्राब्दियों से भारत के समाजजीवन के जो मूल आधार रहे हैं ऐसे वर्ण, आश्रम, पुरुषार्थ आदि की भी चर्चा करनी होगी । समाजजीवन की इन आधारभूत व्यवस्थों का पुनर्विचार और पुर्रचना भी करनी होगी ।

समग्र ग्रंथमाला के विषय निरूपण की यह एक अर्थ में पूर्वपीठिका है । हमारी शब्दावली को समझने का यह प्रयास है । इसमें शिक्षासूत्र दिये गये हैं जो वास्तव में सम्पूर्ण ग्रन्थ का सार है जिसका आकलन ग्रन्थ पूर्ण होने पर हुआ है परन्तु प्रारम्भ में ही दिया जा रहा है ।

References