Difference between revisions of "पर्व ३ : संकटों का विश्लेषण"

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वर्तमान अमेरिकी सभ्यता पाँचसौ वर्ष पुरानी है । वर्तमान यूरोपीय सभ्यता दो हजार वर्ष पुरानी है । परन्तु विश्व की सभ्यता का इतिहास दो हजार से कई गुना अधिक पुराना है । दो हजार वर्ष से पूर्व के और बाद के समाज में अन्तर क्या है यह समझने से वर्तमान संकटों के मूल में जाना सरल होगा । यह अन्तर है सेमेटिक रिलिजस विश्वदृष्टि और जीवनदृष्टि का । इसाइयत के प्रादुर्भाव से पूर्व विश्व की प्रजायें प्रकृति को देव मानती थीं, सबको एक मानती थीं । जिन्हें आज पैगन कहा जाता है ऐसी इस इसाइयत पूर्व प्रजाओं की जीवनशैली और विविध धार्मिक आचार इस बात को स्पष्ट करते हैं परन्तु इसाइयत के जन्म के बाद द्वैत निर्माण हुआ, अपना - पराया की वृत्ति पनपी, श्रेष्ठता और कनिष्ठता का सार्वत्रिक सर्वकालीन संघर्ष शुरू हुआ । इस्लाम के उदय के बाद यह द्वैत और भी बलवान हुआ, अधिक हिंसक हुआ, आज जीवन के हर क्षेत्र में संघर्ष, हिंसा परायापन उसके आधार पर बनने वाली शोषण, लूट, अत्याचार, उत्पीडन की योजनायें विश्व के सुखशान्ति और समृद्धि को नष्ट कर रही हैं । जीवनदृष्टि से जन्मे इस संकटों की चर्चा इस पर्व में की गई है।
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वर्तमान अमेरिकी सभ्यता पाँचसौ वर्ष पुरानी है । वर्तमान यूरोपीय सभ्यता दो हजार वर्ष पुरानी है । परन्तु विश्व की सभ्यता का इतिहास दो हजार से कई गुना अधिक पुराना है । दो हजार वर्ष से पूर्व के और बाद के समाज में अन्तर क्या है यह समझने से वर्तमान संकटों के मूल में जाना सरल होगा । यह अन्तर है सेमेटिक रिलिजस विश्वदृष्टि और जीवनदृष्टि का । इसाइयत के प्रादुर्भाव से पूर्व विश्व की प्रजायें प्रकृति को देव मानती थीं, सबको एक मानती थीं । जिन्हें आज पैगन कहा जाता है ऐसी इस इसाइयत पूर्व प्रजाओं की जीवनशैली और विविध धार्मिक आचार इस बात को स्पष्ट करते हैं परन्तु इसाइयत के जन्म के बाद द्वैत निर्माण हुआ, अपना - पराया की वृत्ति पनपी, श्रेष्ठता और कनिष्ठता का सार्वत्रिक सर्वकालीन संघर्ष आरम्भ हुआ । इस्लाम के उदय के बाद यह द्वैत और भी बलवान हुआ, अधिक हिंसक हुआ, आज जीवन के हर क्षेत्र में संघर्ष, हिंसा परायापन उसके आधार पर बनने वाली शोषण, लूट, अत्याचार, उत्पीडन की योजनायें विश्व के सुखशान्ति और समृद्धि को नष्ट कर रही हैं । जीवनदृष्टि से जन्मे इस संकटों की चर्चा इस पर्व में की गई है।
  
 
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<references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
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<references />धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
[[Category:भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा]]
 
 
[[Category:Education Series]]
 
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[[Category:Bhartiya Shiksha Granthmala(भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला)]]
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[[Category:धार्मिक शिक्षा ग्रंथमाला 5: वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा]]
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[[Category:धार्मिक शिक्षा ग्रंथमाला 5: पर्व 3: संकटों का विश्लेषण]]

Latest revision as of 21:07, 26 October 2020

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वर्तमान अमेरिकी सभ्यता पाँचसौ वर्ष पुरानी है । वर्तमान यूरोपीय सभ्यता दो हजार वर्ष पुरानी है । परन्तु विश्व की सभ्यता का इतिहास दो हजार से कई गुना अधिक पुराना है । दो हजार वर्ष से पूर्व के और बाद के समाज में अन्तर क्या है यह समझने से वर्तमान संकटों के मूल में जाना सरल होगा । यह अन्तर है सेमेटिक रिलिजस विश्वदृष्टि और जीवनदृष्टि का । इसाइयत के प्रादुर्भाव से पूर्व विश्व की प्रजायें प्रकृति को देव मानती थीं, सबको एक मानती थीं । जिन्हें आज पैगन कहा जाता है ऐसी इस इसाइयत पूर्व प्रजाओं की जीवनशैली और विविध धार्मिक आचार इस बात को स्पष्ट करते हैं परन्तु इसाइयत के जन्म के बाद द्वैत निर्माण हुआ, अपना - पराया की वृत्ति पनपी, श्रेष्ठता और कनिष्ठता का सार्वत्रिक सर्वकालीन संघर्ष आरम्भ हुआ । इस्लाम के उदय के बाद यह द्वैत और भी बलवान हुआ, अधिक हिंसक हुआ, आज जीवन के हर क्षेत्र में संघर्ष, हिंसा परायापन उसके आधार पर बनने वाली शोषण, लूट, अत्याचार, उत्पीडन की योजनायें विश्व के सुखशान्ति और समृद्धि को नष्ट कर रही हैं । जीवनदृष्टि से जन्मे इस संकटों की चर्चा इस पर्व में की गई है।

अनुक्रमणिका

२५. संकटों का मूल

२६. संकेन्द्री दृष्टि

२७. अनर्थक अर्थ

२८. आधुनिक विज्ञान एवं गुलामी का समान आधार

२९. कट्टरता

३०. वैश्विक समस्याओं के स्रोत

३१. यूरोपीय आधिपत्य के पाँच सौ वर्ष

३२. जिहादी आतंकवाद - वैश्विक संकट

References

धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे