Difference between revisions of "परिवार की शैक्षिक भूमिका"

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==अध्याय ७==
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{{One source}}
  
===परिवार की शैक्षिक भूमिका===
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==विद्यालय के सन्दर्भ में परिवार क्या करे==
  
====विद्यालय के सन्दर्भ में परिवार क्या करे====
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===विश्व में भारत की प्रतिष्ठा===
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हमें यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि घर में पलनेवाले और विद्यालय में पढ़ने वाले शिशु, बाल, किशोर, युवावस्था के विद्यार्थी भावी भारत के निर्माता है<ref>धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ३): पर्व २: अध्याय ७, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। शिक्षक और मातापिता भारत का भावी गढ रहे हैं। ये सब शिक्षकों के विद्यार्थी और मातापिता की सन्तानें हैं परन्तु साथ ही राष्ट्र के नागरिक हैं । राष्ट्र वैसा ही होगा जैसे ये होंगे। विश्व में भारत की प्रतिष्ठा इनके कारण होगी और बदनामी भी इनके कारण ही।
  
=====विश्व में भारत की प्रतिष्ठा=====
+
भूतकाल में कभी भारत की प्रतिष्ठा अत्यन्त नीतिमान, सच्चरित्र और सत्यवादी देश की रही है । हम भारत के भव्य भूतकाल का वर्णन तो गौरवपूर्वक करते हैं परन्तु हमारा वर्तमान प्रशंसा के योग्य नहीं है। हमारा नैतिक स्तर गिरा है, गिर रहा है। यह अत्यन्त चिन्ताजनक और लज्जास्पद है । हमें इस स्थिति की चिन्ता करनी चाहिये ।
वर्तमान प्रशंसा के योग्य नहीं है । हमारा नैतिक स्तर गिरा
 
हमें यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि घर में. है? गिर रहा है । यह अत्यन्त चिन्ताजनक और लज्जास्पद
 
  
पलनेवाले और विद्यालय में पढने वाले शिशु, बाल, है । हमें इस स्थिति की चिन्ता करनी चाहिये ।
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विश्व में हमारी कुप्रतिष्ठा कैसी है इसके कुछ उदाहरण इस प्रकार है...
  
किशोर, युवावस्था के विद्यार्थी भावी भारत के निर्माता है । विश्व में हमारी कुप्रतिष्ठा कैसी है इसके कुछ उदाहरण
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#जर्मनी के विश्वविद्यालय के पुस्तकालय से धार्मिक विद्यार्थियों को पुस्तक ले जाने का निषेध हुआ था क्योंकि धार्मिक विद्यार्थी पुस्तक में से उपयोगी सामग्री की नकल करने के स्थान पर पुस्तक के पन्ने ही फाड लेते थे। यह आरोप झूठा नहीं है यह भारत के महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के ग्रन्थालयों के ग्रन्थपाल कहेंगे।
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#ऑस्ट्रेलिया में यदि आपका मोबाइल खो जाता है और आप सरकार को बताते हैं तो सरकार बिना पूछताछ किये आपको दूसरा मोबाइल देती है । सरकार अपने नागरिक का विश्वास करती है । कई धार्मिक अपना मोबाइल भारत में भेज देते हैं और सरकार से चोरी हो गया कहकर दूसरा लेते हैं। सरकार उन्हें देती भी है । ऐसा दो बार, होने के बाद पूछताछ आरम्भ होती है ।सरकार का यह विश्वास कितने दिन चलेगा ? तब लांछन किस को लगेगा ?
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#विदेश में भी जो चोरी करते हैं और अनीति का आचरण करते हैं वे देश में क्या नहीं करेंगे ? यहाँ भी कानून तोडना, घूस देना और लेना, कस्वोरी करना, परीक्षा में नकल करना, पैसा लेकर मत बेचना, शराबबन्दी होने पर भी शराब बेचना और पीना, गोबधबन्दी होने पर भी गोहत्या करना, मौका मिले तो बिना टिकट यात्रा करना धूमधाम से चल रहा है । खुछ्ठम-खु्ठा चोरी, डकैती, लूट, हत्या आदि की बात तो अलग है, यह तो सारे अनीति के मामले हैं ।
  
शिक्षक और मातापिता भारत का भावी गढ़ रहे हैं ये सब... इस प्रकार है
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यह अनीति समाजविरोधी है, देशविरोधी है, धर्मविरोधी है । भारत की विचारधारा कभी भी इसका समर्थन नहीं करती । भारत की परम्परा इसकी कभी भी दुहाई नहीं देती । यहाँ तो दो शत्रुओं के मध्य युद्ध भी धर्म के नियमों का पालन करके होते हैं। निहत्थे शत्रु के साथ लडने के लिये व्यक्ति अपना हथियार छोड देता है क्योंकि एक के हाथ में शस्त्र हो और दूसरे के हाथ में न हो तो शख्रधारी निःशस्त्र के साथ युद्ध करे यह अन्याय है, अधर्म है ।  
  
शिक्षकों के विद्यार्थी और मातापिता की सन्तानें हैं परन्तु  १.. जर्मनी के विश्वविद्यालय के पुस्तकालय से भारतीय
+
नीतिमत्ता का ह्रास वर्तमान समय का राष्ट्रीय संकट है । इसके साथ लडने हेतु और इस संकट को दूर करने हेतु विद्यालय, घर और धर्माचार्यों ने जिम्मेदारी लेकर योजना बनानी होगी ।
  
साथ ही राष्ट्र के नागरिक हैं । राष्ट्र वैसा ही होगा जैसे ये विद्यार्थियों को पुस्तक ले जाने का निषेध हुआ था
+
====विद्यालय की भूमिका====
होंगे । विश्व में भारत की प्रतिष्ठा इनके कारण होगी और क्योंकि भारतीय विद्यार्थी पुस्तक में से उपयोगी सामग्री
 
बदनामी भी इनके कारण ही । की नकल करने के स्थान पर पुस्तक के पन्ने ही फाड
 
 
 
भूतकाल में कभी भारत की प्रतिष्ठा अत्यन्त नीतिमान, लेते थे । यह आरोप झूठा नहीं है यह भारत के
 
सच्चरित्र और सत्यवादी देश की रही है । हम भारत के भव्य महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के ग्रन्थालयों के
 
भूतकाल का वर्णन तो गौरवपूर्वक करते हैं परन्तु हमारा ग्रन्थपाल कहेंगे ।
 
 
 
Sy
 
 
 
 
............. page-111 .............
 
 
 
पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
 
 
 
२... ऑस्ट्रेलिया में यदि आपका मोबाइल खो जाता है और आप सरकार को बताते हैं तो सरकार बिना पूछताछ किये आपको दूसरा मोबाइल देती है । सरकार अपने नागरिक का विश्वास करती है । कई भारतीय अपना मोबाइल भारत में भेज देते हैं और
 
सरकार से चोरी हो गया कहकर दूसरा लेते हैं। सरकार उन्हें देती भी है । ऐसा दो बार, होने के बाद पूछताछ शुरू होती है ।
 
 
 
सरकार का यह विश्वास कितने दिन चलेगा ? तब लांछन किस को लगेगा ?
 
 
 
3. विदेश में भी जो चोरी करते हैं और अनीति का आचरण करते हैं वे देश में क्या नहीं करेंगे ? यहाँ भी कानून तोडना, घूस देना और लेना, कस्वोरी करना, परीक्षा में नकल करना, पैसा लेकर मत बेचना, शराबबन्दी होने पर भी शराब बेचना और पीना, गोबधबन्दी होने पर भी गोहत्या करना, मौका मिले
 
तो बिना टिकट यात्रा करना धूमधाम से चल रहा है । खुछ्ठम-खु्ठा चोरी, डकैती, लूट, हत्या आदि
 
की बात तो अलग है, यह तो सारे अनीति के
 
मामले हैं ।
 
 
 
यह अनीति समाजविरोधी है, देशविरोधी है, धर्मविरोधी है । भारत की विचारधारा कभी भी इसका समर्थन नहीं करती । भारत की परम्परा इसकी कभी भी दुहाई नहीं देती । यहाँ तो दो शत्रुओं के बीच युद्ध भी धर्म के नियमों का पालन करके होते हैं। निहत्थे शत्रु के साथ लडने के लिये व्यक्ति अपना हथियार छोड देता है क्योंकि एक के हाथ में शस्त्र हो और दूसरे के हाथ में न हो तो शख्रधारी निःशस्त्र के साथ युद्ध करे यह अन्याय है, अधर्म है ।
 
 
 
नीतिमत्ता का ह्रास वर्तमान समय का राष्ट्रीय संकट
 
है । इसके साथ लडने हेतु और इस दृषण को दूर करने हेतु विद्यालय, घर और धर्माचार्यों ने जिम्मेदारी लेकर योजना बनानी होगी ।
 
 
 
=====विद्यालय की भूमिका=====
 
 
1. विद्यालय का प्रमुख दायित्व है यह मानना होगा । जिस देश के विद्यालय नीतिमत्ता की रक्षा नहीं कर सकते उस देश का भविष्य धुंधला ही होता है ।
 
1. विद्यालय का प्रमुख दायित्व है यह मानना होगा । जिस देश के विद्यालय नीतिमत्ता की रक्षा नहीं कर सकते उस देश का भविष्य धुंधला ही होता है ।
  
2. विद्यालय संचालकों और शिक्षकों के नीतिमान होने
+
2. विद्यालय संचालकों और शिक्षकों के नीतिमान होने से ही विद्यार्थियों को नीतिमान बना सकते हैं ।
से ही विद्यार्थियों को नीतिमान बना सकते हैं ।
 
  
 
संचालकों के अनीतिमान होने के अनेक उदाहरण सर्वविदित हैं  
 
संचालकों के अनीतिमान होने के अनेक उदाहरण सर्वविदित हैं  
  
ऐसे अनेक संचालक हैं जो पैसा कमाने के लिये ही विद्यालय चलाते हैं । उनके लिये बिद्या, शिक्षक,
+
*ऐसे अनेक संचालक हैं जो पैसा कमाने के लिये ही विद्यालय चलाते हैं । उनके लिये बिद्या, शिक्षक, देश आदि के लिये कोई सम्मान नहीं होता । वे अनेक प्रकार की गलत बातें लागू कर पैसा कमाते हैं ।
देश आदि के लिये कोई सम्मान नहीं होता । वे अनेक प्रकार की गलत बातें लागू कर पैसा कमाते हैं ।
+
*प्रवेश के लिये और नियुक्ति के लिये विद्यार्थियों और शिक्षकों से डोनेशन लेना आम बात है । मजबूरी में या व्यवहार समझकर डोनेशन देनेवाले भी होते ही हैं ।
 
+
*शिक्षकों को कम वेतन देकर पूरे वेतन पर हस्ताक्षर करवा लेना भी व्यापकरूप में प्रचलन में है ।
प्रवेश के लिये और नियुक्ति के लिये विद्यार्थियों और
+
*ये तो सर्वविदित उदाहरण हैं, परन्तु यह तो हिमशिला का बाहर दिखनेवाला हिस्सा है । वास्तविकता अनेक गुना अधिक है ।
शिक्षकों से डोनेशन लेना आम बात है । मजबूरी में या व्यवहार समझकर डोनेशन देनेवाले भी होते ही हैं ।
 
 
 
शिक्षकों को कम वेतन देकर पूरे वेतन पर हस्ताक्षर
 
करवा लेना भी व्यापकरूप में प्रचलन में है ।
 
 
 
ये तो सर्वविदित उदाहरण हैं, परन्तु यह तो हिमशिला का बाहर दिखनेवाला हिस्सा है । वास्तविकता अनेक गुना अधिक है
 
 
 
ऐसे संचालकों के विद्यालयों में नीतिमत्ता की
 
शिक्षा किस प्रकार दी जा सकेगी ?
 
 
 
3. शिक्षकों की नीतिमत्ता के अभाव का स्वरूप कुछ इस प्रकार का है.....
 
 
 
शिक्षकों को पढाना आता नहीं है, पढाने की नीयत
 
नहीं होती है तब वे विद्यार्थियों को नकल करवाते हैं और बदले में पैसे लेते हैं
 
  
विद्यालय में पढाते नहीं और ट्यूशन में आने की बाध्यता निर्माण करते हैं ।
+
ऐसे संचालकों के विद्यालयों में नीतिमत्ता की शिक्षा किस प्रकार दी जा सकेगी ?
  
वे स्वयं भी नकल करके परीक्षा में उत्तीर्ण हुए होते हैं ।
+
3. शिक्षकों की नीतिमत्ता के अभाव का स्वरूप कुछ इस प्रकार का है:
  
जो विद्यार्थी ट्यूशन में आते हैं उन्हें परीक्षा में उत्तीर्ण होने में सहायता करते हैं । ये भी सर्वविदित उदाहरण हैं । पूर्व में कहा उससे भी वास्तविकता अनेक गुणा भीषण है ।
+
*शिक्षकों को पढाना आता नहीं है, पढाने की नीयत नहीं होती है तब वे विद्यार्थियों को नकल करवाते हैं और बदले में पैसे लेते हैं ।
 +
*विद्यालय में पढाते नहीं और ट्यूशन में आने की बाध्यता निर्माण करते हैं ।
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*वे स्वयं भी नकल करके परीक्षा में उत्तीर्ण हुए होते हैं ।
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*जो विद्यार्थी ट्यूशन में आते हैं उन्हें परीक्षा में उत्तीर्ण होने में सहायता करते हैं । ये भी सर्वविदित उदाहरण हैं । पूर्व में कहा उससे भी वास्तविकता अनेक गुणा भीषण है ।
  
 
4. विद्यार्थियों में नीतिमत्ता का ह्रास । विद्यार्थी भी पीछे नहीं हैं । उनकी अनीति के कुछ उदाहरण इस प्रकार है...  
 
4. विद्यार्थियों में नीतिमत्ता का ह्रास । विद्यार्थी भी पीछे नहीं हैं । उनकी अनीति के कुछ उदाहरण इस प्रकार है...  
  
परीक्षा में नकल करना आम बात है । नकल करने के अनेक अफलातून नुस्खे उनके पास होते हैं । निरीक्षकों को बडी सरलता से सहज में ही वे बुद्ध बनाते हैं ।
+
*परीक्षा में नकल करना आम बात है । नकल करने के अनेक अफलातून नुस्खे उनके पास होते हैं । निरीक्षकों को बडी सरलता से सहज में ही वे बुद्ध बनाते हैं ।
 
+
*विद्यालय की मालमिल्कत को नुकसान पहुँचाने में इन्हें कोई संकोच नहीं होता है ।
विद्यालय की मालमिल्कत को नुकसान पहुँचाने में इन्हें कोई संकोच नहीं होता है ।
+
*झूठ बोलना, चुनावी राजनीति करना, गुंडागर्दी को प्रश्रय देना आदि भी सहज है ।
 
 
झूठ बोलना, चुनावी राजनीति करना, गुंडागर्दी को प्रश्रय देना आदि भी सहज है ।
 
  
 
इसके भी अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं ।
 
इसके भी अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं ।
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जब सर्वसामान्य रूप से ऐसी अनीति छाई हो तो आशा कहाँ है ? इस अनीति को कम करने में, नष्ट करने में कानून की कोई भूमिका नहीं है । कानून से अनीति दूर हो ही नहीं सकती । अनीति अधर्म है और धर्म से ही उसके साथ लड़ना और उस पर विजय पाना सम्भव हो सकता है ।
 
जब सर्वसामान्य रूप से ऐसी अनीति छाई हो तो आशा कहाँ है ? इस अनीति को कम करने में, नष्ट करने में कानून की कोई भूमिका नहीं है । कानून से अनीति दूर हो ही नहीं सकती । अनीति अधर्म है और धर्म से ही उसके साथ लड़ना और उस पर विजय पाना सम्भव हो सकता है ।
  
धर्म और अधर्म के युद्ध में धर्म की ही विजय होती है ऐसा हमारा इतिहास कहता है परन्तु वह तब होता है जब धर्म का पक्ष लेने वाला, धर्म के लिये लडनेवाला कोई खडा हो । धर्म का पक्ष लेने पर अन्तिम विजय होती भले ही हो परन्तु कष्ट भी बहुत उठाने पड़ते हैं । आज का सवाल तो यह है कि धर्म का पक्ष तो लिया जा सकता है परन्तु उसके लिये कष्ट उठाने की सिद्धता नहीं होती । धर्म के गुण तो गाये जा सकते हैं परन्तु धर्ममार्ग पर चलना कठिन है। ऐसा तो कोई क्यों करेगा ? धर्ममार्ग पर चलने से दिखने वाला कोई लाभ हो तब तो
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धर्म और अधर्म के युद्ध में धर्म की ही विजय होती है ऐसा हमारा इतिहास कहता है परन्तु वह तब होता है जब धर्म का पक्ष लेने वाला, धर्म के लिये लडनेवाला कोई खडा हो । धर्म का पक्ष लेने पर अन्तिम विजय होती भले ही हो परन्तु कष्ट भी बहुत उठाने पड़ते हैं । आज का सवाल तो यह है कि धर्म का पक्ष तो लिया जा सकता है परन्तु उसके लिये कष्ट उठाने की सिद्धता नहीं होती । धर्म के गुण तो गाये जा सकते हैं परन्तु धर्ममार्ग पर चलना कठिन है। ऐसा तो कोई क्यों करेगा ? धर्ममार्ग पर चलने से दिखने वाला कोई लाभ हो तब तो ठीक है । अधर्म मार्ग पर चलकर लाभ मिलता हो तो अधर्म ही सही ।
ठीक है । अधर्म मार्ग पर चलकर लाभ मिलता हो तो
 
अधर्म ही सही
 
 
 
===== इस स्थिति में विद्यालय क्या करें ? =====
 
कुछ इस प्रकार से विचार किया जा सकता है...
 
 
 
०... नीति का पक्ष लेने वाले कुछ लोग तो समाज में हैं
 
ही । ये केवल नीति की बात ही नहीं करते, उनका
 
आचरण भी नैतिक होता है । अक्सर ऐसे लोग अपने
 
में ही मस्त होते हैं । दूसरों को अनीति का आचरण
 
करना है तो करें, उनका हिसाब भगवान करेगा,
 
हम अनीति का. आचरण नहीं करेंगे । हमने
 
दुनिया को सुधार करने का ठेका नहीं लिया है ऐसा
 
वे कहते हैं ।
 
 
 
परन्तु केवल अच्छाई पर्याप्त नहीं है । यह सत्य है
 
कि ऐसे लोगों के प्रभाव से ही दुनिया का अभी नाश
 
नहीं हुआ है परन्तु नीतिमान अच्छे लोगों के अक्रिय
 
रहने से चलने वाला नहीं है । इन्हें संगठित होकर
 
सामर्थ्य बढाने की आवश्यकता है ।
 
 
 
०... विद्यालयों के संचालक और शिक्षक दोनों नीतिमान
 
हों ऐसे विद्यालयों के साथ समाज की सज्जनशक्ति को
 
ज़ुडना चाहिये ।
 
 
 
०... यदि संचालक नीतिमान हैं परन्तु शिक्षक नीतिमान
 
नहीं हैं तो या तो संचालकों ने अनीतिमान शिक्षकों
 
को नीतिमान बनाना होगा नहीं तो अनीतिमान
 
शिक्षकों को दूर कर उनके स्थान पर नीतिमान
 
शिक्षकों को लाना होगा ।
 
 
 
०... संचालक नीतिमान नहीं है परन्तु शिक्षक नीतिमान हैं
 
तो उन्होंने ऐसे संचालकों का त्याग करना चाहिये
 
और नीतिमान संचालकों के साथ जुड़ना चाहिये ।
 
यदि ऐसा त्याग नहीं किया तो नीतिमान शिक्षकों को
 
नीति का त्याग करने की नौबत आती है ।
 
 
 
०... नीतिमान संचालक, नीतिमान शिक्षक और समाज के
 
सज्जनों ने मिलकर अपने जैसे अन्य नीतिमान
 
विद्यालयों को खोजना चाहिये और संगठित होना
 
चाहिये । संगठित हुए बिना सामर्थ्य नहीं आता ।
 
 
 
०"... ऐसे संगठन को प्रथम अपने विद्यालयों को नीतिमान
 
बनाना चाहिये । अपने विद्यालय को नीतिमान बनाने
 
का अर्थ है विद्यार्थियों और उनके परिवारों को
 
 
 
 
............. page-113 .............
 
 
 
पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
 
 
 
नीतिमान बनाना । इसके बिना उनके सामर्थ्य में वृद्धि
 
 
 
नहीं हो सकती ।
 
 
 
०. जब भी किसी अभियान का प्रारम्भ करना होता है
 
तब थोडे से और सरल बातों से करना व्यावहारिक
 
 
 
समझदारी है । ऐसा करने से धीरे धीरे कठिन बातें
 
 
 
सरल होती जायेंगी ।
 
 
 
नीतिमत्ता का दससूत्री कार्यक्रम
 
 
 
इन विद्यालयों ने मिलकर विद्यार्थियों के लिये
 
नीतिमत्ता का दससूत्री कार्यक्रम बनाना चाहिये । ये दस सूत्र
 
इस प्रकार हैं...
 
१, किसी भी परीक्षा में नकल नहीं करना ।
 
२. . विद्यालय की सम्पत्ति को नुकसान नहीं पहुँचाना ।
 
3. किसी भी शिक्षक की पीठ के पीछे निन्‍्दा नहीं
 
करना |
 
शिक्षक की आज्ञा की अवज्ञा नहीं करना ।
 
झूठ नहीं बोलना ।
 
विद्यालय के नियमों का उल्लंघन नहीं करना ।
 
ट्यूशन या कोचिंग क्लास में नहीं जाना ।
 
घर से विद्यालय और विद्यालय से घर पैद्ल अथवा
 
बाइसिकल से आनाजाना |
 
९... कारखाने में बने कपडे और जूते नहीं पहनना, दर्जी ने
 
और मोची ने बनाये हुए ही पहनना ।
 
सूती गणवेश पहनना ।
 
ये दस सूत्र इनसे अलग भी हो सकते हैं । यहाँ केवल
 
उदाहरण दिये हैं ।
 
 
 
कोई कह सकता है कि ये सब अनीति की ही बातें
 
नहीं है, ये तो अध्ययन और सामग्री के उपयोग की भी बातें
 
हैं । इनका सत्य असत्य या नीतिअनीति से क्या सम्बन्ध ?
 
 
 
S © MS 2६
 
 
 
१०.
 
 
 
अपनी दृष्टि व्यापक बनाना
 
 
 
बात प्रथम दृष्टि में तो ठीक लगती है, परन्तु हमें
 
व्यापक दृष्टि से देखना होगा । दृष्टि व्यापक करने से इन
 
बातों को भी सूची में समाविष्ट करने का तात्पर्य ध्यान में
 
आयेगा |
 
 
 
९७
 
 
 
   
 
 
   
 
 
 
०". इस कार्यक्रम को अपने अपने
 
विद्यालयों में निश्चितता पूर्वक लागू करना चाहिये ।
 
कडाई से लागू करने से प्रारम्भ होगा परन्तु धीरे धीरे
 
विद्यार्थियों और अभिभावकों को समझाकर सहमत
 
बनाना चाहिये । सबको इन बातों के लिये अपने
 
विद्यालय पर गर्व हो ऐसी स्थिति आनी चाहिये ।
 
 
 
e धीरे धीरे इन विद्यालयों की प्रतिष्ठा समाज में बनने
 
लगे इस बात की और ध्यान देना चाहिये । सज्जनों
 
को चाहिये कि वे इन्हें समाज में प्रतिष्ठा दिलने का
 
काम करे ।
 
 
 
०. अब इन विद्यालयों का सामर्थ्य केवल संचालकों
 
और शिक्षकों तक सीमित नहीं है । विद्यार्थी और
 
उनके परिवार भी इनके साथ जुडे हैं ।
 
 
 
०. अब इन विद्यालयों ने आसपास के विद्यालयों को
 
बदलने का. अभियान छेडना होगा । विद्यार्थी
 
विद्यार्थियों को, शिक्षक शिक्षकों को और संचालक
 
संचालकों को परिवर्तित करने का काम करें ।
 
 
 
e अब धमचिार्यों को भी इस अभियान में जुड़ने हेतु
 
समझाना चाहिये । सन्त, महन्त, आचार्य, कथाकार,
 
सत्संगी सार्वजनिक कार्यक्रमों में नीतिमत्ता के इन दस
 
सूत्रों के पालन का आग्रह करें, अपने अनुयायियों से
 
प्रतिज्ञा करवायें ।
 
 
 
© कुछ दम्भी और भोंदू अवश्य होंगे, तथापि इसका
 
परिणाम अवश्य होगा |
 
 
 
०... नीतिमत्ता की परीक्षा करना भूलना नहीं चाहिये, नहीं
 
तो दम्भ फैलेगा ।
 
इन सूत्रों का क्रियान्वयन सरल है ऐसा तो नहीं है ।
 
 
 
साथ ही इन दस सूत्रों में ही सारी नीतिमत्ता का समावेश हो
 
जाता है ऐसा भी नहीं है । यह बडा व्यापक विषय है,
 
सर्वत्र इसका प्रभाव है परन्तु इसे हटाना तो पड़ेगा ही।
 
विघ्न बहुत आयेंगे । इन विघ्नों का स्वरूप कुछ इस प्रकार
 
हो सकता है
 
 
 
१, विद्यालयों के संचालकों और शिक्षकों की टोली में
 
ही अनीतिमान तत्त्वों की घूसखोरी हो सकती है ।
 
 
 
 
............. page-114 .............
 
 
 
   
 
 
 
 
 
we घूसखोरी अधिक नीतिमान के
 
स्वांग में भी हो सकती है ।
 
 
 
2. नीति की राह पर चलने वालों को लालच, भय,
 
आरोप आदि के रूप में अवरोध निर्माण किये जा
 
सकते हैं ।
 
 
 
3. अनीति के आरोप और स्वार्थी तत्त्वों की ओर से
 
 
 
दृण्डात्मक कारवाई तक की जा सकती है ।
 
 
 
विद्यार्थी और अभिभावकों को विद्यालय के विरोधी
 
 
 
बनाया जा सकता है ।
 
 
 
०... राजीनति के क्षेत्र के लोगों की ओर से जाँच, आरोप,
 
दण्ड आदि के माध्यम से परेशानी निर्माण की जा
 
सकती है ।
 
 
 
०. इन अवरोधों से भयभीत हुए बिना यदि विद्यालय se
 
रहते हैं तो वे अपने अभियान में यशस्वी हो सकते
 
हैं । लोग भी इन्हें मान्यता देने लगते हैं ।
 
विश्व में भारतीय ज्ञान की प्रतिष्ठा है । अमरिका में
 
 
 
डॉक्टर, इन्जिनियर, संगणक निष्णात, वैज्ञानिक आदि बडी
 
 
 
संख्या में भारतीय हैं । विश्व में भारतीय परिवार संकल्पना
 
की प्रतिष्ठा है । भारत की कामगीरी की प्रतिष्ठा है । परन्तु
 
अनीतिमान लोगों के रूप में अप्रतिष्ठा भी है
 
  
स्वच्छता के विषय में अप्रतिष्ठा
+
===इस स्थिति में विद्यालय क्या करें ?===
 +
कुछ इस प्रकार से विचार किया जा सकता है:
  
दूसरी अआप्रतिष्ठा है स्वच्छता के विषय में । विदेश
+
नीति का पक्ष लेने वाले कुछ लोग तो समाज में हैं ही ये केवल नीति की बात ही नहीं करते, उनका आचरण भी नैतिक होता है अक्सर ऐसे लोग अपने में ही मस्त होते हैं । दूसरों को अनीति का आचरण करना है तो करें, उनका हिसाब भगवान करेगा, हम अनीति का आचरण नहीं करेंगे हमने दुनिया को सुधार करने का ठेका नहीं लिया है ऐसा वे कहते हैं ।
जाकर आये हुए भारतीय वहाँ की स्वच्छता की प्रशंसा करते
 
हैं । वे ही लोग भारत में स्वयं गन्दगी करते हैं । विद्यालयों
 
और कार्यलयों की सीढियाँ और कोने थूकने से, कचरा डालने
 
a re BU chad हैं सार्वजनिक शौचालय, स्नानगृह आदि
 
भयंकर गन्दे होते हैं । रास्तों पर लोग कचरा फैंकते हैं । बस
 
या रेल में से थूकते हैं । प्लास्टिक के खाली बैग, पेकिंग के
 
डिब्बे कहीं पर भी फैके जाते हैं । तीर्थ यात्रा के स्थान,
 
पवित्ननगर, नदियों के किनारे प्लास्टिक तथा अन्य कचरे से
 
गन्दे हो जाते हैं अपना घर साफ करके पडौसी के आँगन में
 
कचरा फैकते हैं । स्वच्छता को हमने योगसूत्र में पाँच नियमों
 
में सबसे प्रथम स्थान दिया है । परन्तु व्यवहार में हम
 
अस्वच्छता की परिसीमा लांघते हैं ।
 
  
९८
+
परन्तु केवल अच्छाई पर्याप्त नहीं है । यह सत्य है कि ऐसे लोगोंं के प्रभाव से ही दुनिया का अभी नाश नहीं हुआ है परन्तु नीतिमान अच्छे लोगोंं के अक्रिय रहने से चलने वाला नहीं है । इन्हें संगठित होकर सामर्थ्य बढाने की आवश्यकता है ।
  
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
+
*विद्यालयों के संचालक और शिक्षक दोनों नीतिमान हों ऐसे विद्यालयों के साथ समाज की सज्जनशक्ति को ज़ुडना चाहिये ।
 +
*यदि संचालक नीतिमान हैं परन्तु शिक्षक नीतिमान नहीं हैं तो या तो संचालकों ने अनीतिमान शिक्षकों को नीतिमान बनाना होगा नहीं तो अनीतिमान शिक्षकों को दूर कर उनके स्थान पर नीतिमान शिक्षकों को लाना होगा ।
 +
*संचालक नीतिमान नहीं है परन्तु शिक्षक नीतिमान हैं तो उन्होंने ऐसे संचालकों का त्याग करना चाहिये और नीतिमान संचालकों के साथ जुड़ना चाहिये । यदि ऐसा त्याग नहीं किया तो नीतिमान शिक्षकों को नीति का त्याग करने की नौबत आती है ।
 +
*नीतिमान संचालक, नीतिमान शिक्षक और समाज के सज्जनों ने मिलकर अपने जैसे अन्य नीतिमान विद्यालयों को खोजना चाहिये और संगठित होना चाहिये । संगठित हुए बिना सामर्थ्य नहीं आता ।
 +
*ऐसे संगठन को प्रथम अपने विद्यालयों को नीतिमान बनाना चाहिये । अपने विद्यालय को नीतिमान बनाने का अर्थ है विद्यार्थियों और उनके परिवारों को नीतिमान बनाना । इसके बिना उनके सामर्थ्य में वृद्धि नहीं हो सकती ।
  
 
+
*जब भी किसी अभियान का प्रारम्भ करना होता है तब थोडे से और सरल बातों से करना व्यावहारिक समझदारी है । ऐसा करने से धीरे धीरे कठिन बातें सरल होती जायेंगी ।
  
विद्यालयों को इस विषय का भी विचार करना होगा
+
===नीतिमत्ता का दससूत्री कार्यक्रम===
व्यक्तिगत जीवन में स्वच्छता का आग्रह अधिकांश लोग
+
इन विद्यालयों ने मिलकर विद्यार्थियों के लिये नीतिमत्ता का दससूत्री कार्यक्रम बनाना चाहिये ये दस सूत्र इस प्रकार हैं...
रखते हैं परन्तु सार्वजनिक स्थानों की स्वच्छता की दरकार
 
कोई नहीं करता । यह भी कानून का विषय नहीं है ।
 
  
‘oa ae हमारा अधिकार है, सफाई करना
+
#किसी भी परीक्षा में नकल नहीं करना ।
नगरनिगम का कर्तव्य है, इस सूत्र पर चलने से काम नहीं
+
#विद्यालय की सम्पत्ति को नुकसान नहीं पहुँचाना ।
बनता | यह प्रबोधन का विषय है वास्तव में धर्माचार्यों ने
+
#किसी भी शिक्षक की पीठ के पीछे निन्‍्दा नहीं करना ।
इसे भी अपना विषय बनाना चाहिये
+
#शिक्षक की आज्ञा की अवज्ञा नहीं करना
 +
#झूठ नहीं बोलना ।
 +
#विद्यालय के नियमों का उल्लंघन नहीं करना ।
 +
#ट्यूशन या कोचिंग क्लास में नहीं जाना ।
 +
#घर से विद्यालय और विद्यालय से घर पैद्ल अथवा बाइसिकल से आनाजाना
 +
#कारखाने में बने कपड़े और जूते नहीं पहनना, दर्जी ने और मोची ने बनाये हुए ही पहनना ।
 +
#सूती गणवेश पहनना
  
एक हाथ में लेने लायक अभियान
+
ये दस सूत्र इनसे अलग भी हो सकते हैं । यहाँ केवल उदाहरण दिये हैं ।
  
चारों ओर पैकिंग का बोलबाला है । पैन पन्सिल,
+
कोई कह सकता है कि ये सब अनीति की ही बातें नहीं है, ये तो अध्ययन और सामग्री के उपयोग की भी बातें हैं । इनका सत्य असत्य या नीतिअनीति से क्या सम्बन्ध ?
रबड से लेकर कपडे जूते खाने की वस्तुर्यें पैकिंग में मिलती
 
हैं । आकर्षक पैकिंग के विज्ञापन होते हैं ।
 
  
आकर्षक पैकिंग से लोग आसानी से वस्तु खरीद
+
===अपनी दृष्टि व्यापक बनाना===
करते हैं ऐसा व्यापारियों का मत है । एक पुस्तक प्रकाशक
+
बात प्रथम दृष्टि में तो ठीक लगती है, परन्तु हमें व्यापक दृष्टि से देखना होगा दृष्टि व्यापक करने से इन बातों को भी सूची में समाविष्ट करने का तात्पर्य ध्यान में आयेगा
का कहना है कि आकर्षक मुखपृष्ठ देखकर पुस्तक या
 
नियतकालिक पढने के लिये उठाने वाले और स्वरूप
 
आकर्षक नहीं है इसलिये उसके प्रति उदासीन रहनेवाले
 
पाठक होते हैं
 
  
यह तो खरीद ने वाले की या पढनेवाले की बुद्धि पर
+
*इस कार्यक्रम को अपने अपने विद्यालयों में निश्चितता पूर्वक लागू करना चाहिये । कड़ाई से लागू करने से प्रारम्भ होगा परन्तु धीरे धीरे विद्यार्थियों और अभिभावकों को समझाकर सहमत बनाना चाहिये । सबको इन बातों के लिये अपने विद्यालय पर गर्व हो ऐसी स्थिति आनी चाहिये ।
प्रश्नाथ है। आकर्षक पैकिंग और अन्दर की वस्तु की
+
*धीरे धीरे इन विद्यालयों की प्रतिष्ठा समाज में बनने लगे इस बात की और ध्यान देना चाहिये । सज्जनों को चाहिये कि वे इन्हें समाज में प्रतिष्ठा दिलने का काम करे ।
गुणवत्ता का क्या सम्बन्ध है ? मुखपृष्ठ और अन्दर की
+
*अब इन विद्यालयों का सामर्थ्य केवल संचालकों और शिक्षकों तक सीमित नहीं है । विद्यार्थी और उनके परिवार भी इनके साथ जुड़े हैं ।
सामग्री का क्या सम्बन्ध है ?
+
*अब इन विद्यालयों ने आसपास के विद्यालयों को बदलने का अभियान छेडना होगा । विद्यार्थी विद्यार्थियों को, शिक्षक शिक्षकों को और संचालक संचालकों को परिवर्तित करने का काम करें ।
 +
*अब धमचिार्यों को भी इस अभियान में जुड़ने हेतु समझाना चाहिये । सन्त, महन्त, आचार्य, कथाकार, सत्संगी सार्वजनिक कार्यक्रमों में नीतिमत्ता के इन दस सूत्रों के पालन का आग्रह करें, अपने अनुयायियों से प्रतिज्ञा करवायें ।
 +
*कुछ दम्भी और भोंदू अवश्य होंगे, तथापि इसका परिणाम अवश्य होगा।
 +
*नीतिमत्ता की परीक्षा करना भूलना नहीं चाहिये, नहीं तो दम्भ फैलेगा । इन सूत्रों का क्रियान्वयन सरल है ऐसा तो नहीं है । साथ ही इन दस सूत्रों में ही सारी नीतिमत्ता का समावेश हो जाता है ऐसा भी नहीं है । यह बड़ा व्यापक विषय है, सर्वत्र इसका प्रभाव है परन्तु इसे हटाना तो पड़ेगा ही। विघ्न बहुत आयेंगे । इन विघ्नों का स्वरूप कुछ इस प्रकार हो सकता है
  
इस दुर्बल मनःस्थिति का फायदा उठाने वाले
+
#विद्यालयों के संचालकों और शिक्षकों की टोली में ही अनीतिमान तत्त्वों की घूसखोरी हो सकती है । यह घूसखोरी अधिक नीतिमान के स्वांग में भी हो सकती है ।
धूर्तव्यापारी तो हो सकते हैं परन्तु ग्राहकों और पाठकों की
+
#नीति की राह पर चलने वालों को लालच, भय, आरोप आदि के रूप में अवरोध निर्माण किये जा सकते हैं ।
विवेकबुद्धि को जाग्रत करने वाले मार्गदर्शकों की भी
+
#अनीति के आरोप और स्वार्थी तत्त्वों की ओर से दंडात्मक कारवाई तक की जा सकती है
आवश्यकता है । जहाँ आवश्यक है वहाँ तो लाख रूपये
+
#विद्यार्थी और अभिभावकों को विद्यालय के विरोधी बनाया जा सकता है
खर्च करने में संकोच नहीं करना चाहिये परन्तु जहाँ
 
अनावश्यक है वहाँ एक पैसे का भी खर्च नहीं करना
 
चाहिये ऐसी व्यावहारिक बुद्धि का विकास करना चाहिये
 
  
विज्ञापन अत्यन्त विनाशक उद्योग है। पैकिंग
+
*राजनीति के क्षेत्र के लोगोंं की ओर से जाँच, आरोप, दण्ड आदि के माध्यम से परेशानी निर्माण की जा सकती है ।
आकर्षक डाकिनी है । इसके भुलावे में पडने वाले लोग
+
*इन अवरोधों से भयभीत हुए बिना यदि विद्यालय डटे रहते हैं तो वे अपने अभियान में यशस्वी हो सकते हैं । लोग भी इन्हें मान्यता देने लगते हैं
विवेक भूले हुए हैं । इन्हें विविक सिखाने वाले लोगों को
 
आगे आने की आवश्यकता है । नई पीढ़ी के छात्रों को यह
 
काम करने की आवश्यकता है
 
 
  
............. page-115 .............
+
विश्व में धार्मिक ज्ञान की प्रतिष्ठा है । अमरिका में डॉक्टर, इन्जिनियर, संगणक निष्णात, वैज्ञानिक आदि बडी संख्या में धार्मिक हैं । विश्व में धार्मिक परिवार संकल्पना की प्रतिष्ठा है । भारत की कामगीरी की प्रतिष्ठा है । परन्तु अनीतिमान लोगोंं के रूप में अप्रतिष्ठा भी है ।
  
पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
+
===स्वच्छता के विषय में अप्रतिष्ठा===
 +
दूसरी अप्रतिष्ठा है स्वच्छता के विषय में । विदेश जाकर आये हुए धार्मिक वहाँ की स्वच्छता की प्रशंसा करते हैं । वे ही लोग भारत में स्वयं गन्दगी करते हैं । विद्यालयों और कार्यालयों की सीढियाँ और कोने थूकने से, कचरा डालने के कारण गंदी हो जाती हैं । सार्वजनिक शौचालय, स्नानगृह आदि भयंकर गन्दे होते हैं । रास्तों पर लोग कचरा फैंकते हैं । बस या रेल में से थूकते हैं । प्लास्टिक के खाली बैग, पेकिंग के डिब्बे कहीं पर भी फैके जाते हैं । तीर्थ यात्रा के स्थान, पवित्ननगर, नदियों के किनारे प्लास्टिक तथा अन्य कचरे से गन्दे हो जाते हैं । अपना घर साफ करके पडौसी के आँगन में कचरा फैकते हैं । स्वच्छता को हमने योगसूत्र में पाँच नियमों में सबसे प्रथम स्थान दिया है । परन्तु व्यवहार में हम अस्वच्छता की परिसीमा लांघते हैं ।
  
प्रश्नावली
+
विद्यालयों को इस विषय का भी विचार करना होगा । व्यक्तिगत जीवन में स्वच्छता का आग्रह अधिकांश लोग रखते हैं परन्तु सार्वजनिक स्थानों की स्वच्छता की दरकार कोई नहीं करता । यह भी कानून का विषय नहीं है ।
  
9. विद्यालय एवं छात्र के परिवार का क्या सम्बन्ध
+
'कचरा'  हमारा अधिकार है, सफाई करना नगरनिगम का कर्तव्य है, इस सूत्र पर चलने से काम नहीं बनता । यह प्रबोधन का विषय है। वास्तव में धर्माचार्यों ने इसे भी अपना विषय बनाना चाहिये ।
  
है?
+
===एक हाथ में लेने लायक अभियान===
 +
चारों ओर पैकिंग का बोलबाला है । पैन पन्सिल, रबड से लेकर कपड़े जूते खाने की वस्तुर्यें पैकिंग में मिलती हैं । आकर्षक पैकिंग के विज्ञापन होते हैं ।
  
२... आचार्य एवं छात्र के परिवार का क्या सम्बन्ध है
+
आकर्षक पैकिंग से लोग आसानी से वस्तु खरीद करते हैं ऐसा व्यापारियों का मत है । एक पुस्तक प्रकाशक का कहना है कि आकर्षक मुखपृष्ठ देखकर पुस्तक या नियतकालिक पढने के लिये उठाने वाले और स्वरूप आकर्षक नहीं है इसलिये उसके प्रति उदासीन रहनेवाले पाठक होते हैं । यह तो खरीदने वाले की या पढनेवाले की बुद्धि पर प्रश्नचिह्न है। आकर्षक पैकिंग और अन्दर की वस्तु की गुणवत्ता का क्या सम्बन्ध है ? मुखपृष्ठ और अन्दर की सामग्री का क्या सम्बन्ध है ?
?
 
  
3. मातापिता को विद्यालय में क्यों एवं कब जाना
+
इस दुर्बल मनःस्थिति का फायदा उठाने वाले धूर्त व्यापारी तो हो सकते हैं परन्तु ग्राहकों और पाठकों की विवेकबुद्धि को जाग्रत करने वाले मार्गदर्शकों की भी आवश्यकता है । जहाँ आवश्यक है वहाँ तो लाख रूपये खर्च करने में संकोच नहीं करना चाहिये परन्तु जहाँ अनावश्यक है वहाँ एक पैसे का भी खर्च नहीं करना चाहिये ऐसी व्यावहारिक बुद्धि का विकास करना चाहिये ।
चाहिये ?
 
  
४. विद्यालय परिवार को किन किन बातों में
+
विज्ञापन अत्यन्त विनाशक उद्योग है। पैकिंग आकर्षक डाकिनी है। इसके भुलावे में पडने वाले लोग विवेक भूले हुए हैं । इन्हें विवेक  सिखाने वाले लोगोंं को आगे आने की आवश्यकता है । नई पीढ़ी के छात्रों को यह काम करने की आवश्यकता है
मार्गदर्शन कर सकता है ?
 
  
५... विद्यालय एवं छात्र के परिवार में आत्मीय
+
==विद्यालय एवं परिवार==
सम्बन्ध कैसे निर्माण हो सकता है ?
 
  
६. विद्यालय संचालन में छात्र के परिवार का
+
===प्रश्नावली===
योगदान कितने प्रकार से हो सकता है ?
 
  
७. विद्यालय की शिक्षा योजना के सन्दर्भ में
+
#विद्यालय एवं छात्र के परिवार का क्या सम्बन्ध है?
अभिभावकों की भूमिका क्या होनी चाहिये ?
+
#आचार्य एवं छात्र के परिवार का क्या सम्बन्ध है?
 +
#मातापिता को विद्यालय में क्यों एवं कब जाना चाहिये ?
 +
#विद्यालय परिवार को किन किन बातों में मार्गदर्शन कर सकता है ?
 +
#विद्यालय एवं छात्र के परिवार में आत्मीय सम्बन्ध कैसे निर्माण हो सकता है ?
 +
#विद्यालय संचालन में छात्र के परिवार का योगदान कितने प्रकार से हो सकता है ?
 +
#विद्यालय की शिक्षा योजना के सन्दर्भ में अभिभावकों की भूमिका क्या होनी चाहिये ?
 +
#परिवार को किन किन विषयों में मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है ?
 +
#परिवार का मार्गदर्शन करने के लिये विद्यालय किस प्रकार से व्यवस्था कर सकता है ?
  
८... परिवार को किन किन विषयों में मार्गदर्शन की
+
===प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर===
 +
विद्यालय और परिवार का केन्द्रवर्ती बिंदु विद्यार्थी होता है । उसका विकास यही दोनों का लक्ष्य बन जाता है । इस लक्ष्यपूर्ति के लिये विद्यालय एवं परिवार इन दोनों के सम्बन्धों का लोकमत जानने के लिये इस प्रश्नावली का प्रयोजन रहा । कुरुक्षेत्र से श्री रमेन्द्रसिंहजी ने ३९ शिक्षक, ९८ अभिभावक, ३ प्रधानाचार्य, २ संस्थाचालकों का सहभाग लेकर इसकी पूर्तता की
  
आवश्यकता होती है ?
+
प्र.१  विद्यालय और छात्र के परिवार इन दोनों का संबंध स्पष्ट करते हुए दोनों मे गहरा आत्मीय संबंध, परस्पर पूरक संबंध, गाडी के दो पहियों जैसा संबंध, शैक्षिक एवं सामाजिक सबंध जैसे विविध उत्तर प्राप्त हुए । उन दोनों मे आत्मीय सबंध कैसे निर्माण होंगे इस पाचवे प्रश्न में आपस में सहकार्य की भूमिका, आपसी सद्भाव, परिवार के सुखदुःख मे सहभागी होना इस प्रकार से उत्तर मिले ।
9. परिवार का मार्गदर्शन करने के लिये विद्यालय
 
'किस प्रकार से व्यवस्था कर सकता है ?
 
  
प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर
+
प्र.२ आचार्य एवं परिवार के संबंधों बाबत भावात्मक संबंध, परिवार के मार्गदर्शक के रूप में, शुभचिंतक, परिवार का विद्यालय अभिन्न अंग इस प्रकार के मत प्रदर्शित हुए ।
  
विद्यालय और परिवारका केन्द्रवर्ती बिंदु विद्यार्थी
+
प्र.३ मातपिता ने अपने बालक का विकास जानना, तथा विद्यार्थियों की समस्याओं का हल निकाले हेतु विद्यालय को भेंट देना चाहिये यह लगभग सबका उत्तर था।
होता है । उसका विकास यही दोनों का लक्ष्य बन जाता
 
है । इस लक्ष्यपूर्ति के लिये विद्यालय एवं परिवार इन दोनों
 
के सम्बन्धों का लोकमत जानने के लिये इस प्रश्नावली का
 
प्रयोजन रहा । कुरुक्षेत्र से श्री रमेन्द्रसिंहजी ने ३९ शिक्षक
 
९८ अभिभावक, ३ प्रधानाचार्य, २ संस्थाचालकों का
 
सहभाग लेकर इसकी पूर्तता की ।
 
  
प्र. विद्यालय और छात्र के परिवार इन दोनों का
+
प्र.विद्यालय संचालन मे आर्थिक सहयोग देना, कार्यक्रमों मे सहयोग देना, स्वयं का कलाकौशल विद्यालय के काम में लगाना, समाज में विद्यालय के प्रति अच्छा दृष्टिकोण विकसित करना इस प्रकार की सहायता हो सकती है।
संबंध स्पष्ट करते हुए दोनों मे गहरा आत्मीय संबंध, परस्पर
 
पूरक संबंध, गाडी के दो पहियों जैसा संबंध, शैक्षिक एवं
 
सामाजिक सबंध जैसे विविध उत्तर प्राप्त हुए । उन दोनों मे
 
आत्मीय सबंध कैसे निर्माण होंगे इस पाचवे प्रश्न में आपस
 
  
विद्यालय एवं परिवार
+
प्र. ४, ८ और ९ परस्परावलंबी प्रश्न थे उनका तथ्य इस प्रकार था । अपने बालक की शैक्षिक प्रगति अनुशासन, चारित्र्य, व्यवहार में परिवर्तन इस बातों में विद्यालय परिवार का मार्गदर्शक बने। उसके लिए अभिभावक संमेलन, बैठकें, ई-मेल, दूरध्वनि द्वारा संपर्क करना तथा चिन्तन बैठक का आयोजन करना ।
  
९९
+
===अभिमत===
 +
आज विद्यालय एवं परिवार में जैसे संबंध होते हैं उसी के आधार पर जवाब मिले । छात्र का विकास विद्यालय एवं घर दोनों मे होता है। दोनों की भूमिका जब कि भिन्न हैं। घर संस्कार केन्द्र और विद्यालय बालक का ज्ञानकेन्द्र होता है। ऐसी भूमिका जब दोनों के मन में होती है तब छात्र का समग्र विकास सहजता से होता है यह धार्मिक सोच है । अतः विद्यालय और परिवार के संबंध घनिष्ठ एवं आत्मीय होने चाहिये । बिना कहे परिवार ने विद्यालय की आवश्यकताएं जानना एवं उनकी पूर्तता करना । और विद्यालय ने परिवार को योग्य मार्गदर्शन करना । शिक्षक परिवार के एवं बालक के गुरु हैं और परिवार, समाज अपना अन्नदाता है यह भावना होनी चाहिये । फिर आपस मे विश्वास और सामंजस्य निर्माण होगा, सहयोग वृत्ति निर्माण होगी । अभिभावकों ने केवल बालक का शैक्षिक विकास देखने हेतु विद्यालय को भेंट देना अधूरा होगा, उसके साथ बालक की मानसिकता, चरित्र के संबंध में चर्चा विमर्श करना होगा । अभिभावक अपनी गायनवादन कला, लेखनकला का बिनामूल्य सहयोग करे, अपना पद, अधिकार व्यवसाय से विद्यालय संचालन में सहयोगी बने । कभी शिक्षकों की अनुपस्थिति में योग्य अभिभावक कक्षा भी ले सकते हैं । अपने सुलेख का उपयोग विद्यालय के कार्यालयीन कामों में अथवा छात्रों को व्यक्तिगत रूप से सेवा के रूप में सहायता कर सकते हैं । विद्यालय ने भी गणवेश सिलाना होता हैं । सिलाई के लिए अपने दर्जी अभिभावक, फर्निचर के लिये सुथार, भवन निर्माण के लिये बिल्डर अभिभावकों का उपयोग कर उन्हें रोजगार देना चाहिये । बाहर की एजन्सी को दूर रखे तब आत्मीयता एवं मित्रता प्रस्थापित होगी ।
  
   
+
शिक्षक अभिभावक आपस में आशंका से नहीं अपितु परस्पर पूरक एवं विश्वासु मित्र बनेंगे तो छात्रो का भी हित होगा । आज अभिभावक विद्यालय की कहाँ कमी दिखाई देती है इस तरफ नजर रखते हैं और विद्यालय उन्हें एक आर्थिक स्रोत के रूप में उनका शोषण करते हुए दिखाई देते है । विद्यालय का चयन करते समय आज अभिभावक जहाँ अच्छे संस्कार मिलते है, जहाँ सब प्रकार के उत्सव त्योहार मनाये जाते हैं, जहाँ बहुत सुखसुविधायें बालक को प्राप्त होती हैं वहाँ एडमिशन दिलवाना ऐसा विचार करते हैं । विद्यालय भी अभिभावकों ने बच्चोंं की पढ़ाई में ध्यान देना, घरों में उत्सव पर्व नहीं मनाये जाते इसलिये संस्कार होने हेतु विद्यालय में करना ऐसा विचार रखते हैं, बिल्कुल इससे उल्टा विद्यालय ने शिक्षा की ओर घरों ने संस्कारों की जिम्मेदारी लेकर करना चाहिये । यह धार्मिक विचार है।
   
 
 
 
  
में सहकार्य की भूमिका, आपसी सद्भाव, परिवार के
+
"जेनुं काम तेने थाय बीजा करे तो गोथा खाय' (जिसका काम है वही करेगा, अन्य करता है तो गोते लगाता है) ऐसी कहावत है। विद्यालय और परिवार दोनों ने परस्पर आशंका और स्वार्थ छोडकर आपस में विश्वास और घनिष्ठता प्रस्थापित करने से परिवार सुदृढ़ बनेंगे विद्यालय बड़ा होगा, शिक्षा का दर्जा बढ़ेगा
सुखदुःख मे सहभागी होना इस प्रकार से उत्तर मिले
 
  
प्र.२ आचार्य एवं परिवार के संबंधों बाबत भावात्मक
+
===शिक्षा के तीन केन्द्र===
संबंध, परिवार के मार्गदर्शक के रूप में, शुभचिंतक, परिवार
+
धार्मिक शिक्षाविचार के अनुसार शिक्षा मनुष्य के जीवन के साथ अभिन्न रूप से जुडी है । वह आजीवन होती है और सर्वत्र चलती है
का विद्यालय अभिन्न अंग इस प्रकार के मत प्रदर्शित हुए
 
  
प्र.३ मातपिताने अपने बालक का विकास जानना,
+
शिक्षा सर्वत्र चलती है तब भी वह तीन स्थानों में केन्द्रित हुई है। ये तीन केन्द्र हैं विद्यालय, परिवार और मन्दिर । विद्यालय में शिक्षक, घर में अभिभावक और मन्दिर में धर्माचार्य इस शिक्षा की योजना और व्यवस्था करने वाले होते हैं ।
तथा विद्यार्थियों की समस्याओं का हल निकाले हेतु
 
विद्यालय को भेट देना चाहिये यह लगभग सबका उत्तर
 
था।
 
  
प्र.६ विद्यालय संचालन मे आर्थिक सहयोग देना,
+
आज शिक्षा का विचार केवल विद्यालयों के सन्दर्भ में ही होता है, जबकि विद्यालय से भी प्रभावी और अधिक महत्त्वपूर्ण केन्द्र है घर । घर में व्यक्ति जन्म पूर्व से ही रहना आरम्भ करता है और आजीवन रहता है जीवनशिक्षा की ६० से ७० प्रतिशत शिक्षा घर में ही होती है । घर इतना प्रभावी स्थान है । परन्तु आज घर उपेक्षित हो गया है । घर का सांस्कृतिक और शैक्षिक दोनों प्रकार का महत्त्व कम हो गया है
कार्यक्रमों मे सहयोग देना, स्वयं का कलाकौशल विद्यालय
 
के काम में लगाना, समाज में विद्यालय के प्रति अच्छा
 
दृष्टिकोण विकसित करना इस प्रकार की मदद हो सकती
 
है। प्र. ४, ८ और ९ परस्परावलंबी प्रश्न थे उनका तथ्य
 
इस प्रकार था अपने बालक की शैक्षिक प्रगति
 
अनुशासन, चारित्र्य, व्यवहार में परिवर्तन इस बातों में
 
विद्यालय परिवार का मार्गदर्शक बने । उसके लिए
 
अभिभावक संमेलन, बैठकें, ई-मेल, दूरध्वनि द्वारा संपर्क
 
करना तथा चिन्तन बैठक का आयोजन करना
 
  
अभिमत : आज विद्यालय एवं परिवार में जैसे संबंध
+
यह बहुत बडी हानि है। इसे शीघ्र ही भर देना चाहिये । वर्तमान समय में जितनी दुर्गति घर की हुई है उतनी ही मन्दिर की भी हुई है मन्दिर तो और भी विवाद में फँस गया है। इस कारण से अब घर को पुनः शिक्षा केन्द्र बनाने का दायित्व भी विद्यालय पर आता है ।
होते हैं उसी के आधार पर जवाब मिले । छात्र का विकास
 
विद्यालय एवं घर दोनों मे होता है । दोनों की भूमिका जब
 
कि भिन्न हैं घर संस्कारकेन्द्र और विद्यालय बालक का
 
ज्ञानकेन्द्र होता है । ऐसी भूमिका जब दोनों के मन में होती
 
है तब छात्र का समग्र विकास सहजता से होता है यह
 
भारतीय सोच है । इसलिए विद्यालय और परिवार के संबंध
 
घनिष्ट एवं आत्मीय होने चाहिये । बिना कहे परिवार ने
 
विद्यालय की आवश्यकताएं जानना एवं उनकी पूर्तता
 
करना । और विद्यालय ने परिवार को योग्य मार्गदर्शन
 
करना । शिक्षक परिवार के एवं बालक के गुरु हैं और
 
परिवार, समाज अपना अन्नदाता है यह भावना होनी
 
चाहिये । फिर आपस मे विश्वास और सामंजस्य निर्माण
 
होगा, सहयोग वृत्ति निर्माण होगी अभिभावकों ने केवल
 
 
  
............. page-116 .............
+
विद्यार्थियों की शिक्षा के साथ साथ घर अर्थात्‌ परिवार की शिक्षा की योजना करनी चाहिये । परिवार के लिये स्वतन्त्र विद्यालय भी हो सकता है और विद्यार्थियों के साथ साथ भी हो सकता है। विद्यार्थियों के साथ साथ करना सुविधाजनक है क्योंकि अनेक व्यवस्थायें अलग से नहीं करनी पडतीं । परिवारशिक्षा की योजना कैसे और कैसी हो सकती है ?
  
   
+
===परिवार शिक्षा के कुछ विषय===
+
हरेक व्यक्ति को अच्छा परिवारजन बनाना इसका उद्देश्य होना चाहिये । इसका अर्थ क्या है ? हर लडके को अच्छा पुरुष, अच्छा पति, अच्छा गृहस्थ और अच्छा पिता तथा हर लडकी को अच्छी स्त्री, अच्छी पत्नी, अच्छी गृहिणी और अच्छी माता बनना है यह परिवार शिक्षा का आधारभूत कथन है । इसके आधार पर अनेक प्रकार के पाठ्यक्रम और पाठ्यसामग्री तैयार करनी चाहिये ।
 
 
 
बालक का शैक्षिक विकास देखने हेतु
 
विद्यालय को भेट देना अधूरा होगा, उसके साथ बालक की
 
मानसिकता, चरित्र के संबंध में चर्चा विमर्श करना होगा ।
 
अभिभावक अपनी गायनवादन कला, लेखनकला का
 
बिनामूल्य सहयोग करे, अपना पद, अधिकार व्यवसाय से
 
विद्यालय संचालन में सहयोगी बने । कभी शिक्षकों की
 
अनुपस्थिति में योग्य अभिभावक कक्षा भी ले सकते हैं ।
 
अपने सुलेख का उपयोग विद्यालय के कार्यालयीन कामों में
 
अथवा छात्रों को व्यक्तिगत रूप से सेवा के रूप में सहायता
 
कर सकते हैं । विद्यालय ने भी गणवेश सिलाना होता हैं ।
 
सिलाई के लिए अपने दर्जी अभिभावक, फर्निचर के लिये
 
सुथार, भवन निर्माण के लिये बिल्डर अभिभावकों का
 
उपयोग कर उन्हें रोजगार देना चाहिये । बाहर की एजन्सी
 
को दूर रखे तब आत्मीयता एवं मित्रता प्रस्थापित होगी ।
 
 
 
शिक्षक अभिभावक आपस में आशंका से नहीं
 
अपितु परस्पर पूरक एवं विश्वासु मित्र बनेंगे तो छात्रो का
 
भी हित होगा । आज अभिभावक विद्यालय की कहाँ
 
कमी दिखाई देती है इस तरफ नजर रखते हैं और
 
विद्यालय उन्हें एक आर्थिक स्रोत के रूप में उनका शोषण
 
करते हुए दिखाई देते है । विद्यालय का चयन करते समय
 
आज अभिभावक जहाँ अच्छे संस्कार मिलते है, जहाँ सब
 
प्रकार के उत्सव त्योहार मनाये जाते हैं, जहाँ बहुत
 
सुखसुविधायें बालक को प्राप्त होती हैं वहाँ एडमिशन
 
दिलवाना ऐसा विचार करते हैं । विद्यालय भी अभिभावकों
 
ने बच्चों की पढाई में ध्यान देना, घरों में उत्सव पर्व नहीं
 
मनाये जाते इसलिये संस्कार होने हेतु विद्यालय में करना
 
ऐसा विचार रखते हैं । बिल्कुल इससे उल्टा विद्यालय ने
 
शिक्षा की ओर घरों ने संस्कारों की जिम्मेदारी लेकर
 
aera? करना चाहिये । यह भारतीय विचार है । “जेनुं
 
काम तेने थाय बीजा करे तो गोथा खाय' (जिसका काम
 
है वही करेगा, अन्य करता है तो गोते लगाता है) ऐसी
 
कहावत है । विद्यालय और परिवार दोनों ने परस्पर
 
आशंका और स्वार्थ छोडकर आपस में विश्वास और
 
घनिष्ठता प्रस्थापित करने से परिवार सुदृढ़ बनेंगे विद्यालय
 
बडा होगा, शिक्षा का दर्जा बढ़ेगा ।
 
 
 
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
 
 
 
 
शिक्षा के तीन केन्द्र
 
 
 
भारतीय शिक्षाविचार के अनुसार शिक्षा मनुष्य के
 
जीवन के साथ अभिन्न रूप से जुडी है । वह आजीवन
 
होती है और सर्वत्र चलती है ।
 
 
 
शिक्षा सर्वत्र चलती है तब भी वह तीन स्थानों में
 
केन्द्रित हुई है। ये तीन केन्द्र हैं विद्यालय, परिवार और
 
मन्दिर । विद्यालय में शिक्षक, घर में अभिभावक और मन्दिर
 
में धर्माचार्य इस शिक्षा की योजना और व्यवस्था करने वाले
 
होते हैं ।
 
 
 
आज शिक्षा का विचार केवल विद्यालयों के सन्दर्भ
 
में ही होता है, जबकि विद्यालय से भी प्रभावी और अधिक
 
महत्त्वपूर्ण केन्द्र है घर । घर में व्यक्ति जन्म पूर्व से ही रहना
 
शुरू करता है और आजीवन रहता है । जीवनशिक्षा की
 
६० से ७० प्रतिशत शिक्षा घर में ही होती है । घर इतना
 
प्रभावी स्थान है । परन्तु आज घर उपेक्षित हो गया है । घर
 
का सांस्कृतिक और शैक्षिक दोनों प्रकार का महत्त्व कम हो
 
गया है ।
 
 
 
यह बहुत बडी हानि है। इसे शीघ्र ही भर देना
 
चाहिये । वर्तमान समय में जितनी दुर्गति घर की हुई है
 
उतनी ही मन्दिर की भी हुई है । मन्दिर तो और भी विवाद
 
में फँस गया है। इस कारण से अब घर को पुनः शिक्षा
 
केन्द्र बनाने का दायित्व भी विद्यालय पर आता है ।
 
 
 
विद्यार्थियों की शिक्षा के साथ साथ घर अर्थात्‌
 
परिवार की शिक्षा की योजना करनी चाहिये । परिवार के
 
लिये स्वतन्त्र विद्यालय भी हो सकता है और विद्यार्थियों के
 
साथ साथ भी हो सकता है। विद्यार्थियों के साथ साथ
 
करना सुविधाजनक है क्योंकि अनेक व्यवस्थायें अलग से
 
नहीं करनी पडतीं । परिवारशिक्षा की योजना कैसे और कैसी
 
हो सकती है ?
 
 
 
परिवार शिक्षा के कुछ विषय
 
 
 
हरेक व्यक्ति को अच्छा परिवारजन बनाना इसका
 
उद्देश्य होना चाहिये । इसका अर्थ क्या है ? हर लडके को
 
अच्छा पुरुष, अच्छा पति, अच्छा गृहस्थ और अच्छा
 
 
 
 
............. page-117 .............
 
 
 
पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
 
 
 
पिता तथा हर लडकी को अच्छी स्त्री, अच्छी पत्नी,
 
अच्छी गृहिणी और अच्छी माता बनना है यह परिवार
 
शिक्षा का आधारभूत कथन है । इसके आधार पर अनेक
 
प्रकार के पाठ्यक्रम और पाठ्यसामग्री तैयार करनी चाहिये ।
 
  
 
इस शिक्षा के कुछ विषय इस प्रकार हो सकते हैं
 
इस शिक्षा के कुछ विषय इस प्रकार हो सकते हैं
  
g. स्त्री, स््रीत्व, स्रीत्व के लक्षण, स्त्रीत्व के विकास का
+
#स्त्री, स्रीत्व, स्रीत्व के लक्षण, स्त्रीत्व के विकास का स्वरूप
स्वरूप
+
#पुरुष, पुरुषत्व, पुरुषत्व के लक्षण, पुरुषत्व के विकास का स्वरूप हर स्तर पर ख्त्रीपुरुष सम्बन्ध का स्वरूप
 
+
#हर स्तर पर स्त्रीपुरुष सम्बन्ध का स्वरूप
२.. पुरुष, पुरुषत्व, पुरुषत्व के लक्षण, पुरुषत्व के
+
#सोलह संस्कारों का शास्त्रीय स्वरूप, प्रयोजन और आवश्यकता
विकास का स्वरूप
+
#परिवार, परिवार रचना, परिवार व्यवस्था, परिवार भावना और परिवार का सांस्कृतिक महत्त्व
हर स्तर पर ख्त्रीपुरुष सम्बन्ध का स्वरूप
+
#व्यक्ति के जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में शिक्षा का स्वरूप : गर्भावस्‍था, शिशुअवस्था, बालअवस्था, किशोर अवस्था, युवावस्था, प्रौढावस्था, वृद्धावस्था
 
+
#लालयेत पंचवर्षाणि, दशवर्षाणि ताडयेत प्राप्तेतुषोडशे वर्ष पुत्र मित्र समाचरेतू अर्थात्‌ मातापिता द्वारा सन्तान की एक पीढ़ी की शिक्षा
४... सोलह संस्कारों का शास्त्रीय स्वरूप, प्रयोजन और
+
#परिवार एक सामाजिक सांस्कृतिक इकाई
आवश्यकता
+
#परिवार एक आर्थिक इकाई
 
+
#गृहस्थाश्रमी का समाजधर्म
५... परिवार, परिवार रचना, परिवार व्यवस्था, परिवार
+
#गृहस्थाश्रमी का सृष्टिधर्म
भावना और परिवार का सांस्कृतिक महत्त्व
+
#परिवार का राष्ट्रधर्म
 
+
#परिवार और शिक्षा
&. व्यक्ति के जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में शिक्षा का
+
#परिवार में शिक्षा
स्वरूप : गर्भावस्‍था, शिशुअवस्था, बालअवस्था,
+
#वर्तमान सन्दर्भ में विवाहविचार
किशोर अवस्था, युवावस्था, प्रौढावस्था, वृद्धावस्था
+
#वर्तमान समय में अथार्जिन
 
+
#वर्तमान समय में धर्माचरण
७... लालयेत पंचवर्षाणि, दशवर्षाणि ताडयेत प्राप्तेतुषोडशे
+
#आश्रमव्यवस्था. और आश्रमचतुष्ट्य में करणीय अकरणीय कार्य
वर्ष पुत्र मित्र समाचरेतू अर्थात्‌ मातापिता द्वारा सन्तान
+
#घर की शिक्षा और विद्यालय की शिक्षा का समायोजन
की एक पीढ़ी की शिक्षा
+
#सज्जनों का व्यवहार
 
 
é. परिवार एक सामाजिक सांस्कृतिक इकाई
 
 
 
९, परिवार एक आर्थिक इकाई
 
 
 
१०, गृहस्थाश्रमी का समाजधर्म
 
 
 
११, गृहस्थाश्रमी का सृष्टिधर्म
 
 
 
१२. परिवार का राष्ट्रधर्म
 
 
 
५१३, परिवार और शिक्षा
 
 
 
१४. परिवार में शिक्षा
 
 
 
१५, वर्तमान सन्दर्भ में विवाहविचार
 
 
 
१६, वर्तमान समय में अथार्जिन
 
 
 
१७, वर्तमान समय में धर्माचरण
 
 
 
१८, आश्रमव्यवस्था. और आश्रमचतुष्ट्य में करणीय
 
 
 
अकरणीय कार्य
 
  
Fok
+
===क्रियान्वयन हेतु आवश्यक बातें===
 +
इस सूची को घटाया बढाया जा सकता है । परन्तु महत्त्वपूर्ण बात इसकी व्यवस्था की है । इसे प्रभावी ढंग से कार्यान्वित करने के लिये इतनी बातों की आवश्यकता होगी ।
  
   
+
#पाठ्यक्रमों का विवरण विस्तार से लिखना
+
#इसके लिये पाठन-पठन सामग्री का निर्माण करना
   
+
#ऐसी सामग्री निर्माण करने हेतु अध्ययन और अनुसन्धान करना
 +
#इसे पढ़ाने वाले लोग तैयार करना तैयार होने योग्य लोग ढूँढना
 +
#पाठ्यक्रम चलाने के लिये स्थान, अन्य सामग्री और धन की व्यवस्था करना
 +
#पढ़ने वाले लोग प्राप्त करना
  
१९, घर की शिक्षा और विद्यालय की
+
अनुभव ऐसा है कि पढने वाले लोग तो मिल ही जाते हैं। आज का समय ऐसा है कि लोग वर्तमान असंस्कारिता से तथा अन्य समस्याओं से त्रस्त हो गये हैं और उनका हल चाहते हैं । लोग अच्छे बच्चे भी चाहते हैं इसलिये पढ़ने के लिये विद्यार्थी मिल ही जायेंगे । कठिन बात है पढ़ाने वाले, लिखने वाले, अध्ययन और अनुसन्धान करनेवाले लोग प्रयासपूर्वक निमन्त्रित करने होंगे । परन्तु इन विषयों का महत्त्व समझाने पर लोग अवश्य प्राप्त होंगे ।
शिक्षा का समायोजन
 
  
२०. सज्जनों का व्यवहार
+
इस दृष्टि से परिवार हेतु विद्यालय तो विद्यार्थियों के साथ ही हो सकता है परन्तु शेष बातों के लिये अध्ययन अनुसन्धान संस्थान प्रारम्भ करना चाहिये । एक बार यह काम प्रारम्भ हुआ तो वह शीघ्र ही गति पकड लेगा ऐसा होने की सारी सम्भावनायें हैं ।
  
क्रियान्वयन हेतु आवश्यक बातें
+
==शिक्षा और परिवार प्रबोधन==
 +
शिक्षा समाजजीवन का अभिन्न अंग है । समाज और शिक्षा का एकदूसरे पर प्रभाव पडता है । शिक्षा समाज को ज्ञानवान बनाती है और समाज शिक्षा का पोषण करता है ।
  
इस सूची को घटाया बढाया जा सकता है । परन्तु
+
परिवार समाज का एक अंग है, एक इकाई है । परिवारों में अभिभावक परिवार विशिष्ट है । अपने बालक की शिक्षा के निमित्त से जो विद्यालय के साथ ज़ुडा है वह अभिभावक परिवार है । ऐसे अभिभावक के मन में शिक्षा
महत्त्वपूर्ण बात इसकी व्यवस्था की है । इसे प्रभावी ढंग से
+
विषयक कुछ स्पष्टतायें होना आवश्यक है । स्पष्टता नहीं होने से विद्यार्थी की शिक्षा में तथा शिक्षा विषयक चिन्तन और व्यवस्था में अवरोध निर्माण होते हैं, स्पष्टता होने से
कार्यान्वित करने के लिये इतनी बातों की आवश्यकता
 
होगी ।
 
 
 
१, पाठ्यक्रमों का विवरण विस्तार से लिखना
 
 
 
२... इसके लिये पाठन-पठन सामग्री का निर्माण करना
 
 
 
३, ऐसी सामग्री निर्माण करने हेतु अध्ययन और
 
अनुसन्धान करना
 
 
 
¥. इसे पढ़ाने वाले लोग तैयार करना
 
तैयार होने योग्य लोग ढूँढना
 
 
 
६... पाठ्यक्रम चलाने के लिये स्थान, अन्य सामग्री और
 
धन की व्यवस्था करना
 
 
 
७. . पढ़ने वाले लोग प्राप्त करना
 
 
 
अनुभव ऐसा है कि पढने वाले लोग तो मिल ही
 
जाते हैं। आज का समय ऐसा है कि लोग वर्तमान
 
असंस्कारिता से तथा अन्य समस्याओं से त्रस्त हो गये हैं
 
और उनका हल चाहते हैं । लोग अच्छे बच्चे भी चाहते हैं
 
इसलिये पढ़ने के लिये विद्यार्थी मिल ही जायेंगे । कठिन
 
बात है पढ़ाने वाले, लिखने वाले, अध्ययन और
 
अनुसन्धान करनेवाले लोग प्रयासपूर्वक निमन्त्रित करने
 
होंगे । परन्तु इन विषयों का महत्त्व समझाने पर लोग
 
अवश्य प्राप्त होंगे ।
 
 
 
इस दृष्टि से परिवार हेतु विद्यालय तो विद्यार्थियों के
 
साथ ही हो सकता है परन्तु शेष बातों के लिये अध्ययन
 
अनुसन्धान संस्थान प्रारम्भ करना चाहिये । एक बार यह
 
काम प्रारम्भ हुआ तो वह शीघ्र ही गति पकड लेगा ऐसा
 
होने की सारी सम्भावनायें हैं ।
 
 
 
 
............. page-118 .............
 
 
 
 
 
 
 
शिक्षा समाजजीवन का अभिन्न अंग है । समाज और
 
शिक्षा का एकदूसरे पर प्रभाव पडता है । शिक्षा समाज को
 
ज्ञानवान बनाती है और समाज शिक्षा का पोषण करता है ।
 
 
 
परिवार समाज का एक अंग है, एक इकाई है ।
 
परिवारों में अभिभावक परिवार विशिष्ट है । अपने बालक
 
की शिक्षा के निमित्त से जो विद्यालय के साथ ज़ुडा है वह
 
अभिभावक परिवार है । ऐसे अभिभावक के मन में शिक्षा
 
विषयक कुछ स्पष्टतायें होना आवश्यक है । स्पष्टता नहीं
 
होने से विद्यार्थी की शिक्षा में तथा शिक्षा विषयक चिन्तन
 
और व्यवस्था में अवरोध निर्माण होते हैं, स्पष्टता होने से
 
 
समर्थन और सहयोग प्राप्त होते हैं ।
 
समर्थन और सहयोग प्राप्त होते हैं ।
  
Line 654: Line 216:
 
आवश्यक है ऐसे विषय कुछ इस प्रकार हैं
 
आवश्यक है ऐसे विषय कुछ इस प्रकार हैं
  
१, बालक की शिक्षा घर में भी होती है
+
===बालक की शिक्षा घर में भी होती है===
 
+
शिक्षा व्यक्ति के साथ जन्मपूर्व से ही जुडी है। आजन्मशिक्षा का एक स्थान विद्यालय है । जीवन के भी एक अंग की शिक्षा प्राप्त करने हेतु व्यक्ति विद्यालय जाता है। घर तो जीवन का पूर्ण रूप से केन्द्र है । व्यक्ति आजन्म घर में ही रहता है । इसलिये घर शिक्षा का भी एक महत्त्वपूर्ण स्थान है । ऐसी अनेक बातें हैं जो विद्यालयमें जाकर नहीं अपितु घर में ही सीखाई जाती हैं । ये बातें इस प्रकार हैं:
शिक्षा व्यक्ति के साथ जन्मपूर्व से ही जुडी है।
 
आजन्मशिक्षा का एक स्थान विद्यालय है । जीवन के भी
 
एक अंग की शिक्षा प्राप्त करने हेतु व्यक्ति विद्यालय जाता
 
है । घर तो जीवन का पूर्ण रूप से केन्द्र है । व्यक्ति आजन्म
 
घर में ही रहता है । इसलिये घर शिक्षा का भी एक महत्त्वपूर्ण
 
स्थान है । एसी अनेक बातें हैं जो विद्यालयमें जाकर नहीं
 
अपितु घर में ही सीखाई जाती हैं । ये बातें इस प्रकार हैं
 
 
 
१, गर्भावस्‍था के संस्कार : बालक का इस जन्म
 
का जीवन गर्भाधान से शुरू होता है । इसमें निमित्त उसके
 
मातापिता होते हैं । मातापिता के माध्यम से उसे पिता की
 
चौदह और माता की पाँच पीढ़ियों के संस्कार प्राप्त होते
 
हैं। इससे वंशपरम्परा अर्थात्‌ कुल परम्परा बनती है।
 
वंश-परम्परा बनाये रखने की, उसे समृद्ध करने की शिक्षा
 
का केन्द्र घर ही है । विद्यालय उसमें सहयोग और मार्गदर्शन
 
करता है परन्तु मुख्य कार्य तो घर ही करता है । इस दृष्टि से
 
घर को बालक का प्रथम विद्यालय कहा गया है ।
 
 
 
घर में माता प्रथम शिक्षक होती है, पिता द्वितीय और
 
 
 
शिक्षा और परिवार प्रबोधन
 
  
श्०२
+
====गर्भावस्‍था के संस्कार :====
 +
बालक का इस जन्म का जीवन गर्भाधान से आरम्भ होता है । इसमें निमित्त उसके मातापिता होते हैं । मातापिता के माध्यम से उसे पिता की चौदह और माता की पाँच पीढ़ियों के संस्कार प्राप्त होते हैं। इससे वंशपरम्परा अर्थात्‌ कुल परम्परा बनती है। वंश-परम्परा बनाये रखने की, उसे समृद्ध करने की शिक्षा का केन्द्र घर ही है । विद्यालय उसमें सहयोग और मार्गदर्शन करता है परन्तु मुख्य कार्य तो घर ही करता है । इस दृष्टि से घर को बालक का प्रथम विद्यालय कहा गया है । घर में माता प्रथम शिक्षक होती है, पिता द्वितीय और बाद में शेष सारे व्यक्ति शिक्षक की भूमिका में होते हैं । दादा, दादी, बडे भाईबहन, पिता के भाई, अर्थात्‌ चाचाचाची, घर में समय समय पर आनेवाले सगे सम्बन्धी, अतिथि अभ्यागत बालक को सिखाने का काम करते हैं । यह विधिवत्‌ दीक्षा देकर दी हुई शिक्षा नहीं है। यह अनौपचारिक शिक्षा है जो सहज रूप से निरन्तर चलती रहती है । अपने आसपास बालक हैं, उनपर हमारी वाणी, विचार और व्यवहार का प्रभाव पड़ेगा और वह उन बातों को सीखेगा ऐसी सजगता रही तो शिक्षा सजगता पूर्वक होती है अन्यथा बालक तो अपनी सजगता न रही तो भी सीख ही लेते हैं ।
  
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
+
परिवारजनों से सीखने की कालावधि बालक बड़ा होकर अपने बालक को जन्म देता है तब तक की माननी चाहिये । यह पूरी पीढी की शिक्षा है । इसके मुख्य अंग इस प्रकार हैं
  
+
शिशुअवस्था में कर्मेन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों को सक्रिय बनाना, चलना, बोलना, खाना, सीखना, चित्त के माध्यम से संस्कार ग्रहण करना, जगत का परिचय प्राप्त करने की शरुआत करना ।
 
 
 
  
बाद में शेष सारे व्यक्ति शिक्षक की भूमिका में होते हैं ।
+
बाल और किशोर अवस्था में चरित्र के अनेक पहलुओं को सुदृढ़ बनाना, शरीर और मन को साधना, बुद्धि की सक्रियता का प्रास्भ करना, घरगृहस्थी चलाने हेतु आवश्यक सारे काम सीखना, परिवार का अंग बनने हेतु नियमन और अनुशासन में रहना शिशु अवस्था में माता की भूमिका प्रमुख होती है और शेष सभी सहयोगी होते हैं। बाल तथा किशोर अवस्था में पिता की भूमिका प्रमुख होती है और शेष सभी सहयोगी होते हैं ।
दादा, दादी, बडे भाईबहन, पिता के भाई, अर्थात्‌
 
चाचाचाची, घर में समय समय पर आनेवाले सगे सम्बन्धी,
 
अतिथि अभ्यागत बालक को सिखाने का काम करते हैं
 
यह विधिवत्‌ दीक्षा देकर दी हुई शिक्षा नहीं है। यह
 
अनौपचारिक शिक्षा है जो सहज रूप से निरन्तर चलती
 
रहती है । अपने आसपास बालक हैं, उनपर हमारी वाणी,
 
विचार और व्यवहार का प्रभाव पड़ेगा और वह उन बातों
 
को सीखेगा ऐसी सजगता रही तो शिक्षा सजगता पूर्वक
 
होती है अन्यथा बालक तो अपनी सजगता न रही तो भी
 
सीख ही लेते हैं ।
 
  
२. परिवारजनों से सीखने की कालावधि बालक बडा
+
तरुण और युवावस्था में स्वतन्त्र होने की, दायित्वबोध की और समाज के साथ समायोजित होने की शिक्षा मुख्य विषय है। इस दृष्टि से निरीक्षण, चिन्तन, विचारविमर्श, मातापिता से मार्गदर्शन और परामर्श अत्यन्त उपयोगी होते हैं। इस आयु में पुरुषत्व और स्त्रीत्व का विकास, अर्थार्जन तथा गृहसंचालन की योग्यता और मातापिता के दायित्वों में सर्वप्रकार का सहभाग शिक्षा के प्रमुख अंग हैं ।
होकर अपने बालक को जन्म देता है तब तक की माननी
 
चाहिये । यह पूरी पीढी की शिक्षा है । इसके मुख्य अंग इस
 
प्रकार हैं...
 
शिशुअवस्था में कर्मन्ट्रियों, ज्ञानेन्द्रियों को सक्रिय
 
बनाना, चलना, बोलना, खाना, सीखना, चित्त के
 
माध्यम से संस्कार ग्रहण करना, जगतू का परिचय
 
प्राप्त करने की शरुआत करना |
 
  
बाल और किशोर अवस्था में चरित्र के अनेक
+
युवक विवाह करके गृहस्थ बनता है और घर का दायित्व लेता है । अब पत्नी के साथ उसे मातापिता बनने की सिद्धता करनी है । उसे अपने मातापिता से जो मिला है उसे नई पीढ़ी तक पहुँचाने हेतु समर्थ बनना है यह शिक्षा भी उसे मातापिता से ही प्राप्त होती है । वे पतिपत्नी बालक को जन्म देते हैं और उनकी परिवार में होनेवाली औपचारिक शिक्षा पूर्णता को प्राप्त होती है ।
पहलुओं को सुदृढ़ बनाना, शरीर और मन को
 
साधना, बुद्धि की सक्रियता का प्रास्भ करना,
 
घरगृहस्थी चलाने हेतु आवश्यक सारे काम सीखना,
 
परिवार का अंग बनने हेतु नियमन और अनुशासन में
 
रहना शिशु अवस्थामें माता की भूमिका प्रमुख होती
 
है और शेष सभी सहयोगी होते हैं। बाल तथा
 
किशोर अवस्था में पिता की भूमिका प्रमुख होती है
 
और शेष सभी सहयोगी होते हैं
 
  
तरुण और युवावस्था में स्वतन्त्र होने की,
+
श्रेष्ठ और सुसंस्कृत समाज के लिये घर में होनेवाली इस शिक्षा का महत्त्व बहुत है। आज इस बात का विस्मरण हो गया है । घर केवल भोजन और निवास की व्यवस्था के केन्द्र बन गये हैं । मकान के रूप में सम्पत्ति बन गया है। इसे पुनः संस्कृति का केन्द्र बनाना शिक्षाविषयक चिन्तन का महत्त्वपूर्ण मुद्दा है ।
दायित्वबोध की और समाज के साथ समायोजित होने
 
की शिक्षा मुख्य विषय है। इस दृष्टि से निरीक्षण,
 
 
  
............. page-119 .............
+
===बालक की विद्यालयीन शिक्षा का प्रारम्भ उचित समय पर हो===
 +
समाज में आम धारणा बन गई है कि शिक्षा विद्यालय में ही होती है । व्यक्ति के जीवन में शिक्षा अनिवार्य है, इसलिये उसका विद्यालय जाना भी अनिवार्य है । मातापिता को शिक्षा की इतनी जल्दी हो जाती है कि वे ढाई वर्ष की आयु में ही बालक को विद्यालय में भेज देते हैं । यह कवल बालक के साथ ही नहीं तो शिक्षा के साथ और समाज के साथ भी अन्याय है । जल्दी करने से अधिक शिक्षा नहीं होती, जल्दी करने से अच्छी शिक्षा नहीं होती । उल्टे अनेक प्रकार से हानि होती है। दुनियाभर के शिक्षाशास्त्री बालक की शिक्षा कम से कम पाँच वर्ष पूर्ण होने के बाद ही आरम्भ होनी चाहिये यह आग्रहपूर्वक कहते हैं । परन्तु देशमें पूर्व प्राथमिक, नर्सरी, के.जी., बालवाडी, शिशुविहार, शिशुवाटिका आदि नामों से यह शिक्षा जोरशोर से चलती है । अनेक स्थानों पर तो यह एक उद्योग बन गया है और कम्पनियाँ बनी हैं । बाजार के लोभ से और मातापिता के आअज्ञान से यह शिक्षा चलती है । शिक्षाशास्त्र, मनोविज्ञान, व्यवहारशास्त्र इस बात का समर्थन नहीं करते तो भी यह चलता है । कई विद्यालय तो अपने पूर्वप्राथमिक विभाग में यदि प्रवेश नहीं लिया तो आगे की शिक्षा के लिये प्रवेश ही नहीं देते । “शिशुशिक्षा' नामक यह वस्तु महँगी भी बहुत है । शिशु शिक्षा होनी चाहिये घर में, आग्रह रखा जाता है विद्यालय में होने का । इसका एक कारण घर अब शिक्षा के केन्द्र नहीं रहे यह भी है । इस विषय को ठीक करने हेतु एक बड़ा समाजव्यापी आन्दोलन करने की आवश्यकता है । परिवार प्रबोधन अर्थात्‌ माता- पिता की शिक्षा इस आन्दोलन का महत्त्वपूर्ण अंग है ।
  
पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
+
===प्राथमिक शिक्षा क्रिया और अनुभव प्रधान हो===
 +
शिक्षा विषयक एक अतिशय गलत धारणा यह बन गई है कि वह पढने लिखने से होती है। पुस्तकों और बहियों को, पढने और लिखने को इतना अधिक महत्त्व दिया जाता है कि शिक्षा होती है कि नहीं इस बात की ओर ध्यान ही नहीं है । अभिभावकों का आग्रह ऐसा होता है कि वे नियमन करने लगते हैं ।
  
चिन्तन, विचारविमर्श, मातापिता से मार्गदर्शन और
+
प्राथमिक शिक्षा ज्ञानेन्द्रियों और कर्मन्द्रियों का विकास करने की शिक्षा है। यह क्रिया आधारित और अनुभव आधारित होनी चाहिये वह ऐसी हो इसलिये पुस्तकें और लेखन सामग्री कम होनी चाहिये
परामर्श अत्यन्त उपयोगी होते हैं। इस आयु में
 
पुरुषत्व और सख्त्रीत्व का विकास, अथर्जिन तथा
 
गृहसंचालन की योग्यता और मातापिता के दायित्वों
 
में सर्वप्रकार का सहभाग शिक्षा के प्रमुख अंग हैं ।
 
युवक विवाह करके गृहस्थ बनता है और घर का
 
दायित्व लेता है । अब पत्नी के साथ उसे मातापिता
 
बनने की सिद्धता करनी है । उसे अपने मातापिता से
 
जो मिला है उसे नई पीढ़ी तक पहुँचाने हेतु समर्थ
 
बनना है यह शिक्षा भी उसे मातापिता से ही प्राप्त
 
होती है । वे पतिपत्नी बालक को जन्म देते हैं और
 
उनकी परिवार में होनेवाली औपचारिक शिक्षा पूर्णता
 
को प्राप्त होती है
 
  
श्रेष्ठ और सुसंस्कृत समाज के लिये घर में होनेवाली
+
बालक को बस्ते की विशेष आवश्यकता ही नहीं है । परन्तु इस आयु में ही बस्ता बहुत भारी हो जाता है ।
इस शिक्षा का महत्त्व बहुत है। आज इस बात का
 
विस्मरण हो गया है । घर केवल भोजन और निवास की
 
व्यवस्था के केन्द्र बन गये हैं । मकान के रूप में सम्पत्ति
 
बन गया है। इसे पुनः संस्कृति का केन्द्र बनाना
 
शिक्षाविषयक चिन्तन का महत्त्वपूर्ण मुद्दा है ।
 
  
बालक की विद्यालयीन शिक्षा का प्रारम्भ उचित
+
विभिन्न विषय सीखने की पद्धतियाँ भी भिन्न भिन्न होती हैं । भाषा बोलकर, पढकर, लिखकर सीखी जाती है, गणित गणना कर, संगीत गाकर, विज्ञान प्रयोग कर, इतिहास कहानी सुनकर सीखे जाने वाले विषय हैं । एक विषय की पद्धति दूसरे विषय को लागू नहीं हो सकती । उदाहरण के लिये संगीत पढकर नहीं सीखा जाता । गणित और विज्ञान भी पढकर नहीं सीखे जाते । शिक्षकों और अभिभावकों को यह मुद्दा समझने की अत्यन्त आवश्यकता है । यह धार्मिक शिक्षा का या प्राचीन शिक्षा का नियम नहीं है, यह विश्वभर के मनुष्यमात्र की शिक्षा का सार्वकालीन नियम है । यह अभिभावक प्रबोधन का बहुत बड़ा विषय है ।
समय पर हो
 
  
2.
+
===गृहकार्य, ट्यूशन, कोचिंग, गतिविधियाँ===
 +
शिक्षा को लेकर अभिभावकों के मनोमस्तिष्क इतने ग्रस्त और त्रस्त हैं कि कितने ही अकरणीय कार्य करने में वे समय, शक्ति और पैसा खर्च करते हैं, साथ ही अपना तनाव और चिन्ता बढ़ा लेते हैं ।
  
समाज में आम धारणा बन गई है कि शिक्षा विद्यालय
+
ऐसा एक मुद्दा गृहकार्य का है । बालकों के गृहकार्य का स्वरूप, गृहकार्य की मात्रा, गृहकार्य की पद्धति आदि सब अशास्त्रीय ढंग से चलता है । गृहकार्य के रूप में विद्यालय घर में पहुँच जाता है । इसके चलते घर में सीखने लायक बातों की उपेक्षा होती है । उनके लिये समय ही नहीं बचता है । गृहकार्य करने की पद्धति भी यान्त्रिक बन गई है। विद्यार्थी स्वयंप्रेरणासे गृहकार्य नहीं करते हैं। अभिभावकों को ध्यान देना पडता है शिक्षकों को भय जगाना पड़ता है
में ही होती है । व्यक्ति के जीवन में शिक्षा अनिवार्य है,
 
इसलिये उसका विद्यालय जाना भी अनिवार्य है । मातापिता
 
को शिक्षा की इतनी जल्दी हो जाती है कि वे ढाई वर्ष की
 
आयु में ही बालक को विद्यालय में भेज देते हैं यह
 
कवल बालक के साथ ही नहीं तो शिक्षा के साथ और
 
समाज के साथ भी अन्याय है । जल्दी करने से अधिक
 
शिक्षा नहीं होती, जल्दी करने से अच्छी शिक्षा नहीं होती
 
उल्टे अनेक प्रकार से हानि होती है। दुनियाभर के
 
शिक्षाशासत्री बालक की शिक्षा कम से कम पाँच वर्ष पूर्ण
 
होने के बाद ही शुरू होनी चाहिये यह आग्रहपूर्वक कहते
 
हैं परन्तु देशमें पूर्व प्राथमिक, नर्सरी, के.जी., बालवाडी,
 
शिशुविहार, शिशुवाटिका आदि नामों से यह शिक्षा जोरशोर
 
  
श्०्३
+
अपने बालकों ने बहुत पढ़ना चाहिये ऐसी महत्त्वाकांक्षा से प्रेरित होकर मातापिता अपने बालकों को बहुत छोटी आयु में ही ट्यूशन के लिये भेजते हैं या अपने घर में शिक्षक को बुलाते हैं । कहीं कहीं तो तीन वर्ष के बालक के लिये भी स्यूशन होता है । कहीं कहीं बालक से पिण्ड छुड़ाने के लिये भी उसे ट्यूशन में भेजा जाता है । कहीं कहीं गृहकार्य पूरा करवाने के लिये ट्यूशन में भेजा जाता है। यह तो बालक के साथ अन्याय है, उस पर अत्याचार है ।
  
   
+
बालक थोडे बडे होते ही कोचिंग क्लास नामक प्रकरण आरम्भ हो जाता है । विभिन्न विषयों का कोचिंग होता है । दसवीं, बारहवीं, महाविद्यालयीन आदि सर्व स्तरों पर कोचिंग की महिमा बढ गई है । विद्यालयों से भी इनकी प्रतिष्ठा बढ गई है । इसके रूप में हम शिक्षाक्षेत्र को दूषित कर रहे हैं इसका भान शिक्षकों, अभिभावकों और कोचिंग देने वालों को नहीं है। इनके रूप में विषयों की परीक्षालक्षी शिक्षा होती है, विद्यार्थियों की शिक्षा नहीं होती यह मुद्दा विस्मृत हो गया है । शिक्षा का अग्रताक्रम ही बदल गया है । इस विषय पर अभिभावक प्रबोधन करने की आवश्यकता है ।
 
   
 
  
से चलती है । अनेक स्थानों पर तो यह
+
अपने बालक का सर्वांगीण विकास हो इसका भूत अभिभावकों के मस्तिष्क पर सवार हो गया है । इस के चलते वे अपने बालकों को संगीत भी सिखाना चाहते हैं और नृत्य भी, चित्र भी सिखाना चाहते हैं और कारीगरी भी, वैदिक गणित भी सिखाना चाहते हैं और संस्कृत भी गर्मी की छुट्टियों में भी योग, तैराकी, फैशन डिजाइनिंग, पर्वतारोहण आदि इतनी अधिक गतिविधियाँ होती हैं कि बालक को एक भी ठीक से नहीं आती । यह तो मानसिक ही नहीं बौद्धिक अस्थिरता भी पैदा करती है । विद्यार्थी की रुचि ही नहीं बन पाती है एक भी विषय में गहरी पैठ नहीं होती और सबसे बड़ा नुकसान यह है कि विद्यार्थी घर के साथ जुड़ता नहीं है । घर की दुनिया में उसका प्रवेश ही नहीं होता, सहभागिता की बात तो दूर की है । जो सीखना चाहिये वह नहीं सीखा जाता और व्यर्थ की भागदौड चलती रहती है ।
एक उद्योग बन गया है और कम्पनियाँ बनी हैं । बाजार के
 
लोभ से और मातापिता के आअज्ञान से यह शिक्षा चलती है
 
शिक्षाशास्त्र, मनोविज्ञान, व्यवहारशास्त्र इस बात का समर्थन
 
नहीं करते तो भी यह चलता है । कई विद्यालय तो अपने
 
पूर्वप्राथमिक विभाग में यदि प्रवेश नहीं लिया तो आगे की
 
शिक्षा के लिये प्रवेश ही नहीं देते “शिशुशिक्षा' नामक यह
 
वस्तु महँगी भी बहुत है शिशु शिक्षा होनी चाहिये घर में,
 
आग्रह रखा जाता है विद्यालय में होने का । इसका एक
 
कारण घर अब शिक्षा के केन्द्र नहीं रहे यह भी है । इस
 
विषय को ठीक करने हेतु एक बडा समाजव्यापी आन्दोलन
 
करने की आवश्यकता है । परिवार प्रबोधन अर्थात्‌ माता-
 
पिता की शिक्षा इस आन्दोलन का महत्त्वपूर्ण अंग है ।
 
  
३. प्राथमिक शिक्षा क्रिया और अनुभव प्रधान हो
+
सर्वांगीण विकास की संकल्पना को स्पष्ट करना और उसके लिये क्या करना और विशेष रूप से क्या नहीं करना यह भी अभिभावक प्रबोधन का विषय है ।
  
शिक्षा विषयक एक अतिशय गलत धारणा यह बन
+
===अंग्रेजी माध्यम का मोह===
गई है कि वह पढने लिखने से होती है। पुस्तकों और
+
अभिभावकों को अंग्रेजी का इतना अधिक आकर्षण होता है कि वे अपने बालकों को मातृभाषा सिखाने से पहले ही अंग्रेजी सिखाना प्रारम्भ करते हैं । बालक को भविष्य में विदेश भेजना है इसलिये अंग्रेजी अनिवार्य है यह तर्क देकर वे दो वर्ष की आयु से अंग्रेजी सिखाना आरम्भ कर देते हैं और अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में भेजते हैं । इससे न मातृभाषा आती है न वे अपनी संस्कृति से जुडते हैं । अंग्रेजी माध्यम में पढने से विचार करने की, चिन्तन की, विषय को ग्रहण करने की, अभिव्यक्ति की, मौलिकता की बौद्धिक शक्तियों का विकास नहीं होता इस बडे भारी नुकसान की ओर ध्यान ही नहीं जाता है । व्यक्तिगत रूप से या सामाजिक रूप से मौलिक और स्वतन्त्र चिन्तन का ह्रास अंग्रेजी के लिये चुकानी पड़ने वाली भारी कीमत है । परिवार प्रबोधन के बिना इसका परिहार होने वाला नहीं है ।
बहियों को , पढने और लिखने को इतना अधिक महत्त्व
 
दिया जाता है कि शिक्षा होती है कि नहीं इस बात की ओर
 
ध्यान ही नहीं है । अभिभावकों का आग्रह ऐसा होता है
 
कि वे नियमन करने लगते हैं
 
  
प्राथमिक शिक्षा ज्ञानेन्ट्रियों और कर्मन्द्रियों का विकास
+
===सांस्कृतिक विषयों की उपेक्षा===
करने की शिक्षा है। यह क्रिया आधारित और अनुभव
+
आजकल शिक्षा अनेक अप्राकृतिक बन्धनों में जकडी गई है । सांस्कृतिक विषयों की उपेक्षा इसमें एक है । आज शिक्षा, गणित, विज्ञान, अंग्रेजी और कम्प्यूटर में सिमट गई है । इनको छोडकर सारे विषय फालतू हैं । आगे चलकर तन्त्रज्ञान, चिकित्सा, प्रबन्धन, संगणक विज्ञान, वाणिज्य महत्त्वपूर्ण विषय बन जाते हैं । इनके लिये आवश्यक हैं इसलिये प्रारम्भ में गणित और विज्ञान पढने हैं । गणित और विज्ञान में विषय के नाते रुचि नहीं है। इतिहास, समाजशास्त्र, तत्त्वज्ञान, गृहकार्य आदि सांस्कृतिक विषयों की घोर उपेक्षा हो रही है । ये सब पढने लायक विषय नहीं हैं। भाषा और साहित्य की ओर भी सुझान नहीं है। भाषाशुद्धि का आग्रह समाप्त हो गया है । इसका परिणाम यह होता है कि सामाजिकता, सभ्यता, शिष्टता, संस्कारिता, सामाजिक दायित्वबोध, देशभक्ति, मानवीय गुण आदि की शिक्षा नहीं मिलती है । मनुष्य एक यान्त्रिक, पशुतुल्य, आर्थिक प्राणी बनकर रह जाता है । यान्त्रिक शिष्टाचार और सभ्यता विकसित होती है । मानवीय सम्बन्धों को स्वार्थ की प्रेरणा होती है । अर्थात्‌ व्यक्ति अपने सुख का विचार कर दूसरों से सम्बन्ध बनाता है । अपने लिये भी वह हित का नहीं, सुख का ही विचार करता है । भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति को ही पुरुषार्थ मानता है, शिक्षा का प्रयोजन भी वही है और वह प्राप्त कर सकने को यश मानता है । अधिक से अधिकतर की ओर गति को ही विकास मानता है और उसे ऐसा विकास ही चाहिये ।
आधारित होनी चाहिये । वह ऐसी हो इसलिये पुस्तकें और
 
लेखन सामग्री कम होनी चाहिये ।
 
 
 
बालक at aed की विशेष आवश्यकता ही नहीं
 
है । परन्तु इस आयु में ही बस्ता बहुत भारी हो जाता है ।
 
 
 
विभिन्न विषय सीखने की पद्धतियाँ भी भिन्न भिन्न
 
होती हैं । भाषा बोलकर, पढकर, लिखकर सीखी जाती है,
 
गणित गणना कर, संगीत गाकर, विज्ञान प्रयोग कर,
 
इतिहास कहानी सुनकर सीखे जाने वाले विषय हैं । एक
 
विषय की पद्धति दूसरे विषय को लागू नहीं हो सकती |
 
उदाहरण के लिये संगीत पढकर नहीं सीखा जाता । गणित
 
और विज्ञान भी पढकर नहीं सीखे जाते । शिक्षकों और
 
अभिभावकों को यह मुद्दा समझने की अत्यन्त आवश्यकता
 
 
 
 
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है । यह भारतीय शिक्षा का या प्राचीन
 
शिक्षा का नियम नहीं है, यह विश्वमर के मनुष्यमात्र की
 
शिक्षा का सार्वकालीन नियम है । यह अभिभावक प्रबोधन
 
का बहुत बडा विषय है ।
 
४. गृहकार्य, ट्यूशन, कोचिंग, गतिविधियाँ
 
 
 
शिक्षा को लेकर अभिभावकों के मनोमस्तिष्क इतने
 
ग्रस्त और त्रस्त हैं कि कितने ही अकरणीय कार्य करने में वे
 
समय, शक्ति और पैसा खर्च करते हैं, साथ ही अपना तनाव
 
और चिन्ता बढ़ा लेते हैं ।
 
 
 
ऐसा एक मुद्दा गृहकार्य का है । बालकों के गृहकार्य
 
का स्वरूप, गृहकार्य की मात्रा, गृहकार्य की पद्धति आदि
 
सब अशाख्रीय ढंग से चलता है । गृहकार्य के रूप में
 
विद्यालय घर में पहुँच जाता है । इसके चलते घर में सीखने
 
लायक बातों की उपेक्षा होती है । उनके लिये समय ही
 
नहीं बचता है । गृहकार्य करने की पद्धति भी यान्त्रिक बन
 
गई है। विद्यार्थी स्वयंप्रेरणासे गृहकार्य नहीं करते हैं।
 
अभिभावकों को ध्यान देना पडता है । शिक्षकों को भय
 
जगाना पड़ता है ।
 
 
 
अपने बालकों ने बहुत पढ़ना चाहिये ऐसी
 
महत्त्वाकांक्षा से प्रेरित होकर मातापिता अपने बालकों को
 
बहुत छोटी आयु में ही ट्यूशन के लिये भेजते हैं या अपने
 
घर में शिक्षक को बुलाते हैं । कहीं कहीं तो तीन वर्ष के
 
बालक के लिये भी स्यूशन होता है । कहीं कहीं बालक से
 
पिण्ड छुड़ाने के लिये भी उसे ट्यूशन में भेजा जाता है |
 
कहीं कहीं गृहकार्य पूरा करवाने के लिये ट्यूशन में भेजा
 
जाता है। यह तो बालक के साथ अन्याय है, उस पर
 
अत्याचार है ।
 
 
 
बालक थोडे बडे होते ही कोचिंग क्लास नामक
 
प्रकरण शुरू हो जाता है । विभिन्न विषयों का कोचिंग होता
 
है । दसवीं, बारहवीं, महाविद्यालयीन आदि सर्व स्तरों पर
 
कोचिंग की महिमा बढ गई है । विद्यालयों से भी इनकी
 
प्रतिष्ठा बढ गई है । इसके रूप में हम शिक्षाक्षेत्र को दूषित
 
कर रहे हैं इसका भान शिक्षकों, अभिभावकों और कोचिंग
 
देने वालों को नहीं है। इनके रूप में विषयों की
 
 
 
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
 
 
 
 
परीक्षालक्षी शिक्षा होती है, विद्यार्थियों की शिक्षा नहीं होती
 
यह मुद्दा विस्मृत हो गया है । शिक्षा का अग्रताक्रम ही
 
बदल गया है । इस विषय पर अभिभावक प्रबोधन करने की
 
आवश्यकता है ।
 
 
 
अपने बालक का सर्वांगीण विकास हो इसका भूत
 
अभिभावकों के मस्तिष्क पर सवार हो गया है । इस के
 
चलते वे अपने बालकों को संगीत भी सिखाना चाहते हैं
 
और नृत्य भी, चित्र भी सिखाना चाहते हैं और कारीगरी
 
भी, वैदिक गणित भी सिखाना चाहते हैं और संस्कृत भी ।
 
गर्मी की छुट्टियों में भी योग, तैराकी, फैशन डिजाइनिंग,
 
पर्वतारोहण आदि इतनी अधिक गतिविधियाँ होती हैं कि
 
बालक को एक भी ठीक से नहीं आती । यह तो मानसिक
 
ही नहीं बौद्धिक अस्थिरता भी पैदा करती है । विद्यार्थी की
 
रुचि ही नहीं बन पाती है । एक भी विषय में गहरी पैठ
 
नहीं होती । और सबसे बडा नुकसान यह है कि विद्यार्थी
 
घर के साथ जुड़ता नहीं है । घर की दुनिया में उसका प्रवेश
 
ही नहीं होता, सहभागिता की बात तो दूर की है । जो
 
सीखना चाहिये वह नहीं सीखा जाता और व्यर्थ की
 
भागदौड चलती रहती है ।
 
 
 
सर्वांगीण विकास की संकल्पना को स्पष्ट करना और
 
उसके लिये क्या करना और विशेष रूप से क्या नहीं करना
 
यह भी अभिभावक प्रबोधन का विषय है ।
 
 
 
५. अंग्रेजी माध्यम का मोह
 
 
 
अभिभावकों को अंग्रेजी का इतना अधिक आकर्षण
 
होता है कि वे अपने बालकों को मातृभाषा सिखाने से
 
पहले ही अंग्रेजी सिखाना प्रारम्भ करते हैं । बालक को
 
भविष्य में विदेश भेजना है इसलिये अंग्रेजी अनिवार्य है यह
 
तर्क देकर वे दो वर्ष की आयु से अंग्रेजी सिखाना शुरु कर
 
देते हैं और अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में भेजते हैं । इससे
 
न मातृभाषा आती है न वे अपनी संस्कृति से जुडते हैं ।
 
अंग्रेजी माध्यम में पढने से विचार करने की, चिन्तन की,
 
विषय को ग्रहण करने की, अभिव्यक्ति की, मौलिकता की
 
बौद्धिक शक्तियों का विकास नहीं होता इस बडे भारी
 
 
 
 
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पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
 
 
 
नुकसान की ओर ध्यान ही नहीं जाता है । व्यक्तिगत रूप से
 
या सामाजिक रूप से मौलिक और स्वतन्त्र चिन्तन का
 
Se अंग्रेजी के लिये चुकानी पड़ने वाली भारी कीमत
 
है । परिवार प्रबोधन के बिना इसका परिहार होने वाला
 
नहीं है ।
 
 
 
६. सांस्कृतिक विषयों की उपेक्षा
 
 
 
आजकल शिक्षा अनेक अप्राकृतिक बन्धनों में जकडी
 
गई है । सांस्कृतिक विषयों की उपेक्षा इसमें एक है । आज
 
शिक्षा, गणित, विज्ञान, अंग्रेजी और कम्प्यूटर में सिमट गई
 
है । इनको छोडकर सारे विषय फालतू हैं । आगे चलकर
 
तन्त्रज्ञान, चिकित्सा, प्रबन्धन, संगणक विज्ञान, वाणिज्य
 
महत्त्वपूर्ण विषय बन जाते हैं । इनके लिये आवश्यक हैं
 
इसलिये प्रारम्भ में गणित और विज्ञान पढने हैं । गणित और
 
विज्ञान में विषय के नाते रुचि नहीं है। इतिहास,
 
समाजशास्त्र, तत्त्वज्ञान, गृहकार्य आदि सांस्कृतिक विषयों
 
की घोर उपेक्षा हो रही है । ये सब पढने लायक विषय नहीं
 
हैं। भाषा और साहित्य की ओर भी सुझान नहीं है।
 
भाषाशुद्धि का आग्रह समाप्त हो गया है । इसका परिणाम
 
यह होता है कि सामाजिकता, सभ्यता, शिष्टता, संस्कारिता,
 
सामाजिक दायित्वबोध, देशभक्ति, मानवीय गुण आदि की
 
शिक्षा नहीं मिलती है । मनुष्य एक यान्त्रिक, पशुतुल्य,
 
आर्थिक प्राणी बनकर रह जाता है । यान्त्रिक शिष्टाचार और
 
सभ्यता विकसित होती है । मानवीय सम्बन्धों को स्वार्थ
 
की प्रेरणा होती है । अर्थात्‌ व्यक्ति अपने सुख का विचार
 
कर दूसरों से सम्बन्ध बनाता है । अपने लिये भी वह हित
 
का नहीं, सुख का ही विचार करता है । भौतिक वस्तुओं
 
की प्राप्ति को ही पुरुषार्थ मानता है, शिक्षा का प्रयोजन भी
 
वही है और वह प्राप्त कर सकने को यश मानता है ।
 
अधिक से अधिकतर की ओर गति को ही विकास मानता
 
है और उसे ऐसा विकास ही चाहिये ।
 
 
 
७. वैश्विकता का आकर्षण
 
  
 +
===वैश्विकता का आकर्षण===
 
शिक्षा अब स्वतः प्रमाण नहीं रही है । अर्थात्‌ शिक्षा
 
शिक्षा अब स्वतः प्रमाण नहीं रही है । अर्थात्‌ शिक्षा
अपने आपको अपने ही बल पर प्रमाणित नहीं करती |
+
अपने आपको अपने ही बल पर प्रमाणित नहीं करती ।
 
 
१०५
 
 
 
   
 
 
   
 
 
 
व्यक्ति की भाषा, व्यक्ति का व्यवहार,
 
व्यक्ति का दृष्टिकोण उसके शिक्षित होने का प्रमाण है।
 
व्यक्ति के संस्कार, सद्गुण और सत्कार्य उसके शिक्षित होने
 
का प्रमाण है लिखित प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं
 
होती है । किसी और ने प्रमाणित करने की बाध्यता नहीं
 
होती । परन्तु हमने इन स्वाभाविक प्रमाणपत्रों के स्थान पर
 
कृत्रिम और औपचारिक प्रमाणों की व्यवस्था की । सच्ची
 
शिक्षा से विमुख होने का यह प्रारम्भ हुआ । इस व्यवस्था
 
के लिये संस्था और प्रक्रिया दोनों की आवश्यकता eft |
 
इसलिये परीक्षा नामक प्रक्रिया और प्रमाणित करने वाला
 
बोर्ड नामक संस्था बनी ।
 
 
 
अब हमें शिक्षा से प्राप्त ज्ञान की नहीं अपितु परीक्षा
 
के परिणाम स्वरूप मिलने वाले प्रमाणपत्र की आवश्यकता
 
है क्योंकि नौकरी उससे मिलती है । ज्ञान की ही परीक्षा
 
होती है और उसमें उत्तीर्ण होने पर ही प्रमाणपत्र मिलेगा यह
 
स्वाभाविक क्रम है परन्तु यह सम्बन्ध विच्छेद कब हो गया
 
इसका पता भी नहीं चला और वह हो गया । प्रमाणपत्र के
 
बिना भी ज्ञान होता है इसका भी विस्मरण हो गया ।
 
 
 
इसे प्रमाणित करने वाली भी विविध प्रकार की
 
संस्थायें होती हैं । ये स्थानिक, प्रान्तीय, अखिल भारतीय
 
और आर्न्तर्रष्ट्रीय होती हैं ।
 
 
 
अब विकास की दौड में सब को अन्तरराष्ट्रीय संस्था
 
का आकर्षण हो गया है। सब को लगता है कि
 
आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड का प्रमाणपत्र अधिक प्रतिष्ठित है । अब
 
ज्ञान, संस्कार, चरित्र, सामाजिकता, मानवीयता आदि
 
अर्थहीन और अप्रासंगिक बातें हो गई हैं । वैश्विकता ही
 
विकास है ।
 
 
 
यह कोई उचित दिशा नहीं है । इस विषय में प्रबोधन
 
की आवश्यकता है ।
 
 
 
८. जीवनविषयक दृष्टि की विपरीतता
 
 
 
जीवन को भौतिकता की दृष्टि से ही देखने का
 
प्रभाव शिक्षा पर पड रहा है । ऐसे दृष्टिकोण का बढ़ना
 
और सार्वत्रिक होना शिक्षा का ही परिणाम है। परन्तु
 
अब उससे निपटना और उसमें बदल करना केवल
 
 
 
 
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शिक्षाक्षेत्र के बस की बात नहीं रही ।
 
अभिभावकों के सहयोग के बिना यह कार्य होना असम्भव
 
है । इस दृष्टि से शिक्षा, जीवन, संस्कृति आदि विषयों को
 
लेकर अभिभावक प्रबोधन की व्यापक योजना होने की
 
आवश्यकता है । वर्तमान स्थिति ऐसी है कि अभिभावक
 
विद्यालय के अनुकूल नहीं बनते विद्यालय अभिभावकों के
 
अनुकूल हो ऐसा मानस अभिभावक रखते हैं । विद्यालय
 
कभी मजबूरी में और कभी स्वाभाविक रूप में इस भूमिका
 
को स्वीकार करते हैं क्योंकि बाजार का दृष्टिकोण सर्वत्र
 
प्रतिष्ठित हो गया है जहाँ अभिभावक ग्राहक हैं और
 
विद्यालय शिक्षा को बेचने वाले हैं । ग्राहकों के अनुकूल
 
होना व्यापारी का धर्म होता है ।
 
 
 
इन विषयों की शैक्षिक दृष्टि से विस्तारपूर्वक चर्चा
 
aa स्वतन्त्र रूप से की गई है। यहाँ उसकी
 
आवश्यकता नहीं । यहाँ अभिभावक प्रबोधन के विषय
 
कौन से हैं और उनकी योजना कैसे करना इसका विचार
 
किया है ।
 
 
 
यहाँ जिन विषयों का उल्लेख हुआ हैं उनको ठीक
 
करना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है क्योंकि ये
 
देशव्यापी हैं, अत्यन्त प्रभावी रूप से पकड जमाये हुए हैं ।
 
सम्पूर्ण समाज कहीं न कहीं अभिभावक के रूप में ही
 
व्यवहार करता है । सरकार भी इसका ही एक अंग है ।
 
बाजार ने इस पर पकड जमाई है । विज्ञापन मानस को
 
प्रभावित करते हैं ।
 
 
 
परन्तु विषय गम्भीर है। जीवन की सर्वप्रकार की
 
गुणवत्ता HI SM हो रहा है । मनुष्यजीवन और पशुजीवन
 
में जो अन्तर होता है वही समाप्त होता जा रहा है । इतना
 
ही क्यों, पशु तो फिर भी प्राकृतिक जीवन जीते हैं और
 
अनेक प्रकार की समस्याओं से बच जाते हैं । मनुष्य
 
सुसंस्कृत जीवन व्यतीत करे ऐसी उससे अपेक्षा होती है
 
परन्तु संस्कृति के शिखर से च्युत होने पर वह प्राकृत नहीं
 
होता, विकृति के गर्त में गिरता है । मनुष्य जीवन को अपने
 
ही द्वारा निर्मित समस्याओं के परिणाम स्वरूप विकृत हो
 
जाने की स्थिति आज निर्माण हुई है । शिक्षा को लेकर
 
 
 
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
 
 
 
 
अभिभावक प्रबोधन का प्रयोजन शिक्षा को और शिक्षा के
 
माध्यम से मनुष्यजीवन को विकृति से बचाना है, विकृति के
 
गर्त से बाहर लाना है। परिवार अभिभावक के लिये
 
पर्यायबाची संज्ञा है अतः हम अभिभावक प्रबोधन को
 
परिवार प्रबोधन ही कहेंगे ।
 
परिवार प्रबोधन की योजना का पहला अंग है परिवार
 
प्रबोधन का पाठ्यक्रम तैयार करना जिसके आधार पर आगे
 
की योजना बनेगी । पाठ्यक्रम के विषय कुछ इस प्रकार हो
 
सकते हैं...
 
(१) परिवार का अर्थ, परिवार का महत्त्व, सामाजिक,
 
सांस्कृतिक राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य
 
(2) परिवार की रचना, परिवार भावना एवं परिवार
 
व्यवस्था
 
(३) परिवार में शिक्षा और परिवार की शिक्षा
 
(४) वसुधैव कुट्म्बकम्‌
 
(५) भारतीय परिवार की विशेषता
 
(६) परिवार की भारतीय और पश्चिमी संकल्पना की तुलना
 
(७) परिवार एक विद्यालय
 
ये तो एक भूमिका बनाने के अधारभूत विषय हैं ।
 
इसके बाद व्यावहारिक विषयों की सूची बन सकती है ।
 
परिवार रचना हेतु आवश्यक विषय
 
वरवधूचयन और विवाहसंस्कार
 
समर्थ राष्ट्र हेतु समर्थ बालक को जन्म देने वाले समर्थ
 
मातापिता बनने की शिक्षा
 
शिशुसंगोपन और शिशुसंस्कार
 
संस्कार विचार
 
मातापिता और सन्तान का आपसी व्यवहार
 
परिवार में सन्तानों की शिक्षा
 
परिवार में विद्यार्थी जीवन और वानप्रस्थ जीवन
 
दादादादी कैसे बनें
 
परिवार और कुलपरम्परा
 
 
 
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पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
 
 
 
परिवार और समाज के अन्तर्सम्बन्ध के विषय
 
गृहस्थाश्रमी का समाजधर्म
 
 
 
परिवार और राष्ट्र, धर्म, संस्कृति
 
 
 
परिवार एक आर्थिक इकाई
 
 
 
परिवार और पर्यावरण
 
 
 
Fx wwe
 
 
 
इष्टदेवता, कुलदेवता, ग्रामदेवता, राष्ट्रदेवता
 
 
 
परिवार संचालन हेतु उपयोगी विषय : a विषय
 
सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों आयामों में होंगे ।
 
 
 
१... आहारशास्त्र जिसमें भोजन बनाना, करना और
 
करवाना, भोजनसामग्री की शुद्धता की परख आदि
 
बातों का समावेश होगा ।
 
 
 
२... शुश्रूषा और परिचर्या करना जिसमें बच्चों की, वृद्धों
 
की अतिथि की, बडों की और रुण्णों की परिचर्या
 
और शुश्रूषा का समावेश होगा ।
 
 
 
३... गृहोपयोगी कार्य जिसमें कपडे, बर्तन, फर्नीचर, धान्य
 
आदि अनेक बातों की सफाई का समावेश होगा ।
 
 
 
४. इन्हीं के साथ पूजा, अतिथिसत्कार, ब्रतों, vat,
 
उत्सवों, त्योहारों आदि को मनाना, दान-यज्ञ आदि
 
करना, ब्रत-उपवास आदि करना इन सब का समावेश
 
होगा ।
 
 
 
५... अथर्जिन की क्षमता का विकास
 
 
 
६... अधिजननशास्त्र
 
 
 
परिवार और शिक्षा
 
 
 
g. शिक्षा का अर्थ और स्वरूप
 
 
 
२... अपनी सन्तान हेतु कौनसी शिक्षा उचित है यह कैसे
 
तय को
 
 
 
शिक्षा का प्रयोजन, शिक्षा कैसे होती है
 
 
 
भारतीय शिक्षा और पाश्चात्य शिक्षा की तुलना
 
शिक्षित व्यक्ति के लक्षण
 
 
 
राष्ट्रीय शिक्षा का स्वरूप
 
 
 
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विद्यालय के प्रति परिवार का दायित्व : विद्यालय के
 
 
 
   
 
 
   
 
 
 
साथ अनुकूलन, विद्यालय को
 
सहयोग और विद्यालय का पोषण
 
 
 
८. शास्त्रों की शिक्षा
 
९... परिवर ट्वारा विद्यालय की सेवा : स्वरूप और पद्धति
 
 
 
इस पाठ्यक्रम में और भी विषय हो सकते हैं।
 
आवश्यकता और सम्भावना के आधार पर अपनी अपनी
 
सूची बनाई जा सकती है ।
 
 
 
पाठ्यक्रम निर्माण करने के बाद सामग्री की
 
आवश्यकता रहेगी । विभिन्न सन्दर्भ ग्रन्थों का अध्ययन कर
 
अनेक प्रकार की सामग्री तैयार करनी चाहिये । जैसे कि
 
१, पुस्तकें : छोटी छोटी पुस्तिकाओं से लेकर बडे ग्रन्थ
 
चित्र और आलेखों की प्रदर्शनी
 
दृश्यश्राव्य सामग्री : सी.डी., फिल्म आदि
 
कहानी, गीतों, प्रेरक घटनाओं का संग्रह
 
खिलौने, वस्त्र, खाद्य पदार्थ, सुशोभन सामग्री,
 
पात्रसंग्रह, स्वच्छता का सामान आदि का संग्रहालय
 
तथा प्रदर्शनी
 
नुक्कड नाटकों के लिये छोटे छोटे नाटक
 
सभा सम्मेलनों के लिये भाषण, गीत आदि
 
रेलियों के लिये गीत, फलक, नारे, सूत्र आदि
 
वॉट्सएप, फेसबुक आदि के लिये विडियो क्लीप्स,
 
सन्देश, चित्र आदि
 
१०, विद्यास्भ संस्कार, जन्मदिनोत्सव आदि मनाने में
 
मार्गदर्शक सामग्री
 
 
 
३. इन्हें सिखाने की योजना करना तथा पढ़ाने की
 
योजना करना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । इस दृष्टि से कुछ इस
 
प्रकार से विचार किया जा सकता है
 
 
 
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१, शिक्षा के सर्व स्तरों पर सामान्य पाठ्यक्रम के
 
अन्तर्गत इन विषयों का समावेश करना ।
 
 
 
२... विद्यालय में जिस प्रकार प्राथमिक, माध्यमिक आदि
 
विभाग होते हैं उस प्रकार परिवार शिक्षा विभाग हो
 
सकता है ।
 
 
 
 
............. page-124 .............
 
 
 
   
 
 
 
 
 
 
३... इन विषयों को सिखाने के लिये
 
शिक्षक तैयार करने हेतु शिक्षक शिक्षा भी शुरू करनी
 
होगी ।
 
 
 
¥. विश्वविद्यालयों में गृहशास्तर, अधिजननशास््र जैसे
 
विषय शुरू किये जा सकते हैं ।
 
 
 
G. विभिन्न सामाजिक सांस्कृतिक संस्था एवं संगठनों में
 
छोटे छोटे पाठ्यक्रम, व्याख्यानमाला, कार्यशाला
 
आदि की योजना हो सकती है ।
 
 
 
६. सभाओं, सम्मेलनों, मेलों आदि में पुस्तक तथा अन्य
 
सामग्री के वितरण की योजना बन सकती है ।
 
 
 
yo. विद्यालय तथा अन्य संस्थायें प्रभातफेरियों, नुक्कड,
 
नाटकों, रेलियों का आयोजन कर सकते हैं ।
 
 
 
८... कीर्तनकारों और कथाकारों को इन विषयों को अपनी
 
 
 
कथाओं के माध्यम से समाज तक पहुँचाने हेतु
 
 
 
 
 
 
 
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
निवेदन किया जा सकता है ।
 
 
 
धारावाहिकों और फिल्मों को इन विषयों को चुनने
 
का निवेदन भी किया जा सकता है ।
 
 
 
अन्तर्जाल का माध्यम भी इस विषय के प्रसार हेतु
 
उपयोग में आ सकता है ।
 
 
 
गृहविद्यापीठ की रचना भी होनी चाहिये ।
 
 
 
किसी भी हालत में यह विषय सरकारी मान्यता,
 
अनुदान, प्रमाणपत्र आदि का विषय नहीं बनाना चाहिये ।
 
यह समाज की आवश्यकता का विषय है, समाज को अपने
 
बलबूते पर ही उसे क्रियान्वित करना चाहिये । शिक्षाक्षेत्र
 
को इसमें अग्रसर की भूमिका लेनी चाहिये । यह ज्ञान,
 
संस्कार, संस्कृति और धर्म का क्षेत्र है, बाजार और राज्य
 
का नहीं । उसे उसी रूप में विकसित करना चाहिये ।
 
 
 
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8.
 
 
 
सामाजिकता की प्रायोगिक शिक्षा
 
 
 
सामाजिकता क्या है ?
 
 
 
मनुष्य समाज में रहता है । समाज मनुष्य का ही होता
 
है । मनुष्य के अलावा अन्य प्राणियों का तो केवल समूह
 
होता है । अन्य प्राणी केवल शारीरिक सुरक्षा के लिये समूह
 
में रहते दिखाई देते हैं । मनुष्य के समूह में रहने के शारीरिक
 
स्तर की सुरक्षा से बढहकर अनेक आयाम होते हैं ।
 
 
 
मनुष्य की आवश्यकतायें प्राणियों की आवश्यकताओं
 
से कहीं अधिक होती हैं । वह अकेला इन्हें पूरी नहीं कर
 
सकता । उसे दूसरों पर निर्भर रहना ही पडता है। यह
 
परस्परावलम्बन है । एकदूसरे के साथ अच्छे सम्बन्ध बनाये
 
रखे बिना परस्परावलम्बन सम्भव नहीं होता । अतः
 
आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु समूह में रहने के मनुष्य ने कुछ
 
नियम बनाये, एक व्यवस्था बनाई, एक शास्त्र बनाया जिसे
 
समाजशास्त्र कहते हैं । यह व्यवस्था मनुष्य के व्यक्तित्व का
 
अंग बन जाता है तब वह स्वाभाविक होता है । इसे ही
 
सामाजिकता कहते हैं । हर व्यक्ति में इस सामाजिकता का
 
विकास होना चाहिये ।
 
 
 
परन्तु आवश्यकताओं की पूर्ति ही सामाजिकता के
 
लिये एकमेव प्रयोजन नहीं है । केवल आवश्यकताओं की
 
पूर्ति यह तो ऊपरी और कुछ मात्रा में कृत्रिम प्रयोजन है ।
 
मूल प्रयोजन है आत्मीयता और प्रेम । सब एकदूसरे के साथ
 
आत्मिक स्तर पर जुडे हैं और एकदूसरे के लिये प्रेम का
 
अनुभव करते हैं इसलिये साथ रहना स्वाभाविक है, साथ
 
रहना अच्छा लगता है यह मूल प्रयोजन है । आत्मीयता के
 
कारण ही सेवा, त्याग, सहयोग आदि गुण प्रकट होते हैं
 
और व्यवहार में दिखाई देते हैं । ये बाहरी व्यवस्था के
 
नियम नहीं हैं, लेनदेन के या लाभालाभ के हिसाब नहीं हैं,
 
ये बिना हिसाब के देने के रूप में ही प्रकट होते हैं । यह
 
आत्मीयता ही मनुष्य के लिये समूह में रहने हेतु प्रेरित करती
 
है । प्रेम और आत्मीयता जिन गुणों के रूप में प्रकट होते हैं
 
उन गुणों का विकास ही सामाजिकता का विकास है ।
 
 
 
विद्यालयों के शिक्षाक्रम में सामाजिकता के गुणों का
 
विकास करने हेतु सावधानीपूर्वक अनेक प्रकार से योजना
 
करनी चाहिये ।
 
 
 
 
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पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
 
 
 
१, देना और बॉाँट कर उपभोग करना
 
 
 
शिशु और प्रारम्भिक बाल अवस्था में इन गुणों के
 
संस्कार होना आवश्यक है। इस दृष्टि से गीत, खेल,
 
कहानी आदि का चयन होना चाहिये । बच्चे घर से
 
अल्पाहार लाते हैं और साथ बैठकर करते हैं तब भोजन
 
शुरू करने से पूर्व गोग्रास निकालना, भोजन के बाद बचा
 
हुआ अन्न तथा जूठन कुत्ते को डालना और अपना
 
खाद्यपदार्थ प्रथम दूसरे को देना और फिर स्वयं खाना यह
 
आग्रह पूर्वक सिखाने की बातें हैं । कभी भी अकेले बैठकर
 
खाना नहीं । यहीं संस्कार आगे चलकर अनेक लोगों को
 
घर बुलाकर भोजन कराने के, अन्नदान करने के, सदाब्रत
 
चलाने के कार्यों में विकसित होते हैं ।
 
 
 
२. सत्कारपूर्वक देना
 
 
 
दूसरों को देते समय मेरे से अधिक और मेरे से अच्छी
 
वस्तु देना ही प्रेम और सम्मान का लक्षण है । मेरे पास दो
 
गुलाब के फूल हैं । एक थोडा छोटा और अल्पविकसित है,
 
दूसरा बडा और पूर्ण खिला हुआ । मैं मेरी सहेली को
 
कौनसा फूल दूंगी ? जो अच्छा है वह उसे देने की वृत्ति
 
और प्रवृत्ति बने इसकी शिक्षा देनी चाहिये । मेरे पास दो
 
पेन्सिल हैं । कक्षा के किसी छात्र के पास लिखने हेतु आज
 
पेन्सिल नहीं है । मुझे एक पेन्सिल देनी ही चाहिये । मैं
 
कौन सी दूंगा और मेरे लिये कौनसी रखूँगा ? निश्चित ही जो
 
अधिक अच्छी है वही देने का मेरा मन करना चाहिये । बस
 
में चढे तो खिडकी के पास बैठने के लिये नहीं भागूँगा
 
अपितु मित्र को बैठने दूँगा । इन्हीं संस्कारों से आगे चलकर
 
घर आये अतिथि को सत्कारपूर्वक हम अपने से अच्छी
 
सुविधाओं से युक्त व्यवस्थायें देते हैं । अनेक प्रेरक घटनाओं
 
तथा प्रत्यक्ष व्यवहार हेतु निमित्त निर्माण कर देने की, स्वयं
 
से अधिक देने की और देकर खुश होने की वृत्ति का
 
विकास करना चाहिये ।
 
३. भेदों को नहीं मानना
 
 
 
सबका स्वीकार करना असंस्कृत समाज धन, बल,
 
सत्ता, वर्ण, जाति आदि के भेदों से एकदूसरे को ऊँचा और
 
 
 
श्०९
 
 
 
   
 
 
   
 
 
 
नीचा मानने की प्रवृत्ति रखता है।
 
सुसंस्कृत समाज इन भेदों से ऊपर उठता है । भेदों से ऊपर
 
उठना विशेष आग्रहपूर्वक सिखाना चाहिये ।
 
 
 
इस दृष्टि से गटव्यवस्था बहुत प्रभावी साधन बन
 
सकती है । गटों की रचना में इन बातों का समावेश करना
 
चाहिये :
 
०"... गट के सभी विद्यार्थियों ने साथ बैठकर स्वाध्याय
 
करना । इस दृष्टि से प्रतिदिन कुछ समय रखना
 
चाहिये ।
 
स्वाध्याय में एकदूसरे की सहायता करना ।
 
एकदूसरे का पूर्ण परिचय प्राप्त करना ।
 
एकदूसरे के घर जाने का अवसर निर्माण करना ।
 
एक गट के विद्यार्थियों के परिवारों में भी परिचय और
 
आत्मीयता बढ़ाना ।
 
इन गटों की रचना में अमीर गरीब, ऊँच नीच, जाति
 
पाँति का भेद गल जाय ऐसी रचना करना |
 
इस दृष्टि से विद्यालयीन व्यवहार में गुणों का सम्मान
 
करने का प्रचलन बनाना चाहिये, धन, सत्ता या
 
वर्णजाति की उच्चता का नहीं । इन आधारों पर
 
विद्यालय से बाहर के जीवन में भी मित्रता विकसित
 
हो सके यह देखना चाहिये ।
 
 
 
४. कृतज्ञता और उदारता
 
 
 
कहीं भी किसी से कुछ सहायता प्राप्त हुई तो कृतज्ञता
 
का अनुभव करना चाहिये । आजकल कृतज्ञता बहुत कृत्रिम
 
उपचार का विषय बन गई है । बात बात में थैन्क्यू, प्लीज
 
और सॉरी कहने की प्रथा बन गई है । किसी बच्चे को
 
खिडकी बन्द करने को कहा और उसने वह काम किया तो
 
थैन्क्यू, होटेल में बैरेने पानी लाकर दिया तो थैन्क्यू, पिताजी
 
ने खिलौना लाकर दिया तो थैन्क्यू । बात बात में थैन्क्यू
 
कहना सिखाते हैं । इसी प्रकार से विद्यार्थी को ग्रन्थालय से
 
कुछ लाने को कहना है तो प्लीज, प्रश्न का उत्तर देने को
 
कहना है तो प्लीज, खडे होकर पास आने के लिये कहना
 
है तो प्लीज । मुखर होकर सर्वत्र इन शब्दों का उच्चारण
 
करने से वह अभिव्यक्ति सतही रह जाती है, केवल उपचार
 
 
 
 
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मात्र बन जाती है, भावना नहीं बनती ।
 
वास्तविक कृतज्ञता की भावना आदर, सम्मान, निः्स्वार्थता,
 
बिना स्वार्थ के सहायता, बिना स्वार्थ के दूसरों की सुरक्षा
 
करने में प्रकट होती है । वह जीवन का स्थायी भाव बनती
 
है। किसी का भी अपने लाभ के लिये उपयोग नहीं करने
 
में प्रकट होती है ।
 
 
 
इसी प्रकार से उदारता क्षमाशीलता में प्रकट होती है ।
 
दोष, गलतियाँ, अपराध, कृतघ्नता आदि को माफ कर देना
 
उदारता है । परन्तु इसमें विवेक भी आवश्यक है । मेरे प्रति
 
अपराध तो माफ करना चाहिये परन्तु किसी दुर्बल को
 
परेशान किया तो उसे दण्ड भी देना चाहिये । दोषों और
 
अवगुणों को दूर करने हेतु अवश्य प्रवृत्त होना चाहिये ।
 
परन्तु वह तिरस्कारपूर्वक नहीं अपितु उदारतापूर्वक,
 
दयापूर्वक होना चाहिये । स्वकेन्द्री बनकर व्यवहार नहीं
 
करना, दूसरे का विचार करना ही सामाजिकता है।
 
विद्यालय की छोटी मोटी स्चनाओं में तथा व्यवहारों में यह
 
सब सिखाने की दक्षता बरतना चाहिये । यही नहीं तो
 
गणित, भाषा, इतिहास आदि के पाठों में भी सामाजिकता
 
अनुस्यूत होनी चाहिये । तत्त्वज्ञान को तो सामाजिकता का
 
सन्दर्भ लेकर ही विकसित होना चाहिये । योग के प्रथम अंग
 
यम के पाँच आयाम सामाजिकता की ही शिक्षा देते हैं और
 
उन्हें सार्वभौम महाव्रत कहते हैं यह ध्यान देने योग्य बात
 
है ।
 
 
 
५. सामाजिक समरसता
 
 
 
सामाजिकता का यह परम साध्य है । हलुवा बनता है
 
तब उसमें आटा, घी, गुड और पानी होते हैं, उन सबके
 
गुण और विशेषतायें भी पहचाने जाते हैं, यहाँ तक कि घी
 
गाय का है कि भैस का, आटा गेहूँ का है या मूँग का, गुड
 
देशी है कि रासायणयुक्त यह सब पहचाना जाता है परन्तु ये
 
चीजें एक दूसरे से अलग नहीं की जा सकतीं, किंबहुना एक
 
दूसरे में उचित प्रक्रिया से समरस होने पर ही हलवा बनता
 
है। विभिन्न पदार्थों को उचित मात्रा में, उचित प्रक्रिया
 
अपनाकर समरस नहीं किया जाता तब तक कोई पदार्थ नहीं
 
बनता, फिर वह खाद्य पदार्थ हो या और कोई ।
 
 
 
११०
 
 
 
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
समाज को भी एकसंध बनाने के लिये समरसता की
 
आवश्यकता होती है । समाज में भेद तो होते ही हैं । भेद
 
गुणों और विशेषताओं को दशतते हैं । इनके मिलाप से ही
 
सामाजिक रचनायें सुन्दर बनती हैं । इन रचनाओं में सम्मान
 
और आत्मीयता की, सुरक्षा और सम्हाल की प्रक्रिया
 
अपनाने से समरसता निर्माण होती है ।
 
 
 
उदाहरण के लिये हमारे गाँवों में जब किसी के भी घर
 
में विवाह होता था तो मंडप के लिये सुधार का, मटकी के
 
लिये कुम्हार का, वख््र के लिये दर्जी का, न्यौते के लिये
 
नायी का, वाद्यों के लिये ढोली आदि का प्रथम सम्मान
 
किया जाता था, उनके द्वारा निर्मित और प्रदत्त पदार्थ का
 
पूजन किया जाता था, दानदक्षिणा वस््रभोजन से उन्हें सन्तुष्ट
 
किया जाता था और बाद में अन्य कार्य किये जाते थे ।
 
किसी के घर मृत्यु हो तब ये ही सब अपने द्वारा निर्मित
 
साधन लेकर उपस्थित हो जाते थे और उसके पैसे नहीं
 
माँगते थे । समरसता हेतु अत्यन्त बुद्धिमानी से की गई ये
 
रचनायें हैं । इसीसे भाईचारा बना रहता है, सबको अपनी
 
उपयोगिता लगती है। अपने जीवन की सार्थकता का
 
अनुभव होता हैं । इससे ही वास्तविक सुख मिलता है ।
 
इसके चलते हिंसा कम होती है, दंगे फसाद कम होते हैं ।
 
व्यक्तिगत स्तर पर सृजनशीलता का विकास होता है और
 
समाज वैभवशाली बनता है ।
 
 
 
वर्तमान में हमने दीर्घदृष्टि और व्यापकदूष्टि के अभाव
 
में काम करने वाले और काम करवाने वाले के दो वर्ग
 
निर्माण किये हैं और काम करनेवालों को नीचा और
 
करवाने वालों को ऊँचा मानना शुरू किया है । साथ ही
 
काम करने वालों के स्थान पर यन्त्रों को अपनाना शुरू
 
किया है। परिणाम स्वरूप लोगों के पास काम करने के
 
अवसर भी कम हो रहे हैं, काम करवाने वाले संख्या में कम
 
ही होते हैं और अभाव और वर्गभेद बढ़ते ही जाते हैं ।
 
किस बात के लिये किसका सम्मान करें, किस बात के लिये
 
किसकी उपयोगिता है यही प्रश्न है । सबको टिकने के लिये
 
स्पर्धा ही करनी पड़ती है, संघर्ष ही करना पडता है । इसमें
 
समरसता कैसे होगी ? बिना समरसता के सुख कहाँ ? सुख
 
की आश्वस्ति के बिना संस्कृति पनप नहीं सकती ।
 
 
 
 
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पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
 
 
 
इस व्यवस्था को बदलने का प्रावधान शिक्षा में होना
 
चाहिये । यह एक निरन्तर चलनेवाली प्रक्रिया है । अतः
 
परीक्षा का नहीं अपितु वातावरण, व्यवस्था और व्यवहार
 
का विषय है । सारी बातें परीक्षाकेन्द्री कर देने से समरसता
 
की हानि होती है ।
 
 
 
हम शिक्षा, व्यवसाय, दैनन्दिन व्यवहार को आज है
 
वैसा ही रखकर समरसता निर्माण नहीं कर सकते । यह तो
 
ऐसा ही है जैसे गरम गुण का पदार्थ खाकर शीतलता की
 
अपेक्षा करना ।
 
 
 
६. सामाजिक उत्सवों का सांस्कृतिक स्वरूप
 
बनायें रखना
 
 
 
समरसता और सामूहिकता के लिये ही अनेक उत्सवों
 
की परस्परा बनी है । उदाहरण के लिये गुजरात में जो
 
नवरात्रि का उत्सव है उसमें किसी भी वर्ग के, किसी भी
 
वर्ण के, किसी भी जाति के, किसी भी आयु के, व्यक्ति को
 
सहभागी होने का समान अधिकार है । वह सभी अआर्थों में
 
सार्वजनिक है, शक्तिपूजा का और उपवास का आलम्बन
 
लिये है और गीतनृत्य के रूप में मूर्त होता है । आज इसका
 
रूप अत्यन्त बीभत्स और सामाजिकता के लिये हानिकारक
 
बन गया है । विद्यालय अपने विद्यार्थियों के माध्यम से ही
 
इसे परिष्कृत कर सकते हैं । होली, मकरसंक्रान्ति, दीपावली
 
भी इसी के उदाहरण हैं ।
 
 
 
तीर्थयात्रायें और मेले भी इसके माध्यम हैं । उदाहरण
 
के लिये गाँव के लोग जब तीर्थयात्रा पर जाते थे तो गाँव
 
की सीमा से बाहर निकलने पर जाति छोड देते थे और एक
 
हो जाते थे । फिर ऊँचनीच, छुआछूत कुछ नहीं रहता था ।
 
जगन्नाथ भगवान के प्रसाद में जातिपाँत का कोई भेद नहीं
 
रहता है । उक्ति है “जगन्नाथ का भात, पूछे जात न पाँत' ।
 
कुम्भ जैसे मेले में पण्डित, राजा, साधु, Fed a सामान्य
 
मनुष्य का कोई भेद नहीं रहता था । तात्पर्य यह है कि
 
हमने इन उत्सवों और पर्वों की रचना समरस समाज बनाने
 
के उद्देश्य से ही की है । आज उनका रूप विकृत हो गया
 
है । उन्हें पुनः उनके मूल रूप में ले आना विद्यालयों का
 
काम है । इस दृष्टि से उचित शिक्षाक्रम अपनाना चाहिये ।
 
 
 
 
 
 
श्श्१
 
 
 
   
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
७... गुणों और क्षमताओं का
 
सम्मान करना
 
धन, सत्ता, रूप, सुविधा आदि को गुणों और
 
क्षमताओं से अधिक महत्त्व देने से सामाजिक सन्तुलन
 
बिगडता है । विद्यालय में जो tea चलकर आता है,
 
उसके पैरों में जूते नहीं हैं, उसके कपडे सामान्य हैं परन्तु
 
उसका स्वास्थ्य अच्छा है, जो अच्छी कबड्डी खेलता है,
 
गणित के सवाल आसानी से हल करता है और सबकी
 
सहायता करने हेतु तत्पर रहता है उसका सम्मान उससे
 
अधिक होना चाहिये जो बडे बाप का बेटा है, कार में
 
विद्यालय आता है, THN, HIS, Bd sed कीमती हैं
 
परन्तु शरीर से दुर्बल है, पढने और खेलने में कमजोर है
 
और स्वभाव से घमण्डी और असहिष्णु है ।
 
 
 
जो व्यक्ति को लागू है वही परिवारों को भी है । धनी
 
लोग भी कृपण और स्वार्थी होते हैं, निर्धन और वंचित
 
लोग भी उदार और समझदार होते हैं । बडे और प्रतिष्ठित
 
लोग अश्रद्धावान, भीरू और अनीतिमान होते हैं, सामान्य
 
और गरीब, झॉंपडी में रहनेवाले भी श्रद्धावान, विश्वसनीय,
 
बहादुर और नीतिमान होते हैं । विद्यार्थियों को इन गुणों का
 
सम्मान करना और अपने में विकसित करना सिखाना
 
चाहिये । गरीबी की, छोटे घर की, सामान्य कपडों की,
 
मजदूरी करने वाले, कम कमाई करने वाले मातापिता की
 
शर्म नहीं करना सिखाना चाहिये । सम्पन्नता का अहंकार
 
नहीं करना सिखाना चाहिये । विद्यालय में सम्पन्न और
 
सत्तावान लोगों की areata ak fsa ak ares
 
लोगों की उपेक्षा करने से सामाजिकता को हानि पहुँचती
 
है।
 
 
 
कई तो पूरे विद्यालय ही ऐसे होते हैं जहाँ केवल
 
पैसेवालों के बच्चों का ही प्रवेश हो सकता है। कुछ
 
विद्यालय ऐसे होते हैं जहाँ केवल पैसे वाले ही नहीं अपितु
 
उच्च पदों पर आसीन लोग ही प्रवेश प्राप्त कर सकते हैं ।
 
ऐसे विद्यालय न तो ज्ञान की सेवा करते हैं न समाज की
 
क्योंकि ये ऐसे लोग निर्माण करते हैं जो समाज के अपने
 
जैसे नहीं हैं ऐसे लोगों को तुच्छ समझते हैं । ऐसे विद्यालयों
 
में शिक्षकों का सम्मान नहीं होता, उल्टे शिक्षकों को ही
 
 
 
 
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
 
 
 
   
 
 
 
बडे लोगों के बेटों की मर्जी उठानी . को दण्ड नहीं देना हिंसा है, अहिंसा नहीं । शोषण
 
पडती है । इन्हें विद्या का धाम कैसे कह सकते हैं ? ऐसे. करनवाले व्यक्ति के विरुद्ध आवाज नहीं उठाना अधर्म
 
विद्यालय ज्ञान को सत्ता की दासी बना देते हैं । है। भूखे व्यक्ति को अन्न नहीं देना अधर्म है, जिज्ञासु
 
व्यक्ति को ज्ञान नहीं देना अधर्म है, दुर्बल की रक्षा नहीं
 
करना अधर्म है परन्तु शत्रु के गट में अन्न नहीं जाने देना
 
अपनत्व का व्यवहार करना यह सारे सामाजिक... धर्म है, दुष्ट व्यक्ति को ज्ञान देना अधर्म है, गुंडे की रक्षा
 
सदूगुणों का मूल है । दया, दान, क्षमा, उपकार, सहयोग... करने हेतु वकीली करना अधर्म है । धर्म-अधर्म, हिंसा-
 
आदि मूल्यों का जतन करना सद्गुण है । इनके अनुकूल. अहिंसा, न्याय-अन्याय, सही-गलत आदि का विवेक नहीं
 
आचरण करना सदाचार है । परन्तु समझ यदि कम है या... किया और पक्ष लेने और विरोध करने का साहस नहीं
 
स्वार्थ यदि अधिक है तो इनमें विकृति भी आती है। दिखाया तो सामाजिकता घोर संकट में पड जाती है । ऐसे
 
स्वयं at cam, न्यायी, सत्यवादी आदि होना ही. में संस्कृति की रक्षा नहीं होती । असंस्कृत समाज की
 
चाहिये परन्तु सत्य, धर्म, दान आदि की परख भी होनी . समृद्धि प्रथम आसुरी बन जाती है, बाद में सबका नाश
 
चाहिये, इनको पहचानने का विवेक और उसके अनुरूप. करती है और अन्त में स्वयं नष्ट हो जाती है ।
 
व्यवहार करने का साहस भी होना चाहिये । अपने लिये विद्यालयों _ के विषय, विषयवस्तु,  अन्यान्य
 
इनके आचरण के साथ साथ सत्य, न्याय, ज्ञान और धर्म. गतिविधियाँ, व्यवस्था, वातावरण आदि सब यह विवेक
 
का पक्ष भी लेना चाहिये और अन्याय, seca, set सिखाने के लिये प्रयुक्त होने चाहिये । महाविद्यालयों में तो
 
और अआज्ञान का त्याग, उपेक्षा, तिरस्कार या दण्ड - जहाँ. समाजशाख्र का स्वरूप ही प्रथम चरण में सामाजिकता
 
जो भी आवश्यक है - भी करना चाहिये । उदाहरण के... सिखाने का होना चाहिये । सामाजिकता की कसौटी पर ही
 
लिये स्वयं अन्याय नहीं करेंगे यह प्रथम चरण है, किसी. अन्य विषयों का मूल्यांकन होना चाहिये । उदाहरण के लिये
 
के द्वारा किये गये अन्याय को नहीं सहेंगे परन्तु समाज में .. सामाजिकता को हानि. पहुंचाने वाला. अर्थशास्त्र,
 
किसी छोटे, दुर्बल या दीन व्यक्ति के प्रति बडा, बलवान... टैक्नोलोजी, वाणिज्यशाख्र, राजशास्त्र या मनोविज्ञान, खेल
 
और समर्थ व्यक्ति अन्याय कर रहा है तो दीन, दुर्बल, .. आदि मान्य ही नहीं होने चाहिये । समाजशाख्र केवल
 
छोटे व्यक्ति का पक्ष लेना और उसकी रक्षा करना तथा... धर्मशाख्र के अनुकूल होता है । वह धर्मशास्र का अंग है
 
अन्याय करने वाले व्यक्ति का विरोध करना भी अपेक्षित. जबकि शेष सभी शास्त्रों का अंगी है। सारे शास्त्र
 
है। सुपात्र, सद्गुणी व्यक्ति की प्रशंसा करनी ही चाहिये, समाजशाख््र के अविरोधी होने अपेक्षित है ।
 
भले ही वह गरीब हो, परन्तु अपने लाभ के लिये समर्थ, शिक्षा धर्म सिखाती है । धर्म का एक अंग सृष्टि धर्म
 
गुणहीन व्यक्ति की प्रशंसा नहीं करना चाहिये । वह प्रशंसा... है और दूसरा समष्टि धर्म है । समष्टि धर्म सृष्टि धर्म के
 
नहीं चाटुकारिता है । व्यक्ति भले ही विद्वान, धनवान या... अनुकूल होता है । समष्टि धर्म ही सामाजिकता है । अतः
 
सत्तावान हो, यदि वह अधर्म और अन्यायपूर्ण व्यवहार. शिक्षा का मुख्य कार्य ही सामाजिकता सिखाना है ।
 
करता है तो उसकी मित्रता नहीं करनी चाहिये, भले ही सामाजिकता सिखाने के लिये विद्यालयों की वर्तमान
 
वह हमारे साथ बहुत अच्छा व्यवहार करता हो । विद्वान. रीतिनीति में बहुत परिवर्तन करना होगा यह सत्य हैं, परन्तु
 
व्यक्ति यदि धनवान की चाटुकारिता करता है तो वह ज्ञान... ऐसा परिवर्तन किये बिना शिक्षा का स्वरूप भारतीय नहीं
 
की अवमानना करता है यही समझना चाहिये । धर्माचार्थ. बन सकता । भारतीयकरण केवल सिद्धान्त में नहीं होता,
 
यदि सत्तावान व्यक्ति के अनुकूल बनने का प्रयास करता. सिद्धान्त को व्यवहार में परिणत करने से होता है ।
 
है तो वह धर्म का अनादर करता है । आततायी व्यक्ति
 
  
८. सत्य, धर्म, ज्ञान, सेवा न्याय आदि की परख होना
+
व्यक्ति की भाषा, व्यक्ति का व्यवहार, व्यक्ति का दृष्टिकोण उसके शिक्षित होने का प्रमाण है। व्यक्ति के संस्कार, सद्गुण और सत्कार्य उसके शिक्षित होने का प्रमाण है । लिखित प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं होती है । किसी और ने प्रमाणित करने की बाध्यता नहीं होती । परन्तु हमने इन स्वाभाविक प्रमाणपत्रों के स्थान पर कृत्रिम और औपचारिक प्रमाणों की व्यवस्था की । सच्ची शिक्षा से विमुख होने का यह प्रारम्भ हुआ । इस व्यवस्था के लिये संस्था और प्रक्रिया दोनों की आवश्यकता थी । इसलिये परीक्षा नामक प्रक्रिया और प्रमाणित करने वाला बोर्ड नामक संस्था बनी ।
  
श्१२
+
अब हमें शिक्षा से प्राप्त ज्ञान की नहीं अपितु परीक्षा के परिणाम स्वरूप मिलने वाले प्रमाणपत्र की आवश्यकता है क्योंकि नौकरी उससे मिलती है । ज्ञान की ही परीक्षा होती है और उसमें उत्तीर्ण होने पर ही प्रमाणपत्र मिलेगा यह स्वाभाविक क्रम है परन्तु यह सम्बन्ध विच्छेद कब हो गया इसका पता भी नहीं चला और वह हो गया । प्रमाणपत्र के बिना भी ज्ञान होता है इसका भी विस्मरण हो गया ।
 
  
............. page-129 .............
+
इसे प्रमाणित करने वाली भी विविध प्रकार की संस्थायें होती हैं । ये स्थानिक, प्रान्तीय, अखिल धार्मिक और अंतर्राष्ट्रीय होती हैं । अब विकास की दौड में सब को अन्तरराष्ट्रीय संस्था का आकर्षण हो गया है। सब को लगता है कि अन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड का प्रमाणपत्र अधिक प्रतिष्ठित है । अब ज्ञान, संस्कार, चरित्र, सामाजिकता, मानवीयता आदि अर्थहीन और अप्रासंगिक बातें हो गई हैं । वैश्विकता ही विकास है ।
  
पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
+
यह कोई उचित दिशा नहीं है । इस विषय में प्रबोधन की आवश्यकता है ।
  
छात्रों का विकास केवल विद्यालय में ही नहीं
+
===जीवनविषयक दृष्टि की विपरीतता===
होता, विद्यालय के बाहर, घर में भी होता है, इस दृष्टि से
+
जीवन को भौतिकता की दृष्टि से ही देखने का प्रभाव शिक्षा पर पड रहा है । ऐसे दृष्टिकोण का बढ़ना और सार्वत्रिक होना शिक्षा का ही परिणाम है। परन्तु अब उससे निपटना और उसमें बदल करना केवल शिक्षाक्षेत्र के बस की बात नहीं रही । अभिभावकों के सहयोग के बिना यह कार्य होना असम्भव है इस दृष्टि से शिक्षा, जीवन, संस्कृति आदि विषयों को लेकर अभिभावक प्रबोधन की व्यापक योजना होने की आवश्यकता है । वर्तमान स्थिति ऐसी है कि अभिभावक विद्यालय के अनुकूल नहीं बनते विद्यालय अभिभावकों के अनुकूल हो ऐसा मानस अभिभावक रखते हैं । विद्यालय कभी मजबूरी में और कभी स्वाभाविक रूप में इस भूमिका को स्वीकार करते हैं क्योंकि बाजार का दृष्टिकोण सर्वत्र प्रतिष्ठित हो गया है जहाँ अभिभावक ग्राहक हैं और विद्यालय शिक्षा को बेचने वाले हैं । ग्राहकों के अनुकूल होना व्यापारी का धर्म होता है ।
मातापिता को निम्न लिखित बातों में विद्यालय ने क्या
 
मार्गदर्शन करना चाहिये ?
 
  
१, भोजन, २. निद्रा, ३. व्यायाम, ४. गृहजीवन,
+
इन विषयों की शैक्षिक दृष्टि से विस्तारपूर्वक चर्चा अन्यत्र स्वतन्त्र रूप से की गई है। यहाँ उसकी आवश्यकता नहीं । यहाँ अभिभावक प्रबोधन के विषय कौन से हैं और उनकी योजना कैसे करना इसका विचार किया है ।
५. सामाजिक जीवन, ६. सेवाकार्य, ७. श्रमकार्य,
 
८. योगाभ्यास, ९. सांस्कृतिक कार्य, १०. उपासना,
 
११. अभ्यास, १२. स्वाध्याय, १३. कौशल विकास,
 
१४. शौक, १५. मित्र परिवार, es. दिनचर्या,
 
१७, मानसिकता, १८. जीवनदृष्टि, १९, कुल परम्परा
 
  
छात्र का विकास तो सब चाहते है, मातापिता भी
+
यहाँ जिन विषयों का उल्लेख हुआ हैं उनको ठीक करना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है क्योंकि ये देशव्यापी हैं, अत्यन्त प्रभावी रूप से पकड जमाये हुए हैं । सम्पूर्ण समाज कहीं न कहीं अभिभावक के रूप में ही व्यवहार करता है । सरकार भी इसका ही एक अंग है । बाजार ने इस पर पकड जमाई है । विज्ञापन मानस को प्रभावित करते हैं
बालक के विकास की इच्छा करते है । विकास के कुल
 
१९ महत्त्वपूर्ण बिन्‍्दुओं पर शिक्षक, मातापिता, दादादादी
 
और अन्य लोगों के साथ जो वार्तालाप हुआ उनका
 
अभिप्राय ऐसा रहा
 
  
शिक्षकोने बताया यह सारे बिन्दु उनके पढाई के
+
परन्तु विषय गम्भीर है। जीवन की सर्वप्रकार की गुणवत्ता का ह्रास हो रहा है । मनुष्यजीवन और पशुजीवन में जो अन्तर होता है वही समाप्त होता जा रहा है । इतना ही क्यों, पशु तो तथापि प्राकृतिक जीवन जीते हैं और अनेक प्रकार की समस्याओं से बच जाते हैं । मनुष्य सुसंस्कृत जीवन व्यतीत करे ऐसी उससे अपेक्षा होती है परन्तु संस्कृति के शिखर से च्युत होने पर वह प्राकृत नहीं होता, विकृति के गर्त में गिरता है । मनुष्य जीवन को अपने ही द्वारा निर्मित समस्याओं के परिणाम स्वरूप विकृत हो जाने की स्थिति आज निर्माण हुई है । शिक्षा को लेकर अभिभावक प्रबोधन का प्रयोजन शिक्षा को और शिक्षा क माध्यम से मनुष्यजीवन को विकृति से बचाना है, विकृति के गर्त से बाहर लाना है। परिवार अभिभावक के लिये पर्यायवाची संज्ञा है अतः हम अभिभावक प्रबोधन को परिवार प्रबोधन ही कहेंगे
कोर्स के बाहर है, अतिरिक्त है । यह सब बातें करवाना
 
मातापिता का कर्तव्य है । इतना सब पढ़ाने के लिये समय
 
ही नहीं बचता क्योंकि पूरे वर्ष कोर्स, परीक्षा कार्यक्रम यह
 
सारे तंत्र से फुरसत ही नहीं मिलती
 
  
बडे बुजुर्ग लोगों को उन बिन्दुओं मे तथ्य समझमें
+
परिवार प्रबोधन की योजना का पहला अंग है परिवार प्रबोधन का पाठ्यक्रम तैयार करना जिसके आधार पर आगे की योजना बनेगी। पाठ्यक्रम के विषय कुछ इस प्रकार हो सकते हैं...
आता है परंतु आजकल की पिढी सुनती समझती ही नहीं
+
# परिवार का अर्थ, परिवार का महत्त्व, सामाजिक, सांस्कृतिक राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य
अतः वे हतबल थे
+
# परिवार की रचना, परिवार भावना एवं परिवार व्यवस्था
 +
# परिवार में शिक्षा और परिवार की शिक्षा
 +
# वसुधैव कुटुम्बकम्‌
 +
# धार्मिक परिवार की विशेषता
 +
# परिवार की धार्मिक और पश्चिमी संकल्पना की तुलना
 +
# परिवार एक विद्यालय
 +
ये तो एक भूमिका बनाने के अधारभूत विषय हैं । इसके बाद व्यावहारिक विषयों की सूची बन सकती है
  
मातापिता अच्छा भोजन, व्यायाम, Aare,
+
==== परिवार रचना हेतु आवश्यक विषय ====
योगाभ्यास, उपासना आदि का महत्व तो जानते है परंतु
+
#वरवधूचयन और विवाहसंस्कार
बच्चे सुनते नहीं, करते नही या तो विद्यालय की पढ़ाई में
+
#समर्थ राष्ट्र हेतु समर्थ बालक को जन्म देने वाले समर्थ मातापिता बनने की शिक्षा
उनका यह सब होता नहीं है । केवल होमवर्क हम पुरा
+
#शिशुसंगोपन और शिशुसंस्कार
करवाते है । यह सब बातों की तरफ ध्यान देने के लिए
+
#संस्कार विचार
हमे घर मे फुरसद नहीं मिलती दोनों नोकरी करते हैं
+
#मातापिता और सन्तान का आपसी व्यवहार
इसलिये । इसी संबंध में कोई अच्छा क्लास होगा तो
+
#परिवार में सन्तानों की शिक्षा
एडमिशन दिलवा देने के लिये वे तैयार है ।
+
#परिवार में विद्यार्थी जीवन और वानप्रस्थ जीवन
 +
#दादादादी कैसे बनें
 +
#परिवार और कुलपरम्परा
  
घर में छात्रविकास
+
==== परिवार और समाज के अन्तर्सम्बन्ध के विषय ====
 +
#गृहस्थाश्रमी का समाजधर्म
 +
#परिवार और राष्ट्र, धर्म, संस्कृति
 +
#परिवार एक आर्थिक इकाई
 +
#परिवार और पर्यावरण
 +
#इष्टदेवता, कुलदेवता, ग्रामदेवता, राष्ट्रदेवता
  
$83
+
परिवार संचालन हेतु उपयोगी विषय : ये  विषय सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों आयामों में होंगे ।
  
   
+
# आहारशास्त्र जिसमें भोजन बनाना, करना और करवाना, भोजनसामग्री की शुद्धता की परख आदि बातों का समावेश होगा।
 
+
# शुश्रूषा और परिचर्या करना जिसमें बच्चोंं की, वृद्धों की अतिथि की, बडों की और रुण्णों की परिचर्या और शुश्रूषा का समावेश होगा ।
 +
# गृहोपयोगी कार्य जिसमें कपड़े, बर्तन, फर्नीचर, धान्य आदि अनेक बातों की सफाई का समावेश होगा ।
 +
# इन्हीं के साथ पूजा, अतिथिसत्कार, व्रतों, उत्सवों, त्योहारों आदि को मनाना, दान-यज्ञ आदि करना, व्रत-उपवास आदि करना इन सब का समावेश होगा ।
 +
# अर्थार्जन की क्षमता का विकास
 +
# अधिजननशास्त्र
  
अभिमत
+
=== परिवार और शिक्षा ===
  
प्रश्नावली के ७९ बिंदु विकास मे अत्यंत उपयुक्त है ।
+
# शिक्षा का अर्थ और स्वरूप
परंतु इस संबंध में मार्गदर्शन करने हेतू शिक्षको के पास ही
+
# अपनी सन्तान हेतु कौनसी शिक्षा उचित है यह कैसे तय को
कोई मार्ग नहीं है ।
+
# शिक्षा का प्रयोजन, शिक्षा कैसे होती है
 +
# धार्मिक शिक्षा और पाश्चात्य शिक्षा की तुलना
 +
# शिक्षित व्यक्ति के लक्षण
 +
# राष्ट्रीय शिक्षा का स्वरूप
 +
# विद्यालय के प्रति परिवार का दायित्व : विद्यालय के साथ अनुकूलन, विद्यालय को सहयोग और विद्यालय का पोषण
 +
# शास्त्रों की शिक्षा
 +
# परिवर ट्वारा विद्यालय की सेवा : स्वरूप और पद्धति
  
विद्यालय में अभिभावक एसे विषय चुनने के लिये
+
इस पाठ्यक्रम में और भी विषय हो सकते हैं। आवश्यकता और सम्भावना के आधार पर अपनी अपनी सूची बनाई जा सकती है ।
आते नहीं हैं । जीवनदृष्टि, भोजन, व्यायाम आदि विषयों में
 
शिक्षक, अभिभावक भी आज पाश्चात्य शैली का शिकार
 
बने हैं अतः वे मार्गदर्शन तो करेंगे परंतु उनको साकार रूप
 
नहीं देते हैं । बच्चों का मित्र परिवार उन्हे गलत मार्ग पर ही
 
ले जाता है । अतः वह विकास का मार्ग उन्हे मान्य नहीं ।
 
घर में माता, पिता संतानो के अपने अपने व्यक्तिगत मित्र
 
होते हैं । ये सब घर के मित्र होते तो विकास अवश्य करते
 
। श्रम करने से पढाई मे रुकावट आती है, थकान आती है,
 
पढाई कम होती है ऐसी भ्रामक मान्यताओं से अभिभावक
 
के लिये है । शिक्षक यह दायित्व लेने समर्थ भी नहीं तैयार
 
भी नहीं
 
  
घर में छात्रविकास
+
पाठ्यक्रम निर्माण करने के बाद सामग्री की आवश्यकता रहेगी । विभिन्न सन्दर्भ ग्रन्थों का अध्ययन कर अनेक प्रकार की सामग्री तैयार करनी चाहिये । जैसे कि
 +
# पुस्तकें : छोटी छोटी पुस्तिकाओं से लेकर बडे ग्रन्थ
 +
# चित्र और आलेखों की प्रदर्शनी
 +
# दृश्यश्राव्य सामग्री : सी.डी., फिल्म आदि
 +
# कहानी, गीतों, प्रेरक घटनाओं का संग्रह
 +
# खिलौने, वस्त्र, खाद्य पदार्थ, सुशोभन सामग्री, पात्रसंग्रह, स्वच्छता का सामान आदि का संग्रहालय तथा प्रदर्शनी
 +
# नुक्कड नाटकों के लिये छोटे छोटे नाटक
 +
# सभा सम्मेलनों के लिये भाषण, गीत आदि
 +
# रैलियों के लिये गीत, फलक, नारे, सूत्र आदि
 +
# वॉट्सएप, फेसबुक आदि के लिये विडियो क्लीप्स, सन्देश, चित्र आदि
 +
# विद्यास्भ संस्कार, जन्मदिनोत्सव आदि मनाने में मार्गदर्शक सामग्री
 +
इन्हें सिखाने की योजना करना तथा पढ़ाने की योजना करना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । इस दृष्टि से कुछ इस प्रकार से विचार किया जा सकता है:
 +
# शिक्षा के सर्व स्तरों पर सामान्य पाठ्यक्रम के अन्तर्गत इन विषयों का समावेश करना ।
 +
# विद्यालय में जिस प्रकार प्राथमिक, माध्यमिक आदि विभाग होते हैं उस प्रकार परिवार शिक्षा विभाग हो सकता है ।
 +
# इन विषयों को सिखाने के लिये शिक्षक तैयार करने हेतु शिक्षक शिक्षा भी आरम्भ करनी होगी ।
 +
# विश्वविद्यालयों में गृहशास्त्र, अधिजननशास्त्र जैसे विषय आरम्भ किये जा सकते हैं ।
 +
# विभिन्न सामाजिक सांस्कृतिक संस्था एवं संगठनों में छोटे छोटे पाठ्यक्रम, व्याख्यानमाला, कार्यशाला आदि की योजना हो सकती है ।
 +
# सभाओं, सम्मेलनों, मेलों आदि में पुस्तक तथा अन्य सामग्री के वितरण की योजना बन सकती है ।
 +
# विद्यालय तथा अन्य संस्थायें प्रभातफेरियों, नुक्कड, नाटकों, रैलियों का आयोजन कर सकते हैं ।
 +
# कीर्तनकारों और कथाकारों को इन विषयों को अपनी कथाओं के माध्यम से समाज तक पहुँचाने हेतु निवेदन किया जा सकता है ।
 +
# धारावाहिकों और फिल्मों को इन विषयों को चुनने का निवेदन भी किया जा सकता है ।
 +
# अन्तर्जाल का माध्यम भी इस विषय के प्रसार हेतु उपयोग में आ सकता है ।
 +
# गृहविद्यापीठ की रचना भी होनी चाहिये ।
 +
सामाजिकता की पर्यायोगिक शिक्षा: किसी भी हालत में यह विषय सरकारी मान्यता, अनुदान, प्रमाणपत्र आदि का विषय नहीं बनाना चाहिये ।यह समाज की आवश्यकता का विषय है, समाज को अपने बलबूते पर ही उसे क्रियान्वित करना चाहिये । शिक्षाक्षेत्र को इसमें अग्रसर की भूमिका लेनी चाहिये । यह ज्ञान, संस्कार, संस्कृति और धर्म का क्षेत्र है, बाजार और राज्य का नहीं । उसे उसी रूप में विकसित करना चाहिये ।
  
वर्तमान समय की पक्की धारणा बन गई है कि पढ़ाई
+
=== सामाजिकता की प्रायोगिक शिक्षा ===
केवल विद्यालय में ही होती है । विद्यालय के अलावा घर
 
में या किसी अन्य स्थान पर जो होता है उसे पढ़ाई नहीं
 
कहा जाता । साथ ही जीवन में मुख्य कोई कार्य है तो वह
 
पढ़ाई ही है । यदि पढ़ाई नहीं है तो मनोरंजन है । विद्यालय
 
की पढ़ाई से अधिक महत्त्वपूर्ण और कुछ नहीं है ।
 
  
पढ़ाई के सम्बन्ध में भी हमारी धारणा विद्यालय के
+
==== सामाजिकता क्या है ? ====
कक्षाकक्ष में जो होता है उसमें ही सीमित है । उसी काम
+
मनुष्य समाज में रहता है । समाज मनुष्य का ही होता है। मनुष्य के अलावा अन्य प्राणियों का तो केवल समूह होता है । अन्य प्राणी केवल शारीरिक सुरक्षा के लिये समूह में रहते दिखाई देते हैं मनुष्य के समूह में रहने के शारीरिक स्तर की सुरक्षा से बढहकर अनेक आयाम होते हैं
को अधिक से अधिक aren में हमें हमारी
 
पढ़ाई विषयक धारणा बदलने की आवश्यकता है । शिक्षा
 
केवल विद्यालय में पढ़ाये जाने वाले विषयों तक सीमित
 
नहीं होती है विध रना यही अच्छी पढ़ाई का लक्षण है ।
 
इसलिये विद्यालय में जो पढ़ाया जाता है वही कार्य घर
 
जाकर भी करने को कहा जाता है. जिसे गृहकार्य कहा
 
जाता है परन्तु जीवन का गणित इतना सीधासादा नहीं
 
 
  
............. page-130 .............
+
मनुष्य की आवश्यकतायें प्राणियों की आवश्यकताओं से कहीं अधिक होती हैं । वह अकेला इन्हें पूरी नहीं कर सकता । उसे दूसरों पर निर्भर रहना ही पडता है। यह परस्परावलम्बन है । एकदूसरे के साथ अच्छे सम्बन्ध बनाये रखे बिना परस्परावलम्बन सम्भव नहीं होता । अतः आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु समूह में रहने के मनुष्य ने कुछ नियम बनाये, एक व्यवस्था बनाई, एक शास्त्र बनाया जिसे
 +
समाजशास्त्र कहते हैं । यह व्यवस्था मनुष्य के व्यक्तित्व का अंग बन जाता है तब वह स्वाभाविक होता है । इसे ही सामाजिकता कहते हैं। हर व्यक्ति में इस सामाजिकता का विकास होना चाहिये ।
  
 
+
परन्तु आवश्यकताओं की पूर्ति ही सामाजिकता के लिये एकमेव प्रयोजन नहीं है । केवल आवश्यकताओं की पूर्ति यह तो ऊपरी और कुछ मात्रा में कृत्रिम प्रयोजन है । मूल प्रयोजन है आत्मीयता और प्रेम । सब एकदूसरे के साथ आत्मिक स्तर पर जुड़े हैं और एकदूसरे के लिये प्रेम का अनुभव करते हैं इसलिये साथ रहना स्वाभाविक है, साथ रहना अच्छा लगता है यह मूल प्रयोजन है । आत्मीयता के
 +
कारण ही सेवा, त्याग, सहयोग आदि गुण प्रकट होते हैं और व्यवहार में दिखाई देते हैं । ये बाहरी व्यवस्था के नियम नहीं हैं, लेनदेन के या लाभालाभ के हिसाब नहीं हैं, ये बिना हिसाब के देने के रूप में ही प्रकट होते हैं । यह आत्मीयता ही मनुष्य के लिये समूह में रहने हेतु प्रेरित करती है । प्रेम और आत्मीयता जिन गुणों के रूप में प्रकट होते हैं, उन गुणों का विकास ही सामाजिकता का विकास है।
  
@ | विद्यालय की पढ़ाई ही सबकुछ
+
विद्यालयों के शिक्षाक्रम में सामाजिकता के गुणों का विकास करने हेतु सावधानीपूर्वक अनेक प्रकार से योजना करनी चाहिये
नहीं होती, अन्य अनेक कामकाज ऐसे होते हैं जो विद्यालय
 
की पढ़ाई से भी अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं। वे सब
 
विद्यालय में पढ़ाए नहीं जाते उनकी पढ़ाई घर में ही होती
 
a |
 
  
वास्तव में विद्यालय से भी अधिक घर में प्राप्त होने
+
==== देना और बाँट कर उपभोग करना ====
वाली शिक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है । विद्यालय में शिक्षा का
+
शिशु और प्रारम्भिक बाल अवस्था में इन गुणों के संस्कार होना आवश्यक है। इस दृष्टि से गीत, खेल, कहानी आदि का चयन होना चाहिये बच्चे घर से अल्पाहार लाते हैं और साथ बैठकर करते हैं तब भोजन आरम्भ करने से पूर्व गोग्रास निकालना, भोजन के बाद बचा
एक अंश ही होता है । घर की शिक्षा की अनुपस्थिति में
+
हुआ अन्न तथा जूठन कुत्ते को डालना और अपना खाद्यपदार्थ प्रथम दूसरे को देना और फिर स्वयं खाना यह आग्रह पूर्वक सिखाने की बातें हैं । कभी भी अकेले बैठकर खाना नहीं । यहीं संस्कार आगे चलकर अनेक लोगोंं को घर बुलाकर भोजन कराने के, अन्नदान करने के, सदाव्रत चलाने के कार्यों में विकसित होते हैं
विद्यालय की शिक्षा को अर्थ ही प्राप्त नहीं होता है । हम
 
यह कहने का साहस भी कर सकते हैं कि विद्यालय की
 
पढ़ाई यदि कुछ मात्रा में काम हुई तो भी बहुत हानि नहीं
 
होती परन्तु घर में नहीं हुई तो जो हानि होती है उसकी
 
भरपाई नहीं की जाती
 
  
घर की पढ़ाई के अभाव में घर में विद्यालय की पढ़ाई
+
==== सत्कारपूर्वक देना ====
पर ही ज़ोर दिया जाता है । विद्यालय के ट्वारा दिया गया
+
दूसरों को देते समय मेरे से अधिक और मेरे से अच्छी वस्तु देना ही प्रेम और सम्मान का लक्षण है । मेरे पास दो गुलाब के फूल हैं । एक थोडा छोटा और अल्पविकसित है, दूसरा बड़ा और पूर्ण खिला हुआ । मैं मेरी सहेली को कौनसा फूल दूंगी ? जो अच्छा है वह उसे देने की वृत्ति और प्रवृत्ति बने इसकी शिक्षा देनी चाहिये । मेरे पास दो पेन्सिल हैं । कक्षा के किसी छात्र के पास लिखने हेतु आज
गृहकार्य तो होता ही है, ऊपर से अनेक प्रकार की अन्य
+
पेन्सिल नहीं है । मुझे एक पेन्सिल देनी ही चाहिये । मैं कौन सी दूंगा और मेरे लिये कौनसी रखूँगा ? निश्चित ही जो अधिक अच्छी है वही देने का मेरा मन करना चाहिये बस में चढे तो खिडकी के पास बैठने के लिये नहीं भागूँगा अपितु मित्र को बैठने दूँगा । इन्हीं संस्कारों से आगे चलकर घर आये अतिथि को सत्कारपूर्वक हम अपने से अच्छी सुविधाओं से युक्त व्यवस्थायें देते हैं । अनेक प्रेरक घटनाओं तथा प्रत्यक्ष व्यवहार हेतु निमित्त निर्माण कर देने की, स्वयं से अधिक देने की और देकर खुश होने की वृत्ति का विकास करना चाहिये ।  
गतिविधियों के लिए भी आग्रह किया जाता है । विभिन्न
 
प्रकार के कोचिंग और स्यूशन की भरमार होती है, यहाँ
 
तक कि छुट्टियों में चित्रकाम, तैराकी आदि सीखने का
 
आग्रह किया जाता है संक्षेप में पढ़ने की दुनिया घर से
 
बाहर ही होती है
 
  
सत्य तो यह है कि घर की भी एक दुनिया होती है
+
==== भेदों को नहीं मानना ====
जो विद्यालय के समान महत्त्वपूर्ण होती है । घर के ही
+
सबका स्वीकार करना असंस्कृत समाज धन, बल, सत्ता, वर्ण, जाति आदि के भेदों से एकदूसरे को ऊँचा और नीचा मानने की प्रवृत्ति रखता है। सुसंस्कृत समाज इन भेदों से ऊपर उठता है । भेदों से ऊपर उठना विशेष आग्रहपूर्वक सिखाना चाहिये । इस दृष्टि से गटव्यवस्था बहुत प्रभावी साधन बन सकती है । गटों की रचना में इन बातों का समावेश करना चाहिये:
अनेक काम होते हैं जो सीखने होते हैं। वे भी बाल,
 
किशोर और तरुण आयु में ही सीखे जाते हैं ।
 
  
घर में उसे छात्र नहीं कहा जाता है। वह पुत्र,
+
* गट के सभी विद्यार्थियों ने साथ बैठकर स्वाध्याय करना । इस दृष्टि से प्रतिदिन कुछ समय रखना चाहिये
भाई, पौत्र आदि भूमिका में रहता है इन्हीं भूमिकाओं
+
* स्वाध्याय में एकदूसरे की सहायता करना
को लेकर उसे अनेक बातें सीखनी होती हैं वह अपने
+
* एकदूसरे का पूर्ण परिचय प्राप्त करना
दादा - दादी का पौत्र है तो उसे उनकी सेवा करनी है
+
* एकदूसरे के घर जाने का अवसर निर्माण करना
इस सन्दर्भ में उसे अनेक छोटे बड़े काम सीखने होते हैं
+
* एक गट के विद्यार्थियों के परिवारों में भी परिचय और आत्मीयता बढ़ाना
उनकी सेवा करते करते वह उनके अनेक अनुभव सुनता
+
* इन गटों की रचना में अमीर गरीब, ऊँच नीच, जाति पाँति का भेद गल जाय ऐसी रचना करना
है जिससे उसे ज्ञान प्राप्त होता है वह अपने मातापिता
+
* इस दृष्टि से विद्यालयीन व्यवहार में गुणों का सम्मान करने का प्रचलन बनाना चाहिये, धन, सत्ता या वर्णजाति की उच्चता का नहीं। इन आधारों पर विद्यालय से बाहर के जीवन में भी मित्रता विकसित हो सके यह देखना चाहिये
का पुत्र है। उस रूप में उसे उनके कामों में सहयोगी
 
बनना होता है । यह भी उसे सीखना ही है । वह अपने
 
भाईयबहनों का भाई होता है इस भूमिका में उसे उनके
 
  
 
+
==== कृतज्ञता और उदारता ====
 +
कहीं भी किसी से कुछ सहायता प्राप्त हुई तो कृतज्ञता का अनुभव करना चाहिये । आजकल कृतज्ञता बहुत कृत्रिम उपचार का विषय बन गई है । बात बात में थैन्क्यू, प्लीज और सॉरी कहने की प्रथा बन गई है । किसी बच्चे को खिडकी बन्द करने को कहा और उसने वह काम किया तो थैन्क्यू, होटेल में बैरेने पानी लाकर दिया तो थैन्क्यू, पिताजी ने खिलौना लाकर दिया तो थैन्क्यू । बात बात में थैन्क्यू कहना सिखाते हैं । इसी प्रकार से विद्यार्थी को ग्रन्थालय से कुछ लाने को कहना है तो प्लीज, प्रश्न का उत्तर देने को कहना है तो प्लीज, खडे होकर पास आने के लिये कहना है तो प्लीज । मुखर होकर सर्वत्र इन शब्दों का उच्चारण करने से वह अभिव्यक्ति सतही रह जाती है, केवल उपचार मात्र बन जाती है, भावना नहीं बनती । वास्तविक कृतज्ञता की भावना आदर, सम्मान, निःस्वार्थता, बिना स्वार्थ के सहायता, बिना स्वार्थ के दूसरों की सुरक्षा करने में प्रकट होती है । वह जीवन का स्थायी भाव बनती है। किसी का भी अपने लाभ के लिये उपयोग नहीं करने में प्रकट होती है ।
  
Ske
+
इसी प्रकार से उदारता क्षमाशीलता में प्रकट होती है । दोष, गलतियाँ, अपराध, कृतघ्नता आदि को माफ कर देना उदारता है । परन्तु इसमें विवेक भी आवश्यक है । मेरे प्रति अपराध तो माफ करना चाहिये परन्तु किसी दुर्बल को परेशान किया तो उसे दण्ड भी देना चाहिये । दोषों और अवगुणों को दूर करने हेतु अवश्य प्रवृत्त होना चाहिये । परन्तु वह तिरस्कारपूर्वक नहीं अपितु उदारतापूर्वक, दयापूर्वक होना चाहिये । स्वकेन्द्री बनकर व्यवहार नहीं करना, दूसरे का विचार करना ही सामाजिकता है। विद्यालय की छोटी मोटी स्चनाओं में तथा व्यवहारों में यह सब सिखाने की दक्षता बरतना चाहिये । यही नहीं तो गणित, भाषा, इतिहास आदि के पाठों में भी सामाजिकता अनुस्यूत होनी चाहिये । तत्त्वज्ञान को तो सामाजिकता का सन्दर्भ लेकर ही विकसित होना चाहिये । योग के प्रथम अंग यम के पाँच आयाम सामाजिकता की ही शिक्षा देते हैं और उन्हें सार्वभौम महाव्रत कहते हैं यह ध्यान देने योग्य बात है ।
  
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
+
==== सामाजिक समरसता ====
 +
सामाजिकता का यह परम साध्य है । हलुवा बनता है तब उसमें आटा, घी, गुड और पानी होते हैं, उन सबके गुण और विशेषतायें भी पहचाने जाते हैं, यहाँ तक कि घी गाय का है कि भैस का, आटा गेहूँ का है या मूँग का, गुड देशी है कि रासायणयुक्त यह सब पहचाना जाता है परन्तु ये चीजें एक दूसरे से अलग नहीं की जा सकतीं, किंबहुना एक दूसरे में उचित प्रक्रिया से समरस होने पर ही हलवा बनता है। विभिन्न पदार्थों को उचित मात्रा में, उचित प्रक्रिया अपनाकर समरस नहीं किया जाता तब तक कोई पदार्थ नहीं बनता, फिर वह खाद्य पदार्थ हो या और कोई ।
  
+
समाज को भी एकसंध बनाने के लिये समरसता की आवश्यकता होती है । समाज में भेद तो होते ही हैं । भेद गुणों और विशेषताओं को दशतते हैं । इनके मिलाप से ही सामाजिक रचनायें सुन्दर बनती हैं । इन रचनाओं में सम्मान और आत्मीयता की, सुरक्षा और सम्हाल की प्रक्रिया अपनाने से समरसता निर्माण होती है ।
 
 
  
साथ खेलना औए सीखना सिखाना होता है। घर में
+
उदाहरण के लिये हमारे गाँवों में जब किसी के भी घर में विवाह होता था तो मंडप के लिये सुधार का, मटकी के लिये कुम्हार का, वस्त्र के लिये दर्जी का, न्यौते के लिये नायी का, वाद्यों के लिये ढोली आदि का प्रथम सम्मान किया जाता था, उनके द्वारा निर्मित और प्रदत्त पदार्थ का पूजन किया जाता था, दानदक्षिणा वस्त्राभोजन से उन्हें सन्तुष्ट किया जाता था और बाद में अन्य कार्य किये जाते थे । किसी के घर मृत्यु हो तब ये ही सब अपने द्वारा निर्मित साधन लेकर उपस्थित हो जाते थे और उसके पैसे नहीं माँगते थे । समरसता हेतु अत्यन्त बुद्धिमानी से की गई ये रचनायें हैं । इसीसे भाईचारा बना रहता है, सबको अपनी उपयोगिता लगती है। अपने जीवन की सार्थकता का अनुभव होता हैं । इससे ही वास्तविक सुख मिलता है । इसके चलते हिंसा कम होती है, दंगे फसाद कम होते हैं । व्यक्तिगत स्तर पर सृजनशीलता का विकास होता है और समाज वैभवशाली बनता है ।
अतिथि आते हैं । उसे अतिथिसत्कार करना सीखना होता
 
है । घर में अनेक उत्सव मनाए जाते हैं । उनके विषय में
 
जानना होता है ।
 
  
विद्यालय में जीवन का बहुत अल्प समय जाना
+
वर्तमान में हमने दीर्घदृष्टि और व्यापकदूष्टि के अभाव में काम करने वाले और काम करवाने वाले के दो वर्ग निर्माण किये हैं और काम करनेवालों को नीचा और करवाने वालों को ऊँचा मानना आरम्भ किया है । साथ ही काम करने वालों के स्थान पर यन्त्रों को अपनाना आरम्भ किया है। परिणाम स्वरूप लोगोंं के पास काम करने के अवसर भी कम हो रहे हैं, काम करवाने वाले संख्या में कम ही होते हैं और अभाव और वर्गभेद बढ़ते ही जाते हैं । किस बात के लिये किसका सम्मान करें, किस बात के लिये किसकी उपयोगिता है यही प्रश्न है । सबको टिकने के लिये स्पर्धा ही करनी पड़ती है, संघर्ष ही करना पडता है । इसमें समरसता कैसे होगी ? बिना समरसता के सुख कहाँ? सुख की आश्वस्ति के बिना संस्कृति पनप नहीं सकती
होता है । सम्पूर्ण जीवन घर में ही जीना होता है। इस
 
दृष्टि से जीवनविकास के महत्त्वपूर्ण आयामों की शिक्षा घर
 
में होती है। भोजन, निद्रा, व्यायाम आदि शरीर को
 
स्वस्थ रखने की बातें घर में सीखी जाती हैं । केवल
 
खाना और सोना ही नहीं होता है तो भोजन बनाना और
 
परोसना तथा बिस्तर लगाना और समेटना भी होता है ।
 
उनसे संबंधित कपड़े धोना, कमरे की सफाई करना,घर के
 
लिए आवश्यक सामान की खरीदी करना आदि अनेक
 
बातें सीखनी होती हैं
 
  
मातापिता के काम में सहयोग करते करते स्वयं की
+
इस व्यवस्था को बदलने का प्रावधान शिक्षा में होना चाहिये । यह एक निरन्तर चलनेवाली प्रक्रिया है । अतः परीक्षा का नहीं अपितु वातावरण, व्यवस्था और व्यवहार का विषय है । सारी बातें परीक्षाकेन्द्री कर देने से समरसता की हानि होती है ।
ज़िम्मेचलाना है । विद्यालय में ऐसी कोई ज़िम्मेदारी नहीं
 
होती । पढ़ाई का काल पूर्ण होने पर वह विद्यालय छोड़
 
देता है परन्तु घर में तो वह आजीवन रहता है । इसलिये
 
घर चलाना सीखना बहुत महत्त्वपूर्ण है । दारी से इन कामों
 
को करना सीखा जाता है । यह सीखना इसलिये आवश्यक
 
होता है क्योंकि भविष्य में उसे यही घर का स्वामी बनना
 
होता है ।
 
  
सभ्य और सुसंस्कृत जीवन जीने के लिए पैसे कमाना
+
हम शिक्षा, व्यवसाय, दैनन्दिन व्यवहार को आज है वैसा ही रखकर समरसता निर्माण नहीं कर सकते यह तो ऐसा ही है जैसे गरम गुण का पदार्थ खाकर शीतलता की अपेक्षा करना
ही पर्याप्त नहीं होता जीवनव्यवहार की अनेक बातें
 
अच्छी तरह से करनी होती हैं । ये सब उसे सीखनी होती
 
हैं
 
  
यह सब सिखाने वाले मातापिता और अन्य सदस्य
+
==== सामाजिक उत्सवों का सांस्कृतिक स्वरूप बनायें रखना ====
होते हैं । वह जीवनमूल्य सीखता है, कुलपरम्परा ग्रहण
+
समरसता और सामूहिकता के लिये ही अनेक उत्सवों की परस्परा बनी है । उदाहरण के लिये गुजरात में जो नवरात्रि का उत्सव है उसमें किसी भी वर्ग के, किसी भी वर्ण के, किसी भी जाति के, किसी भी आयु के, व्यक्ति को सहभागी होने का समान अधिकार है । वह सभी अर्थों में सार्वजनिक है, शक्तिपूजा का और उपवास का आलम्बन लिये है और गीतनृत्य के रूप में मूर्त होता है । आज इसका रूप अत्यन्त बीभत्स और सामाजिकता के लिये हानिकारक बन गया है । विद्यालय अपने विद्यार्थियों के माध्यम से ही इसे परिष्कृत कर सकते हैं । होली, मकरसंक्रान्ति, दीपावली भी इसी के उदाहरण हैं ।
करता है । समाजसेवा सीखता है । सबसे महत्त्वपूर्ण बात
 
यह है कि वह जीवन का दृष्टिकोण भी घर में ही सीखता
 
a |
 
  
आज इस विषय की सर्वथा विस्मृति हुई है। उसे
+
तीर्थयात्रायें और मेले भी इसके माध्यम हैं । उदाहरण के लिये गाँव के लोग जब तीर्थयात्रा पर जाते थे तो गाँव की सीमा से बाहर निकलने पर जाति छोड देते थे और एक हो जाते थे । फिर ऊँचनीच, छुआछूत कुछ नहीं रहता था । जगन्नाथ भगवान के प्रसाद में जातिपाँत का कोई भेद नहीं रहता है । उक्ति है “जगन्नाथ का भात, पूछे जात न पाँत' । [[Kumbh Mela (कुम्भ मेला)|कुम्भ]] जैसे मेले में पण्डित, राजा, साधु, सामान्य मनुष्य का कोई भेद नहीं रहता था तात्पर्य यह है कि हमने इन उत्सवों और पर्वों की रचना समरस समाज बनाने के उद्देश्य से ही की है । आज उनका रूप विकृत हो गया है । उन्हें पुनः उनके मूल रूप में ले आना विद्यालयों का काम है । इस दृष्टि से उचित शिक्षाक्रम अपनाना चाहिये
पुन: स्मरण में लाने हेतु योजनापूर्वक प्रयास करने की
 
आवश्यकता है । शिक्षाक्षेत्र के सौजन्य लोगों को इस ओर
 
ध्यान देने की आवश्यकता है ।
 
  
+
==== गुणों और क्षमताओं का सम्मान करना ====
+
धन, सत्ता, रूप, सुविधा आदि को गुणों और क्षमताओं से अधिक महत्त्व देने से सामाजिक सन्तुलन बिगडता है । विद्यालय में जो पैदल चलकर आता है, उसके पैरों में जूते नहीं हैं, उसके कपड़े सामान्य हैं परन्तु उसका स्वास्थ्य अच्छा है, जो अच्छी कबड्डी खेलता है, गणित के सवाल आसानी से हल करता है और सबकी सहायता करने हेतु तत्पर रहता है उसका सम्मान उससे अधिक होना चाहिये जो बडे बाप का बेटा है, कार में विद्यालय आता है, बस्ता, कपड़े, जूते बहुत कीमती हैं परन्तु शरीर से दुर्बल है, पढने और खेलने में कमजोर है और स्वभाव से घमण्डी और असहिष्णु है ।
  
............. page-131 .............
+
जो व्यक्ति को लागू है वही परिवारों को भी है । धनी लोग भी कृपण और स्वार्थी होते हैं, निर्धन और वंचित लोग भी उदार और समझदार होते हैं । बडे और प्रतिष्ठित लोग अश्रद्धावान, भीरू और अनीतिमान होते हैं, सामान्य और गरीब, झॉंपडी में रहनेवाले भी श्रद्धावान, विश्वसनीय, बहादुर और नीतिमान होते हैं । विद्यार्थियों को इन गुणों का सम्मान करना और अपने में विकसित करना सिखाना चाहिये । गरीबी की, छोटे घर की, सामान्य कपडों की, मजदूरी करने वाले, कम कमाई करने वाले मातापिता की शर्म नहीं करना सिखाना चाहिये । सम्पन्नता का अहंकार नहीं करना सिखाना चाहिये । विद्यालय में सम्पन्न और सत्तावान लोगोंं की चाटूकारिता और विपन्न और सामान्य लोगोंं की उपेक्षा करने से सामाजिकता को हानि पहुँचती है।
  
पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ
+
कई तो पूरे विद्यालय ही ऐसे होते हैं जहाँ केवल पैसेवालों के बच्चोंं का ही प्रवेश हो सकता है। कुछ विद्यालय ऐसे होते हैं जहाँ केवल पैसे वाले ही नहीं अपितु उच्च पदों पर आसीन लोग ही प्रवेश प्राप्त कर सकते हैं । ऐसे विद्यालय न तो ज्ञान की सेवा करते हैं न समाज की क्योंकि ये ऐसे लोग निर्माण करते हैं जो समाज के अपने जैसे नहीं हैं ऐसे लोगोंं को तुच्छ समझते हैं । ऐसे विद्यालयों में शिक्षकों का सम्मान नहीं होता, उल्टे शिक्षकों को ही बडे लोगोंं के बेटों की मर्जी उठानी पड़ती है। इन्हे विद्या का धाम कैसे सकते है ? ऐसे विद्यालय ज्ञान को सत्ता की दासी बना देते है।
  
८८
+
==== सत्य, धर्म, ज्ञान, सेवा न्याय आदि की परख होना ====
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अपनत्व का व्यवहार करना यह सारे सामाजिक सद्गुणों का मूल है। दया, दान, क्षमा, उपकार, सहयोग आदि मूल्यों का जतन करना सद्गुण है। इनके अनुकूल आचरण करना सदाचार है। परन्तु समझ यदि कम है या स्वार्थ यदि अधिक है तो इनमे विकृति भी आती है। स्वयं तो दयावान, न्यायी, सत्यवादी आदि होना ही चाहिए, इनको पहचानने का विवेक और उसके अनुरूप व्यवहार करने का साहस भी होना चाहिए। अपने लिए इनके आचरण के साथ साथ, न्याय, ज्ञान और धर्म  का पक्ष भी लेना चाहिये और अन्याय, असत्य, अधर्म और अज्ञान का त्याग, उपेक्षा, तिरस्कार या दण्ड - जहाँ जो भी आवश्यक है - भी करना चाहिये । उदाहरण के लिये स्वयं अन्याय नहीं करेंगे यह प्रथम चरण है, किसी के द्वारा किये गये अन्याय को नहीं सहेंगे परन्तु समाज में किसी छोटे, दुर्बल या दीन व्यक्ति के प्रति बड़ा, बलवान  और समर्थ व्यक्ति अन्याय कर रहा है तो दीन, दुर्बल, छोटे व्यक्ति का पक्ष लेना और उसकी रक्षा करना तथा अन्याय करने वाले व्यक्ति का विरोध करना भी अपेक्षित है। सुपात्र, सद्गुणी व्यक्ति की प्रशंसा करनी ही चाहिये, भले ही वह गरीब हो, परन्तु अपने लाभ के लिये समर्थ, गुणहीन व्यक्ति की प्रशंसा नहीं करना चाहिये । वह प्रशंसा नहीं चाटूकारिता है। व्यक्ति भले ही विद्वान, धनवान या सत्तावान हो, यदि वह अधर्म और अन्यायपूर्ण व्यवहार करता है तो उसकी मित्रता नहीं करनी चाहिये, भले ही वह हमारे साथ बहुत अच्छा व्यवहार करता हो । विद्वान व्यक्ति यदि धनवान की चाटूकारिता करता है तो वह ज्ञान की अवमानना करता है यही समझना चाहिये । धर्माचार्य यदि सत्तावान व्यक्ति के अनुकूल बनने का प्रयास करता है तो वह धर्म का अनादर करता है। आततायी व्यक्ति को दण्ड नहीं देना हिंसा है, अहिंसा नहीं। शोषण करनवाले व्यक्ति के विरुद्ध आवाज नहीं उठाना अधर्म है। भूखे व्यक्ति को अन्न नहीं देना अधर्म है, जिज्ञासु व्यक्ति को ज्ञान नहीं देना अधर्म है, दुर्बल की रक्षा नहीं करना अधर्म है परन्तु शत्रु के गट में अन्न नहीं जाने देना धर्म है, दुष्ट व्यक्ति को ज्ञान देना अधर्म है, गुंडे की रक्षा करने हेतु वकीली करना अधर्म है। धर्म-अधर्म, हिंसा-अहिंसा, न्याय-अन्याय, सही-गलत आदि का विवेक नहीं किया और पक्ष लेने और विरोध करने का साहस नहीं दिखाया तो सामाजिकता घोर संकट में पड़ जाती है। ऐसे में संस्कृति की रक्षा नहीं होती। असंस्कृत समाज की समृद्धि प्रथम आसुरी बन जाती है, बाद में सबका नाश करती है और अन्त में स्वयं नष्ट हो जाती है।
  
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विद्यालयों के विषय, विषयवस्तु, अन्यान्य गतिविधियाँ, व्यवस्था, वातावरण आदि सब यह विवेक सिखाने के लिये प्रयुक्त होने चाहिये । महाविद्यालयों में तो समाजशास्त्र का स्वरूप ही प्रथम चरण में सामाजिकता सिखाने का होना चाहिये । सामाजिकता की कसौटी पर ही अन्य विषयों का मूल्यांकन होना चाहिये । उदाहरण के लिये सामाजिकता को हानि पहुंचाने वाला अर्थशास्त्र, टैक्नोलोजी, वाणिज्यशास्त्र, राजशास्त्र या मनोविज्ञान, खेल आदि मान्य ही नहीं होने चाहिये । समाजशास्त्र केवल धर्मशास्त्र के अनुकूल होता है । वह धर्मशास्त्र का अंग है जबकि शेष सभी शास्त्रों का अंगी है। सारे शास्त्र समाजशास्त्र के अविरोधी होने अपेक्षित है।
  
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शिक्षा धर्म सिखाती है । धर्म का एक अंग सृष्टि धर्म है और दूसरा समष्टि धर्म है। समष्टि धर्म सृष्टि धर्म के अनुकूल होता है । समष्टि धर्म ही सामाजिकता है। अतः शिक्षा का मुख्य कार्य ही सामाजिकता सिखाना है।
  
LE
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सामाजिकता सिखाने के लिये विद्यालयों की वर्तमान रीतिनीति में बहुत परिवर्तन करना होगा यह सत्य हैं, परन्तु ऐसा परिवर्तन किये बिना शिक्षा का स्वरूप धार्मिक नहीं बन सकता । धार्मिककरण केवल सिद्धान्त में नहीं होता, सिद्धान्त को व्यवहार में परिणत करने से होता है।
LLYBOEBES
 
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=== घर में छात्र विकास ===
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छात्रों का विकास केवल विद्यालय में ही नहीं होता, विद्यालय के बाहर, घर में भी होता है, इस दृष्टि से मातापिता को निम्न लिखित बातों में विद्यालय ने क्या मार्गदर्शन करना चाहिये ?
  
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१. भोजन, २. निद्रा, ३. व्यायाम, ४. गृहजीवन, ५. सामाजिक जीवन, ६. सेवाकार्य, ७. श्रमकार्य, ८. योगाभ्यास, ९. सांस्कृतिक कार्य, १०. उपासना, ११. अभ्यास, १२. स्वाध्याय, १३. कौशल विकास, १४. शौक, १५. मित्र परिवार, १६. दिनचर्या, १७. मानसिकता, १८. जीवनदृष्टि, १९. कुल परम्परा
  
पर्व ३
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छात्र का विकास तो सब चाहते है, मातापिता भी बालक के विकास की इच्छा करते है । विकास के कुल १९ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं पर शिक्षक, मातापिता, दादादादी और अन्य लोगोंं के साथ जो वार्तालाप हुआ उनका अभिप्राय ऐसा रहा ।
विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ
 
  
शैक्षिक व्यवस्थाओं की छोटी छोटी बातों का भी जब भारतीय जीवनदृष्टि
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शिक्षकोने बताया यह सारे बिन्दु उनके पढ़ाई के कोर्स के बाहर है, अतिरिक्त है । यह सब बातें करवाना मातापिता का कर्तव्य है इतना सब पढाने के लिये समय ही नहीं बचता क्योंकि पूरे वर्ष कोर्स, परीक्षा कार्यक्रम यह सारे तंत्र से फुरसत ही नहीं मिलती
के प्रकाश में विचार करते हैं तब ध्यान में आता है कि शिक्षा के पश्चिमीकरण
 
की पैठ कितनी अन्दर तक गई है । जडवादी, अनात्मवादी दृष्टि ने छोटी छोटी
 
बातों का स्वरूप बदल दिया है । शिक्षा का भारतीयकरण करने हेतु हमें भी
 
गहराई में जाकर परिवर्तन करना होगा । ऐसा परिवर्तन सरल तो नहीं होगा
 
वह केवल बाहरी स्वरूप का परिवर्तन नहीं होगा । इन व्यवस्थाओं के पीछे
 
जो मानस है उसका परिवर्तन किये बिना बाहरी परिवर्तन सम्भव नहीं है । अतः
 
छोटी से छोटी बातों का पुनर्विचार करने का प्रयास इस पर्व में किया गया है ।
 
इसके पूर्व के पर्व में विद्यालय और परिवार का सम्बन्ध बताया गया था |
 
भोजन और पानी, गणवेश और बस्ता, वाहन और अन्य सुविधाओं का विचार
 
विद्यालय और परिवार दोनों मिलकर करेंगे तभी परिवर्तन सम्भव होगा, तभी
 
वह सार्थक भी होगा । शिक्षा की समस्त प्रक्रियाओं में दोनों कितने अनिवार्य
 
रूप से जुडे हुए हैं यही बताने का प्रयास इसमें किया गया है
 
  
खण्ड खण्ड में विचार करने से शिक्षा कितनी यान्त्रिक और निर्रर्थक बन
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बडे बुजुर्ग लोगोंं को उन बिन्दुओं मे तथ्य समझमें आता है परंतु आजकल की पीढ़ी सुनती समझती ही नहीं अतः वे हतबल थे ।  
जाती है । और संश्लेष्ट रूप में देखने से छोटी बातें भी कितनी महत्त्वपूर्ण बन
 
जाती हैं यह भी इस चर्चा का निष्कर्ष है ।
 
  
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मातापिता अच्छा भोजन, व्यायाम, सेवाकार्य, योगाभ्यास, उपासना आदि का महत्व तो जानते है परंतु बच्चे सुनते नहीं, करते नही या तो विद्यालय की पढ़ाई में उनका यह सब होता नहीं है । केवल होमवर्क हम पूरा करवाते है। यह सब बातों की तरफ ध्यान देने के लिए हमे घर मे फुरसत नही मिलती, क्योंकि दोनों नौकरी करते हैं। इसी संबंध में कोई अच्छा क्लास होगा तो एडमिशन दिलवा देने के लिये वे तैयार है ।
  
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==== अभिमत ====
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प्रश्नावली के ७९ बिंदु विकास मे अत्यंत उपयुक्त है । परंतु इस संबंध में मार्गदर्शन करने हेतू शिक्षको के पास ही कोई मार्ग नहीं है। विद्यालय में अभिभावक एसे विषय चुनने के लिये आते नहीं हैं । जीवनदृष्टि, भोजन, व्यायाम आदि विषयों में शिक्षक, अभिभावक भी आज पाश्चात्य शैली का शिकार बने हैं अतः वे मार्गदर्शन तो करेंगे परंतु उनको साकार रूप नहीं देते हैं । बच्चोंं का मित्र परिवार उन्हे गलत मार्ग पर ही ले जाता है । अतः वह विकास का मार्ग उन्हे मान्य नहीं । घर में माता, पिता संतानो के अपने अपने व्यक्तिगत मित्र होते हैं । ये सब घर के मित्र होते तो विकास अवश्य करते । श्रम करने से पढ़ाई मे रुकावट आती है, थकान आती है, पढ़ाई कम होती है ऐसी भ्रामक मान्यताओं से अभिभावक के लिये है । शिक्षक यह दायित्व लेने समर्थ भी नहीं तैयार भी नहीं ।
  
११५
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==== घर में छात्र विकास ====
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वर्तमान समय की पक्की धारणा बन गई है कि पढ़ाई केवल विद्यालय में ही होती है। विद्यालय के अलावा घर में या किसी अन्य स्थान पर जो होता है उसे पढ़ाई नहीं कहा जाता । साथ ही जीवन में मुख्य कोई कार्य है तो वह पढ़ाई ही है । यदि पढ़ाई नहीं है तो मनोरंजन है । विद्यालय की पढ़ाई से अधिक महत्त्वपूर्ण और कुछ नहीं है।
  
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पढ़ाई के सम्बन्ध में भी हमारी धारणा विद्यालय के कक्षाकक्ष में जो होता है उसमें ही सीमित है। उसी काम को अधिक से अधिक प्रवीणता लाने के लिए हमें हमारी पढ़ाईविषयक धारणा बदलने की आवश्यकता है। शिक्षा केवल विद्यालय में पढ़ाये जाने वाले विषयों तक सीमित नहीं होती है। इसलिये विद्यालय में जो पढ़ाया जाता है वही कार्य घर जाकर भी करने को कहा जाता है जिसे गृहकार्य कहा जाता है। परन्तु जीवन का गणित इतना सीधासादा नहीं है। विद्यालय की पढ़ाई ही सबकुछ नहीं होती, अन्य अनेक कामकाज ऐसे होते हैं जो विद्यालय की पढ़ाई से भी अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं। वे सब विद्यालय में पढ़ाए नहीं जाते । उनकी पढ़ाई घर में ही होती
  
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वास्तव में विद्यालय से भी अधिक घर में प्राप्त होने वाली शिक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है । विद्यालय में शिक्षा का एक अंश ही होता है। घर की शिक्षा की अनुपस्थिति में विद्यालय की शिक्षा को अर्थ ही प्राप्त नहीं होता है। हम यह कहने का साहस भी कर सकते हैं कि विद्यालय की पढ़ाई यदि कुछ मात्रा में काम हुई तो भी बहुत हानि नहीं होती परन्तु घर में नहीं हुई तो जो हानि होती है उसकी भरपाई नहीं की जाती।
 
  
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घर की पढ़ाई के अभाव में घर में विद्यालय की पढ़ाई पर ही जोर दिया जाता है। विद्यालय के द्वारा दिया गया गृहकार्य तो होता ही है, ऊपर से अनेक प्रकार की अन्य गतिविधियों के लिए भी आग्रह किया जाता है। विभिन्न प्रकार के कोचिंग और ट्यूशन की भरमार होती है, यहाँ तक कि छुट्टियों में चित्रकाम, तैराकी आदि सीखने का आग्रह किया जाता है। संक्षेप में पढ़ने की दुनिया घर से बाहर ही होती है।
  
   
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वास्तव में विद्यालय से भी अधिक घर में प्राप्त होने वाली शिक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है । विद्यालय में शिक्षा का एक अंश ही होता है। घर की शिक्षा की अनुपस्थिति में विद्यालय की शिक्षा को अर्थ ही प्राप्त नहीं होता है। हम यह कहने का साहस भी कर सकते हैं कि विद्यालय की पढ़ाई यदि कुछ मात्रा में काम हुई तो भी बहुत हानि नहीं होती परन्तु घर में नहीं हुई तो जो हानि होती है उसकी भरपाई नहीं की जाती।
  
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घर की पढ़ाई के अभाव में घर में विद्यालय की पढ़ाई पर ही ज़ोर दिया जाता है। विद्यालय के द्वारा दिया गया गृहकार्य तो होता ही है, ऊपर से अनेक प्रकार की अन्य गतिविधियों के लिए भी आग्रह किया जाता है। विभिन्न प्रकार के कोचिंग और ट्यूशन की भरमार होती है, यहाँ तक कि छुट्टियों में चित्रकाम, तैराकी आदि सीखने का आग्रह किया जाता है। संक्षेप में पढ़ने की दुनिया घर से बाहर ही होती है।
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अनुक्रमणिका
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सत्य तो यह है कि घर की भी एक दुनिया होती है जो विद्यालय के समान महत्त्वपूर्ण होती है। घर के ही अनेक काम होते हैं जो सीखने होते हैं। वे भी बाल, किशोर और तरुण आयु में ही सीखे जाते हैं।
  
विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ
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घर में उसे छात्र नहीं कहा जाता है। वह पुत्र, भाई, पौत्र आदि भूमिका में रहता है। इन्हीं भूमिकाओं को लेकर उसे अनेक बातें सीखनी होती हैं। वह अपने दादा - दादी का पौत्र है तो उसे उनकी सेवा करनी है। इस सन्दर्भ में उसे अनेक छोटे बड़े काम सीखने होते हैं। उनकी सेवा करते करते वह उनके अनेक अनुभव सुनता है जिससे उसे ज्ञान प्राप्त होता है। वह अपने मातापिता का पत्र है। उस रूप में उसे उनके कामों में सहयोगी बनना होता है। यह भी उसे सीखना ही है। वह अपने भाईयबहनों का भाई होता है। इस भूमिका में उसे उनके साथ खेलना औए सीखना सिखाना होता है। घर में अतिथि आते हैं। उसे अतिथिसत्कार करना सीखना होता है। घर में अनेक उत्सव मनाए जाते हैं। उनके विषय में जानना होता है।
  
छात्र के शैक्षिक कार्य
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विद्यालय में जीवन का बहुत अल्प समय जाना होता है। सम्पूर्ण जीवन घर में ही जीना होता है। इस दृष्टि से जीवनविकास के महत्त्वपूर्ण आयामों की शिक्षा घर में होती है। भोजन, निद्रा, व्यायाम आदि शरीर को स्वस्थ रखने की बातें घर में सीखी जाती हैं। केवल खाना और सोना ही नहीं होता है तो भोजन बनाना और परोसना तथा बिस्तर लगाना और समेटना भी होता है। उनसे संबंधित कपड़े धोना, कमरे की सफाई करना,घर के लिए आवश्यक सामान की खरीदी करना आदि अनेक बातें सीखनी होती हैं।
  
विद्यालय में भोजन एवं जल व्यवस्था
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मातापिता के काम में सहयोग करते करते स्वयं की ज़िम्मेचलाना है। विद्यालय में ऐसी कोई ज़िम्मेदारी नहीं होती। पढ़ाई का काल पूर्ण होने पर वह विद्यालय छोड़ देता है परन्तु घर में तो वह आजीवन रहता है। इसलिये घर चलाना सीखना बहुत महत्त्वपूर्ण है । दारी से इन कामों को करना सीखा जाता है । यह सीखना इसलिये आवश्यक होता है क्योंकि भविष्य में उसे यही घर का स्वामी बनना होता है।
विद्यालय का समाज में स्थान
 
  
विद्यालय में अध्ययन विचार
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सभ्य और सुसंस्कृत जीवन जीने के लिए पैसे कमाना ही पर्याप्त नहीं होता। जीवनव्यवहार की अनेक बातें अच्छी तरह से करनी होती हैं। ये सब उसे सीखनी होती है। 
  
श्१श्द
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यह सब सिखाने वाले मातापिता और अन्य सदस्य होते हैं। वह जीवनमूल्य सीखता है, कुलपरम्परा ग्रहण करता है। समाजसेवा सीखता है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वह जीवन का दृष्टिकोण भी घर में ही सीखता है।
  
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
+
आज इस विषय की सर्वथा विस्मृति हुई है। उसे पुनः स्मरण में लाने हेतु योजनापूर्वक प्रयास करने की आवश्यकता है। शिक्षाक्षेत्र के सौजन्य लोगोंं को इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है ।
  
श१७
+
==References==
शु४६०
+
<references />
R&R
 
cx
 
  
श्९६
+
[[Category:ग्रंथमाला 3 पर्व 2: विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार]]
 

Latest revision as of 21:59, 23 June 2021

विद्यालय के सन्दर्भ में परिवार क्या करे

विश्व में भारत की प्रतिष्ठा

हमें यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि घर में पलनेवाले और विद्यालय में पढ़ने वाले शिशु, बाल, किशोर, युवावस्था के विद्यार्थी भावी भारत के निर्माता है[1]। शिक्षक और मातापिता भारत का भावी गढ रहे हैं। ये सब शिक्षकों के विद्यार्थी और मातापिता की सन्तानें हैं परन्तु साथ ही राष्ट्र के नागरिक हैं । राष्ट्र वैसा ही होगा जैसे ये होंगे। विश्व में भारत की प्रतिष्ठा इनके कारण होगी और बदनामी भी इनके कारण ही।

भूतकाल में कभी भारत की प्रतिष्ठा अत्यन्त नीतिमान, सच्चरित्र और सत्यवादी देश की रही है । हम भारत के भव्य भूतकाल का वर्णन तो गौरवपूर्वक करते हैं परन्तु हमारा वर्तमान प्रशंसा के योग्य नहीं है। हमारा नैतिक स्तर गिरा है, गिर रहा है। यह अत्यन्त चिन्ताजनक और लज्जास्पद है । हमें इस स्थिति की चिन्ता करनी चाहिये ।

विश्व में हमारी कुप्रतिष्ठा कैसी है इसके कुछ उदाहरण इस प्रकार है...

  1. जर्मनी के विश्वविद्यालय के पुस्तकालय से धार्मिक विद्यार्थियों को पुस्तक ले जाने का निषेध हुआ था क्योंकि धार्मिक विद्यार्थी पुस्तक में से उपयोगी सामग्री की नकल करने के स्थान पर पुस्तक के पन्ने ही फाड लेते थे। यह आरोप झूठा नहीं है यह भारत के महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के ग्रन्थालयों के ग्रन्थपाल कहेंगे।
  2. ऑस्ट्रेलिया में यदि आपका मोबाइल खो जाता है और आप सरकार को बताते हैं तो सरकार बिना पूछताछ किये आपको दूसरा मोबाइल देती है । सरकार अपने नागरिक का विश्वास करती है । कई धार्मिक अपना मोबाइल भारत में भेज देते हैं और सरकार से चोरी हो गया कहकर दूसरा लेते हैं। सरकार उन्हें देती भी है । ऐसा दो बार, होने के बाद पूछताछ आरम्भ होती है ।सरकार का यह विश्वास कितने दिन चलेगा ? तब लांछन किस को लगेगा ?
  3. विदेश में भी जो चोरी करते हैं और अनीति का आचरण करते हैं वे देश में क्या नहीं करेंगे ? यहाँ भी कानून तोडना, घूस देना और लेना, कस्वोरी करना, परीक्षा में नकल करना, पैसा लेकर मत बेचना, शराबबन्दी होने पर भी शराब बेचना और पीना, गोबधबन्दी होने पर भी गोहत्या करना, मौका मिले तो बिना टिकट यात्रा करना धूमधाम से चल रहा है । खुछ्ठम-खु्ठा चोरी, डकैती, लूट, हत्या आदि की बात तो अलग है, यह तो सारे अनीति के मामले हैं ।

यह अनीति समाजविरोधी है, देशविरोधी है, धर्मविरोधी है । भारत की विचारधारा कभी भी इसका समर्थन नहीं करती । भारत की परम्परा इसकी कभी भी दुहाई नहीं देती । यहाँ तो दो शत्रुओं के मध्य युद्ध भी धर्म के नियमों का पालन करके होते हैं। निहत्थे शत्रु के साथ लडने के लिये व्यक्ति अपना हथियार छोड देता है क्योंकि एक के हाथ में शस्त्र हो और दूसरे के हाथ में न हो तो शख्रधारी निःशस्त्र के साथ युद्ध करे यह अन्याय है, अधर्म है ।

नीतिमत्ता का ह्रास वर्तमान समय का राष्ट्रीय संकट है । इसके साथ लडने हेतु और इस संकट को दूर करने हेतु विद्यालय, घर और धर्माचार्यों ने जिम्मेदारी लेकर योजना बनानी होगी ।

विद्यालय की भूमिका

1. विद्यालय का प्रमुख दायित्व है यह मानना होगा । जिस देश के विद्यालय नीतिमत्ता की रक्षा नहीं कर सकते उस देश का भविष्य धुंधला ही होता है ।

2. विद्यालय संचालकों और शिक्षकों के नीतिमान होने से ही विद्यार्थियों को नीतिमान बना सकते हैं ।

संचालकों के अनीतिमान होने के अनेक उदाहरण सर्वविदित हैं

  • ऐसे अनेक संचालक हैं जो पैसा कमाने के लिये ही विद्यालय चलाते हैं । उनके लिये बिद्या, शिक्षक, देश आदि के लिये कोई सम्मान नहीं होता । वे अनेक प्रकार की गलत बातें लागू कर पैसा कमाते हैं ।
  • प्रवेश के लिये और नियुक्ति के लिये विद्यार्थियों और शिक्षकों से डोनेशन लेना आम बात है । मजबूरी में या व्यवहार समझकर डोनेशन देनेवाले भी होते ही हैं ।
  • शिक्षकों को कम वेतन देकर पूरे वेतन पर हस्ताक्षर करवा लेना भी व्यापकरूप में प्रचलन में है ।
  • ये तो सर्वविदित उदाहरण हैं, परन्तु यह तो हिमशिला का बाहर दिखनेवाला हिस्सा है । वास्तविकता अनेक गुना अधिक है ।

ऐसे संचालकों के विद्यालयों में नीतिमत्ता की शिक्षा किस प्रकार दी जा सकेगी ?

3. शिक्षकों की नीतिमत्ता के अभाव का स्वरूप कुछ इस प्रकार का है:

  • शिक्षकों को पढाना आता नहीं है, पढाने की नीयत नहीं होती है तब वे विद्यार्थियों को नकल करवाते हैं और बदले में पैसे लेते हैं ।
  • विद्यालय में पढाते नहीं और ट्यूशन में आने की बाध्यता निर्माण करते हैं ।
  • वे स्वयं भी नकल करके परीक्षा में उत्तीर्ण हुए होते हैं ।
  • जो विद्यार्थी ट्यूशन में आते हैं उन्हें परीक्षा में उत्तीर्ण होने में सहायता करते हैं । ये भी सर्वविदित उदाहरण हैं । पूर्व में कहा उससे भी वास्तविकता अनेक गुणा भीषण है ।

4. विद्यार्थियों में नीतिमत्ता का ह्रास । विद्यार्थी भी पीछे नहीं हैं । उनकी अनीति के कुछ उदाहरण इस प्रकार है...

  • परीक्षा में नकल करना आम बात है । नकल करने के अनेक अफलातून नुस्खे उनके पास होते हैं । निरीक्षकों को बडी सरलता से सहज में ही वे बुद्ध बनाते हैं ।
  • विद्यालय की मालमिल्कत को नुकसान पहुँचाने में इन्हें कोई संकोच नहीं होता है ।
  • झूठ बोलना, चुनावी राजनीति करना, गुंडागर्दी को प्रश्रय देना आदि भी सहज है ।

इसके भी अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं ।

जब सर्वसामान्य रूप से ऐसी अनीति छाई हो तो आशा कहाँ है ? इस अनीति को कम करने में, नष्ट करने में कानून की कोई भूमिका नहीं है । कानून से अनीति दूर हो ही नहीं सकती । अनीति अधर्म है और धर्म से ही उसके साथ लड़ना और उस पर विजय पाना सम्भव हो सकता है ।

धर्म और अधर्म के युद्ध में धर्म की ही विजय होती है ऐसा हमारा इतिहास कहता है परन्तु वह तब होता है जब धर्म का पक्ष लेने वाला, धर्म के लिये लडनेवाला कोई खडा हो । धर्म का पक्ष लेने पर अन्तिम विजय होती भले ही हो परन्तु कष्ट भी बहुत उठाने पड़ते हैं । आज का सवाल तो यह है कि धर्म का पक्ष तो लिया जा सकता है परन्तु उसके लिये कष्ट उठाने की सिद्धता नहीं होती । धर्म के गुण तो गाये जा सकते हैं परन्तु धर्ममार्ग पर चलना कठिन है। ऐसा तो कोई क्यों करेगा ? धर्ममार्ग पर चलने से दिखने वाला कोई लाभ हो तब तो ठीक है । अधर्म मार्ग पर चलकर लाभ मिलता हो तो अधर्म ही सही ।

इस स्थिति में विद्यालय क्या करें ?

कुछ इस प्रकार से विचार किया जा सकता है:

नीति का पक्ष लेने वाले कुछ लोग तो समाज में हैं ही । ये केवल नीति की बात ही नहीं करते, उनका आचरण भी नैतिक होता है । अक्सर ऐसे लोग अपने में ही मस्त होते हैं । दूसरों को अनीति का आचरण करना है तो करें, उनका हिसाब भगवान करेगा, हम अनीति का आचरण नहीं करेंगे । हमने दुनिया को सुधार करने का ठेका नहीं लिया है ऐसा वे कहते हैं ।

परन्तु केवल अच्छाई पर्याप्त नहीं है । यह सत्य है कि ऐसे लोगोंं के प्रभाव से ही दुनिया का अभी नाश नहीं हुआ है परन्तु नीतिमान अच्छे लोगोंं के अक्रिय रहने से चलने वाला नहीं है । इन्हें संगठित होकर सामर्थ्य बढाने की आवश्यकता है ।

  • विद्यालयों के संचालक और शिक्षक दोनों नीतिमान हों ऐसे विद्यालयों के साथ समाज की सज्जनशक्ति को ज़ुडना चाहिये ।
  • यदि संचालक नीतिमान हैं परन्तु शिक्षक नीतिमान नहीं हैं तो या तो संचालकों ने अनीतिमान शिक्षकों को नीतिमान बनाना होगा नहीं तो अनीतिमान शिक्षकों को दूर कर उनके स्थान पर नीतिमान शिक्षकों को लाना होगा ।
  • संचालक नीतिमान नहीं है परन्तु शिक्षक नीतिमान हैं तो उन्होंने ऐसे संचालकों का त्याग करना चाहिये और नीतिमान संचालकों के साथ जुड़ना चाहिये । यदि ऐसा त्याग नहीं किया तो नीतिमान शिक्षकों को नीति का त्याग करने की नौबत आती है ।
  • नीतिमान संचालक, नीतिमान शिक्षक और समाज के सज्जनों ने मिलकर अपने जैसे अन्य नीतिमान विद्यालयों को खोजना चाहिये और संगठित होना चाहिये । संगठित हुए बिना सामर्थ्य नहीं आता ।
  • ऐसे संगठन को प्रथम अपने विद्यालयों को नीतिमान बनाना चाहिये । अपने विद्यालय को नीतिमान बनाने का अर्थ है विद्यार्थियों और उनके परिवारों को नीतिमान बनाना । इसके बिना उनके सामर्थ्य में वृद्धि नहीं हो सकती ।
  • जब भी किसी अभियान का प्रारम्भ करना होता है तब थोडे से और सरल बातों से करना व्यावहारिक समझदारी है । ऐसा करने से धीरे धीरे कठिन बातें सरल होती जायेंगी ।

नीतिमत्ता का दससूत्री कार्यक्रम

इन विद्यालयों ने मिलकर विद्यार्थियों के लिये नीतिमत्ता का दससूत्री कार्यक्रम बनाना चाहिये । ये दस सूत्र इस प्रकार हैं...

  1. किसी भी परीक्षा में नकल नहीं करना ।
  2. विद्यालय की सम्पत्ति को नुकसान नहीं पहुँचाना ।
  3. किसी भी शिक्षक की पीठ के पीछे निन्‍्दा नहीं करना ।
  4. शिक्षक की आज्ञा की अवज्ञा नहीं करना ।
  5. झूठ नहीं बोलना ।
  6. विद्यालय के नियमों का उल्लंघन नहीं करना ।
  7. ट्यूशन या कोचिंग क्लास में नहीं जाना ।
  8. घर से विद्यालय और विद्यालय से घर पैद्ल अथवा बाइसिकल से आनाजाना ।
  9. कारखाने में बने कपड़े और जूते नहीं पहनना, दर्जी ने और मोची ने बनाये हुए ही पहनना ।
  10. सूती गणवेश पहनना ।

ये दस सूत्र इनसे अलग भी हो सकते हैं । यहाँ केवल उदाहरण दिये हैं ।

कोई कह सकता है कि ये सब अनीति की ही बातें नहीं है, ये तो अध्ययन और सामग्री के उपयोग की भी बातें हैं । इनका सत्य असत्य या नीतिअनीति से क्या सम्बन्ध ?

अपनी दृष्टि व्यापक बनाना

बात प्रथम दृष्टि में तो ठीक लगती है, परन्तु हमें व्यापक दृष्टि से देखना होगा । दृष्टि व्यापक करने से इन बातों को भी सूची में समाविष्ट करने का तात्पर्य ध्यान में आयेगा ।

  • इस कार्यक्रम को अपने अपने विद्यालयों में निश्चितता पूर्वक लागू करना चाहिये । कड़ाई से लागू करने से प्रारम्भ होगा परन्तु धीरे धीरे विद्यार्थियों और अभिभावकों को समझाकर सहमत बनाना चाहिये । सबको इन बातों के लिये अपने विद्यालय पर गर्व हो ऐसी स्थिति आनी चाहिये ।
  • धीरे धीरे इन विद्यालयों की प्रतिष्ठा समाज में बनने लगे इस बात की और ध्यान देना चाहिये । सज्जनों को चाहिये कि वे इन्हें समाज में प्रतिष्ठा दिलने का काम करे ।
  • अब इन विद्यालयों का सामर्थ्य केवल संचालकों और शिक्षकों तक सीमित नहीं है । विद्यार्थी और उनके परिवार भी इनके साथ जुड़े हैं ।
  • अब इन विद्यालयों ने आसपास के विद्यालयों को बदलने का अभियान छेडना होगा । विद्यार्थी विद्यार्थियों को, शिक्षक शिक्षकों को और संचालक संचालकों को परिवर्तित करने का काम करें ।
  • अब धमचिार्यों को भी इस अभियान में जुड़ने हेतु समझाना चाहिये । सन्त, महन्त, आचार्य, कथाकार, सत्संगी सार्वजनिक कार्यक्रमों में नीतिमत्ता के इन दस सूत्रों के पालन का आग्रह करें, अपने अनुयायियों से प्रतिज्ञा करवायें ।
  • कुछ दम्भी और भोंदू अवश्य होंगे, तथापि इसका परिणाम अवश्य होगा।
  • नीतिमत्ता की परीक्षा करना भूलना नहीं चाहिये, नहीं तो दम्भ फैलेगा । इन सूत्रों का क्रियान्वयन सरल है ऐसा तो नहीं है । साथ ही इन दस सूत्रों में ही सारी नीतिमत्ता का समावेश हो जाता है ऐसा भी नहीं है । यह बड़ा व्यापक विषय है, सर्वत्र इसका प्रभाव है परन्तु इसे हटाना तो पड़ेगा ही। विघ्न बहुत आयेंगे । इन विघ्नों का स्वरूप कुछ इस प्रकार हो सकता है
  1. विद्यालयों के संचालकों और शिक्षकों की टोली में ही अनीतिमान तत्त्वों की घूसखोरी हो सकती है । यह घूसखोरी अधिक नीतिमान के स्वांग में भी हो सकती है ।
  2. नीति की राह पर चलने वालों को लालच, भय, आरोप आदि के रूप में अवरोध निर्माण किये जा सकते हैं ।
  3. अनीति के आरोप और स्वार्थी तत्त्वों की ओर से दंडात्मक कारवाई तक की जा सकती है ।
  4. विद्यार्थी और अभिभावकों को विद्यालय के विरोधी बनाया जा सकता है ।
  • राजनीति के क्षेत्र के लोगोंं की ओर से जाँच, आरोप, दण्ड आदि के माध्यम से परेशानी निर्माण की जा सकती है ।
  • इन अवरोधों से भयभीत हुए बिना यदि विद्यालय डटे रहते हैं तो वे अपने अभियान में यशस्वी हो सकते हैं । लोग भी इन्हें मान्यता देने लगते हैं ।

विश्व में धार्मिक ज्ञान की प्रतिष्ठा है । अमरिका में डॉक्टर, इन्जिनियर, संगणक निष्णात, वैज्ञानिक आदि बडी संख्या में धार्मिक हैं । विश्व में धार्मिक परिवार संकल्पना की प्रतिष्ठा है । भारत की कामगीरी की प्रतिष्ठा है । परन्तु अनीतिमान लोगोंं के रूप में अप्रतिष्ठा भी है ।

स्वच्छता के विषय में अप्रतिष्ठा

दूसरी अप्रतिष्ठा है स्वच्छता के विषय में । विदेश जाकर आये हुए धार्मिक वहाँ की स्वच्छता की प्रशंसा करते हैं । वे ही लोग भारत में स्वयं गन्दगी करते हैं । विद्यालयों और कार्यालयों की सीढियाँ और कोने थूकने से, कचरा डालने के कारण गंदी हो जाती हैं । सार्वजनिक शौचालय, स्नानगृह आदि भयंकर गन्दे होते हैं । रास्तों पर लोग कचरा फैंकते हैं । बस या रेल में से थूकते हैं । प्लास्टिक के खाली बैग, पेकिंग के डिब्बे कहीं पर भी फैके जाते हैं । तीर्थ यात्रा के स्थान, पवित्ननगर, नदियों के किनारे प्लास्टिक तथा अन्य कचरे से गन्दे हो जाते हैं । अपना घर साफ करके पडौसी के आँगन में कचरा फैकते हैं । स्वच्छता को हमने योगसूत्र में पाँच नियमों में सबसे प्रथम स्थान दिया है । परन्तु व्यवहार में हम अस्वच्छता की परिसीमा लांघते हैं ।

विद्यालयों को इस विषय का भी विचार करना होगा । व्यक्तिगत जीवन में स्वच्छता का आग्रह अधिकांश लोग रखते हैं परन्तु सार्वजनिक स्थानों की स्वच्छता की दरकार कोई नहीं करता । यह भी कानून का विषय नहीं है ।

'कचरा' हमारा अधिकार है, सफाई करना नगरनिगम का कर्तव्य है, इस सूत्र पर चलने से काम नहीं बनता । यह प्रबोधन का विषय है। वास्तव में धर्माचार्यों ने इसे भी अपना विषय बनाना चाहिये ।

एक हाथ में लेने लायक अभियान

चारों ओर पैकिंग का बोलबाला है । पैन पन्सिल, रबड से लेकर कपड़े जूते खाने की वस्तुर्यें पैकिंग में मिलती हैं । आकर्षक पैकिंग के विज्ञापन होते हैं ।

आकर्षक पैकिंग से लोग आसानी से वस्तु खरीद करते हैं ऐसा व्यापारियों का मत है । एक पुस्तक प्रकाशक का कहना है कि आकर्षक मुखपृष्ठ देखकर पुस्तक या नियतकालिक पढने के लिये उठाने वाले और स्वरूप आकर्षक नहीं है इसलिये उसके प्रति उदासीन रहनेवाले पाठक होते हैं । यह तो खरीदने वाले की या पढनेवाले की बुद्धि पर प्रश्नचिह्न है। आकर्षक पैकिंग और अन्दर की वस्तु की गुणवत्ता का क्या सम्बन्ध है ? मुखपृष्ठ और अन्दर की सामग्री का क्या सम्बन्ध है ?

इस दुर्बल मनःस्थिति का फायदा उठाने वाले धूर्त व्यापारी तो हो सकते हैं परन्तु ग्राहकों और पाठकों की विवेकबुद्धि को जाग्रत करने वाले मार्गदर्शकों की भी आवश्यकता है । जहाँ आवश्यक है वहाँ तो लाख रूपये खर्च करने में संकोच नहीं करना चाहिये परन्तु जहाँ अनावश्यक है वहाँ एक पैसे का भी खर्च नहीं करना चाहिये ऐसी व्यावहारिक बुद्धि का विकास करना चाहिये ।

विज्ञापन अत्यन्त विनाशक उद्योग है। पैकिंग आकर्षक डाकिनी है। इसके भुलावे में पडने वाले लोग विवेक भूले हुए हैं । इन्हें विवेक सिखाने वाले लोगोंं को आगे आने की आवश्यकता है । नई पीढ़ी के छात्रों को यह काम करने की आवश्यकता है ।

विद्यालय एवं परिवार

प्रश्नावली

  1. विद्यालय एवं छात्र के परिवार का क्या सम्बन्ध है?
  2. आचार्य एवं छात्र के परिवार का क्या सम्बन्ध है?
  3. मातापिता को विद्यालय में क्यों एवं कब जाना चाहिये ?
  4. विद्यालय परिवार को किन किन बातों में मार्गदर्शन कर सकता है ?
  5. विद्यालय एवं छात्र के परिवार में आत्मीय सम्बन्ध कैसे निर्माण हो सकता है ?
  6. विद्यालय संचालन में छात्र के परिवार का योगदान कितने प्रकार से हो सकता है ?
  7. विद्यालय की शिक्षा योजना के सन्दर्भ में अभिभावकों की भूमिका क्या होनी चाहिये ?
  8. परिवार को किन किन विषयों में मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है ?
  9. परिवार का मार्गदर्शन करने के लिये विद्यालय किस प्रकार से व्यवस्था कर सकता है ?

प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर

विद्यालय और परिवार का केन्द्रवर्ती बिंदु विद्यार्थी होता है । उसका विकास यही दोनों का लक्ष्य बन जाता है । इस लक्ष्यपूर्ति के लिये विद्यालय एवं परिवार इन दोनों के सम्बन्धों का लोकमत जानने के लिये इस प्रश्नावली का प्रयोजन रहा । कुरुक्षेत्र से श्री रमेन्द्रसिंहजी ने ३९ शिक्षक, ९८ अभिभावक, ३ प्रधानाचार्य, २ संस्थाचालकों का सहभाग लेकर इसकी पूर्तता की ।

प्र.१ विद्यालय और छात्र के परिवार इन दोनों का संबंध स्पष्ट करते हुए दोनों मे गहरा आत्मीय संबंध, परस्पर पूरक संबंध, गाडी के दो पहियों जैसा संबंध, शैक्षिक एवं सामाजिक सबंध जैसे विविध उत्तर प्राप्त हुए । उन दोनों मे आत्मीय सबंध कैसे निर्माण होंगे इस पाचवे प्रश्न में आपस में सहकार्य की भूमिका, आपसी सद्भाव, परिवार के सुखदुःख मे सहभागी होना इस प्रकार से उत्तर मिले ।

प्र.२ आचार्य एवं परिवार के संबंधों बाबत भावात्मक संबंध, परिवार के मार्गदर्शक के रूप में, शुभचिंतक, परिवार का विद्यालय अभिन्न अंग इस प्रकार के मत प्रदर्शित हुए ।

प्र.३ मातपिता ने अपने बालक का विकास जानना, तथा विद्यार्थियों की समस्याओं का हल निकाले हेतु विद्यालय को भेंट देना चाहिये यह लगभग सबका उत्तर था।

प्र.६ विद्यालय संचालन मे आर्थिक सहयोग देना, कार्यक्रमों मे सहयोग देना, स्वयं का कलाकौशल विद्यालय के काम में लगाना, समाज में विद्यालय के प्रति अच्छा दृष्टिकोण विकसित करना इस प्रकार की सहायता हो सकती है।

प्र. ४, ८ और ९ परस्परावलंबी प्रश्न थे उनका तथ्य इस प्रकार था । अपने बालक की शैक्षिक प्रगति अनुशासन, चारित्र्य, व्यवहार में परिवर्तन इस बातों में विद्यालय परिवार का मार्गदर्शक बने। उसके लिए अभिभावक संमेलन, बैठकें, ई-मेल, दूरध्वनि द्वारा संपर्क करना तथा चिन्तन बैठक का आयोजन करना ।

अभिमत

आज विद्यालय एवं परिवार में जैसे संबंध होते हैं उसी के आधार पर जवाब मिले । छात्र का विकास विद्यालय एवं घर दोनों मे होता है। दोनों की भूमिका जब कि भिन्न हैं। घर संस्कार केन्द्र और विद्यालय बालक का ज्ञानकेन्द्र होता है। ऐसी भूमिका जब दोनों के मन में होती है तब छात्र का समग्र विकास सहजता से होता है यह धार्मिक सोच है । अतः विद्यालय और परिवार के संबंध घनिष्ठ एवं आत्मीय होने चाहिये । बिना कहे परिवार ने विद्यालय की आवश्यकताएं जानना एवं उनकी पूर्तता करना । और विद्यालय ने परिवार को योग्य मार्गदर्शन करना । शिक्षक परिवार के एवं बालक के गुरु हैं और परिवार, समाज अपना अन्नदाता है यह भावना होनी चाहिये । फिर आपस मे विश्वास और सामंजस्य निर्माण होगा, सहयोग वृत्ति निर्माण होगी । अभिभावकों ने केवल बालक का शैक्षिक विकास देखने हेतु विद्यालय को भेंट देना अधूरा होगा, उसके साथ बालक की मानसिकता, चरित्र के संबंध में चर्चा विमर्श करना होगा । अभिभावक अपनी गायनवादन कला, लेखनकला का बिनामूल्य सहयोग करे, अपना पद, अधिकार व्यवसाय से विद्यालय संचालन में सहयोगी बने । कभी शिक्षकों की अनुपस्थिति में योग्य अभिभावक कक्षा भी ले सकते हैं । अपने सुलेख का उपयोग विद्यालय के कार्यालयीन कामों में अथवा छात्रों को व्यक्तिगत रूप से सेवा के रूप में सहायता कर सकते हैं । विद्यालय ने भी गणवेश सिलाना होता हैं । सिलाई के लिए अपने दर्जी अभिभावक, फर्निचर के लिये सुथार, भवन निर्माण के लिये बिल्डर अभिभावकों का उपयोग कर उन्हें रोजगार देना चाहिये । बाहर की एजन्सी को दूर रखे तब आत्मीयता एवं मित्रता प्रस्थापित होगी ।

शिक्षक अभिभावक आपस में आशंका से नहीं अपितु परस्पर पूरक एवं विश्वासु मित्र बनेंगे तो छात्रो का भी हित होगा । आज अभिभावक विद्यालय की कहाँ कमी दिखाई देती है इस तरफ नजर रखते हैं और विद्यालय उन्हें एक आर्थिक स्रोत के रूप में उनका शोषण करते हुए दिखाई देते है । विद्यालय का चयन करते समय आज अभिभावक जहाँ अच्छे संस्कार मिलते है, जहाँ सब प्रकार के उत्सव त्योहार मनाये जाते हैं, जहाँ बहुत सुखसुविधायें बालक को प्राप्त होती हैं वहाँ एडमिशन दिलवाना ऐसा विचार करते हैं । विद्यालय भी अभिभावकों ने बच्चोंं की पढ़ाई में ध्यान देना, घरों में उत्सव पर्व नहीं मनाये जाते इसलिये संस्कार होने हेतु विद्यालय में करना ऐसा विचार रखते हैं, बिल्कुल इससे उल्टा विद्यालय ने शिक्षा की ओर घरों ने संस्कारों की जिम्मेदारी लेकर करना चाहिये । यह धार्मिक विचार है।

"जेनुं काम तेने थाय बीजा करे तो गोथा खाय' (जिसका काम है वही करेगा, अन्य करता है तो गोते लगाता है) ऐसी कहावत है। विद्यालय और परिवार दोनों ने परस्पर आशंका और स्वार्थ छोडकर आपस में विश्वास और घनिष्ठता प्रस्थापित करने से परिवार सुदृढ़ बनेंगे विद्यालय बड़ा होगा, शिक्षा का दर्जा बढ़ेगा ।

शिक्षा के तीन केन्द्र

धार्मिक शिक्षाविचार के अनुसार शिक्षा मनुष्य के जीवन के साथ अभिन्न रूप से जुडी है । वह आजीवन होती है और सर्वत्र चलती है ।

शिक्षा सर्वत्र चलती है तब भी वह तीन स्थानों में केन्द्रित हुई है। ये तीन केन्द्र हैं विद्यालय, परिवार और मन्दिर । विद्यालय में शिक्षक, घर में अभिभावक और मन्दिर में धर्माचार्य इस शिक्षा की योजना और व्यवस्था करने वाले होते हैं ।

आज शिक्षा का विचार केवल विद्यालयों के सन्दर्भ में ही होता है, जबकि विद्यालय से भी प्रभावी और अधिक महत्त्वपूर्ण केन्द्र है घर । घर में व्यक्ति जन्म पूर्व से ही रहना आरम्भ करता है और आजीवन रहता है । जीवनशिक्षा की ६० से ७० प्रतिशत शिक्षा घर में ही होती है । घर इतना प्रभावी स्थान है । परन्तु आज घर उपेक्षित हो गया है । घर का सांस्कृतिक और शैक्षिक दोनों प्रकार का महत्त्व कम हो गया है ।

यह बहुत बडी हानि है। इसे शीघ्र ही भर देना चाहिये । वर्तमान समय में जितनी दुर्गति घर की हुई है उतनी ही मन्दिर की भी हुई है । मन्दिर तो और भी विवाद में फँस गया है। इस कारण से अब घर को पुनः शिक्षा केन्द्र बनाने का दायित्व भी विद्यालय पर आता है ।

विद्यार्थियों की शिक्षा के साथ साथ घर अर्थात्‌ परिवार की शिक्षा की योजना करनी चाहिये । परिवार के लिये स्वतन्त्र विद्यालय भी हो सकता है और विद्यार्थियों के साथ साथ भी हो सकता है। विद्यार्थियों के साथ साथ करना सुविधाजनक है क्योंकि अनेक व्यवस्थायें अलग से नहीं करनी पडतीं । परिवारशिक्षा की योजना कैसे और कैसी हो सकती है ?

परिवार शिक्षा के कुछ विषय

हरेक व्यक्ति को अच्छा परिवारजन बनाना इसका उद्देश्य होना चाहिये । इसका अर्थ क्या है ? हर लडके को अच्छा पुरुष, अच्छा पति, अच्छा गृहस्थ और अच्छा पिता तथा हर लडकी को अच्छी स्त्री, अच्छी पत्नी, अच्छी गृहिणी और अच्छी माता बनना है यह परिवार शिक्षा का आधारभूत कथन है । इसके आधार पर अनेक प्रकार के पाठ्यक्रम और पाठ्यसामग्री तैयार करनी चाहिये ।

इस शिक्षा के कुछ विषय इस प्रकार हो सकते हैं

  1. स्त्री, स्रीत्व, स्रीत्व के लक्षण, स्त्रीत्व के विकास का स्वरूप
  2. पुरुष, पुरुषत्व, पुरुषत्व के लक्षण, पुरुषत्व के विकास का स्वरूप हर स्तर पर ख्त्रीपुरुष सम्बन्ध का स्वरूप
  3. हर स्तर पर स्त्रीपुरुष सम्बन्ध का स्वरूप
  4. सोलह संस्कारों का शास्त्रीय स्वरूप, प्रयोजन और आवश्यकता
  5. परिवार, परिवार रचना, परिवार व्यवस्था, परिवार भावना और परिवार का सांस्कृतिक महत्त्व
  6. व्यक्ति के जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में शिक्षा का स्वरूप : गर्भावस्‍था, शिशुअवस्था, बालअवस्था, किशोर अवस्था, युवावस्था, प्रौढावस्था, वृद्धावस्था
  7. लालयेत पंचवर्षाणि, दशवर्षाणि ताडयेत प्राप्तेतुषोडशे वर्ष पुत्र मित्र समाचरेतू अर्थात्‌ मातापिता द्वारा सन्तान की एक पीढ़ी की शिक्षा
  8. परिवार एक सामाजिक सांस्कृतिक इकाई
  9. परिवार एक आर्थिक इकाई
  10. गृहस्थाश्रमी का समाजधर्म
  11. गृहस्थाश्रमी का सृष्टिधर्म
  12. परिवार का राष्ट्रधर्म
  13. परिवार और शिक्षा
  14. परिवार में शिक्षा
  15. वर्तमान सन्दर्भ में विवाहविचार
  16. वर्तमान समय में अथार्जिन
  17. वर्तमान समय में धर्माचरण
  18. आश्रमव्यवस्था. और आश्रमचतुष्ट्य में करणीय अकरणीय कार्य
  19. घर की शिक्षा और विद्यालय की शिक्षा का समायोजन
  20. सज्जनों का व्यवहार

क्रियान्वयन हेतु आवश्यक बातें

इस सूची को घटाया बढाया जा सकता है । परन्तु महत्त्वपूर्ण बात इसकी व्यवस्था की है । इसे प्रभावी ढंग से कार्यान्वित करने के लिये इतनी बातों की आवश्यकता होगी ।

  1. पाठ्यक्रमों का विवरण विस्तार से लिखना
  2. इसके लिये पाठन-पठन सामग्री का निर्माण करना
  3. ऐसी सामग्री निर्माण करने हेतु अध्ययन और अनुसन्धान करना
  4. इसे पढ़ाने वाले लोग तैयार करना तैयार होने योग्य लोग ढूँढना
  5. पाठ्यक्रम चलाने के लिये स्थान, अन्य सामग्री और धन की व्यवस्था करना
  6. पढ़ने वाले लोग प्राप्त करना

अनुभव ऐसा है कि पढने वाले लोग तो मिल ही जाते हैं। आज का समय ऐसा है कि लोग वर्तमान असंस्कारिता से तथा अन्य समस्याओं से त्रस्त हो गये हैं और उनका हल चाहते हैं । लोग अच्छे बच्चे भी चाहते हैं इसलिये पढ़ने के लिये विद्यार्थी मिल ही जायेंगे । कठिन बात है पढ़ाने वाले, लिखने वाले, अध्ययन और अनुसन्धान करनेवाले लोग प्रयासपूर्वक निमन्त्रित करने होंगे । परन्तु इन विषयों का महत्त्व समझाने पर लोग अवश्य प्राप्त होंगे ।

इस दृष्टि से परिवार हेतु विद्यालय तो विद्यार्थियों के साथ ही हो सकता है परन्तु शेष बातों के लिये अध्ययन अनुसन्धान संस्थान प्रारम्भ करना चाहिये । एक बार यह काम प्रारम्भ हुआ तो वह शीघ्र ही गति पकड लेगा ऐसा होने की सारी सम्भावनायें हैं ।

शिक्षा और परिवार प्रबोधन

शिक्षा समाजजीवन का अभिन्न अंग है । समाज और शिक्षा का एकदूसरे पर प्रभाव पडता है । शिक्षा समाज को ज्ञानवान बनाती है और समाज शिक्षा का पोषण करता है ।

परिवार समाज का एक अंग है, एक इकाई है । परिवारों में अभिभावक परिवार विशिष्ट है । अपने बालक की शिक्षा के निमित्त से जो विद्यालय के साथ ज़ुडा है वह अभिभावक परिवार है । ऐसे अभिभावक के मन में शिक्षा विषयक कुछ स्पष्टतायें होना आवश्यक है । स्पष्टता नहीं होने से विद्यार्थी की शिक्षा में तथा शिक्षा विषयक चिन्तन और व्यवस्था में अवरोध निर्माण होते हैं, स्पष्टता होने से समर्थन और सहयोग प्राप्त होते हैं ।

जिनको लेकर अभिभावकों के मन में स्पष्टता होना आवश्यक है ऐसे विषय कुछ इस प्रकार हैं

बालक की शिक्षा घर में भी होती है

शिक्षा व्यक्ति के साथ जन्मपूर्व से ही जुडी है। आजन्मशिक्षा का एक स्थान विद्यालय है । जीवन के भी एक अंग की शिक्षा प्राप्त करने हेतु व्यक्ति विद्यालय जाता है। घर तो जीवन का पूर्ण रूप से केन्द्र है । व्यक्ति आजन्म घर में ही रहता है । इसलिये घर शिक्षा का भी एक महत्त्वपूर्ण स्थान है । ऐसी अनेक बातें हैं जो विद्यालयमें जाकर नहीं अपितु घर में ही सीखाई जाती हैं । ये बातें इस प्रकार हैं:

गर्भावस्‍था के संस्कार :

बालक का इस जन्म का जीवन गर्भाधान से आरम्भ होता है । इसमें निमित्त उसके मातापिता होते हैं । मातापिता के माध्यम से उसे पिता की चौदह और माता की पाँच पीढ़ियों के संस्कार प्राप्त होते हैं। इससे वंशपरम्परा अर्थात्‌ कुल परम्परा बनती है। वंश-परम्परा बनाये रखने की, उसे समृद्ध करने की शिक्षा का केन्द्र घर ही है । विद्यालय उसमें सहयोग और मार्गदर्शन करता है परन्तु मुख्य कार्य तो घर ही करता है । इस दृष्टि से घर को बालक का प्रथम विद्यालय कहा गया है । घर में माता प्रथम शिक्षक होती है, पिता द्वितीय और बाद में शेष सारे व्यक्ति शिक्षक की भूमिका में होते हैं । दादा, दादी, बडे भाईबहन, पिता के भाई, अर्थात्‌ चाचाचाची, घर में समय समय पर आनेवाले सगे सम्बन्धी, अतिथि अभ्यागत बालक को सिखाने का काम करते हैं । यह विधिवत्‌ दीक्षा देकर दी हुई शिक्षा नहीं है। यह अनौपचारिक शिक्षा है जो सहज रूप से निरन्तर चलती रहती है । अपने आसपास बालक हैं, उनपर हमारी वाणी, विचार और व्यवहार का प्रभाव पड़ेगा और वह उन बातों को सीखेगा ऐसी सजगता रही तो शिक्षा सजगता पूर्वक होती है अन्यथा बालक तो अपनी सजगता न रही तो भी सीख ही लेते हैं ।

परिवारजनों से सीखने की कालावधि बालक बड़ा होकर अपने बालक को जन्म देता है तब तक की माननी चाहिये । यह पूरी पीढी की शिक्षा है । इसके मुख्य अंग इस प्रकार हैं

शिशुअवस्था में कर्मेन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों को सक्रिय बनाना, चलना, बोलना, खाना, सीखना, चित्त के माध्यम से संस्कार ग्रहण करना, जगत का परिचय प्राप्त करने की शरुआत करना ।

बाल और किशोर अवस्था में चरित्र के अनेक पहलुओं को सुदृढ़ बनाना, शरीर और मन को साधना, बुद्धि की सक्रियता का प्रास्भ करना, घरगृहस्थी चलाने हेतु आवश्यक सारे काम सीखना, परिवार का अंग बनने हेतु नियमन और अनुशासन में रहना । शिशु अवस्था में माता की भूमिका प्रमुख होती है और शेष सभी सहयोगी होते हैं। बाल तथा किशोर अवस्था में पिता की भूमिका प्रमुख होती है और शेष सभी सहयोगी होते हैं ।

तरुण और युवावस्था में स्वतन्त्र होने की, दायित्वबोध की और समाज के साथ समायोजित होने की शिक्षा मुख्य विषय है। इस दृष्टि से निरीक्षण, चिन्तन, विचारविमर्श, मातापिता से मार्गदर्शन और परामर्श अत्यन्त उपयोगी होते हैं। इस आयु में पुरुषत्व और स्त्रीत्व का विकास, अर्थार्जन तथा गृहसंचालन की योग्यता और मातापिता के दायित्वों में सर्वप्रकार का सहभाग शिक्षा के प्रमुख अंग हैं ।

युवक विवाह करके गृहस्थ बनता है और घर का दायित्व लेता है । अब पत्नी के साथ उसे मातापिता बनने की सिद्धता करनी है । उसे अपने मातापिता से जो मिला है उसे नई पीढ़ी तक पहुँचाने हेतु समर्थ बनना है । यह शिक्षा भी उसे मातापिता से ही प्राप्त होती है । वे पतिपत्नी बालक को जन्म देते हैं और उनकी परिवार में होनेवाली औपचारिक शिक्षा पूर्णता को प्राप्त होती है ।

श्रेष्ठ और सुसंस्कृत समाज के लिये घर में होनेवाली इस शिक्षा का महत्त्व बहुत है। आज इस बात का विस्मरण हो गया है । घर केवल भोजन और निवास की व्यवस्था के केन्द्र बन गये हैं । मकान के रूप में सम्पत्ति बन गया है। इसे पुनः संस्कृति का केन्द्र बनाना शिक्षाविषयक चिन्तन का महत्त्वपूर्ण मुद्दा है ।

बालक की विद्यालयीन शिक्षा का प्रारम्भ उचित समय पर हो

समाज में आम धारणा बन गई है कि शिक्षा विद्यालय में ही होती है । व्यक्ति के जीवन में शिक्षा अनिवार्य है, इसलिये उसका विद्यालय जाना भी अनिवार्य है । मातापिता को शिक्षा की इतनी जल्दी हो जाती है कि वे ढाई वर्ष की आयु में ही बालक को विद्यालय में भेज देते हैं । यह कवल बालक के साथ ही नहीं तो शिक्षा के साथ और समाज के साथ भी अन्याय है । जल्दी करने से अधिक शिक्षा नहीं होती, जल्दी करने से अच्छी शिक्षा नहीं होती । उल्टे अनेक प्रकार से हानि होती है। दुनियाभर के शिक्षाशास्त्री बालक की शिक्षा कम से कम पाँच वर्ष पूर्ण होने के बाद ही आरम्भ होनी चाहिये यह आग्रहपूर्वक कहते हैं । परन्तु देशमें पूर्व प्राथमिक, नर्सरी, के.जी., बालवाडी, शिशुविहार, शिशुवाटिका आदि नामों से यह शिक्षा जोरशोर से चलती है । अनेक स्थानों पर तो यह एक उद्योग बन गया है और कम्पनियाँ बनी हैं । बाजार के लोभ से और मातापिता के आअज्ञान से यह शिक्षा चलती है । शिक्षाशास्त्र, मनोविज्ञान, व्यवहारशास्त्र इस बात का समर्थन नहीं करते तो भी यह चलता है । कई विद्यालय तो अपने पूर्वप्राथमिक विभाग में यदि प्रवेश नहीं लिया तो आगे की शिक्षा के लिये प्रवेश ही नहीं देते । “शिशुशिक्षा' नामक यह वस्तु महँगी भी बहुत है । शिशु शिक्षा होनी चाहिये घर में, आग्रह रखा जाता है विद्यालय में होने का । इसका एक कारण घर अब शिक्षा के केन्द्र नहीं रहे यह भी है । इस विषय को ठीक करने हेतु एक बड़ा समाजव्यापी आन्दोलन करने की आवश्यकता है । परिवार प्रबोधन अर्थात्‌ माता- पिता की शिक्षा इस आन्दोलन का महत्त्वपूर्ण अंग है ।

प्राथमिक शिक्षा क्रिया और अनुभव प्रधान हो

शिक्षा विषयक एक अतिशय गलत धारणा यह बन गई है कि वह पढने लिखने से होती है। पुस्तकों और बहियों को, पढने और लिखने को इतना अधिक महत्त्व दिया जाता है कि शिक्षा होती है कि नहीं इस बात की ओर ध्यान ही नहीं है । अभिभावकों का आग्रह ऐसा होता है कि वे नियमन करने लगते हैं ।

प्राथमिक शिक्षा ज्ञानेन्द्रियों और कर्मन्द्रियों का विकास करने की शिक्षा है। यह क्रिया आधारित और अनुभव आधारित होनी चाहिये । वह ऐसी हो इसलिये पुस्तकें और लेखन सामग्री कम होनी चाहिये ।

बालक को बस्ते की विशेष आवश्यकता ही नहीं है । परन्तु इस आयु में ही बस्ता बहुत भारी हो जाता है ।

विभिन्न विषय सीखने की पद्धतियाँ भी भिन्न भिन्न होती हैं । भाषा बोलकर, पढकर, लिखकर सीखी जाती है, गणित गणना कर, संगीत गाकर, विज्ञान प्रयोग कर, इतिहास कहानी सुनकर सीखे जाने वाले विषय हैं । एक विषय की पद्धति दूसरे विषय को लागू नहीं हो सकती । उदाहरण के लिये संगीत पढकर नहीं सीखा जाता । गणित और विज्ञान भी पढकर नहीं सीखे जाते । शिक्षकों और अभिभावकों को यह मुद्दा समझने की अत्यन्त आवश्यकता है । यह धार्मिक शिक्षा का या प्राचीन शिक्षा का नियम नहीं है, यह विश्वभर के मनुष्यमात्र की शिक्षा का सार्वकालीन नियम है । यह अभिभावक प्रबोधन का बहुत बड़ा विषय है ।

गृहकार्य, ट्यूशन, कोचिंग, गतिविधियाँ

शिक्षा को लेकर अभिभावकों के मनोमस्तिष्क इतने ग्रस्त और त्रस्त हैं कि कितने ही अकरणीय कार्य करने में वे समय, शक्ति और पैसा खर्च करते हैं, साथ ही अपना तनाव और चिन्ता बढ़ा लेते हैं ।

ऐसा एक मुद्दा गृहकार्य का है । बालकों के गृहकार्य का स्वरूप, गृहकार्य की मात्रा, गृहकार्य की पद्धति आदि सब अशास्त्रीय ढंग से चलता है । गृहकार्य के रूप में विद्यालय घर में पहुँच जाता है । इसके चलते घर में सीखने लायक बातों की उपेक्षा होती है । उनके लिये समय ही नहीं बचता है । गृहकार्य करने की पद्धति भी यान्त्रिक बन गई है। विद्यार्थी स्वयंप्रेरणासे गृहकार्य नहीं करते हैं। अभिभावकों को ध्यान देना पडता है । शिक्षकों को भय जगाना पड़ता है ।

अपने बालकों ने बहुत पढ़ना चाहिये ऐसी महत्त्वाकांक्षा से प्रेरित होकर मातापिता अपने बालकों को बहुत छोटी आयु में ही ट्यूशन के लिये भेजते हैं या अपने घर में शिक्षक को बुलाते हैं । कहीं कहीं तो तीन वर्ष के बालक के लिये भी स्यूशन होता है । कहीं कहीं बालक से पिण्ड छुड़ाने के लिये भी उसे ट्यूशन में भेजा जाता है । कहीं कहीं गृहकार्य पूरा करवाने के लिये ट्यूशन में भेजा जाता है। यह तो बालक के साथ अन्याय है, उस पर अत्याचार है ।

बालक थोडे बडे होते ही कोचिंग क्लास नामक प्रकरण आरम्भ हो जाता है । विभिन्न विषयों का कोचिंग होता है । दसवीं, बारहवीं, महाविद्यालयीन आदि सर्व स्तरों पर कोचिंग की महिमा बढ गई है । विद्यालयों से भी इनकी प्रतिष्ठा बढ गई है । इसके रूप में हम शिक्षाक्षेत्र को दूषित कर रहे हैं इसका भान शिक्षकों, अभिभावकों और कोचिंग देने वालों को नहीं है। इनके रूप में विषयों की परीक्षालक्षी शिक्षा होती है, विद्यार्थियों की शिक्षा नहीं होती यह मुद्दा विस्मृत हो गया है । शिक्षा का अग्रताक्रम ही बदल गया है । इस विषय पर अभिभावक प्रबोधन करने की आवश्यकता है ।

अपने बालक का सर्वांगीण विकास हो इसका भूत अभिभावकों के मस्तिष्क पर सवार हो गया है । इस के चलते वे अपने बालकों को संगीत भी सिखाना चाहते हैं और नृत्य भी, चित्र भी सिखाना चाहते हैं और कारीगरी भी, वैदिक गणित भी सिखाना चाहते हैं और संस्कृत भी । गर्मी की छुट्टियों में भी योग, तैराकी, फैशन डिजाइनिंग, पर्वतारोहण आदि इतनी अधिक गतिविधियाँ होती हैं कि बालक को एक भी ठीक से नहीं आती । यह तो मानसिक ही नहीं बौद्धिक अस्थिरता भी पैदा करती है । विद्यार्थी की रुचि ही नहीं बन पाती है । एक भी विषय में गहरी पैठ नहीं होती । और सबसे बड़ा नुकसान यह है कि विद्यार्थी घर के साथ जुड़ता नहीं है । घर की दुनिया में उसका प्रवेश ही नहीं होता, सहभागिता की बात तो दूर की है । जो सीखना चाहिये वह नहीं सीखा जाता और व्यर्थ की भागदौड चलती रहती है ।

सर्वांगीण विकास की संकल्पना को स्पष्ट करना और उसके लिये क्या करना और विशेष रूप से क्या नहीं करना यह भी अभिभावक प्रबोधन का विषय है ।

अंग्रेजी माध्यम का मोह

अभिभावकों को अंग्रेजी का इतना अधिक आकर्षण होता है कि वे अपने बालकों को मातृभाषा सिखाने से पहले ही अंग्रेजी सिखाना प्रारम्भ करते हैं । बालक को भविष्य में विदेश भेजना है इसलिये अंग्रेजी अनिवार्य है यह तर्क देकर वे दो वर्ष की आयु से अंग्रेजी सिखाना आरम्भ कर देते हैं और अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में भेजते हैं । इससे न मातृभाषा आती है न वे अपनी संस्कृति से जुडते हैं । अंग्रेजी माध्यम में पढने से विचार करने की, चिन्तन की, विषय को ग्रहण करने की, अभिव्यक्ति की, मौलिकता की बौद्धिक शक्तियों का विकास नहीं होता इस बडे भारी नुकसान की ओर ध्यान ही नहीं जाता है । व्यक्तिगत रूप से या सामाजिक रूप से मौलिक और स्वतन्त्र चिन्तन का ह्रास अंग्रेजी के लिये चुकानी पड़ने वाली भारी कीमत है । परिवार प्रबोधन के बिना इसका परिहार होने वाला नहीं है ।

सांस्कृतिक विषयों की उपेक्षा

आजकल शिक्षा अनेक अप्राकृतिक बन्धनों में जकडी गई है । सांस्कृतिक विषयों की उपेक्षा इसमें एक है । आज शिक्षा, गणित, विज्ञान, अंग्रेजी और कम्प्यूटर में सिमट गई है । इनको छोडकर सारे विषय फालतू हैं । आगे चलकर तन्त्रज्ञान, चिकित्सा, प्रबन्धन, संगणक विज्ञान, वाणिज्य महत्त्वपूर्ण विषय बन जाते हैं । इनके लिये आवश्यक हैं इसलिये प्रारम्भ में गणित और विज्ञान पढने हैं । गणित और विज्ञान में विषय के नाते रुचि नहीं है। इतिहास, समाजशास्त्र, तत्त्वज्ञान, गृहकार्य आदि सांस्कृतिक विषयों की घोर उपेक्षा हो रही है । ये सब पढने लायक विषय नहीं हैं। भाषा और साहित्य की ओर भी सुझान नहीं है। भाषाशुद्धि का आग्रह समाप्त हो गया है । इसका परिणाम यह होता है कि सामाजिकता, सभ्यता, शिष्टता, संस्कारिता, सामाजिक दायित्वबोध, देशभक्ति, मानवीय गुण आदि की शिक्षा नहीं मिलती है । मनुष्य एक यान्त्रिक, पशुतुल्य, आर्थिक प्राणी बनकर रह जाता है । यान्त्रिक शिष्टाचार और सभ्यता विकसित होती है । मानवीय सम्बन्धों को स्वार्थ की प्रेरणा होती है । अर्थात्‌ व्यक्ति अपने सुख का विचार कर दूसरों से सम्बन्ध बनाता है । अपने लिये भी वह हित का नहीं, सुख का ही विचार करता है । भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति को ही पुरुषार्थ मानता है, शिक्षा का प्रयोजन भी वही है और वह प्राप्त कर सकने को यश मानता है । अधिक से अधिकतर की ओर गति को ही विकास मानता है और उसे ऐसा विकास ही चाहिये ।

वैश्विकता का आकर्षण

शिक्षा अब स्वतः प्रमाण नहीं रही है । अर्थात्‌ शिक्षा अपने आपको अपने ही बल पर प्रमाणित नहीं करती ।

व्यक्ति की भाषा, व्यक्ति का व्यवहार, व्यक्ति का दृष्टिकोण उसके शिक्षित होने का प्रमाण है। व्यक्ति के संस्कार, सद्गुण और सत्कार्य उसके शिक्षित होने का प्रमाण है । लिखित प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं होती है । किसी और ने प्रमाणित करने की बाध्यता नहीं होती । परन्तु हमने इन स्वाभाविक प्रमाणपत्रों के स्थान पर कृत्रिम और औपचारिक प्रमाणों की व्यवस्था की । सच्ची शिक्षा से विमुख होने का यह प्रारम्भ हुआ । इस व्यवस्था के लिये संस्था और प्रक्रिया दोनों की आवश्यकता थी । इसलिये परीक्षा नामक प्रक्रिया और प्रमाणित करने वाला बोर्ड नामक संस्था बनी ।

अब हमें शिक्षा से प्राप्त ज्ञान की नहीं अपितु परीक्षा के परिणाम स्वरूप मिलने वाले प्रमाणपत्र की आवश्यकता है क्योंकि नौकरी उससे मिलती है । ज्ञान की ही परीक्षा होती है और उसमें उत्तीर्ण होने पर ही प्रमाणपत्र मिलेगा यह स्वाभाविक क्रम है परन्तु यह सम्बन्ध विच्छेद कब हो गया इसका पता भी नहीं चला और वह हो गया । प्रमाणपत्र के बिना भी ज्ञान होता है इसका भी विस्मरण हो गया ।

इसे प्रमाणित करने वाली भी विविध प्रकार की संस्थायें होती हैं । ये स्थानिक, प्रान्तीय, अखिल धार्मिक और अंतर्राष्ट्रीय होती हैं । अब विकास की दौड में सब को अन्तरराष्ट्रीय संस्था का आकर्षण हो गया है। सब को लगता है कि अन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड का प्रमाणपत्र अधिक प्रतिष्ठित है । अब ज्ञान, संस्कार, चरित्र, सामाजिकता, मानवीयता आदि अर्थहीन और अप्रासंगिक बातें हो गई हैं । वैश्विकता ही विकास है ।

यह कोई उचित दिशा नहीं है । इस विषय में प्रबोधन की आवश्यकता है ।

जीवनविषयक दृष्टि की विपरीतता

जीवन को भौतिकता की दृष्टि से ही देखने का प्रभाव शिक्षा पर पड रहा है । ऐसे दृष्टिकोण का बढ़ना और सार्वत्रिक होना शिक्षा का ही परिणाम है। परन्तु अब उससे निपटना और उसमें बदल करना केवल शिक्षाक्षेत्र के बस की बात नहीं रही । अभिभावकों के सहयोग के बिना यह कार्य होना असम्भव है । इस दृष्टि से शिक्षा, जीवन, संस्कृति आदि विषयों को लेकर अभिभावक प्रबोधन की व्यापक योजना होने की आवश्यकता है । वर्तमान स्थिति ऐसी है कि अभिभावक विद्यालय के अनुकूल नहीं बनते विद्यालय अभिभावकों के अनुकूल हो ऐसा मानस अभिभावक रखते हैं । विद्यालय कभी मजबूरी में और कभी स्वाभाविक रूप में इस भूमिका को स्वीकार करते हैं क्योंकि बाजार का दृष्टिकोण सर्वत्र प्रतिष्ठित हो गया है जहाँ अभिभावक ग्राहक हैं और विद्यालय शिक्षा को बेचने वाले हैं । ग्राहकों के अनुकूल होना व्यापारी का धर्म होता है ।

इन विषयों की शैक्षिक दृष्टि से विस्तारपूर्वक चर्चा अन्यत्र स्वतन्त्र रूप से की गई है। यहाँ उसकी आवश्यकता नहीं । यहाँ अभिभावक प्रबोधन के विषय कौन से हैं और उनकी योजना कैसे करना इसका विचार किया है ।

यहाँ जिन विषयों का उल्लेख हुआ हैं उनको ठीक करना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है क्योंकि ये देशव्यापी हैं, अत्यन्त प्रभावी रूप से पकड जमाये हुए हैं । सम्पूर्ण समाज कहीं न कहीं अभिभावक के रूप में ही व्यवहार करता है । सरकार भी इसका ही एक अंग है । बाजार ने इस पर पकड जमाई है । विज्ञापन मानस को प्रभावित करते हैं ।

परन्तु विषय गम्भीर है। जीवन की सर्वप्रकार की गुणवत्ता का ह्रास हो रहा है । मनुष्यजीवन और पशुजीवन में जो अन्तर होता है वही समाप्त होता जा रहा है । इतना ही क्यों, पशु तो तथापि प्राकृतिक जीवन जीते हैं और अनेक प्रकार की समस्याओं से बच जाते हैं । मनुष्य सुसंस्कृत जीवन व्यतीत करे ऐसी उससे अपेक्षा होती है परन्तु संस्कृति के शिखर से च्युत होने पर वह प्राकृत नहीं होता, विकृति के गर्त में गिरता है । मनुष्य जीवन को अपने ही द्वारा निर्मित समस्याओं के परिणाम स्वरूप विकृत हो जाने की स्थिति आज निर्माण हुई है । शिक्षा को लेकर अभिभावक प्रबोधन का प्रयोजन शिक्षा को और शिक्षा क माध्यम से मनुष्यजीवन को विकृति से बचाना है, विकृति के गर्त से बाहर लाना है। परिवार अभिभावक के लिये पर्यायवाची संज्ञा है अतः हम अभिभावक प्रबोधन को परिवार प्रबोधन ही कहेंगे ।

परिवार प्रबोधन की योजना का पहला अंग है परिवार प्रबोधन का पाठ्यक्रम तैयार करना जिसके आधार पर आगे की योजना बनेगी। पाठ्यक्रम के विषय कुछ इस प्रकार हो सकते हैं...

  1. परिवार का अर्थ, परिवार का महत्त्व, सामाजिक, सांस्कृतिक राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य
  2. परिवार की रचना, परिवार भावना एवं परिवार व्यवस्था
  3. परिवार में शिक्षा और परिवार की शिक्षा
  4. वसुधैव कुटुम्बकम्‌
  5. धार्मिक परिवार की विशेषता
  6. परिवार की धार्मिक और पश्चिमी संकल्पना की तुलना
  7. परिवार एक विद्यालय

ये तो एक भूमिका बनाने के अधारभूत विषय हैं । इसके बाद व्यावहारिक विषयों की सूची बन सकती है ।

परिवार रचना हेतु आवश्यक विषय

  1. वरवधूचयन और विवाहसंस्कार
  2. समर्थ राष्ट्र हेतु समर्थ बालक को जन्म देने वाले समर्थ मातापिता बनने की शिक्षा
  3. शिशुसंगोपन और शिशुसंस्कार
  4. संस्कार विचार
  5. मातापिता और सन्तान का आपसी व्यवहार
  6. परिवार में सन्तानों की शिक्षा
  7. परिवार में विद्यार्थी जीवन और वानप्रस्थ जीवन
  8. दादादादी कैसे बनें
  9. परिवार और कुलपरम्परा

परिवार और समाज के अन्तर्सम्बन्ध के विषय

  1. गृहस्थाश्रमी का समाजधर्म
  2. परिवार और राष्ट्र, धर्म, संस्कृति
  3. परिवार एक आर्थिक इकाई
  4. परिवार और पर्यावरण
  5. इष्टदेवता, कुलदेवता, ग्रामदेवता, राष्ट्रदेवता

परिवार संचालन हेतु उपयोगी विषय : ये विषय सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों आयामों में होंगे ।

  1. आहारशास्त्र जिसमें भोजन बनाना, करना और करवाना, भोजनसामग्री की शुद्धता की परख आदि बातों का समावेश होगा।
  2. शुश्रूषा और परिचर्या करना जिसमें बच्चोंं की, वृद्धों की अतिथि की, बडों की और रुण्णों की परिचर्या और शुश्रूषा का समावेश होगा ।
  3. गृहोपयोगी कार्य जिसमें कपड़े, बर्तन, फर्नीचर, धान्य आदि अनेक बातों की सफाई का समावेश होगा ।
  4. इन्हीं के साथ पूजा, अतिथिसत्कार, व्रतों, उत्सवों, त्योहारों आदि को मनाना, दान-यज्ञ आदि करना, व्रत-उपवास आदि करना इन सब का समावेश होगा ।
  5. अर्थार्जन की क्षमता का विकास
  6. अधिजननशास्त्र

परिवार और शिक्षा

  1. शिक्षा का अर्थ और स्वरूप
  2. अपनी सन्तान हेतु कौनसी शिक्षा उचित है यह कैसे तय को
  3. शिक्षा का प्रयोजन, शिक्षा कैसे होती है
  4. धार्मिक शिक्षा और पाश्चात्य शिक्षा की तुलना
  5. शिक्षित व्यक्ति के लक्षण
  6. राष्ट्रीय शिक्षा का स्वरूप
  7. विद्यालय के प्रति परिवार का दायित्व : विद्यालय के साथ अनुकूलन, विद्यालय को सहयोग और विद्यालय का पोषण
  8. शास्त्रों की शिक्षा
  9. परिवर ट्वारा विद्यालय की सेवा : स्वरूप और पद्धति

इस पाठ्यक्रम में और भी विषय हो सकते हैं। आवश्यकता और सम्भावना के आधार पर अपनी अपनी सूची बनाई जा सकती है ।

पाठ्यक्रम निर्माण करने के बाद सामग्री की आवश्यकता रहेगी । विभिन्न सन्दर्भ ग्रन्थों का अध्ययन कर अनेक प्रकार की सामग्री तैयार करनी चाहिये । जैसे कि

  1. पुस्तकें : छोटी छोटी पुस्तिकाओं से लेकर बडे ग्रन्थ
  2. चित्र और आलेखों की प्रदर्शनी
  3. दृश्यश्राव्य सामग्री : सी.डी., फिल्म आदि
  4. कहानी, गीतों, प्रेरक घटनाओं का संग्रह
  5. खिलौने, वस्त्र, खाद्य पदार्थ, सुशोभन सामग्री, पात्रसंग्रह, स्वच्छता का सामान आदि का संग्रहालय तथा प्रदर्शनी
  6. नुक्कड नाटकों के लिये छोटे छोटे नाटक
  7. सभा सम्मेलनों के लिये भाषण, गीत आदि
  8. रैलियों के लिये गीत, फलक, नारे, सूत्र आदि
  9. वॉट्सएप, फेसबुक आदि के लिये विडियो क्लीप्स, सन्देश, चित्र आदि
  10. विद्यास्भ संस्कार, जन्मदिनोत्सव आदि मनाने में मार्गदर्शक सामग्री

इन्हें सिखाने की योजना करना तथा पढ़ाने की योजना करना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । इस दृष्टि से कुछ इस प्रकार से विचार किया जा सकता है:

  1. शिक्षा के सर्व स्तरों पर सामान्य पाठ्यक्रम के अन्तर्गत इन विषयों का समावेश करना ।
  2. विद्यालय में जिस प्रकार प्राथमिक, माध्यमिक आदि विभाग होते हैं उस प्रकार परिवार शिक्षा विभाग हो सकता है ।
  3. इन विषयों को सिखाने के लिये शिक्षक तैयार करने हेतु शिक्षक शिक्षा भी आरम्भ करनी होगी ।
  4. विश्वविद्यालयों में गृहशास्त्र, अधिजननशास्त्र जैसे विषय आरम्भ किये जा सकते हैं ।
  5. विभिन्न सामाजिक सांस्कृतिक संस्था एवं संगठनों में छोटे छोटे पाठ्यक्रम, व्याख्यानमाला, कार्यशाला आदि की योजना हो सकती है ।
  6. सभाओं, सम्मेलनों, मेलों आदि में पुस्तक तथा अन्य सामग्री के वितरण की योजना बन सकती है ।
  7. विद्यालय तथा अन्य संस्थायें प्रभातफेरियों, नुक्कड, नाटकों, रैलियों का आयोजन कर सकते हैं ।
  8. कीर्तनकारों और कथाकारों को इन विषयों को अपनी कथाओं के माध्यम से समाज तक पहुँचाने हेतु निवेदन किया जा सकता है ।
  9. धारावाहिकों और फिल्मों को इन विषयों को चुनने का निवेदन भी किया जा सकता है ।
  10. अन्तर्जाल का माध्यम भी इस विषय के प्रसार हेतु उपयोग में आ सकता है ।
  11. गृहविद्यापीठ की रचना भी होनी चाहिये ।

सामाजिकता की पर्यायोगिक शिक्षा: किसी भी हालत में यह विषय सरकारी मान्यता, अनुदान, प्रमाणपत्र आदि का विषय नहीं बनाना चाहिये ।यह समाज की आवश्यकता का विषय है, समाज को अपने बलबूते पर ही उसे क्रियान्वित करना चाहिये । शिक्षाक्षेत्र को इसमें अग्रसर की भूमिका लेनी चाहिये । यह ज्ञान, संस्कार, संस्कृति और धर्म का क्षेत्र है, बाजार और राज्य का नहीं । उसे उसी रूप में विकसित करना चाहिये ।

सामाजिकता की प्रायोगिक शिक्षा

सामाजिकता क्या है ?

मनुष्य समाज में रहता है । समाज मनुष्य का ही होता है। मनुष्य के अलावा अन्य प्राणियों का तो केवल समूह होता है । अन्य प्राणी केवल शारीरिक सुरक्षा के लिये समूह में रहते दिखाई देते हैं । मनुष्य के समूह में रहने के शारीरिक स्तर की सुरक्षा से बढहकर अनेक आयाम होते हैं ।

मनुष्य की आवश्यकतायें प्राणियों की आवश्यकताओं से कहीं अधिक होती हैं । वह अकेला इन्हें पूरी नहीं कर सकता । उसे दूसरों पर निर्भर रहना ही पडता है। यह परस्परावलम्बन है । एकदूसरे के साथ अच्छे सम्बन्ध बनाये रखे बिना परस्परावलम्बन सम्भव नहीं होता । अतः आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु समूह में रहने के मनुष्य ने कुछ नियम बनाये, एक व्यवस्था बनाई, एक शास्त्र बनाया जिसे समाजशास्त्र कहते हैं । यह व्यवस्था मनुष्य के व्यक्तित्व का अंग बन जाता है तब वह स्वाभाविक होता है । इसे ही सामाजिकता कहते हैं। हर व्यक्ति में इस सामाजिकता का विकास होना चाहिये ।

परन्तु आवश्यकताओं की पूर्ति ही सामाजिकता के लिये एकमेव प्रयोजन नहीं है । केवल आवश्यकताओं की पूर्ति यह तो ऊपरी और कुछ मात्रा में कृत्रिम प्रयोजन है । मूल प्रयोजन है आत्मीयता और प्रेम । सब एकदूसरे के साथ आत्मिक स्तर पर जुड़े हैं और एकदूसरे के लिये प्रेम का अनुभव करते हैं इसलिये साथ रहना स्वाभाविक है, साथ रहना अच्छा लगता है यह मूल प्रयोजन है । आत्मीयता के कारण ही सेवा, त्याग, सहयोग आदि गुण प्रकट होते हैं और व्यवहार में दिखाई देते हैं । ये बाहरी व्यवस्था के नियम नहीं हैं, लेनदेन के या लाभालाभ के हिसाब नहीं हैं, ये बिना हिसाब के देने के रूप में ही प्रकट होते हैं । यह आत्मीयता ही मनुष्य के लिये समूह में रहने हेतु प्रेरित करती है । प्रेम और आत्मीयता जिन गुणों के रूप में प्रकट होते हैं, उन गुणों का विकास ही सामाजिकता का विकास है।

विद्यालयों के शिक्षाक्रम में सामाजिकता के गुणों का विकास करने हेतु सावधानीपूर्वक अनेक प्रकार से योजना करनी चाहिये ।

देना और बाँट कर उपभोग करना

शिशु और प्रारम्भिक बाल अवस्था में इन गुणों के संस्कार होना आवश्यक है। इस दृष्टि से गीत, खेल, कहानी आदि का चयन होना चाहिये । बच्चे घर से अल्पाहार लाते हैं और साथ बैठकर करते हैं तब भोजन आरम्भ करने से पूर्व गोग्रास निकालना, भोजन के बाद बचा हुआ अन्न तथा जूठन कुत्ते को डालना और अपना खाद्यपदार्थ प्रथम दूसरे को देना और फिर स्वयं खाना यह आग्रह पूर्वक सिखाने की बातें हैं । कभी भी अकेले बैठकर खाना नहीं । यहीं संस्कार आगे चलकर अनेक लोगोंं को घर बुलाकर भोजन कराने के, अन्नदान करने के, सदाव्रत चलाने के कार्यों में विकसित होते हैं ।

सत्कारपूर्वक देना

दूसरों को देते समय मेरे से अधिक और मेरे से अच्छी वस्तु देना ही प्रेम और सम्मान का लक्षण है । मेरे पास दो गुलाब के फूल हैं । एक थोडा छोटा और अल्पविकसित है, दूसरा बड़ा और पूर्ण खिला हुआ । मैं मेरी सहेली को कौनसा फूल दूंगी ? जो अच्छा है वह उसे देने की वृत्ति और प्रवृत्ति बने इसकी शिक्षा देनी चाहिये । मेरे पास दो पेन्सिल हैं । कक्षा के किसी छात्र के पास लिखने हेतु आज पेन्सिल नहीं है । मुझे एक पेन्सिल देनी ही चाहिये । मैं कौन सी दूंगा और मेरे लिये कौनसी रखूँगा ? निश्चित ही जो अधिक अच्छी है वही देने का मेरा मन करना चाहिये । बस में चढे तो खिडकी के पास बैठने के लिये नहीं भागूँगा अपितु मित्र को बैठने दूँगा । इन्हीं संस्कारों से आगे चलकर घर आये अतिथि को सत्कारपूर्वक हम अपने से अच्छी सुविधाओं से युक्त व्यवस्थायें देते हैं । अनेक प्रेरक घटनाओं तथा प्रत्यक्ष व्यवहार हेतु निमित्त निर्माण कर देने की, स्वयं से अधिक देने की और देकर खुश होने की वृत्ति का विकास करना चाहिये ।

भेदों को नहीं मानना

सबका स्वीकार करना असंस्कृत समाज धन, बल, सत्ता, वर्ण, जाति आदि के भेदों से एकदूसरे को ऊँचा और नीचा मानने की प्रवृत्ति रखता है। सुसंस्कृत समाज इन भेदों से ऊपर उठता है । भेदों से ऊपर उठना विशेष आग्रहपूर्वक सिखाना चाहिये । इस दृष्टि से गटव्यवस्था बहुत प्रभावी साधन बन सकती है । गटों की रचना में इन बातों का समावेश करना चाहिये:

  • गट के सभी विद्यार्थियों ने साथ बैठकर स्वाध्याय करना । इस दृष्टि से प्रतिदिन कुछ समय रखना चाहिये
  • स्वाध्याय में एकदूसरे की सहायता करना ।
  • एकदूसरे का पूर्ण परिचय प्राप्त करना ।
  • एकदूसरे के घर जाने का अवसर निर्माण करना ।
  • एक गट के विद्यार्थियों के परिवारों में भी परिचय और आत्मीयता बढ़ाना ।
  • इन गटों की रचना में अमीर गरीब, ऊँच नीच, जाति पाँति का भेद गल जाय ऐसी रचना करना ।
  • इस दृष्टि से विद्यालयीन व्यवहार में गुणों का सम्मान करने का प्रचलन बनाना चाहिये, धन, सत्ता या वर्णजाति की उच्चता का नहीं। इन आधारों पर विद्यालय से बाहर के जीवन में भी मित्रता विकसित हो सके यह देखना चाहिये ।

कृतज्ञता और उदारता

कहीं भी किसी से कुछ सहायता प्राप्त हुई तो कृतज्ञता का अनुभव करना चाहिये । आजकल कृतज्ञता बहुत कृत्रिम उपचार का विषय बन गई है । बात बात में थैन्क्यू, प्लीज और सॉरी कहने की प्रथा बन गई है । किसी बच्चे को खिडकी बन्द करने को कहा और उसने वह काम किया तो थैन्क्यू, होटेल में बैरेने पानी लाकर दिया तो थैन्क्यू, पिताजी ने खिलौना लाकर दिया तो थैन्क्यू । बात बात में थैन्क्यू कहना सिखाते हैं । इसी प्रकार से विद्यार्थी को ग्रन्थालय से कुछ लाने को कहना है तो प्लीज, प्रश्न का उत्तर देने को कहना है तो प्लीज, खडे होकर पास आने के लिये कहना है तो प्लीज । मुखर होकर सर्वत्र इन शब्दों का उच्चारण करने से वह अभिव्यक्ति सतही रह जाती है, केवल उपचार मात्र बन जाती है, भावना नहीं बनती । वास्तविक कृतज्ञता की भावना आदर, सम्मान, निःस्वार्थता, बिना स्वार्थ के सहायता, बिना स्वार्थ के दूसरों की सुरक्षा करने में प्रकट होती है । वह जीवन का स्थायी भाव बनती है। किसी का भी अपने लाभ के लिये उपयोग नहीं करने में प्रकट होती है ।

इसी प्रकार से उदारता क्षमाशीलता में प्रकट होती है । दोष, गलतियाँ, अपराध, कृतघ्नता आदि को माफ कर देना उदारता है । परन्तु इसमें विवेक भी आवश्यक है । मेरे प्रति अपराध तो माफ करना चाहिये परन्तु किसी दुर्बल को परेशान किया तो उसे दण्ड भी देना चाहिये । दोषों और अवगुणों को दूर करने हेतु अवश्य प्रवृत्त होना चाहिये । परन्तु वह तिरस्कारपूर्वक नहीं अपितु उदारतापूर्वक, दयापूर्वक होना चाहिये । स्वकेन्द्री बनकर व्यवहार नहीं करना, दूसरे का विचार करना ही सामाजिकता है। विद्यालय की छोटी मोटी स्चनाओं में तथा व्यवहारों में यह सब सिखाने की दक्षता बरतना चाहिये । यही नहीं तो गणित, भाषा, इतिहास आदि के पाठों में भी सामाजिकता अनुस्यूत होनी चाहिये । तत्त्वज्ञान को तो सामाजिकता का सन्दर्भ लेकर ही विकसित होना चाहिये । योग के प्रथम अंग यम के पाँच आयाम सामाजिकता की ही शिक्षा देते हैं और उन्हें सार्वभौम महाव्रत कहते हैं यह ध्यान देने योग्य बात है ।

सामाजिक समरसता

सामाजिकता का यह परम साध्य है । हलुवा बनता है तब उसमें आटा, घी, गुड और पानी होते हैं, उन सबके गुण और विशेषतायें भी पहचाने जाते हैं, यहाँ तक कि घी गाय का है कि भैस का, आटा गेहूँ का है या मूँग का, गुड देशी है कि रासायणयुक्त यह सब पहचाना जाता है परन्तु ये चीजें एक दूसरे से अलग नहीं की जा सकतीं, किंबहुना एक दूसरे में उचित प्रक्रिया से समरस होने पर ही हलवा बनता है। विभिन्न पदार्थों को उचित मात्रा में, उचित प्रक्रिया अपनाकर समरस नहीं किया जाता तब तक कोई पदार्थ नहीं बनता, फिर वह खाद्य पदार्थ हो या और कोई ।

समाज को भी एकसंध बनाने के लिये समरसता की आवश्यकता होती है । समाज में भेद तो होते ही हैं । भेद गुणों और विशेषताओं को दशतते हैं । इनके मिलाप से ही सामाजिक रचनायें सुन्दर बनती हैं । इन रचनाओं में सम्मान और आत्मीयता की, सुरक्षा और सम्हाल की प्रक्रिया अपनाने से समरसता निर्माण होती है ।

उदाहरण के लिये हमारे गाँवों में जब किसी के भी घर में विवाह होता था तो मंडप के लिये सुधार का, मटकी के लिये कुम्हार का, वस्त्र के लिये दर्जी का, न्यौते के लिये नायी का, वाद्यों के लिये ढोली आदि का प्रथम सम्मान किया जाता था, उनके द्वारा निर्मित और प्रदत्त पदार्थ का पूजन किया जाता था, दानदक्षिणा वस्त्राभोजन से उन्हें सन्तुष्ट किया जाता था और बाद में अन्य कार्य किये जाते थे । किसी के घर मृत्यु हो तब ये ही सब अपने द्वारा निर्मित साधन लेकर उपस्थित हो जाते थे और उसके पैसे नहीं माँगते थे । समरसता हेतु अत्यन्त बुद्धिमानी से की गई ये रचनायें हैं । इसीसे भाईचारा बना रहता है, सबको अपनी उपयोगिता लगती है। अपने जीवन की सार्थकता का अनुभव होता हैं । इससे ही वास्तविक सुख मिलता है । इसके चलते हिंसा कम होती है, दंगे फसाद कम होते हैं । व्यक्तिगत स्तर पर सृजनशीलता का विकास होता है और समाज वैभवशाली बनता है ।

वर्तमान में हमने दीर्घदृष्टि और व्यापकदूष्टि के अभाव में काम करने वाले और काम करवाने वाले के दो वर्ग निर्माण किये हैं और काम करनेवालों को नीचा और करवाने वालों को ऊँचा मानना आरम्भ किया है । साथ ही काम करने वालों के स्थान पर यन्त्रों को अपनाना आरम्भ किया है। परिणाम स्वरूप लोगोंं के पास काम करने के अवसर भी कम हो रहे हैं, काम करवाने वाले संख्या में कम ही होते हैं और अभाव और वर्गभेद बढ़ते ही जाते हैं । किस बात के लिये किसका सम्मान करें, किस बात के लिये किसकी उपयोगिता है यही प्रश्न है । सबको टिकने के लिये स्पर्धा ही करनी पड़ती है, संघर्ष ही करना पडता है । इसमें समरसता कैसे होगी ? बिना समरसता के सुख कहाँ? सुख की आश्वस्ति के बिना संस्कृति पनप नहीं सकती ।

इस व्यवस्था को बदलने का प्रावधान शिक्षा में होना चाहिये । यह एक निरन्तर चलनेवाली प्रक्रिया है । अतः परीक्षा का नहीं अपितु वातावरण, व्यवस्था और व्यवहार का विषय है । सारी बातें परीक्षाकेन्द्री कर देने से समरसता की हानि होती है ।

हम शिक्षा, व्यवसाय, दैनन्दिन व्यवहार को आज है वैसा ही रखकर समरसता निर्माण नहीं कर सकते । यह तो ऐसा ही है जैसे गरम गुण का पदार्थ खाकर शीतलता की अपेक्षा करना ।

सामाजिक उत्सवों का सांस्कृतिक स्वरूप बनायें रखना

समरसता और सामूहिकता के लिये ही अनेक उत्सवों की परस्परा बनी है । उदाहरण के लिये गुजरात में जो नवरात्रि का उत्सव है उसमें किसी भी वर्ग के, किसी भी वर्ण के, किसी भी जाति के, किसी भी आयु के, व्यक्ति को सहभागी होने का समान अधिकार है । वह सभी अर्थों में सार्वजनिक है, शक्तिपूजा का और उपवास का आलम्बन लिये है और गीतनृत्य के रूप में मूर्त होता है । आज इसका रूप अत्यन्त बीभत्स और सामाजिकता के लिये हानिकारक बन गया है । विद्यालय अपने विद्यार्थियों के माध्यम से ही इसे परिष्कृत कर सकते हैं । होली, मकरसंक्रान्ति, दीपावली भी इसी के उदाहरण हैं ।

तीर्थयात्रायें और मेले भी इसके माध्यम हैं । उदाहरण के लिये गाँव के लोग जब तीर्थयात्रा पर जाते थे तो गाँव की सीमा से बाहर निकलने पर जाति छोड देते थे और एक हो जाते थे । फिर ऊँचनीच, छुआछूत कुछ नहीं रहता था । जगन्नाथ भगवान के प्रसाद में जातिपाँत का कोई भेद नहीं रहता है । उक्ति है “जगन्नाथ का भात, पूछे जात न पाँत' । कुम्भ जैसे मेले में पण्डित, राजा, साधु, सामान्य मनुष्य का कोई भेद नहीं रहता था । तात्पर्य यह है कि हमने इन उत्सवों और पर्वों की रचना समरस समाज बनाने के उद्देश्य से ही की है । आज उनका रूप विकृत हो गया है । उन्हें पुनः उनके मूल रूप में ले आना विद्यालयों का काम है । इस दृष्टि से उचित शिक्षाक्रम अपनाना चाहिये ।

गुणों और क्षमताओं का सम्मान करना

धन, सत्ता, रूप, सुविधा आदि को गुणों और क्षमताओं से अधिक महत्त्व देने से सामाजिक सन्तुलन बिगडता है । विद्यालय में जो पैदल चलकर आता है, उसके पैरों में जूते नहीं हैं, उसके कपड़े सामान्य हैं परन्तु उसका स्वास्थ्य अच्छा है, जो अच्छी कबड्डी खेलता है, गणित के सवाल आसानी से हल करता है और सबकी सहायता करने हेतु तत्पर रहता है उसका सम्मान उससे अधिक होना चाहिये जो बडे बाप का बेटा है, कार में विद्यालय आता है, बस्ता, कपड़े, जूते बहुत कीमती हैं परन्तु शरीर से दुर्बल है, पढने और खेलने में कमजोर है और स्वभाव से घमण्डी और असहिष्णु है ।

जो व्यक्ति को लागू है वही परिवारों को भी है । धनी लोग भी कृपण और स्वार्थी होते हैं, निर्धन और वंचित लोग भी उदार और समझदार होते हैं । बडे और प्रतिष्ठित लोग अश्रद्धावान, भीरू और अनीतिमान होते हैं, सामान्य और गरीब, झॉंपडी में रहनेवाले भी श्रद्धावान, विश्वसनीय, बहादुर और नीतिमान होते हैं । विद्यार्थियों को इन गुणों का सम्मान करना और अपने में विकसित करना सिखाना चाहिये । गरीबी की, छोटे घर की, सामान्य कपडों की, मजदूरी करने वाले, कम कमाई करने वाले मातापिता की शर्म नहीं करना सिखाना चाहिये । सम्पन्नता का अहंकार नहीं करना सिखाना चाहिये । विद्यालय में सम्पन्न और सत्तावान लोगोंं की चाटूकारिता और विपन्न और सामान्य लोगोंं की उपेक्षा करने से सामाजिकता को हानि पहुँचती है।

कई तो पूरे विद्यालय ही ऐसे होते हैं जहाँ केवल पैसेवालों के बच्चोंं का ही प्रवेश हो सकता है। कुछ विद्यालय ऐसे होते हैं जहाँ केवल पैसे वाले ही नहीं अपितु उच्च पदों पर आसीन लोग ही प्रवेश प्राप्त कर सकते हैं । ऐसे विद्यालय न तो ज्ञान की सेवा करते हैं न समाज की क्योंकि ये ऐसे लोग निर्माण करते हैं जो समाज के अपने जैसे नहीं हैं ऐसे लोगोंं को तुच्छ समझते हैं । ऐसे विद्यालयों में शिक्षकों का सम्मान नहीं होता, उल्टे शिक्षकों को ही बडे लोगोंं के बेटों की मर्जी उठानी पड़ती है। इन्हे विद्या का धाम कैसे सकते है ? ऐसे विद्यालय ज्ञान को सत्ता की दासी बना देते है।

सत्य, धर्म, ज्ञान, सेवा न्याय आदि की परख होना

अपनत्व का व्यवहार करना यह सारे सामाजिक सद्गुणों का मूल है। दया, दान, क्षमा, उपकार, सहयोग आदि मूल्यों का जतन करना सद्गुण है। इनके अनुकूल आचरण करना सदाचार है। परन्तु समझ यदि कम है या स्वार्थ यदि अधिक है तो इनमे विकृति भी आती है। स्वयं तो दयावान, न्यायी, सत्यवादी आदि होना ही चाहिए, इनको पहचानने का विवेक और उसके अनुरूप व्यवहार करने का साहस भी होना चाहिए। अपने लिए इनके आचरण के साथ साथ, न्याय, ज्ञान और धर्म का पक्ष भी लेना चाहिये और अन्याय, असत्य, अधर्म और अज्ञान का त्याग, उपेक्षा, तिरस्कार या दण्ड - जहाँ जो भी आवश्यक है - भी करना चाहिये । उदाहरण के लिये स्वयं अन्याय नहीं करेंगे यह प्रथम चरण है, किसी के द्वारा किये गये अन्याय को नहीं सहेंगे परन्तु समाज में किसी छोटे, दुर्बल या दीन व्यक्ति के प्रति बड़ा, बलवान और समर्थ व्यक्ति अन्याय कर रहा है तो दीन, दुर्बल, छोटे व्यक्ति का पक्ष लेना और उसकी रक्षा करना तथा अन्याय करने वाले व्यक्ति का विरोध करना भी अपेक्षित है। सुपात्र, सद्गुणी व्यक्ति की प्रशंसा करनी ही चाहिये, भले ही वह गरीब हो, परन्तु अपने लाभ के लिये समर्थ, गुणहीन व्यक्ति की प्रशंसा नहीं करना चाहिये । वह प्रशंसा नहीं चाटूकारिता है। व्यक्ति भले ही विद्वान, धनवान या सत्तावान हो, यदि वह अधर्म और अन्यायपूर्ण व्यवहार करता है तो उसकी मित्रता नहीं करनी चाहिये, भले ही वह हमारे साथ बहुत अच्छा व्यवहार करता हो । विद्वान व्यक्ति यदि धनवान की चाटूकारिता करता है तो वह ज्ञान की अवमानना करता है यही समझना चाहिये । धर्माचार्य यदि सत्तावान व्यक्ति के अनुकूल बनने का प्रयास करता है तो वह धर्म का अनादर करता है। आततायी व्यक्ति को दण्ड नहीं देना हिंसा है, अहिंसा नहीं। शोषण करनवाले व्यक्ति के विरुद्ध आवाज नहीं उठाना अधर्म है। भूखे व्यक्ति को अन्न नहीं देना अधर्म है, जिज्ञासु व्यक्ति को ज्ञान नहीं देना अधर्म है, दुर्बल की रक्षा नहीं करना अधर्म है परन्तु शत्रु के गट में अन्न नहीं जाने देना धर्म है, दुष्ट व्यक्ति को ज्ञान देना अधर्म है, गुंडे की रक्षा करने हेतु वकीली करना अधर्म है। धर्म-अधर्म, हिंसा-अहिंसा, न्याय-अन्याय, सही-गलत आदि का विवेक नहीं किया और पक्ष लेने और विरोध करने का साहस नहीं दिखाया तो सामाजिकता घोर संकट में पड़ जाती है। ऐसे में संस्कृति की रक्षा नहीं होती। असंस्कृत समाज की समृद्धि प्रथम आसुरी बन जाती है, बाद में सबका नाश करती है और अन्त में स्वयं नष्ट हो जाती है।

विद्यालयों के विषय, विषयवस्तु, अन्यान्य गतिविधियाँ, व्यवस्था, वातावरण आदि सब यह विवेक सिखाने के लिये प्रयुक्त होने चाहिये । महाविद्यालयों में तो समाजशास्त्र का स्वरूप ही प्रथम चरण में सामाजिकता सिखाने का होना चाहिये । सामाजिकता की कसौटी पर ही अन्य विषयों का मूल्यांकन होना चाहिये । उदाहरण के लिये सामाजिकता को हानि पहुंचाने वाला अर्थशास्त्र, टैक्नोलोजी, वाणिज्यशास्त्र, राजशास्त्र या मनोविज्ञान, खेल आदि मान्य ही नहीं होने चाहिये । समाजशास्त्र केवल धर्मशास्त्र के अनुकूल होता है । वह धर्मशास्त्र का अंग है जबकि शेष सभी शास्त्रों का अंगी है। सारे शास्त्र समाजशास्त्र के अविरोधी होने अपेक्षित है।

शिक्षा धर्म सिखाती है । धर्म का एक अंग सृष्टि धर्म है और दूसरा समष्टि धर्म है। समष्टि धर्म सृष्टि धर्म के अनुकूल होता है । समष्टि धर्म ही सामाजिकता है। अतः शिक्षा का मुख्य कार्य ही सामाजिकता सिखाना है।

सामाजिकता सिखाने के लिये विद्यालयों की वर्तमान रीतिनीति में बहुत परिवर्तन करना होगा यह सत्य हैं, परन्तु ऐसा परिवर्तन किये बिना शिक्षा का स्वरूप धार्मिक नहीं बन सकता । धार्मिककरण केवल सिद्धान्त में नहीं होता, सिद्धान्त को व्यवहार में परिणत करने से होता है।

घर में छात्र विकास

छात्रों का विकास केवल विद्यालय में ही नहीं होता, विद्यालय के बाहर, घर में भी होता है, इस दृष्टि से मातापिता को निम्न लिखित बातों में विद्यालय ने क्या मार्गदर्शन करना चाहिये ?

१. भोजन, २. निद्रा, ३. व्यायाम, ४. गृहजीवन, ५. सामाजिक जीवन, ६. सेवाकार्य, ७. श्रमकार्य, ८. योगाभ्यास, ९. सांस्कृतिक कार्य, १०. उपासना, ११. अभ्यास, १२. स्वाध्याय, १३. कौशल विकास, १४. शौक, १५. मित्र परिवार, १६. दिनचर्या, १७. मानसिकता, १८. जीवनदृष्टि, १९. कुल परम्परा

छात्र का विकास तो सब चाहते है, मातापिता भी बालक के विकास की इच्छा करते है । विकास के कुल १९ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं पर शिक्षक, मातापिता, दादादादी और अन्य लोगोंं के साथ जो वार्तालाप हुआ उनका अभिप्राय ऐसा रहा ।

शिक्षकोने बताया यह सारे बिन्दु उनके पढ़ाई के कोर्स के बाहर है, अतिरिक्त है । यह सब बातें करवाना मातापिता का कर्तव्य है । इतना सब पढाने के लिये समय ही नहीं बचता क्योंकि पूरे वर्ष कोर्स, परीक्षा कार्यक्रम यह सारे तंत्र से फुरसत ही नहीं मिलती ।

बडे बुजुर्ग लोगोंं को उन बिन्दुओं मे तथ्य समझमें आता है परंतु आजकल की पीढ़ी सुनती समझती ही नहीं अतः वे हतबल थे ।

मातापिता अच्छा भोजन, व्यायाम, सेवाकार्य, योगाभ्यास, उपासना आदि का महत्व तो जानते है परंतु बच्चे सुनते नहीं, करते नही या तो विद्यालय की पढ़ाई में उनका यह सब होता नहीं है । केवल होमवर्क हम पूरा करवाते है। यह सब बातों की तरफ ध्यान देने के लिए हमे घर मे फुरसत नही मिलती, क्योंकि दोनों नौकरी करते हैं। इसी संबंध में कोई अच्छा क्लास होगा तो एडमिशन दिलवा देने के लिये वे तैयार है ।

अभिमत

प्रश्नावली के ७९ बिंदु विकास मे अत्यंत उपयुक्त है । परंतु इस संबंध में मार्गदर्शन करने हेतू शिक्षको के पास ही कोई मार्ग नहीं है। विद्यालय में अभिभावक एसे विषय चुनने के लिये आते नहीं हैं । जीवनदृष्टि, भोजन, व्यायाम आदि विषयों में शिक्षक, अभिभावक भी आज पाश्चात्य शैली का शिकार बने हैं अतः वे मार्गदर्शन तो करेंगे परंतु उनको साकार रूप नहीं देते हैं । बच्चोंं का मित्र परिवार उन्हे गलत मार्ग पर ही ले जाता है । अतः वह विकास का मार्ग उन्हे मान्य नहीं । घर में माता, पिता संतानो के अपने अपने व्यक्तिगत मित्र होते हैं । ये सब घर के मित्र होते तो विकास अवश्य करते । श्रम करने से पढ़ाई मे रुकावट आती है, थकान आती है, पढ़ाई कम होती है ऐसी भ्रामक मान्यताओं से अभिभावक के लिये है । शिक्षक यह दायित्व लेने समर्थ भी नहीं तैयार भी नहीं ।

घर में छात्र विकास

वर्तमान समय की पक्की धारणा बन गई है कि पढ़ाई केवल विद्यालय में ही होती है। विद्यालय के अलावा घर में या किसी अन्य स्थान पर जो होता है उसे पढ़ाई नहीं कहा जाता । साथ ही जीवन में मुख्य कोई कार्य है तो वह पढ़ाई ही है । यदि पढ़ाई नहीं है तो मनोरंजन है । विद्यालय की पढ़ाई से अधिक महत्त्वपूर्ण और कुछ नहीं है।

पढ़ाई के सम्बन्ध में भी हमारी धारणा विद्यालय के कक्षाकक्ष में जो होता है उसमें ही सीमित है। उसी काम को अधिक से अधिक प्रवीणता लाने के लिए हमें हमारी पढ़ाईविषयक धारणा बदलने की आवश्यकता है। शिक्षा केवल विद्यालय में पढ़ाये जाने वाले विषयों तक सीमित नहीं होती है। इसलिये विद्यालय में जो पढ़ाया जाता है वही कार्य घर जाकर भी करने को कहा जाता है जिसे गृहकार्य कहा जाता है। परन्तु जीवन का गणित इतना सीधासादा नहीं है। विद्यालय की पढ़ाई ही सबकुछ नहीं होती, अन्य अनेक कामकाज ऐसे होते हैं जो विद्यालय की पढ़ाई से भी अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं। वे सब विद्यालय में पढ़ाए नहीं जाते । उनकी पढ़ाई घर में ही होती

वास्तव में विद्यालय से भी अधिक घर में प्राप्त होने वाली शिक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है । विद्यालय में शिक्षा का एक अंश ही होता है। घर की शिक्षा की अनुपस्थिति में विद्यालय की शिक्षा को अर्थ ही प्राप्त नहीं होता है। हम यह कहने का साहस भी कर सकते हैं कि विद्यालय की पढ़ाई यदि कुछ मात्रा में काम हुई तो भी बहुत हानि नहीं होती परन्तु घर में नहीं हुई तो जो हानि होती है उसकी भरपाई नहीं की जाती।

घर की पढ़ाई के अभाव में घर में विद्यालय की पढ़ाई पर ही जोर दिया जाता है। विद्यालय के द्वारा दिया गया गृहकार्य तो होता ही है, ऊपर से अनेक प्रकार की अन्य गतिविधियों के लिए भी आग्रह किया जाता है। विभिन्न प्रकार के कोचिंग और ट्यूशन की भरमार होती है, यहाँ तक कि छुट्टियों में चित्रकाम, तैराकी आदि सीखने का आग्रह किया जाता है। संक्षेप में पढ़ने की दुनिया घर से बाहर ही होती है।

वास्तव में विद्यालय से भी अधिक घर में प्राप्त होने वाली शिक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है । विद्यालय में शिक्षा का एक अंश ही होता है। घर की शिक्षा की अनुपस्थिति में विद्यालय की शिक्षा को अर्थ ही प्राप्त नहीं होता है। हम यह कहने का साहस भी कर सकते हैं कि विद्यालय की पढ़ाई यदि कुछ मात्रा में काम हुई तो भी बहुत हानि नहीं होती परन्तु घर में नहीं हुई तो जो हानि होती है उसकी भरपाई नहीं की जाती।

घर की पढ़ाई के अभाव में घर में विद्यालय की पढ़ाई पर ही ज़ोर दिया जाता है। विद्यालय के द्वारा दिया गया गृहकार्य तो होता ही है, ऊपर से अनेक प्रकार की अन्य गतिविधियों के लिए भी आग्रह किया जाता है। विभिन्न प्रकार के कोचिंग और ट्यूशन की भरमार होती है, यहाँ तक कि छुट्टियों में चित्रकाम, तैराकी आदि सीखने का आग्रह किया जाता है। संक्षेप में पढ़ने की दुनिया घर से बाहर ही होती है।

सत्य तो यह है कि घर की भी एक दुनिया होती है जो विद्यालय के समान महत्त्वपूर्ण होती है। घर के ही अनेक काम होते हैं जो सीखने होते हैं। वे भी बाल, किशोर और तरुण आयु में ही सीखे जाते हैं।

घर में उसे छात्र नहीं कहा जाता है। वह पुत्र, भाई, पौत्र आदि भूमिका में रहता है। इन्हीं भूमिकाओं को लेकर उसे अनेक बातें सीखनी होती हैं। वह अपने दादा - दादी का पौत्र है तो उसे उनकी सेवा करनी है। इस सन्दर्भ में उसे अनेक छोटे बड़े काम सीखने होते हैं। उनकी सेवा करते करते वह उनके अनेक अनुभव सुनता है जिससे उसे ज्ञान प्राप्त होता है। वह अपने मातापिता का पत्र है। उस रूप में उसे उनके कामों में सहयोगी बनना होता है। यह भी उसे सीखना ही है। वह अपने भाईयबहनों का भाई होता है। इस भूमिका में उसे उनके साथ खेलना औए सीखना सिखाना होता है। घर में अतिथि आते हैं। उसे अतिथिसत्कार करना सीखना होता है। घर में अनेक उत्सव मनाए जाते हैं। उनके विषय में जानना होता है।

विद्यालय में जीवन का बहुत अल्प समय जाना होता है। सम्पूर्ण जीवन घर में ही जीना होता है। इस दृष्टि से जीवनविकास के महत्त्वपूर्ण आयामों की शिक्षा घर में होती है। भोजन, निद्रा, व्यायाम आदि शरीर को स्वस्थ रखने की बातें घर में सीखी जाती हैं। केवल खाना और सोना ही नहीं होता है तो भोजन बनाना और परोसना तथा बिस्तर लगाना और समेटना भी होता है। उनसे संबंधित कपड़े धोना, कमरे की सफाई करना,घर के लिए आवश्यक सामान की खरीदी करना आदि अनेक बातें सीखनी होती हैं।

मातापिता के काम में सहयोग करते करते स्वयं की ज़िम्मेचलाना है। विद्यालय में ऐसी कोई ज़िम्मेदारी नहीं होती। पढ़ाई का काल पूर्ण होने पर वह विद्यालय छोड़ देता है परन्तु घर में तो वह आजीवन रहता है। इसलिये घर चलाना सीखना बहुत महत्त्वपूर्ण है । दारी से इन कामों को करना सीखा जाता है । यह सीखना इसलिये आवश्यक होता है क्योंकि भविष्य में उसे यही घर का स्वामी बनना होता है।

सभ्य और सुसंस्कृत जीवन जीने के लिए पैसे कमाना ही पर्याप्त नहीं होता। जीवनव्यवहार की अनेक बातें अच्छी तरह से करनी होती हैं। ये सब उसे सीखनी होती है।

यह सब सिखाने वाले मातापिता और अन्य सदस्य होते हैं। वह जीवनमूल्य सीखता है, कुलपरम्परा ग्रहण करता है। समाजसेवा सीखता है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वह जीवन का दृष्टिकोण भी घर में ही सीखता है।

आज इस विषय की सर्वथा विस्मृति हुई है। उसे पुनः स्मरण में लाने हेतु योजनापूर्वक प्रयास करने की आवश्यकता है। शिक्षाक्षेत्र के सौजन्य लोगोंं को इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है ।

References

  1. धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ३): पर्व २: अध्याय ७, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे