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काम है । इस दृष्टि से उचित शिक्षाक्रम अपनाना चाहिये ।
 
काम है । इस दृष्टि से उचित शिक्षाक्रम अपनाना चाहिये ।
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==== ७. गुणों और क्षमताओं का सम्मान करना ====
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धन, सत्ता, रूप, सुविधा आदि को गुणों और क्षमताओं से अधिक महत्त्व देने से सामाजिक सन्तुलन बिगडता है । विद्यालय में जो पैदल चलकर आता है, उसके पैरों में जूते नहीं हैं, उसके कपडे सामान्य हैं परन्तु उसका स्वास्थ्य अच्छा है, जो अच्छी कबड्डी खेलता है, गणित के सवाल आसानी से हल करता है और सबकी सहायता करने हेतु तत्पर रहता है उसका सम्मान उससे अधिक होना चाहिये जो बडे बाप का बेटा है, कार में विद्यालय आता है, बस्ता, कपडे, जुते बहुत कीमती हैं परन्तु शरीर से दुर्बल है, पढने और खेलने में कमजोर है और स्वभाव से घमण्डी और असहिष्णु है ।
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जो व्यक्ति को लागू है वही परिवारों को भी है । धनी लोग भी कृपण और स्वार्थी होते हैं, निर्धन और वंचित
 
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लोग भी उदार और समझदार होते हैं बडे और प्रतिष्ठित लोग अश्रद्धावान, भीरू और अनीतिमान होते हैं, सामान्य
         
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और गरीब, झॉंपडी में रहनेवाले भी श्रद्धावान, विश्वसनीय,
 
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बहादुर और नीतिमान होते हैं । विद्यार्थियों को इन गुणों का सम्मान करना और अपने में विकसित करना सिखाना
७... गुणों और क्षमताओं का
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चाहिये । गरीबी की, छोटे घर की, सामान्य कपडों की, मजदूरी करने वाले, कम कमाई करने वाले मातापिता की शर्म नहीं करना सिखाना चाहिये । सम्पन्नता का अहंकार नहीं करना सिखाना चाहिये । विद्यालय में सम्पन्न और सत्तावान लोगों की चाटुकारिता और विपन्न और सामान्य लोगों की उपेक्षा करने से सामाजिकता को हानि पहुँचती है।
सम्मान करना
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धन, सत्ता, रूप, सुविधा आदि को गुणों और
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क्षमताओं से अधिक महत्त्व देने से सामाजिक सन्तुलन
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बिगडता है विद्यालय में जो tea चलकर आता है,
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उसके पैरों में जूते नहीं हैं, उसके कपडे सामान्य हैं परन्तु
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उसका स्वास्थ्य अच्छा है, जो अच्छी कबड्डी खेलता है,
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गणित के सवाल आसानी से हल करता है और सबकी
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सहायता करने हेतु तत्पर रहता है उसका सम्मान उससे
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अधिक होना चाहिये जो बडे बाप का बेटा है, कार में
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विद्यालय आता है, THN, HIS, Bd sed कीमती हैं
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परन्तु शरीर से दुर्बल है, पढने और खेलने में कमजोर है
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और स्वभाव से घमण्डी और असहिष्णु है ।
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जो व्यक्ति को लागू है वही परिवारों को भी है । धनी
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कई तो पूरे विद्यालय ही ऐसे होते हैं जहाँ केवल पैसेवालों के बच्चों का ही प्रवेश हो सकता है। कुछ विद्यालय ऐसे होते हैं जहाँ केवल पैसे वाले ही नहीं अपितु उच्च पदों पर आसीन लोग ही प्रवेश प्राप्त कर सकते हैं । ऐसे विद्यालय न तो ज्ञान की सेवा करते हैं न समाज की क्योंकि ये ऐसे लोग निर्माण करते हैं जो समाज के अपने जैसे नहीं हैं ऐसे लोगों को तुच्छ समझते हैं । ऐसे विद्यालयों में शिक्षकों का सम्मान नहीं होता, उल्टे शिक्षकों को ही बडे लोगों के बेटों की मर्जी उठानी पड़ती है। इन्हे विद्या का धाम कैसे सकते है ? ऐसे विद्यालय ज्ञान को सत्ता की दासी बना देते है।  
लोग भी कृपण और स्वार्थी होते हैं, निर्धन और वंचित
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लोग भी उदार और समझदार होते हैं । बडे और प्रतिष्ठित
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लोग अश्रद्धावान, भीरू और अनीतिमान होते हैं, सामान्य
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और गरीब, झॉंपडी में रहनेवाले भी श्रद्धावान, विश्वसनीय,
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बहादुर और नीतिमान होते हैं । विद्यार्थियों को इन गुणों का
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सम्मान करना और अपने में विकसित करना सिखाना
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चाहिये । गरीबी की, छोटे घर की, सामान्य कपडों की,
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मजदूरी करने वाले, कम कमाई करने वाले मातापिता की
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शर्म नहीं करना सिखाना चाहिये । सम्पन्नता का अहंकार
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नहीं करना सिखाना चाहिये । विद्यालय में सम्पन्न और
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सत्तावान लोगों की areata ak fsa ak ares
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लोगों की उपेक्षा करने से सामाजिकता को हानि पहुँचती
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है।
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कई तो पूरे विद्यालय ही ऐसे होते हैं जहाँ केवल
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==== ८. सत्य, धर्म, ज्ञान, सेवा न्याय आदि की परख होना ====
पैसेवालों के बच्चों का ही प्रवेश हो सकता है। कुछ
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अपनत्व का व्यवहार करना यह सारे सामाजिक सद्गुणों का मूल है। दया, दान, क्षमा, उपकार, सहयोग आदि मूल्यों का जतन करना सद्गुण है। इनके अनुकूल आचरण करना सदाचार है। परन्तु समझ यदि कम है या स्वार्थ यदि अधिक है तो इनमे विकृति भी आती है। स्वयं तो दयावान, न्यायी, सत्यवादी आदि होना ही चाहिए, इनको पहचानने का विवेक और उसके अनुरूप व्यवहार करने का साहस भी होना चाहिए। अपने लिए इनके आचरण के साथ साथ, न्याय, ज्ञान और धर्म  का पक्ष भी लेना चाहिये और अन्याय, असत्य, अधर्म और अज्ञान का त्याग, उपेक्षा, तिरस्कार या दण्ड - जहाँ जो भी आवश्यक है - भी करना चाहिये । उदाहरण के लिये स्वयं अन्याय नहीं करेंगे यह प्रथम चरण है, किसी के द्वारा किये गये अन्याय को नहीं सहेंगे परन्तु समाज में किसी छोटे, दुर्बल या दीन व्यक्ति के प्रति बडा, बलवान  और समर्थ व्यक्ति अन्याय कर रहा है तो दीन, दुर्बल, छोटे व्यक्ति का पक्ष लेना और उसकी रक्षा करना तथा अन्याय करने वाले व्यक्ति का विरोध करना भी अपेक्षित है। सुपात्र, सद्गुणी व्यक्ति की प्रशंसा करनी ही चाहिये, भले ही वह गरीब हो, परन्तु अपने लाभ के लिये समर्थ, गुणहीन व्यक्ति की प्रशंसा नहीं करना चाहिये । वह प्रशंसा नहीं चाटुकारिता है। व्यक्ति भले ही विद्वान, धनवान या सत्तावान हो, यदि वह अधर्म और अन्यायपूर्ण व्यवहार करता है तो उसकी मित्रता नहीं करनी चाहिये, भले ही वह हमारे साथ बहुत अच्छा व्यवहार करता हो विद्वान व्यक्ति यदि धनवान की चाटुकारिता करता है तो वह ज्ञान की अवमानना करता है यही समझना चाहिये । धर्माचार्य यदि सत्तावान व्यक्ति के अनुकूल बनने का प्रयास करता है तो वह धर्म का अनादर करता है। आततायी व्यक्ति को दण्ड नहीं देना हिंसा है, अहिंसा नहीं। शोषण करनवाले व्यक्ति के विरुद्ध आवाज नहीं उठाना अधर्म है। भूखे व्यक्ति को अन्न नहीं देना अधर्म है, जिज्ञासु व्यक्ति को ज्ञान नहीं देना अधर्म है, दुर्बल की रक्षा नहीं करना अधर्म है परन्तु शत्रु के गट में अन्न नहीं जाने देना धर्म है, दुष्ट व्यक्ति को ज्ञान देना अधर्म है, गुंडे की रक्षा करने हेतु वकीली करना अधर्म है। धर्म-अधर्म, हिंसाअहिंसा, न्याय-अन्याय, सही-गलत आदि का विवेक नहीं किया और पक्ष लेने और विरोध करने का साहस नहीं दिखाया तो सामाजिकता घोर संकट में पड़ जाती है। ऐसे में संस्कृति की रक्षा नहीं होती। असंस्कृत समाज की समृद्धि प्रथम आसुरी बन जाती है, बाद में सबका नाश करती है और अन्त में स्वयं नष्ट हो जाती है।
विद्यालय ऐसे होते हैं जहाँ केवल पैसे वाले ही नहीं अपितु
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उच्च पदों पर आसीन लोग ही प्रवेश प्राप्त कर सकते हैं
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जैसे नहीं हैं ऐसे लोगों को तुच्छ समझते हैं । ऐसे विद्यालयों
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में शिक्षकों का सम्मान नहीं होता, उल्टे शिक्षकों को ही
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विद्यालयों के विषय, विषयवस्तु, अन्यान्य गतिविधियाँ, व्यवस्था, वातावरण आदि सब यह विवेक सिखाने के लिये प्रयुक्त होने चाहिये । महाविद्यालयों में तो समाजशास्त्र का स्वरूप ही प्रथम चरण में सामाजिकता सिखाने का होना चाहिये । सामाजिकता की कसौटी पर ही अन्य विषयों का मूल्यांकन होना चाहिये । उदाहरण के लिये सामाजिकता को हानि पहुंचाने वाला अर्थशास्त्र, टैक्नोलोजी, वाणिज्यशास्त्र, राजशास्त्र या मनोविज्ञान, खेल आदि मान्य ही नहीं होने चाहिये । समाजशास्त्र केवल धर्मशास्त्र के अनुकूल होता है । वह धर्मशास्त्र का अंग है जबकि शेष सभी शास्त्रों का अंगी है। सारे शास्त्र समाजशास्त्र के अविरोधी होने अपेक्षित है।
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शिक्षा धर्म सिखाती है । धर्म का एक अंग सृष्टि धर्म है और दूसरा समष्टि धर्म है। समष्टि धर्म सृष्टि धर्म के अनुकूल होता है । समष्टि धर्म ही सामाजिकता है। अतः शिक्षा का मुख्य कार्य ही सामाजिकता सिखाना है।
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
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सामाजिकता सिखाने के लिये विद्यालयों की वर्तमान रीतिनीति में बहुत परिवर्तन करना होगा यह सत्य हैं, परन्तु ऐसा परिवर्तन किये बिना शिक्षा का स्वरूप भारतीय नहीं बन सकता । भारतीयकरण केवल सिद्धान्त में नहीं होता, सिद्धान्त को व्यवहार में परिणत करने से होता है।
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_ विद्यालयों के विषय, विषयवस्तु, अन्यान्य गतिविधियाँ, व्यवस्था, वातावरण आदि सब यह विवेक सिखाने के लिये प्रयुक्त होने चाहिये । महाविद्यालयों में तो समाजशास्त्र का स्वरूप ही प्रथम चरण में सामाजिकता सिखाने का होना चाहिये । सामाजिकता की कसौटी पर ही अन्य विषयों का मूल्यांकन होना चाहिये । उदाहरण के लिये
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बडे लोगों के बेटों की मर्जी उठानी . को दण्ड नहीं देना हिंसा है, अहिंसा नहीं । शोषण
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ज्ञान और धर्म. गतिविधियाँ, व्यवस्था, वातावरण आदि सब यह विवेक
पडती है । इन्हें विद्या का धाम कैसे कह सकते हैं ? ऐसे. करनवाले व्यक्ति के विरुद्ध आवाज नहीं उठाना अधर्म
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विद्यालय ज्ञान को सत्ता की दासी बना देते हैं । है। भूखे व्यक्ति को अन्न नहीं देना अधर्म है, जिज्ञासु
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व्यक्ति को ज्ञान नहीं देना अधर्म है, दुर्बल की रक्षा नहीं
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करना अधर्म है परन्तु शत्रु के गट में अन्न नहीं जाने देना
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अपनत्व का व्यवहार करना यह सारे सामाजिक... धर्म है, दुष्ट व्यक्ति को ज्ञान देना अधर्म है, गुंडे की रक्षा
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सदूगुणों का मूल है । दया, दान, क्षमा, उपकार, सहयोग... करने हेतु वकीली करना अधर्म है । धर्म-अधर्म, हिंसा-
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आदि मूल्यों का जतन करना सद्गुण है । इनके अनुकूल. अहिंसा, न्याय-अन्याय, सही-गलत आदि का विवेक नहीं
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आचरण करना सदाचार है । परन्तु समझ यदि कम है या... किया और पक्ष लेने और विरोध करने का साहस नहीं
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स्वार्थ यदि अधिक है तो इनमें विकृति भी आती है। दिखाया तो सामाजिकता घोर संकट में पड जाती है । ऐसे
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स्वयं at cam, न्यायी, सत्यवादी आदि होना ही. में संस्कृति की रक्षा नहीं होती । असंस्कृत समाज की
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चाहिये परन्तु सत्य, धर्म, दान आदि की परख भी होनी . समृद्धि प्रथम आसुरी बन जाती है, बाद में सबका नाश
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चाहिये, इनको पहचानने का विवेक और उसके अनुरूप. करती है और अन्त में स्वयं नष्ट हो जाती है ।
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व्यवहार करने का साहस भी होना चाहिये । अपने लिये विद्यालयों _ के विषय, विषयवस्तु,  अन्यान्य
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इनके आचरण के साथ साथ सत्य, न्याय, ज्ञान और धर्म. गतिविधियाँ, व्यवस्था, वातावरण आदि सब यह विवेक
   
का पक्ष भी लेना चाहिये और अन्याय, seca, set सिखाने के लिये प्रयुक्त होने चाहिये । महाविद्यालयों में तो
 
का पक्ष भी लेना चाहिये और अन्याय, seca, set सिखाने के लिये प्रयुक्त होने चाहिये । महाविद्यालयों में तो
 
और अआज्ञान का त्याग, उपेक्षा, तिरस्कार या दण्ड - जहाँ. समाजशाख्र का स्वरूप ही प्रथम चरण में सामाजिकता
 
और अआज्ञान का त्याग, उपेक्षा, तिरस्कार या दण्ड - जहाँ. समाजशाख्र का स्वरूप ही प्रथम चरण में सामाजिकता
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