Dharmik Health Systems (धार्मिक स्वास्थ्य दृष्टि)

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प्रस्तावना

भारत में अंग्रेजी राज स्थापन होने तक सदैव ही अन्न औषधि और शिक्षा ये तीनों विषय नि:शुल्क रहे हैं। वैसे तो आयुर्वेद की दृष्टि से तो सामान्यत: औषधि ऐसा अलग से कुछ नहीं होता। अन्न ही औषधि होता है। अंग्रेजों के शासन काल से ये तीनों विषय बिकाऊ हो गए हैं। अंग्रेजों के अन्धानुकरण की हमारी आदत बहुत बलवान है। अतः हम स्वाधीनता के ७१ वर्षों के उपरांत भी इन्हें फिर से नि:शुल्क बनाने का विचार भी नहीं कर रहे। वैसे तो अंग्रेजी में हेल्थ केअर को “नोबल प्रोफेशन” कहते हैं। लेकिन अंग्रेजों के नोबल प्रोफेशन का स्तर पैसे से ऊपर नहीं है। वह पैसे से खरीदा जानेवाला याने धन से नीचे के स्तर का विषय ही रहा है। पैसे से नापा जाने वाला ही रहा है। आज भी ऐसा ही है।

वर्तमान में भारत में ही नहीं तो विश्वभर में एलोपेथी का जमाना चल रहा है। प्राथमिकता “एलोपेथी” को मिलती है। आयुर्वेद मूलत: धार्मिक शास्त्र है। वर्तमान में जो चिकित्सा प्रणालियाँ विश्व में काम करती हैं, उन में आयुर्वेद सबसे प्राचीन प्रणाली है। इस कारण स्वतन्त्र भारत में आयुर्वेद का ज्ञान शिक्षा की “मुख्य धारा” के रूप में रखा जाना चाहिए। यह स्वाभाविक भी था और आवश्यक भी था। किन्तु हमारे अज्ञानी और अन्धानुकरणी विद्वानों और राजकीय नेताओं ने आयुर्वेद को वैद्यकीय क्षेत्र की मुख्य धारा बनाने का विचार नहीं किया। आयुर्वेद, होम्योपेथी, यूनानी आदि चिकित्सा प्रणालियों के लिए जितनी राशि का केन्द्र सरकार का आवंटन होता है उन के सबके मिले हुए आवंटन से एलोपेथी की शिक्षा के लिए जितना केन्द्र सरकार की ओर से आवंटन होता है, वह अधिक होता है। इन उपचार प्रणालियों को आल्टरनेटीव्ह याने वैकल्पिक उपचार प्रणालियाँ कहा जाता है।

यहाँ “स्वास्थ्य” शब्द का अर्थ समझ लेना उपयुक्त होगा। “स्व” और “स्थ” ऐसे दो शब्दों से यह शब्द बना है। स्व का अर्थ है अपना, जन्मजात, स्वाभाविक, प्राकृतिक। और स्थ का अर्थ है रहना या स्थिर होना। जैसे गृहस्थ का अर्थ जो गृह में रहता है वह। इसी तरह जो स्व में स्थित है वह स्वस्थ है। इसमें केवल शरीर ही नहीं तो मन, बुद्धि और चित्त की भी स्वस्थता का विचार है। जो मलिन चित्त, अनिश्चयात्मिका बुद्धि, इन्द्रिय-नियंत्रित अस्थिर और विकारी मन का होगा उसका शरीर भी स्वस्थ नहीं रह सकता।[1]

जीवन का लक्ष्य और स्वास्थ्य दृष्टि

किसी भी समाज में अध्ययन अध्यापन किये जाने वाले विषय के परिणाम उस समाज के मानव के जीवन के लक्ष्य से सुसंगत होने चाहिए। ऐसा यदि नहीं हो रहा तो वह समाज अपनी जीवन दृष्टि की कब्र खोद रहा है। धार्मिक स्वास्थ्य दृष्टि के अनुसार स्वास्थ्य के शास्त्र का अध्ययन, अध्यापन और उसका उपयोजन सभी के विषयों में यह लक्ष्य स्पष्ट रूप से प्रकट होना आवश्यक है। धार्मिक चिंतन के अनुसार मानव जीवन का लक्ष्य मोक्ष है ऐसा कहा गया है। वह उचित भी है। अतः धार्मिक स्वास्थ्य दृष्टि के अनुसार स्वास्थ्य सेवा का लक्ष्य भी मोक्ष ही है।

चरक संहिता में सूत्रस्थान में स्वास्थ्य शास्त्र की व्याख्या निम्न है[2]:

धर्मार्थकाममोक्षाणाम् आरोग्यम् मूलमुत्तमम्

रोगा: तस्य अपहर्तार: श्रेयस: जीवितस्य च ।।

भावार्थ : धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों के अनुपालन के लिए आरोग्य उत्तम होना आवश्यक है। रोगों का नाश कर नि:श्रेयस की प्राप्ति के लिए सहायकारी होना ही इस स्वास्थ्य विद्या का प्रयोजन है। अर्थात् धर्म के अनुकूल काम और अर्थ को रखते हुए मोक्ष प्राप्ति करने का जो मानव जीवन का लक्ष्य है उसमें स्वास्थ्य को ठीक रखकर सहायता करना ही आयुर्वेद शास्त्र का उद्देश्य है।

आयुर्वेद – स्वास्थ्य शास्त्र

शास्त्र की व्याख्या हमने पहले जानी है। जब कोई ध्यानावस्था प्राप्त ऋषि ध्यानावस्था में लोकहित के लिए किसी विषय की प्रस्तुति करता है तब वह शास्त्र माना जाता है। विज्ञान केवल प्रकृति के नियमों की जानकारी देता है। शास्त्र, विज्ञान के साथ ही उसके कल्याणकारी उपयोग के लिए भी मार्गदर्शन करता है। स्वास्थ्य विज्ञान यह जानकारी होगा। जैसे शरीर विज्ञान याने (एनोटोमी) शरीर की रचना की, शरीर की विभिन्न प्रणालियों की जानकारी देगा। जब की स्वास्थ्य शास्त्र शरीर विज्ञान का उपयोग शरीर को स्वस्थ कैसे रखा जाता है इसकी भी जानकारी देगा।

इस दृष्टि से आयुर्वेद स्वास्थ्य शास्त्र है। जो शरीर विज्ञान, प्रकृति विज्ञान, मनोविज्ञान, बुद्धि और चित्त के विज्ञानों की सहायता से मानव के केवल शरीर ही नहीं मानव के पूरे व्यक्तित्व को याने शरीर, मन, बुद्धि और चित्त को स्वस्थ रखने के लिए मार्गदर्शन करता है। श्रीमद्भगवद्गीता में एक शब्द का प्रयोग किया गया है। वह है “योगक्षेम”। योगक्षेम में दो शब्द हैं। एक है योग और दूसरा है क्षेम। योग का अर्थ है जो कमी है उसे पूरा करना। और क्षेम का अर्थ है कमी पूरी करने के बाद जो है उसकी रक्षा करना, उसका क्षरण नहीं होने देना। केवल आयुर्वेद ही नहीं सभी धार्मिक शास्त्रों में योगक्षेम का ही मार्गदर्शन मिलता है। सामान्यत: हर बालक जन्म से तो स्वस्थ ही होता है। आहार विहार की गलतियों न करे तो वह स्वस्थ ही रहेगा। अतः आयुर्वेद या धार्मिक स्वास्थ्य शास्त्र केवल रोग चिकित्सा का विषय नहीं है। रोग हो ही नहीं इस बात पर इसमें अधिक बल है। किसी अपरिहार्य परिस्थिति के कारण यदि स्वास्थ्य में कुछ दोष (रोग) निर्माण हो जाए तब ही चिकित्सा की आवश्यकता निर्माण होती है। इस दृष्टि से यह मूलत: धर्म का याने प्राकृतिक जीवन जीकर स्वास्थ्य के रक्षण करने का मार्गदर्शन है। रोग चिकित्सा और रोग निवारण तो इसमें आपद्धर्म के रूप में आते हैं। वर्तमान में “नेचरोपेथी” नाम से जो भी चलता है वह आयुर्वेद के ज्ञान को ही “नेचरोपेथी” के नाम से अपने नाम पर तथाकथित पश्चिमी विद्वानों द्वारा की हुई प्रस्तुति मात्र है।

वेबस्टर न्यू डिक्शनरी में “हील” के जो अर्थ दिए हैं, उसी में हेल्थ शब्द आता है। क्यों कि हेल्थ मूल शब्द नहीं है। वह हील से बना है। इसी लिए वह अलग नहीं दिया गया। हीलिंग का अर्थ है क्षति की पूर्ति करना। अर्थात् रोग को ठीक करना। कहने का तात्पर्य यह है कि पश्चिम की कल्पना में ही बिना किसी भी दवाई के सेवन के स्वास्थ्य रक्षण की संकल्पना नहीं है। इसीलिये एलोपेथी यह मात्र रोग निवारण का ही विषय है। रोग हो ही नहीं इस विचार से दूर है।

धार्मिक विचार में शरीर को धर्म के अनुपालन का श्रेष्ठ साधन माना गया है। साथ ही में दीर्घायु बनने की अभिलाषा का भी आग्रह किया गया है। धार्मिक शिक्षा भी मुख्यत: धर्माचरण की शिक्षा ही होती है। दीर्घायु होने से जन्मजन्मान्तर चलनेवाली शिक्षा की प्रक्रिया को कम जन्मों में पूर्ण कर मोक्ष प्राप्ति की सम्भावनाएँ बढ़तीं हैं। अतः आयुर्वेद दीर्घायु बनने का शास्त्र भी है। वास्तव में इसीलिये इसका नाम “आयुर्वेद” रखा गया है।

आयुर्वेद में त्रिदोष सन्तुलन

जीव की प्रकृति तीन प्रकार की ही होती है। इन तीन प्रकारों को वात, पित्त और कफ प्रकृति के नाम से जाना जाता है। प्रत्येक मानव में ये तीनों प्रकृति के गुण होते ही हैं। केवल कफ या केवल, वात या केवल पित्त प्रकृति का कोई जीव नहीं होता। वह इनका एक समुच्चय ही होता है। हर मनुष्य में उपर्युक्त तीन प्रकार की प्रकृतियाँ भिन्न भिन्न मात्राओं में होती हैं। इसी कारण प्रत्येक व्यक्ति का स्वास्थ्य अन्यों से भिन्न होता है। इन तीन प्रकार की प्रकृतियों के समुच्चय से उस व्यक्ति का “स्व”भाव बनता है। सत्व, रज और तम इन गुणों से भी “स्व”भाव बनता है। अतः त्रिगुण और त्रिदोषों का भी परस्पर सम्बन्ध होता है। सामान्यत: यह सम्बन्ध निम्न होता है:

  1. वात प्रकृति = तमोगुण
  2. पित्त प्रकृति = रजोगुण
  3. कफ प्रकृति = सत्वगुण

सत्व, रज, तम यह त्रिगुण जैसे प्रत्येक मनुष्य में होते हैं उसी तरह ये तीनों गुण प्रकृति में भी होते हैं। अतः दिन के २४ घंटों का विभाजन भी त्रिगुण और त्रिदोषों के अनुसार होता है। सात्विक (कफ प्रकृति) मनुष्य का स्वास्थ्य जब वातावरण याने बाहरी प्रकृति भी सत्वगुण (कफ) से भरी हुई है उस समय सहज ही अच्छा रहता है। इसी तरह से राजसी (पित्त) या तामसी (वात) मनुष्य का स्वास्थ्य जब वातावरण याने बाहरी प्रकृति भी राजसी (पित्त) या तामसी (वात) गुण से भरी हुई है उस समय सहज ही अच्छा रहता है। स्वाभाविकत: ही जब मनुष्य की अंदर की प्रकृति और वातावरण या बाहरी प्रकृति से भिन्न होती है तब स्वास्थ्य बिगड़ने की सम्भावनाएँ होतीं हैं।

वातावरण के दो पहलू हैं। एक है दैनन्दिन और दूसरा है ऋतु के अनुसार। प्रत्येक दिन में सत्व, रज और तम या कफ, वात और पित्त के दो चक्र होते हैं। धार्मिक दृष्टि से दिन के समय की गिनती सूर्योदय से आरम्भ होती है। हर चार घंटे में प्रकृति मोड़ लेती है। सूर्योदय के बाद तथा सूर्यास्त के बाद पहले चार घंटों में कफ प्रवृत्ति दूसरे चार घंटों में पित्त और तीसरे चार घंटों में वात प्रवृत्ति प्रबल होती है।

स्वास्थ्य में आहार विहार का महत्व

आहार का अर्थ है खाया जानेवाला अन्न । अन्न में चारों प्रकार के अन्न का समावेश होता है। अन्न भी चूस कर खाने का, पीने का, चाट कर खाने का, चबा कर खाने का ऐसा चार प्रकार का होता है। विहार में दिनचर्या और ऋतुचर्या आते हैं। उठना कब, सोना कब, खाना कब और कब नहीं , व्यायाम कब और किस प्रकार का करना, कैसे शौक कैसी आदतें पालना आदि बातें विहार में आते हैं। आहार विहार प्रकृति के अनुसार होने से कोई कारण नहीं कि स्वास्थ्य बिगड़ जाए। आहार विहार उचित याने प्रकृति के अनुकूल रखने से अपघात से ही स्वास्थ्य बिगड़ने की सम्भावनाएँ होतीं हैं। आहार में भी सात्विक, राजसी और तामसी आहार का वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता में मिलता है। वह निम्न है:[3]

आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।

रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः।।17.8।।

अर्थ : आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और आत्मीयता बढ़ानेवाले, रसयुक्त, स्निग्ध, स्थिर रहनेवाले याने जिनका सत्त्व शरीर में दीर्घ काल तक रहता है, ऐसे स्वभाव से ही मन को प्रिय लगनेवाले भोजन के पदार्थ सात्विक (कफ) प्रवृत्ति के लोगोंं को प्रिय होते हैं। आगे कहा है -

कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।

आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः।।17.9।।

अर्थ : कड़वे, खट्टे, नमकीन, बहुत गरम, तीखे, सूखे, जलन करनेवाले और दुःख चिंता और रोग उत्पन्न करनेवाले भोजन के पदार्थ राजस प्रकृति के लोगोंं को प्रिय होते हैं। आगे कहा है

यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।

उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्।।17.10।।

अर्थ : जो भोजन कच्चा या अधपका है, रसहीन है, दुर्गन्धयुक्त है, बांसा है, जूठन है और अपवित्र भी है वह भोजन तामसी लोग पसंद करते हैं।

हर मनुष्य की पसंद यह उसके स्वभाव के अनुसार ही होती है। अतः ये आहार उनके स्वभाव को बनानेवाले भी होते हैं और उनकी पसंद के भी होते हैं। अपनी प्रकृति के अनुसार आहार करने से स्वास्थ्य ठीक रहता है।

रोग मूल का नाश

धार्मिक स्वास्थ्य दृष्टि में एलोपेथी जैसी रोग के लक्षणों को दूर करने के लिए चिकित्सा नहीं की जातीं। रोग मूल को दूर करने के लिए चिकित्सा होती है। जैसे किसी रोगी का सर दर्द कर रहा है। तो एलोपेथी का डोक्टर उसे पैरासीटेमोल देकर सर का दर्द दूर कर देगा। ऐसा करने से रोगी को तात्कालिक राहत तो मिलेगी। लेकिन मूल कारण जो पित्त प्रकोप हुआ है उस पित्तका निराकरण न होनेसे सरदर्द फिर कुछ समय के बाद होगा। धार्मिक वैद्य रोगी को दस प्रश्न पूछेगा। रोगी के उत्तरों से यह जानेगा कि सरदर्द का मूल कहाँ है। फिर उस रोगमूल का निराकरण करने के लिए औषधि देगा। ऐसी चिकित्सा कुछ धीमी होती है। जब रोग पुराना होगा तो और भी धीमी होती है।

लेकिन जीवन के वर्तमान अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान के कारण हुई जीवन की तेज गति के कारण अधिक समय तक धैर्य के साथ रोग का सामना करने के लिए लोगोंं के पास न तो समय है न धैर्य। जीवन की इस तेज गति के कारण मानव सुखी हो जाता है ऐसी बात नहीं है। वास्तव में यह तेज गति मनुष्य के शारिरीक, मानसिक और बौद्धिक रोगों में वृद्धि करती है। शीघ्र गति से रोग के लक्षण दूर करने की एलोपेथी में सुविधा होने के कारण भी वह एलोपेथी का चयन करता है। वैसे तो कोई भी अधिक काल तक बीमार रहना नहीं चाहता। लोगोंं के इसी अधैर्य का लाभ एलोपेथी के डॉक्टर उठाते हैं।

अहिंसक रोग निवारण

जब शरीर बलवान होता है तब दुर्जन ऐसे मनुष्य को तकलीफ नहीं देते। दे सकते ही नहीं। यह सामान्य ज्ञान की बात है। इसी तरह जिस शरीर की अवरोध शक्ति अधिक है उसे रोग नहीं होते। एलोपेथी जैसी प्रतिजैविक औषधियों की यह चिकित्सा प्रणाली नहीं है। प्रतिजैविकों का काम ही जैविक पेशियों को मारने का होता है। नष्ट करने का होता है। लेकिन ऐसा करते समय इन प्रतिजैविक औषधियों को कौनसी जैविक पेशियाँ शरीर के लिए हितकारक हैं और कौनसी पेशियाँ रोगजन्य हैं इसमें भेदभाव करना नहीं आता। अतः वह दायें बाएं जो भी जैविक पेशियाँ उनके संपर्क में आतीं हैं उन्हें नष्ट करती हैं। इससे एक ओर रोग के जंतु मरते हैं तो दूसरी ओर रोगी के रोग का अवरोध करनेवाली पेशियाँ भी मारी जातीं हैं। इससे रोगी की अवरोध शक्ति कम हो जाती है। उसमें दुर्बलता आ जाती है। उसे विश्राम की आवश्यकता निर्माण हो जाती है। ऐसी स्थिति याने दुर्बल अवरोध शक्ति की स्थिति में रोगी का शरीर अन्य रोगों के लिए एक सरल लक्ष्य बन जाता है।

धार्मिक स्वास्थ्य दृष्टि के अनुसार शरीर की अवरोध शक्ति बढाने से रोगी का शरीर स्वयं ही रोग के जंतुओं का सामना करने में सक्षम बन जाता है। इससे रोग निवारण तो होता ही है साथ ही में रोगी की रोग अवरोध शक्ति बढ़ती है। धार्मिक स्वास्थ्य दृष्टि इसी सिद्धांत के ऊपर आधारित है। एक दृष्टि से देखें तो धार्मिक स्वास्थ्य दृष्टि यह एक अहिंसक रोग चिकित्सा दृष्टि है ऐसा कहना योग्य ही होगा।

धार्मिक संजीवनी चिकित्सा पद्धति में औषधि की व्याख्या धार्मिक स्वास्थ्य दृष्टि की परिचायक है। इस प्रणाली के अनुसार औषधि उसे कहते हैं जो निरोग व्यक्ति के ग्रहण करने से उस व्यक्ति को हानि नहीं होती। और रोगी उसे जब ग्रहण करता है तो वह रोग का निराकरण करती है।

यद्देशस्य यो जंतु: तद्देशस्य तदौषधी:

इसका अर्थ है जिस भौगोलिक क्षेत्र का रोग होगा उसी भौगोलिक क्षेत्र में उस रोग के निवारण की औषधि होती है। वर्तमान के जीवन के अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान में इस सहज स्वाभाविक प्रणाली को स्थान नहीं मिला सकता। इस प्रतिमान का एक प्रमुख लक्षण है पगढ़ीलापन। समाज पगढ़ीला बन गया है। एक भौगोलिक क्षेत्र से रोग जनुओं से प्रभावित होता है। लेकिन औषधि के लिए किसी दूसरे भौगोलिक क्षेत्र में चला जाता है। वैद्य की स्थानिक औषधियों की उसके रोग को दूर करने की क्षमता घट जाती है। कुशल वैद्य पता कर लेता है कि रोगी रोग कहाँ से लाया है। और उसे कैसी याने किस भौगोलिक प्रदेश की औषधि की आवश्यकता है। लेकिन नया या अनुभवहीन वैद्य इसे समझ नहीं पाता। फिर रोग की चिकित्सा या तो अधिक समय लेती है या फिर काम ही नहीं करती। इससे वैद्य को व्यक्तिगत हानी तो होती ही है साथ ही में धार्मिक स्वास्थ्यशास्त्र का नाम भी बदनाम होता है। फिर एलोपेथी कितनी भी हानिकारक हो मजबूरी में उसका ही सहारा लेना पड़ता है।

नास्ति मूलमनौषधम्

धार्मिक विद्वान कहते हैं[citation needed]:

अमन्त्रमक्षरो नास्ति नास्ति मूलमनौषधम् ।

अयोग्य: पुरुषोनास्ति योजकस्तत्र दुर्लभ: ।।

अर्थ : ऐसा कोई भी अक्षर नहीं है जिसका मंत्र निर्माण के लिए उपयोग न हो। ऐसी कोई वनस्पति नहीं जिसका कोई औषधि बनाने के लिए उपयोग (वैद्य जीवक की कथा) न होता हो। इसका अर्थ है कि प्रत्येक वनस्पति के अस्तित्व को कुछ न कुछ प्रयोजन तो है ही। धार्मिक मान्यता है कि हर अस्तित्व का कुछ प्रयोजन होता है। इस प्रयोजन को समझकर यदि उस का उपयोग किया जाय तब अधिक से अधिक लाभ मिलता है। इसी तरह से ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं है जिसका उपयोग नहीं है। क्षमतावान योजक इन सबका उपयोग क्रमश: अक्षरों का मन्त्रों के लिए, वनस्पति का रोग निवारण हेतु औषधि बनाने के लिए और प्रत्येक मनुष्य का उपयोग व्यक्ति, समाज या सृष्टि के हित के लिए किसी न किसी काम में आ सके इस ढंग से कर लेता है।

परमात्मा ने सृष्टि के अनगिनत अस्तित्वों का निर्माण किया है। कोई भी वस्तू जब निर्माण की जाती है तब वह अकारण निर्माण नहीं की जाती। किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही उसका निर्माण कोई करता है। इसी तरह से सृष्टि के हर अस्तित्व के याने निर्मिती के निर्माण का कोई प्रयोजन होता है। प्रत्येक वनस्पति के संदर्भ में आयुर्वेद शास्त्र इसकी पुष्टि करता है।

चराचर में परमात्मा

धार्मिक मान्यता के अनुसार परमात्मा ने अपने में से ही सृष्टि का निर्माण किया है। याने सृष्टि का हर अस्तित्व परमात्मा का ही रूप है। इसे भारत में केवल तत्वज्ञान के तौर पर ही नहीं व्यवहार याने आचरण के लिए भी आग्रह का विषय बनाया गया है। इसीलिये वनस्पति से जब औषधि के लिए कुछ छाल, मूल, लकड़ी, फल, फूल या पत्ते लिए जाते हैं तब उस वनस्पति को आदर से पूजा जाता है। वनस्पति की प्रार्थना की जाती है कि, "हे वनस्पति! मैं आपसे मेरे स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि किसी रोगी के दुःख को दूर करने के लिए आपके छाल, मूल, लकड़ी, फल, फूल या पत्ते लेना चाहता हूँ। कृपया हम पर कृपा कर मुझे रोगी का रोग दूर करने में सहायता करें।"

सामान्यत: जब किसी अन्य से सहायता माँगी जाती है, तब नम्रता से ही माँगी जाती है। जब कोई आपके माँगने पर प्रसन्नता से सहायता करता है तब उस सहायता का स्तर श्रेष्ठ होता है। सहायता करनेवाला मन:पूर्वक सहायता करता है। खुलकर सहायता करता है। तब वह सहायता आपके काम के लिए अधिक लाभप्रद होती है। भारत में सामान्यत: घर या कोई भी मकान बांधने से पूर्व इसीलिये भूमि-पूजन का कार्यक्रम किया जाता है। यह भूमि को और उस भूमि के सहारे जीनेवाले जीव, सूक्ष्मजीव और वनस्पतियों को प्रसन्न करने के लिए ही किया जाता है। वनस्पति भी जीव होते हैं। अतः आयुर्वेद कहता है कि ऐसी आदर से माँगकर ली हुई औषधि अधिक गुणकारी होती है।

आयुर्वेद में स्वास्थ्य का तीन प्रकार से विचार किया जाता है। सत्कार्यवाद, गुणपरिणामवाद और सहकार्यवाद। सत्कार्यवाद के अनुसार कार्य के गुण सूक्ष्म रूप में कारण में होते ही हैं, ऐसा कहा गया है। सांख्य दर्शन में यही कार्य कारण सिद्धांत के नाम से जाना जाता है। गुणपरिणामवाद में कुछ गुण तो दृष्ट याने सहज दिखाई देनेवाले होते हैं। लेकिन कुछ सूक्ष्म होने से अदृष्ट होते हैं। ये अदृष्ट गुण किसी विशेष प्रक्रिया में ही प्रकट होते हैं। इस अदृष्ट गुणों के प्रकट होकर दृष्ट होने की प्रक्रिया को ही गुणपरिणामवाद कहा है। हर द्रव्य के गुणों में त्रिगुणों में से की एक एक की मात्रा का प्रमाण भिन्न होता है। इस भिन्न परिमाण के कारण ही प्रत्येक द्रव्य में विविधता होती है। गुणपरिणामवाद में जिस प्रकार से गुणों की समानता के उपरांत भी विविधता होती है, इसके बराबर विपरीत सहकार्यवाद प्रत्येक द्रव्य की अन्यों से विविधता की ओर से हमें एकत्व की ओर ले जाता है।

प्रकृति सुसंगतता

धार्मिक जीवन दृष्टि प्रकृति सुसंगत जीवन सिखाती है। ईशावास्योपनिषद का पहला मंत्र ही कहता है:

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत् ।

तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम् ।।

अर्थ: संसार के छोटे से छोटे से लेकर बड़े से बड़े ऐसे सारे अस्तित्वों में परमात्मा का वास है। अतः उनका उपभोग त्यागमय मानसिकता से करना चाहिए। याने जितना आवश्यक है उतना ही उपभोग करना चाहिए। थोड़ा भी अधिक नहीं। (आवश्यकता से अधिक उपभोग को चोरी माना जाता है।)

धार्मिक स्वास्थ्य दृष्टि भी प्रकृति सुसंगतता का आदर करती है। ऊपर हमने देखा है कि किस प्रकार प्रकृति में उपलब्ध औषधि को सम्मान दिया जाता है। इस के साथ ही और भी एक बात बहुत महत्त्वपूर्ण है। वनस्पति से छाल, मूल, लकड़ी, फल, फूल या पत्ते उतने ही लिए जाते हैं जितने की रोगी के रोग निवारण के लिए आवश्यकता होती है। उससे थोड़ा सा भी अधिक लेना वर्जित माना जाता है।

वर्तमान में रोगियों की संख्या इतनी बढ़ गयी है कि आयुर्वेद के अनुसार चिकित्सा करने वाले लोगोंं को भी अब गोलियाँ या पिलाने की दवाएँ बनाकर उनका संग्रह करना अनिवार्य हो गया है। दवाइयाँ बनानेवाले भी उपयुक्त वनस्पति की बड़ी मात्रा में उत्पादन के लिए औषधि की खेती करते हैं, बड़े बड़े कारखाने बनाते हैं। वैद्य भी एलोपेथी के डॉक्टरों से स्पर्धा करने लग जाते हैं। इन सब बातोंसे प्रकृति सुसंगतता को ठेस पहुँचती है। रोगीयों की बढ़ती संख्या यह जीवन के अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान की देन ही है।

शून्य प्रदूषण औषधि निर्माण - आयुर्वेद की औषधियों का एक और भी विशेष गुण है। इनमें रासायनिक प्रक्रियाएँ न्यूनतम की जातीं हैं। रासायनिक प्रक्रिया से निर्माण हुए पदार्थ का प्रकृति में घुलना कठिन होता है। प्रकृति में घुलने में अधिक समय लगता है। आयुर्वेद में अपवाद से ही ऐसी औषधि बनाई जाती होगी जो प्रकृति का प्रदूषण करती होगी। इसे शून्य प्रदूषण औषधि उत्पादन कहा जा सकता है। वर्तमान में जो एलोपेथी की दवाइयाँ निर्माण हो रहीं हैं उनमें संभवतः ही कोई प्रदूषण नियन्त्रण मंडल के मानकों से कम प्रदूषण करती होंगी। इन दवाईयों का निर्माण शून्य प्रदूषण की कसौटीपर खरी उतरना तो असंभव है यह प्रदूषण नियंत्रण मंडल ने भी मान लिया है। वनस्पतियों में भी जीवन होता है। भावनाएं होतीं हैं। उनकी भी दिनचर्या रहती है। विश्राम का समय होता है। काम का समय होता है। मनुष्य की ही भाँति वनस्पति के लिए सुखकर ऐसे समय में उसका उपयोग करने से औषधि अधिक प्रभावी होती है। इसलिये कई औषधियां रात के अँधेरे में अगरबत्ती के प्रकाश में वनस्पतियों से प्राप्त की जातीं हैं। चन्द्र और सूर्य भी औषधि के गुणों को प्रभावित करते हैं। अतः तिथियों का भी ध्यान रखा जाता है।

शोध कार्य की आवश्यकता

गत ५००-७०० वर्षों से भारत में अध्ययन और अनुसंधान की परम्परा खंडित सी हो गयी है। इसे फिर से आरम्भ करना होगा। जो समाज अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में आगे रहेगा वही विश्व का नेतृत्व करेगा। अब इसे ही लीजिये। किसी भी धार्मिक औषधि का जिसमें पारा हो, विदेशों के क़ानून के अनुसार निर्यात नहीं किया जा सकता। क्योंकि उनके औषधि शास्त्र के अनुसार पारा जहरीला होता है। पारे का सेवन मनुष्य को हानी पहुंचाता है। आयुर्वेद का कहना है कि एक बार पारा-मारण की प्रक्रिया पारे पर हो जाने से वह जहरीला नहीं रह जाता। यह वास्तव भी है। अतः भारत में ऐसी पारायुक्त औषधियाँ उपयोग में ली जातीं हैं। लेकिन हमने अभी तक अध्ययन और अनुसंधान से यह नहीं पता किया कि इस पारा मारण प्रक्रिया से पारे में क्या परिवर्तन हो जाता है जिससे वह जहरीला नहीं रह जाता।

स्वाधीनता के बाद भी भारत में आयुर्वेद के सन्दर्भ में शोध कार्य लगभग नहीं के बराबर हुआ होगा। शीघ्र परिणाम देनेवाली चिकित्सा प्रणाली (जिसका उपयोग संभवतः महाभारत के युद्ध में किया गया होगा) के सन्दर्भ में संभवतः ही कोई अनुसन्धान कार्य हुए हैं। इसी तरह से शल्यक्रिया के क्षेत्र में भी भारत में बहुत कम अनुसन्धान कार्य हुए हैं। अंग्रेज भारत में आए, उस समयतक भारत शल्यक्रिया में विश्व में अग्रणी देश था। अंग्रेजों ने जो हानि की वह तो वे करने वाले ही थे। लेकिन आज तो हम स्वाधीन हैं, फिर आज अध्ययन और अनुसन्धान की उपेक्षा क्यों है? अध्ययन और अनुसन्धान की धार्मिक परम्परा बहुत दीर्घ और श्रेष्ठ रही है। इस परम्परा को फिर से प्रतिष्ठित करना होगा।

वर्तमान में आयुर्वेद का सही सही प्रयोग करनेवाला वैद्य अभाव से ही मिलता है। ऐलोपेथी जैसी ही औषधियाँ पहले से बनाई जातीं हैं। रोग के लिए बनाई जातीं हैं। रोगी के लिए बनाई हुई नहीं होती। अतः चिकित्सा का प्रभाव भी अल्प ही मिलता है। आयुर्वेद की नाडी परीक्षा, सामुद्रिक शास्त्र आदि का तो लगभग लोप ही हो गया है। ये सब अध्ययन के विषय बनाने की आवश्यकता है। शासन की मान्यता के नियम भी ऐलोपेथी के लिए अनुकूल बनाए हुए हैं। इस में भी परिवर्तन की आवश्यकता है। लेकिन इस के लिए जो धार्मिक स्वास्थ्य क्षेत्र के जानकार हैं उन्हें इसकी प्रस्तुति ठीक से करनी होगी। जाँच के वर्तमान साईंटिफिक तरीके पर्याप्त या संभवतः उचित नहीं हो सकते यह ध्यान में रखकर वैज्ञानिक (अष्टधा प्रकृति के सभी घटकों के लिए) तरीके लिखित स्वरूप में प्रस्तुत करने होंगे। सभी को संभवतः लिखकर बताना संभव भी नहीं होगा। ऐसे विषय में इतना तो बताना ही होगा कि यह लिखकर समझाने का विषय क्यों नहीं है? शोध कार्य करनेवालों के लिए योग्यता रखनेवाले सामर्थ्यवान मार्गदर्शक भी चयन कर या चयन करनेपर भी न मिलते हों तो योजनापूर्वक तैयार करने होंगे। धार्मिक स्वास्थ्य प्रणाली के सभी पहलुओं का जिसमें समावेश है ऐसी एक व्यापक योजना बनानी होगी। केवल बुद्धि है अतः कोई भी ऐरा गैरा वैद्य नहीं बनना चाहिए। रोग के निवारण में वैद्य की पात्रता का पहलू भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। वैद्यकीय क्षेत्र को किसी भी परिस्थिति में बदनाम नहीं करेंगे ऐसे वैद्य निर्माण करने की निर्दोष प्रक्रिया का विकास करना होगा।

References

  1. जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड २, अध्याय ३८, लेखक - दिलीप केलकर
  2. चरकसंहिता सूत्रस्थानम् - १.१४
  3. श्रीमद्भगवद्गीता 17.8, 17.9, 17.10

अन्य स्रोत:

  1. चरक और शुश्रुत संहिता
  2. वाग्भट का लिखा अष्टांगह्रदय
  3. अत्रि ऋषि लिखित चरक संहिता
  4. धन्वन्तरी लिखित शल्य शास्त्र सम्प्रदाय
  5. सावित्री आयुर्वेद प्रतिष्ठान, पुणे द्वारा प्रकाशित वैद्य प्रा. सौ. विजया लेले द्वारा संपादित “सर्वांसाठी आयुर्वेद”