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=== भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला २ ===
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=== शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान ===
 
=== शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान ===
Gage
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==== प्रकाशक ====
+
यद्यपि इन पांच ग्रन्थों में “पश्चिमीकरण से शिक्षा की मुक्ति' एक ग्रन्थ है, और वह चौथे क्रमांक पर है तो भी शिक्षा
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==== पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट ====
+
के धार्मिककरण का विषय इससे या इससे भी पूर्व से प्रारम्भ होता है । शिक्षा के पश्चिमीकरण से मुक्ति का विषय तो तब
९बी, ज्ञानमू, बलियाकाका मार्ग, जूना ढोर बजार, कांकरिया, अहमदाबाद-३े८० ०२८
     −
GENT : (०७९) २५३२२६५५
+
आता है जब शिक्षा का पश्चिमीकरण हुआ हो । भारत में शिक्षा के पश्चिमीकरण का मामला पाँचसौ वर्ष पूर्व से प्रारम्भ
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Website : www.punarutthan.org
+
होता है जब यूरोपीय देशों के लोग विश्व के अन्यान्य देशों में जाने लगे । पन्द्रहबीं शताब्दी के अन्त में वे भारत में आये ।
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Email : punvidya2012 @ gmail.com
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भारत में स्थिर होते होते उन्हें एक सौ वर्ष लगे । सन सोलह सौ में इस्ट इण्डिया कम्पनी भारत में आई और आज की
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Ce)
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दुःस्थिति का प्रारम्भ हुआ । वह लूट के उद्देश्य से आई थी । लूट निरन्तरता से, बिना अवरोध के होती रहे इस दृष्टि से
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उसने व्यापार आरम्भ किया । व्यापार भारत भी करता था । धर्मपालजी लिखते हैं कि सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में चीन
   −
भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला २
+
और भारत का मिलकर विश्वव्यापार में तिहत्तर प्रतिशत हिस्सा था । अतः भारत को भी व्यापार का अनुभव कम नहीं
   −
शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
+
था । परन्तु भारत को नीतिधर्म के अनुसार व्यापार करने का अनुभव और अभ्यास था । ब्रिटीशों के लिये अधिक से
   −
लेखन एवं संपादन
+
अधिक मुनाफा ही नीति थी । अतः व्यापार के नाम पर वे लूट ही करते रहे । व्यापार भी अनिर्बन्ध रूप से चले इस हेतु
   −
इन्दुमति काटदरे अहमदाबाद... ०९४२८८२६७३१
+
से उन्होंने राज्य हथियाना प्रारम्भ किया । ब्रिटीशों का दूसरा उद्देश्य था भारत का इसाईकरण करना । इस उद्देश्य की पूर्ति
   −
सह संपादक
+
के लिये उन्होंने वनवासी, गिरिवासी, निर्धन लोगोंं को लक्ष्य बनाया, वर्गभेद निर्माण किये, भारत की समाज व्यवस्था को
   −
aca Heh नासिक ९४२२९४६४७५
+
ऊँचनीच का स्वरूप दिया, एक वर्ग को उच्च और दूसरे वर्ग को नीच बताकर उच्च वर्ग को अत्याचारी और नीच वर्ग को
   −
सुधा करंजगावकर अहमदाबाद ९८७९५८८०१०
+
शोषित और पीडित बताकर पीडित वर्ग की सेवा के नाम पर इसाईकरण के प्रयास आरम्भ किये । उनका तीसरा उद्देश्य था
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वासुदेव प्रजापति जोधपुर ९द१४१३६३१४
+
भारत का यूरोपीकरण करना । उनके पहले उद्देश्य को स्थायी स्वरूप देने में भारत का यूरोपीकरण बडा कारगर उपाय था ।
   −
संकलन सहयोग
+
यूरोपीकरण करने के लिये उन्होंने शिक्षा को माध्यम बनाया । उनकी प्रत्यक्ष शिक्षा के ही यूरोपीकरण की योजना इतनी
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पराग बाबरिया दिलीप केलकर तारा हातवलणे विपुल रावल ब्रजमोहन रामदेव
+
यशस्वी हुई कि आज हम जानते तक नहीं है कि हम यूरोपीय शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं और यूरोपीय सोच से जी रहे हैं ।
   −
राजकोट डॉबीवली अकोला अहमदाबाद जैसलमेर
+
भारत को अभारत बनाने की प्रक्रिया दो सौ वर्ष पूर्व आरम्भ हुई और आज भी चल रही है । हम निरन्तर उल्टी दिशा में जा
   −
९४२७२ ३७७१९ ९४२२६६२१६६ ९०१५११०२०६९ ९९७९०९९५१४२ ९७८३८०४२३६
+
रहे हैं और उसे विकास कह रहे हैं । अब प्रथम आवश्यकता दिशा बदलने की है । दिशा बदले बिना तो कोई भी प्रयास
   −
प्रकाशक
+
यशस्वी होने वाला नहीं है ।
   −
पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट
+
इस ग्रन्थमाला में दिशा कैसे बदलना, दिशा बदलकर कहाँ जाना, कैसे जाना, क्यों जाना, मार्ग में कौन से अवरोध
   −
९बी, ज्ञानमू, बलियाकाका मार्ग, जूना ढोर बजार,
+
हैं, उन अवरोधों को कैसे पार करना आदि विषयों की यथासम्भव विस्तार से चर्चा की गई है ।
   −
कांकरिया, अहमदाबाद-३८० ०२८
+
आज भारत में अच्छी शिक्षा की चर्चा सर्वत्र होती है परन्तु धार्मिक शिक्षा की नहीं । अर्थात्‌ एक छोटा वर्ग है जो
   −
दूरभाष : (०७९) २५३२२६५५
+
धार्मिक शिक्षा की बात करता है । परन्तु दोनों वर्गों की अपने अपने विषय की कल्पनायें बहुत मजेदार हैं । अच्छी शिक्षा
   −
ash
+
के पक्षधर अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा को, तो कभी ऊँचे शुल्क वाली शिक्षा को, तो कभी संगणक जैसे भरपूर साधनसामग्री
   −
नूतन आर्ट, अहमदाबाद
+
के उपयोग वाली शिक्षा को, तो कभी अच्छे वेतनवाली नौकरी मिले ऐसे पाठ्यक्रमों में प्रवेश दिलाने वाली शिक्षा को
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प्रकाशन तिथि
+
अच्छी शिक्षा कहते हैं । ये सभी आयाम एक साथ हों तो वह उत्तमोत्तम शिक्षा है। ऐसी शिक्षा देने वाले विद्यालय,
   −
व्यास पूर्णिमा, युगाब्द ५११९, दि. ९ जुलै २०१७
+
महाविद्यालय या विश्वविद्यालय श्रेष्ठ हैं । धार्मिक शिक्षा के पक्षधर संस्कृत में लिखे गये ज्योतिष, व्याकरण जैसे वेदांगों
   −
प्रतियाँ : १०००
+
की, न्यायशास्त्र जैसे ग्रन्थों की, वैदिक गणित जैसे विषयों की शिक्षा को धार्मिक शिक्षा कहते हैं । वेदों, dard और
   −
मूल्य : रु. ८००/-
+
योगदर्शन, उपनिषद आदि की शिक्षा को धार्मिक शिक्षा कहते हैं । दोनों ही वर्गों में उत्तम विद्याकेन्द्रों के नमूने हैं । परन्तु
   −
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+
देश और दुनिया की स्थिति तो उत्तरोत्तर बिगडती ही जा रही है, संकट बढ़ते ही जा रहे हैं ।
   −
=== ।। मंगलाचरण ।। ===
+
इसलिये इन सभी प्रयासों के स्वरूप का आकलन और क्या कुछ करने की आवश्यकता है इसका चिन्तन आवश्यक
हे सरस्वती ! आप विद्या की देवी हैं । शुद्ध बुद्धि देने
     −
वाली हैं । नादब्रह्मा आपका मूल रूप है। आप परा,
+
है।
   −
पश्यन्ति, मध्यमा और वैखरी के रूप में प्रकट होती हैं ।
+
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आप क्रत को सत्य के रूप में प्रकट करती हैं । आप
+
जो लोग अच्छी शिक्षा के पक्षधर हैं उन्हें राष्ट्रीय शिक्षा की संकल्पना समझने की और जो लोग धार्मिक शिक्षा के
   −
ब्रह्मानन्दसहोदर काव्यरस को बहाने वाली हैं । आपको
+
प्रयासों में रत हैं उन्हें युगानुकूल शिक्षा की संकल्पना समझने की आवश्यकता है प्रत्येक राष्ट्र का एक विशेष स्वभाव होता
   −
नमस्कार कर इस ग्रन्थ का लेखन प्रारम्भ कर रहे हैं ।
+
है जिसके अनुसार उसका स्वधर्म निश्चित होता है । राष्ट्र की जीवनदृष्टि और विश्वदृष्टि ही उसका स्वधर्म है । इस जीवन में
   −
हे भगवान व्यास ! आप आर्षद्रष्टा ऋषियों द्वारा देखे
+
और इस जगत में राष्ट्र की क्या भूमिका है यह जानना ही राष्ट्र का स्वधर्म जानना है । उदाहरण के लिये स्वामी विवेकानन्द्‌
   −
गये मंत्रों का सम्पादन कर उन्हें जिज्ञासुओं को सुलभ
+
कहते हैं कि भारत का स्वभाव आध्यात्मिक है इसलिये विश्व के प्रति स्वधर्म के अनुसार ही राष्ट्रजीवन की सभी व्यवस्थायें
   −
बनाने हेतु वेदों के रूप में सुलभ बनाने वाले हैं । कठिन
+
बनती हैं, संकल्पनायें और सम्बन्ध बनते हैं । अर्थात्‌ स्वभाव, स्वधर्म, व्यवहार, व्यवस्थायें, समझ सब एक दूसरे के अनुकूल
   −
और जटिल रचना को अभ्यासुओं के लिये सुगम बनाने
+
और अनुरूप होकर एक समग्र जीवनशैली बनती है जिसे उस राष्ट्र की राष्ट्रीय शैली कहा जाता है, उसे ही संस्कृति कहते हैं ।
   −
हेतु एक वेद को चार वेदों में वर्गीकृत करने वाले आद्य
+
एक पीढ़ी से दूसरी पीढी को हस्तान्तरित होते होते उसकी परम्परा बनती है । शिक्षा संस्कृति की परम्परा बनाये रखने का,
   −
सम्पादक हैं आप उपनिषदों के प्रेरक हैं । वेदों का ज्ञान
+
उसे निरन्तर परिष्कृत करने का, उसे नष्ट नहीं होने देने का एकमात्र साधन है अच्छी शिक्षा और धार्मिक शिक्षा दोनों के
   −
सर्वजनसुलभ बनाने हेतु अष्टादश पुराणों की रचना करने
+
पक्षधरों को राष्ट्रीता और उसके सभी व्यावहारिक आयामों को एक साथ रखकर समग्रता में अपना चिन्तन विकसित करने की
   −
वाले हैं आप विद्वानों के शास्रार्थ हेतु ब्रह्मसूत्रों की रचना
+
आवश्यकता है । यह ग्रन्थमाला इसके लिये संकेत मात्र देने का प्रयास करती है
   −
करने वाले हैं । आप विश्व को शास्त्रीय और लोकज्ञान के
+
शिक्षा का धार्मिककरण करने की दिशा में यदि समग्रता में प्रयास करना है तो हमें एक सर्वआयामी प्रतिमान का
   −
आगर ऐसे महाभारत ग्रंथ को देने वाले हैं आजतक ज्ञान
+
विचार करना होगा इस बात का विशेष उल्लेख इसलिये करना है क्योंकि भारत में एक बहुत बडा वर्ग ऐसा है जो
   −
के क्षेत्र में अद्वितीय ऐसे अद्भुत, सर्व उपनिषदों के साररूप
+
वर्तमान ढाँचे में ही धार्मिक जीवन मूल्यों के अनुसार कुछ बातें जोडने का आग्रह रखता है । सरकार भी इनमें एक है । ये
   −
ग्रन्थ भगवद्वीता के रचयिता हैं । जो भी लोककल्याण हेतु
+
प्रयास उपयोगी नहीं हैं ऐसा तो नहीं कहा जा सकता क्योंकि आज सर्वथा विपरीत स्थिति में भी भारत जीवित है तो इन
   −
ज्ञान को प्रस्तुत करना चाहता है उसके लिये आप आदर्श
+
प्रयासों के परिणामस्वरूप ही है । शिक्षा के ऐसे असंख्य छोटे से छोटे और बडे से बडे प्रयास आज चल रहे हैं । परन्तु
   −
हैं आपसे सदैव प्रेरणा प्राप्त होती रहे ऐसी प्रार्थना के साथ
+
भारत को भारत बनाना है तो आमूल और सम्पूर्ण परिवर्तन की रूपरेखा तो हमारे पास होनी ही चाहिये “समग्र विकास
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आपको नमस्कार करते हैं ।
+
प्रतिमान' नाम से ऐसे प्रतिमान का निरूपण यहाँ किया गया है और जो भी प्रयोग करना चाहता है उसकी सहायता वह
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कर सकता है ।
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अर्पण पत्रिका
+
पश्चिमी प्रभाव से शिक्षा की मुक्ति का सीधा अर्थ है सरकार के स्थान पर शिक्षकों का शिक्षा पर नियन्त्रण । परन्तु
   −
भारतीय शिक्षा ग्रंथमाला का श्री ज्ञानसरस्वती (बासर क्षेत्र) के
+
यह समीकरण अभी तो असम्भव सी लगनेवाली अत्यन्त अव्यावहारिक कल्पना है । एक ओर सरकार से स्थिति चाहे
   −
चरणों में अर्पण ।
+
सम्हले या न सम्हले वह शिक्षा को नियन्त्रण से मुक्त नहीं कर सकती, दूसरी ओर सरकार या प्रजा कितना भी आग्रह करे,
   −
हे माँ सरस्वती !
+
शिक्षक वर्ग शिक्षा का जिम्मेदारीपूर्वक नियन्त्रण करने के लिये इच्छुक नहीं है । यह एक ऐसी पहेली है जो सुलझाना
   −
पुनरुत्थान विद्यापीठने भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के नाम से भारतीय
+
महाकठिन काम है परन्तु जिसकी ओर खास ध्यान ही नहीं गया है, उल्टे सब कहा करते हैं कि शिक्षा सरकार की
   −
शिक्षा के पाँच संदर्भ ग्रन्थों का निर्माण कार्य संपन्न किया है । आज संपूर्ण
+
जिम्मेदारी है । एक वर्ग तो ऐसा भी कहने वाला है कि शिक्षा के सर्व अधिकार तो शिक्षकों के पास होने चाहिये परन्तु
   −
भारतवर्ष में प्रतिष्ठित पाश्चात्य शिक्षणपद्धति से भारत का अध्यात्म, ज्ञान,
+
कर्तव्य सारे सरकार के पास, विशेष रूप से आर्थिक कर्तव्य । शिक्षा की बात दोनों के लिये गौण है, प्रशासकीय अधिकार
   −
धर्म तथा संस्कृति सब अस्तव्यस्त हुए हैं इस के उपाय स्वरूप इस ग्रंथ
+
शिक्षकों के और वित्तीय जिम्मेदारी सरकार की ऐसे समीकरण को स्वायत्तता कहा जाता है सैद्धान्तिक, व्यावहारिक और
   −
निर्माण योजना का कार्य विद्यापीठने हाथों में लिया है । हे माते आप इन
+
पारम्परिक दृष्टि से यह कभी भी सम्भव नहीं होने वाली बात है । इस कठिन पहेली को कैसे सुलझायें इसके भी संकेत
   −
ग्रंथों के एक एक अक्षर को सत्यरूप दें हम सब भारतवासियों के मन में
+
इसमें दिये गये हैं
   −
ज्ञानरूपी सरस्वती को प्रतिष्ठित होने दें । इन ग्रन्थों द्वारा सर्वजनसमाज के
+
समग्रता में यदि शिक्षा का विचार करना है तो पठनपाठन विधि, पाठ्यक्रम, विषयवस्तु आदि बातों का पुनर्विचार
   −
आचरण से भारतीय संस्कृति प्रत्यक्ष व्यवहार में उतरे जिससे हमारा
+
करना होगा । इस कथन से तो लगभग सभी सहमत होंगे । परन्तु अच्छा पढने के लिये दिनचर्या, ्रतुचर्या, जीवनचर्या,
   −
भारतवर्ष फिर से विश्वगुरु के पद पर विराजित हो
+
आहार, निद्रा, खेल, व्यायाम, सत्संग, सेवा, संयम, अनुशासन आदि को भी उतना ही महत्त्व देना होगा विद्यालय में
   −
भारतीय शिक्षा द्वारा ज्ञान का पुनरुत्थान हो ऐसा आशिष हमें प्रदान
+
अध्ययन अध्यापन जितना महत्त्वपूर्ण है उतना ही महत्त्वपूर्ण भवन की रचना, पानी की, कचरे की निकासी की, गणवेश
   −
करें पूर्णता को पहुँचे ये पाँचों ग्रन्थ हम सब सर्व प्रथम आपके चरणों में
+
की, पर्यावरण की रक्षा की व्यवस्थाओं का है इनका विचार नहीं करना अधूरी शिक्षा की निशानी है । विद्यालय के
   −
सादर सविनय समर्पित करते हैं ।
+
Ce )
   −
पुनरुत्थान विद्यापीठ के प्रमुख कार्यकर्ता श्रावण कृ. ६,
+
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   −
दि. १३-८-२०१७ को श्रीक्षेत्र बासर गये । और मा ज्ञानसरस्वती के
+
समय, गणवेश, वाहनव्यवस्था, बगीचा, रंगमंच कार्यक्रम आदि के बारे में शास्त्रीय, आर्थिक, सुविधा की और स्वास्थ्य की
   −
चरणों में यह पाँच ग्रंथ सादर समर्पित किये
+
दृष्टि से विचार करना ही शैक्षिक दृष्टि है व्यवहार या व्यवस्था की एक भी बात नहीं है जिसका शैक्षिक दृष्टि से विचार
   −
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+
न किया जा सकता हो । आज कक्षाकक्ष में विषयों की शिक्षा और कक्षाकक्ष के अन्दर और बाहर की व्यवस्थाओं का
   −
सम्पादकीय... .
+
सम्बन्ध जोड़ने की आवश्यकता का आग्रह किया गया है ।
   −
g
+
भारत आज पश्चिमी प्रभाव से ग्रस्त है । पश्चिम अपनी दृष्टि को वैश्विक कह रहा है । उसके प्रभाव में आज हम भी
   −
पुनरुत्थान विद्यापीठ शिक्षा का भारतीयकरण करने के लिये प्रयासरत है । पश्चिमीकरण से भारतीय शिक्षा की मुक्ति
+
पश्चिमी दृष्टि को वैश्विक दृष्टि कह रहे हैं । हमारे लिये यह आवश्यक है कि हम इस पश्चिमी दृष्टि को समझें, भारत की दृष्टि
   −
और भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा करना ही इन प्रयासों का स्वरूप है । इस कार्य के लिये विद्यापीठ ने चरणबद्ध योजना
+
और पश्चिमी दृष्टि में क्या अन्तर है यह भी समझे और सही वैश्विकता किसे कहते हैं इसका विचार करें यह तो भारत की
   −
बनाई है इस योजना का प्रथम चरण है भारतीय शिक्षा विषयक अध्ययन, अनुसन्धान, साहित्य निर्माण और विमर्श ।
+
वर्तमान शिक्षा की स्थिति समझने का प्रयास है। परन्तु अधिक कठिन तो अगले दो चरण हैं पहला चरण है
   −
भारतीय ज्ञानधारा जिन शाख्रग्रन्थों में सुरक्षित है उन शाख्रग्रन्थों का अध्ययन, उसे वर्तमान परिप्रेक्ष्य में लागू किया
+
पश्चिमीकरण से मुक्ति का क्या स्वरूप है । पश्चीमी प्रभाव को नष्ट करने का अर्थ क्या होता है इसको समझने के लिये हमें
   −
जा सके उस रूप में उसका पुनर्नि्माण करने के उद्देश्य से अनुसन्धान, उसे विद्वानों और सामान्यजनों के लिये सुलभ बनाने
+
बहुत पुरुषार्थ करना पड़ेगा । हम उल्टी दिशा में अर्थात्‌ पश्चिमीकरण की दिशा में इतने दूर निकल गये है कि सही मार्ग पर
   −
हेतु साहित्य निर्माण और उसकी उपयोगिता और प्रासंगिकता किस प्रकार बढाई जाय इसका विचार करने हेतु विद्वानों और
+
का एक एक पडाव, छोटे से छोटा कदम भी हमें अव्यावहारिक लगने लगेगा । उदाहरण के लिये यदि हम कहें कि शिक्षा
   −
कार्यकर्ताओं का विमर्श इस प्रकार से कार्य चलता है
+
की धार्मिक संकल्पना के अनुसार शिक्षा निःशुल्क होनी चाहिये तो यह बात सर्वथा अव्यावहारिक लगेगी यदि हम कहें
   −
साहित्यनिर्माण के क्षेत्र में विद्यापीठ ने अब तक भारतीय ज्ञानधारा को विद्यार्थियों तक पहुँचाने हेतु 'पुण्यभूमि भारत
+
कि अंग्रेजी से अध्ययन को मुक्त करना चाहिये तो वह भी अव्यावहारिक लगेगा । यदि कहा जाय कि साधनसामग्री की
   −
संस्कृति वाचनमाला' के नाम से एक सौ पुस्तिकाओं का निर्माण किया है । साथ ही परिवारजीवन से सम्बन्धित विषयों
+
भरमार कम करनी चाहिये तो वह भी अव्यावहारिक लगेगा और यदि कहें कि शिक्षा को सरकारी नियन्त्रण से मुक्त करना
   −
को लेकर पांच सन्दर्भग्रन्थ निर्माण किये हैं विद्यापीठ का मत है कि शिक्षा व्यक्ति के जीवन के साथ प्रारम्भ से ही जुडी
+
चाहिये तो वह सर्वथा अव्यावहारिक लगेगा अर्थात्‌ शिक्षा को पश्चिमीकरण से मुक्त करने का अर्थ समझना और उसे
   −
हुई है और वह आजीवन चलती है वह परिवार में शुरू होती है व्यक्ति के जीवनविकास का एक बहुत बडा हिस्सा
+
हृदयस्थ और मस्तिष्कस्थ करना होगा बाद में उसके क्रियान्वयन की भी बात आयेगी दूसरा चरण होगा पश्चिमीकरण से
   −
परिवार में ही होता है घर भी एक महत्त्वपूर्ण पाठशाला है परिवार विषयक ये पाँच ग्रन्थ - गृहशास्त्र, अधिजननशास्त्र,
+
शिक्षा को मुक्त कर उसे धार्मिक बनाना यह भी पर्याप्त अध्ययन की अपेक्षा करेगा इस प्रकार शिक्षा के धार्मिककरण
   −
आहारशासख्र, गृहअर्थशास्त्र और गृहस्थाश्रमी का समाजधर्म - शिक्षा विषयक सन्दर्भ ग्रन्थ हैं जिनका क्रियान्वयन का क्षेत्र
+
का विषय विश्लेषणपूर्वक समझना होगा ।
   −
घर और समाज है ।
+
एक बार धार्मिक शिक्षा की भारत में प्रतिष्ठा होगी और भारत भारत बनेगा तब फिर भारत की विश्व में क्या भूमिका
   −
इसी कडी में आगे विद्याकेन्द्रों - प्राथमिक, माध्यमिक विद्यालय तथा उच्च शिक्षा हेतु महाविद्यालय और
+
है इस विषय का विचार करने का विषय आता है। आज विश्व संकटों से ग्रस्त है उसका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारण
   −
विश्वविद्यालय - में शिक्षा विषयक पाँच सन्दर्भग्रन्थ निर्माण करने की योजना बनी । सन २०१५ के प्रारम्भ में बनी
+
पश्चिमी जीवनदृष्टि का प्रभाव ही है । पश्चिम की जीवनदृष्टि शेष विश्व के लिये ही नहीं तो उसके अपने लिये भी विनाशक
   −
इस योजना की आज लगभग ढाई वर्ष के बाद सिद्धता हो रही है और देश के शिक्षाक्षेत्र में कार्यरत विदट्रज्जनों के
+
ही है । विश्व को और पश्चिम को बचाने वाली तो धार्मिक जीवनदृष्टि ही है । हमें चार आयामों में विश्वस्थिति और भारत
   −
सम्मुख इन्हें प्रस्तुत करते हुए हम हर्ष और सन्तोष का अनुभव कर रहे हैं प्रत्येक ग्रन्थ चार सौ पृष्ठी का है । ये ग्रन्थ
+
के बारे में विचार करना होगा एक, पश्चिम की दृष्टि में पश्चिम, दो, पश्चिम की दृष्टि में भारत, तीन, भारत की दृष्टि में
   −
इस प्रकार हैं -
+
पश्चिम और भारत की दृष्टि में भारत । ऐसा विश्लेषण पूर्वक आकलन करने के बाद भारत विश्व के हित और सुख के लिये
   −
1, भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
+
क्या कर सकता है इसका विचार करने का रास्ता खुलेगा । यहाँ तक पहुँचते पहुँचते तो हमारी श्रद्धा द्रंढ होगी कि वास्तव
   −
2. शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
+
में भारत विश्व का कल्याण कर सकता है ।
   −
3. भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
+
इस प्रकार सभी आयामों में शिक्षा के धार्मिक करण का विचार इस ग्रन्थमाला में किया गया है ।
   −
4. पश्चिमीकरण से भारतीय शिक्षा की मुक्ति
+
3.
   −
5. वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा
+
इस ग्रन्थमाला के निर्माण में अधिकाधिक विट्रज्जनों एवं सामान्यजनों को सहभागी बनाने का प्रयास किया गया है ।
   −
शिक्षा का भारतीयकरण करने हेतु जितने अंगों से विचार करना चाहिये उन सभी अंगों का विचार करने का प्रयास
+
ग्रन्थों के विभिन्न विषयों पर प्रश्नावलियाँ बनाकर सम्बन्धित समूहों को भेज कर उनसे उत्तर मँगवाकर उनका संकलन किया
   −
इन ग्रन्थों में किया गया है
+
गया और निष्कर्ष निकाले गये । इन प्रश्नावलियों के माध्यम से कम से कम पाँच हजार लोगोंं तक पहुंचना हुआ इसी
   −
............. page-6 .............
+
प्रकार से अध्ययन यात्रा का आयोजन किया गया जिसमें देश के विभिन्न महानगरों में जाकर विद्वान प्राध्यापकों से मार्गदर्शन
   −
2.
+
प्राप्त किया गया | तीसरा माध्यम था विट्रतू गोष्टियों का । प्रत्येक ग्रन्थ के विषय में एक, ऐसी पाँच अखिल धार्मिक स्तर
   −
यद्यपि इन पांच ग्रन्थों में “पश्चिमीकरण से शिक्षा की मुक्ति' एक ग्रन्थ है, और वह चौथे क्रमांक पर है तो भी शिक्षा
+
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   −
के भारतीयकरण का विषय इससे या इससे भी पूर्व से प्रारम्भ होता है शिक्षा के पश्चिमीकरण से मुक्ति का विषय तो तब
+
at afsat ar strats किया गया जिनमें कुल मिलाकर पाँचसौ से भी अधिक विद्वानों ने भाग लिया इन विषयों पर
   −
आता है जब शिक्षा का पश्चिमीकरण हुआ हो भारत में शिक्षा के पश्चिमीकरण का मामला पाँचसौ वर्ष पूर्व से प्रारम्भ
+
स्थानिक स्वरूप की भी बीस से अधिक गोष्ठियाँ हुई उनसे पूर्व ग्रन्थमाला निर्माण की पूर्वतैयारी के रूप में तीस के
   −
होता है जब यूरोपीय देशों के लोग विश्व के अन्यान्य देशों में जाने लगे पन्द्रहबीं शताब्दी के अन्त में वे भारत में आये ।
+
लगभग पग्रन्थगोष्टियाँ हुई इस ग्रन्थनिर्माण में अनुवाद, संकलन, सम्पादन, संक्षेपीकरण, जानकारी का पृथक्करण, उसके
   −
भारत में स्थिर होते होते उन्हें एक सौ वर्ष लगे सन सोलह सौ में इस्ट इण्डिया कम्पनी भारत में आई और आज की
+
आधार पर निष्कर्ष, मुद्रित शोधन, चिकित्सक बुद्धि से पठन, आदि सन्दर्भ कार्यों में अनेकानेक लोग सहभागी हुए इस
   −
दुःस्थिति का प्रारम्भ हुआ । वह लूट के उद्देश्य से आई थी लूट निरन्तरता से, बिना अवरोध के होती रहे इस दृष्टि से
+
प्रकार इन ग्रन्थों का निर्माण सामूहिक प्रयास का फल है इसमें सहभागी प्रमुख लोगोंं की सूची भी इतनी लम्बी है कि
   −
उसने व्यापार शुरु किया व्यापार भारत भी करता था धर्मपालजी लिखते हैं कि सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में चीन
+
उसे यहाँ नहीं दी जा सकती उसे परिशिष्ट में दिया गया है पुनरुत्थान विद्यापीठ उन सभी सहायकों और सहभागियों का
   −
और भारत का मिलकर विश्वव्यापार में तिहत्तर प्रतिशत हिस्सा था अतः भारत को भी व्यापार का अनुभव कम नहीं
+
आभारी है
   −
था । परन्तु भारत को नीतिधर्म के अनुसार व्यापार करने का अनुभव और अभ्यास था । ब्रिटीशों के लिये अधिक से
+
v.
   −
अधिक मुनाफा ही नीति थी अतः व्यापार के नाम पर वे लूट ही करते रहे । व्यापार भी अनिर्बन्ध रूप से चले इस हेतु
+
यह ग्रन्थमाला किसके लिये है इस प्रश्न का सरल उत्तर होगा “सबके लिये तथापि कुछ स्पष्टताओं की
   −
से उन्होंने राज्य हथियाना प्रारम्भ किया ब्रिटीशों का दूसरा उद्देश्य था भारत का इसाईकरण करना । इस उद्देश्य की पूर्ति
+
आवश्यकता है
   −
के लिये उन्होंने वनवासी, गिरिवासी, निर्धन लोगों को लक्ष्य बनाया, वर्गभेद निर्माण किये, भारत की समाज व्यवस्था को
+
-. यह ग्रन्थमाला धार्मिक शिक्षा के प्रश्न को समग्रता में समझना और सुलझाना चाहते हैं उनके लिये है ।
   −
ऊँचनीच का स्वरूप दिया, एक वर्ग को उच्च और दूसरे वर्ग को नीच बताकर उच्च वर्ग को अत्याचारी और नीच वर्ग को
+
-. यह ग्रन्थमाला धार्मिक शिक्षा के विषय में अनुसन्धान करना चाहते हैं उनके लिये है ।
   −
शोषित और पीडित बताकर पीडित वर्ग की सेवा के नाम पर इसाईकरण के प्रयास शुरू किये । उनका तीसरा उद्देश्य था
+
-. यह ग्रन्थमाला शिक्षा के धार्मिक प्रतिमान को लेकर जो प्रयोग करना चाहते हैं उनके लिये चिन्तन प्रस्तुत करती
   −
भारत का यूरोपीकरण करना । उनके पहले उद्देश्य को स्थायी स्वरूप देने में भारत का यूरोपीकरण बडा कारगर उपाय था
+
है
   −
यूरोपीकरण करने के लिये उन्होंने शिक्षा को माध्यम बनाया । उनकी प्रत्यक्ष शिक्षा के ही यूरोपीकरण की योजना इतनी
+
-. यह verre विश्वविद्यालयों के अध्ययन मण्डलों को धार्मिक संकल्पना के अनुसार विभिन्न विषयों के स्वरूप
   −
यशस्वी हुई कि आज हम जानते तक नहीं है कि हम यूरोपीय शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं और यूरोपीय सोच से जी रहे हैं
+
Tet Sg सूत्र देने का प्रयास करती है ।
   −
भारत को अभारत बनाने की प्रक्रिया दो सौ वर्ष पूर्व शुरू हुई और आज भी चल रही है । हम निरन्तर उल्टी दिशा में जा
+
-. यह ग्रन्थमाला सरकार के शिक्षा विषयक नीति निर्धारकों को एक सन्दर्भ प्रस्तुत करने का प्रयास करती है ।
   −
रहे हैं और उसे विकास कह रहे हैं । अब प्रथम आवश्यकता दिशा बदलने की है । दिशा बदले बिना तो कोई भी प्रयास
+
- देशभर में शिक्षा विषयक प्रयोग कर रहे शैक्षिक, धार्मिक, सामाजिक संगठनों को शिक्षा में आमूल परिवर्तन करने
   −
यशस्वी होने वाला नहीं है ।
+
हेतु, कार्ययोजना की एक रूपरेखा प्रस्तुत करती है ।
   −
इस ग्रन्थमाला में दिशा कैसे बदलना, दिशा बदलकर कहाँ जाना, कैसे जाना, क्यों जाना, मार्ग में कौन से अवरोध
+
-. यह ग्रन्थमाला पश्चिमीकरण से धार्मिक मानस की मुक्ति हेतु प्रयास करने वाले सबको एक सन्दर्भ प्रस्तुत करने
   −
हैं, उन अवरोधों को कैसे पार करना आदि विषयों की यथासम्भव विस्तार से चर्चा की गई है ।
+
का प्रयास करती है ।
   −
आज भारत में अच्छी शिक्षा की चर्चा सर्वत्र होती है परन्तु भारतीय शिक्षा की नहीं । अर्थात्‌ एक छोटा वर्ग है जो
+
अधिकांश ऐसा समझा जाता है कि शिक्षा का धार्मिककरण शिक्षा विभाग का विषय है । इसलिये इस विषय की
   −
भारतीय शिक्षा की बात करता है । परन्तु दोनों वर्गों की अपने अपने विषय की कल्पनायें बहुत मजेदार हैं । अच्छी शिक्षा
+
चर्चा विश्वविद्यालयों के शिक्षाविभाग में, बी.एड. या एम.एड. कोलेजों में, शिक्षकों की सभाओं में की जाती है । गोष्टियों
   −
के पक्षधर अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा को, तो कभी ऊँचे शुल्क वाली शिक्षा को, तो कभी संगणक जैसे भरपूर साधनसामग्री
+
और परिचर्चाओं का आयोजन भी शैक्षिक संगठनों द्वारा अथवा सरकार के शिक्षाविभागों ट्वारा होता है । इसी क्रम में ऐसा
   −
के उपयोग वाली शिक्षा को, तो कभी अच्छे वेतनवाली नौकरी मिले ऐसे पाठ्यक्रमों में प्रवेश दिलाने वाली शिक्षा को
+
मान लिया जाता है कि शिक्षा विषयक यह ग्रन्थमाला या अन्य पुस्तकें शिक्षा विषय के प्राध्यापकों के लिये हैं । इसका
   −
अच्छी शिक्षा कहते हैं । ये सभी आयाम एक साथ हों तो वह उत्तमोत्तम शिक्षा है। ऐसी शिक्षा देने वाले विद्यालय,
+
ही स्वाभाविक अंग यह बनता है कि शिक्षा विषयक कार्यक्रमों में शिक्षा, मनोविज्ञान, अध्ययन, अध्यापन पद्धति, परीक्षा
   −
महाविद्यालय या विश्वविद्यालय श्रेष्ठ हैं भारतीय शिक्षा के पक्षधर संस्कृत में लिखे गये ज्योतिष, व्याकरण जैसे वेदांगों
+
अथवा मूल्यांकन, विद्यार्थियों का चरित्र, शिक्षक की निष्ठा, जीवनमूल्य आदि की चर्चा होती है विभिन्न विषयों के
   −
की, न्यायशास्त्र जैसे ग्रन्थों की, वैदिक गणित जैसे विषयों की शिक्षा को भारतीय शिक्षा कहते हैं । वेदों, dard और
+
पाठ्यक्रमों की चर्चा नहीं होती क्योंकि उनके विषय में तो उन उन विषयों के शास्त्रों के जानकार विद्वानों की भूमिका होती
   −
योगदर्शन, उपनिषद आदि की शिक्षा को भारतीय शिक्षा कहते हैं दोनों ही वर्गों में उत्तम विद्याकेन्द्रों के नमूने हैं । परन्तु
+
है शिक्षाशास्त्र विषय के अध्यापकों की नहीं आश्चर्य की बात यह है कि शिक्षाशास्त्र अपने आपको अध्ययन और
   −
देश और दुनिया की स्थिति तो उत्तरोत्तर बिगडती ही जा रही है, संकट बढ़ते ही जा रहे हैं
+
अध्यापन तक सीमित रखता है, क्या पढाना है उसके विषय में अपने आपको जिम्मेदार नहीं मानता अर्थात्‌ शिक्षा
   −
इसलिये इन सभी प्रयासों के स्वरूप का आकलन और क्या कुछ करने की आवश्यकता है इसका चिन्तन आवश्यक
+
विभाग शिक्षक को अच्छा शिक्षक अर्थात्‌ सिखाने की कला में निपुण बनाने के लिये है, पाठ्यपुस्तकों की सामग्री के
   −
है।
+
विषय में उसकी भूमिका नहीं है ।
   −
............. page-7 .............
+
(९)
   −
जो लोग अच्छी शिक्षा के पक्षधर हैं उन्हें राष्ट्रीय शिक्षा की संकल्पना समझने की और जो लोग भारतीय शिक्षा के
+
............. page-10 .............
   −
प्रयासों में रत हैं उन्हें युगानुकूल शिक्षा की संकल्पना समझने की आवश्यकता है प्रत्येक राष्ट्र का एक विशेष स्वभाव होता
+
शिक्षा के धार्मिककरण हेतु इतनी सीमित भूमिका से काम नहीं चलेगा उस अर्थ में यह एक वैचारिक विषय है
   −
है जिसके अनुसार उसका स्वधर्म निश्चित होता है । राष्ट्र की जीवनदृष्टि और विश्वदृष्टि ही उसका स्वधर्म है । इस जीवन में
+
और देश के सर्वसामान्य बौद्धिक वर्ग के लिये इसकी चिन्ता और चिन्तन करने की आवश्यकता है । पढने वाले छोटे से
   −
और इस जगत में राष्ट्र की क्या भूमिका है यह जानना ही राष्ट्र का स्वधर्म जानना है । उदाहरण के लिये स्वामी विवेकानन्द्‌
+
विद्यार्थी से लेकर किसी भी विषय का अध्ययन करने वाले अध्यापक अथवा किसी भी क्षेत्र में कार्यरत विद्वानों, समाज
   −
कहते हैं कि भारत का स्वभाव आध्यात्मिक है इसलिये विश्व के प्रति स्वधर्म के अनुसार ही राष्ट्रजीवन की सभी व्यवस्थायें
+
का हित चाहने वाले राजनीति के क्षेत्र के लोगोंं तथा सन्तों, धर्माचार्यो, आदि सबका यह विषय बनता है । शिक्षा के
   −
बनती हैं, संकल्पनायें और सम्बन्ध बनते हैं । अर्थात्‌ स्वभाव, स्वधर्म, व्यवहार, व्यवस्थायें, समझ सब एक दूसरे के अनुकूल
+
पश्चिमीकरण ने अर्थक्षेत्र, राजनीति, शासन, समाज व्यवस्था, कुटुम्ब जीवन, उद्योगतन्त्र आदि सभी क्षेत्रों को प्रभावित किया
   −
और अनुरूप होकर एक समग्र जीवनशैली बनती है जिसे उस राष्ट्र की राष्ट्रीय शैली कहा जाता है, उसे ही संस्कृति कहते हैं
+
है इसलिये धार्मिककरण भी सभी क्षेत्रों के सरोकार का विषय बनेगा । शिक्षा अपने आपमें तो ऐसा कोई विषय नहीं है ।
   −
एक पीढ़ी से दूसरी पीढी को हस्तान्तरित होते होते उसकी परम्परा बनती है । शिक्षा संस्कृति की परम्परा बनाये रखने का,
+
अतः सभी क्षेत्रों में कार्यरत लोगोंं को अपने अपने क्षेत्र के विचार और व्यवस्था के सम्बन्ध में तथा शिक्षा के सम्बन्ध में
   −
उसे निरन्तर परिष्कृत करने का, उसे नष्ट नहीं होने देने का एकमात्र साधन है । अच्छी शिक्षा और भारतीय शिक्षा दोनों के
+
साथ साथ विचार करना होगा । धार्मिककरण का विचार भी समग्रता में ही हो सकता है ।
   −
पक्षधरों को राष्ट्रीता और उसके सभी व्यावहारिक आयामों को एक साथ रखकर समग्रता में अपना चिन्तन विकसित करने की
+
इस ग्रन्थमाला में इसी प्रकार की भूमिका अपनाई गई है ।
   −
आवश्यकता है यह ग्रन्थमाला इसके लिये संकेत मात्र देने का प्रयास करती है ।
+
यह ग्रन्थमला कुछ विस्तृत सी लगती है तथापि यह प्राथमिक स्वरूप का ही प्रतिपादन है ।
   −
शिक्षा का भारतीयकरण करने की दिशा में यदि समग्रता में प्रयास करना है तो हमें एक सर्वआयामी प्रतिमान का
+
इस ग्रन्थमाला का कथन एक ग्रन्थ में भी हो सकता है और कोई चाहे तो आधे ग्रन्थ में भी हो सकता है परन्तु
   −
विचार करना होगा । इस बात का विशेष उल्लेख इसलिये करना है क्योंकि भारत में एक बहुत बडा वर्ग ऐसा है जो
+
इतना विस्तार करने पर भी ऐसा लगता है कि बहुत कुछ करना शेष है । ऐसे कई विषय हैं जिन पर अधिक सामग्री
   −
वर्तमान ढाँचे में ही भारतीय जीवन मूल्यों के अनुसार कुछ बातें जोडने का आग्रह रखता है । सरकार भी इनमें एक है । ये
+
चाहिये । ऐसे कई विषय हैं जिन पर स्वतन्त्र रूप से ग्रन्थों की रचना होने की आवश्यकता है । परन्तु यहाँ एक सीमा है ।
   −
प्रयास उपयोगी नहीं हैं ऐसा तो नहीं कहा जा सकता क्योंकि आज सर्वथा विपरीत स्थिति में भी भारत जीवित है तो इन
+
सुधी लोग आवश्यकता के अनुसार इस विषय को आगे बढ़ाते ही रहेंगे ऐसा विश्वास है
   −
प्रयासों के परिणामस्वरूप ही है । शिक्षा के ऐसे असंख्य छोटे से छोटे और बडे से बडे प्रयास आज चल रहे हैं । परन्तु
+
इस ग्रन्थमाला के माध्यम से विद्यापीठ ऐसे सभी लोगोंं का धार्मिक शिक्षा के विषय पर ध्रुवीकरण करना चाहता है
   −
भारत को भारत बनाना है तो आमूल और सम्पूर्ण परिवर्तन की रूपरेखा तो हमारे पास होनी ही चाहिये । “समग्र विकास
+
जो धार्मिक शिक्षा के विषय में चिन्तित हैं, कुछ करना चाहते हैं, अन्यान्य प्रकार से कुछ कर रहे हैं और जिज्ञासु और
   −
प्रतिमान' नाम से ऐसे प्रतिमान का निरूपण यहाँ किया गया है और जो भी प्रयोग करना चाहता है उसकी सहायता वह
+
प्रयोगशील हैं । इस दृष्टि से भविष्य में इसका भारत की अन्याय भाषाओं में अनुवाद हो यह पुनरुत्थान विद्यापीठ की
   −
कर सकता है
+
आकांक्षा रहेगी साथ ही अनुवर्ती कार्य के रूप में इस ग्रन्थमाला के आधार पर चर्चासत्रों और अभ्यासवर्गों का आयोजन
   −
पश्चिमी प्रभाव से शिक्षा की मुक्ति का सीधा अर्थ है सरकार के स्थान पर शिक्षकों का शिक्षा पर नियन्त्रण परन्तु
+
हो ऐसी भी अपेक्षा रहेगी
   −
यह समीकरण अभी तो असम्भव सी लगनेवाली अत्यन्त अव्यावहारिक कल्पना है । एक ओर सरकार से स्थिति चाहे
+
शिशुअवस्था में घर से प्रास्भ कर विश्वविद्यालय तक और बाद में समाज के व्यापक क्षेत्र में शिक्षा के धार्मिककरण के
   −
सम्हले या न सम्हले वह शिक्षा को नियन्त्रण से मुक्त नहीं कर सकती, दूसरी ओर सरकार या प्रजा कितना भी आग्रह करे,
+
प्रभावी प्रयास हो इस दृष्टि से इस ग्रन्थमाला जैसे सैंकडों ग्रन्थों की स्वना करने की आवश्यकता रहेगी । श्रेष्ठ विद्वानों से लेकर
   −
शिक्षक वर्ग शिक्षा का जिम्मेदारीपूर्वक नियन्त्रण करने के लिये इच्छुक नहीं है । यह एक ऐसी पहेली है जो सुलझाना
+
शिशु और बाल अवस्था के विद्यार्थियों तक तथा गृहिणियों , व्यापारियों, राजनयिकों, उद्योजकों, कारीगरों तक यह विषय
   −
महाकठिन काम है परन्तु जिसकी ओर खास ध्यान ही नहीं गया है, उल्टे सब कहा करते हैं कि शिक्षा सरकार की
+
पहुँचे इस दृष्टि से विभिन्न प्रकार का विपुल साहित्य निर्माण होने की आवश्यकता है । जनमानस को आप्लावित करनेवाले
   −
जिम्मेदारी है । एक वर्ग तो ऐसा भी कहने वाला है कि शिक्षा के सर्व अधिकार तो शिक्षकों के पास होने चाहिये परन्तु
+
साहित्य के निर्माण हेतु यह ग्रन्थमाला एक प्रस्थान बिन्दु बनती है तो हमें अपने प्रयास सार्थक हुए ऐसा लगेगा ।
   −
कर्तव्य सारे सरकार के पास, विशेष रूप से आर्थिक कर्तव्य । शिक्षा की बात दोनों के लिये गौण है, प्रशासकीय अधिकार
+
ale ale ale
   −
शिक्षकों के और वित्तीय जिम्मेदारी सरकार की ऐसे समीकरण को स्वायत्तता कहा जाता है । सैद्धान्तिक, व्यावहारिक और
+
— 4 mF
   −
पारम्परिक दृष्टि से यह कभी भी सम्भव नहीं होने वाली बात है । इस कठिन पहेली को कैसे सुलझायें इसके भी संकेत
+
इस ग्रन्थों की शैली को हम पुराणशैली कह सकते हैं । पुराणशैली के लिये दूसरा शब्द है व्यासशैली हर बिन्दु को
   −
इसमें दिये गये हैं ।
+
उदाहरणों सहित, विश्लेषण सहित, किंचित पुनरावर्तन के साथ स्पष्ट करने को व्यासशैली कहते हैं । इससे दूसरे प्रकार की
   −
समग्रता में यदि शिक्षा का विचार करना है तो पठनपाठन विधि, पाठ्यक्रम, विषयवस्तु आदि बातों का पुनर्विचार
+
होती है समासशैली जो किसी भी बात को संक्षेप में प्रस्तुत करती है । जिन्हें विषय ज्ञात होता है, जो सन्दर्भ जानते हैं,
   −
करना होगा । इस कथन से तो लगभग सभी सहमत होंगे । परन्तु अच्छा पढने के लिये दिनचर्या, ्रतुचर्या, जीवनचर्या,
+
जो सद्यग्राही होते हैं उनके लिये समासशैली अनुकूल होती है, वे व्यासशैली से कभी कभी चिढते भी हैं परन्तु सर्वसामान्य
   −
आहार, निद्रा, खेल, व्यायाम, सत्संग, सेवा, संयम, अनुशासन आदि को भी उतना ही महत्त्व देना होगा । विद्यालय में
+
पाठक वर्ग के लिये व्यासशैली अनुकूल होती है । धार्मिक शिक्षा का विषय ज्ञानात्मक दृष्टि से गम्भीर है, व्यवहार की
   −
अध्ययन अध्यापन जितना महत्त्वपूर्ण है उतना ही महत्त्वपूर्ण भवन की रचना, पानी की, कचरे की निकासी की, गणवेश
+
दृष्टि से तो और भी गम्भीर और उलझा हुआ है इसलिये उसे सलझाने के लिये व्यासशैली ही चाहिये । कभी कभी तो यह
   −
की, पर्यावरण की रक्षा की व्यवस्थाओं का है । इनका विचार नहीं करना अधूरी शिक्षा की निशानी है । विद्यालय के
+
मनोवैज्ञानिक विश्लेषण जैसा मामला हो जाता है ।
   −
Ce )
+
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   −
............. page-8 .............
+
श्री ज्ञानसरस्वती मंदिर क्षेत्र बासर का क्षेत्रमहात्म्य
   −
समय, गणवेश, वाहनव्यवस्था, बगीचा, रंगमंच कार्यक्रम आदि के बारे में शास्त्रीय, आर्थिक, सुविधा की और स्वास्थ्य की
+
वाग्देवी, माँ वीणापाणि, शारदा, विद्यादायिनी आदि नामों से
   −
दृष्टि से विचार करना ही शैक्षिक दृष्टि है । व्यवहार या व्यवस्था की एक भी बात नहीं है जिसका शैक्षिक दृष्टि से विचार
+
स्मरण की जानेवाली मा वाणी अर्थात्‌ सरस्वतीजी के भारत में दो
   −
न किया जा सकता हो आज कक्षाकक्ष में विषयों की शिक्षा और कक्षाकक्ष के अन्दर और बाहर की व्यवस्थाओं का
+
ही प्राचीन देवस्थल माने जाते हैं पहला आंध्र प्रदेश में जो महर्षि
   −
सम्बन्ध जोड़ने की आवश्यकता का आग्रह किया गया है
+
वेदव्यास द्वारा बनाया गया था आंध्रप्रदेश के इस बासर स्थित
   −
भारत आज पश्चिमी प्रभाव से ग्रस्त है । पश्चिम अपनी दृष्टि को वैश्विक कह रहा है । उसके प्रभाव में आज हम भी
+
वैद्किकालीन देवस्थल के बारे में कहा जाता है कि कुरुक्षेत्र युद्ध
   −
पश्चिमी दृष्टि को वैश्विक दृष्टि कह रहे हैं । हमारे लिये यह आवश्यक है कि हम इस पश्चिमी दृष्टि को समझें, भारत की दृष्टि
+
से निराश और उदास होकर महर्षि व्यास, उनके पुत्र शुकदेवजी एवं
   −
और पश्चिमी दृष्टि में क्या अन्तर है यह भी समझे और सही वैश्विकता किसे कहते हैं इसका विचार करें । यह तो भारत की
+
अन्य अनुयायी दक्षिण की ओर तीर्थयात्रा पर चल पड़े और
   −
वर्तमान शिक्षा की स्थिति समझने का प्रयास है। परन्तु अधिक कठिन तो अगले दो चरण हैं पहला चरण है
+
गोदावरी के तट पर तप के लिए उन्हों ने डेरा डाल दिया उनके
   −
पश्चिमीकरण से मुक्ति का क्या स्वरूप है । पश्चीमी प्रभाव को नष्ट करने का अर्थ क्या होता है इसको समझने के लिये हमें
+
निवास के कारण वह स्थान व्यासर कहा जाने लगा जो कालांतर
   −
बहुत पुरुषार्थ करना पडेगा हम उल्टी दिशा में अर्थात्‌ पश्चिमीकरण की दिशा में इतने दूर निकल गये है कि सही मार्ग पर
+
में बासर हो गया क्षि व्यास नित्यप्रति जब स्नान करके आते
   −
का एक एक पडाव, छोटे से छोटा कदम भी हमें अव्यावहारिक लगने लगेगा । उदाहरण के लिये यदि हम कहें कि शिक्षा
+
तो गोदावरी की तीन मुट्ठी बालू लाते थे और तीन ढेर बना देते
   −
की भारतीय संकल्पना के अनुसार शिक्षा निःशुल्क होनी चाहिये तो यह बात सर्वथा अव्यावहारिक लगेगी यदि हम कहें
+
थे बालू मे हल्दी का भी घोल मिलाया गया और फिर धीरे धीरे
   −
कि अंग्रेजी से अध्ययन को मुक्त करना चाहिये तो वह भी अव्यावहारिक लगेगा । यदि कहा जाय कि साधनसामग्री की
+
ये ढेर आकार लेते गये और इन्होंने तीन देवियों लक्ष्मी शारदा एवं
   −
भरमार कम करनी चाहिये तो वह भी अव्यावहारिक लगेगा और यदि कहें कि शिक्षा को सरकारी नियन्त्रण से मुक्त करना
+
गौरी का रूप ले लिया |
   −
चाहिये तो वह सर्वथा अव्यावहारिक लगेगा । अर्थात्‌ शिक्षा को पश्चिमीकरण से मुक्त करने का अर्थ समझना और उसे
+
............. page-12 .............
   −
हृदयस्थ और मस्तिष्कस्थ करना होगा । बाद में उसके क्रियान्वयन की भी बात आयेगी । दूसरा चरण होगा पश्चिमीकरण से
+
मुखपृष्ठ परिचय
   −
शिक्षा को मुक्त कर उसे भारतीय बनाना । यह भी पर्याप्त अध्ययन की अपेक्षा करेगा इस प्रकार शिक्षा के भारतीयकरण
+
यह सरस्वती यन्त्र है मुखपृष्ठ पर चित्रित आकृति इसी सरस्वती यन्त्र का कलात्मक स्वरूप में किया हुआ प्रकटीकरण
   −
का विषय विश्लेषणपूर्वक समझना होगा
+
है । महाराष्ट्र प्रान्त में यह रंगोली के रूप में सरस्वती कही जाती है
   −
एक बार भारतीय शिक्षा की भारत में प्रतिष्ठा होगी और भारत भारत बनेगा तब फिर भारत की विश्व में क्या भूमिका
+
माँ सरस्वती के भक्त उसकी उपासना सगुण और निर्गुण इन दोनों स्वरूपों में करते हैं । तब देवी इस सरस्वती यन्त्र के
   −
है इस विषय का विचार करने का विषय आता है। आज विश्व संकटों से ग्रस्त है उसका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारण
+
माध्यम से विविध पहलुओं द्वारा साकार होती है और शीघ्रतासे भक्तों की कामनाएँ पूरी करती है ऐसी श्रद्धा है
   −
पश्चिमी जीवनदृष्टि का प्रभाव ही है । पश्चिम की जीवनदृष्टि शेष विश्व के लिये ही नहीं तो उसके अपने लिये भी विनाशक
+
यंत्र का विश्लेषण
   −
ही है । विश्व को और पश्चिम को बचाने वाली तो भारतीय जीवनदृष्टि ही है । हमें चार आयामों में विश्वस्थिति और भारत
+
श्,
   −
के बारे में विचार करना होगा । एक, पश्चिम की दृष्टि में पश्चिम, दो, पश्चिम की दृष्टि में भारत, तीन, भारत की दृष्टि में
+
वलयांकित रेखाएँ : इस यन्त्र में दिखाई देनेवाली वलयांकित रेखाएँ वीणावादन
   −
पश्चिम और भारत की दृष्टि में भारत ऐसा विश्लेषण पूर्वक आकलन करने के बाद भारत विश्व के हित और सुख के लिये
+
करती हुई सरस्वती का कृतिरूप सूचित करती है आकृति के १, २, रे, ४ ये अंक
   −
क्या कर सकता है इसका विचार करने का रास्ता खुलेगा यहाँ तक पहुँचते पहुँचते तो हमारी श्रद्धा द्रंढ होगी कि वास्तव
+
देवी के निर्गुण स्तर के चार वेद हैं ५, ६, ७ ये तीन अंक भगवती की इच्छाशक्ति
   −
में भारत विश्व का कल्याण कर सकता है
+
क्रियाशक्ति एवं ज्ञानशक्ति के द्योतक हैं ८, ९ ये दो अंक उसके Ga EN Ft
   −
इस प्रकार सभी आयामों में शिक्षा के भारतीय करण का विचार इस ग्रन्थमाला में किया गया है ।
+
पहचान करवाते हैं । १० यह अंक कार्य के अंतिम स्वरूप अट्रैत का चिन्ह है ।
   −
3.
+
अ अक्षर शक्ति का उत्सर्जन और ग्रहण ब अक्षर कार्यशक्ति का प्रवाह तथा
   −
इस ग्रन्थमाला के निर्माण में अधिकाधिक विट्रज्जनों एवं सामान्यजनों को सहभागी बनाने का प्रयास किया गया है
+
क अक्षर मंडलाकार इच्छाशक्ति की तरंगों का प्रतिनिधित्व करते हैं
   −
ग्रन्थों के विभिन्न विषयों पर प्रश्नावलियाँ बनाकर सम्बन्धित समूहों को भेज कर उनसे उत्तर मँगवाकर उनका संकलन किया
+
आकृति में जो अंक है वह ज्ञानशक्ति के हाथों में जो वेद और जपमाला है उनका प्रतीक है ।
   −
गया और निष्कर्ष निकाले गये । इन प्रश्नावलियों के माध्यम से कम से कम पाँच हजार लोगों तक पहुंचना हुआ इसी
+
यन्त्र में जो वृत्ताकार आकृति है वह भगवती के इच्छाशक्तिरूप मयूर वाहन का प्रतीक है इस प्रकार यह यन्त्र सरस्वती
   −
प्रकार से अध्ययन यात्रा का आयोजन किया गया जिसमें देश के विभिन्न महानगरों में जाकर विद्वान प्राध्यापकों से मार्गदर्शन
+
के सगुण स्वरूप का प्रत्यक्ष रूप है । यह यन्त्र प्रतिमास अधिक सूक्ष्म स्तर पर कार्य करता है ।
   −
प्राप्त किया गया | तीसरा माध्यम था विट्रतू गोष्टियों का । प्रत्येक ग्रन्थ के विषय में एक, ऐसी पाँच अखिल भारतीय स्तर
+
इस यन्त्र में ४, ३े, २, १ इस क्रम से ज्यादा से कम की ओर अंकों की रचना की गयी है । वहाँ
   −
............. page-9 .............
+
१, २, रे, ४ इन अंकों से दर्शाया स्तर चारों वेदों की निर्गुण शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है ।
   −
at afsat ar strats किया गया जिनमें कुल मिलाकर पाँचसौ से भी अधिक विद्वानों ने भाग लिया इन विषयों पर
+
५, ६, ७ अंकों का दूसरा स्तर इच्छा, क्रिया एवं ज्ञानशक्ति रूप में सगुण शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है ,
   −
स्थानिक स्वरूप की भी बीस से अधिक गोष्ठियाँ हुई उनसे पूर्व ग्रन्थमाला निर्माण की पूर्वतैयारी के रूप में तीस के
+
८, ९ इन दो अंकों का स्तर od स्वरूप का कार्य है
   −
लगभग पग्रन्थगोष्टियाँ हुई । इस ग्रन्थनिर्माण में अनुवाद, संकलन, सम्पादन, संक्षेपीकरण, जानकारी का पृथक्करण, उसके
+
१० इस अंक का चौथा स्तर का अर्थ है कार्य पूर्ण होने पर अट्वैत स्वरूप में पुनः विलीन होना ।
   −
आधार पर निष्कर्ष, मुद्रित शोधन, चिकित्सक बुद्धि से पठन, आदि सन्दर्भ कार्यों में अनेकानेक लोग सहभागी हुए । इस
+
इस प्रकार इस यन्त्र में शक्ति का प्रवाह ऊपर से अर्थात्‌ निर्गुण स्तर से गतिमान होकर एक ही दिशा में कार्य करते अद्रैत
   −
प्रकार इन ग्रन्थों का निर्माण सामूहिक प्रयास का फल है । इसमें सहभागी प्रमुख लोगों की सूची भी इतनी लम्बी है कि
+
शक्ति की प्राप्ति में सहायक होता है ।
   −
उसे यहाँ नहीं दी जा सकती । उसे परिशिष्ट में दिया गया है । पुनरुत्थान विद्यापीठ उन सभी सहायकों और सहभागियों का
+
यन्त्र के ऊपर की पंक्ति में जो देवनागरी लिपि में एक (१) अंक लिखा दिखाई देता है वह आवश्यकतानुसार वैश्विक स्तर
   −
आभारी है ।
+
पर शक्ति के ग्रहण और उत्सर्जन का परिचायक है ।
   −
v.
+
यन्त्र में स्थित ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति एवं इच्छाशक्ति का परस्पर संबंध - इस अंक यन्त्र द्वारा श्री सरस्वती देवी का
   −
यह ग्रन्थमाला किसके लिये है इस प्रश्न का सरल उत्तर होगा “सबके लिये फिर भी कुछ स्पष्टताओं की
+
त्रिस्तरीय कार्य का यथार्थ बोध होता है ।
   −
आवश्यकता है ।
+
इस अंक यन्त्र में ज्ञानशक्ति सांख्यब्रह्म है । मध्य के स्तर में वलयांकित रेखाओं से जुड़े हुए अंक क्रियाशक्ति के हलचल
   −
-. यह ग्रन्थमाला भारतीय शिक्षा के प्रश्न को समग्रता में समझना और सुलझाना चाहते हैं उनके लिये है ।
+
की दिशा स्पष्ट करते हैं । चक्राकार एवं वलयांकित रेखाएँ शक्ति के केंद्रीकरण की सूचक हैं, जो समग्रता का संकेत होकर
   −
-. यह ग्रन्थमाला भारतीय शिक्षा के विषय में अनुसन्धान करना चाहते हैं उनके लिये है
+
प्रत्यक्ष इच्छाशक्ति से संबंधित हैं ।
   −
-. यह ग्रन्थमाला शिक्षा के भारतीय प्रतिमान को लेकर जो प्रयोग करना चाहते हैं उनके लिये चिन्तन प्रस्तुत करती
+
अंजलि गाडगील, अंतर्जाल पर उपलब्ध
   −
है ।
+
............. page-13 .............
   −
-. यह verre विश्वविद्यालयों के अध्ययन मण्डलों को भारतीय संकल्पना के अनुसार विभिन्न विषयों के स्वरूप
+
अनुक्रमणिका
   −
Tet Sg सूत्र देने का प्रयास करती है ।
+
०... मंगलाचरण
   −
-. यह ग्रन्थमाला सरकार के शिक्षा विषयक नीति निर्धारकों को एक सन्दर्भ प्रस्तुत करने का प्रयास करती है ।
+
... अर्पण पत्रिका
   −
- देशभर में शिक्षा विषयक प्रयोग कर रहे शैक्षिक, धार्मिक, सामाजिक संगठनों को शिक्षा में आमूल परिवर्तन करने
+
© सम्पादकीय
   −
हेतु, कार्ययोजना की एक रूपरेखा प्रस्तुत करती है ।
+
&
   −
-. यह ग्रन्थमाला पश्चिमीकरण से भारतीय मानस की मुक्ति हेतु प्रयास करने वाले सबको एक सन्दर्भ प्रस्तुत करने
+
e = श्री ज्ञानसरस्वती मंदिर क्षेत्र बासर का क्षेत्रमहात्म्य 28
   −
का प्रयास करती है ।
+
° मुखपृष्ठ परिचय
   −
अधिकांश ऐसा समझा जाता है कि शिक्षा का भारतीयकरण शिक्षा विभाग का विषय है । इसलिये इस विषय की
+
=== खण्ड १ : तत्त्वचिन्तन ===
   −
चर्चा विश्वविद्यालयों के शिक्षाविभाग में, बी.एड. या एम.एड. कोलेजों में, शिक्षकों की सभाओं में की जाती है । गोष्टियों
+
प्रस्तावना 3
   −
और परिचर्चाओं का आयोजन भी शैक्षिक संगठनों द्वारा अथवा सरकार के शिक्षाविभागों ट्वारा होता है । इसी क्रम में ऐसा
+
समग्रता का अर्थ
   −
मान लिया जाता है कि शिक्षा विषयक यह ग्रन्थमाला या अन्य पुस्तकें शिक्षा विषय के प्राध्यापकों के लिये हैं । इसका
+
सृष्टि परमात्मा का विश्वरूप है, अंगांगी सम्बन्ध, समग्रता की
   −
ही स्वाभाविक अंग यह बनता है कि शिक्षा विषयक कार्यक्रमों में शिक्षा, मनोविज्ञान, अध्ययन, अध्यापन पद्धति, परीक्षा
+
आवश्यकता, सृष्टि का समग्र स्वरूप, चिज्जड़ग्रन्थि, मनुष्य का
   −
अथवा मूल्यांकन, विद्यार्थियों का चरित्र, शिक्षक की निष्ठा, जीवनमूल्य आदि की चर्चा होती है । विभिन्न विषयों के
+
दायित्व, अनुप्रश्न
   −
पाठ्यक्रमों की चर्चा नहीं होती क्योंकि उनके विषय में तो उन उन विषयों के शास्त्रों के जानकार विद्वानों की भूमिका होती
+
विकास की वर्तमान संकल्पना एवं स्वरूप 83
   −
है शिक्षाशास्र विषय के अध्यापकों की नहीं । आश्चर्य की बात यह है कि शिक्षाशास्त्र अपने आपको अध्ययन और
+
विकास से तात्पर्य, विकास और विज्ञान, विकास का आर्थिक
   −
अध्यापन तक सीमित रखता है, क्या पढाना है उसके विषय में अपने आपको जिम्मेदार नहीं मानता । अर्थात्‌ शिक्षा
+
पक्ष, विकास का धार्मिक पक्ष, धर्म विषयक स्पष्टताएँ, विकास
   −
विभाग शिक्षक को अच्छा शिक्षक अर्थात्‌ सिखाने की कला में निपुण बनाने के लिये है, पाठ्यपुस्तकों की सामग्री के
+
और स्पर्धा, विकास और यास्त्रकीकरण
   −
विषय में उसकी भूमिका नहीं है ।
+
'विकास की धार्मिक संकल्पना एवं स्वरूप ३१
   −
(९)
+
समन्वित विकास
   −
............. page-10 .............
+
व्यक्तित्व मीमांसा WS
   −
शिक्षा के भारतीयकरण हेतु इतनी सीमित भूमिका से काम नहीं चलेगा । उस अर्थ में यह एक वैचारिक विषय है
+
व्यक्तित्व की अवधारणा, अन्नरसमय आत्मा, प्राणमय आत्मा,
   −
और देश के सर्वसामान्य बौद्धिक वर्ग के लिये इसकी चिन्ता और चिन्तन करने की आवश्यकता है । पढने वाले छोटे से
+
प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, धनंजय, देवदत्त, नाग,
   −
विद्यार्थी से लेकर किसी भी विषय का अध्ययन करने वाले अध्यापक अथवा किसी भी क्षेत्र में कार्यरत विद्वानों, समाज
+
कृकल, कूर्म, मनोमय आत्मा, विज्ञानमय आत्मा, आनन्दमय
   −
का हित चाहने वाले राजनीति के क्षेत्र के लोगों तथा सन्तों, धर्माचार्यो, आदि सबका यह विषय बनता है । शिक्षा के
+
आत्मा, आनन्दमय आत्मा बुद्धि से परे है
   −
पश्चिमीकरण ने अर्थक्षेत्र, राजनीति, शासन, समाज व्यवस्था, कुट्म्ब जीवन, उद्योगतन्त्र आदि सभी क्षेत्रों को प्रभावित किया
+
पंचात्मा विवरण पद
   −
है इसलिये भारतीयकरण भी सभी क्षेत्रों के सरोकार का विषय बनेगा । शिक्षा अपने आपमें तो ऐसा कोई विषय नहीं है ।
+
अन्नमय आत्मा, प्राणमय आत्मा, मनोमय आत्मा, मन को ठीक
   −
अतः सभी क्षेत्रों में कार्यरत लोगों को अपने अपने क्षेत्र के विचार और व्यवस्था के सम्बन्ध में तथा शिक्षा के सम्बन्ध में
+
करने के उपाय, विज्ञानमय आत्मा, आनन्दमय आत्मा
   −
साथ साथ विचार करना होगा । भारतीयकरण का विचार भी समग्रता में ही हो सकता है ।
+
व्यक्तित्व विकास : स्वरूप एवं विकास के कारक तत्त्व ७०
   −
इस ग्रन्थमाला में इसी प्रकार की भूमिका अपनाई गई है ।
+
आहार, भाषा, दिनचर्या, श्रम, काम और परिश्रम, सेवा आर
   −
यह ग्रन्थमला कुछ विस्तृत सी लगती है फिर भी यह प्राथमिक स्वरूप का ही प्रतिपादन है ।
+
परिचर्या, जानकारी और शाख्त्ज्ञान, अन्नमय आत्मा, प्राणमय
   −
इस ग्रन्थमाला का कथन एक ग्रन्थ में भी हो सकता है और कोई चाहे तो आधे ग्रन्थ में भी हो सकता है परन्तु
+
आत्मा, मनोमय आत्मा, विज्ञानमय आत्मा, आनन्दमय आत्मा
   −
इतना विस्तार करने पर भी ऐसा लगता है कि बहुत कुछ करना शेष है । ऐसे कई विषय हैं जिन पर अधिक सामग्री
+
अध्यास और बोध ८१
   −
चाहिये । ऐसे कई विषय हैं जिन पर स्वतन्त्र रूप से ग्रन्थों की रचना होने की आवश्यकता है । परन्तु यहाँ एक सीमा है ।
+
देहाध्यास, प्राणाध्यास, मनो5ध्यास, बुट्ध्यध्यास, आनन्दाध्यास,
   −
सुधी लोग आवश्यकता के अनुसार इस विषय को आगे बढ़ाते ही रहेंगे ऐसा विश्वास है ।
+
बोध
   −
इस ग्रन्थमाला के माध्यम से विद्यापीठ ऐसे सभी लोगों का भारतीय शिक्षा के विषय पर ध्रुवीकरण करना चाहता है
+
TRAST sik cape og
   −
जो भारतीय शिक्षा के विषय में चिन्तित हैं, कुछ करना चाहते हैं, अन्यान्य प्रकार से कुछ कर रहे हैं और जिज्ञासु और
+
मनुष्य और सृष्टि, १. प्रेम, २. कृतज्ञता, रे. दोहन, ४. रक्षण,
   −
प्रयोगशील हैं । इस दृष्टि से भविष्य में इसका भारत की अन्याय भाषाओं में अनुवाद हो यह पुनरुत्थान विद्यापीठ की
+
मनुष्य और समष्टि, व्यक्ति और कुटुम्ब, व्यक्ति और समुदाय,
   −
आकांक्षा रहेगी । साथ ही अनुवर्ती कार्य के रूप में इस ग्रन्थमाला के आधार पर चर्चासत्रों और अभ्यासवर्गों का आयोजन
+
आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु पुरुषार्थ, समुदाय को ज्ञानवान बनाने
   −
हो ऐसी भी अपेक्षा रहेगी ।
+
20,
   −
शिशुअवस्था में घर से प्रास्भ कर विश्वविद्यालय तक और बाद में समाज के व्यापक क्षेत्र में शिक्षा के भारतीयकरण के
+
88.
   −
प्रभावी प्रयास हो इस दृष्टि से इस ग्रन्थमाला जैसे सैंकडों ग्रन्थों की स्वना करने की आवश्यकता रहेगी । श्रेष्ठ विद्वानों से लेकर
+
82.
   −
शिशु और बाल अवस्था के विद्यार्थियों तक तथा गृहिणियों , व्यापारियों, राजनयिकों, उद्योजकों, कारीगरों तक यह विषय
+
83.
   −
पहुँचे इस दृष्टि से विभिन्न प्रकार का विपुल साहित्य निर्माण होने की आवश्यकता है । जनमानस को आप्लावित करनेवाले
+
ge.
   −
साहित्य के निर्माण हेतु यह ग्रन्थमाला एक प्रस्थान बिन्दु बनती है तो हमें अपने प्रयास सार्थक हुए ऐसा लगेगा ।
+
Ru.
   −
ale ale ale
+
श्र
   −
— 4 mF
+
हेतु शिक्षा की व्यवस्था, व्यवस्था बनाये रखने हेतु न्याय, दण्ड,
   −
इस ग्रन्थों की शैली को हम पुराणशैली कह सकते हैं । पुराणशैली के लिये दूसरा शब्द है व्यासशैली । हर बिन्दु को
+
शासन और प्रशासन की व्यवस्था, व्यक्ति और राष्ट्र, व्यक्ति और
   −
उदाहरणों सहित, विश्लेषण सहित, किंचित पुनरावर्तन के साथ स्पष्ट करने को व्यासशैली कहते हैं । इससे दूसरे प्रकार की
+
faa, wat
   −
होती है समासशैली जो किसी भी बात को संक्षेप में प्रस्तुत करती है । जिन्हें विषय ज्ञात होता है, जो सन्दर्भ जानते हैं,
+
=== खण्ड २ : व्यवहारचिन्तन, ===
   −
जो सद्यग्राही होते हैं उनके लिये समासशैली अनुकूल होती है, वे व्यासशैली से कभी कभी चिढते भी हैं परन्तु सर्वसामान्य
+
==== पर्व १ : समग्र विकास हेतु शिक्षायोजना ====
   −
पाठक वर्ग के लिये व्यासशैली अनुकूल होती है । भारतीय शिक्षा का विषय ज्ञानात्मक दृष्टि से गम्भीर है, व्यवहार की
+
प्रस्तावना श्ण्प्‌
   −
दृष्टि से तो और भी गम्भीर और उलझा हुआ है इसलिये उसे सलझाने के लिये व्यासशैली ही चाहिये । कभी कभी तो यह
+
शिक्षा के उद्देश्य, सम्पूर्ण चराचर सृष्टि में सामंजस्य, सम्पूर्ण विश्व
   −
मनोवैज्ञानिक विश्लेषण जैसा मामला हो जाता है ।
+
संकटमुक्त हो
   −
............. page-11 .............
+
उद्देश्य के अनुरूप शिक्षायोजना oR
   −
हम सबका सौभाग्य है कि इस ग्रन्थमाला का लोकार्पण राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के परम पूजनीय सरसंघवालक
+
शिशु शिक्षा से उच्च शिक्षा का एक साथ विचार होगर्भावसथा से
   −
माननीय मोहनजी भागवत के करकमलों से हो रहा है ।
+
युवावस्था तक की, शिक्षा का आन्तर्सम्बन्ध
   −
पुनश्च सभी परामर्शकों, मार्गदर्शकों, सहभागियों, सहयोगियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए यह ग्रन्थमाला पाठकों
+
युवावस्था से गर्भावस्‍था की शिक्षा श्श्२
   −
के हाथों सौंप रहे हैं ।
+
पाठ्यक्रमों की रचना करना, लोकज्ञान को परिष्कृत करना,
   −
ग्रन्थ में विषय प्रतिपादन, निरूपण शैली, रचना, भाषाशुद्धि की दृष्टि से दोष रहे ही होंगे । सम्पादकों की मर्यादा
+
ज्ञानरक्षा का दायित्व, सम्पूर्ण शिक्षाव्यवस्था का केन्द्र विद्यापीठ,
   −
समझकर पाठक इसे क्षमा करें, स्वयं सुधार कर लें और उनकी ओर हमारा ध्यान आकर्षित करें यही निवेदन हैं ।
+
किशोर अवस्था की शिक्षा, बाल अवस्था की शिक्षा, शिशु
   −
इति शुभम्‌ ।
+
अवस्था की शिक्षा, गर्भावस्‍था की शिक्षा
   −
व्यासपूर्णिमा सम्पादकमण्डल
+
शिक्षायोजना : अनुप्रश्न RRC
   −
युगाब्दू ५११८
+
पुररचना का प्रारम्भ कहाँ से करना, विपरीत परिस्थिति में निराश
   −
९ जुलाई २०२१७
+
न होना, विद्यालय व घर दोनों शिक्षा केन्द्र हैं, बालिका शिक्षा की
   −
श्री ज्ञानसरस्वती मंदिर क्षेत्र बासर का क्षेत्रमहात्म्य
+
अवधि क्या हो ?, अध्ययन-अनुसंधान आवश्यक, समाज
   −
वाग्देवी, माँ वीणापाणि, शारदा, विद्यादायिनी आदि नामों से
+
संस्कृति का मूर्त स्वरूप है, समाज के बिगड़े सन्तुलन को ठीक
   −
स्मरण की जानेवाली मा वाणी अर्थात्‌ सरस्वतीजी के भारत में दो
+
करना है, हमारी रोच व्यापक हो
   −
ही प्राचीन देवस्थल माने जाते हैं । पहला आंध्र प्रदेश में जो महर्षि
+
गृहस्थाश्रम और शिक्षा 23%
   −
वेदव्यास द्वारा बनाया गया था । आंध्रप्रदेश के इस बासर स्थित
+
समावर्तन उपदेश, जीवन का अधिष्ठान सत्य और धर्म, गृहस्थ के
   −
वैद्किकालीन देवस्थल के बारे में कहा जाता है कि कुरुक्षेत्र युद्ध
+
कार्य अर्थार्जन एवं सन्तानोत्पत्ति, अध्ययन प्रयोग से परिपक्क होता
   −
से निराश और उदास होकर महर्षि व्यास, उनके पुत्र शुकदेवजी एवं
+
है, व्यवहार जीवन के अवरोध, संस्कार देने के कौशल, अपने
   −
अन्य अनुयायी दक्षिण की ओर तीर्थयात्रा पर चल पडे और
+
व्यवसाय में नये-नये प्रयोग करना, गृहस्थ मार्गदर्शक बने
   −
गोदावरी के तट पर तप के लिए उन्हों ने डेरा डाल दिया । उनके
+
प्रौढ़ावस्था की शिक्षा 2¥o
   −
निवास के कारण वह स्थान व्यासर कहा जाने लगा जो कालांतर
+
प्रस्तावना, जीवन की प्रत्येक अवस्था में शिक्षा का विचार, पुनः
   −
में बासर हो गया । क्षि व्यास नित्यप्रति जब स्नान करके आते
+
विद्याध्ययन की आयु, पुत्रात्‌ शिष्यात्‌ इच्छेतू पराजयम्‌,
   −
तो गोदावरी की तीन मुट्ठी बालू लाते थे और तीन ढेर बना देते
+
............. page-14 .............
   −
थे । बालू मे हल्दी का भी घोल मिलाया गया और फिर धीरे धीरे
+
8a.
   −
ये ढेर आकार लेते गये और इन्होंने तीन देवियों लक्ष्मी शारदा एवं
+
go.
   −
गौरी का रूप ले लिया |
+
Re.
   −
............. page-12 .............
+
88.
   −
मुखपृष्ठ परिचय
+
२०,
   −
यह सरस्वती यन्त्र है । मुखपृष्ठ पर चित्रित आकृति इसी सरस्वती यन्त्र का कलात्मक स्वरूप में किया हुआ प्रकटीकरण
+
२१.
   −
है । महाराष्ट्र प्रान्त में यह रंगोली के रूप में सरस्वती कही जाती है ।
+
22.
   −
माँ सरस्वती के भक्त उसकी उपासना सगुण और निर्गुण इन दोनों स्वरूपों में करते हैं । तब देवी इस सरस्वती यन्त्र के
+
१, निवृत्ति, २. वानप्रस्थ में करणीय अकरणीय का विवेक,
   −
माध्यम से विविध पहलुओं द्वारा साकार होती है और शीघ्रतासे भक्तों की कामनाएँ पूरी करती है ऐसी श्रद्धा है ।
+
३. ज्ञानसाधना एवं उपासना, ४. निरपेक्ष रूप से समाजसेवा
   −
यंत्र का विश्लेषण
+
वृद्धावस्था की शिक्षा wee
   −
श्,
+
वृद्धावस्था को रमणीय बनाना, वानप्रस्थिओं के दायित्व,
   −
वलयांकित रेखाएँ : इस यन्त्र में दिखाई देनेवाली वलयांकित रेखाएँ वीणावादन
+
युवावस्था का असंयम : वृद्धावस्था के रोग, विरक्ति का क्‍या
   −
करती हुई सरस्वती का कृतिरूप सूचित करती है । आकृति के १, २, रे, ४ ये अंक
+
अर्थ है ?, अनुप्रश्न
   −
देवी के निर्गुण स्तर के चार वेद हैं । ५, ६, ७ ये तीन अंक भगवती की इच्छाशक्ति
+
=== खण्ड २ : व्यवहारचिन्तन, ===
   −
क्रियाशक्ति एवं ज्ञानशक्ति के द्योतक हैं । ८, ९ ये दो अंक उसके Ga EN Ft
+
==== पर्व २ : गर्भावस्‍था एवं शिशुअवस्था की शिक्षा ====
 +
प्रस्तावना Sut,
   −
पहचान करवाते हैं । १० यह अंक कार्य के अंतिम स्वरूप अट्रैत का चिन्ह है ।
+
भारत परम्परा का देश, लेना कम देना अधिक, क्रण से उक्रण
   −
अ अक्षर शक्ति का उत्सर्जन और ग्रहण ब अक्षर कार्यशक्ति का प्रवाह तथा
+
होना, हमारी संस्कृति चिरंजीवी है
   −
क अक्षर मंडलाकार इच्छाशक्ति की तरंगों का प्रतिनिधित्व करते हैं ।
+
===== गर्भावस्‍था की शिक्षा gui9 =====
 +
पूर्व तैयारी, गर्भावस्‍था, प्रसूति और जन्म, जन्म के बाद
   −
आकृति में जो अंक है वह ज्ञानशक्ति के हाथों में जो वेद और जपमाला है उनका प्रतीक है ।
+
सन्तान मातापिता का चयन करती है श्घ्२
   −
यन्त्र में जो वृत्ताकार आकृति है वह भगवती के इच्छाशक्तिरूप मयूर वाहन का प्रतीक है । इस प्रकार यह यन्त्र सरस्वती
+
जन्मजन्मांतर और पुनर्जन्म, कर्मफल और पुनर्जन्म, मृत्यु के बाद
   −
के सगुण स्वरूप का प्रत्यक्ष रूप है । यह यन्त्र प्रतिमास अधिक सूक्ष्म स्तर पर कार्य करता है ।
+
दूसरा जन्म कैसे होता है, जन्म, पुनर्जन्म और कर्म का संबंध,
   −
इस यन्त्र में ४, ३े, २, १ इस क्रम से ज्यादा से कम की ओर अंकों की रचना की गयी है । वहाँ
+
सूक्ष्म शरीर अपने योग्य स्थूल शरीर ढूँढता है, मातापिता के हाथ
   −
१, २, रे, ४ इन अंकों से दर्शाया स्तर चारों वेदों की निर्गुण शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है
+
में क्या है
   −
, , ७ अंकों का दूसरा स्तर इच्छा, क्रिया एवं ज्ञानशक्ति रूप में सगुण शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है ।,
+
===== भारत में शिशुशिक्षा श्द9 =====
 +
, शिक्षा की प्राचीन परम्परा, २. शिशुशिक्षा की व्यवस्था,
   −
, ९ इन दो अंकों का स्तर od स्वरूप का कार्य है ।
+
३. पाश्चात्य देशों में शिशुशिक्षा की व्यवस्था, ४. वर्तमान भारत
   −
१० इस अंक का चौथा स्तर का अर्थ है कार्य पूर्ण होने पर अट्वैत स्वरूप में पुनः विलीन होना ।
+
में शिशुशिक्षा की स्थिति, ५. धार्मिक वातावरण में शिशुशिक्षा
   −
इस प्रकार इस यन्त्र में शक्ति का प्रवाह ऊपर से अर्थात्‌ निर्गुण स्तर से गतिमान होकर एक ही दिशा में कार्य करते अद्रैत
+
का स्वरूप, शिशु शिक्षा का पाठ्यक्रम, आत्मतत्त्व की अनुभूति
   −
शक्ति की प्राप्ति में सहायक होता है ।
+
हो, शिशुशिक्षा का विचार, शिशुशिक्षा का स्वरूप बदलना
   −
यन्त्र के ऊपर की पंक्ति में जो देवनागरी लिपि में एक (१) अंक लिखा दिखाई देता है वह आवश्यकतानुसार वैश्विक स्तर
+
शिशु की कुछ स्वाभाविक विशेषतायें ox
   −
पर शक्ति के ग्रहण और उत्सर्जन का परिचायक है ।
+
(१) विकास की इच्छा, (२) अन्तःप्रेरणा, (३) अनुकरण,
   −
यन्त्र में स्थित ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति एवं इच्छाशक्ति का परस्पर संबंध - इस अंक यन्त्र द्वारा श्री सरस्वती देवी का
+
(४) संस्कार, (५) जिज्ञासा, (६) पुनरावर्तन, (७) आनन्द,
   −
त्रिस्तरीय कार्य का यथार्थ बोध होता है ।
+
(८) निरुद्देश्य या निष्काम, (९) सक्रियता, (१०) सीखने के
   −
इस अंक यन्त्र में ज्ञानशक्ति सांख्यब्रह्म है । बीच के स्तर में वलयांकित रेखाओं से जुड़े हुए अंक क्रियाशक्ति के हलचल
+
साधनों की क्रमिक सक्रियता
   −
की दिशा स्पष्ट करते हैं । चक्राकार एवं वलयांकित रेखाएँ शक्ति के केंद्रीकरण की सूचक हैं, जो समग्रता का संकेत होकर
+
===== शिशुशिक्षा पाठ्यक्रम एवं क्रियाकलाप Rok =====
 +
उद्देश्य, १. जीवन का घनिष्ठतम अनुभव, २. संस्कार एवं
   −
प्रत्यक्ष इच्छाशक्ति से संबंधित हैं ।
+
चरित्रनिर्माण, 3. क्षमताओं का विकास, समग्र विकास के
   −
अंजलि गाडगील, अंतर्जाल पर उपलब्ध
+
आयामों के उल्लेखनीय बिन्दु, १. जीवन का घनिष्ठतम अनुभव,
   −
............. page-13 .............
+
. पंचमहाभूतों से परिचय एवं आत्मीय सम्बन्ध, २. इस सृष्टि के
   −
अनुक्रमणिका
+
साथ सम्बन्ध, रे. कला का आस्वाद, ४. वृक्ष, वनस्पति, कीट,
   −
०... मंगलाचरण
+
पतंग, पशुपक्षी आदि सजीव सृष्टि के साथ परिचय एवं सम्बन्ध ।,
   −
... अर्पण पत्रिका
+
. मानवसृष्टि का परिचय एवं अनुभव, २. संस्कार एवं चरित्र
   −
© सम्पादकीय
+
निर्माण, १. पूर्वजों की पहचान एवं उनसे प्रेरणा, २. संस्कृति
   −
&
+
परिचय एवं उससे प्रेरणा, ३. सद्गुण एवं सदाचार, ४. देशभक्ति,
   −
e = श्री ज्ञानसरस्वती मंदिर क्षेत्र बासर का क्षेत्रमहात्म्य 28
+
22.
   −
° मुखपृष्ठ परिचय
+
Qe.
   −
=== खण्ड १ : तत्त्वचिन्तन ===
+
Qu.
   −
प्रस्तावना 3
+
रे. क्षमताओं का विकास, उद्देश्य की पूर्ति, वातावरण,
   −
समग्रता का अर्थ
+
क्रियाकलाप, उद्देश्य एवं क्रियाकलाप का. समन्वय,
   −
सृष्टि परमात्मा का विश्वरूप है, अंगांगी सम्बन्ध, समग्रता की
+
, पंचमहाभूतों से सम्बन्ध एवं परिचय, २. पदार्थों के गुणधर्मों
   −
आवश्यकता, सृष्टि का समग्र स्वरूप, चिज्जडग्रन्थि, मनुष्य का
+
का परिचय, ३. संगीत, चित्र, शिल्प, स्थापत्य, साहित्य का
   −
दायित्व, अनुप्रश्न
+
रसास्वाद, ४. सजीव सृष्टि का परिचय एवं आत्मीय सम्बन्ध,
   −
विकास की वर्तमान संकल्पना एवं स्वरूप 83
+
५. मानवसृष्टि का परिचय, १. दैनन्दिन जीवन व्यवहार, २. मानव
   −
विकास से तात्पर्य, विकास और विज्ञान, विकास का आर्थिक
+
स्वभाव एवं सम्बन्ध, शारीरिक क्षमताओं का विकास, १. हाथ,
   −
पक्ष, विकास का धार्मिक पक्ष, धर्म विषयक स्पष्टताएँ, विकास
+
२. पैर, ३. वाणी, ४. एकाग्रता, ५. सन्तुलन, ६. भावना,
   −
और स्पर्धा, विकास और यास्त्रकीकरण
+
७. स्मृति, तर्क, अनुमान आदि, ८. भाषा, ९. सृजनशीलता,
   −
'विकास की भारतीय संकल्पना एवं स्वरूप ३१
+
१०, सौन्दर्यबोध, १, विज्ञान प्रयोसशाला, २. चित्र पुस्तकालय,
   −
समन्वित विकास
+
3. वस्तु संग्रहालय, शिशुवाटिका के क्रियाकलाप जीवन का
   −
व्यक्तित्व मीमांसा WS
+
घनिष्ठतम अनुभव, मिट्टी, पानी, वायु, सूर्यप्रकाश, आकाश,
   −
व्यक्तित्व की अवधारणा, अन्नरसमय आत्मा, प्राणमय आत्मा,
+
पदार्थों के गुणधर्मों का परिचय, संगीत, चित्र, शिल्प, स्थापत्य,
   −
प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, धनंजय, देवदत्त, नाग,
+
साहित्य आदि ललिल कलाओं का रसास्वादन, वृक्षवनस्पति,
   −
कृकल, कूर्म, मनोमय आत्मा, विज्ञानमय आत्मा, आनन्दमय
+
कीटपतंग, पशुपक्षी आदि सजीव सृष्टि का परिचय एवं आत्मीय
   −
आत्मा, आनन्दमय आत्मा बुद्धि से परे है
+
सम्बन्ध, मानवसृष्टि का परिचय एवं अनुभव, संस्कार एवं चरित्र
   −
पंचात्मा विवरण पद
+
निर्माण, पूर्वजों की पहचान एवं उनसे प्रेरणा, संस्कृति परिचय एवं
   −
अन्नमय आत्मा, प्राणमय आत्मा, मनोमय आत्मा, मन को ठीक
+
उससे प्रेरणा, सद्गुण एवं सदाचार, देशभक्ति, क्षमताओं का
   −
करने के उपाय, विज्ञानमय आत्मा, आनन्दमय आत्मा
+
विकास, दौड़ना, Hel, SAT लगाना, चढ़ना-उतरना,
   −
व्यक्तित्व विकास : स्वरूप एवं विकास के कारक तत्त्व ७०
+
सन्तुलन, पकड़ना, फैंकना, खींचना, धकेलना, दबाना, झेलना,
   −
आहार, भाषा, दिनचर्या, श्रम, काम और परिश्रम, सेवा आर
+
उठाना, बोलना, मानसिक क्षमताएं, एकाग्रता, मानसिक
   −
परिचर्या, जानकारी और शाख्त्ज्ञान, अन्नमय आत्मा, प्राणमय
+
सन्तुलन, भावना, बौद्धिक क्षमताएँ, स्मृति, धारणा, प्रेम, सौंदर्य,
   −
आत्मा, मनोमय आत्मा, विज्ञानमय आत्मा, आनन्दमय आत्मा
+
आनंद, सृजनशीलता
   −
अध्यास और बोध ८१
+
शिशु के लिये समय निकालकर इतना करें १८६
   −
देहाध्यास, प्राणाध्यास, मनो5ध्यास, बुट्ध्यध्यास, आनन्दाध्यास,
+
=== खण्ड २ व्यवहारचिन्तन, ===
   −
बोध
+
==== पर्व ३ : बाल एवं किशोर अवस्था की शिक्षा ====
   −
TRAST sik cape og
+
'प्रस्तावना 883
   −
मनुष्य और सृष्टि, १. प्रेम, २. कृतज्ञता, रे. दोहन, ४. रक्षण,
+
बालशिक्षा के प्रमुख आयाम 883
   −
मनुष्य और समष्टि, व्यक्ति और कुटुम्ब, व्यक्ति और समुदाय,
+
, जल्दी नहीं करना, २. बस्ते का महासंकट, रे. क्रिया आधारित
   −
आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु पुरुषार्थ, समुदाय को ज्ञानवान बनाने
+
शिक्षा, ४. अनुभव आधारित शिक्षा, ५. भाव आधारित शिक्षा,
   −
20,
+
६. सद्गुण और सदाचार की शिक्षा, ७. कोई भी काम भाव से
   −
88.
+
aa, बाल. अवस्था. की... क्रमिकता समझना,
   −
82.
+
. बालशिक्षा की पाठन पद्धति के प्रमुख आयाम,
   −
83.
+
. कंठस्थीकरण, २. अभ्यास, रे. कौशलों का विकास,
   −
ge.
+
४, स्वतंत्रता, कल्पनाशीलता, सृजनशीलता, १०. बालशिक्षा में
   −
Ru.
+
नित्य नियमित क्या क्या होना चाहिये, १. खेल, २. उद्योग,
   −
श्र
+
रे. पुस्तकालय, ४. कथा-कथन, ११. बालकों को किससे बचाना
   −
हेतु शिक्षा की व्यवस्था, व्यवस्था बनाये रखने हेतु न्याय, दण्ड,
+
चाहिये, १. टीवी, २. बस्ते का बोझ, ३. बहुत ज्यादा लिखना
   −
शासन और प्रशासन की व्यवस्था, व्यक्ति और राष्ट्र, व्यक्ति और
+
पढ़ना, ४. स्पर्धा, ५. परीक्षा, १२. बालशिक्षा की पाठ्यविषयवस्तु
   −
faa, wat
+
............. page-15 .............
   −
=== खण्ड २ : व्यवहारचिन्तन, ===
+
२६.
   −
==== पर्व : समग्र विकास हेतु शिक्षायोजना ====
+
के सन्दर्भ, . व्यक्तित्व विकास, शारीरिक विकास, प्राणिक
   −
प्रस्तावना श्ण्प्‌
+
विकास, मानसिक विकास, बुद्धि विकास, चैतसिक विकास,
   −
शिक्षा के उद्देश्य, सम्पूर्ण चराचर सृष्टि में सामंजस्य, सम्पूर्ण विश्व
+
२. परमेष्टीगत विकास, परिवारगत विकास, समाजगत विकास,
   −
संकटमुक्त हो
+
देशगत विकास, विश्वगत विकास, सृष्टिगत विकास, परमेष्टीगत
   −
उद्देश्य के अनुरूप शिक्षायोजना oR
+
विकास, १३. विद्यालय और घर, समापन, अनुप्रश्न
   −
शिशु शिक्षा से उच्च शिक्षा का एक साथ विचार होगर्भावसथा से
+
समग्र विकास पाठ्यक्रम : प्रारम्भ के दो वर्ष 208
   −
युवावस्था तक की, शिक्षा का आन्तर्सम्बन्ध
+
आचार्य अभिभावक निर्देशिका, संदर्भ, पाठ्यक्रम, १. श्वसन,
   −
युवावस्था से गर्भावस्‍था की शिक्षा श्श्२
+
२. शुद्धिक्रिया, ३. आचार (पूजा), ४. जप करना, ५. कीर्तन
   −
पाठ्यक्रमों की रचना करना, लोकज्ञान को परिष्कृत करना,
+
करना, ६. सेवा, ७. मंत्रपाठ, ८. स्तोत्र या स्तुति, ९. आसन,
   −
ज्ञानरक्षा का दायित्व, सम्पूर्ण शिक्षाव्यवस्था का केन्द्र विद्यापीठ,
+
Qo, UMM एवं सदाचार, ११. ध्यान, १२, & Ai,
   −
किशोर अवस्था की शिक्षा, बाल अवस्था की शिक्षा, शिशु
+
, श्वसन, २. शुद्धिक्रिया :, ३. आचार, ध्यान में रखने योग्य
   −
अवस्था की शिक्षा, गर्भावस्‍था की शिक्षा
+
बातें, २. फूल चढ़ाना, ३े. चंदन घिसना, ४. यज्ञ में आहूति देना,
   −
शिक्षायोजना : अनुप्रश्न RRC
+
५. नैवेद्य चढ़ाना, ६. कीर्तन करना, रेखा खींचना (कौशल) ,
   −
पुररचना का प्रारम्भ कहाँ से करना, विपरीत परिस्थिति में निराश
+
काटना (कौशल), तह करना (कौशल), चिपकाना (कौशल) ,
   −
न होना, विद्यालय व घर दोनों शिक्षा केन्द्र हैं, बालिका शिक्षा की
+
ईंट तैयार करना, क्रियाकलाप, पिरोना, सिलाई करना, कढ़ाई
   −
अवधि क्या हो ?, अध्ययन-अनुसंधान आवश्यक, समाज
+
करना, गूँथना (कौशल), बिनौला छिलना, कपास निकालना,
   −
संस्कृति का मूर्त स्वरूप है, समाज के बिगड़े सन्तुलन को ठीक
+
रूई धुनना, बुनाई करना, चित्र, छीलना, मसलना, बीनना,
   −
करना है, हमारी रोच व्यापक हो
+
गूँधना, चुनना, चूरना, बुनना, मथना, हिलाना, निचोड़ना,
   −
गृहस्थाश्रम और शिक्षा 23%
+
थापना, घीसना, कूटना, रगड़ना (कौशल), कृषि, प्रत्यक्ष
   −
समावर्तन उपदेश, जीवन का अधिष्ठान सत्य और धर्म, गृहस्थ के
+
सिखाते समय, काटना, तह करना, चिपकाना, इँटें पकाना,
   −
कार्य अथर्जिन एवं सन्तानोत्पत्ति, अध्ययन प्रयोग से परिपक्क होता
+
पिरोना, कढ़ाई करना, गूँथना, कपास के बिनौले छीलना, बीज
   −
है, व्यवहार जीवन के अवरोध, संस्कार देने के कौशल, अपने
+
निकालना, रूई धुनना, बत्ती बनाना, चित्र बनाना एवं रंग भरना,
   −
व्यवसाय में नये-नये प्रयोग करना, गृहस्थ मार्गदर्शक बने
+
रसोई के कार्य, कृषि, उद्देश्य, संदर्भ, भाषा सीखना क्या है,
   −
प्रौढ़ावस्था की शिक्षा 2¥o
+
३. पाठ्यक्रम, विवरण, १. भाषण, २. वाचन, हे. लेखन,
   −
प्रस्तावना, जीवन की प्रत्येक अवस्था में शिक्षा का विचार, पुनः
+
४. शब्द रचना एवं शब्द संयोजन, उद्देश्य, संदर्भ, पाठ्यक्रम,
   −
विद्याध्ययन की आयु, पुत्रात्‌ शिष्यात्‌ इच्छेतू पराजयम्‌,
+
क्रियाकलाप, छात्रों को किस प्रकार संगीत सुनाया जाए।,
   −
............. page-14 .............
+
. गायन, २. स्वर साधना, ३. अलंकारों का अभ्यास, ४. मंत्र,
   −
8a.
+
सूत्र एवं श्लोकपाठ, ५. ताली बजाना, ६. सामान्य ताल एवं
   −
go.
+
बोल, ७. विविध एवं चित्रविचित्र उच्चारणों के साथ स्वर एवं
   −
Re.
+
ताल का अभ्यास।, ८. वाद्यों का वादन, ९. घोषवादन,
   −
88.
+
१०, नर्तन अथवा नृत्य, ११, शास्त्रीय नृत्य, १२. योगचाप
   −
२०,
+
(लेजिम) एवं मितकाल, १३. संगीत समारोह, प्रस्तावना,
   −
२१.
+
पाठ्यक्रम, विवरण, १. पूर्वजों का परिचय, २. अपने देशका
   −
22.
+
परिचय प्राप्त करना, हे. पर्यावरण की सुरक्षा करना, ४. प्रकृति
   −
१, निवृत्ति, . वानप्रस्थ में करणीय अकरणीय का विवेक,
+
का परिचय प्राप्त करना, . सामाजिक उत्सवों एवं पर्वों के बारे
   −
. ज्ञानसाधना एवं उपासना, . निरपेक्ष रूप से समाजसेवा
+
में जानना, ७. दान एवं सेवा के लिए तत्पर रहना, . परिवार की
   −
वृद्धावस्था की शिक्षा wee
+
सेवा, क्रियाकलाप, कार्यक्रम एवं Weed, १. क्रियाकलाप,
   −
वृद्धावस्था को रमणीय बनाना, वानप्रस्थिओं के दायित्व,
+
२. कार्यक्रम, रे. प्रकल्प, ४. व्यवस्थाएँ, उद्देश्य, संदर्भ,
   −
युवावस्था का असंयम : वृद्धावस्था के रोग, विरक्ति का क्‍या
+
पाठ्यक्रम, विवरण, १. पदार्थ विज्ञान, २. भूगोल, ३. खगोल,
   −
अर्थ है ?, अनुप्रश्न
+
४. रसायन शास्त्र, ५. वनस्पति विज्ञान, ६. प्राणी विज्ञान, उद्देश्य,
   −
=== खण्ड २ : व्यवहारचिन्तन, ===
+
श७.
   −
==== पर्व २ : गर्भावस्‍था एवं शिशुअवस्था की शिक्षा ====
+
२८.
   −
==== प्रस्तावना Sut, ====
+
8.
भारत परम्परा का देश, लेना कम देना अधिक, क्रण से उक्रण
     −
होना, हमारी संस्कृति चिरंजीवी है
+
७. वैज्ञानिकों का परिचय, ८. विज्ञान कथाएँँ, संदर्भ, पाठ्यक्रम,
   −
==== गर्भावस्‍था की शिक्षा gui9 ====
+
विस्तार, १. याद करना, २. गणना करना (गिनती करना) ,
पूर्व तैयारी, गर्भावस्‍था, प्रसूति और जन्म, जन्म के बाद
     −
सन्तान मातापिता का चयन करती है श्घ्२
+
रे. संकल्पना समझना, उद्देश्य, पाठ्यक्रम, ३. शरीर का संतुलन
   −
जन्मजन्मांतर और पुनर्जन्म, कर्मफल और पुनर्जन्म, मृत्यु के बाद
+
व संचालनन, ४. शरीर परिचय, ५. आहार विहार, विहार,
   −
दूसरा जन्म कैसे होता है, जन्म, पुनर्जन्म और कर्म का संबंध,
+
विवरण, १. शरीरकी भिन्न भिन्न स्थितियाँ, २. खड़े रहना,
   −
सूक्ष्म शरीर अपने योग्य स्थूल शरीर ढूँढता है, मातापिता के हाथ
+
३. चलना, ४. उठना, ४. सोना, २ (क) ज्ञानिन्द्रियाँ, १. आँख,
   −
में क्या है
+
२. कान, ३. नाक, ४. जिद्दा, ५. त्वचा, २ (ख) कर्मेन्द्रियाँ,
   −
==== भारत में शिशुशिक्षा श्द9 ====
+
हाथ, १, फैंकना, . शारीरिक संतुलन व संचालन, ४. शरीर
१, शिक्षा की प्राचीन परम्परा, . शिशुशिक्षा की व्यवस्था,
     −
. पाश्चात्य देशों में शिशुशिक्षा की व्यवस्था, . वर्तमान भारत
+
परिचय, ५. आहार-विहार, १. आहार, २. दिनचर्या, . कपड़े
   −
में शिशुशिक्षा की स्थिति, . भारतीय वातावरण में शिशुशिक्षा
+
व जूते, . शुद्धिक्रिया, निर्देशिका अनुप्रश्न
   −
का स्वरूप, शिशु शिक्षा का पाठ्यक्रम, आत्मतत्त्व की अनुभूति
+
किशोर अवस्था की शिक्षा Ek
   −
हो, शिशुशिक्षा का विचार, शिशुशिक्षा का स्वरूप बदलना
+
=== खण्ड २ : व्यवहारचिन्तन, ===
   −
शिशु की कुछ स्वाभाविक विशेषतायें ox
+
==== पर्व ४ : पाठ्यक्रमों की रूपरेखा एवं पठन सामग्री ====
 +
प्रस्तावना Ro
   −
() विकास की इच्छा, (२) अन्तःप्रेरणा, (३) अनुकरण,
+
१, अध्यात्मशास्त्र २६९
   −
(४) संस्कार, (५) जिज्ञासा, (६) पुनरावर्तन, (७) आनन्द,
+
पाठ्यक्रम, विभाग १ : बुद्धि का क्षेत्र, विश्वविद्यालयीन स्तर पर,
   −
(८) निरुद्देश्य या निष्काम, (९) सक्रियता, (१०) सीखने के
+
किशोर अवस्था अर्थात्‌ माध्यमिक विद्यालयीन स्तर, बाल
   −
साधनों की क्रमिक सक्रियता
+
अवस्था में पठनीय बातें, शिशु अवस्था में, गर्भावस्था में, विभाग
   −
==== शिशुशिक्षा पाठ्यक्रम एवं क्रियाकलाप Rok ====
+
२ अनुभूति का क्षेत्र
उद्देश्य, १. जीवन का घनिष्ठतम अनुभव, २. संस्कार एवं
     −
चरित्रनिर्माण, 3. क्षमताओं का विकास, समग्र विकास के
+
पठनसामग्री, . सबमें भगवान, २. बीज और पेड़ की कविता,
   −
आयामों के उल्लेखनीय बिन्दु, . जीवन का घनिष्ठतम अनुभव,
+
पक्षी कहता है..., मछली कहती है... गुरुजी कहते हैं... रे.
   −
. पंचमहाभूतों से परिचय एवं आत्मीय सम्बन्ध, २. इस सृष्टि के
+
स्वतंत्रता, गुरुजी कहते हैं... गुरुजी कहते हैं..., गुरुजी कहते
   −
साथ सम्बन्ध, रे. कला का आस्वाद, ४. वृक्ष, वनस्पति, कीट,
+
हैं..., चक्र को समझें और चक्र को बनायें रखें, ४. पूरी दुनिया
   −
पतंग, पशुपक्षी आदि सजीव सृष्टि के साथ परिचय एवं सम्बन्ध ।,
+
गोल, दूध है सर्वोत्तम, आखिर हैं सोने के गहने, ५. दिखता भिन्न
   −
५. मानवसृष्टि का परिचय एवं अनुभव, २. संस्कार एवं चरित्र
+
होता एक, सबमें पानी निर्मल, आखिर तो है जगन्माता, कपास
   −
निर्माण, १. पूर्वजों की पहचान एवं उनसे प्रेरणा, २. संस्कृति
+
की महिमा, मैं ही तो हूँ, मैं अर्थात्‌ मैं, अकेले अच्छा नहीं
   −
परिचय एवं उससे प्रेरणा, . सद्गुण एवं सदाचार, ४. देशभक्ति,
+
लगता, . मैं... अनन्त, मेरी तपस्या, चिति, चिति और मैं,
   −
22.
+
fafa और प्रकृति, महत्‌, चिति, प्रकृति और महत्‌, अहंकार,
   −
Qe.
+
चिति और अहंकार, मैं और अहंकार, मन, मनके तूफान,
   −
Qu.
+
पंचमहाभूत, पंचमहाभूत, चिति और मैं, आप और मैं,
   −
रे. क्षमताओं का विकास, उद्देश्य की पूर्ति, वातावरण,
+
किशोरावस्था, भगवान ही सबकुछ, तीन गुण, ७. अष्टधा
   −
क्रियाकलाप, उद्देश्य एवं क्रियाकलाप का. समन्वय,
+
प्रकृति, मन, बुद्धि, अहंकार, बालअवस्था, भगवान कौन है,
   −
, पंचमहाभूतों से सम्बन्ध एवं परिचय, २. पदार्थों के गुणधर्मों
+
जादू का चश्मा, ८. जहाँ देखो वहाँ 3, छोटा बडा सब 3३%,
   −
का परिचय, ३. संगीत, चित्र, शिल्प, स्थापत्य, साहित्य का
+
अच्छा बुरा सब 3, सब कुछ 3», सभी देव एक, काम करते
   −
रसास्वाद, ४. सजीव सृष्टि का परिचय एवं आत्मीय सम्बन्ध,
+
समय क्या होता है, हमारा काम क्या है, काम करते समय क्या
   −
. मानवसृष्टि का परिचय, १. दैनन्दिन जीवन व्यवहार, २. मानव
+
विचार करना, ९. गीता, काम क्यों नहीं करना, काम करते
   −
स्वभाव एवं सम्बन्ध, शारीरिक क्षमताओं का विकास, १. हाथ,
+
समय क्या ध्यान में रखना, अपना काम करना ही है, काम नहीं
   −
२. पैर, ३. वाणी, ४. एकाग्रता, ५. सन्तुलन, ६. भावना,
+
करने के बहाने मत बनाओ
   −
. स्मृति, तर्क, अनुमान आदि, ८. भाषा, ९. सृजनशीलता,
+
............. page-16 .............
   −
१०, सौन्दर्यबोध, १, विज्ञान प्रयोसशाला, २. चित्र पुस्तकालय,
+
30,
   −
3. वस्तु संग्रहालय, शिशुवाटिका के क्रियाकलाप जीवन का
+
38.
   −
घनिष्ठतम अनुभव, मिट्टी, पानी, वायु, सूर्यप्रकाश, आकाश,
+
aR.
   −
पदार्थों के गुणधर्मों का परिचय, संगीत, चित्र, शिल्प, स्थापत्य,
+
EED
   −
साहित्य आदि ललिल कलाओं का रसास्वादन, वृक्षवनस्पति,
+
3%.
   −
कीटपतंग, पशुपक्षी आदि सजीव सृष्टि का परिचय एवं आत्मीय
+
Rh.
   −
सम्बन्ध, मानवसृष्टि का परिचय एवं अनुभव, संस्कार एवं चरित्र
+
Re.
   −
निर्माण, पूर्वजों की पहचान एवं उनसे प्रेरणा, संस्कृति परिचय एवं
+
30.
   −
उससे प्रेरणा, सद्गुण एवं सदाचार, देशभक्ति, क्षमताओं का
+
3¢.
   −
विकास, दौड़ना, Hel, SAT लगाना, चढ़ना-उतरना,
+
२. धर्मशास्त्र २९०
   −
सन्तुलन, पकड़ना, फैंकना, खींचना, धकेलना, दबाना, झेलना,
+
पाठ्यक्रम, सन्दर्भ, अध्ययन और अनुसंधान हेतु विद्वत क्षेत्र,
   −
उठाना, बोलना, मानसिक क्षमताएं, एकाग्रता, मानसिक
+
महाविद्यालयीन शिक्षा, किशोरवयीन शिक्षा, बालवयीन शिक्षा,
   −
सन्तुलन, भावना, बौद्धिक क्षमताएँ, स्मृति, धारणा, प्रेम, सौंदर्य,
+
शिशु अवस्था, गर्भावस्था में शिक्षा, १. टी.वी. की पराजय, यज्ञ
   −
आनंद, सृजनशीलता
+
का अर्थ क्या है ?, अलग अलग यज्ञ, २. यज्ञ, ३. बात तो खरी
   −
शिशु के लिये समय निकालकर इतना करें १८६
+
है, ४. असली क्या नकली क्या, ५. सिर दियाँ रूख बचे तो भी
   −
=== खण्ड २ व्यवहारचिन्तन, ===
+
सस्तो जाण !, ६. धर्मदृष्टि, ७. प्रदक्षिणा, ८. धर्मशास्त्र स्मृतियाँ
   −
==== पर्व ३ : बाल एवं किशोर अवस्था की शिक्षा ====
+
एवं पुराण, ९. हिन्दूधर्म की आन्तरिक शक्ति, पाठ्यक्रम
   −
'प्रस्तावना 883
+
३. समाजशास्त्र 308
   −
बालशिक्षा के प्रमुख आयाम 883
+
पाठ्यक्रम,  महाविद्यालयीन स्तर, किशोरावस्था अर्थात
   −
, जल्दी नहीं करना, २. बस्ते का महासंकट, रे. क्रिया आधारित
+
माध्यमिक शिक्षा हेतु, बाल अवस्था अर्थात प्राथमिक स्तर हेतु,
   −
शिक्षा, ४. अनुभव आधारित शिक्षा, ५. भाव आधारित शिक्षा,
+
शिशु अवस्था के लिये, गर्भावस्‍था के लिये, , पादत्राण की
   −
. सद्गुण और सदाचार की शिक्षा, . कोई भी काम भाव से
+
खोज, २. पैरों चलने की महिमा, . करोड़पति साइकिलवाला,
   −
aa, बाल. अवस्था. की... क्रमिकता समझना,
+
सामाजिक अभियान का मूल-कॉपेनहेगन १९९७, समाज में
   −
. बालशिक्षा की पाठन पद्धति के प्रमुख आयाम,
+
परिवर्तन, उपदेश-सलाह-कृति, सामाजिक कीमत, ४. अंग्रेजों ने
   −
१. कंठस्थीकरण, २. अभ्यास, रे. कौशलों का विकास,
+
लिखा भारत का विकृत इतिहास, . विचारणीय एवं करणीय
   −
४, स्वतंत्रता, कल्पनाशीलता, सृजनशीलता, १०. बालशिक्षा में
+
कुछ बातें
   −
नित्य नियमित क्या क्या होना चाहिये, १. खेल, २. उद्योग,
+
. शिक्षाशास्त्र ३१०
   −
रे. पुस्तकालय, ४. कथा-कथन, ११. बालकों को किससे बचाना
+
पाठ्यक्रम, सन्दर्भ, पाठ्यक्रम
   −
चाहिये, १. टीवी, २. बस्ते का बोझ, ३. बहुत ज्यादा लिखना
+
. गृहशास्त् ३१२
   −
पढ़ना, ४. स्पर्धा, ५. परीक्षा, १२. बालशिक्षा की पाठ्यविषयवस्तु
+
पाठ्यक्रम, सन्दर्भ, पाठ्यक्रम, महाविद्यालयीन स्तर, विद्यालयीन
   −
............. page-15 .............
+
स्तर अर्थात किशोरवयीन छात्रों हेतु, बाल अवस्था हेतु, शिशु
   −
२६.
+
अवस्था हेतु, गर्भावस्था हेतु
   −
के सन्दर्भ, १. व्यक्तित्व विकास, शारीरिक विकास, प्राणिक
+
. वरवधूचयन और विवाहसंस्कार Bey
   −
विकास, मानसिक विकास, बुद्धि विकास, चैतसिक विकास,
+
पाठ्यक्रम, विवाहविषयक पाश्चात्य एवं धार्मिक दृष्टिकोण,
   −
२. परमेष्टीगत विकास, परिवारगत विकास, समाजगत विकास,
+
पाश्चात्य दृष्टिकोण, धार्मिक दृष्टिकोण, गृहस्थाश्रम : पति पत्नी
   −
देशगत विकास, विश्वगत विकास, सृष्टिगत विकास, परमेष्टीगत
+
का सम्बन्ध
   −
विकास, १३. विद्यालय और घर, समापन, अनुप्रश्न
+
. अधिजननशास्त्र ३१५
   −
समग्र विकास पाठ्यक्रम : प्रारम्भ के दो वर्ष 208
+
पाठ्यक्रम, १. लवकुश की लोरी, २. माता मदालसा की छोरी,
   −
आचार्य अभिभावक निर्देशिका, संदर्भ, पाठ्यक्रम, १. श्वसन,
+
रे. शुद्ध भोजन, पाठ्यक्रम
   −
. शुद्धिक्रिया, ३. आचार (पूजा), ४. जप करना, ५. कीर्तन
+
. परिवारशिक्षा : शिशु शिक्षा की दृष्टि से ३१९
   −
करना, ६. सेवा, ७. मंत्रपाठ, ८. स्तोत्र या स्तुति, . आसन,
+
, चलो आज हम नियम बनाएँ, . भारतमाता तुझे प्रणाम
   −
Qo, UMM एवं सदाचार, ११. ध्यान, १२, & Ai,
+
. राजशास्त्र 323
   −
, श्वसन, २. शुद्धिक्रिया :, ३. आचार, ध्यान में रखने योग्य
+
पाठ्यक्रम, विशेष
   −
बातें, २. फूल चढ़ाना, ३े. चंदन घिसना, ४. यज्ञ में आहूति देना,
+
१०, अर्थशास्त्र aw
   −
५. नैवेद्य चढ़ाना, ६. कीर्तन करना, रेखा खींचना (कौशल) ,
+
पाठ्यक्रम, महाविद्यालयीन स्तर तथा विद्वतक्षेत्र, अनुसंधान हेतु
   −
काटना (कौशल), तह करना (कौशल), चिपकाना (कौशल) ,
+
विषयों की सूची, महाविद्यालयीन स्तर पर पाठ्यक्रम, १.
   −
ईंट तैयार करना, क्रियाकलाप, पिरोना, सिलाई करना, कढ़ाई
+
तत्त्वचिंतन, २. व्यापक आकलन, ३. व्यवहार चिन्तन, ४.
   −
करना, गूँथना (कौशल), बिनौला छिलना, कपास निकालना,
+
प्रायोगिक कार्य, विद्यालयीन शिक्षा, खरीदी करने का कौशल,
   −
रूई धुनना, बुनाई करना, चित्र, छीलना, मसलना, बीनना,
+
दृष्टिकोण विकसित करना, प्राथमिक विद्यालय में पाठ्यक्रम,
   −
गूँधना, चुनना, चूरना, बुनना, मथना, हिलाना, निचोड़ना,
+
आदतें बनाने हेतु नियामवली, मातापिता की शिक्षा के आयाम,
   −
थापना, घीसना, कूटना, रगड़ना (कौशल), कृषि, प्रत्यक्ष
+
, कुशल हाथ, हाथ, कुशल कारीगर, शरीर की स्वच्छता, घर
   −
सिखाते समय, काटना, तह करना, चिपकाना, इँटें पकाना,
+
के काम, सबके लिये उपयोगी, कुशल हाथ, Get, Wa sk
   −
पिरोना, कढ़ाई करना, गूँथना, कपास के बिनौले छीलना, बीज
+
यंत्र, वाहन चलाना, कारीगरी के काम, वाद्यवादन, सेवा शुश्रूषा,
   −
निकालना, रूई धुनना, बत्ती बनाना, चित्र बनाना एवं रंग भरना,
+
संकटों से रक्षा, भावनाओं का आविष्कार, २. यह कैसी गणना,
   −
रसोई के कार्य, कृषि, उद्देश्य, संदर्भ, भाषा सीखना क्या है,
+
३. साध्य साधन विवेक, ४. प्रचंड गार्बज का देश, अमेरिका, ५.
   −
३. पाठ्यक्रम, विवरण, १. भाषण, २. वाचन, हे. लेखन,
+
विकसित देश, पाठ्यक्रम, १. गोविषयक संस्कार, २. जन्म से ३
   −
४. शब्द रचना एवं शब्द संयोजन, उद्देश्य, संदर्भ, पाठ्यक्रम,
+
वर्ष तक, रे. रे से ५ वर्ष, ४. आयु ६ एवं ७ वर्ष
   −
क्रियाकलाप, छात्रों को किस प्रकार संगीत सुनाया जाए।,
+
३९. ११. गोविज्ञान ३३८
   −
१. गायन, २. स्वर साधना, ३. अलंकारों का अभ्यास, ४. मंत्र,
+
आयु ८ से १० वर्ष, आयु ११ से १३ वर्ष, आयु १४ से १७ वर्ष,
   −
सूत्र एवं श्लोकपाठ, ५. ताली बजाना, ६. सामान्य ताल एवं
+
महाविद्यालयीन शिक्षा, अध्ययन के विषयनवकृति, अनुसन्धान,
   −
बोल, . विविध एवं चित्रविचित्र उच्चारणों के साथ स्वर एवं
+
, हम है धार्मिक गायें, २. देशी और विदेशी गाय का अन्तर,
   −
ताल का अभ्यास।, ८. वाद्यों का वादन, . घोषवादन,
+
अद्भुत गाय, गाय की Asya A, 3. अद्भुत गाय
   −
१०, नर्तन अथवा नृत्य, ११, शास्त्रीय नृत्य, १२. योगचाप
+
४०... ११. विज्ञान डेप
   −
(लेजिम) एवं मितकाल, १३. संगीत समारोह, प्रस्तावना,
+
पाठ्यक्रम, ब्रह्माण्ड, पंचकोश, पंचमहाभूत, १. पंचतत्त्व,
   −
पाठ्यक्रम, विवरण, १. पूर्वजों का परिचय, २. अपने देशका
+
पंचकर्मेन्ट्रिय, पंचज्ञानेन्द्रिय, पंचप्राण, पंचउपप्राण, पंच तन्‍्मात्रा,
   −
परिचय प्राप्त करना, हे. पर्यावरण की सुरक्षा करना, . प्रकृति
+
किशोरअवस्था, . ६४ कलाएँ, रे. सर्वे भवन्तु सुखिनः और
   −
का परिचय प्राप्त करना, . सामाजिक उत्सवों एवं पर्वों के बारे
+
यंत्र का उपयोग, दे. अध्यात्महीन विज्ञान के दुष्परिणाम,
   −
में जानना, ७. दान एवं सेवा के लिए तत्पर रहना, ८. परिवार की
+
उच्चशिक्षा
   −
सेवा, क्रियाकलाप, कार्यक्रम एवं Weed, १. क्रियाकलाप,
+
४१... विभिन्न विषयों हेतु शोधविषयों की सूची 343
   −
. कार्यक्रम, रे. प्रकल्प, ४. व्यवस्थाएँ, उद्देश्य, संदर्भ,
+
४२... पाठ्यक्रम समीक्षा Bug
   −
पाठ्यक्रम, विवरण, १. पदार्थ विज्ञान, . भूगोल, ३. खगोल,
+
=== खण्ड : व्यवहारचिन्तन, ===
   −
. रसायन शास्त्र, ५. वनस्पति विज्ञान, ६. प्राणी विज्ञान, उद्देश्य,
+
=== पर्व ५ : कार्ययोजना ===
 +
४३... करणीय प्रयास 3&3
   −
श७.
+
समग्र विकास प्रतिमान
   −
२८.
+
vx. स्वप्नसिद्धि ३७१
   −
8.
+
प्रथम तप नैमिषारण्य, द्वितीय तप लोकमतपरिष्कार, तृतीय
   −
७. वैज्ञानिकों का परिचय, ८. विज्ञान कथाएँ, संदर्भ, पाठ्यक्रम,
+
तप परिवारसुद्रढीकरण, परिवार शिक्षा : पाठ्यक्रम, चतुर्थ
   −
विस्तार, १. याद करना, २. गणना करना (गिनती करना) ,
+
तप शिक्षकनिर्माण, पंचम तप विद्यालयों का प्रारम्भ
   −
रे. संकल्पना समझना, उद्देश्य, पाठ्यक्रम, ३. शरीर का संतुलन
+
४५... समापन ३९०
   −
व संचालनन, ४. शरीर परिचय, ५. आहार विहार, विहार,
+
परिशिष्ट
   −
विवरण, १. शरीरकी भिन्न भिन्न स्थितियाँ, २. खड़े रहना,
+
१... सन्दर्भ ग्रन्थ सूची ३९३
   −
. चलना, ४. उठना, ४. सोना, २ (क) ज्ञानिन्द्रियाँ, . आँख,
+
... लेखकों, सम्पादकों व संकलन कर्ताओं की सूची. ३९४
   −
. कान, ३. नाक, ४. जिद्दा, ५. त्वचा, २ (ख) कर्मेन्ट्रियाँ,
+
३. .... पाठ्यक्रमों की रूपरेखा निर्माणकर्ताओं की सूची... ३९६
   −
हाथ, १, फैंकना, ३. शारीरिक संतुलन व संचालन, ४. शरीर
+
४... ग्रन्थ अनुक्रमणिका ३९७
   −
परिचय, ५. आहार-विहार, १. आहार, २. दिनचर्या, ३. कपड़े
+
५. .... पुनरुत्थान विद्यापीठ ¥ok
   −
व जूते, ४. शुद्धिक्रिया, निर्देशिका अनुप्रश्न
+
. ... प्रकाशनसूची ¥o¥
   −
किशोर अवस्था की शिक्षा Ek
+
............. page-17 .............
   −
खण्ड २ : व्यवहारचिन्तन,
+
we : १ तत्त्वचिन्तन
   −
पर्व ४ : पाठ्यक्रमों की रूपरेखा एवं पठन सामग्री
+
खण्ड १
   −
प्रस्तावना Ro
+
तत्त्वचिन्तन
   −
१, अध्यात्मशास्त्र २६९
+
धार्मिक ज्ञानधारा का आधार लेकर शिक्षा के समग्र विकास प्रतिमान की
   −
पाठ्यक्रम, विभाग १ : बुद्धि का क्षेत्र, विश्वविद्यालयीन स्तर पर,
+
प्रस्तुति यहाँ की गई है । धार्मिक ज्ञानधारा का प्रवाह क्षीण रूप में अभी
   −
किशोर अवस्था अर्थात्‌ माध्यमिक विद्यालयीन स्तर, बाल
+
अस्तित्व में तो है परन्तु शिक्षा तथा अन्य व्यवस्थाओं में वह अनुस्यूत नहीं
   −
अवस्था में पठनीय बातें, शिशु अवस्था में, गर्भावस्था में, विभाग
+
होने के कारण से पुष्ट नहीं हो रहा है । ज्ञानधारा पुष्ट नहीं होने के कारण
   −
२ अनुभूति का क्षेत्र
+
धार्मिक जीवन को भी स्वाभाविक पोषण नहीं मिलता है । इसका परिणाम यह
   −
पठनसामग्री, १. सबमें भगवान, २. बीज और पेड़ की कविता,
+
होता है कि भारत का जनजीवन अधार्मिक ज्ञानधारा से आप्लावित होता है ।
   −
पक्षी कहता है..., मछली कहती है... गुरुजी कहते हैं... रे.
+
इससे बचना चाहिये । बचने का उपाय शिक्षा में ही प्राप्त हो सकता है । कारण
   −
स्वतंत्रता, गुरुजी कहते हैं... गुरुजी कहते हैं..., गुरुजी कहते
+
स्पष्ट है। शिक्षा ही ज्ञान की वाहक है । शिक्षा ही परम्परा बनाने का और
   −
हैं..., चक्र को समझें और चक्र को बनायें रखें, ४. पूरी दुनिया
+
बनाये रखने का साधन है । ऐसा विचार कर यह समग्र विकास प्रतिमान यहाँ
   −
गोल, दूध है सर्वोत्तम, आखिर हैं सोने के गहने, ५. दिखता भिन्न
+
प्रस्तुत किया गया है
   −
होता एक, सबमें पानी निर्मल, आखिर तो है जगन्माता, कपास
+
इस निरूपण के दो खण्ड हैं । एक है तत्त्वचिन्तन का और दूसरा है
   −
की महिमा, मैं ही तो हूँ, मैं अर्थात्‌ मैं, अकेले अच्छा नहीं
+
व्यवहारचिन्तन का ।
   −
लगता, ६. मैं... अनन्त, मेरी तपस्या, चिति, चिति और मैं,
+
तत्त्वचिन्तन के इस खण्ड में समग्र विकास प्रतिमान की शब्दावली की
   −
fafa और प्रकृति, महत्‌, चिति, प्रकृति और महत्‌, अहंकार,
+
व्याख्या की गई है । जहाँ आवश्यक है वहाँ अधार्मिक अर्थ भी बताया गया
   −
चिति और अहंकार, मैं और अहंकार, मन, मनके तूफान,
+
है । परन्तु अधार्मिक व्याख्याओं का विवेचन करना यह मुख्य लक्ष्य नहीं है ।
   −
पंचमहाभूत, पंचमहाभूत, चिति और मैं, आप और मैं,
+
यथासम्भव निरूपण को सरल बनाने का प्रयास भी किया गया है ।
   −
किशोरावस्था, भगवान ही सबकुछ, तीन गुण, ७. अष्टधा
+
कदाचित यह निरूपण संक्षिप्त भी लग सकता है । संक्षिप्त अतः है
   −
प्रकृति, मन, बुद्धि, अहंकार, बालअवस्था, भगवान कौन है,
+
क्योंकि व्यवहारपक्ष अधिक विस्तार से आना आवश्यक है
   −
जादू का चश्मा, ८. जहाँ देखो वहाँ 3, छोटा बडा सब 3३%,
+
............. page-18 .............
   −
अच्छा बुरा सब 3, सब कुछ 3», सभी देव एक, काम करते
+
KAAKAX शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
   −
समय क्या होता है, हमारा काम क्या है, काम करते समय क्या
+
८ LANZA
   −
विचार करना, ९. गीता, काम क्यों नहीं करना, काम करते
+
SOOO
   −
समय क्या ध्यान में रखना, अपना काम करना ही है, काम नहीं
+
अनुक्रमणिका
   −
करने के बहाने मत बनाओ
+
१... प्रस्तावना 3
   −
............. page-16 .............
+
. .... समग्रता का अर्थ ¥
   −
30,
+
३. ... विकास की वर्तमान संकल्पना एवं स्वरूप 83
   −
38.
+
... विकास की धार्मिक संकल्पना एवं स्वरूप ३१
   −
aR.
+
. .... व्यक्तित्व मीमांसा ¥¥
   −
EED
+
&. पंचात्मा विवरण KE
   −
3%.
+
... व्यक्तित्व विकास : स्वरूप एवं विकास के कारक तत्त्व go
   −
Rh.
+
...... अध्यास और बोध C8
   −
Re.
+
९ परमेष्ठी और व्यष्टि ८७
   −
30.
+
............. page-19 .............
   −
3¢.
+
=== we : १ तत्त्वचिन्तन ===
   −
२. धर्मशास्त्र २९०
+
==== अध्याय १ ====
   −
पाठ्यक्रम, सन्दर्भ, अध्ययन और अनुसंधान हेतु विद्वत क्षेत्र,
+
===== न्नस्तावना =====
 +
कलियुगाब्द ५११७ की वसन्तपंचमी के दिन ...
   −
महाविद्यालयीन शिक्षा, किशोरवयीन शिक्षा, बालवयीन शिक्षा,
+
शिक्षा के विषय में आज जो सार्वत्रिक भ्रान्तियाँ फैली
   −
शिशु अवस्था, गर्भावस्था में शिक्षा, १. टी.वी. की पराजय, यज्ञ
+
हुई हैं उन्हें दूर करने हेतु, विद्याक्षेत्र को परिष्कृत करने हेतु,
   −
का अर्थ क्या है ?, अलग अलग यज्ञ, २. यज्ञ, ३. बात तो खरी
+
धार्मिक ज्ञानधारा के अवरुद्ध प्रवाह को पुन: प्रवाहित करने
   −
है, ४. असली क्या नकली क्या, ५. सिर दियाँ रूख बचे तो भी
+
हेतु, शिक्षा के विषय में जो भी जिज्ञासु, अभ्यासु और
   −
सस्तो जाण !, ६. धर्मदृष्टि, ७. प्रदक्षिणा, ८. धर्मशास्त्र स्मृतियाँ
+
कार्यच्छु हैं उनकी सहायता और सेवा करने हेतु तथा
   −
एवं पुराण, ९. हिन्दूधर्म की आन्तरिक शक्ति, पाठ्यक्रम
+
धार्मिक ज्ञानधारा की प्रतिष्ठा कर विश्वकल्याण का मार्ग
   −
३. समाजशास्त्र 308
+
प्रशस्त करने हेतु “शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान के
   −
पाठ्यक्रम,  महाविद्यालयीन स्तर, किशोरावस्था अर्थात
+
लेखन का प्रारम्भ कर रहे हैं ।
   −
माध्यमिक शिक्षा हेतु, बाल अवस्था अर्थात प्राथमिक स्तर हेतु,
+
नैमिषारण्य का गुरुकुल । पाँच सहस्र से भी अधिक
   −
शिशु अवस्था के लिये, गर्भावस्‍था के लिये, १, पादत्राण की
+
वर्षों की उसकी ज्ञानपर््परा । सर्व शास्त्रों के ज्ञाता,
   −
खोज, २. पैरों चलने की महिमा, ३. करोड़पति साइकिलवाला,
+
जगतकल्याणकारी ज्ञान के उपासक और ज्ञानपरम्परा को
   −
सामाजिक अभियान का मूल-कॉपेनहेगन १९९७, समाज में
+
अक्षुण्ण रखने हेतु समर्थ शिष्यों का अध्यापन करने वाले
   −
परिवर्तन, उपदेश-सलाह-कृति, सामाजिक कीमत, ४. अंग्रेजों ने
+
आचार्य शौनक उस गुरुकुल के समर्थ कुलपति । उसी
   −
लिखा भारत का विकृत इतिहास, ५. विचारणीय एवं करणीय
+
परम्परा में शिक्षित और दीक्षित वर्तमान आचार्य ज्ञाननिधि ।
   −
कुछ बातें
+
इस कालजयी गुरुकुल के एकसौ से भी अधिक ज्ञानोपासक
   −
४. शिक्षाशास्त्र ३१०
+
आचार्य । कलियुगाब्द ५११७ की वसन्तपंचमी के आज के
   −
पाठ्यक्रम, सन्दर्भ, पाठ्यक्रम
+
पावन दिवस पर शिक्षाज्ञानयज्ञ का प्रारम्भ करने जा रहे हैं ।
   −
५. गृहशास्त् ३१२
+
सबके अन्त:करण श्रद्धा, विश्वास और आनन्द से परिपूर्ण
   −
पाठ्यक्रम, सन्दर्भ, पाठ्यक्रम, महाविद्यालयीन स्तर, विद्यालयीन
+
हैं। विश्व के मंगल की कामना से व्याप्त हैं । ज्ञानसाधना
   −
स्तर अर्थात किशोरवयीन छात्रों हेतु, बाल अवस्था हेतु, शिशु
+
करने के लिये वे उत्सुक हैं । लोक के लिये. ज्ञानसरिता
   −
अवस्था हेतु, गर्भावस्था हेतु
+
प्रवाहित कर ऋषिक्रण से किंचित मुक्त होने की अभिलाषा
   −
६. वरवधूचयन और विवाहसंस्कार Bey
+
वे रखते हैं ।
   −
पाठ्यक्रम, विवाहविषयक पाश्चात्य एवं भारतीय दृष्टिकोण,
+
प्रात:दकाल की शुभ बेला में और सुखदायी वातावरण
   −
पाश्चात्य दृष्टिकोण, भारतीय दृष्टिकोण, गृहस्थाश्रम : पति पत्नी
+
में ज्ञानचर्चा प्रारम्भ हुई । सबने भगवती सरस्वती और
   −
का सम्बन्ध
+
भगवान वेद्व्यास की स्तुति की । शान्तिपाठ किया और
   −
७. अधिजननशास्त्र ३१५
+
आचार्य शुभंकर ने चर्चा का सूत्रपात किया ।
   −
पाठ्यक्रम, १. लवकुश की लोरी, २. माता मदालसा की छोरी,
+
आचार्य शुभंकर ने कहा ...
   −
रे. शुद्ध भोजन, पाठ्यक्रम
+
सभा में उपस्थित माननीय कुलपतिजी तथा सर्व
   −
८. परिवारशिक्षा : शिशु शिक्षा की दृष्टि से ३१९
+
श्रोताओं को मेरा प्रणाम । आज से हम एक महत्त्वपूर्ण
   −
१, चलो आज हम नियम बनाएँ, २. भारतमाता तुझे प्रणाम
+
विषय पर चर्चा प्रारम्भ कर रहे हैं । शिक्षा के माध्यम से हम
   −
९. राजशास्त्र 323
+
ज्ञान की और राष्ट्र की सेवा करने के लिए उद्यत हैं । आज
   −
पाठ्यक्रम, विशेष
+
हमारे देश को शिक्षा के एक ऐसे प्रतिमान की आवश्यकता
   −
१०, अर्थशास्त्र aw
+
है जो शत प्रतिशत धार्मिक हो । शिक्षा का धार्मिककारण
   −
पाठ्यक्रम, महाविद्यालयीन स्तर तथा विद्वतक्षेत्र, अनुसंधान हेतु
+
करने के देशभर में अनेक प्रकार से प्रयास चल रहे हैं । उन
   −
विषयों की सूची, महाविद्यालयीन स्तर पर पाठ्यक्रम, १.
+
सब प्रयासों में हमारा भी योगदान हो इस दृष्टि से हमारा यह
   −
तत्त्वचिंतन, २. व्यापक आकलन, ३. व्यवहार चिन्तन, ४.
+
प्रयास है ।
   −
प्रायोगिक कार्य, विद्यालयीन शिक्षा, खरीदी करने का कौशल,
+
वर्तमान में शिक्षा के उद्देश्य को लेकर विकास की
   −
दृष्टिकोण विकसित करना, प्राथमिक विद्यालय में पाठ्यक्रम,
+
संकल्पना का बहुत प्रचलन है । वह होना भी चाहिए ।
   −
आदतें बनाने हेतु नियामवली, मातापिता की शिक्षा के आयाम,
+
शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति का सर्वांगीण विकास है ऐसा भी
   −
१, कुशल हाथ, हाथ, कुशल कारीगर, शरीर की स्वच्छता, घर
+
कहा जाता है । परन्तु हम अनुभव कर रहे हैं कि इस विषय
   −
के काम, सबके लिये उपयोगी, कुशल हाथ, Get, Wa sk
+
में अनेक प्रकार से स्पष्टता की आवश्यकता है । स्पष्टता के
   −
यंत्र, वाहन चलाना, कारीगरी के काम, वाद्यवादन, सेवा शुश्रूषा,
+
अभाव में शब्द तो गढ़े जाते हैं परन्तु वे अपेक्षित प्रयोजन
   −
संकटों से रक्षा, भावनाओं का आविष्कार, २. यह कैसी गणना,
+
को पूर्ण कर सर्के ऐसे सार्थक नहीं होते । अतः हमने
   −
३. साध्य साधन विवेक, ४. प्रचंड गार्बज का देश, अमेरिका, ५.
+
शब्दावली निश्चित कर उनके अर्थों और सन्दर्भो को स्पष्ट
   −
विकसित देश, पाठ्यक्रम, १. गोविषयक संस्कार, २. जन्म से ३
+
करने का मानस बनाया है ।
   −
वर्ष तक, रे. रे से ५ वर्ष, ४. आयु ६ एवं ७ वर्ष
+
हमने दूसरा विचार यह किया है कि शिक्षा के सम्बन्ध
   −
३९. ११. गोविज्ञान ३३८
+
में समग्रता में विचार किया जाय । शिक्षा के केवल शैक्षिक
   −
आयु ८ से १० वर्ष, आयु ११ से १३ वर्ष, आयु १४ से १७ वर्ष,
+
पक्ष का विचार करने से शिक्षा का धार्मिककरण नहीं
   −
महाविद्यालयीन शिक्षा, अध्ययन के विषयनवकृति, अनुसन्धान,
+
होगा । शिक्षा का व्यवस्था पक्ष और आर्थिक पक्ष भी
   −
१, हम है भारतीय गायें, २. देशी और विदेशी गाय का अन्तर,
+
सम्पूर्ण तंत्र को बहुत प्रभावित करता है । अत: इन दोनों
   −
अद्भुत गाय, गाय की Asya A, 3. अद्भुत गाय
+
पक्षों के भी धार्मिककरण की आवश्यकता है। ऐसी
   −
४०... ११. विज्ञान डेप
+
धार्मिक व्यवस्थाओं के सन्दर्भ में प्रतिष्ठित हो सके ऐसे
   −
पाठ्यक्रम, ब्रह्माण्ड, पंचकोश, पंचमहाभूत, १. पंचतत्त्व,
+
शैक्षिक प्रतिमान का विचार करने का मानस हमने बनाया
   −
पंचकर्मेन्ट्रिय, पंचज्ञानेन्द्रिय, पंचप्राण, पंचउपप्राण, पंच तन्‍्मात्रा,
+
है।
   −
किशोरअवस्था, २. ६४ कलाएँ, रे. सर्वे भवन्तु सुखिनः और
+
इस प्रतिमान को हमने नाम दिया है “शिक्षा का समग्र
   −
यंत्र का उपयोग, दे. अध्यात्महीन विज्ञान के दुष्परिणाम,
+
विकास प्रतिमान' ।
   −
उच्चशिक्षा
+
हमारे कुलपतिजी हमारे मुख्य मार्गदर्शक रहेंगे । समय
   −
४१... विभिन्न विषयों हेतु शोधविषयों की सूची 343
+
............. page-20 .............
   −
४२... पाठ्यक्रम समीक्षा Bug
+
समय पर देश के अनेक वरिष्ठ चिन्तक
   −
खण्ड २ : व्यवहारचिन्तन, पर्व ५ : कार्ययोजना
+
शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
   −
४३... करणीय प्रयास 3&3
+
विचार दे सर्के ऐसी परमात्मा के श्रीचरणों में प्रार्थना कर
   −
समग्र विकास प्रतिमान
+
भी हमारे साथ विचारविमर्श करने के लिये पधारेंगे । आने. अब मैं चर्चा के सूत्र आचार्यजी को सौंप रहा हैँ ।
   −
vx. स्वप्नसिद्धि ३७१
+
वाले दिनों में हम देश को शिक्षा विषयक एक समर्पक
   −
प्रथम तप नैमिषारण्य, द्वितीय तप लोकमतपरिष्कार, तृतीय
+
==== अध्याय २ ====
   −
तप परिवारसुद्रढीकरण, परिवार शिक्षा : पाठ्यक्रम, चतुर्थ
+
===== समग्रता का अर्थ =====
 +
आचार्य ज्ञाननिधि कहने लगे ...
   −
तप शिक्षकनिर्माण, पंचम तप विद्यालयों का प्रारम्भ
+
समग्रता का अर्थ जानने के लिये हमें इस सृष्टि का
   −
४५... समापन ३९०
+
मूल कहाँ है, इसकी उत्पत्ति कैसे हुई है और यह कैसे
   −
परिशिष्ट
+
टिकी हुई है यह जानना होगा । तैत्तिरीय उपनिषद में सृष्टि
   −
१... सन्दर्भ ग्रन्थ सूची ३९३
+
की उत्पत्ति के सम्बन्ध में निरूपण किया गया है ।
   −
२... लेखकों, सम्पादकों व संकलन कर्ताओं की सूची. ३९४
+
आत्मा, परमात्मा, सृष्टि आदि की चर्चा चल रही है
   −
३. .... पाठ्यक्रमों की रूपरेखा निर्माणकर्ताओं की सूची... ३९६
+
तब आचार्य सृष्टिचना की प्रक्रिया का वर्णन करते हुए
   −
४... ग्रन्थ अनुक्रमणिका ३९७
+
कहते हैं,
   −
५. .... पुनरुत्थान विद्यापीठ ¥ok
+
asad | ag wai wade girl a
   −
६. ... प्रकाशनसूची ¥o¥
+
तपो$तप्यत । स तपस्तप्त्वा इदंसर्वमसृजत यदिदं कि
   −
............. page-17 .............
+
च । तत्सृष्टवा तदेवानुप्राविशत्‌ । तदनुप्रविश्य सच्च
   −
we : १ तत्त्वचिन्तन
+
त्यच्चाभवत्‌ । निरुक्त॑ चानिरुक्त॑ च । निलयनं चानिलयनं
   −
खण्ड १
+
च विज्ञान चाविज्ञानं च । सत्यं चानृतं च सत्यमभवत ।
   −
तत्त्वचिन्तन
+
afed fe च । तत्सत्यमित्याचक्षते । (ब्रह्मानन्द वल्ली-
   −
भारतीय ज्ञानधारा का आधार लेकर शिक्षा के समग्र विकास प्रतिमान की
+
षष्ठ अनुवाक)
   −
प्रस्तुति यहाँ की गई है । भारतीय ज्ञानधारा का प्रवाह क्षीण रूप में अभी
+
अर्थात्‌ सृष्टि के आदि में परमात्मा ने इच्छा की कि मैं
   −
अस्तित्व में तो है परन्तु शिक्षा तथा अन्य व्यवस्थाओं में वह अनुस्यूत नहीं
+
एक हूँ, बहुत होकर प्रकट हो जाऊँ । अतः: उसने तप
   −
होने के कारण से पुष्ट नहीं हो रहा है ज्ञानधारा पुष्ट नहीं होने के कारण
+
किया । तप कर उसने इस सारी सृष्टि का सृजन किया
   −
भारतीय जीवन को भी स्वाभाविक पोषण नहीं मिलता है इसका परिणाम यह
+
सृजन कर वह उसीमें प्रविष्ट हो गया अर्थात्‌ सारी सृष्टि में
   −
होता है कि भारत का जनजीवन अभारतीय ज्ञानधारा से आप्लावित होता है
+
उसने वास किया । जो आश्रयरूप है या नहीं है, जिसका
   −
इससे बचना चाहिये । बचने का उपाय शिक्षा में ही प्राप्त हो सकता है । कारण
+
वर्णन किया जाता है या नहीं किया जाता है, जो जड़़ है या
   −
स्पष्ट है। शिक्षा ही ज्ञान की वाहक है । शिक्षा ही परम्परा बनाने का और
+
चेतन है, जो सत्य है या अनृत अर्थात्‌ असत्य है । ये सारे
   −
बनाये रखने का साधन है । ऐसा विचार कर यह समग्र विकास प्रतिमान यहाँ
+
परमात्मा के ही रूप हैं और चूँकि परमात्मा सत्यस्वरूप है
   −
प्रस्तुत किया गया है
+
ये भी सारे सत्य ही हैं
   −
इस निरूपण के दो खण्ड हैं । एक है तत्त्वचिन्तन का और दूसरा है
+
सृष्टि परमात्मा का विश्वरूप है
   −
व्यवहारचिन्तन का
+
धार्मिक विचारविश्व का यह सर्वस्वीकृत, आधारभूत
   −
तत्त्वचिन्तन के इस खण्ड में समग्र विकास प्रतिमान की शब्दावली की
+
और प्रिय सिद्धान्त है । यह सारी सृष्टि परमात्मा ने बनाई
   −
व्याख्या की गई है । जहाँ आवश्यक है वहाँ अभारतीय अर्थ भी बताया गया
+
यह तो ठीक है । विश्व की अन्यान्य विचारधारायें यह तो
   −
है । परन्तु अभारतीय व्याख्याओं का विवेचन करना यह मुख्य लक्ष्य नहीं है ।
+
मानती ही हैं । परन्तु धार्मिक विचार विशेष रूप से यह
   −
यथासम्भव निरूपण को सरल बनाने का प्रयास भी किया गया है
+
कहता है कि परमात्मा ने अपने में से ही यह सृष्टि बनाई
   −
कदाचित यह निरूपण संक्षिप्त भी लग सकता है संक्षिप्त इसलिए है
+
और वह स्वयं उसमें प्रवेश कर सृष्टिरुप बन गया
   −
क्योंकि व्यवहारपक्ष अधिक विस्तार से आना आवश्यक है
+
परमात्मा और उसकी सृष्टि दो नहीं हैं, एक ही हैं यह
   −
............. page-18 .............
+
अट्रैत सिद्धान्त सारे विचार में आधारभूत सिद्धान्त के रूप में
   −
KAAKAX शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
+
प्रतिष्ठित है । यह सिद्धान्त इतना व्यापक रूप में प्रतिष्ठित है
   −
८ LANZA
+
कि अनपढ़, गरीब, सामान्य लोग भी मानते हैं और कहते हैं
   −
SOOO
+
कि सचराचर में परमात्मा का वास है । सार्वत्रिक मान्यता है
   −
अनुक्रमणिका
+
कि भगवान सर्वत्र है, वह सब देखता है, सब जानता है,
   −
१... प्रस्तावना 3
+
सर्वशक्तिमान है ।
   −
२. .... समग्रता का अर्थ ¥
+
प्रस्थापित सिद्धान्त है कि यह सृष्टि परमात्मा का
   −
३. ... विकास की वर्तमान संकल्पना एवं स्वरूप 83
+
विश्वरूप है ।
   −
४... विकास की भारतीय संकल्पना एवं स्वरूप ३१
+
इसीसे यह सिद्धान्त स्वाभाविक निकलता है कि जिस
   −
५. .... व्यक्तित्व मीमांसा ¥¥
+
प्रकार परमात्मा और उसकी सृष्टि एक है उसी प्रकार यह
   −
&. पंचात्मा विवरण KE
+
सृष्टि भी मूलतः: एक है । परमात्मा अपने परमात्म स्वरूप में
   −
७... व्यक्तित्व विकास : स्वरूप एवं विकास के कारक तत्त्व go
+
अदृश्य, अनाकलनीय, अवर्णनीय, निर्गुण, निराकार है परन्तु
   −
८...... अध्यास और बोध C8
+
जैसे ही विश्वरूप धारण करता है वह दृश्यमान, वर्णन करने
   −
९ परमेष्ठी और व्यष्टि ८७
+
योग्य, कल्पना करने योग्य बन जाता है । वह सगुण और
   −
............. page-19 .............
+
साकार बन जाता है । वह इन्ट्रियग्राह्म, मनोग्राह्म, बुद्धिग्राह्म
   −
we : १ तत्त्वचिन्तन
+
बन जाता है । परमात्मा का यह विश्वरूप अर्थात्‌ सृष्टि
   −
अध्याय १
+
वैविध्यपूर्ण है । सृष्टि की विविधता का कोई अन्त नहीं ।
   −
न्नस्तावना
+
किंबहुना विविधता ही सृष्टि का स्वभाव है । यह विविधता
   −
कलियुगाब्द ५११७ की वसन्तपंचमी के दिन ...
+
ऐसी है कि एक वृक्ष के असंख्य पत्तों में एक भी पत्ता दूसरे
   −
शिक्षा के विषय में आज जो सार्वत्रिक भ्रान्तियाँ फैली
+
पत्ते जैसा नहीं होता । एकरूपता सृष्टि में कहीं नहीं है।
   −
हुई हैं उन्हें दूर करने हेतु, विद्याक्षेत्र को परिष्कृत करने हेतु,
+
यदि एक के समान दूसरा कोई हो तो उसका अपना कोई
   −
भारतीय ज्ञानधारा के अवरुद्ध प्रवाह को पुन: प्रवाहित करने
+
............. page-21 .............
   −
हेतु, शिक्षा के विषय में जो भी जिज्ञासु, अभ्यासु और
+
we : १ तत्त्वचिन्तन
   −
कार्यच्छु हैं उनकी सहायता और सेवा करने हेतु तथा
+
प्रयोजन ही नहीं रहेगा । अत: सृष्टि की छोटी से छोटी
   −
भारतीय ज्ञानधारा की प्रतिष्ठा कर विश्वकल्याण का मार्ग
+
इकाई की भी अपनी स्वतन्त्र निजी सत्ता है ।
   −
प्रशस्त करने हेतु “शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान के
+
परन्तु यह अनन्त वैविध्ययुक्त सृष्टि मूल में एक है ।
   −
लेखन का प्रारम्भ कर रहे हैं ।
+
दिखने वाली भिन्नता में न दिखने वाला एकत्व जानना ही
   −
नैमिषारण्य का गुरुकुल पाँच सहस्र से भी अधिक
+
सृष्टि के सही स्वरूप को जानना है इस मूल एकत्व को
   −
वर्षों की उसकी ज्ञानपर््परा सर्व शास्त्रों के ज्ञाता,
+
एकात्मता कहते हैं इसका सीधा सा अर्थ है कि सर्वत्र
   −
जगत्कल्याणकारी ज्ञान के उपासक और ज्ञानपरम्परा को
+
आत्त्मतत्त्व व्याप्त है ।
   −
अक्षुण्ण रखने हेतु समर्थ शिष्यों का अध्यापन करने वाले
+
भारत के सारे विचारों, व्यवहारों, व्यवस्थाओं और
   −
आचार्य शौनक उस गुरुकुल के समर्थ कुलपति उसी
+
रचनाओं में यह एकात्मता अनुस्यूत रहती है इसे ही समग्र
   −
परम्परा में शिक्षित और दीक्षित वर्तमान आचार्य ज्ञाननिधि
+
कहते हैं एकात्मता ही समग्रता है । एकात्मता से अनुस्यूत
   −
इस कालजयी गुरुकुल के एकसौ से भी अधिक ज्ञानोपासक
+
विचार समग्र विचार है, एकात्मता से अनुस्यूत व्यवहार
   −
आचार्य कलियुगाब्द ५११७ की वसन्तपंचमी के आज के
+
समग्रतापूर्ण व्यवहार है एकात्मता से अनुस्यूत व्यवस्थायें
   −
पावन दिवस पर शिक्षाज्ञानयज्ञ का प्रारम्भ करने जा रहे हैं ।
+
समग्रतायुक्त व्यवस्थायें हैं । एकात्मता से अनुस्यूत TA
   −
सबके अन्त:करण श्रद्धा, विश्वास और आनन्द से परिपूर्ण
+
समग्रता से ओतप्रोत रचनायें हैं । एकात्मता ही समग्रता है,
   −
हैं। विश्व के मंगल की कामना से व्याप्त हैं ज्ञानसाधना
+
यही सूत्र है
   −
करने के लिये वे उत्सुक हैं लोक के लिये. ज्ञानसरिता
+
यह समग्रता पिण्ड से लेकर ब्रह्माण्ड तक सर्वत्र है
   −
प्रवाहित कर ऋषिक्रण से किंचित मुक्त होने की अभिलाषा
+
पिण्ड का अर्थ है छोटी इकाई । ब्रह्माण्ड से तात्पर्य है बड़ी
   −
वे रखते हैं
+
से बड़ी इकाई अर्थात एक रजकण भी समग्रता युक्त है,
   −
प्रात:दकाल की शुभ बेला में और सुखदायी वातावरण
+
एक मनुष्य भी समग्रतायुक्त है, बड़े से बड़ा नक्षत्र भी
   −
में ज्ञानचर्चा प्रारम्भ हुई सबने भगवती सरस्वती और
+
समग्रतायुक्त है और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भी समग्रतायुक्त है जरा
   −
भगवान वेद्व्यास की स्तुति की शान्तिपाठ किया और
+
भी कम नहीं, जरा भी अधिक नहीं
   −
आचार्य शुभंकर ने चर्चा का सूत्रपात किया ।
+
अंगांगी सम्बन्ध
   −
आचार्य शुभंकर ने कहा ...
+
पुरुषसूक्त में परमात्मा के सृष्टिरूप का वर्णन मनुष्य के
   −
सभा में उपस्थित माननीय कुलपतिजी तथा सर्व
+
शरीर के रूप में किया गया है । पुरुषसूक्त बहुत प्रसिद्ध
   −
श्रोताओं को मेरा प्रणाम । आज से हम एक महत्त्वपूर्ण
+
स्चना है इसलिये मैं यहाँ उसका वर्णन नहीं करता हूँ। आप
   −
विषय पर चर्चा प्रारम्भ कर रहे हैं । शिक्षा के माध्यम से हम
+
सब वह जानते ही हैं । जिस प्रकार शरीर के छोटे बड़े सभी
   −
ज्ञान की और राष्ट्र की सेवा करने के लिए उद्यत हैं । आज
+
अंग एकदूसरे के साथ और पूरे शरीर के साथ जुड़े हुए हैं
   −
हमारे देश को शिक्षा के एक ऐसे प्रतिमान की आवश्यकता
+
उसी प्रकार यह सृष्टि भी अड्भांगी सम्बन्ध से जुड़ी हुई है ।
   −
है जो शत प्रतिशत भारतीय हो । शिक्षा का भारतीयकारण
+
शरीर के सभी अंग और उपांगों के अपने अपने नाम हैं,
   −
करने के देशभर में अनेक प्रकार से प्रयास चल रहे हैं । उन
+
काम हैं, आकार हैं, आवश्यकतायें हैं और स्वभाव हैं उसी
   −
सब प्रयासों में हमारा भी योगदान हो इस दृष्टि से हमारा यह
+
प्रकार सृष्टि की सारी इकाइयों के अपने अपने नाम, काम,
   −
प्रयास है
+
आकार, आवश्यकतायें और स्वभाव हैं यह स्वभाव
   −
वर्तमान में शिक्षा के उद्देश्य को लेकर विकास की
+
उसका आत्मतत्त्व है । जिस प्रकार शरीर के सभी अंगों का
   −
संकल्पना का बहुत प्रचलन है । वह होना भी चाहिए ।
+
स्वत्व अलग अलग होने पर भी शरीर के बिना उनका कोई
   −
शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति का सर्वांगीण विकास है ऐसा भी
+
प्रयोजन नहीं होता है उसी प्रकार सृष्टि
   −
कहा जाता है । परन्तु हम अनुभव कर रहे हैं कि इस विषय
+
की किसी भी इकाई का सम्पूर्ण सृष्टि के साथ समरस होकर,
   −
में अनेक प्रकार से स्पष्टता की आवश्यकता है । स्पष्टता के
+
सम्बन्धित होकर ही प्रयोजन होता है । शरीर का कोई अंग
   −
अभाव में शब्द तो गढ़े जाते हैं परन्तु वे अपेक्षित प्रयोजन
+
अपने आपको अलग मानकर, और उस अलगता को ही
   −
को पूर्ण कर सर्के ऐसे सार्थक नहीं होते । इसलिए हमने
+
स्वतन्त्रता समझकर अपनी ही पद्धति से व्यवहार करने
   −
शब्दावली निश्चित कर उनके अर्थों और सन्दर्भो को स्पष्ट
+
लगता है तो उसको स्वयं को, दूसरे अंगों को और पूरे शरीर
   −
करने का मानस बनाया है ।
+
को कष्ट होता है, हानि होती है । उसी प्रकार सृष्टि का कोई
   −
हमने दूसरा विचार यह किया है कि शिक्षा के सम्बन्ध
+
भी अंग अपने आपको अलग और स्वतन्त्र मानकर व्यवहार
   −
में समग्रता में विचार किया जाय । शिक्षा के केवल शैक्षिक
+
करने लगता है तब उसकी स्वयं की, अन्यों की और पूरी
   −
पक्ष का विचार करने से शिक्षा का भारतीयकरण नहीं
+
सृष्टि की हानि होती है ।
   −
होगा । शिक्षा का व्यवस्था पक्ष और आर्थिक पक्ष भी
+
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य को छोड़कर सृष्टि
   −
सम्पूर्ण तंत्र को बहुत प्रभावित करता है । अत: इन दोनों
+
का एक भी पदार्थ अपनी मनमानी नहीं करता है । वह
   −
पक्षों के भी भारतीयकरण की आवश्यकता है। ऐसी
+
सबके साथ सामंजस्य बनाकर ही रहता है। किंबहुना
   −
भारतीय व्यवस्थाओं के सन्दर्भ में प्रतिष्ठित हो सके ऐसे
+
उसकी ऐसी शक्ति ही नहीं होती है । वह पूर्ण रूप से प्रकृति
   −
शैक्षिक प्रतिमान का विचार करने का मानस हमने बनाया
+
के नियन्त्रण में रहता है । इसलिये वह किसीके कष्ट, दुःख,
   −
है।
+
हानि आदि का कारण नहीं बनता है । कष्ट, दुःख, हानि
   −
इस प्रतिमान को हमने नाम दिया है “शिक्षा का समग्र
+
आदि शब्द भी मनुष्य की दुनिया के हैं, मनुष्येतर दुनिया के
   −
विकास प्रतिमान'
+
नहीं इसलिये समग्रता की संकल्पना समझना और उसका
   −
हमारे कुलपतिजी हमारे मुख्य मार्गदर्शक रहेंगे समय
+
अनुसरण करना मनुष्य का ही दायित्व बनता है
   −
............. page-20 .............
+
समग्रता की आवश्यकता
   −
समय पर देश के अनेक वरिष्ठ चिन्तक
+
भारत के दीर्घ इतिहास में सर्वत्र समग्रता का यह
   −
शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
+
विचार दिखाई देता है । चाहे वस्त्र पहनना हो, चाहे घर
   −
विचार दे सर्के ऐसी परमात्मा के श्रीचरणों में प्रार्थना कर
+
बनाना हो, चाहे भोजन करना हो, चाहे उत्सव मनाना हो,
   −
भी हमारे साथ विचारविमर्श करने के लिये पधारेंगे । आने. अब मैं चर्चा के सूत्र आचार्यजी को सौंप रहा हैँ ।
+
चाहे उत्पादन करना हो, चाहे कला की उपासना करना हो,
   −
वाले दिनों में हम देश को शिक्षा विषयक एक समर्पक
+
चाहे राज्य चलाना हो, चाहे घर चलाना हो,चाहे खेलना
   −
अध्याय २
+
हो चाहे युद्ध करना हो, सर्वत्र समग्रता का विचार किया
   −
समग्रता का अर्थ
+
हुआ दिखाई देता है ।
   −
आचार्य ज्ञाननिधि कहने लगे ...
+
जब समग्रता का विचार किया जाता है तब क्या होता
   −
समग्रता का अर्थ जानने के लिये हमें इस सृष्टि का
+
है और नहीं किया जाता है तब क्या होता है इसके कुछ
   −
मूल कहाँ है, इसकी उत्पत्ति कैसे हुई है और यह कैसे
+
उदाहरण देखें ।
   −
टिकी हुई है यह जानना होगा । तैत्तिरीय उपनिषद में सृष्टि
+
घरों में भोजन के बाद जूठे बर्तन साफ करते हैं तब
   −
की उत्पत्ति के सम्बन्ध में निरूपण किया गया है
+
पहले सारी जूठन धोकर एक पात्र में इकट्टी करते हैं वह
   −
आत्मा, परमात्मा, सृष्टि आदि की चर्चा चल रही है
+
पानी कुत्ते को या बकरी को पिलाया जाता है । बर्तन मिट्टी
   −
तब आचार्य सृष्टिचना की प्रक्रिया का वर्णन करते हुए
+
से या राख़ से साफ किये जाते हैं । बर्तन धोया हुआ पानी
   −
कहते हैं,
+
............. page-22 .............
   −
asad | ag wai wade girl a
+
रेत में, मिट्टी में या खुली नाली में
   −
तपो$तप्यत स तपस्तप्त्वा इदंसर्वमसृजत यदिदं कि
+
बहाया जाता है । बर्तन सूती कपड़े से पोंछे जाते हैं
   −
च । तत्सृष्टवा तदेवानुप्राविशत्‌ । तदनुप्रविश्य सच्च
+
भोजन बनाते समय सब्जी आदि के जो छिलके निकलते हैं
   −
त्यच्चाभवत्‌ । निरुक्त॑ चानिरुक्त॑ च । निलयनं चानिलयनं
+
वे या तो गायबकरी को खिलाये जाते हैं अथवा सुखाकर
   −
च विज्ञान चाविज्ञानं च । सत्यं चानृतं च सत्यमभवत
+
जलाने के काम में लिये जाते हैं बर्तन धोने का जो पानी
   −
afed fe च तत्सत्यमित्याचक्षते । (ब्रह्मानन्द वल्ली-
+
रेत में गिरता है वह हवा से और धूप से सूख जाता है
   −
षष्ठ अनुवाक)
+
कुछ पानी जमीन में भी उतरता है ।
   −
अर्थात्‌ सृष्टि के आदि में परमात्मा ने इच्छा की कि मैं
+
यह बात लोकव्यवहार में इतनी ओतप्रोत थी कि
   −
एक हूँ, बहुत होकर प्रकट हो जाऊँ । अतः: उसने तप
+
उसके पीछे क्या दृष्टि रही होगी इसका विश्लेषण या
   −
किया । तप कर उसने इस सारी सृष्टि का सृजन किया ।
+
विवेचन कभी किया नहीं जाता था करने की आवश्यकता
   −
सृजन कर वह उसीमें प्रविष्ट हो गया अर्थात्‌ सारी सृष्टि में
+
नहीं लगती थी आज जब यह पद्धति बदली है तब इसकी
   −
उसने वास किया जो आश्रयरूप है या नहीं है, जिसका
+
विशेषतायें ध्यान में आती हैं आज बर्तन साफ किये जाते
   −
वर्णन किया जाता है या नहीं किया जाता है, जो जड़ है या
+
हैं तब जूठन को नाली में बहाया जाता है । यह भूमिगत
   −
चेतन है, जो सत्य है या अनृत अर्थात्‌ असत्य है । ये सारे
+
नाली गंदा पानी बहाकर ले जाने वाली होती है । बर्तन
   −
परमात्मा के ही रूप हैं और चूँकि परमात्मा सत्यस्वरूप है
+
साफ करने के डिटर्जट पाउडर से उन्हें साफ किया जाता है
   −
ये भी सारे सत्य ही हैं
+
ये दो बातें ही कितना विपरीत परिणाम करती हैं यह भी
   −
सृष्टि परमात्मा का विश्वरूप है
+
देखें । जूठन नाली में बहाने का अर्थ है हम अन्न को देवता
   −
भारतीय विचारविश्व का यह सर्वस्वीकृत, आधारभूत
+
न मानकर उसे अपवित्र करते हैं । बन्द नाली में बहाने से
   −
और प्रिय सिद्धान्त है । यह सारी सृष्टि परमात्मा ने बनाई
+
वह अपने आप सूखता नहीं है बल्कि सड़ता है। बन्द
   −
यह तो ठीक है । विश्व की अन्यान्य विचारधारायें यह तो
+
नाली व्यवस्था से गंदा पानी बहाकर ले जाने का खर्च तो
   −
मानती ही हैं । परन्तु भारतीय विचार विशेष रूप से यह
+
होता ही है, व्यवस्था बनाने में समय और परिश्रम भी होता
   −
कहता है कि परमात्मा ने अपने में से ही यह सृष्टि बनाई
+
है, पर्यावरण का प्रदूषण भी होता है । गंदा पानी रसायनों से
   −
और वह स्वयं उसमें प्रवेश कर सृष्टिरुप बन गया
+
साफ किया जाता है पानी शुद्धीकरण की बहुत जटिल
   −
परमात्मा और उसकी सृष्टि दो नहीं हैं, एक ही हैं यह
+
व्यवस्था बनानी पड़ती है उस प्रक्रिया से शुद्ध हुआ पानी
   −
अट्रैत सिद्धान्त सारे विचार में आधारभूत सिद्धान्त के रूप में
+
भी कृत्रिम रूप से ही शुद्ध होता है । जमीन पर पानी नहीं
   −
प्रतिष्ठित है । यह सिद्धान्त इतना व्यापक रूप में प्रतिष्ठित है
+
गिरने से भूमि की आर्द्रता कम होती है । पानी भूमि में नीचे
   −
कि अनपढ़, गरीब, सामान्य लोग भी मानते हैं और कहते हैं
+
ही नीचे जाता है । खुदाई करने पर वह बहुत नीचे ही
   −
कि सचराचर में परमात्मा का वास है । सार्वत्रिक मान्यता है
+
मिलता है । वातावरण का तापमान बढ़ता है । डिटर्जेंट
   −
कि भगवान सर्वत्र है, वह सब देखता है, सब जानता है,
+
पाउडर से बर्तन साफ करने के लिये अधिक पानी खर्च
   −
सर्वशक्तिमान है ।
+
करना पड़ता है । उसके बाद भी वह बर्तन को चिपका ही
   −
प्रस्थापित सिद्धान्त है कि यह सृष्टि परमात्मा का
+
रहता है । भोजन करते समय भोजन पदार्थों के साथ मिलकर
   −
विश्वरूप है
+
वह पेट में जाता है और स्वास्थ्य पर विपरीत परिणाम
   −
इसीसे यह सिद्धान्त स्वाभाविक निकलता है कि जिस
+
करता है । राख़ या मिट्टी कभी गलती से भी पेट में गई तो
   −
प्रकार परमात्मा और उसकी सृष्टि एक है उसी प्रकार यह
+
ऐसा विपरीत परिणाम नहीं करते हैं । इस प्रकार स्वास्थ्य,
   −
सृष्टि भी मूलतः: एक है । परमात्मा अपने परमात्म स्वरूप में
+
सुविधा, पर्यावरण, सुलभता और सुकरता आदि सभी बातों
   −
अदृश्य, अनाकलनीय, अवर्णनीय, निर्गुण, निराकार है परन्तु
+
शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
   −
जैसे ही विश्वरूप धारण करता है वह दृश्यमान, वर्णन करने
+
को ध्यान में रखकर बर्तन साफ करने जैसी छोटी और
   −
योग्य, कल्पना करने योग्य बन जाता है वह सगुण और
+
सामान्य क्रिया की योजना होती थी यदि कोई यह कहे कि
   −
साकार बन जाता है । वह इन्ट्रियग्राह्म, मनोग्राह्म, बुद्धिग्राह्म
+
यह विचारपूर्वक नहीं किया गया होगा, अपने आप ही ऐसा
   −
बन जाता है । परमात्मा का यह विश्वरूप अर्थात्‌ सृष्टि
+
होता था तो वह ठीक नहीं है । कोई भी बात अपने आप
   −
वैविध्यपूर्ण है । सृष्टि की विविधता का कोई अन्त नहीं ।
+
नहीं होने लगती है, उसकी योजना करनी होती है । किसी
   −
किंबहुना विविधता ही सृष्टि का स्वभाव है । यह विविधता
+
भी प्रकार से आरम्भ हो भी गई हो तो भी समय के साथ
   −
ऐसी है कि एक वृक्ष के असंख्य पत्तों में एक भी पत्ता दूसरे
+
अनुभव और बुद्धिपूर्वक विचार से वह परिष्कृत होती है
   −
पत्ते जैसा नहीं होता एकरूपता सृष्टि में कहीं नहीं है।
+
और लोकन्यवहार में रूढ होती है दृष्टि यदि समग्रता की
   −
यदि एक के समान दूसरा कोई हो तो उसका अपना कोई
+
रही तो सर्व प्रकार का लाभ होता है, खण्डखण्डात्मक रही
   −
............. page-21 .............
+
तो श्रम, समय, धन आदि खर्च होने के बाद भी लाभ के
   −
we : १ तत्त्वचिन्तन
+
स्थान पर हानि ही होती है ।
   −
प्रयोजन ही नहीं रहेगा । अत: सृष्टि की छोटी से छोटी
+
इस प्रकार की समग्रता मकान बनाने में, कृषि जैसा
   −
इकाई की भी अपनी स्वतन्त्र निजी सत्ता है ।
+
उद्योग करने में, वटपूर्णिमा या दीपावली जैसे उत्सव मनाने
   −
परन्तु यह अनन्त वैविध्ययुक्त सृष्टि मूल में एक है ।
+
में दिखाई देती है । मेरा आपसे अनुरोध है कि आप हमारे
   −
दिखने वाली भिन्नता में न दिखने वाला एकत्व जानना ही
+
दैनंदिन व्यवहारों और व्यवस्थाओं का इस दृष्टि से पुन: एक
   −
सृष्टि के सही स्वरूप को जानना है इस मूल एकत्व को
+
बार विश्लेषण और मूल्यांकन करें
   −
एकात्मता कहते हैं । इसका सीधा सा अर्थ है कि सर्वत्र
+
सृष्टि का समग्र स्वरूप
   −
आत्त्मतत्त्व व्याप्त है
+
इस सृष्टि का स्वरूप कैसा है यह जानने से समग्रता
   −
भारत के सारे विचारों, व्यवहारों, व्यवस्थाओं और
+
का अर्थ क्‍या है यह ध्यान में आयेगा । प्रारम्भ में ही
   −
रचनाओं में यह एकात्मता अनुस्यूत रहती है । इसे ही समग्र
+
परमात्मा ने एक से अनेक होने की इच्छा से सृष्टिरूप धारण
   −
कहते हैं । एकात्मता ही समग्रता है । एकात्मता से अनुस्यूत
+
किया ऐसा उल्लेख आया है । यह प्रक्रिया कैसे हुई ?
   −
विचार समग्र विचार है, एकात्मता से अनुस्यूत व्यवहार
+
सर्व प्रथम परमात्मा दो हिस्सों में विभाजित हुआ ।
   −
समग्रतापूर्ण व्यवहार है एकात्मता से अनुस्यूत व्यवस्थायें
+
विभिन्न दर्शनों में इन्हें भिन्न-भिन्न नाम दिये गये हैं श्रीमद्‌
   −
समग्रतायुक्त व्यवस्थायें हैं एकात्मता से अनुस्यूत TA
+
भगवद गीता ने इसे सरल बनाया है गीता तीन इकाइयों
   −
समग्रता से ओतप्रोत रचनायें हैं एकात्मता ही समग्रता है,
+
का वर्णन करती है तीनों को गीता ने 'पुरुष' संज्ञा दी है
   −
यही सूत्र है
+
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्राक्षर एव च
   −
यह समग्रता पिण्ड से लेकर ब्रह्माण्ड तक सर्वत्र है ।
+
क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोक्षर उच्यते ।।
   −
पिण्ड का अर्थ है छोटी इकाई । ब्रह्माण्ड से तात्पर्य है बड़ी
+
उत्तम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युदाहहत: |
   −
से बड़ी इकाई । अर्थात एक रजकण भी समग्रता युक्त है,
+
यो लोकत्रयमाविष्य बिभर्त्यव्यय ईश्वर: ।। (१५/ १६-१७)
   −
एक मनुष्य भी समग्रतायुक्त है, बड़े से बड़ा नक्षत्र भी
+
ये तीन पुरुष हैं उत्तम पुरुष, अक्षर पुरुष और क्षर
   −
समग्रतायुक्त है और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भी समग्रतायुक्त है । जरा
+
पुरुष । उत्तम पुरुष परमात्मा है, अक्षर पुरुष आत्मा या पुरुष
   −
भी कम नहीं, जरा भी अधिक नहीं ।
+
है और क्षर पुरुष प्रकृति है । इस प्रकार परमात्मा, पुरुष
   −
अंगांगी सम्बन्ध
+
और प्रकृति ऐसी तीन इकाइयाँ हुईं । पुरुष चेतन तत्त्व है,
   −
पुरुषसूक्त में परमात्मा के सृष्टिरूप का वर्णन मनुष्य के
+
प्रकृति जड़़ तत्त्व है और परमात्मा जड़़ और चेतन दोनों से
   −
शरीर के रूप में किया गया है । पुरुषसूक्त बहुत प्रसिद्ध
+
............. page-23 .............
   −
स्चना है इसलिये मैं यहाँ उसका वर्णन नहीं करता हूँ। आप
+
we : १ तत्त्वचिन्तन
   −
सब वह जानते ही हैं जिस प्रकार शरीर के छोटे बड़े सभी
+
परे है । वह जड़़ भी है, चेतन भी है अथवा जड़़ भी नहीं
   −
अंग एकदूसरे के साथ और पूरे शरीर के साथ जुड़े हुए हैं
+
है, चेतन भी नहीं है। “नहीं है' कहने से 'है' कहना
   −
उसी प्रकार यह सृष्टि भी अड्भांगी सम्बन्ध से जुड़ी हुई है
+
अधिक युक्तिसंगत है क्योंकि जो नहीं है उसमें से 'है' कैसे
   −
शरीर के सभी अंग और उपांगों के अपने अपने नाम हैं,
+
उत्पन्न होगा ? इसलिये परमात्मा जड़़ भी है और चेतन भी
   −
काम हैं, आकार हैं, आवश्यकतायें हैं और स्वभाव हैं उसी
+
है।
   −
प्रकार सृष्टि की सारी इकाइयों के अपने अपने नाम, काम,
+
चिज्डग्रन्थि
   −
आकार, आवश्यकतायें और स्वभाव हैं । यह स्वभाव
+
अपने मूल रूप में परमात्मा अक्रिय है । पुरुष और
   −
उसका आत्मतत्त्व है जिस प्रकार शरीर के सभी अंगों का
+
प्रकृति सक्रिय हैं दोनों मिलकर सृष्टि के रूप में विकसित
   −
स्वत्व अलग अलग होने पर भी शरीर के बिना उनका कोई
+
होते हैं । दोनों के मिलन को चिज्जड़ग्रन्थि अर्थात्‌ चेतन
   −
प्रयोजन नहीं होता है उसी प्रकार सृष्टि
+
और जड़़ की गाँठ कहते हैं । यह गाँठ ऐसी है कि अब
   −
की किसी भी इकाई का सम्पूर्ण सृष्टि के साथ समरस होकर,
+
दोनों को एकदूसरे से अलग पहचाना नहीं जाता है । जहाँ
   −
सम्बन्धित होकर ही प्रयोजन होता है शरीर का कोई अंग
+
भी हो दोनों साथ में रहते हैं यह चेतन और जड़़ का आदि
   −
अपने आपको अलग मानकर, और उस अलगता को ही
+
ग्रन्थन है जहाँ से सृष्टि रचना प्रारम्भ होती है ।
   −
स्वतन्त्रता समझकर अपनी ही पद्धति से व्यवहार करने
+
श्रीमद्‌ भगवद गीता ने इसका वर्णन इस प्रकार किया
   −
लगता है तो उसको स्वयं को, दूसरे अंगों को और पूरे शरीर
+
है,
   −
को कष्ट होता है, हानि होती है उसी प्रकार सृष्टि का कोई
+
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्‌गर्भ दधाम्यहम्‌
   −
भी अंग अपने आपको अलग और स्वतन्त्र मानकर व्यवहार
+
सम्भव: सर्वभूतानां ततो भवति भारत ।।
   −
करने लगता है तब उसकी स्वयं की, अन्यों की और पूरी
+
श्री.भ.गी. अ. १४/३
   −
सृष्टि की हानि होती है ।
+
प्रकृति पुरुष चैव विद्धयनादी उभावपि |
   −
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य को छोड़कर सृष्टि
+
विकारांश्र गुणांश्वैव विद्धि प्रकृतिसम्बवान्‌ ।।
   −
का एक भी पदार्थ अपनी मनमानी नहीं करता है । वह
+
oft. rai. at. 23/28
   −
सबके साथ सामंजस्य बनाकर ही रहता है। किंबहुना
+
चेतन और जड़़ के संयोग से अब प्रकृति में परिवर्तन
   −
उसकी ऐसी शक्ति ही नहीं होती है । वह पूर्ण रूप से प्रकृति
+
प्रारम्भ होता है । इस अनन्त वैविध्यपूर्ण सृष्टि के मूल रूप
   −
के नियन्त्रण में रहता है इसलिये वह किसीके कष्ट, दुःख,
+
में आठ तत्त्व हैं जो प्रकृति के ही रूप हैं चेतन निराकार
   −
हानि आदि का कारण नहीं बनता है । कष्ट, दुःख, हानि
+
ही रहता है, अपरिवर्तनीय रहता है । ये आठ तत्त्व गीता में
   −
आदि शब्द भी मनुष्य की दुनिया के हैं, मनुष्येतर दुनिया के
+
इस प्रकार कहे गये हैं
   −
नहीं इसलिये समग्रता की संकल्पना समझना और उसका
+
भूमिरापो$नलो वायु: खं मनो बुद्धिरिव च
   −
अनुसरण करना मनुष्य का ही दायित्व बनता है ।
+
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।। (७/ ४)
   −
समग्रता की आवश्यकता
+
इस प्रकार सारी सृष्टि पंचमहाभूत, मन, बुद्धि, अहंकार
   −
भारत के दीर्घ इतिहास में सर्वत्र समग्रता का यह
+
ऐसे प्रकृति के आठ तत्त्व और सर्वत्र अनुस्यूत चेतन से बनी
   −
विचार दिखाई देता है । चाहे वस्त्र पहनना हो, चाहे घर
+
है । सारी विविधाताओं में ये सारे तत्त्व होते ही हैं ।
   −
बनाना हो, चाहे भोजन करना हो, चाहे उत्सव मनाना हो,
+
ये सारे तत्त्व आपस में समरस होकर ही रहते हैं ।
   −
चाहे उत्पादन करना हो, चाहे कला की उपासना करना हो,
+
मानवसृजित किसी भी प्रकार के व्यवहार में या आयोजन में
   −
चाहे राज्य चलाना हो, चाहे घर चलाना हो,चाहे खेलना
+
इन तत्त्वों की समरसता का ध्यान रखना समग्र दृष्टि है ।
   −
हो चाहे युद्ध करना हो, सर्वत्र समग्रता का विचार किया
+
कुछ और भी उदाहरण देखें ।
   −
हुआ दिखाई देता है
+
मनुष्य के विषय में समग्र दृष्टि से विचार करना है तो
   −
जब समग्रता का विचार किया जाता है तब क्या होता
+
इस प्रकार किया जायेगा । सम्पूर्ण सृष्टि में मनुष्य का सृजन
   −
है और नहीं किया जाता है तब क्या होता है इसके कुछ
+
परमात्मा की सूजन प्रक्रिया में श्रेष्ठततम है । ऐसी कथा है कि
   −
उदाहरण देखें ।
+
परमात्मा ने सृष्टि रचना का प्रारम्भ किया तब पंचमहाभूत
   −
घरों में भोजन के बाद जूठे बर्तन साफ करते हैं तब
+
बनाये, वृक्षवनस्पति बनाये, प्राणीसृष्टि निर्माण की, परन्तु
   −
पहले सारी जूठन धोकर एक पात्र में इकट्टी करते हैं वह
+
उसका मन नहीं भरा उसे अभी और उत्कृष्ट रचना की
   −
पानी कुत्ते को या बकरी को पिलाया जाता है बर्तन मिट्टी
+
अभिलाषा थी । अन्त में उसने मनुष्य का सृजन किया
   −
से या राख़ से साफ किये जाते हैं । बर्तन धोया हुआ पानी
+
मनुष्य को बनाकर परमात्मा स्वयं अपने ऊपर और मनुष्य
   −
............. page-22 .............
+
पर बहुत प्रसन्न हुआ । उसने मनुष्य को अपने ही प्रतिरूप
   −
रेत में, मिट्टी में या खुली नाली में
+
में बनाया । तात्पर्य यह है कि मनुष्य इस सृष्टि में परमात्मा
   −
बहाया जाता है । बर्तन सूती कपड़े से पोंछे जाते हैं
+
के स्वरूप की श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति है ।
   −
भोजन बनाते समय सब्जी आदि के जो छिलके निकलते हैं
+
ऐसा श्रेष्ठ मनुष्य. पंचमहाभूत,  पंचकर्मेन्ट्रिय,
   −
वे या तो गायबकरी को खिलाये जाते हैं अथवा सुखाकर
+
पंचज्ञानेन्द्रिय, पंचप्राण, मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त तथा
   −
जलाने के काम में लिये जाते हैं बर्तन धोने का जो पानी
+
चेतन तत्त्व आदि तत्त्वों का बना हुआ है इनसभी तत्त्वों
   −
रेत में गिरता है वह हवा से और धूप से सूख जाता है ।
+
का आपसी समरस सम्बन्ध है । समरस सम्बन्ध से तात्पर्य
   −
कुछ पानी जमीन में भी उतरता है
+
यह है कि ये एक अभिन्न व्यक्तित्व के अंग बनकर एकदूसरे
   −
यह बात लोकव्यवहार में इतनी ओतप्रोत थी कि
+
को प्रभावित करते हैं और एकदूसरे से प्रभावित होते हैं ।
   −
उसके पीछे क्या दृष्टि रही होगी इसका विश्लेषण या
+
मनुष्य शरीर का आश्रय लेकर ये सारे तत्त्व रहते हैं और एक
   −
विवेचन कभी किया नहीं जाता था करने की आवश्यकता
+
होकर व्यवहार करते हैं । मनुष्य इन सबका एक संघात है
   −
नहीं लगती थी आज जब यह पद्धति बदली है तब इसकी
+
ये सारे उसके व्यक्तित्व के अंगउपांग हैं मनुष्य का शरीर
   −
विशेषतायें ध्यान में आती हैं आज बर्तन साफ किये जाते
+
मन को प्रभावित करता है और मन शरीर को मन बुद्धि
   −
हैं तब जूठन को नाली में बहाया जाता है । यह भूमिगत
+
को प्रभावित करता है और बुद्धि मन को इन सभी अंगों
   −
नाली गंदा पानी बहाकर ले जाने वाली होती है बर्तन
+
के अपनेअपने काम हैं हाथ वस्तुओं के निर्माण का कार्य
   −
साफ करने के डिटर्जट पाउडर से उन्हें साफ किया जाता है
+
करते हैं, पैर गति करते हैं और शरीर का भार उठाते हैं
   −
ये दो बातें ही कितना विपरीत परिणाम करती हैं यह भी
+
वाणी बोलती है । मन विचार करता है, इच्छा करता है,
   −
देखें जूठन नाली में बहाने का अर्थ है हम अन्न को देवता
+
भावनाओं का अनुभव करता है बुद्धि जानती है, समझती
   −
न मानकर उसे अपवित्र करते हैं बन्द नाली में बहाने से
+
है और विवेक करती है शरीर यन्त्र की तरह अनेक काम
   −
वह अपने आप सूखता नहीं है बल्कि सड़ता है। बन्द
+
करता है, प्राण उस यन्त्र को ऊर्जा प्रदान करता है, बुद्धि
   −
नाली व्यवस्था से गंदा पानी बहाकर ले जाने का खर्च तो
+
शरीर, प्राण, मन आदि को निर्देश देती है और नियमन में
   −
होता ही है, व्यवस्था बनाने में समय और परिश्रम भी होता
+
रखती है, अहंकार कर्तृत्व, भोक्तृत्व और ज्ञातृत्व के भाव
   −
है, पर्यावरण का प्रदूषण भी होता है । गंदा पानी रसायनों से
+
के साथ रहता है, चित्त इन सबको संस्कारों के रूप में ग्रहण
   −
साफ किया जाता है । पानी शुद्धीकरण की बहुत जटिल
+
कर सारे अनुभवों को स्थायी बनाता है । मनुष्य के सारे
   −
व्यवस्था बनानी पड़ती है । उस प्रक्रिया से शुद्ध हुआ पानी
+
व्यवहार सत्त्व, रज और तम ऐसे तीन गुणों से ओतप्रोत
   −
भी कृत्रिम रूप से ही शुद्ध होता है । जमीन पर पानी नहीं
+
रहते हैं । इन सभी में समरसता रहती है । एकदूसरे का साथ
   −
गिरने से भूमि की आर्द्रता कम होती है । पानी भूमि में नीचे
+
............. page-24 .............
   −
ही नीचे जाता है । खुदाई करने पर वह बहुत नीचे ही
+
लिये बिना ये अंगउपांग संघात के रूप
   −
मिलता है वातावरण का तापमान बढ़ता है । डिटर्जेंट
+
में काम ही नहीं कर सकते हैं इस समरसता को बनाये
   −
पाउडर से बर्तन साफ करने के लिये अधिक पानी खर्च
+
रखते हुए व्यवहार करने की दृष्टि समग्रता की दृष्टि है ।
   −
करना पड़ता है । उसके बाद भी वह बर्तन को चिपका ही
+
उदाहरण के लिये हम आहार ग्रहण करते हैं तब
   −
रहता है । भोजन करते समय भोजन पदार्थों के साथ मिलकर
+
उसकी आवश्यकता शरीर और प्राण के लिये होती है ।
   −
वह पेट में जाता है और स्वास्थ्य पर विपरीत परिणाम
+
इसलिये हम पोषकता का ध्यान रखते हैं । रसनेन्ट्रिय उसका
   −
करता है । राख़ या मिट्टी कभी गलती से भी पेट में गई तो
+
स्वाद ग्रहण करती है । मन का उसमें रुचिअरुचि का भाव
   −
ऐसा विपरीत परिणाम नहीं करते हैं । इस प्रकार स्वास्थ्य,
+
होता है । इसलिये हम स्वादिष्टता का ध्यान रखते हैं ।
   −
सुविधा, पर्यावरण, सुलभता और सुकरता आदि सभी बातों
+
स्वाद और पौष्टिकता को बनाये रखने के लिये हाथ को
   −
शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
+
कुशलता से काम करना होता है । बुद्धि बनाने की और
   −
को ध्यान में रखकर बर्तन साफ करने जैसी छोटी और
+
खाने की प्रक्रिया में उचितअनुचित का निर्देश देती है ।
   −
सामान्य क्रिया की योजना होती थी । यदि कोई यह कहे कि
+
अहंकार भोजन कर तृप्ति का अनुभव करता है और चित्त
   −
यह विचारपूर्वक नहीं किया गया होगा, अपने आप ही ऐसा
+
आहार से संस्कार ग्रहण करता है । हृदय स्वाद में रस भरता
   −
होता था तो वह ठीक नहीं है । कोई भी बात अपने आप
+
है और सौन्दर्यबोध का अनुभव करवाता है । इनमें एक भी
   −
नहीं होने लगती है, उसकी योजना करनी होती है । किसी
+
यदि अपना काम दूसरे का ध्यान रखे बिना करता है तो
   −
भी प्रकार से शुरू हो भी गई हो तो भी समय के साथ
+
गड़बड़ होती है । हाथ यदि कुशल नहीं हैं तो स्वाद और
   −
अनुभव और बुद्धिपूर्वक विचार से वह परिष्कृत होती है
+
पोषण दोनों बिगड़ते हैं । केवल शरीर के पोषण का ही
   −
और लोकन्यवहार में रूढ होती है । दृष्टि यदि समग्रता की
+
ध्यान रखना है तो सारे भोजन पदार्थ एकसाथ मिलाकर
   −
रही तो सर्व प्रकार का लाभ होता है, खण्डखण्डात्मक रही
+
सानी बनाकर भी खाये जा सकते हैं । परन्तु मनुष्य का मन
   −
तो श्रम, समय, धन आदि खर्च होने के बाद भी लाभ के
+
और हृदय ऐसा नहीं करने देते हैं । या तो पशु इस प्रकार
   −
स्थान पर हानि ही होती है ।
+
खाता है या संन्यासी या योगी इस प्रकार खाता है । एक
   −
इस प्रकार की समग्रता मकान बनाने में, कृषि जैसा
+
को ( पशु को ) स्वाद का भान ही नहीं है और दूसरे ने (
   −
उद्योग करने में, वटपूर्णिमा या दीपावली जैसे उत्सव मनाने
+
संन्यासी अथवा योगी ने ) स्वाद को जीत लिया है ।
   −
में दिखाई देती है । मेरा आपसे अनुरोध है कि आप हमारे
+
सुभाषितेन गीतेन युवतिनाम च लीलया
   −
दैनंदिन व्यवहारों और व्यवस्थाओं का इस दृष्टि से पुन: एक
+
मनोनभिद्यते यस्य स योगी अथवा पशु: ।।
   −
बार विश्लेषण और मूल्यांकन करें ।
+
मन यदि स्वाद का ही ध्यान रखता है और
   −
सृष्टि का समग्र स्वरूप
+
पोषणक्षमता का नहीं तो स्वास्थ्य खराब होता है । बुद्धि
   −
इस सृष्टि का स्वरूप कैसा है यह जानने से समग्रता
+
यदि सारी क्रियाओं का नियमन नहीं करती तो स्वाद और
   −
का अर्थ क्‍या है यह ध्यान में आयेगा प्रारम्भ में ही
+
पोषण दोनों का कोई भरोसा नहीं रहता है । हृदय में यदि
   −
परमात्मा ने एक से अनेक होने की इच्छा से सृष्टिरूप धारण
+
रस नहीं है तो स्वादिष्ट और पोषक आहार भी पशु की
   −
किया ऐसा उल्लेख आया है । यह प्रक्रिया कैसे हुई ?
+
सानी जैसा ही होता है । इस प्रकार भोजन बनाने और करने
   −
सर्व प्रथम परमात्मा दो हिस्सों में विभाजित हुआ ।
+
में स्वाद, सौन्दर्यानुभव, पोषण, संस्कारक्षमता आदि सभी
   −
विभिन्न दर्शनों में इन्हें भिन्न-भिन्न नाम दिये गये हैं । श्रीमद्‌
+
बातों का ध्यान रखना समग्र दृष्टि है। किसी एक या दो
   −
भगवद गीता ने इसे सरल बनाया है । गीता तीन इकाइयों
+
बातों का ही ध्यान रखना समग्र दृष्टि नहीं है ।
   −
का वर्णन करती है । तीनों को गीता ने 'पुरुष' संज्ञा दी है ।
+
इस प्रकार कर्मेन्ट्रियों की क्रियाओं, ज्ञानेन्द्रियों के
   −
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्राक्षर एव च ।
+
शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
   −
क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोक्षर उच्यते ।।
+
अनुभवों अथवा संबेदनों, मन की इच्छाओं, बुद्धि का
   −
उत्तम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युदाहहत: |
+
नियमन, चित्त के संस्कार, हृदय का सौन्दर्यानुभव आदि में
   −
यो लोकत्रयमाविष्य बिभर्त्यव्यय ईश्वर: ।। (१५/ १६-१७)
+
समरसतापूर्ण सामंजस्य रखना व्यक्तिगत जीवन में
   −
ये तीन पुरुष हैं उत्तम पुरुष, अक्षर पुरुष और क्षर
+
समग्रतायुक्त व्यवहार होता है ।
   −
पुरुष । उत्तम पुरुष परमात्मा है, अक्षर पुरुष आत्मा या पुरुष
+
सोने में और जागने में, खाने में और पीने में, वस्त्रों में
   −
है और क्षर पुरुष प्रकृति है । इस प्रकार परमात्मा, पुरुष
+
और अलंकारों में, अध्ययन में और अधथर्जिन में,सेवा में
   −
और प्रकृति ऐसी तीन इकाइयाँ हुईं । पुरुष चेतन तत्त्व है,
+
और परिचर्या में, चिन्तन में और मनोरंजन में, काम करने में
   −
प्रकृति जड़ तत्त्व है और परमात्मा जड़ और चेतन दोनों से
+
और खेलने में संक्षेप में सभी व्यवहारों में यह समग्रता की
   −
............. page-23 .............
+
दृष्टि अपेक्षित है ।
   −
we : १ तत्त्वचिन्तन
+
व्यक्तिगत व्यवहारों की तरह सार्वजनिक व्यवहारों में
   −
परे है । वह जड़ भी है, चेतन भी है । अथवा जड़ भी नहीं
+
भी समग्रता की दृष्टि अपेक्षित होती है । सृष्टि में सर्वश्रेष्ठ
   −
है, चेतन भी नहीं है। “नहीं है' कहने से 'है' कहना
+
मनुष्य है । परन्तु उसके अलावा भी अगणित प्राणी और
   −
अधिक युक्तिसंगत है क्योंकि जो नहीं है उसमें से 'है' कैसे
+
पदार्थ हैं । हमारी परम्परा में चौरासी लाख योनियों का
   −
उत्पन्न होगा ? इसलिये परमात्मा जड़ भी है और चेतन भी
+
उल्लेख आता है । यह सृष्टि का वैविध्य दर्शाता है । संख्या
   −
है।
+
के बारे में अधिक ऊहापोह न भी करें तो भी बहुत अधिक
   −
चिज्डग्रन्थि
+
वैविध्य है इतना कहना पर्याप्त है । इस वैविध्य को दो
   −
अपने मूल रूप में परमात्मा अक्रिय है । पुरुष और
+
भागों में विभाजित किया जा सकता है। एक है मनुष्य सृष्टि,
   −
प्रकृति सक्रिय हैं । दोनों मिलकर सृष्टि के रूप में विकसित
+
अर्थात्‌ ब्रह्माण्ड में जितने भी मनुष्य हैं वे एक वर्ग बनाते
   −
होते हैं । दोनों के मिलन को चिज्जडग्रन्थि अर्थात्‌ चेतन
+
हैं। मनुष्यों में भी बहुत विविधता होती है परन्तु सारे
   −
और जड़ की गाँठ कहते हैं । यह गाँठ ऐसी है कि अब
+
मिलकर एक वर्ग बनाते हैं । दूसरा विभाग है मनुष्येतर
   −
दोनों को एकदूसरे से अलग पहचाना नहीं जाता है जहाँ
+
सृष्टि इनमें पंचमहाभूत, वनस्पति तथा प्राणी सृष्टि का
   −
भी हो दोनों साथ में रहते हैं । यह चेतन और जड़ का आदि
+
समावेश होता है । पंचमहाभूत हैं आकाश, वायु, अग्ि,
   −
ग्रन्थन है जहाँ से सृष्टि रचना प्रारम्भ होती है
+
जल और पृथ्वी प्राणियों में स्वेदज, अण्डज, उद्धिज और
   −
श्रीमद्‌ भगवद गीता ने इसका वर्णन इस प्रकार किया
+
जरायुज ऐसी श्रेणियों का समावेश होता है । वनस्पतियों में
   −
है,
+
वृक्ष, लता, घास और पौधों का समावेश होता है । इन
   −
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्‌गर्भ दधाम्यहम्‌
+
सबका आपसी सम्बन्ध है सृष्टि में सर्वत्र पाँचों महाभूत
   −
सम्भव: सर्वभूतानां ततो भवति भारत ।।
+
एकसाथ ही रहते हैं । अर्थात्‌ किसी भी पदार्थ में कोई एक
   −
श्री.भ.गी. अ. १४/३
+
महाभूत की प्रधानता भले ही हो, रहते पाँचों हैं । महाभूतों
   −
प्रकृति पुरुष चैव विद्धयनादी उभावपि |
+
का वनस्पति सृष्टि के साथ गहरा सम्बन्ध है क्योंकि
   −
विकारांश्र गुणांश्वैव विद्धि प्रकृतिसम्बवान्‌ ।।
+
वनस्पतियों की देह पंचमहाभूतों की ही बनी होती है।
   −
oft. rai. at. 23/28
+
इसके साथ-साथ सृष्टि में मन, बुद्धि और अहंकार भी होते
   −
चेतन और जड़ के संयोग से अब प्रकृति में परिवर्तन
+
हैं । इसीसे सम्बन्धित सत्त्व, रज, तम ये तीन गुण भी होते
   −
प्रारम्भ होता है इस अनन्त वैविध्यपूर्ण सृष्टि के मूल रूप
+
हैं ये सारी इकाइयाँ एकदूसरे को प्रभावित करती हैं और
   −
में आठ तत्त्व हैं जो प्रकृति के ही रूप हैं । चेतन निराकार
+
एकदूसरे से प्रभावित होती हैं । इन सबमें समरसता युक्त
   −
ही रहता है, अपरिवर्तनीय रहता है ये आठ तत्त्व गीता में
+
सामंजस्य बनाये रखने को ही समग्र दृष्टि कहते हैं
   −
इस प्रकार कहे गये हैं ।
+
............. page-25 .............
   −
भूमिरापो$नलो वायु: खं मनो बुद्धिरिव च ।
+
we : १ तत्त्वचिन्तन
   −
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।। (७/ ४)
+
मनुष्य का दायित्व
   −
इस प्रकार सारी सृष्टि पंचमहाभूत, मन, बुद्धि, अहंकार
+
ऐसा सामंजस्य बनाये रखने का दायित्व मनुष्य का है ।
   −
ऐसे प्रकृति के आठ तत्त्व और सर्वत्र अनुस्यूत चेतन से बनी
+
कारण स्पष्ट है । एक, केवल मनुष्य को ही सक्रिय मन प्राप्त
   −
है । सारी विविधाताओं में ये सारे तत्त्व होते ही हैं ।
+
हुआ है । मन बनाने वाला भी होता है और बिगाड़ने वाला
   −
ये सारे तत्त्व आपस में समरस होकर ही रहते हैं ।
+
भी होता है । मनुष्य को ही सक्रिय बुद्धि और अहंकार मिले
   −
मानवसृजित किसी भी प्रकार के व्यवहार में या आयोजन में
+
al इसलिये उसका दायित्व बनता है । दूसरा, मनुष्य
   −
इन तत्त्वों की समरसता का ध्यान रखना समग्र दृष्टि है ।
+
परमात्मा की सारी अभिव्यक्तियों में सबसे बड़ा है । भारत में
   −
कुछ और भी उदाहरण देखें
+
बड़ों को कर्तव्य दिया गया है कष्ट सहने में, दूसरों का
   −
मनुष्य के विषय में समग्र दृष्टि से विचार करना है तो
+
विचार करने में, रक्षण और पोषण करने में बड़ों का क्रम
   −
इस प्रकार किया जायेगा । सम्पूर्ण सृष्टि में मनुष्य का सृजन
+
पहला है, जबकि उपभोग में अन्तिम है । इस कारण से
   −
परमात्मा की सूजन प्रक्रिया में श्रेष्ठततम है । ऐसी कथा है कि
+
सामंजस्य बनाये रखने का दायित्व मनुष्य का है । तीसरा
   −
परमात्मा ने सृष्टि रचना का प्रारम्भ किया तब पंचमहाभूत
+
कारण यह है कि मनुष्य के अलावा शेष सारी सृष्टि तो प्रकृति
   −
बनाये, वृक्षवनस्पति बनाये, प्राणीसृष्टि निर्माण की, परन्तु
+
के नियन्त्रण और नियमन में ही रहती है । वह न तो बना
   −
उसका मन नहीं भरा उसे अभी और उत्कृष्ट रचना की
+
सकती है न बिगाड़ सकती है बनाने या बिगाड़ने वाला तो
   −
अभिलाषा थी अन्त में उसने मनुष्य का सृजन किया
+
मनुष्य ही होता है इसलिये भी मनुष्य का दायित्व है
   −
मनुष्य को बनाकर परमात्मा स्वयं अपने ऊपर और मनुष्य
+
मनुष्येतर सृष्टि में प्राणियों की और वनस्पति की
   −
पर बहुत प्रसन्न हुआ उसने मनुष्य को अपने ही प्रतिरूप
+
आवश्यकतायें प्राकृतिक रूप से ही पूर्ण हो जाती हैं परन्तु
   −
में बनाया तात्पर्य यह है कि मनुष्य इस सृष्टि में परमात्मा
+
मनुष्य का ऐसा नहीं है उसकी इच्छायें और आवश्यकतायें
   −
के स्वरूप की श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति है ।
+
बहुत अधिक होती हैं । मनुष्य ने अपने मन और बुद्धि के
   −
ऐसा श्रेष्ठ मनुष्य. पंचमहाभूत,  पंचकर्मेन्ट्रिय,
+
कारण अपनी आवश्यकतायें बहुत अधिक बढ़ा ली हैं । इन
   −
पंचज्ञानेन्द्रिय, पंचप्राण, मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त तथा
+
आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये उसे श्रम करना पड़ता है ।
   −
चेतन तत्त्व आदि तत्त्वों का बना हुआ है । इनसभी तत्त्वों
+
साथ ही वह सृजनशील और जिज्ञासु प्राणी है । इसलिये
   −
का आपसी समरस सम्बन्ध है । समरस सम्बन्ध से तात्पर्य
+
वह अनेक प्रकार की वस्तुर्यें बनाता है । मनुष्य को अन्य
   −
यह है कि ये एक अभिन्न व्यक्तित्व के अंग बनकर एकदूसरे
+
मनुष्यों के साथ रहना है । साथ रहने के लिये उसे अनेक
   −
को प्रभावित करते हैं और एकदूसरे से प्रभावित होते हैं ।
+
प्रकार की व्यवस्थायें बनानी पड़ती हैं । उदाहरण के लिये
   −
मनुष्य शरीर का आश्रय लेकर ये सारे तत्त्व रहते हैं और एक
+
परिवारव्यवस्था, अर्थव्यवस्था, राज्यव्यवस्था आदि अनेक
   −
होकर व्यवहार करते हैं । मनुष्य इन सबका एक संघात है ।
+
प्रकार की व्यवस्थायें वह बनाता है । उसे अनेक नियम
   −
ये सारे उसके व्यक्तित्व के अंगउपांग हैं । मनुष्य का शरीर
+
बनाने पढ़ते हैं । नियम बनाने की प्रक्रिया जब वैश्विक
   −
मन को प्रभावित करता है और मन शरीर को । मन बुद्धि
+
नियमों के अविरोधी होती है तब वह सबका भला करती है
   −
को प्रभावित करता है और बुद्धि मन को इन सभी अंगों
+
और सामंजस्य को निभा सकती है ।
   −
के अपनेअपने काम हैं । हाथ वस्तुओं के निर्माण का कार्य
+
उदाहरण के लिये समग्रता की दृष्टि से जब
   −
करते हैं, पैर गति करते हैं और शरीर का भार उठाते हैं ।
+
राज्यव्यवस्था बनती है तब राजा प्रजापालक होता है,
   −
वाणी बोलती है । मन विचार करता है, इच्छा करता है,
+
अपने आपको प्रजा का सेवक मानता है । समग्रता की दृष्टि
   −
भावनाओं का अनुभव करता है । बुद्धि जानती है, समझती
+
से परिवारव्यवस्था बनती है तब पतिपत्नी का एकात्म
   −
है और विवेक करती है । शरीर यन्त्र की तरह अनेक काम
+
सम्बन्ध उसका केन्द्रबिन्दु बनता है और उस केन्द्र से जो
   −
करता है, प्राण उस यन्त्र को ऊर्जा प्रदान करता है, बुद्धि
+
वृत्त बनता है वह विस्तृत होतेहोते
   −
शरीर, प्राण, मन आदि को निर्देश देती है और नियमन में
+
वसुधैव कुटुम्बकम्‌ तक पहुँचता है । समग्रता की दृष्टि से
   −
रखती है, अहंकार कर्तृत्व, भोक्तृत्व और ज्ञातृत्व के भाव
+
जब अर्थव्यवस्था बनती है तब वह समाज की समृद्धि का
   −
के साथ रहता है, चित्त इन सबको संस्कारों के रूप में ग्रहण
+
लक्ष्य रखती है और बाजार को धर्म के नियन्त्रण में रखती
   −
कर सारे अनुभवों को स्थायी बनाता है । मनुष्य के सारे
+
है । समग्रता की दृष्टि से जब समाजव्यवस्था बनती है तब
   −
व्यवहार सत्त्व, रज और तम ऐसे तीन गुणों से ओतप्रोत
+
परिवारभावना उसका आधार होती है और संस्कृति तथा
   −
रहते हैं । इन सभी में समरसता रहती है । एकदूसरे का साथ
+
समृद्धि का रक्षण और संवर्धन उसका लक्ष्य रहता है।
   −
............. page-24 .............
+
समग्रता की दृष्टि से जब व्यक्ति अर्थार्जन करता है तब वह
   −
लिये बिना ये अंगउपांग संघात के रूप
+
समाज के लिये उपयोगी वस्तुओं के उत्पादन को माध्यम
   −
में काम ही नहीं कर सकते हैं । इस समरसता को बनाये
+
बनाता है, पर्यावरण की हानि न हो इसका ध्यान रखता है,
   −
रखते हुए व्यवहार करने की दृष्टि समग्रता की दृष्टि है ।
+
किसीकी रोजगारी और स्वतन्त्रता का हरण न हो इसकी
   −
उदाहरण के लिये हम आहार ग्रहण करते हैं तब
+
चिन्ता करता है, दान को अर्थार्जन का अंग बनाता है।
   −
उसकी आवश्यकता शरीर और प्राण के लिये होती है
+
समग्रता की दृष्टि से जब वह पंचमहाभूतों की ओर देखता है
   −
इसलिये हम पोषकता का ध्यान रखते हैं । रसनेन्ट्रिय उसका
+
तब वह भूमि को माता मानता है, पंचमहाभूतों को देवता
   −
स्वाद ग्रहण करती है । मन का उसमें रुचिअरुचि का भाव
+
मानता है, वनस्पति और प्राणी को अपने स्नेह के पात्र
   −
होता है । इसलिये हम स्वादिष्टता का ध्यान रखते हैं ।
+
मानता है और उनके प्रति कृतज्ञ रहता है । समग्रता की दृष्टि
   −
स्वाद और पौष्टिकता को बनाये रखने के लिये हाथ को
+
से जब जीवन की ओर देखता है तो प्रेम, सेवा, त्याग
   −
कुशलता से काम करना होता है बुद्धि बनाने की और
+
उसके व्यवहार के आधार होते हैं समग्रता की दृष्टि से जब
   −
खाने की प्रक्रिया में उचितअनुचित का निर्देश देती है
+
विश्व की ओर देखता है तब सर्वे भवन्तु सुखिन: ही उसकी
   −
अहंकार भोजन कर तृप्ति का अनुभव करता है और चित्त
+
कामना होती है
   −
आहार से संस्कार ग्रहण करता है । हृदय स्वाद में रस भरता
+
समग्रता की दृष्टि से जब अपने आपको देखता है तब
   −
है और सौन्दर्यबोध का अनुभव करवाता है । इनमें एक भी
+
वह मानता है कि मैं शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, अहंकार,
   −
यदि अपना काम दूसरे का ध्यान रखे बिना करता है तो
+
चित्त आदि के रूप में अभिव्यक्त हुआ ऐसा आत्मा हैँ ।
   −
गड़बड़ होती है हाथ यदि कुशल नहीं हैं तो स्वाद और
+
अहं ब्रह्वास्मि समग्रता की दृष्टि से जब वह सृष्टि को
   −
पोषण दोनों बिगड़ते हैं । केवल शरीर के पोषण का ही
+
देखता है तब वह सृष्टि परमात्मा का विश्वरूप है ऐसा
   −
ध्यान रखना है तो सारे भोजन पदार्थ एकसाथ मिलाकर
+
मानता है । सर्व खलु इदं ब्रह्म ।
   −
सानी बनाकर भी खाये जा सकते हैं । परन्तु मनुष्य का मन
+
इस प्रकार समग्रता एकात्मता है, समग्रता सन्तुलन
   −
और हृदय ऐसा नहीं करने देते हैं या तो पशु इस प्रकार
+
है,समग्रता सम्पूर्णता है । अपने आपकी और सबकी
   −
खाता है या संन्यासी या योगी इस प्रकार खाता है एक
+
आचार्य का प्रवचन समाप्त हुआ आचार्य शुभंकर
   −
को ( पशु को ) स्वाद का भान ही नहीं है और दूसरे ने (
+
खड़े हुए और कहने लगे कि हम सबने समग्रता के विषय
   −
संन्यासी अथवा योगी ने ) स्वाद को जीत लिया है ।
+
को समझा है । आप सबके प्रसन्न मुखमण्डल देखकर सहज
   −
सुभाषितेन गीतेन युवतिनाम च लीलया
+
ही अनुमान होता है कि सबको समाधान भी हुआ है । फिर
   −
मनोनभिद्यते यस्य स योगी अथवा पशु: ।।
+
भी आप में से कुछ के मन में और अधिक जानने की
   −
मन यदि स्वाद का ही ध्यान रखता है और
+
जिज्ञासाएँ होंगी । वे सभी आगामी सत्रमें प्रश्न पूछ सकेंगे ।
   −
पोषणक्षमता का नहीं तो स्वास्थ्य खराब होता है । बुद्धि
+
सबने शान्तिमंत्र बोला और सत्र विधिवत सम्पन्न हुआ |
   −
यदि सारी क्रियाओं का नियमन नहीं करती तो स्वाद और
+
............. page-26 .............
   −
पोषण दोनों का कोई भरोसा नहीं रहता है हृदय में यदि
+
समग्रता की चर्चा हुए पाँच दिन बीत गये थे भारत
   −
रस नहीं है तो स्वादिष्ट और पोषक आहार भी पशु की
+
के सामान्य लोगोंं के सामान्य व्यवहार में भी समग्रता की
   −
सानी जैसा ही होता है । इस प्रकार भोजन बनाने और करने
+
दृष्टि किस प्रकार अनुस्यूत रहती है यह जानकर सब हैरान
   −
में स्वाद, सौन्दर्यानुभव, पोषण, संस्कारक्षमता आदि सभी
+
थे । बर्तन साफ करने जैसे अनेक उदाहरणों की चर्चा चली
   −
बातों का ध्यान रखना समग्र दृष्टि है। किसी एक या दो
+
थी । एकएक बात में मूल दृष्टि का किस प्रकार अन्तर्भाव
   −
बातों का ही ध्यान रखना समग्र दृष्टि नहीं है
+
होता है यह जानना अत्यधिक आवश्यक है ऐसा उनका
   −
इस प्रकार कर्मेन्ट्रियों की क्रियाओं, ज्ञानेन्द्रियों के
+
अभिप्राय बनने लगा था । परन्तु यह सब कैसे हुआ होगा
   −
शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
+
और किसने यह सब किया होगा इस बात का उन्हें आश्चर्य
   −
अनुभवों अथवा संबेदनों, मन की इच्छाओं, बुद्धि का
+
लग रहा था । इसलिये उन्होंने आचार्य ज्ञाननिधि से ही
   −
नियमन, चित्त के संस्कार, हृदय का सौन्दर्यानुभव आदि में
+
पूछने का निश्चय किया । आज के अध्ययन का प्रारम्भ इस
   −
समरसतापूर्ण सामंजस्य रखना व्यक्तिगत जीवन में
+
प्रश्न से ही हुआ ।
   −
समग्रतायुक्त व्यवहार होता है ।
+
आचार्य बुद्धदेव ने सबकी ओर से प्रश्न पूछा...
   −
सोने में और जागने में, खाने में और पीने में, वस्त्रों में
+
आचार्यजी, गत पंचमी के आपके प्रवचन के बाद
   −
और अलंकारों में, अध्ययन में और अधथर्जिन में,सेवा में
+
हमने आपस में चर्चा की थी । एक दो दिन तो हमने नगर
   −
और परिचर्या में, चिन्तन में और मनोरंजन में, काम करने में
+
में सर्वसामान्य लोगोंं से सम्पर्क भी किया । हमने देखा कि
   −
और खेलने में संक्षेप में सभी व्यवहारों में यह समग्रता की
+
शिक्षित, सम्पन्न और अपने आपको आधुनिक और शिक्षित
   −
दृष्टि अपेक्षित है ।
+
मानने वाले लोग अपने घरेलू कामों में प्लास्टिक का बहुत
   −
व्यक्तिगत व्यवहारों की तरह सार्वजनिक व्यवहारों में
+
प्रयोग करते हैं, कुछ भी खातेपीते हैं और अस्तव्यस्त
   −
भी समग्रता की दृष्टि अपेक्षित होती है सृष्टि में सर्वश्रेष्ठ
+
दिनचर्या से रहते हैं उनके साथ जब दैनंदिन जीवन में
   −
मनुष्य है । परन्तु उसके अलावा भी अगणित प्राणी और
+
कैसी वस्तुओं का प्रयोग करना चाहिये इस विषय पर चर्चा
   −
पदार्थ हैं । हमारी परम्परा में चौरासी लाख योनियों का
+
की तब वे प्रदूषण, स्वास्थ्य, समग्रता आदि बातों के
   −
उल्लेख आता है यह सृष्टि का वैविध्य दर्शाता है । संख्या
+
सम्बन्ध में अत्यधिक उदासीन पाये गये वास्तव में हमें वे
   −
के बारे में अधिक ऊहापोह भी करें तो भी बहुत अधिक
+
केवल उदासीन अपितु अज्ञानी ही लगे । हमें उनका
   −
वैविध्य है इतना कहना पर्याप्त है इस वैविध्य को दो
+
व्यवहार देखकर बहुत दुःख हुआ परन्तु हम कुछ कम
   −
भागों में विभाजित किया जा सकता है। एक है मनुष्य सृष्टि,
+
शिक्षित, कम आय वाले, सामान्य काम कर अधथर्जिन करने
   −
अर्थात्‌ ब्रह्माण्ड में जितने भी मनुष्य हैं वे एक वर्ग बनाते
+
वाले, अपने आपको आधुनिक न कहने वाले लोगोंं को
   −
हैं। मनुष्यों में भी बहुत विविधता होती है परन्तु सारे
+
मिले तब इन विषयों में उनकी आस्था दिखाई दी । वे भी
   −
मिलकर एक वर्ग बनाते हैं । दूसरा विभाग है मनुष्येतर
+
प्लास्टिक का प्रयोग तो करते थे परन्तु नारियल के छिलके,
   −
सृष्टि । इनमें पंचमहाभूत, वनस्पति तथा प्राणी सृष्टि का
+
जूठन का योग्य विनियोग आदि बातों में वे बहुत भावुक
   −
समावेश होता है पंचमहाभूत हैं आकाश, वायु, अग्ि,
+
और समझदार थे अब वे इन बातों का अनुसरण नहीं
   −
जल और पृथ्वी । प्राणियों में स्वेदज, अण्डज, उद्धिज और
+
करते हैं क्योंकि ऐसा करने से पढ़ेलिखे लोग उन्हें पिछड़े
   −
जरायुज ऐसी श्रेणियों का समावेश होता है । वनस्पतियों में
+
कहेंगे इसका उन्हें भय है। साथ ही अब व्यवस्थायें
   −
वृक्ष, लता, घास और पौधों का समावेश होता है इन
+
अनुकूल रही नहीं हैं उदाहरण के लिये मिट्टी या राख अब
   −
सबका आपसी सम्बन्ध है । सृष्टि में सर्वत्र पाँचों महाभूत
+
ATTA
   −
एकसाथ ही रहते हैं । अर्थात्‌ किसी भी पदार्थ में कोई एक
+
श्०
   −
महाभूत की प्रधानता भले ही हो, रहते पाँचों हैं । महाभूतों
+
शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
   −
का वनस्पति सृष्टि के साथ गहरा सम्बन्ध है क्योंकि
+
मिलती नहीं है । पानी गिराने के लिये खुली जमीन नहीं
   −
वनस्पतियों की देह पंचमहाभूतों की ही बनी होती है।
+
है । जूठन या छिलके खिलाने के लिये गाय या बकरी ही
   −
इसके साथ-साथ सृष्टि में मन, बुद्धि और अहंकार भी होते
+
नहीं है । इन बातों का तत्त्व तो पूरी तरह से वे नहीं जानते
   −
हैं । इसीसे सम्बन्धित सत्त्व, रज, तम ये तीन गुण भी होते
+
थे परन्तु अनुकूलता होने पर अनुसरण करने में उनकी
   −
हैं ये सारी इकाइयाँ एकदूसरे को प्रभावित करती हैं और
+
आस्था देखने को मिली य सब क्या है आचार्यजी ? ऐसा
   −
एकदूसरे से प्रभावित होती हैं । इन सबमें समरसता युक्त
+
अज्ञान और अनास्था क्यों दिखाई देते हैं ? यह शिक्षित
   −
सामंजस्य बनाये रखने को ही समग्र दृष्टि कहते हैं ।
+
लोगोंं की समस्या है या उन्होंने समस्या निर्माण की है ?
   −
............. page-25 .............
+
हमारी व्यवस्थायें इतनी विपरीत कैसे हो गईं ? यह सब
   −
we : १ तत्त्वचिन्तन
+
स्पष्ट करने की कृपा करें ।
   −
मनुष्य का दायित्व
+
आचार्य ज्ञाननिधि इस प्रकार के प्रश्नों की अपेक्षा कर
   −
ऐसा सामंजस्य बनाये रखने का दायित्व मनुष्य का है
+
ही रहे थे उन्होंने अपना निरूपण आरम्भ किया...
   −
कारण स्पष्ट है । एक, केवल मनुष्य को ही सक्रिय मन प्राप्त
+
आपके प्रश्न में ही कदाचित उत्तर भी है । समस्या
   −
हुआ है । मन बनाने वाला भी होता है और बिगाड़ने वाला
+
शिक्षित लोगोंं की है और शिक्षित लोगोंं द्वारा निर्मित भी है
   −
भी होता है । मनुष्य को ही सक्रिय बुद्धि और अहंकार मिले
+
कारण यह है कि परम्परा से लोगोंं को जो दृष्टि प्राप्त होती है
   −
al इसलिये उसका दायित्व बनता है दूसरा, मनुष्य
+
उसका स्रोत विद्याकेन्द्र होते हैं विद्याकेन्द्रों में जीवन से
   −
परमात्मा की सारी अभिव्यक्तियों में सबसे बड़ा है । भारत में
+
सम्बन्धित सभी विषयों की शास्त्रीय चर्चा होती है और
   −
बड़ों को कर्तव्य दिया गया है । कष्ट सहने में, दूसरों का
+
व्यवहार में उसे लागू करने के उपायों पर भी विचार होता है ।
   −
विचार करने में, रक्षण और पोषण करने में बड़ों का क्रम
+
शास्त्रीय चर्चा के बाद आचार्य और छात्र जनसमाज में उसे
   −
पहला है, जबकि उपभोग में अन्तिम है इस कारण से
+
प्रचारित और प्रसारित करते हैं सामान्य लोग शिक्षितों के
   −
सामंजस्य बनाये रखने का दायित्व मनुष्य का है । तीसरा
+
प्रति जो श्रद्धा होती है उससे प्रेरित होकर तत्त्व समझें या न
   −
कारण यह है कि मनुष्य के अलावा शेष सारी सृष्टि तो प्रकृति
+
समझें अनुसरण करने लगते हैं । अनुसरण करते करते ही वे
   −
के नियन्त्रण और नियमन में ही रहती है वह न तो बना
+
अपनी पद्धति से तत्त्व भी समझने लगते हैं इस प्रकार
   −
सकती है न बिगाड़ सकती है । बनाने या बिगाड़ने वाला तो
+
आस्था से युक्त व्यवहार की परम्परा बनती है ।
   −
मनुष्य ही होता है । इसलिये भी मनुष्य का दायित्व है ।
+
आपने पूछा कि यह सारी व्यवस्था किसने बनाई
   −
मनुष्येतर सृष्टि में प्राणियों की और वनस्पति की
+
होगी ?
   −
आवश्यकतायें प्राकृतिक रूप से ही पूर्ण हो जाती हैं । परन्तु
+
एक कथा सुनाता हूँ। आपने यह कथा पहले भी
   −
मनुष्य का ऐसा नहीं है । उसकी इच्छायें और आवश्यकतायें
+
सुनी है । उसे एक नवीन सन्दर्भ में सुनें ।
   −
बहुत अधिक होती हैं मनुष्य ने अपने मन और बुद्धि के
+
महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ पाण्डव विजयी हुए
   −
कारण अपनी आवश्यकतायें बहुत अधिक बढ़ा ली हैं इन
+
और महाराज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हुआ परन्तु दोनों
   −
आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये उसे श्रम करना पड़ता है
+
सेनाओं का मिलकर भीषण संहार हुआ था सर्वत्र अराजक
   −
साथ ही वह सृजनशील और जिज्ञासु प्राणी है । इसलिये
+
छाया हुआ था | छत्तीस वर्ष पश्चात परीक्षित को राज्य
   −
वह अनेक प्रकार की वस्तुर्यें बनाता है मनुष्य को अन्य
+
सौंपकर पाण्डब हिमालय चले गये उसी समय कलियुग
   −
मनुष्यों के साथ रहना है साथ रहने के लिये उसे अनेक
+
का प्राम्भ हुआ कलियुग के प्रभाव से लोगोंं की
   −
प्रकार की व्यवस्थायें बनानी पड़ती हैं । उदाहरण के लिये
+
............. page-27 .............
   −
परिवारव्यवस्था, अर्थव्यवस्था, राज्यव्यवस्था आदि अनेक
+
we : १ तत्त्वचिन्तन
   −
प्रकार की व्यवस्थायें वह बनाता है । उसे अनेक नियम
+
शारीरिक, मानसिक, बौद्धि शक्तियों का और भी oa
   −
बनाने पढ़ते हैं नियम बनाने की प्रक्रिया जब वैश्विक
+
हुआ इस स्थिति में समाज को पुनः व्यवस्थित करने के
   −
नियमों के अविरोधी होती है तब वह सबका भला करती है
+
उपाय करने की आवश्यकता थी । यह कार्य कौन करेगा ?
   −
और सामंजस्य को निभा सकती है ।
+
कौन कर सकता था ? उस समय नैमिषारण्य में आचार्य
   −
उदाहरण के लिये समग्रता की दृष्टि से जब
+
शौनक का गुरुकुल था । आचार्य शौनक वहाँ कुलपति थे ।
   −
राज्यव्यवस्था बनती है तब राजा प्रजापालक होता है,
+
उन्होंने सम्पूर्ण भारत वर्ष से आचार्यों को निमंत्रित किया ।
   −
अपने आपको प्रजा का सेवक मानता है । समग्रता की दृष्टि
+
अठासी हजार ऋषि, जो विभिन्न गुरुकुलों में पढ़ाते थे, वहाँ
   −
से परिवारव्यवस्था बनती है तब पतिपत्नी का एकात्म
+
एकत्रित हुए और उसका ज्ञानसत्र चला । यह ज्ञानसत्र बारह
   −
सम्बन्ध उसका केन्द्रबिन्दु बनता है और उस केन्द्र से जो
+
वर्षों तक चला । इस ज्ञानसत्र का विषय ही समाज की
   −
वृत्त बनता है वह विस्तृत होतेहोते
+
बिगड़ी हुई व्यवस्थाओं को ठीक करने का था ।
   −
वसुधैव कुट्म्बकम्‌ तक पहुँचता है । समग्रता की दृष्टि से
+
इस ज्ञानसत्र में समाज की सुस्थिति किसे कहते हैं
   −
जब अर्थव्यवस्था बनती है तब वह समाज की समृद्धि का
+
इसकी तात्तविक चर्चा हुई । परन्तु केवल तात्तिक चर्चा से
   −
लक्ष्य रखती है और बाजार को धर्म के नियन्त्रण में रखती
+
व्यवस्थायें बनती नहीं हैं। उन्हें और दो सन्दर्भां की
   −
है । समग्रता की दृष्टि से जब समाजव्यवस्था बनती है तब
+
आवश्यकता होती है । एक सन्दर्भ है समय का । अब ट्रापर
   −
परिवारभावना उसका आधार होती है और संस्कृति तथा
+
युग नहीं था । पंचमहाभूतों की गुणवत्ता, लोगोंं की समझ
   −
समृद्धि का रक्षण और संवर्धन उसका लक्ष्य रहता है।
+
और मानस, लोगोंं की कार्यशक्ति आदि सभी में परिवर्तन
   −
समग्रता की दृष्टि से जब व्यक्ति अथर्जिन करता है तब वह
+
हुआ था । इन कारणों से जो द्वापर युग में स्वाभाविक था
   −
समाज के लिये उपयोगी वस्तुओं के उत्पादन को माध्यम
+
वह कलियुग में स्वीकार्य नहीं हो सकता था । इसलिये
   −
बनाता है, पर्यावरण की हानि न हो इसका ध्यान रखता है,
+
तत्वों और तत्त्वों के आधार पर बनी परम्पराओं का
   −
किसीकी रोजगारी और स्वतन्त्रता का हरण न हो इसकी
+
कलियुग में युगानुकूल स्वरूप कैसा हो सकता था इसका
   −
चिन्ता करता है, दान को अथर्जिन का अंग बनाता है।
+
विचार करना था । दूसरा, जो भी निष्कर्ष निकलेंगे उन्हें
   −
समग्रता की दृष्टि से जब वह पंचमहाभूतों की ओर देखता है
+
लोगोंं तक कैसे पहुँचाना इसका भी विचार करना था । यह
   −
तब वह भूमि को माता मानता है, पंचमहाभूतों को देवता
+
कार्य सरल भी नहीं था और शीघ्रता से भी होने वाला नहीं
   −
मानता है, वनस्पति और प्राणी को अपने स्नेह के पात्र
+
था। बारह वर्ष की दीर्घ अवधि में उन्होंने यह कार्य
   −
मानता है और उनके प्रति कृतज्ञ रहता है समग्रता की दृष्टि
+
किया सर्वसामान्य लोगोंं के दैनंदिन जीवन की छोटी से
   −
से जब जीवन की ओर देखता है तो प्रेम, सेवा, त्याग
+
छोटी व्यवस्थाओं के लिये निर्देश तैयार किये । हम कल्पना
   −
उसके व्यवहार के आधार होते हैं । समग्रता की दृष्टि से जब
+
कर सकते हैं कि उन्होंने क्या किया होगा श्रीमद भागवत
   −
विश्व की ओर देखता है तब सर्वे भवन्तु सुखिन: ही उसकी
+
में तो विस्तार से यह प्रक्रिया नहीं बताई है परन्तु हम
   −
कामना होती है
+
अनुमान कर सकते हैं
   −
समग्रता की दृष्टि से जब अपने आपको देखता है तब
+
उदाहरण के लिये उन्होंने तय किया होगा कि
   −
वह मानता है कि मैं शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, अहंकार,
+
०... शरीर स्वास्थ्य यदि ठीक रखना है तो मनुष्य को
   −
चित्त आदि के रूप में अभिव्यक्त हुआ ऐसा आत्मा हैँ ।
+
मध्याहन से और सूर्यास्त से पूर्व भोजन कर लेना
   −
अहं ब्रह्वास्मि । समग्रता की दृष्टि से जब वह सृष्टि को
+
चाहिये, रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिये और तामस
   −
देखता है तब वह सृष्टि परमात्मा का विश्वरूप है ऐसा
+
आहार नहीं लेना चाहिये । इसी प्रकार उन्होंने भोजन
   −
मानता है । सर्व खलु इदं ब्रह्म
+
सम्बन्धी सारे नियम बनाये भोजन में भोजन बनाने
   −
इस प्रकार समग्रता एकात्मता है, समग्रता सन्तुलन
+
88
   −
है,समग्रता सम्पूर्णता है । अपने आपकी और सबकी ।
+
की, भोजन करवाने की और
   −
आचार्य का प्रवचन समाप्त हुआ आचार्य शुभंकर
+
भोजन करने की सारी बातों का समावेश कर दिया
   −
खड़े हुए और कहने लगे कि हम सबने समग्रता के विषय
+
आरोग्यशास्त्र, शरीरविज्ञान, आहारशास्त्र, पाकशास्त्र
   −
को समझा है आप सबके प्रसन्न मुखमण्डल देखकर सहज
+
आदि सारी बातों का इसमें समावेश किया भोजन
   −
ही अनुमान होता है कि सबको समाधान भी हुआ है । फिर
+
बनाने और करने में पात्रविवेक, प्रक्रियाविवेक,
   −
भी आप में से कुछ के मन में और अधिक जानने की
+
इईंधनविवेक, समयविवेक, भावविवेक आदि सभी
   −
जिज्ञासाएँ होंगी । वे सभी आगामी सत्रमें प्रश्न पूछ सकेंगे
+
बातों का विचार किया व्रत, उपवास, स्वादसंयम,
   −
सबने शान्तिमंत्र बोला और सत्र विधिवत सम्पन्न हुआ |
+
अतिथिसत्कार, अन्नदान, उत्सव, त्योहार आदि
   −
............. page-26 .............
+
सबको जोड़कर छोटी से छोटी बातें निश्चित कीं ।
   −
समग्रता की चर्चा हुए पाँच दिन बीत गये थे । भारत
+
०... अध्यात्म, . बुद्धिविकास, cle, oe,
   −
के सामान्य लोगों के सामान्य व्यवहार में भी समग्रता की
+
व्यवहारज्ञान को ध्यान में रखकर सामान्य लोगोंं को
   −
दृष्टि किस प्रकार अनुस्यूत रहती है यह जानकर सब हैरान
+
कहीं पर भी सुलभ हों ऐसे खेलों, गीतों, कहानियों
   −
थे बर्तन साफ करने जैसे अनेक उदाहरणों की चर्चा चली
+
की रचना की
   −
थी । एकएक बात में मूल दृष्टि का किस प्रकार अन्तर्भाव
+
०... मनःसंयम, पर्यावरणसुरक्षा और सामाजिकता को एक
   −
होता है यह जानना अत्यधिक आवश्यक है ऐसा उनका
+
साथ लेकर व्रतों और त्योहारों की स्वना की ।
   −
अभिप्राय बनने लगा था । परन्तु यह सब कैसे हुआ होगा
+
© आचारमूलक मूल्यव्यवस्था बनाई |
   −
और किसने यह सब किया होगा इस बात का उन्हें आश्चर्य
+
०... षोडशसंस्कारों की स्चना की ।
   −
लग रहा था । इसलिये उन्होंने आचार्य ज्ञाननिधि से ही
+
०... शिशुसंगोपन और शिक्षा की व्यवस्था कर एक पीढ़ी
   −
पूछने का निश्चय किया । आज के अध्ययन का प्रारम्भ इस
+
से दूसरी पीढ़ी को ज्ञान, संस्कार, कौशल आदि के
   −
प्रश्न से ही हुआ
+
हस्तान्तरण के माध्यम से परम्परा निर्माण की
   −
आचार्य बुद्धदेव ने सबकी ओर से प्रश्न पूछा...
+
इस प्रकार असंख्य विषयों का बारीक से बारीक
   −
आचार्यजी, गत पंचमी के आपके प्रवचन के बाद
+
निरूपण किया । ये सारे व्यवहारशास्त्र बने । ऐसा अति
   −
हमने आपस में चर्चा की थी । एक दो दिन तो हमने नगर
+
विस्तृत निरूपण करने के बाद वे सम्पूर्ण समाज मैं फैल गये
   −
में सर्वसामान्य लोगों से सम्पर्क भी किया । हमने देखा कि
+
और अपने ज्ञान, सद्धावना और कौशल के माध्यम से
   −
शिक्षित, सम्पन्न और अपने आपको आधुनिक और शिक्षित
+
सबको व्यवहार का सम्यक ज्ञान दिया । समाज के आस्था,
   −
मानने वाले लोग अपने घरेलू कामों में प्लास्टिक का बहुत
+
कौशल और सरोकार को बढ़ाया और प्रस्थापित किया |
   −
प्रयोग करते हैं, कुछ भी खातेपीते हैं और अस्तव्यस्त
+
समाज को समृद्धि, संस्कृति और मुक्ति का मार्ग दिखाया ।
   −
दिनचर्या से रहते हैं उनके साथ जब दैनंदिन जीवन में
+
यही कलियुग का व्यवहारशाख्त्र है
   −
कैसी वस्तुओं का प्रयोग करना चाहिये इस विषय पर चर्चा
+
यह काम गुरुकुल द्वारा किया गया ।
   −
की तब वे प्रदूषण, स्वास्थ्य, समग्रता आदि बातों के
+
किसी भी युग में, किसी भी समय में, किसी भी
   −
सम्बन्ध में अत्यधिक उदासीन पाये गये वास्तव में हमें वे
+
सन्दर्भ में यह काम विद्यासंस्थाओं को ही करना होता है
   −
न केवल उदासीन अपितु अज्ञानी ही लगे । हमें उनका
+
यह उनका दायित्व भी है और अधिकार भी |
   −
व्यवहार देखकर बहुत दुःख हुआ । परन्तु हम कुछ कम
+
शिक्षा सर्व प्रकार की परम्पराओं को संजोकर रखने का
   −
शिक्षित, कम आय वाले, सामान्य काम कर अधथर्जिन करने
+
माध्यम होती है । जब तक भारत में धार्मिक शिक्षा चली ये
   −
वाले, अपने आपको आधुनिक न कहने वाले लोगों को
+
सारी बातें परम्परा के रूप में लोगोंं के व्यवहार में और मानस
   −
मिले तब इन विषयों में उनकी आस्था दिखाई दी । वे भी
+
............. page-28 .............
   −
प्लास्टिक का प्रयोग तो करते थे परन्तु नारियल के छिलके,
+
में प्रतिष्ठित थीं । परन्तु जबसे ब्रिटीशों ने
   −
जूठन का योग्य विनियोग आदि बातों में वे बहुत भावुक
+
भारत की शिक्षा अपने नियन्त्रण में ली तबसे परम्परायें टूटने
   −
और समझदार थे । अब वे इन बातों का अनुसरण नहीं
+
लगीं । अज्ञान और अनास्था बढ़ते गये और मानसिकता तथा
   −
करते हैं क्योंकि ऐसा करने से पढ़ेलिखे लोग उन्हें पिछड़े
+
व्यवस्थायें बदलती गईं । स्वाभाविक है कि शिक्षित लोगोंं में
   −
कहेंगे इसका उन्हें भय है। साथ ही अब व्यवस्थायें
+
इनकी मात्रा अधिक है । कम शिक्षित लोगोंं की स्थिति
   −
अनुकूल रही नहीं हैं उदाहरण के लिये मिट्टी या राख अब
+
ट्रिधायुक्त है वे परम्पराओं को आस्थापूर्वक रखना भी चाहते
   −
ATTA
+
हैं परन्तु शिक्षित लोगोंं ने बनाया हुआ सजमाना' ऐसा करने
   −
श्०
+
नहीं देता । इसलिये धार्मिक व्यवस्था के अवशेष तो दिखाई
   −
शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
+
देते हैं परन्तु उनकी दुर्गति भी त्वरित गति से हो रही है |
   −
मिलती नहीं है । पानी गिराने के लिये खुली जमीन नहीं
+
हमें इसे ठीक पटरी पर लाना है यह तो आप समझ ही
   −
है जूठन या छिलके खिलाने के लिये गाय या बकरी ही
+
गये होंगे
   −
नहीं है । इन बातों का तत्त्व तो पूरी तरह से वे नहीं जानते
+
नैमिषारण्य की कथा तो पहले सुनी हुई थी परन्तु उसके
   −
थे परन्तु अनुकूलता होने पर अनुसरण करने में उनकी
+
निहितार्थ सुनकर आचार्यों को अपने कार्य की महत्ता का बोध
   −
आस्था देखने को मिली । य सब क्या है आचार्यजी ? ऐसा
+
eat | विद्यासंस्थाओं की समाज में क्या भूमिका होती है
   −
अज्ञान और अनास्था क्यों दिखाई देते हैं ? यह शिक्षित
+
उसका भी सम्यक ज्ञान हुआ । वे बहुत प्रसन्न हुए । कुछ पल
   −
लोगों की समस्या है या उन्होंने समस्या निर्माण की है ?
+
मौन में बीते । यह मौन बहुत सार्थक था । सुनी हुई बातों को
   −
हमारी व्यवस्थायें इतनी विपरीत कैसे हो गईं ? यह सब
+
आत्मसात करने की प्रक्रिया का निदर्शक था ।
   −
स्पष्ट करने की कृपा करें ।
+
कुछ पल के बाद आचार्य मन्दार ने अपनी जिज्ञासा
   −
आचार्य ज्ञाननिधि इस प्रकार के प्रश्नों की अपेक्षा कर
+
प्रस्तुत की । उन्होंने कहा...
   −
ही रहे थे । उन्होंने अपना निरूपण शुरू किया...
+
आचार्यजी, उससमय अठासी हजार ऋषियों ने बारह
   −
आपके प्रश्न में ही कदाचित उत्तर भी है समस्या
+
वर्ष ज्ञानसाधना कर समाज को व्यवस्थित किया यह कथा
   −
शिक्षित लोगों की है और शिक्षित लोगों द्वारा निर्मित भी है ।
+
बड़ी रोमांचक है और कार्य बहुत अदूभुत है । परन्तु आज
   −
कारण यह है कि परम्परा से लोगों को जो दृष्टि प्राप्त होती है
+
क्‍या स्थिति है ? अठासी हजार तो क्या अठासी सौ
   −
उसका स्रोत विद्याकेन्द्र होते हैं विद्याकेन्द्रों में जीवन से
+
अध्यापक भी नहीं मिलेंगे अब अध्यापक ऋषि भी तो
   −
सम्बन्धित सभी विषयों की शास्त्रीय चर्चा होती है और
+
नहीं रह गये हैं । वे तो वेतनभोगी कर्मचारी मात्र हैं । उनके
   −
व्यवहार में उसे लागू करने के उपायों पर भी विचार होता है
+
सरोकार ही कुछ और हैं बारह वर्षों तक ज्ञानसाधना
   −
शास्त्रीय चर्चा के बाद आचार्य और छात्र जनसमाज में उसे
+
चलना भी असम्भव लगता है। विद्याकेन्द्र समाज की
   −
प्रचारित और प्रसारित करते हैं । सामान्य लोग शिक्षितों के
+
आस्था के केन्द्र नहीं रह गये हैं। आप गुरुकुलों का
   −
प्रति जो श्रद्धा होती है उससे प्रेरित होकर तत्त्व समझें या न
+
दायित्व और अधिकार बताते हैं । हमारी आपसे सहमति भी
   −
समझें अनुसरण करने लगते हैं अनुसरण करते करते ही वे
+
है परन्तु परिस्थिति तो सर्वथा विपरीत है । तब यह कार्य
   −
अपनी पद्धति से तत्त्व भी समझने लगते हैं । इस प्रकार
+
होगा कैसे ? शिक्षा तो धार्मिक बनाकर समाज को ठीक
   −
आस्था से युक्त व्यवहार की परम्परा बनती है
+
करने की चर्चा तो की जा सकती है परन्तु व्यवहार और
   −
आपने पूछा कि यह सारी व्यवस्था किसने बनाई
+
व्यवस्था में यह सब कैसे आयेगा ? किससे आशा की जा
   −
होगी ?
+
सकती है ? किसकी क्षमता है ? कुछ भी सोच पाना
   −
एक कथा सुनाता हूँ। आपने यह कथा पहले भी
+
कठिन हो गया है । आप कठिन लगाने वाली बातों को भी
   −
सुनी है । उसे एक नवीन सन्दर्भ में सुनें ।
+
श्र
   −
महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ । पाण्डव विजयी हुए
+
शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
   −
और महाराज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हुआ । परन्तु दोनों
+
सहज ढंग से कह देते हैं । इस बात का भी विश्लेषण करने
   −
सेनाओं का मिलकर भीषण संहार हुआ था सर्वत्र अराजक
+
की कृपा करें
   −
छाया हुआ था | छत्तीस वर्ष पश्चात परीक्षित को राज्य
+
आचार्य ज्ञाननिधि स्वस्थतापूर्वक कहने लगे...
   −
सौंपकर पाण्डब हिमालय चले गये उसी समय कलियुग
+
आचार्य मन्दार, आपकी चिन्ता योग्य ही है विगत
   −
का प्राम्भ हुआ । कलियुग के प्रभाव से लोगों की
+
दोसौ वर्षों से हमारे ज्ञानक्षेत्र पर जो आक्रमण हो रहा है वह
   −
............. page-27 .............
+
अभूतपूर्व है । यह आक्रमण यदि केवल राजनैतिक होता, या
   −
we : १ तत्त्वचिन्तन
+
केवल पाशवी बल का होता, या केवल अहंकारजनित होता
   −
शारीरिक, मानसिक, बौद्धि शक्तियों का और भी oa
+
तो उसे परास्त करना सरल था । इतिहास में हमने अनेक प्रकार
   −
हुआ इस स्थिति में समाज को पुनः व्यवस्थित करने के
+
के आक्रमण देखे हैं रावण, कंस आदि के अत्याचार देखे
   −
उपाय करने की आवश्यकता थी यह कार्य कौन करेगा ?
+
हैं वह अहंकारजनित अत्याचार था । उसे आक्रमण नहीं कह
   −
कौन कर सकता था ? उस समय नैमिषारण्य में आचार्य
+
सकते । केवल आसुरी तत्त्वों की प्रबलता थी । हमने शक,
   −
शौनक का गुरुकुल था । आचार्य शौनक वहाँ कुलपति थे
+
हृण आदि के आक्रमण सुने हैं वह केवल विजयाकांक्षा थी
   −
उन्होंने सम्पूर्ण भारत वर्ष से आचार्यों को निमंत्रित किया
+
परन्तु उसका स्वरूप भौतिक था अभी अभी के इतिहास में
   −
अठासी हजार ऋषि, जो विभिन्न गुरुकुलों में पढ़ाते थे, वहाँ
+
सिकंदर का आक्रमण भी सुना है । वह भी विजयाकांक्षा से
   −
एकत्रित हुए और उसका ज्ञानसत्र चला यह ज्ञानसत्र बारह
+
प्रेरित था और भौतिक स्वरूप का था यही नहीं इस्लाम के
   −
वर्षों तक चला । इस ज्ञानसत्र का विषय ही समाज की
+
उदय के बाद पूरे विश्व ने जेहाद के नाम से इस्लामिक आक्रमण
   −
बिगड़ी हुई व्यवस्थाओं को ठीक करने का था
+
का अनुभव किया है आज भी उसका अनुभव विश्व के अनेक
   −
इस ज्ञानसत्र में समाज की सुस्थिति किसे कहते हैं
+
देशों को हो रहा है । यह आक्रमण धर्म के नाम पर हो रहा
   −
इसकी तात्तविक चर्चा हुई परन्तु केवल तात्तिक चर्चा से
+
है उसी प्रकार इसाईकरण के उद्देश्य से भी इतिहास में अनेक
   −
व्यवस्थायें बनती नहीं हैं। उन्हें और दो सन्दर्भां की
+
आक्रमण हुए हैं । परन्तु इन सभी आक्रमणों का स्वरूप भौतिक
   −
आवश्यकता होती है । एक सन्दर्भ है समय का । अब ट्रापर
+
और पाशवी बल के आधार पर किये गये आक्रमण का ही था
   −
युग नहीं था पंचमहाभूतों की गुणवत्ता, लोगों की समझ
+
और है ब्रिटीशों के इन दोसौ वर्षों के आक्रमण का स्वरूप
   −
और मानस, लोगों की कार्यशक्ति आदि सभी में परिवर्तन
+
केवल भौतिक नहीं है, केवल जिहादी भी नहीं है । वह
   −
हुआ था । इन कारणों से जो द्वापर युग में स्वाभाविक था
+
भौतिक और जिहादी उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये बौद्धिक
   −
वह कलियुग में स्वीकार्य नहीं हो सकता था । इसलिये
+
और मनोवैज्ञानिक साधनों का शस्त्र के रूप में प्रयोग करने का
   −
तत्वों और तत्त्वों के आधार पर बनी परम्पराओं का
+
है । ब्रिटीशों ने शिक्षा का शस्त्र के रूप में प्रयोग किया । शिक्षा
   −
कलियुग में युगानुकूल स्वरूप कैसा हो सकता था इसका
+
का उद्देश्य ज्ञानात्मक होता है । ब्रिटीशों ने उसका उपयोग
   −
विचार करना था दूसरा, जो भी निष्कर्ष निकलेंगे उन्हें
+
राजनीतिक और आर्थिक हेतुओं से किया यह पहले कभी
   −
लोगों तक कैसे पहुँचाना इसका भी विचार करना था । यह
+
नहीं हुआ था । यह सर्वथा एक भिन्न जीवनदृष्टि थी । जर्मन
   −
कार्य सरल भी नहीं था और शीघ्रता से भी होने वाला नहीं
+
पण्डित मैक्समूलर का कथन है, “भारत एक बार जीता गया
   −
था। बारह वर्ष की दीर्घ अवधि में उन्होंने यह कार्य
+
है, परन्तु वह दूसरी बार भी जीता जाना चाहिये । और यह
   −
किया । सर्वसामान्य लोगों के दैनंदिन जीवन की छोटी से
+
दूसरी विजय शिक्षा (जो कि ज्ञान का क्षेत्र है) के माध्यम से
   −
छोटी व्यवस्थाओं के लिये निर्देश तैयार किये । हम कल्पना
+
होनी चाहिये' । अतः ब्रिटीशों ने शिक्षा के माध्यम से
   −
कर सकते हैं कि उन्होंने क्या किया होगा । श्रीमद भागवत
+
जीवनदृष्टि को ही बदलने का प्रयास किया और अपनी सत्ता
   −
में तो विस्तार से यह प्रक्रिया नहीं बताई है परन्तु हम
+
का इसमें सहयोग लिया । सत्ता और अर्थ के सहयोग से उन्होंने
   −
अनुमान कर सकते हैं ।
+
............. page-29 .............
   −
उदाहरण के लिये उन्होंने तय किया होगा कि
+
we : १ तत्त्वचिन्तन
   −
०... शरीर स्वास्थ्य यदि ठीक रखना है तो मनुष्य को
+
धार्मिकों के मानस और विचार बदले । बदले हुए विचार और
   −
मध्याहन से और सूर्यास्त से पूर्व भोजन कर लेना
+
मानस ने व्यवस्थायें भी बदलना आरम्भ किया । परिवर्तन की यह
   −
चाहिये, रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिये और तामस
+
प्रक्रिया अभी भी जारी है । अभी पूर्ण परिवर्तन नहीं हुआ है ।
   −
आहार नहीं लेना चाहिये । इसी प्रकार उन्होंने भोजन
+
परन्तु यह भी महतू आश्चर्य की बात है कि दोसौ वर्ष
   −
सम्बन्धी सारे नियम बनाये । भोजन में भोजन बनाने
+
के आक्रमण के बाद भी हम अभी भी धार्मिक बनकर ही
   −
88
+
जी रहे हैं। धार्मिक प्रज्ञा का एक हिस्सा ऐसा है जो
   −
की, भोजन करवाने की और
+
ब्रिटीशों और यूरोपीय जीवनदृष्टि से अत्यधिक प्रभावित है ।
   −
भोजन करने की सारी बातों का समावेश कर दिया ।
+
परन्तु सामान्य जन अभी भी धार्मिक मानस के साथ ही जी
   −
आरोग्यशास्त्र, शरीरविज्ञान, आहारशास्त्र, पाकशास्त्र
+
रहा है। इसका कारण यह है कि भगवती प्रकृति की
   −
आदि सारी बातों का इसमें समावेश किया । भोजन
+
योजना से भारत की चिति के अवपात का समय अभी
   −
बनाने और करने में पात्रविवेक, प्रक्रियाविवेक,
+
आया नहीं है इसलिये भारत को भारत ही बने रहना है ।
   −
इईंधनविवेक, समयविवेक, भावविवेक आदि सभी
+
यह भारत की नियति है । इसलिये भारत का सामान्य जन
   −
बातों का विचार किया । ब्रत, उपवास, स्वादसंयम,
+
अनेक कठिनाइयों के बावजूद, अनेक अवरोधों के बावजूद
   −
अतिथिसत्कार, अन्नदान, उत्सव, त्योहार आदि
+
अपना स्वभाव छोड़ता नहीं है। हाँ, शिक्षित लोग इस
   −
सबको जोड़कर छोटी से छोटी बातें निश्चित कीं ।
+
आक्रमण से अधिक मात्रा में परास्त हुए हैं और देश की
   −
०... अध्यात्म, . बुद्धिविकास, cle, oe,
+
व्यवस्थायें उनके प्रभाव में चलती हैं । इसलिये परेशानी
   −
व्यवहारज्ञान को ध्यान में रखकर सामान्य लोगों को
+
बढ़ती है । परन्तु अभी भी आशा है ।
   −
कहीं पर भी सुलभ हों ऐसे खेलों, गीतों, कहानियों
+
ऐसा लगता है कि इन अवरोधों को पाटने के लिये
   −
की रचना की
+
इस सामान्य जन का बहुत सहयोग प्राप्त होगा तथापि
   −
०... मनःसंयम, पर्यावरणसुरक्षा और सामाजिकता को एक
+
शिक्षित लोगोंं को भी साथ में तो लेना ही होगा । कारण
   −
साथ लेकर ब्रतों और त्योहारों की स्वना की ।
+
यह है कि इस कठिन परिस्थिति से उबरने के प्रयास तो
   −
© आचारमूलक मूल्यव्यवस्था बनाई |
+
ज्ञानात्मक ही होने चाहिये । ज्ञानात्मक प्रयास के लिये हमें
   −
०... षोडशसंस्कारों की स्चना की ।
+
2८ ५
   −
... शिशुसंगोपन और शिक्षा की व्यवस्था कर एक पीढ़ी
+
2 ५.
   −
से दूसरी पीढ़ी को ज्ञान, संस्कार, कौशल आदि के
+
शिक्षित लोगोंं के सहयोग की
   −
हस्तान्तरण के माध्यम से परम्परा निर्माण की
+
आवश्यकता रहेगी हमें अपने शिक्षाक्षेत्र को परिष्कृत
   −
इस प्रकार असंख्य विषयों का बारीक से बारीक
+
करना होगा । उसे आज ब्रिटीशों के ही प्रभाव के कारण
   −
निरूपण किया । ये सारे व्यवहारशास्त्र बने । ऐसा अति
+
अर्थ और सत्ता के शख्त्र के रूप में प्रयुक्त किया जाता है
   −
विस्तृत निरूपण करने के बाद वे सम्पूर्ण समाज मैं फैल गये
+
उसके स्थान पर सत्ता और अर्थ को ज्ञान की सेवा में लाना
   −
और अपने ज्ञान, सद्धावना और कौशल के माध्यम से
+
होगा । यह मानसिक और बौद्धिक क्षेत्र का कार्य
   −
सबको व्यवहार का सम्यक ज्ञान दिया । समाज के आस्था,
+
sar, esd एवं सामान्य जन के सम्मिलित प्रयासों
   −
कौशल और सरोकार को बढ़ाया और प्रस्थापित किया |
+
से ही होगा ।
   −
समाज को समृद्धि, संस्कृति और मुक्ति का मार्ग दिखाया ।
+
यह कार्य कठिन अवश्य है परन्तु असम्भव नहीं है
   −
यही कलियुग का व्यवहारशाख्त्र है ।
+
क्योंकि बौद्धिकों में भी इसे समझने वाले, इस दिशा में
   −
यह काम गुरुकुल द्वारा किया गया ।
+
प्रयोग करने वाले, अपनी शक्ति और मति से प्रयास करने
   −
किसी भी युग में, किसी भी समय में, किसी भी
+
वाले बहुत लोग, बहुत संस्थायें और अनेक संगठन हैं । इन
   −
सन्दर्भ में यह काम विद्यासंस्थाओं को ही करना होता है ।
+
सबके सम्मिलित प्रयासों से परिष्कृति आने वाली ही है ।
   −
यह उनका दायित्व भी है और अधिकार भी |
+
ऐसे विश्वास से ही हम भी अपने अध्ययन की योजना बना
   −
शिक्षा सर्व प्रकार की परम्पराओं को संजोकर रखने का
+
रहे हैं यह तो आप जानते ही हैं ।
   −
माध्यम होती है जब तक भारत में भारतीय शिक्षा चली ये
+
अतः चिन्तन अवश्य करें, चिन्ता न करें
   −
सारी बातें परम्परा के रूप में लोगों के व्यवहार में और मानस
+
आचार्य ज्ञाननिधि के मुख से परिस्थिति का विश्लेषण
   −
............. page-28 .............
+
सुनकर सब आश्वस्त हुए ।
   −
में प्रतिष्ठित थीं परन्तु जबसे ब्रिटीशों ने
+
अनुप्रश्न तो दो ही हुए वे इतने महत्त्वपूर्ण थे कि
   −
भारत की शिक्षा अपने नियन्त्रण में ली तबसे परम्परायें टूटने
+
आगे अभी चर्चा करने की किसी की वृत्ति नहीं रही थी ।
   −
लगीं अज्ञान और अनास्था बढ़ते गये और मानसिकता तथा
+
समय भी बहुत हुआ था अतः शान्ति पाठ के बाद उस
   −
व्यवस्थायें बदलती गईं स्वाभाविक है कि शिक्षित लोगों में
+
दिन की सभा विसर्जित हुई
   −
इनकी मात्रा अधिक है । कम शिक्षित लोगों की स्थिति
+
==== अध्याय ३ ====
   −
ट्रिधायुक्त है वे परम्पराओं को आस्थापूर्वक रखना भी चाहते
+
===== विकास की वर्तमान संकल्पना एवं स्वरूप =====
 +
माघ कृष्ण तृतीया का दिन था प्रातः:काल का
   −
हैं परन्तु शिक्षित लोगों ने बनाया हुआ सजमाना' ऐसा करने
+
द्वितीय प्रहर था । गुरुकुल में आज अनेक अतिथि पधारे हुए
   −
नहीं देता इसलिये भारतीय व्यवस्था के अवशेष तो दिखाई
+
थे वे सब एक सप्ताह तक रहने वाले थे । ये अतिथि
   −
देते हैं परन्तु उनकी दुर्गति भी त्वरित गति से हो रही है |
+
देशविदेश से भी आये थे और भारत के विभिन्न प्रदेशों से भी
   −
हमें इसे ठीक पटरी पर लाना है यह तो आप समझ ही
+
आये थे । सब उच्चविद्याविभूषित थे । देश और विदेश के
   −
गये होंगे ।
+
विश्वविद्यालयों में ये सब अध्यापन और अनुसन्धान कर रहे
   −
नैमिषारण्य की कथा तो पहले सुनी हुई थी परन्तु उसके
+
थे । उनके अध्ययन के क्षेत्र भी विविध प्रकार के थे । कोई
   −
निहितार्थ सुनकर आचार्यों को अपने कार्य की महत्ता का बोध
+
साहित्य एवं कला में तो कोई भौतिक विज्ञान में, कोई
   −
eat | विद्यासंस्थाओं की समाज में क्या भूमिका होती है
+
83
   −
उसका भी सम्यक ज्ञान हुआ । वे बहुत प्रसन्न हुए । कुछ पल
+
खगोल में तो कोई भूगोल में, कोई समाजशास्त्र में तो कोई
   −
मौन में बीते । यह मौन बहुत सार्थक था । सुनी हुई बातों को
+
अर्थशास्त्र में, कोई योग में तो कोई संगीत में, कोई प्रबन्धन
   −
आत्मसात करने की प्रक्रिया का निदर्शक था ।
+
में तो कोई संगणक विद्या में अध्ययन अध्यापन और
   −
कुछ पल के बाद आचार्य मन्दार ने अपनी जिज्ञासा
+
अनुसन्धान के कार्य में रत थे । वे विद्यावान थे और
   −
प्रस्तुत की उन्होंने कहा...
+
कीर्तिमान भी थे लगभग सबने कई ग्रन्थों का लेखन किया
   −
आचार्यजी, उससमय अठासी हजार ऋषियों ने बारह
+
था। कुछ लोगोंं ने विश्व की अनेक शिक्षासंस्थाओं में
   −
वर्ष ज्ञानसाधना कर समाज को व्यवस्थित किया । यह कथा
+
व्याख्यान हेतु प्रवास भी किया था अनेक लोगोंं को अपने
   −
बड़ी रोमांचक है और कार्य बहुत अदूभुत है परन्तु आज
+
देश में और अन्य देशों में पुरस्कार भी प्राप्त हुए थे कुछ
   −
क्‍या स्थिति है ? अठासी हजार तो क्या अठासी सौ
+
............. page-30 .............
   −
अध्यापक भी नहीं मिलेंगे अब अध्यापक ऋषि भी तो
+
तो विश्वविद्यालयों के कुलपति भी थे
   −
नहीं रह गये हैं वे तो वेतनभोगी कर्मचारी मात्र हैं । उनके
+
ऐसे सब विद्रज्जन गुरुकुल के अतिथि हुए थे
   −
सरोकार ही कुछ और हैं बारह वर्षों तक ज्ञानसाधना
+
गुरुकुल में पाँच दिन का ज्ञानसाधना सत्र था तृतीया
   −
चलना भी असम्भव लगता है। विद्याकेन्द्र समाज की
+
से लेकर सप्तमी तक चलने वाला था । आज प्रातः:काल
   −
आस्था के केन्द्र नहीं रह गये हैं। आप गुरुकुलों का
+
यज्ञ से उसका प्रारम्भ हुआ था । प्रतिदिन पूर्वाह्न में तीन
   −
दायित्व और अधिकार बताते हैं । हमारी आपसे सहमति भी
+
घण्टे और अपराह्क में तीन घण्टे ज्ञानसाधना सत्र चलने
   −
है परन्तु परिस्थिति तो सर्वथा विपरीत है तब यह कार्य
+
वाला था कुल मिलाकर दस सत्र होने वाले थे इन दस
   −
होगा कैसे ? शिक्षा तो भारतीय बनाकर समाज को ठीक
+
सत्रों में केवल एक ही विषय था । वह था “विकास की
   −
करने की चर्चा तो की जा सकती है परन्तु व्यवहार और
+
संकल्पना एवं स्वरूप' । तत्तविक चर्चा के साथ-साथ
   −
व्यवस्था में यह सब कैसे आयेगा ? किससे आशा की जा
+
विकास के सम्यक्‌ स्वरूप को प्रतिष्ठित करने के लिये कार्य
   −
सकती है ? किसकी क्षमता है ? कुछ भी सोच पाना
+
योजना बनाने का भी आयोजन था । गुरुकुल इस
   −
कठिन हो गया है । आप कठिन लगाने वाली बातों को भी
+
ज्ञानसाधना सत्र का आयोजक था और गुरुकुल के आचार्यों
   −
श्र
+
का मानना था कि व्यवहार की चर्चा के बिना केवल
   −
शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
+
cia चर्चा फलदायी नहीं होती है । अतः क्रियान्वयन
   −
सहज ढंग से कह देते हैं । इस बात का भी विश्लेषण करने
+
की योजना बननी ही चाहिये |
   −
की कृपा करें
+
प्रात:काल ठीक साड़े आठ बजे सभा आरम्भ हुई
   −
आचार्य ज्ञाननिधि स्वस्थतापूर्वक कहने लगे...
+
कुलपति आचार्य ज्ञाननिधि की अध्यक्षता में यह सभा होने
   −
आचार्य मन्दार, आपकी चिन्ता योग्य ही है विगत
+
वाली थी उनका आगमन होने से पूर्व सारे विदट्रज्जन
   −
दोसौ वर्षों से हमारे ज्ञानक्षेत्र पर जो आक्रमण हो रहा है वह
+
अपनेअपने स्थान पर बैठ गये थे । सभा में गम्भीर शान्ति
   −
अभूतपूर्व है यह आक्रमण यदि केवल राजनैतिक होता, या
+
छाई हुई थी
   −
केवल पाशवी बल का होता, या केवल अहंकारजनित होता
+
शंखनाद हुआ और कुलपतिजी का आगमन हुआ |
   −
तो उसे परास्त करना सरल था । इतिहास में हमने अनेक प्रकार
+
उन्होंने दीप प्रज्वलन किया और अपना स्थान ग्रहण
   −
के आक्रमण देखे हैं रावण, कंस आदि के अत्याचार देखे
+
किया गुरुकुल के आचार्य केशव ने संगठन मन्त्र का गान
   −
हैं वह अहंकारजनित अत्याचार था । उसे आक्रमण नहीं कह
+
किया संगठन मन्त्र इस प्रकार था ...
   −
सकते । केवल आसुरी तत्त्वों की प्रबलता थी । हमने शक,
+
सं गच्छध्बं सं बदध्वं सं वो मनांसि जानताम्‌
   −
हृण आदि के आक्रमण सुने हैं वह केवल विजयाकांक्षा थी
+
देवा AMT यथा पूर्व संजानाना उपासते
   −
परन्तु उसका स्वरूप भौतिक था अभी अभी के इतिहास में
+
समानो मंत्र: समिति: समानी समान॑ मन: सह चित्तमेषाम्‌
   −
सिकंदर का आक्रमण भी सुना है वह भी विजयाकांक्षा से
+
समानं मंत्रमभि मन्त्रये व समानेन वो हविषा जुहोमि
   −
प्रेरित था और भौतिक स्वरूप का था यही नहीं इस्लाम के
+
समानी व आकूति: समाना हृदयानि वः
   −
उदय के बाद पूरे विश्व ने जेहाद के नाम से इस्लामिक आक्रमण
+
समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति
   −
का अनुभव किया है आज भी उसका अनुभव विश्व के अनेक
+
३3% शान्ति: शान्ति: शान्ति:
   −
देशों को हो रहा है । यह आक्रमण धर्म के नाम पर हो रहा
+
संगठन मन्त्र के गान के बाद आचार्य शुभंकर खड़े
   −
है उसी प्रकार इसाईकरण के उद्देश्य से भी इतिहास में अनेक
+
हुए वे इस ज्ञानसाधना सत्र के संयोजक थे । सबका
   −
आक्रमण हुए हैं । परन्तु इन सभी आक्रमणों का स्वरूप भौतिक
+
स्वागत करते हुए उन्होंने कहा ...
   −
और पाशवी बल के आधार पर किये गये आक्रमण का ही था
+
आज गुरुकुल के आवाहन का आदर कर आप सब
   −
और है । ब्रिटीशों के इन दोसौ वर्षों के आक्रमण का स्वरूप
+
शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
   −
केवल भौतिक नहीं है, केवल जिहादी भी नहीं है वह
+
देशविदेश से पधारे हैं मैं गुरुकुल की ओर से आप सबका
   −
भौतिक और जिहादी उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये बौद्धिक
+
स्वागत करता हूँ। यहाँ इस सभा में अमेरिका, यूरोप,
   −
और मनोवैज्ञानिक साधनों का शस्त्र के रूप में प्रयोग करने का
+
जापान, चीन और ऑस्ट्रेलिया के विश्वविद्यालयों से वरिष्ठ
   −
है ब्रिटीशों ने शिक्षा का शस्त्र के रूप में प्रयोग किया । शिक्षा
+
प्राध्यापक आये हैं भारत के विभिन्न शोधसंस्थानों के भी
   −
का उद्देश्य ज्ञानात्मक होता है ब्रिटीशों ने उसका उपयोग
+
प्राध्यापक उपस्थित हैं अपने अपने क्षेत्र में हमने पर्याप्त
   −
राजनीतिक और आर्थिक हेतुओं से किया । यह पहले कभी
+
अध्ययन और अध्यापन का कार्य किया है। इस
   −
नहीं हुआ था । यह सर्वथा एक भिन्न जीवनदृष्टि थी । जर्मन
+
ज्ञानसाधना सत्र का विषय है “विकास की संकल्पना एवं
   −
पण्डित मैक्समूलर का कथन है, “भारत एक बार जीता गया
+
स्वरूप' । विकास संज्ञा आज के समय में केन्द्रवर्ती संज्ञा
   −
है, परन्तु वह दूसरी बार भी जीता जाना चाहिये और यह
+
बन गई है । सभी देशों की सरकारें विकास को ही अपना
   −
दूसरी विजय शिक्षा (जो कि ज्ञान का क्षेत्र है) के माध्यम से
+
मुख्य मुद्दा बताते हुए अपने कार्यक्रम निर्धारित करती हैं ।
   −
होनी चाहिये' । अतः ब्रिटीशों ने शिक्षा के माध्यम से
+
राजनैतिक दल विकास के मुद्दे पर अपना चुनाव अभियान
   −
जीवनदृष्टि को ही बदलने का प्रयास किया और अपनी सत्ता
+
चलाते हैं । विकास के नाम पर देशों की श्रेष्ठता और
   −
का इसमें सहयोग लिया । सत्ता और अर्थ के सहयोग से उन्होंने
+
कनिष्ठता निश्चित होती है । विकास ही जीवन का लक्ष्य
   −
............. page-29 .............
+
बना हुआ है।
   −
we : १ तत्त्वचिन्तन
+
विकास एक अच्छी बात है ऐसा हम सब मानते हैं ।
   −
भारतीयों के मानस और विचार बदले बदले हुए विचार और
+
तभी तो हम उसके पीछे पड़े हैं परन्तु मानव जाति दिन
   −
मानस ने व्यवस्थायें भी बदलना शुरू किया परिवर्तन की यह
+
प्रतिदिन अधिकाधिक दुःखी हो रही दिखाई देती है तब हमें
   −
प्रक्रिया अभी भी जारी है । अभी पूर्ण परिवर्तन नहीं हुआ है ।
+
विचार करना पढ़ता है कि ऐसा होने का कारण क्या है ।
   −
परन्तु यह भी महतू आश्चर्य की बात है कि दोसौ वर्ष
+
विकास और सुख का कोई सम्बन्ध है अथवा नहीं ? विकास
   −
के आक्रमण के बाद भी हम अभी भी भारतीय बनकर ही
+
और समृद्धि का कोई सम्बन्ध है अथवा नहीं ?विकास और
   −
जी रहे हैं। भारतीय प्रज्ञा का एक हिस्सा ऐसा है जो
+
संस्कृति का कोई सम्बन्ध है अथवा नहीं ? इन प्रश्नों के उत्तर
   −
ब्रिटीशों और यूरोपीय जीवनदृष्टि से अत्यधिक प्रभावित है
+
खोजने में और भी कई प्रश्न निर्माण हो सकते हैं आप सब
   −
परन्तु सामान्य जन अभी भी भारतीय मानस के साथ ही जी
+
विद्वान हैं । अपने स्वाध्याय और प्रत्यक्ष कार्य के कारण आप
   −
रहा है। इसका कारण यह है कि भगवती प्रकृति की
+
इस प्रश्न पर चर्चा करने हेतु योग्य व्यक्ति हैं । हम चर्चा के
   −
योजना से भारत की चिति के अवपात का समय अभी
+
निष्कर्षों के आधार पर क्रियान्वयन की योजना भी बनायेंगे ।
   −
आया नहीं है इसलिये भारत को भारत ही बने रहना है ।
+
मैं अधिक कुछ न कहते हुए आप सबका पुन: एक बार
   −
यह भारत की नियति है । इसलिये भारत का सामान्य जन
+
स्वागत करता हूँ और सभा के सूत्र अध्यक्ष महोदय के हाथ में
   −
अनेक कठिनाइयों के बावजूद, अनेक अवरोधों के बावजूद
+
देता हूँ और अपनी प्रस्तावना से चर्चा का प्रारम्भ करने हेतु
   −
अपना स्वभाव छोड़ता नहीं है। हाँ, शिक्षित लोग इस
+
निवेदन करता हैँ ।
   −
आक्रमण से अधिक मात्रा में परास्त हुए हैं और देश की
+
विकास से तात्पर्य
   −
व्यवस्थायें उनके प्रभाव में चलती हैं । इसलिये परेशानी
+
आचार्य ज्ञाननिधि ने प्रस्तावना के प्रारम्भ में ही एक
   −
बढ़ती है । परन्तु अभी भी आशा है ।
+
बहुप्रचलित सुभाषित कहा ...
   −
ऐसा लगता है कि इन अवरोधों को पाटने के लिये
+
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वेसन्तु निरामया: ।
   −
इस सामान्य जन का बहुत सहयोग प्राप्त होगा । फिर भी
+
सर्वे भद्राणिपश्यन्तु मा कश्चिद्दुःख भागभवेत्‌ ।।
   −
शिक्षित लोगों को भी साथ में तो लेना ही होगा । कारण
+
............. page-31 .............
   −
यह है कि इस कठिन परिस्थिति से उबरने के प्रयास तो
+
we : १ तत्त्वचिन्तन
   −
ज्ञानात्मक ही होने चाहिये ज्ञानात्मक प्रयास के लिये हमें
+
आदरणीय विदट्रूज्जनों, आपको मेरा प्रणाम मैंने अभी
   −
2८ ५
+
जो श्लोक कहा उसमें जो कामना की गई है वही
   −
2 ५.
+
सर्वजनहित और सर्वजनसुख हमारे सारे कार्यों का आलम्बन
   −
शिक्षित लोगों के सहयोग की
+
होता है। विशेष रूप से ज्ञान क्षेत्र का आलम्बन
   −
आवश्यकता रहेगी हमें अपने शिक्षाक्षेत्र को परिष्कृत
+
विश्वकल्याण ही होता है इस बात को आधाररूप मानकर
   −
करना होगा उसे आज ब्रिटीशों के ही प्रभाव के कारण
+
हम विकास के प्रश्न की चर्चा करेंगे । आज विश्व में सर्वत्र
   −
अर्थ और सत्ता के शख्त्र के रूप में प्रयुक्त किया जाता है
+
विकास की चर्चा हो रही है । परन्तु संकट बढ़ रहे हैं । इन
   −
उसके स्थान पर सत्ता और अर्थ को ज्ञान की सेवा में लाना
+
दो बातों को साथ में रखकर हमें विचार करना है । मैं कुछ
   −
होगा । यह मानसिक और बौद्धिक क्षेत्र का कार्य
+
बिन्दु आपके समक्ष रखता हूँ। आप अपने विचार प्रस्तुत
   −
sar, esd एवं सामान्य जन के सम्मिलित प्रयासों
+
करने की कृपा करें ।
   −
से ही होगा ।
+
“विकास' संज्ञा का अर्थ क्या है ? क्या विकास का
   −
यह कार्य कठिन अवश्य है परन्तु असम्भव नहीं है
+
अर्थ वृद्धि है ? क्या विकास का अर्थ विपुलता है ?
   −
क्योंकि बौद्धिकों में भी इसे समझने वाले, इस दिशा में
+
क्या विकास का अर्थ समृद्धि है ? क्या विकास का
   −
प्रयोग करने वाले, अपनी शक्ति और मति से प्रयास करने
+
अर्थ यश और कोीर्ति है ? क्या विकास का अर्थ
   −
वाले बहुत लोग, बहुत संस्थायें और अनेक संगठन हैं । इन
+
प्रतिष्ठा है ? क्या विकास का अर्थ सदुण और संस्कार
   −
सबके सम्मिलित प्रयासों से परिष्कृति आने वाली ही है
+
है ? क्या विकास का अर्थ मुक्ति है ? क्या विकास
   −
ऐसे विश्वास से ही हम भी अपने अध्ययन की योजना बना
+
का अर्थ ज्ञान है ? क्‍या विकास का अर्थ सर्वज्ञता
   −
रहे हैं यह तो आप जानते ही हैं ।
+
है ? क्या विकास का अर्थ विजय है ? क्या विकास
   −
अतः चिन्तन अवश्य करें, चिन्ता न करें ।
+
का अर्थ इन बातों में से एक या एक से अधिक या
   −
आचार्य ज्ञाननिधि के मुख से परिस्थिति का विश्लेषण
+
सभी हैं ? हम विश्लेषण पूर्वक चर्चा करें ।
   −
सुनकर सब आश्वस्त हुए ।
+
क्या विकास व्यक्ति का होता है या समाज का ? देश
   −
अनुप्रश्न तो दो ही हुए । वे इतने महत्त्वपूर्ण थे कि
+
का या होता है विश्व का ? क्या विकसित व्यक्तियों
   −
आगे अभी चर्चा करने की किसी की वृत्ति नहीं रही थी ।
+
से समाज या देश विकसित होते हैं ? या व्यक्ति का
   −
समय भी बहुत हुआ था । अतः शान्ति पाठ के बाद उस
+
विकास होने पर भी समाज या देश अविकसित ही रह
   −
दिन की सभा विसर्जित हुई ।
+
जाते हैं ? या इससे उल्टा विकसित देश में
   −
अध्याय ३
+
अविकसित लोग रहते हैं ? क्‍या विश्व के देशों में
   −
विकास की वर्तमान संकल्पना एवं स्वरूप
+
विकास की कल्पना भिन्नभिन्न होती है ? क्या
   −
माघ कृष्ण तृतीया का दिन था । प्रातः:काल का
+
विकसित देश दूसरे विकसित देश का मित्र होता है ?
   −
द्वितीय प्रहर था । गुरुकुल में आज अनेक अतिथि पधारे हुए
+
याशत्रु ?
   −
थे । वे सब एक सप्ताह तक रहने वाले थे । ये अतिथि
+
विकास के कारक तत्त्व कौन से हैं ? विकसित होने
   −
देशविदेश से भी आये थे और भारत के विभिन्न प्रदेशों से भी
+
के लिये व्यक्ति को या देशों को क्या करना पड़ता
   −
आये थे । सब उच्चविद्याविभूषित थे । देश और विदेश के
+
है ? क्‍या एक व्यक्ति का विकास दूसरे व्यक्ति के
   −
विश्वविद्यालयों में ये सब अध्यापन और अनुसन्धान कर रहे
+
विकास के साथसाथ होता है ? या एक का विकास
   −
थे । उनके अध्ययन के क्षेत्र भी विविध प्रकार के थे । कोई
+
दूसरे के विकास के कारण नहीं हो सकता है ? क्या
   −
साहित्य एवं कला में तो कोई भौतिक विज्ञान में, कोई
+
यही बात देशों की है ? क्या विश्व में कुछ देशों की
   −
83
+
ga
   −
खगोल में तो कोई भूगोल में, कोई समाजशास्त्र में तो कोई
+
2८ ५
   −
अर्थशास्त्र में, कोई योग में तो कोई संगीत में, कोई प्रबन्धन
+
2 ५.
   −
में तो कोई संगणक विद्या में अध्ययन अध्यापन और
+
नियति विकसित होने की और
   −
अनुसन्धान के कार्य में रत थे । वे विद्यावान थे और
+
बने रहने की है और कुछ देशों की अविकसित बने
   −
कीर्तिमान भी थे । लगभग सबने कई ग्रन्थों का लेखन किया
+
रहने की ?
   −
था। कुछ लोगों ने विश्व की अनेक शिक्षासंस्थाओं में
+
विकसित देशों और व्यक्तियों का, अविकसित देशों
   −
व्याख्यान हेतु प्रवास भी किया था । अनेक लोगों को अपने
+
और व्यक्तियों से कैसा सम्बन्ध होता है ? कैसा होना
   −
देश में और अन्य देशों में पुरस्कार भी प्राप्त हुए थे । कुछ
+
चाहिये ? जैसा होना चाहिये वैसा नहीं होने पर क्या
   −
............. page-30 .............
+
किया जाना चाहिये ?
   −
तो विश्वविद्यालयों के कुलपति भी थे ।
+
क्या विकास का आधार संघर्ष है ? स्पर्धा है ?
   −
ऐसे सब विद्रज्जन गुरुकुल के अतिथि हुए थे ।
+
परिश्रम है ? सत्ता है ? शिक्षा है ?
   −
गुरुकुल में पाँच दिन का ज्ञानसाधना सत्र था । तृतीया
+
यदि विकास के सन्दर्भ में हम विधायक दृष्टि से
   −
से लेकर सप्तमी तक चलने वाला था । आज प्रातः:काल
+
विचार करते हैं तो विकास के परिणाम अच्छे आने
   −
यज्ञ से उसका प्रारम्भ हुआ था प्रतिदिन पूर्वाह्न में तीन
+
चाहिये परन्तु वर्तमान विश्व की स्थिति कुछ अलग
   −
घण्टे और अपराह्क में तीन घण्टे ज्ञानसाधना सत्र चलने
+
बात कहती है । विश्व के अनेक देशों में प्राकृतिक
   −
वाला था कुल मिलाकर दस सत्र होने वाले थे । इन दस
+
संकट बढ़े हुए और निरन्तर बढ़ते हुए दिखाई देते हैं
   −
सत्रों में केवल एक ही विषय था । वह था “विकास की
+
सुनामी, अतिवृष्टि, भूकम्प, अकाल आदि प्राकृतिक
   −
संकल्पना एवं स्वरूप' । तत्तविक चर्चा के साथ-साथ
+
संकट विकसित या अविकसित देशों में समान रूप से
   −
विकास के सम्यक्‌ स्वरूप को प्रतिष्ठित करने के लिये कार्य
+
दिखाई देते हैं । विशेषरूप से ध्यान देने योग्य बात
   −
योजना बनाने का भी आयोजन था । गुरुकुल इस
+
यह है कि अविकसित देशों की तुलना में विकसित
   −
ज्ञानसाधना सत्र का आयोजक था और गुरुकुल के आचार्यों
+
देशों में इनकी मात्रा कुछ अधिक ही है । इसका क्या
   −
का मानना था कि व्यवहार की चर्चा के बिना केवल
+
कारण हो सकता है ? मानव सृजित संकट, जैसे कि
   −
cia चर्चा फलदायी नहीं होती है । अतः क्रियान्वयन
+
हिंसा, बलात्कार, छलकपट भी अविकसित देशों की
   −
की योजना बननी ही चाहिये |
+
अपेक्षा विकसित देशों में ही अधिक दिखाई देते हैं ।
   −
प्रात:काल ठीक साड़े आठ बजे सभा शुरू हुई ।
+
इसका क्या कारण हो सकता है, इसका विचार हमें
   −
कुलपति आचार्य ज्ञाननिधि की अध्यक्षता में यह सभा होने
+
करना है । आतंकवाद बढ़ ही रहा है । सामाजिक
   −
वाली थी । उनका आगमन होने से पूर्व सारे विदट्रज्जन
+
समरसता, जोकि श्रेष्ठ समाज का लक्षण है का हास
   −
अपनेअपने स्थान पर बैठ गये थे । सभा में गम्भीर शान्ति
+
हो रहा है। विकास के सन्दर्भ में इन बातों का
   −
छाई हुई थी
+
विचार करना अनिवार्य है
   −
शंखनाद हुआ और कुलपतिजी का आगमन हुआ |
+
मैं बार-बार अविकसित देश ऐसा बोल रहा हैँ ।
   −
उन्होंने दीप प्रज्वलन किया और अपना स्थान ग्रहण
+
आपको आश्चर्य लगता होगा । आजकल देशों को या
   −
किया गुरुकुल के आचार्य केशव ने संगठन मन्त्र का गान
+
व्यक्तियों को अविकसित नहीं कहा जाता है आज
   −
किया । संगठन मन्त्र इस प्रकार था ...
+
से पचास वर्ष पूर्व देश विकसित और अविकसित
   −
सं गच्छध्बं सं बदध्वं सं वो मनांसि जानताम्‌
+
देशों में विभाजित होते थे। तीसेक वर्ष पूर्व
   −
देवा AMT यथा पूर्व संजानाना उपासते ।
+
अविकसित के स्थान पर अल्पविकसित देश कहने
   −
समानो मंत्र: समिति: समानी समान॑ मन: सह चित्तमेषाम्‌
+
का प्रचलन हुआ आज अविकसित के स्थान पर
   −
समानं मंत्रमभि मन्त्रये व समानेन वो हविषा जुहोमि
+
विकासशील देश कहना आरम्भ हुआ है परन्तु शब्द
   −
समानी व आकूति: समाना हृदयानि वः ।
+
............. page-32 .............
   −
समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति
+
शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
   −
३3% शान्ति: शान्ति: शान्ति:
+
ही बदले हैं, न भाव बदला है, न. तक किसीने नहीं की थी आज मनुष्य रोबोट बना सकता
   −
संगठन मन्त्र के गान के बाद आचार्य शुभंकर खड़े
+
स्थिति बदली है, न उनके प्रति देखने का दृष्टिकोण... है जो उसके सारे काम करता है । मनुष्य का श्रम अत्यधिक
   −
हुए । वे इस ज्ञानसाधना सत्र के संयोजक थे । सबका
+
या उनके विषय में बोलने की भाषा या उनके साथ... मात्रा में कम कर देने वाले यन्त्रों का मानव जाति पर बड़ा
   −
स्वागत करते हुए उन्होंने कहा ...
+
व्यवहार करने का तरीका बदला है । इस बात की. उपकार है ।
   −
आज गुरुकुल के आवाहन का आदर कर आप सब
+
और ध्यान आकर्षित करने के लिये ही मैंने रास्तों पर चलने वाले असंख्य वाहन विकास के
   −
शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
+
अविकसित शब्द का प्रयोग किया है । आप चाहें तो... मानचिद्न हैं । उन वाहनों के लिये आवश्यक ईंधन भूमि से
   −
देशविदेश से पधारे हैं । मैं गुरुकुल की ओर से आप सबका
+
विकासशील शब्द का प्रयोग कर सकते हैं । निकालने की, उसे शुद्ध करने की, वाहनों के लिये सड़क
   −
स्वागत करता हूँ। यहाँ इस सभा में अमेरिका, यूरोप,
+
इतनी बातें प्रस्तावना के रूप में कहकर आचार्य... बनाने की विद्या विकास की निशानी है ।
   −
जापान, चीन और ऑस्ट्रेलिया के विश्वविद्यालयों से वरिष्ठ
+
ज्ञाननिधि ने अपनी बात समाप्त की । सत्र विट्रूज्जनों की बड़ेबड़े भवन, बड़ेबड़े बाँध, भारत जैसे देश में
   −
प्राध्यापक आये हैं भारत के विभिन्न शोधसंस्थानों के भी
+
प्रस्तुति के लिये खुला हुआ कोनेकोने में बिछी हुई रेल, हवाई जहाज, बुलेट ट्रेन आदि
   −
प्राध्यापक उपस्थित हैं । अपने अपने क्षेत्र में हमने पर्याप्त
+
आचार्य शुभंकर ने प्रथम ही आचार्य अग्निवेश को... विज्ञान के चमत्कार हैं । इनकी सहायता से हम विश्व के
   −
अध्ययन और अध्यापन का कार्य किया है। इस
+
निमंत्रित किया । आचार्य अग्निवेश पश्चिम के देशों में किसी भी कोने से किसी भी कोने में सम्पर्क कर सकते हैं ।
   −
ज्ञानसाधना सत्र का विषय है “विकास की संकल्पना एवं
+
अर्थशास्त्र और पर्यावरण के तज्ञ माने जाते थे । उन्होंने कई विश्व के किसी भी कोने में क्या हो रहा है वह देख सकते
   −
स्वरूप' विकास संज्ञा आज के समय में केन्द्रवर्ती संज्ञा
+
बड़ी-बड़ी कम्पनियों में आर्थिक परामर्शक के नाते अपनी. हैं, सुन सकते हैं, किसीसे भी बात कर सकते हैं चौबीस
   −
बन गई है सभी देशों की सरकारें विकास को ही अपना
+
सेवायें दी थीं वे अभ्यासु थे, समृद्ध थे और सुप्रतिष्ठित भी. घण्टे के अन्दर कहीं पर भी आजा सकते हैं, वस्तु भेज
   −
मुख्य मुद्दा बताते हुए अपने कार्यक्रम निर्धारित करती हैं ।
+
थे । लोग उन्हें विकास के मुूर्तिमन्त पुरुष कहते थे । सकते हैं या मँगवा सकते हैं । विश्व आज एक छोटासा ग्राम
   −
राजनैतिक दल विकास के मुद्दे पर अपना चुनाव अभियान
+
बन गया है । इसका श्रेय विज्ञान को और वैज्ञानिकों को
   −
चलाते हैं । विकास के नाम पर देशों की श्रेष्ठता और
+
विकास और विज्ञान है।
   −
कनिष्ठता निश्चित होती है । विकास ही जीवन का लक्ष्य
+
उन्होंने अध्यक्ष महोदय और सभा का अभिवादन कर आधुनिक विश्व की यह विकास यात्रा उन्नीसवीं
   −
बना हुआ है।
+
अपनी बात आरम्भ की ... शताब्दी में यूरोप में आरम्भ हुई । टेलीफोन और स्टीम इंजिन
   −
विकास एक अच्छी बात है ऐसा हम सब मानते हैं
+
आज कुल मिलाकर विश्व ने बहुत विकास किया है ।.. की खोज से आरम्भ हुई । यह विकासयात्रा आज तक अविरत
   −
तभी तो हम उसके पीछे पड़े हैं । परन्तु मानव जाति दिन
+
यह विकास ज्ञान के क्षेत्र का है । ज्ञानात्मक विकास का... आरम्भ है । दिनोंदिन नये कीर्तिमान स्थापित हो रहे हैं । यहाँ
   −
प्रतिदिन अधिकाधिक दुःखी हो रही दिखाई देती है । तब हमें
+
मुख्य पहलू विज्ञान के विकास का है । मनुष्य ने अपनी . तक कि अब स्टीफन होकिन्‍्स ने गॉड पार्टिकल की भी
   −
विचार करना पढ़ता है कि ऐसा होने का कारण क्या है ।
+
बुद्धि से चमत्कार कर विज्ञान के क्षेत्र में अद्भुत पराक्रम. खोज की और भगवान को वैज्ञानिक की प्रयोगशाला में
   −
विकास और सुख का कोई सम्बन्ध है अथवा नहीं ? विकास
+
किये हैं । मनुष्य अब अन्तरिक्ष में ग्रहों पर जा सकता है।.. आना पड़ा ।
   −
और समृद्धि का कोई सम्बन्ध है अथवा नहीं ?विकास और
+
उपग्रह बना सकता है । उपग्रहों के माध्यम से विश्वमर के इसीलिये तो आज के युग को विज्ञान का युग कहते
   −
संस्कृति का कोई सम्बन्ध है अथवा नहीं ? इन प्रश्नों के उत्तर
+
समाचार चुटकी बजाते ही सर्वत्र पहुँचाये जा सकते हैं। हैं। विज्ञान ने मनुष्य को आधुनिकता, सुविधा और सुख
   −
खोजने में और भी कई प्रश्न निर्माण हो सकते हैं । आप सब
+
मोबाइल, टी.वी. और संगणक उसके पराक्रम की पराकाष्ठा .... प्रदान किये हैं ।
   −
विद्वान हैं अपने स्वाध्याय और प्रत्यक्ष कार्य के कारण आप
+
है वैज्ञानिकों ने अणुविस्फोट किये और शख्त्रों तथा ऊर्जा विज्ञान की यशोगाथा और उससे हुए विकास के
   −
इस प्रश्न पर चर्चा करने हेतु योग्य व्यक्ति हैं हम चर्चा के
+
के क्षेत्र में मानो चमत्कार हो गया प्लास्टिक बनाया और . विषय में वे विस्तार से बोले । उन्होंने अनेक उदाहरण
   −
निष्कर्षों के आधार पर क्रियान्वयन की योजना भी बनायेंगे ।
+
दुनिया सुन्दरता, विपुलता और विविधता से भर गई ।.. प्रस्तुत किये, अनेक प्रकार के आँकड़े दिये, अनेक चित्र
   −
मैं अधिक कुछ न कहते हुए आप सबका पुन: एक बार
+
सुविधा की सीमा नहीं रही । प्रदर्शित किये, समाचार पत्रों के अनेक वृत्त प्रस्तुत किये,
   −
स्वागत करता हूँ और सभा के सूत्र अध्यक्ष महोदय के हाथ में
+
मनुष्य की बुद्धि का और एक चमत्कार यन्त्रों की. अनेक महापुरुषों ने विज्ञान की जो प्रशंसा की थी उनके
   −
देता हूँ और अपनी प्रस्तावना से चर्चा का प्रारम्भ करने हेतु
+
खोज है । यन्त्र भगवान ने नहीं बनाये, मनुष्य ने बनाये ।.. उद्धरण दिये । अपने प्रवचन को उन्होंने अनेक प्रमाणों से
   −
निवेदन करता हैँ
+
इतनी जटिल, इतनी सूक्ष्म, इतनी सर्व उपयोगी रचना आज . अधिकृत बनाया था । वे बहुत उत्साह से बोल रहे थे
   −
विकास से तात्पर्य
+
श्घ्‌
   −
आचार्य ज्ञाननिधि ने प्रस्तावना के प्रारम्भ में ही एक
+
............. page-33 .............
   −
बहुप्रचलित सुभाषित कहा ...
+
we : १ तत्त्वचिन्तन
   −
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वेसन्तु निरामया: ।
+
उन्हें विज्ञान में, वैज्ञानिकों में और पाश्चात्य विश्व में बहुत
   −
सर्वे भद्राणिपश्यन्तु मा कश्चिद्दुःख भागभवेत्‌ ।।
+
श्रद्धा थी । विज्ञान उनके लिये भगवान था । उनके लिये
   −
............. page-31 .............
+
वैज्ञानिक दृष्टिकोण ही सारी बातों का मापदण्ड था ।
   −
we : १ तत्त्वचिन्तन
+
उनका प्रवचन पूरा हुआ और प्रथम सत्र का समय
   −
आदरणीय विदट्रूज्जनों, आपको मेरा प्रणाम । मैंने अभी
+
भी।
   −
जो श्लोक कहा उसमें जो कामना की गई है वही
+
अध्यक्ष महोदय ने खास कोई टिप्पणी नहीं की
   −
सर्वजनहित और सर्वजनसुख हमारे सारे कार्यों का आलम्बन
+
केवल इतना ही कहा कि आचार्य अग्निवेश ने बहुत दमदार
   −
होता है। विशेष रूप से ज्ञान क्षेत्र का आलम्बन
+
तरीके से अपनी बातें रखी हैं और विज्ञान को विकास का
   −
विश्वकल्याण ही होता है । इस बात को आधाररूप मानकर
+
कारक बताया है । आप सब इन मुद्दों पर विचार करें ।
   −
हम विकास के प्रश्न की चर्चा करेंगे । आज विश्व में सर्वत्र
+
अभी हम भोजन ग्रहण करेंगे । अपराह्न में चार बजे हम
   −
विकास की चर्चा हो रही है परन्तु संकट बढ़ रहे हैं । इन
+
पुन: मिलेंगे उस समय आचार्य वैभव नारायण अपनी बात
   −
दो बातों को साथ में रखकर हमें विचार करना है । मैं कुछ
+
TEM | aL Se |
   −
बिन्दु आपके समक्ष रखता हूँ। आप अपने विचार प्रस्तुत
+
HATS HT AA | Sth AAT W MATS SA और
   −
करने की कृपा करें
+
आचार्य ज्ञाननिधि ने अपनी बैठक पर स्थान लिया
   −
“विकास' संज्ञा का अर्थ क्या है ? क्या विकास का
+
आचार्य वैभव नारायण ने अपनी प्रस्तुति प्रारम्भ की ।
   −
अर्थ वृद्धि है ? क्या विकास का अर्थ विपुलता है ?
+
आचार्य वैभव नारायण ने वेद्विद्या का अध्ययन किया था ।
   −
क्या विकास का अर्थ समृद्धि है ? क्या विकास का
+
जर्मनी के विश्वविद्यालय में वे बेद्विद्या विषयक अनुसन्धान
   −
अर्थ यश और कोीर्ति है ? क्या विकास का अर्थ
+
विभाग के अध्यक्ष का दायित्व निभा रहे थे । उनका
   −
प्रतिष्ठा है ? क्या विकास का अर्थ सदुण और संस्कार
+
अध्ययन व्यापक था और चिन्तन गहरा था । उन्होंने
   −
है ? क्या विकास का अर्थ मुक्ति है ? क्या विकास
+
धार्मिक पण्डित का वेश धारण किया हुआ था । वे वास्तव
   −
का अर्थ ज्ञान है ? क्‍या विकास का अर्थ सर्वज्ञता
+
में ऋषि ही लग रहे थे । उन्होंने वेदमंत्रों के गान से अपनी
   −
है ? क्या विकास का अर्थ विजय है ? क्या विकास
+
प्रस्तुति का प्रारम्भ किया ।
   −
का अर्थ इन बातों में से एक या एक से अधिक या
+
विकास का आर्थिक पक्ष
   −
सभी हैं ? हम विश्लेषण पूर्वक चर्चा करें ।
+
वे कहने लगे...
   −
क्या विकास व्यक्ति का होता है या समाज का ? देश
+
वेद सदा सम्पन्नता का उपदेश देते हैं । हमारे भण्डार
   −
का या होता है विश्व का ? क्या विकसित व्यक्तियों
+
धनधान्य से सदा भरेपूरे रहें, यही वेद भगवान का
   −
से समाज या देश विकसित होते हैं ? या व्यक्ति का
+
आशीर्वाद होता है । अत: वेदों के अनुसार आर्थिक विकास
   −
विकास होने पर भी समाज या देश अविकसित ही रह
+
ही सही विकास है । प्राणिमात्र सुख की कामना करता है ।
   −
जाते हैं ? या इससे उल्टा विकसित देश में
+
मनुष्य भी सदा सुख चाहता है । मनुष्य को सुखी होने के
   −
अविकसित लोग रहते हैं ? क्‍या विश्व के देशों में
+
लिये उसकी हर इच्छा की पूर्ति होना आवश्यक है । अन्न,
   −
विकास की कल्पना भिन्नभिन्न होती है ? क्या
+
वस्त्र, निवास तो उसकी प्राथमिक आवश्यकता है ही । साथ
   −
विकसित देश दूसरे विकसित देश का मित्र होता है ?
+
ही मनुष्य को अच्छी शिक्षा चाहिये । बीमार होने पर
   −
याशत्रु ?
+
चिकित्सा चाहिये । ये भी उसकी प्राथमिक आवश्यकतायें
   −
विकास के कारक तत्त्व कौन से हैं ? विकसित होने
+
हैं। परन्तु उसे मनोरंजन भी चाहिये । शास्त्र कहते हैं और
   −
के लिये व्यक्ति को या देशों को क्या करना पड़ता
+
श७
   −
है ? क्‍या एक व्यक्ति का विकास दूसरे व्यक्ति के
+
हमारा अनुभव भी है कि मनुष्य
   −
विकास के साथसाथ होता है ? या एक का विकास
+
इच्छाओं का पुतला है । उसे अनेक वस्तुओं की इच्छा
   −
दूसरे के विकास के कारण नहीं हो सकता है ? कया
+
होती है। उसे वख््र केवल शरीर ढकने के लिये नहीं
   −
यही बात देशों की है ? क्या विश्व में कुछ देशों की
+
चाहिये । उसे सुन्दर भी दिखना होता है । इसलिये उसे
   −
ga
+
विभिन्न प्रकार के वस्त्र चाहिये । साथ ही अलंकार भी
   −
2८ ५
+
चाहिये । उसे केवल पेट भरने के लिये अन्न नहीं चाहिये ।
   −
2 ५.
+
उसे स्वाद की भी संतुष्टि चाहिये । चाहिये की सूची इतनी
   −
नियति विकसित होने की और
+
लम्बी होती है कि उसका अन्त ही नहीं है । इन वस्तुओं
   −
बने रहने की है और कुछ देशों की अविकसित बने
+
की प्राप्ति में सुख है, अप्राप्ति में दुःख । जो भी वस्तु उसे
   −
रहने की ?
+
चाहिये वह अर्थ से ही प्राप्त होती है । इसलिये आर्थिक
   −
विकसित देशों और व्यक्तियों का, अविकसित देशों
+
विकास ही सही विकास है ।
   −
और व्यक्तियों से कैसा सम्बन्ध होता है ? कैसा होना
+
आर्थिक विकास का मूल आधार है भूमि । इसलिये
   −
चाहिये ? जैसा होना चाहिये वैसा नहीं होने पर क्या
+
भूमि का स्वामित्व होना आज के समय में विकास है ।
   −
किया जाना चाहिये ?
+
आर्थिक विकास का माध्यम है व्यवसाय । अच्छा व्यवसाय
   −
क्या विकास का आधार संघर्ष है ? स्पर्धा है ?
+
होना विकास है । अच्छे व्यवसाय का अर्थ है जिसमें खूब
   −
परिश्रम है ? सत्ता है ? शिक्षा है ?
+
कमाई हो । मनुष्य की बुद्धि और कौशल भी उसके
   −
यदि विकास के सन्दर्भ में हम विधायक दृष्टि से
+
अधथर्जिन के आधार हैं । इसलिये बुद्धि और कौशल होना
   −
विचार करते हैं तो विकास के परिणाम अच्छे आने
+
भी आर्थिक विकास के लिये आवश्यक है । ज्ञान भी
   −
चाहिये परन्तु वर्तमान विश्व की स्थिति कुछ अलग
+
आर्थिक विकास का आधार है आज के विश्व को नॉलेज
   −
बात कहती है । विश्व के अनेक देशों में प्राकृतिक
+
सोसाइटी कहा जाता है । ज्ञान से हम दुनिया जीत सकते हैं
   −
संकट बढ़े हुए और निरन्तर बढ़ते हुए दिखाई देते हैं ।
+
और जो चाहे वस्तु प्राप्त कर सकते हैं ।
   −
सुनामी, अतिवृष्टि, भूकम्प, अकाल आदि प्राकृतिक
+
आज हम जिसे पर्यावरण कहते हैं वे हैं भूमि, जल
   −
संकट विकसित या अविकसित देशों में समान रूप से
+
और वायु । वेदों ने इनमें अग्नि और आकाश जोड़कर उन्हें
   −
दिखाई देते हैं विशेषरूप से ध्यान देने योग्य बात
+
पंचमहाभूत कहा है ये पंचमहाभूत हमारी आर्थिक समृद्धि
   −
यह है कि अविकसित देशों की तुलना में विकसित
+
का आधार हैं । इसलिये वेदों में उन्हें देवता कहा गया है
   −
देशों में इनकी मात्रा कुछ अधिक ही है । इसका क्या
+
और उनकी स्तुति की गई है । इन देवताओं के लिये यज्ञ
   −
कारण हो सकता है ? मानव सृजित संकट, जैसे कि
+
भी किये जाते हैं । आर्थिक समृद्धि के लिये ही अनेक यज्ञ
   −
हिंसा, बलात्कार, छलकपट भी अविकसित देशों की
+
होते हैं । उदाहरण के लिये पर्जन्य यज्ञ वर्षा के लिये होता
   −
अपेक्षा विकसित देशों में ही अधिक दिखाई देते हैं
+
है । वर्षा से ही ae उगता है और हमें अन्न मिलता है
   −
इसका क्या कारण हो सकता है, इसका विचार हमें
+
वर्तमान विश्व में जिन देशों की आर्थिक स्थिति
   −
करना है । आतंकवाद बढ़ ही रहा है । सामाजिक
+
अच्छी है उन्हें ही विकसित देश कहा जाता है । हम जानते
   −
समरसता, जोकि श्रेष्ठ समाज का लक्षण है का हास
+
ही हैं कि आज अमेरिका विश्व में प्रथम क्रमांक का देश है
   −
हो रहा है। विकास के सन्दर्भ में इन बातों का
+
इसका कारण उसकी आर्थिक स्थिति ही है । आज कितने
   −
विचार करना अनिवार्य है
+
ही देश भुखमरी से ग्रस्त हैं । वे सब विकासशील देश हैं
   −
मैं बार-बार अविकसित देश ऐसा बोल रहा हैँ
+
हमारा भारत भी विकासशील देश है
   −
आपको आश्चर्य लगता होगा । आजकल देशों को या
+
............. page-34 .............
   −
व्यक्तियों को अविकसित नहीं कहा जाता है । आज
+
कम उत्पादन, रोजगार का
   −
से पचास वर्ष पूर्व देश विकसित और अविकसित
+
अभाव, शिक्षितों को अर्थार्जन के अवसरों का अभाव,
   −
देशों में विभाजित होते थे। तीसेक वर्ष पूर्व
+
पर्यावरण का प्रदूषण, झुग्गी झोंपड़ियों की संख्या में वृद्धि
   −
अविकसित के स्थान पर अल्पविकसित देश कहने
+
विकासशील देशों के लक्षण हैं ।
   −
का प्रचलन हुआ । आज अविकसित के स्थान पर
+
मनुष्य पढ़ता है, अच्छा व्यवसाय करता है, अच्छी
   −
विकासशील देश कहना शुरू हुआ है । परन्तु शब्द
+
कमाई करता है और समाज में प्रतिष्ठित होता है तब कहते
   −
............. page-32 .............
+
हैं कि उसने विकास किया । यदि वह पढ़ाई में बहुत अच्छा
   −
शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
+
है, सदा प्रथम क्रमांक पर आता है, बहुत पढ़ाई करता है
   −
ही बदले हैं, न भाव बदला है, न. तक किसीने नहीं की थी । आज मनुष्य रोबोट बना सकता
+
परन्तु पढाई पूर्ण होने के बाद उसे नौकरी सामान्य सी
   −
स्थिति बदली है, न उनके प्रति देखने का दृष्टिकोण... है जो उसके सारे काम करता है । मनुष्य का श्रम अत्यधिक
+
मिलती है और वेतन कम मिलता है या वह खूब कमाई
   −
या उनके विषय में बोलने की भाषा या उनके साथ... मात्रा में कम कर देने वाले यन्त्रों का मानव जाति पर बड़ा
+
करने वाला व्यवसाय नहीं करता है तब भी उसे प्रतिष्ठा प्राप्त
   −
व्यवहार करने का तरीका बदला है । इस बात की. उपकार है ।
+
नहीं होती क्योंकि उसकी कमाई पर्याप्त नहीं है । इसके
   −
और ध्यान आकर्षित करने के लिये ही मैंने रास्तों पर चलने वाले असंख्य वाहन विकास के
+
विपरीत यदि वह पढ़ाई कम भी करता है परन्तु कमाई
   −
अविकसित शब्द का प्रयोग किया है । आप चाहें तो... मानचिद्न हैं उन वाहनों के लिये आवश्यक ईंधन भूमि से
+
अच्छी करता है तो वह समाज में प्रतिष्ठित हो जाता है
   −
विकासशील शब्द का प्रयोग कर सकते हैं । निकालने की, उसे शुद्ध करने की, वाहनों के लिये सड़क
+
इसका अर्थ यह है कि आर्थिक विकास ही सही विकास
   −
इतनी बातें प्रस्तावना के रूप में कहकर आचार्य... बनाने की विद्या विकास की निशानी है ।
+
a |
   −
ज्ञाननिधि ने अपनी बात समाप्त की । सत्र विट्रूज्जनों की बड़ेबड़े भवन, बड़ेबड़े बाँध, भारत जैसे देश में
+
लोगोंं के पास जब धन नहीं होता है तब वे अभावों
   −
प्रस्तुति के लिये खुला हुआ । कोनेकोने में बिछी हुई रेल, हवाई जहाज, बुलेट ट्रेन आदि
+
में जीते हैं। अभावों में जीने वाला असन्तुष्ट रहता है,
   −
आचार्य शुभंकर ने प्रथम ही आचार्य अग्निवेश को... विज्ञान के चमत्कार हैं इनकी सहायता से हम विश्व के
+
उसका मन कुंठा से ग्रस्त रहता है समाज में जब कुंठाग्रस्त
   −
निमंत्रित किया । आचार्य अग्निवेश पश्चिम के देशों में किसी भी कोने से किसी भी कोने में सम्पर्क कर सकते हैं ।
+
लोगोंं की संख्या अधिक रहती है तब नैतिकता कम होती
   −
अर्थशास्त्र और पर्यावरण के तज्ञ माने जाते थे । उन्होंने कई विश्व के किसी भी कोने में क्या हो रहा है वह देख सकते
+
है। कहा है न, “बुभुक्षित: कि न करोति पाप॑' - भूखा
   −
बड़ी-बड़ी कम्पनियों में आर्थिक परामर्शक के नाते अपनी. हैं, सुन सकते हैं, किसीसे भी बात कर सकते हैं । चौबीस
+
व्यक्ति क्या पाप नहीं करता । ऐसे समाज में चोरी, लूट,
   −
सेवायें दी थीं वे अभ्यासु थे, समृद्ध थे और सुप्रतिष्ठित भी. घण्टे के अन्दर कहीं पर भी आजा सकते हैं, वस्तु भेज
+
कपट बढ़ते हैं असुरक्षा बढ़ती है । ऐसे में धनवान लोग
   −
थे । लोग उन्हें विकास के मुूर्तिमन्त पुरुष कहते थे । सकते हैं या मँगवा सकते हैं । विश्व आज एक छोटासा ग्राम
+
भी असुरक्षितता का अनुभव करते हैं । समाज में अशान्ति
   −
बन गया है । इसका श्रेय विज्ञान को और वैज्ञानिकों को
+
फैलती है । ज्ञानविज्ञान की उपासना कम होती है । समाज
   −
विकास और विज्ञान है।
+
असंस्कारी बन जाता है । इसलिये आर्थिक विकास ही
   −
उन्होंने अध्यक्ष महोदय और सभा का अभिवादन कर आधुनिक विश्व की यह विकास यात्रा उन्नीसवीं
+
सुख, शान्ति, संस्कार, ज्ञान आदि सभी अच्छी बातों का
   −
अपनी बात शुरू की ... शताब्दी में यूरोप में शुरू हुई । टेलीफोन और स्टीम इंजिन
+
मूल है । आर्थिक विकास ही विकास है जो आगे की सारी
   −
आज कुल मिलाकर विश्व ने बहुत विकास किया है ।.. की खोज से शुरू हुई । यह विकासयात्रा आज तक अविरत
+
सम्भावनाओं को जन्म देता है ।
   −
यह विकास ज्ञान के क्षेत्र का है । ज्ञानात्मक विकास का... शुरू है । दिनोंदिन नये कीर्तिमान स्थापित हो रहे हैं । यहाँ
+
भगवान विष्णु इस सृष्टि के पालनहार माने गये हैं ।
   −
मुख्य पहलू विज्ञान के विकास का है । मनुष्य ने अपनी . तक कि अब स्टीफन होकिन्‍्स ने गॉड पार्टिकल की भी
+
हमने चित्रों में देखा है और कथाओं में सुना है कि भगवती
   −
बुद्धि से चमत्कार कर विज्ञान के क्षेत्र में अद्भुत पराक्रम. खोज की और भगवान को वैज्ञानिक की प्रयोगशाला में
+
लक्ष्मी उनकी पत्नी हैं । लक्ष्मी का अर्थ है सर्व प्रकार की
   −
किये हैं । मनुष्य अब अन्तरिक्ष में ग्रहों पर जा सकता है।.. आना पड़ा
+
सम्पत्ति लक्ष्मीवान ही अपना और अन्यों का पालन-
   −
उपग्रह बना सकता है । उपग्रहों के माध्यम से विश्वमर के इसीलिये तो आज के युग को विज्ञान का युग कहते
+
पोषण कर सकता है । अत: लक्ष्मी की कृपा से प्राप्त समृद्धि
   −
समाचार चुटकी बजाते ही सर्वत्र पहुँचाये जा सकते हैं। हैं। विज्ञान ने मनुष्य को आधुनिकता, सुविधा और सुख
+
ही विकास है ।
   −
मोबाइल, टी.वी. और संगणक उसके पराक्रम की पराकाष्ठा .... प्रदान किये हैं ।
+
श्ट
   −
है । वैज्ञानिकों ने अणुविस्फोट किये और शख्त्रों तथा ऊर्जा विज्ञान की यशोगाथा और उससे हुए विकास के
+
शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
   −
के क्षेत्र में मानो चमत्कार हो गया । प्लास्टिक बनाया और . विषय में वे विस्तार से बोले । उन्होंने अनेक उदाहरण
+
कविकुलगुरु कालिदास ने अपने “रघुवंश' महाकाव्य
   −
दुनिया सुन्दरता, विपुलता और विविधता से भर गई ।.. प्रस्तुत किये, अनेक प्रकार के आँकड़े दिये, अनेक चित्र
+
में लिखा है, “एको ही दोषो गुणसच्निपाते निमज्तीन्दो:
   −
सुविधा की सीमा नहीं रही प्रदर्शित किये, समाचार पत्रों के अनेक वृत्त प्रस्तुत किये,
+
किरणेष्विवांक:' तब उसकी टीका में मछ्िनाथ कहते
   −
मनुष्य की बुद्धि का और एक चमत्कार यन्त्रों की. अनेक महापुरुषों ने विज्ञान की जो प्रशंसा की थी उनके
+
“एको ही दोषो गुणसन्निपाते निमजतीन्दो: इति येन
   −
खोज है यन्त्र भगवान ने नहीं बनाये, मनुष्य ने बनाये ।.. उद्धरण दिये । अपने प्रवचन को उन्होंने अनेक प्रमाणों से
+
लिखित:
   −
इतनी जटिल, इतनी सूक्ष्म, इतनी सर्व उपयोगी रचना आज . अधिकृत बनाया था । वे बहुत उत्साह से बोल रहे थे
+
ज्ञातं न नून॑ कविनापि तेन दारिद्रयदोषो गुणराशिनाशी '
   −
श्घ्‌
+
अर्थात जो कवि यह कहता है कि गुणों के समुच्चय
   −
............. page-33 .............
+
में केवल एक ही दोष चन्द्रमा में कलंक के समान दोष के
   −
we : १ तत्त्वचिन्तन
+
रूप में दिखाई नहीं देता है,बह कवि वास्तव में जानता नहीं
   −
उन्हें विज्ञान में, वैज्ञानिकों में और पाश्चात्य विश्व में बहुत
+
है कि दाखियि रूपी दोष सारे गुणों का नाश करता है । इस
   −
श्रद्धा थी । विज्ञान उनके लिये भगवान था । उनके लिये
+
प्रकार विद्वान, कवि, सामान्य जन जानते हैं कि आर्थिक
   −
वैज्ञानिक दृष्टिकोण ही सारी बातों का मापदण्ड था
+
सम्पन्नता ही सही विकास है आचार्य चाणक्य ने भी कहा
   −
उनका प्रवचन पूरा हुआ और प्रथम सत्र का समय
+
है, 'सुखस्य मूलम्‌ अर्थ:' - सुख का मूल अर्थ है ।
   −
भी।
+
इस प्रकार आचार्य वैभव नारायण ने आर्थिक
   −
अध्यक्ष महोदय ने खास कोई टिप्पणी नहीं की ।
+
सम्पन्नता को ही विकास के रूप में प्रतिपादित किया और
   −
केवल इतना ही कहा कि आचार्य अग्निवेश ने बहुत दमदार
+
सभा का आभार मानते हुए अपना स्थान ग्रहण किया ।
   −
तरीके से अपनी बातें रखी हैं और विज्ञान को विकास का
+
उनके वक्तव्य के बाद जिज्ञासा समाधान और मुक्त
   −
कारक बताया है । आप सब इन मुद्दों पर विचार करें
+
चिन्तन के लिये समय था
   −
अभी हम भोजन ग्रहण करेंगे । अपराह्न में चार बजे हम
+
तब लक्ष्मेश नामक एक आचार्य ने कहा ...
   −
पुन: मिलेंगे । उस समय आचार्य वैभव नारायण अपनी बात
+
मेरे नाम में ही लक्ष्मी का नाम समाया है तथापि मेरा
   −
TEM | aL Se |
+
मत है कि केवल आर्थिक विकास ही विकास नहीं है ।
   −
HATS HT AA | Sth AAT W MATS SA और
+
हमने व्यवहार में भी देखा है कि सम्पन्नता के कारण अनेक
   −
आचार्य ज्ञाननिधि ने अपनी बैठक पर स्थान लिया ।
+
युवा उच्छृंखल बन जाते हैं। सम्पन्नना के साथ यदि
   −
आचार्य वैभव नारायण ने अपनी प्रस्तुति प्रारम्भ की ।
+
संस्कार नहीं हैं तो समाज में अनीति और भ्रष्टाचार ही फैलते
   −
आचार्य वैभव नारायण ने वेद्विद्या का अध्ययन किया था
+
हैं । सम्पन्नता सारे गुर्णों की नहीं, सारे दोषों की जननी है
   −
जर्मनी के विश्वविद्यालय में वे बेद्विद्या विषयक अनुसन्धान
+
आचार्य श्रीपति ने कहा ...
   −
विभाग के अध्यक्ष का दायित्व निभा रहे थे । उनका
+
आचार्य वैभव नारायणजी ने कहा कि आर्थिक
   −
अध्ययन व्यापक था और चिन्तन गहरा था उन्होंने
+
विकास ही सही विकास है वर्तमान मापदण्डों के अनुसार
   −
भारतीय पण्डित का वेश धारण किया हुआ था वे वास्तव
+
उनका कथन सही हो सकता है परन्तु विचारणीय प्रश्न यह
   −
में ऋषि ही लग रहे थे । उन्होंने वेदमंत्रों के गान से अपनी
+
है कि क्या वर्तमान मापदृण्ड सही है ? यह मापदण्ड
   −
प्रस्तुति का प्रारम्भ किया ।
+
अमेरिका ने विश्व पर लादा है इसलिये क्या वह सही हो
   −
विकास का आर्थिक पक्ष
+
जाता है ? मेरा मत है कि प्रथम तो आर्थिक विकास को ही
   −
वे कहने लगे...
+
विकास मानने वाला यह मापदण्ड ही बदलना चाहिये । मेरे
   −
वेद हमेशा सम्पन्नता का उपदेश देते हैं । हमारे भण्डार
+
मतानुसार सांस्कृतिक विकास ही सही विकास है।
   −
धनधान्य से हमेशा भरेपूरे रहें, यही वेद भगवान का
+
............. page-35 .............
   −
आशीर्वाद होता है । अत: वेदों के अनुसार आर्थिक विकास
+
we : १ तत्त्वचिन्तन
   −
ही सही विकास है । प्राणिमात्र सुख की कामना करता है ।
+
सांस्कृतिक विकास का आधार धर्म है । धर्म ही मनुष्य
   −
मनुष्य भी हमेशा सुख चाहता है । मनुष्य को सुखी होने के
+
समाज की विशेषतता है । कहा है,
   −
लिये उसकी हर इच्छा की पूर्ति होना आवश्यक है अन्न,
+
आहारनिद्राभयमैथुन॑ च... सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम्‌
   −
वस्त्र, निवास तो उसकी प्राथमिक आवश्यकता है ही । साथ
+
धर्मों ही तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीना: पशुभि: समाना: ॥।
   −
ही मनुष्य को अच्छी शिक्षा चाहिये । बीमार होने पर
+
अर्थात
   −
चिकित्सा चाहिये । ये भी उसकी प्राथमिक आवश्यकतायें
+
आहार, निद्रा, भय और मैथुन की प्रवृत्ति मनुष्य और
   −
हैं। परन्तु उसे मनोरंजन भी चाहिये शास्त्र कहते हैं और
+
पशु दोनों में समान है मनुष्य की विशेषता धर्म है । बिना
   −
श७
+
धर्म के मनुष्य भी पशु के समान ही है ।
   −
हमारा अनुभव भी है कि मनुष्य
+
अत: विकास का सही आधार धर्म ही है । धर्म के
   −
इच्छाओं का पुतला है उसे अनेक वस्तुओं की इच्छा
+
आधार पर जो जीवनशैली विकसित होती है उसे ही
   −
होती है। उसे वख््र केवल शरीर ढकने के लिये नहीं
+
संस्कृति कहते हैं ।
   −
चाहिये । उसे सुन्दर भी दिखना होता है । इसलिये उसे
+
मुझे यदि अवसर मिला तो मैं मेरा विचार विस्तार से
   −
विभिन्न प्रकार के वस्त्र चाहिये साथ ही अलंकार भी
+
प्रस्तुत करूँगा
   −
चाहिये । उसे केवल पेट भरने के लिये अन्न नहीं चाहिये ।
+
आचार्य मेधावी ने कहा ...
   −
उसे स्वाद की भी संतुष्टि चाहिये चाहिये की सूची इतनी
+
विकसित समाज शान्ति और सौहार्द से जीता है
   −
लम्बी होती है कि उसका अन्त ही नहीं है । इन वस्तुओं
+
सम्पन्नता हो या न हो जिस समाज में शान्ति और सौहार्द
   −
की प्राप्ति में सुख है, अप्राप्ति में दुःख जो भी वस्तु उसे
+
नहीं होते हैं वह विकसित समाज नहीं कहा जाता सौहार्द
   −
चाहिये वह अर्थ से ही प्राप्त होती है । इसलिये आर्थिक
+
का आधार प्रेम होता है । अत: विकसित समाज वह है जो
   −
विकास ही सही विकास है ।
+
प्रेम से रहना जानता है । प्रेम, भक्ति और उपासना से उत्पन्न
   −
आर्थिक विकास का मूल आधार है भूमि इसलिये
+
होता है और बढ़ता है । जब व्यक्ति एकदूसरे के साथ प्रेम
   −
भूमि का स्वामित्व होना आज के समय में विकास है ।
+
से व्यवहार करते हैं तब वे सम्पन्न हों या न हों इससे अन्तर
   −
आर्थिक विकास का माध्यम है व्यवसाय अच्छा व्यवसाय
+
नहीं पड़ता प्रेम से व्यवहार करने में नीतिमत्ता के लिये
   −
होना विकास है अच्छे व्यवसाय का अर्थ है जिसमें खूब
+
कानून नहीं बनाने पड़ते हैं नैतिकता स्वत: ही विकसित
   −
कमाई हो मनुष्य की बुद्धि और कौशल भी उसके
+
होती है इसलिये प्रेम से रहने वाला समाज ही विकसित
   −
अधथर्जिन के आधार हैं इसलिये बुद्धि और कौशल होना
+
समाज है
   −
भी आर्थिक विकास के लिये आवश्यक है । ज्ञान भी
+
प्रश्न यह है कि व्यक्ति प्रेम से रहे कैसे ? प्रेम से रहने
   −
आर्थिक विकास का आधार है । आज के विश्व को नॉलेज
+
के अवरोध क्या हैं ? प्रेम से रहने के बड़े अवरोध हैं स्वार्थ
   −
सोसाइटी कहा जाता है ज्ञान से हम दुनिया जीत सकते हैं
+
और लोभ । हम शिक्षा को इस प्रकार मूल्यनिष्ठ बनायें कि
   −
और जो चाहे वस्तु प्राप्त कर सकते हैं
+
मनुष्यों में स्वार्थ और लोभ कम हों ऐसी शिक्षा से समाज
   −
आज हम जिसे पर्यावरण कहते हैं वे हैं भूमि, जल
+
विकसित होगा ।
   −
और वायु । वेदों ने इनमें अग्नि और आकाश जोड़कर उन्हें
+
इस प्रकार आचार्य वैभव नारायण के आर्थिक विकास
   −
पंचमहाभूत कहा है । ये पंचमहाभूत हमारी आर्थिक समृद्धि
+
को ही विकास बताने वाले विचार पर अनेक लोगोंं ने
   −
का आधार हैं इसलिये वेदों में उन्हें देवता कहा गया है
+
आपत्ति उठाई संस्कार पक्ष को आप्रहपूर्वक स्थापित
   −
और उनकी स्तुति की गई है इन देवताओं के लिये यज्ञ
+
किया गया
   −
भी किये जाते हैं । आर्थिक समृद्धि के लिये ही अनेक यज्ञ
+
इस सत्र का समय समाप्त होने को हुआ तब आचार्य
   −
होते हैं । उदाहरण के लिये पर्जन्य यज्ञ वर्षा के लिये होता
+
88
   −
है । वर्षा से ही ae उगता है और हमें अन्न मिलता है ।
+
शुभंकर ने संचालन के सूत्र सम्हालते
   −
वर्तमान विश्व में जिन देशों की आर्थिक स्थिति
+
हुए कहा...
   −
अच्छी है उन्हें ही विकसित देश कहा जाता है । हम जानते
+
हमने आज के दिन में विज्ञान के माध्यम से
   −
ही हैं कि आज अमेरिका विश्व में प्रथम क्रमांक का देश है ।
+
विकास;जो मुख्य रूप से कामनाओं की पूर्ति की दिशा में ले
   −
इसका कारण उसकी आर्थिक स्थिति ही है । आज कितने
+
जाता है, उसका निरूपण सुना दूसरे क्रम में आर्थिक
   −
ही देश भुखमरी से ग्रस्त हैं । वे सब विकासशील देश हैं
+
विकास का निरूपण सुना दोनों एकदूसरे के साथ जुड़े हुए
   −
हमारा भारत भी विकासशील देश है
+
हैं क्योंकि कामनाओं की पूर्ति मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है
   −
............. page-34 .............
+
और अर्थ उसका साधन है । इसलिये दोनों प्रस्तुतियाँ एक
   −
कम उत्पादन, रोजगार का
+
ही सिक्के के दो पहलू जैसी थीं । प्रतिभावों में हमने धर्म,
   −
अभाव, शिक्षितों को अथर्जिन के अवसरों का अभाव,
+
संस्कृति, शान्ति, प्रेम, संस्कार जैसे विषयों का भी उल्लेख
   −
पर्यावरण का प्रदूषण, झुग्गी झोंपड़ियों की संख्या में वृद्धि
+
सुना । निश्चय ही यह विज्ञान और भौतिक पदार्थों के प्रभूत
   −
विकासशील देशों के लक्षण हैं
+
उत्पादन के पक्ष को नियंत्रित करने वाला है कदाचित यह
   −
मनुष्य पढ़ता है, अच्छा व्यवसाय करता है, अच्छी
+
ade भी बनायेगा । इसलिये उस पर विस्तार से चर्चा
   −
कमाई करता है और समाज में प्रतिष्ठित होता है तब कहते
+
होना आवश्यक है । हम कल इस पक्ष की चर्चा करेंगे ।
   −
हैं कि उसने विकास किया यदि वह पढ़ाई में बहुत अच्छा
+
कल प्रात: ठीक साड़े आठ बजे सत्र प्रारम्भ होगा आचार्य
   −
है, हमेशा प्रथम क्रमांक पर आता है, बहुत पढ़ाई करता है
+
श्रीपति कल धर्म, संस्कृति और संस्कार का पक्ष रखेंगे ।
   −
परन्तु पढाई पूर्ण होने के बाद उसे नौकरी सामान्य सी
+
आप सबसे निवेदन है कि आप भी इस विषय में चिन्तन
   −
मिलती है और वेतन कम मिलता है या वह खूब कमाई
+
करें ।
   −
करने वाला व्यवसाय नहीं करता है तब भी उसे प्रतिष्ठा प्राप्त
+
सबने समवेत स्वर में शान्तिपाठ किया और प्रथम
   −
नहीं होती क्योंकि उसकी कमाई पर्याप्त नहीं है इसके
+
दिन की सभा विसर्जित हुई
   −
विपरीत यदि वह पढ़ाई कम भी करता है परन्तु कमाई
+
दूसरे दिन सूर्योदय के समय यज्ञ हुआ । ठीक साड़े
   −
अच्छी करता है तो वह समाज में प्रतिष्ठित हो जाता है
+
आठ बजे सभा आरम्भ हुई आचार्य ज्ञाननिधि ने अपना
   −
इसका अर्थ यह है कि आर्थिक विकास ही सही विकास
+
स्थान ग्रहण किया । कल की तरह ही संगठन मन्त्र का गान
   −
a |
+
हुआ । आचार्य ज्ञाननिधि ने विषय की प्रस्तावना की ।
   −
लोगों के पास जब धन नहीं होता है तब वे अभावों
+
उन्होंने कहा ...
   −
में जीते हैं। अभावों में जीने वाला असन्तुष्ट रहता है,
+
कल हमने आर्थिक विकास के विषय में और विज्ञान
   −
उसका मन कुंठा से ग्रस्त रहता है । समाज में जब कुंठाग्रस्त
+
की महत्ता के बारे में सुना है । आज धर्म और संस्कृति को
   −
लोगों की संख्या अधिक रहती है तब नैतिकता कम होती
+
लेकर प्रतिपादन होने वाला है । हम शान्तिपाठ करते हैं ।
   −
है। कहा है न, “बुभुक्षित: कि न करोति पाप॑' - भूखा
+
उसमें सबके सुख की, स्वास्थ्य की और कल्याण की
   −
व्यक्ति क्या पाप नहीं करता ऐसे समाज में चोरी, लूट,
+
कामना करते हैं विकास के साथ इसका सीधा सम्बन्ध
   −
कपट बढ़ते हैं । असुरक्षा बढ़ती है । ऐसे में धनवान लोग
+
है । इस बात को ध्यान में रखकर हम अपने विचार प्रस्तुत
   −
भी असुरक्षितता का अनुभव करते हैं समाज में अशान्ति
+
करें, यही आप सबसे निवेदन है
   −
फैलती है ज्ञानविज्ञान की उपासना कम होती है । समाज
+
आचार्य श्रीपति अपनी प्रस्तुति के लिये खड़े हुए वे
   −
असंस्कारी बन जाता है इसलिये आर्थिक विकास ही
+
काशी के थे काशी में उनका गुरुकुल था । उनके गुरुकुल
   −
सुख, शान्ति, संस्कार, ज्ञान आदि सभी अच्छी बातों का
+
में विभिन्न शास्त्रों का अध्ययन होता था । उनके छात्र भी
   −
मूल है । आर्थिक विकास ही विकास है जो आगे की सारी
+
............. page-36 .............
   −
सम्भावनाओं को जन्म देता है ।
+
शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
   −
भगवान विष्णु इस सृष्टि के पालनहार माने गये हैं ।
+
मेधावी छात्रों के रूप में ख्याति प्राप्त _ कि उनकी उत्पत्ति के साथ ही उनकी गति और गतिविधि
   −
हमने चित्रों में देखा है और कथाओं में सुना है कि भगवती
+
थे । वे देशविदेश में पहुँचे थे । त्रेता और द्वापर में जिस... का नियमन करने वाले सिद्धान्त भी उत्पन्न हुए । जिसने
   −
लक्ष्मी उनकी पत्नी हैं । लक्ष्मी का अर्थ है सर्व प्रकार की
+
प्रकार के गुरुकुल की उनकी कल्पना थी उस पद्धति से... सृष्टि बनाई उसीने ये नियम भी बनाये और उत्पन्न हुए सभी
   −
सम्पत्ति लक्ष्मीवान ही अपना और अन्यों का पालन-
+
गुरुकुल चलाने का उनका प्रयास रहता था अतः छात्रों... पदार्थ इन नियमों का पालन करेंगे ऐसी स्चना भी की । ये
   −
पोषण कर सकता है अत: लक्ष्मी की कृपा से प्राप्त समृद्धि
+
की संख्या कम थी परन्तु उनकी गुणवत्ता और प्रभाव बहुत. विश्वनियम हैं इन विश्वनियमों को ही धर्म कहते हैं । आज
   −
ही विकास है
+
था वेद, दर्शनशास्त्र और उपनिषदों में उनकी श्रद्धा थी ।... हमने निहित स्वार्थों और अज्ञान, अल्पज्ञान और विपरीत
   −
श्ट
+
उन शास्त्रों को ही वे प्रमाण मानते थे । परम्परा में उनकी... ज्ञान के चलते केवल सम्प्रदायों को धर्म कहकर उसे कलह
   −
शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
+
इतनी आस्था थी कि वे उसमें जरा भी समझौता करने के... का मुद्दा बनाया है । वह बड़ा आअधर्म है । परन्तु यह मुद्दा
   −
कविकुलगुरु कालिदास ने अपने “रघुवंश' महाकाव्य
+
लिये तैयार नहीं होते थे । खानपान और वेशभूषा, दिनचर्या... हम बाद में देखेंगे । अभी हम विश्वनियम की बात कर रहे
   −
में लिखा है, “एको ही दोषो गुणसच्निपाते निमज्तीन्दो:
+
और जीवनचर्या के शास्त्रीय fie a पालन. हैं । ये विश्वनियम सृष्टि को धारण करते हैं । इसलिये हमारे
   −
किरणेष्विवांक:' तब उसकी टीका में मछ्िनाथ कहते
+
कठोरतापूर्वक और कर्तव्यबुद्धि से करते थे धाराप्रवाह... स्मृति ग्रन्थ कहते हैं, “धारणाद्धर्ममित्याहु: धर्मों धारयते
   −
“एको ही दोषो गुणसन्निपाते निमजतीन्दो: इति येन
+
संस्कृत बोलते थे और वेद Al wast का सस्वर प्रभावी... प्रजा: ।' अर्थात प्रजाओं को धारण करता है इसीलिये उसे
   −
लिखित:
+
ढंग से गान करते थे धर्म कहते हैं । इसका अर्थ यह है कि जिस प्रकार धर्म
   −
ज्ञातं न नून॑ कविनापि तेन दारिद्रयदोषो गुणराशिनाशी ।'
+
विश्वनियम बनकर सृष्टि की धारणा करता है उसी प्रकार वह
   −
अर्थात जो कवि यह कहता है कि गुणों के समुच्चय
+
शास्त्रनियम और लोकनियम बनकर समाज की धारणा करता
   −
में केवल एक ही दोष चन्द्रमा में कलंक के समान दोष के
+
नैमिषारण्य के ऋषियों का स्मरण कर उन्होंने अपनी . है। इस धर्म का पालन सबको सर्वत्र, सर्वदा करना ही
   −
रूप में दिखाई नहीं देता है,बह कवि वास्तव में जानता नहीं
+
प्रस्तुति आरम्भ की । वे कहने लगे ... होता है । भिन्न भिन्न संदर्भों में धर्म कभी कर्तव्य बन जाता
   −
है कि दाखियि रूपी दोष सारे गुणों का नाश करता है । इस
+
धर्ममय जीवन जीने वाला व्यक्ति या समाज ही... है तो कभी स्वभाव, कभी नीतिमत्ता बन जाता है तो कभी
   −
प्रकार विद्वान, कवि, सामान्य जन जानते हैं कि आर्थिक
+
विकसित व्यक्ति या समाज कहा जाता है । मैंने कल भी. उपासना । हर संदर्भ में वह प्रजा को धारण करने का कार्य
   −
सम्पन्नता ही सही विकास है । आचार्य चाणक्य ने भी कहा
+
कहा था कि मनुष्य पशु से विशेष केवल धर्म के कारण ही... ही करता है ।
   −
है, 'सुखस्य मूलम्‌ अर्थ:' - सुख का मूल अर्थ है ।
+
है । धर्म का पालन करना मनुष्य के लिये आवश्यक है । आज हमने धर्म के नियमों का त्याग कर प्रजा की
   −
इस प्रकार आचार्य वैभव नारायण ने आर्थिक
+
जब उसे धर्म का पालन करने में कष्ट का अनुभव होता है. धारणा हेतु राज्यव्यवस्था के अन्तर्गत कानून बनाये हैं और
   −
सम्पन्नता को ही विकास के रूप में प्रतिपादित किया और
+
तब तो वह विकासशील कहा जायेगा, परन्तु जब वह धर्म. उसे संविधान का आधार दिया है । उद्देश्य तो संविधान और
   −
सभा का आभार मानते हुए अपना स्थान ग्रहण किया
+
का पालन करने में सहजता का अनुभव करने लगेगा तब . कानून का प्रजा की सुरक्षा, सुख और समृद्धि का ही है
   −
उनके वक्तव्य के बाद जिज्ञासा समाधान और मुक्त
+
विकसित कहा जायेगा । धर्म के समान ही वह भी अपराधी को दण्ड और निरपराधी
   −
चिन्तन के लिये समय था
+
प्रार्भ में ही हमें धर्म संज्ञा को ठीक से समझ लेना... की रक्षा का ही है परन्तु व्यवहार में वह अपना घोषित
   −
तब लक्ष्मेश नामक एक आचार्य ने कहा ...
+
चाहिये । शास्त्र कहते हैं कि प्रजापति ब्रह्मा का पुत्र धर्म. उद्देश्य सिद्ध नहीं कर सकता है क्योंकि वह विश्वनियम का
   −
मेरे नाम में ही लक्ष्मी का नाम समाया है फिर भी मेरा
+
है । ब्रह्मा ने सृष्टि का सृजन किया । सृष्टि की उत्पत्ति के. अनुसरण नहीं करता है । वह यान्त्रिक है और चेतन सृष्टि
   −
मत है कि केवल आर्थिक विकास ही विकास नहीं है ।
+
साथ ही धर्म की भी उत्पत्ति हुई । धर्म के उत्पन्न होने का... के साथ समरस नहीं हो सकता है ।
   −
हमने व्यवहार में भी देखा है कि सम्पन्नता के कारण अनेक
+
प्रयोजन क्या है ? प्रयोजन उसके परिणाम में ही है । हम इस धर्म का पालन किये बिना सुख, समृद्धि, शान्ति,
   −
युवा उच्छृंखल बन जाते हैं। सम्पन्नना के साथ यदि
+
जानते हैं कि सृष्टि को ब्रह्माण्ड कहते हैं । इस ब्रह्माण्ड में... सौहार्द, ज्ञान कभी सम्भव ही नहीं है जो कि विकसित
   −
संस्कार नहीं हैं तो समाज में अनीति और भ्रष्टाचार ही फैलते
+
असंख्य ग्रह, नक्षत्र हैं । वे सारे गतिशील हैं । वे निरन्तर. समाज के लक्षण हैं । इसलिये मैं कहता हूँ कि धर्म के
   −
हैं । सम्पन्नता सारे गुर्णों की नहीं, सारे दोषों की जननी है ।
+
गति में रहते हैं । इतनी बड़ी संख्या में गतिशील पदार्थ भी. अनुसार जीवन जीना ही विकास है ।
   −
आचार्य श्रीपति ने कहा ...
+
एकदूसरे से टकराते नहीं हैं । न वे किसीका नाश करते हैं, धर्म के अनुसार जीना सीखना होता है । इसे सिखाने
   −
आचार्य वैभव नारायणजी ने कहा कि आर्थिक
+
न उनका नाश होता है । यह कैसे हुआ ? यह ऐसे हुआ. का मुख्य साधन शिक्षा है। हमारी शिक्षा इस प्रकार से
   −
विकास ही सही विकास है । वर्तमान मापदण्डों के अनुसार
+
विकास का धार्मिक पक्ष
   −
उनका कथन सही हो सकता है । परन्तु विचारणीय प्रश्न यह
+
२०
   −
है कि क्या वर्तमान मापदृण्ड सही है ? यह मापदण्ड
+
............. page-37 .............
   −
अमेरिका ने विश्व पर लादा है इसलिये क्या वह सही हो
+
we : १ तत्त्वचिन्तन
   −
जाता है ? मेरा मत है कि प्रथम तो आर्थिक विकास को ही
+
पुनर्व्यवस्थित होना आज की महती आवश्यकता है । मैं तो
   −
विकास मानने वाला यह मापदण्ड ही बदलना चाहिये । मेरे
+
यहाँ तक कहूँगा कि आज जो शिक्षाव्यवस्था हमने की है
   −
मतानुसार सांस्कृतिक विकास ही सही विकास है।
+
वह धर्म सिखाने की बात तो दूर की है उल्टे अधर्म सिखाती
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है। अत: विकास के लिये हमें धर्मानुसारी शिक्षा की
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we : १ तत्त्वचिन्तन
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व्यवस्था करनी होगी ।
   −
सांस्कृतिक विकास का आधार धर्म है । धर्म ही मनुष्य
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आचार्य वैभव नारायण और आचार्य अगिवेश के
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समाज की विशेषतता है । कहा है,
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विचारों का भी मैं आदर करता हूँ। विज्ञान सहायक हो
   −
आहारनिद्राभयमैथुन॑ च... सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम्‌ ।
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सकता है, सम्पन्नता आवश्यक है परन्तु बिना धर्म के दोनों
   −
धर्मों ही तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीना: पशुभि: समाना: ॥।
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विनाशक सिद्ध होते हैं। अतः धर्म ही मुख्य है, विज्ञान
   −
अर्थात
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और सम्पन्नता गौण ।
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आहार, निद्रा, भय और मैथुन की प्रवृत्ति मनुष्य और
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आचार्य श्रीपति ने अपने इस मुद्दे को प्रस्थापित करने
   −
पशु दोनों में समान है मनुष्य की विशेषता धर्म है । बिना
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के लिये अनेक उदाहरण दिये, अनेक तर्क भी दिये उनकी
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धर्म के मनुष्य भी पशु के समान ही है
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प्रस्तुति भी प्रभावी थी सभा में उनके विचार सुनकर एक
   −
अत: विकास का सही आधार धर्म ही है । धर्म के
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हलचल मच गई थी । धर्म के सम्बन्ध में आचार्य श्रीपति ने
   −
आधार पर जो जीवनशैली विकसित होती है उसे ही
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जो बताया था वह सबके लिये अपरिचित था । वे सब उच्च
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संस्कृति कहते हैं ।
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विद्याविभूषित अवश्य थे परन्तु भारत में या अन्य देशों में
   −
मुझे यदि अवसर मिला तो मैं मेरा विचार विस्तार से
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धर्म के सम्बन्ध में इस प्रकार से कभी चर्चा नहीं होती थी ।
   −
प्रस्तुत करूँगा ।
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इसके विपरीत धर्म को लेकर विवाद भी बहुत अधिक हो
   −
आचार्य मेधावी ने कहा ...
+
रहे थे । ऐसे विवादों में इनमें से भी कई लोगोंं ने भाग लिया
   −
विकसित समाज शान्ति और सौहार्द से जीता है
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था इसलिये आचार्य श्रीपति का कथन शान्त पानी में
   −
सम्पन्नता हो या न हो जिस समाज में शान्ति और सौहार्द
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पत्थर फेंकने जैसा सिद्ध हुआ |
   −
नहीं होते हैं वह विकसित समाज नहीं कहा जाता । सौहार्द
+
आचार्य शुभंकर ने कहा ...
   −
का आधार प्रेम होता है । अत: विकसित समाज वह है जो
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वादेवादे जायते तत्त्वबोध: यह उक्ति हम सब जानते
   −
प्रेम से रहना जानता है । प्रेम, भक्ति और उपासना से उत्पन्न
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ही हैं। आज धर्म के सम्बन्ध में जो कहा गया है उस
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होता है और बढ़ता है । जब व्यक्ति एकदूसरे के साथ प्रेम
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विषय पर भी हम वाद करें यह अपेक्षित है । अब शेष
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से व्यवहार करते हैं तब वे सम्पन्न हों या न हों इससे अन्तर
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समय वाद के लिये ही है । जो भी प्रश्न करना चाहता है या
   −
नहीं पड़ता । प्रेम से व्यवहार करने में नीतिमत्ता के लिये
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अपना मुद्दा प्रस्तुत करना चाहता है वह सादर निमंत्रित है।
   −
कानून नहीं बनाने पड़ते हैं नैतिकता स्वत: ही विकसित
+
आचार्य आशुतोष प्रश्न पूछने के लिये खड़े हुए वे
   −
होती है इसलिये प्रेम से रहने वाला समाज ही विकसित
+
इन्द्रप्रस्थ विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्राध्यापक थे विश्व
   −
समाज है ।
+
की अर्थशास्त्रीय परिभाषाओं का उन्होंने अध्ययन किया
   −
प्रश्न यह है कि व्यक्ति प्रेम से रहे कैसे ? प्रेम से रहने
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हुआ था । आर्थिक विकास के बड़े पक्षधर थे । उन्होंने
   −
के अवरोध क्या हैं ? प्रेम से रहने के बड़े अवरोध हैं स्वार्थ
+
पूछा ...
   −
और लोभ । हम शिक्षा को इस प्रकार मूल्यनिष्ठ बनायें कि
+
विश्व के समाजशास्त्री आर्थिक विकास को ही श्रेष्ठता
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मनुष्यों में स्वार्थ और लोभ कम हों । ऐसी शिक्षा से समाज
+
का मापदण्ड मानते हैं । धर्म के बारे में इतने आग्रहपूर्वक
   −
विकसित होगा
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कोई नहीं बोलता है ऐसे में आप धर्म का पक्ष ले रहे हैं
   −
इस प्रकार आचार्य वैभव नारायण के आर्थिक विकास
+
रे
   −
को ही विकास बताने वाले विचार पर अनेक लोगों ने
+
यह आश्चर्य की बात है। मुझे नहीं
   −
आपत्ति उठाई संस्कार पक्ष को आप्रहपूर्वक स्थापित
+
लगता कि आपकी बात किसीको स्वीकार्य होगी मैंने
   −
किया गया ।
+
विश्व के समाजशाख्ियों के अभिप्रायों का यथासम्भव
   −
इस सत्र का समय समाप्त होने को हुआ तब आचार्य
+
अध्ययन किया है | वे तो सब आर्थिक विकास के बहुत
   −
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+
बड़े पक्षधर हैं । परन्तु मैं उनकी बात नहीं करना चाहता ।
   −
शुभंकर ने संचालन के सूत्र सम्हालते
+
मैं तो आपके आचार्य चाणक्य की ही बात करूँगा । उन्होंने
   −
हुए कहा...
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भी कहा है, “धर्मस्य मूलम्‌ अर्थ: । अर्थस्य मूलम्‌ राज्यम्‌' ।
   −
हमने आज के दिन में विज्ञान के माध्यम से
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धर्म का मूल अर्थ है, अर्थ का मूल राज्य है । इसका
   −
विकास;जो मुख्य रूप से कामनाओं की पूर्ति की दिशा में ले
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तात्पर्य तो यही हुआ न कि राज्य नहीं है तो अर्थ नहीं
   −
जाता है, उसका निरूपण सुना दूसरे क्रम में आर्थिक
+
रहेगा और अर्थ नहीं हो तो धर्म नहीं रहेगा यह तो
   −
विकास का निरूपण सुना । दोनों एकदूसरे के साथ जुड़े हुए
+
सामान्य समझ की बात है कि अर्थ ही प्रधान है, धर्म नहीं ।
 
  −
हैं क्योंकि कामनाओं की पूर्ति मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है
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और अर्थ उसका साधन है । इसलिये दोनों प्रस्तुतियाँ एक
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ही सिक्के के दो पहलू जैसी थीं । प्रतिभावों में हमने धर्म,
  −
 
  −
संस्कृति, शान्ति, प्रेम, संस्कार जैसे विषयों का भी उल्लेख
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  −
सुना । निश्चय ही यह विज्ञान और भौतिक पदार्थों के प्रभूत
  −
 
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उत्पादन के पक्ष को नियंत्रित करने वाला है । कदाचित यह
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ade भी बनायेगा । इसलिये उस पर विस्तार से चर्चा
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होना आवश्यक है । हम कल इस पक्ष की चर्चा करेंगे ।
  −
 
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कल प्रात: ठीक साड़े आठ बजे सत्र प्रारम्भ होगा । आचार्य
  −
 
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श्रीपति कल धर्म, संस्कृति और संस्कार का पक्ष रखेंगे ।
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आप सब्से निवेदन है कि आप भी इस विषय में चिन्तन
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  −
करें ।
  −
 
  −
सबने समवेत स्वर में शान्तिपाठ किया और प्रथम
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दिन की सभा विसर्जित हुई ।
  −
 
  −
दूसरे दिन सूर्योदय के समय यज्ञ हुआ । ठीक साड़े
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आठ बजे सभा शुरू हुई । आचार्य ज्ञाननिधि ने अपना
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स्थान ग्रहण किया । कल की तरह ही संगठन मन्त्र का गान
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  −
हुआ । आचार्य ज्ञाननिधि ने विषय की प्रस्तावना की ।
  −
 
  −
उन्होंने कहा ...
  −
 
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कल हमने आर्थिक विकास के विषय में और विज्ञान
  −
 
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की महत्ता के बारे में सुना है । आज धर्म और संस्कृति को
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लेकर प्रतिपादन होने वाला है । हम शान्तिपाठ करते हैं ।
  −
 
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उसमें सबके सुख की, स्वास्थ्य की और कल्याण की
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  −
कामना करते हैं । विकास के साथ इसका सीधा सम्बन्ध
  −
 
  −
है । इस बात को ध्यान में रखकर हम अपने विचार प्रस्तुत
  −
 
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करें, यही आप सबसे निवेदन है ।
  −
 
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आचार्य श्रीपति अपनी प्रस्तुति के लिये खड़े हुए । वे
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काशी के थे । काशी में उनका गुरुकुल था । उनके गुरुकुल
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में विभिन्न शास्त्रों का अध्ययन होता था । उनके छात्र भी
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शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान
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मेधावी छात्रों के रूप में ख्याति प्राप्त _ कि उनकी उत्पत्ति के साथ ही उनकी गति और गतिविधि
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थे । वे देशविदेश में पहुँचे थे । त्रेता और द्वापर में जिस... का नियमन करने वाले सिद्धान्त भी उत्पन्न हुए । जिसने
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प्रकार के गुरुकुल की उनकी कल्पना थी उस पद्धति से... सृष्टि बनाई उसीने ये नियम भी बनाये और उत्पन्न हुए सभी
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गुरुकुल चलाने का उनका प्रयास रहता था । अतः छात्रों... पदार्थ इन नियमों का पालन करेंगे ऐसी स्चना भी की । ये
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की संख्या कम थी परन्तु उनकी गुणवत्ता और प्रभाव बहुत. विश्वनियम हैं । इन विश्वनियमों को ही धर्म कहते हैं । आज
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था । वेद, दर्शनशाख्र और उपनिषदों में उनकी श्रद्धा थी ।... हमने निहित स्वार्थों और अज्ञान, अल्पज्ञान और विपरीत
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उन शास्त्रों को ही वे प्रमाण मानते थे । परम्परा में उनकी... ज्ञान के चलते केवल सम्प्रदायों को धर्म कहकर उसे कलह
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इतनी आस्था थी कि वे उसमें जरा भी समझौता करने के... का मुद्दा बनाया है । वह बड़ा आअधर्म है । परन्तु यह मुद्दा
  −
 
  −
लिये तैयार नहीं होते थे । खानपान और वेशभूषा, दिनचर्या... हम बाद में देखेंगे । अभी हम विश्वनियम की बात कर रहे
  −
 
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और जीवनचर्या के शास्त्रीय fie a पालन. हैं । ये विश्वनियम सृष्टि को धारण करते हैं । इसलिये हमारे
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कठोरतापूर्वक और कर्तव्यबुद्धि से करते थे । धाराप्रवाह... स्मृति ग्रन्थ कहते हैं, “धारणाद्धर्ममित्याहु: धर्मों धारयते
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संस्कृत बोलते थे और वेद Al wast का सस्वर प्रभावी... प्रजा: ।' अर्थात प्रजाओं को धारण करता है इसीलिये उसे
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ढंग से गान करते थे । धर्म कहते हैं । इसका अर्थ यह है कि जिस प्रकार धर्म
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विश्वनियम बनकर सृष्टि की धारणा करता है उसी प्रकार वह
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  −
शाख्रनियम और लोकनियम बनकर समाज की धारणा करता
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नैमिषारण्य के ऋषियों का स्मरण कर उन्होंने अपनी . है। इस धर्म का पालन सबको सर्वत्र, सर्वदा करना ही
  −
 
  −
प्रस्तुति शुरू की । वे कहने लगे ... होता है । भिन्न भिन्न संदर्भों में धर्म कभी कर्तव्य बन जाता
  −
 
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धर्ममय जीवन जीने वाला व्यक्ति या समाज ही... है तो कभी स्वभाव, कभी नीतिमत्ता बन जाता है तो कभी
  −
 
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विकसित व्यक्ति या समाज कहा जाता है । मैंने कल भी. उपासना । हर संदर्भ में वह प्रजा को धारण करने का कार्य
  −
 
  −
कहा था कि मनुष्य पशु से विशेष केवल धर्म के कारण ही... ही करता है ।
  −
 
  −
है । धर्म का पालन करना मनुष्य के लिये आवश्यक है । आज हमने धर्म के नियमों का त्याग कर प्रजा की
  −
 
  −
जब उसे धर्म का पालन करने में कष्ट का अनुभव होता है. धारणा हेतु राज्यव्यवस्था के अन्तर्गत कानून बनाये हैं और
  −
 
  −
तब तो वह विकासशील कहा जायेगा, परन्तु जब वह धर्म. उसे संविधान का आधार दिया है । उद्देश्य तो संविधान और
  −
 
  −
का पालन करने में सहजता का अनुभव करने लगेगा तब . कानून का प्रजा की सुरक्षा, सुख और समृद्धि का ही है ।
  −
 
  −
विकसित कहा जायेगा । धर्म के समान ही वह भी अपराधी को दण्ड और निरपराधी
  −
 
  −
प्रार्भ में ही हमें धर्म संज्ञा को ठीक से समझ लेना... की रक्षा का ही है । परन्तु व्यवहार में वह अपना घोषित
  −
 
  −
चाहिये । शास्त्र कहते हैं कि प्रजापति ब्रह्मा का पुत्र धर्म. उद्देश्य सिद्ध नहीं कर सकता है क्योंकि वह विश्वनियम का
  −
 
  −
है । ब्रह्मा ने सृष्टि का सृजन किया । सृष्टि की उत्पत्ति के. अनुसरण नहीं करता है । वह यान्त्रिक है और चेतन सृष्टि
  −
 
  −
साथ ही धर्म की भी उत्पत्ति हुई । धर्म के उत्पन्न होने का... के साथ समरस नहीं हो सकता है ।
  −
 
  −
प्रयोजन क्या है ? प्रयोजन उसके परिणाम में ही है । हम इस धर्म का पालन किये बिना सुख, समृद्धि, शान्ति,
  −
 
  −
जानते हैं कि सृष्टि को ब्रह्माण्ड कहते हैं । इस ब्रह्माण्ड में... सौहार्द, ज्ञान कभी सम्भव ही नहीं है जो कि विकसित
  −
 
  −
असंख्य ग्रह, नक्षत्र हैं । वे सारे गतिशील हैं । वे निरन्तर. समाज के लक्षण हैं । इसलिये मैं कहता हूँ कि धर्म के
  −
 
  −
गति में रहते हैं । इतनी बड़ी संख्या में गतिशील पदार्थ भी. अनुसार जीवन जीना ही विकास है ।
  −
 
  −
एकदूसरे से टकराते नहीं हैं । न वे किसीका नाश करते हैं, धर्म के अनुसार जीना सीखना होता है । इसे सिखाने
  −
 
  −
न उनका नाश होता है । यह कैसे हुआ ? यह ऐसे हुआ. का मुख्य साधन शिक्षा है। हमारी शिक्षा इस प्रकार से
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  −
विकास का धार्मिक पक्ष
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२०
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we : १ तत्त्वचिन्तन
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  −
पुनर्व्यवस्थित होना आज की महती आवश्यकता है । मैं तो
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यहाँ तक कहूँगा कि आज जो शिक्षाव्यवस्था हमने की है
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वह धर्म सिखाने की बात तो दूर की है उल्टे अधर्म सिखाती
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है। अत: विकास के लिये हमें धर्मानुसारी शिक्षा की
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व्यवस्था करनी होगी ।
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आचार्य वैभव नारायण और आचार्य अगिवेश के
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विचारों का भी मैं आदर करता हूँ। विज्ञान सहायक हो
  −
 
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सकता है, सम्पन्नता आवश्यक है परन्तु बिना धर्म के दोनों
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विनाशक सिद्ध होते हैं। अतः धर्म ही मुख्य है, विज्ञान
  −
 
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और सम्पन्नता गौण ।
  −
 
  −
आचार्य श्रीपति ने अपने इस मुद्दे को प्रस्थापित करने
  −
 
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के लिये अनेक उदाहरण दिये, अनेक तर्क भी दिये । उनकी
  −
 
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प्रस्तुति भी प्रभावी थी । सभा में उनके विचार सुनकर एक
  −
 
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हलचल मच गई थी । धर्म के सम्बन्ध में आचार्य श्रीपति ने
  −
 
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जो बताया था वह सबके लिये अपरिचित था । वे सब उच्च
  −
 
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विद्याविभूषित अवश्य थे परन्तु भारत में या अन्य देशों में
  −
 
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धर्म के सम्बन्ध में इस प्रकार से कभी चर्चा नहीं होती थी ।
  −
 
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इसके विपरीत धर्म को लेकर विवाद भी बहुत अधिक हो
  −
 
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रहे थे । ऐसे विवादों में इनमें से भी कई लोगों ने भाग लिया
  −
 
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था । इसलिये आचार्य श्रीपति का कथन शान्त पानी में
  −
 
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पत्थर फेंकने जैसा सिद्ध हुआ |
  −
 
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आचार्य शुभंकर ने कहा ...
  −
 
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वादेवादे जायते तत्त्वबोध: यह उक्ति हम सब जानते
  −
 
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ही हैं। आज धर्म के सम्बन्ध में जो कहा गया है उस
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विषय पर भी हम वाद करें यह अपेक्षित है । अब शेष
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समय वाद के लिये ही है । जो भी प्रश्न करना चाहता है या
  −
 
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अपना मुद्दा प्रस्तुत करना चाहता है वह सादर निमंत्रित है।
  −
 
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आचार्य आशुतोष प्रश्न पूछने के लिये खड़े हुए । वे
  −
 
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इन्द्रप्रस्थ विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्राध्यापक थे । विश्व
  −
 
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की अर्थशास्त्रीय परिभाषाओं का उन्होंने अध्ययन किया
  −
 
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हुआ था । आर्थिक विकास के बड़े पक्षधर थे । उन्होंने
  −
 
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पूछा ...
  −
 
  −
विश्व के समाजशास्त्री आर्थिक विकास को ही श्रेष्ठता
  −
 
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का मापदण्ड मानते हैं । धर्म के बारे में इतने आग्रहपूर्वक
  −
 
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कोई नहीं बोलता है । ऐसे में आप धर्म का पक्ष ले रहे हैं
  −
 
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रे
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यह आश्चर्य की बात है। मुझे नहीं
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लगता कि आपकी बात किसीको स्वीकार्य होगी । मैंने
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विश्व के समाजशाख्ियों के अभिप्रायों का यथासम्भव
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अध्ययन किया है | वे तो सब आर्थिक विकास के बहुत
  −
 
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बड़े पक्षधर हैं । परन्तु मैं उनकी बात नहीं करना चाहता ।
  −
 
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मैं तो आपके आचार्य चाणक्य की ही बात करूँगा । उन्होंने
  −
 
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भी कहा है, “धर्मस्य मूलम्‌ अर्थ: । अर्थस्य मूलम्‌ राज्यम्‌' ।
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  −
धर्म का मूल अर्थ है, अर्थ का मूल राज्य है । इसका
  −
 
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तात्पर्य तो यही हुआ न कि राज्य नहीं है तो अर्थ नहीं
  −
 
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रहेगा और अर्थ नहीं हो तो धर्म नहीं रहेगा । यह तो
  −
 
  −
सामान्य समझ की बात है कि अर्थ ही प्रधान है, धर्म नहीं ।
      
आचार्य श्रीपति ने उत्तर में कहा ...
 
आचार्य श्रीपति ने उत्तर में कहा ...
    
मैंने अर्थ आवश्यक नहीं है ऐस)
 
मैंने अर्थ आवश्यक नहीं है ऐस)
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[[Category:धार्मिक शिक्षा ग्रंथमाला 2: शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान]]

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