Difference between revisions of "धार्मिक शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु सामाजिक स्तर पर करणीय प्रयास"

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पर स्टील के बडे पात्रों की या मिट्टी के घड़ों की व्यवस्था होनी चाहिये । शुद्ध पानी विषयक लोगों की गलत धारणाओं को बदलना चाहिये ।

५. सभा और सम्मेलनो में, परिचर्चा के कार्यक्रमों में लोग मंच पर जूते पहनकर ही जाते हैं । वास्तव में जिस प्रकार मन्दिर में या घर में जूते पहनकर नहीं जाया जाता उस प्रकार मंच पर भी जूते पहनकर नहीं जाना चाहिये । कार्य और कार्यक्रम की शोभा और पवित्रता बनाये रखनी चाहिये ।

६. धर्मसभा, विवाहसमारोह, संस्कृति, चिन्तन, भारतीय शिक्षा विषयक चिन्तन आदि कार्यक्रमों में निमन्त्रक नि्मन्त्रितों को निवेदन कर सकते हैं कि वे प्राकृतिक सामग्री से बना और भारतीय वेश पहनकर आयें । अवसर देखकर ऐसा आग्रह करना चाहिये, दुराग्रह न बने इसकी सावधानी रखनी चाहिये ।

७. विवाहसंस्कार भारतीय समाज का सर्वमान्य संस्कार है। वह पूर्ण रूप से भारतीय परिवेश में, भारतीय पद्धति से हो ऐसा प्रचलन बढ़े ऐसा आग्रह बनना चाहिये ।

८. विवाह सहित लगभग सभी सार्वजनिक समारोहों में भोजन की पद्धति में संस्कारों का हास दिखाई देता है। जूते पहनकर, खडे खडे, चलते फिरते बिना किसी के आग्रह - मनुहार के, बिना किसी के भरोसे भोजन करना भारतीय मानस को कैसे पसन्द आता है यह आश्चर्य की बात है ।

९. समारोहों में कभी कभी बैठकर भोजन पद्धति होती भी है तो परोसने वाले किराये पर लाये जाते हैं । यह इस बात का संकेत है कि निमन्त्रकों के पास या तो परोसने वाले व्यक्तियों की कमी है या तो जो हैं वे परोसना नहीं चाहते हैं ।

१०. समारोहों में जितनी भी “यूज एण्ड शथ्रो' वाली वस्तुयें होती होंगी उनको फैंकने के बाद स्वच्छता, पर्यावरण, खर्च आदि पर क्या असर पड़ता होगा इसका विचार करना चाहिये ।

११. रेल या बस की यात्रा में, होटलों में, समारोहों में अन्न का कितना अपव्यय होता है इसकी कल्पना करने से हमारी असंस्कारिता और हमारे दारिद्य के कारण मिलेंगे ।

१२. समाज में हॉस्पिटलों और होटलों की बढती हुई संख्या हमारे अस्वास्थ्य का कारण और परिणाम दर्शाती है। हम घरों में भोजन नहीं करते इसलिये होटल में जाते हैं, बीमार होते हैं और होस्पिटलों में पहुँचते हैं । क्या बढती हुई आमदनी इसीलिये है ?

१३. घरों में भोजन नहीं करना, बाजार के आहार के प्रति आकर्षण होना असंस्कार और व्यावहारिक बुद्धि के अभाव का घोतक है ।

१४. नवरात्रि जैसे उत्सवों में दिखाई देने वाली उच्छृंखलता और उत्सव समाप्ति के बाद बढ़ते हुए गर्भपात की मात्रा सांस्कृतिक अधःपतन का लक्षण है। ये उत्सव धार्मिक और सांस्कृतिक हैं । इनका वैसा ही पवित्र स्वरूप बनाये रखने का दायित्व सामाजिक संस्थाओं तथा शिक्षासंस्थाओं का है ।

१५. सार्वजनिक कार्यों की व्यवस्थाओं के लिये सरकार को जितनी कम व्यवस्था करनी पडे उतना अच्छा है । उदाहरण के लिये इन दिनों तीर्थस्थानों के लिये पदयात्रियों की संख्या में बहुत बढोतरी हुई है । उनके यात्रा मार्गों पर भोजन विश्रान्ति की सेवा हेतु अनेक लोग व्यक्तिगत रूप में या समूह बनाकर कार्य करते हैं । उसी प्रकार से प्रचलित यात्राओं, शोभायात्राओं की सेवा और सुरक्षा हेतु लोग स्वेच्छा से आगे आयें इस प्रकार का आयोजन और प्रबोधन सामाजिक संस्थाओं को करना चाहिये ।

१६. एक और निर्धन, असंस्कारी और दूसरी ओर अति धनवान और असंस्कारी युवक लडकियों को छेडते हैं । इन पर पुलीस की या न्यायालय की खास कुछ नहीं चलती । इन पर नियन्त्रण करना, उन्हें ऐसे कामों से परावृत्त करना भी सामाजिक संस्थाओं का काम है ।

१७. स्थान स्थान पर पशुओं, पक्षियों, प्राणियों के लिये खाने पीने और विश्रान्ति की व्यवस्था होनी चाहिये ।

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आज हमने मनुष्य के अलावा और किसी के भी लिये जीने की व्यवस्था दूभर बना दी है । पर्यावरणीय संवेदना जाग्रत करने का काम भी होना आवश्यक है ।

१८. आजकल फिजूलखर्ची और दिखावे हेतु खर्च की मात्रा बहुत बढ गई है । यह खर्च व्यक्तिगत स्तर पर भी होता है और सार्वजनिक स्तर पर भी होता है । इससे पैसे का एक हाथ से दूसरे हाथ में जाना तो होता है, बाजार भी चलता है परन्तु श्रम और संसाधनों का अपव्यय बहुत होता है । समारोहों के सुशोभनो को देखकर यह बात सरलता से समझी जाती है ।

१९. सार्वजनिक स्थानों पर स्थान स्थान पर विज्ञापन ही विज्ञापन दिखाई देते हैं। इससे वस्तुओं, रास्तों, बगीचों आदि का सौन्दर्य तो नष्ट होता ही है परन्तु हमारी दृश्येन्ट्रिय पर भी अत्याचार होता है। अर्थ हमारे पर इतना हावी हो गया है, बाजार इतना प्रभावी हो गया है कि अच्छी बातों को हम अच्छी नहीं रहने देते ।

२०. सामाजिक शिष्टाचार के रक्षक पुलीस या कानून नहीं होते, परिवार के वृद्धजन, धर्माचार्य और शिक्षक होते हैं । इन लोगों ने घरों में, विद्यालयों में और कथाओं तथा सत्संगों में युवाओं और युवतियों को सार्वजनिक शिष्टाचार सिखाने की आवश्यकता है । रेल, बस, यातायात, सभा, मेले, उत्सव आदि में ऐसे शिष्टाचार की मात्रा कम होती रही है यह चिन्ता का विषय है ।

२१. नगरों और महानगरों के सभी प्रमुख मार्गों पर, जहाँ यातायात भारी मात्रा में रहता है, साइकिल सवारों के लिये आरक्षित लेन होनी चाहिये जिससे उनकी सुरक्षा हो सके और निश्चित मन से साइकिल चला सर्के । दूसरी ओर साइकिल का उपयोग बढ़ाने का निवेदन सभी सार्वजनिक माध्यमों से होना चाहिये ।

२२. उत्तेजना, तनाव, उद्रेग आदि मानसिक विकारों का प्रभाव सार्वजनिक वातावरण पर पड़ता है । इससे यह वातावरण अशान्त बन जाता है । बात बात में झगड़े, मारामारी और अन्य स्वरूपों की हिंसा के लिये यह वातावरण ही कारणरूप है । सार्वजनिक वातावरण को शान्ति और सौहार्द॑ की तरंगों से भरने हेतु जप, सत्संग, नामस्मरण, सामूहिक योगाभ्यास आदि का प्रचलन बढ़ाना चाहिये । इसके प्रभाव से हिंसा भी कम होगी ।

२३. सार्वजनिक व्यायामशालाओं और खेलों के मैदानों की संख्या बहुत कम हो गई है । बाल, किशोर, युवान, न व्यायाम करते हैं, न खेलते हैं । वॉट्सएप, वीडियो गेम्स, फेसबुक, चैटिंग आदि के व्यसनी हो गये हैं । स्वास्थ्य और संस्कारों पर इसका विपरीत प्रभाव पड रहा है । गलियों में क्रिकेट खेलना केवल शुरू है । हमारी भावी पीढ़ी बर्बाद हो रही है । यह समाज की चिन्ता का विषय बनना चाहिये । समाजहितैषी व्यक्तियों, संस्थाओं, संगठनों ने इसकी चिन्ता करनी चाहिये ।

२४. आज विश्व में भारत की गणना युवा देश के रूप में हो रही है । युवा देश की सम्पदा है । परन्तु इस सम्पदा को अकर्मण्यता, अज्ञान और असंस्कारिता का ग्रहण लग गया है । इससे बचने हेतु उपाय करने की आवश्यकता है ।

२५. घटती हुई जननक्षमता, बडी आयु में विवाह, परिवार संस्था का विघटन, जन्म लेने वाले बच्चों को जन्म से ही दुर्बल बना रहे हैं । शारीरिक और मानसिक दुर्बलता के साथ जन्मे हुए बच्चों को कोई वैद्य बलवान तथा निरोगी, कोई शिक्षक बुद्धिमान और कोई सन्त सज्जन नहीं बना सकता । इस दृष्टि से वर्तमान किशोर और युवावस्था के लड़के और लड़कियों के विकास की चिन्ता करनी चाहिये ।

२६. देश की संसद जिस प्रकार से चलती है और उसे टी.वी. पर दिखाया जाता है वह किसी के भी लिये प्रेरणादायी नहीं हो सकता । वास्तव में सभा के शिष्टाचार तो प्राचीन काल से हमारे देश में सिखाये जाते रहे हैं। सभा के शिष्टाचार के भंग को

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जनसामान्य ने. मान्य. नहीं करना चाहिये । जनसामान्य को यह अधिकार है क्योंकि वे जनप्रतिनिधि हैं । लोगों ने चुनकर उन्हें संसद में भेजा है |

२७. लोकशिक्षा के व्यवस्थित तन्त्र के अभाव में आज विज्ञापन, चुनावी घोषणायें और नारेबाजी, टीवी के धारावाहिक और विज्ञापन लोकशिक्षा के माध्यम बन गये हैं। उनका उद्देश्य लोकशिक्षा का नहीं है, मनोरंजन के द्वारा पैसा कमाने का है। परिणाम स्वरूप समाज दिशाहीन और अनाथ बन गया है । भटकने के सभी कारक प्रभावी हैं । इस स्थिति में लोकशिक्षा के तन्त्र को प्रभावी बनाने की आवश्यकता है ।

२८. अंग्रेजी माध्यम, आर्न्तर्ष्ट्रीय शिक्षा बोर्ड, विदेशी वस्तु और अमेरिका में नौकरी का आकर्षण दिनप्रतिदिन बढता जा रहा है। इससे होने वाला विकास केवल मृगमरीचिका है । परन्तु इन मृर्गों को परावृत्त करने की शक्ति किसी में नहीं है ऐसी ही स्थिति है ।

२९. लोकशिक्षा धर्मशिक्षा का ही क्षेत्र है। परन्तु आज की शिक्षा व्यवस्था की तरह आज की धर्मव्यवस्था भी बाजार और राजनीति की शिक्षा बन गई है । तब प्रजा की रक्षा कौन करेगा ?

३०. इस स्थिति में पुनः शिक्षक को ही लोकशिक्षा का कार्य विद्यालयों के माध्यम से हाथ में लेना होगा । लोकशिक्षा का यह काम धर्माचार्यों को साथ लेकर हो सकता है ।

३१. शिक्षा क्षेत्र तो आज स्वायत्त नहीं है। इसलिये शिक्षक को अपना सबकुछ छोड़कर इस काम में लगना पड़ेगा । परन्तु धर्माचार्य तो आज भी स्वतन्त्र हैं, आज भी लोगों के आदर के पात्र हैं, आज भी धनी और सत्ताधारी लोग उनके पास आकर उनके चरणों में झुकते हैं । वे तो जो चाहें कर सकते हैं और करवा सकते हैं । इस स्थिति में उनका दायित्व सबसे अधिक है ।

३२. धर्माचार्यों ने प्रजा की धर्मवृत्ति जाग्रत करनी चाहिये । दुनिया कानून से नहीं, धर्म से चलती है यह बताना चाहिये । सामाजिक जीवन में धर्म का अर्थ कर्तव्य होता है यह बताना चाहिये । हरेक व्यक्ति का समाज में अपनी अपनी भूमिका के अनुसार कर्तव्यधर्म होता है । उसका पालन करने से ही स्वयं की और समाज की रक्षा होती है यह आग्रहपूर्वक बताना चाहिये ।

३३. धर्म संज्ञा को आज राजनीति के लोगों ने विवाद का विषय बनाया है और प्रजा समस्त को श्रमजाल में फैँसा दिया है । धर्म की और प्रजा की इस विवाद और सम्भ्रम से रक्षा करना धर्माचार्यों का कार्य है ।

३४. देश में असंख्य मन्दिर, मठ, यात्राधाम हैं । वे सब लोगों की श्रद्धा के केन्द्र हैं । लाखों यात्री इन स्थानों पर रोज रोज आते हैं । इन सभी धर्म केन्द्रों को आज ऐसी शिक्षा के केन्द्र बनने की आवश्यकता है ।

३५. भारत की प्रजा तो आज भी धर्मप्राण है । परन्तु इस प्रजा के दैनन्दिनि जीवनव्यवहार पर जिन्होंने कब्जा कर लिया है ऐसे मुट्वीभर लोग धर्म के विरोधी हैं । धर्माचार्य धर्मप्राण प्रजा के आस्था के केन्द्र बने हुए हैं । परन्तु धर्मविरोधी मुडीभर लोगों की मैत्री कर रहे हैं । इसी कारण से संस्कृति दाँव पर लग गई है । यह बड़ा गम्भीर विषय है जिसका दायित्व वहन करने वाला कोई नहीं है ।

३६. समाज में आज परस्पर विश्वास का अभाव दिखाई देता है कोई किसी की बात जल्दी से मान नहीं लेता है। कोई सदूभावना से कुछ कर सकता है ऐसा किसी को लगता नहीं है । यह ठीक नहीं है । दुनिया विश्वास पर चलती है केवल कानून से नहीं । अतः परस्पर विश्वास बढाने की आवश्यकता है । अनेक प्रकार के आयोजनों में हम आपका विश्वास करते हैं,” ऐसा भाव जगाने वाले छोटे छोटे उपाय सार्वजनिक कार्यक्रमों में किये जा सकते हैं । छोटी छोटी बातों में प्रमाण नहीं माँगना, लिखित सूचनाओं का आग्रह नहीं करना, लिखित में उत्तर नहीं माँगना, 'आपका क्या भरोसा' यह नहीं करना, बार बार

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अविश्वास प्रकट नहीं कहना आदि प्रयोग करने चाहिये ।

३७. इसी प्रकार विश्वसनीय होना भी अत्यन्त आवश्यक है । झूठे वायदे नहीं करना, बोली हुई बात को भूल नहीं जाना, किसी ने सहायता माँगी तो मना नहीं करना, बोली गई बात से मुकर नहीं जाना, विश्वासघात नहीं करना आदि अनेक छोटी छोटी बातें हैं जो विश्वास को बनाये रखती हैं । जिस समाज में परस्पर विश्वास की मात्रा अधिक होती है वहाँ तनाव कम होते हैं ।

३८. विघालयो, कार्यलयों, सभागृहों, सरकारी अस्पतालों , सडकों, बगीचों जैसे सार्वजनिक स्थानों की स्वच्छता और सुरक्षा का कोई दायित्व लोगों का नहीं है ऐसा ही आज चित्र है । Teeth ae हमारा अधिकार है और स्वच्छता करना और बनाये रखना सरकार का कर्तव्य है' ऐसा लोकमानस बन गया है । यह मानस तीर्थस्तानों पर भी दिखाई देता है । संस्थायें भी अपनी ही जिम्मेदारी समझकर स्वच्छता बनाये रखने की व्यवस्था तो करती है परन्तु कभी स्वच्छता बनाये रखवाने में या करवाने में यशस्वी होती हैं या नहीं भी होती हैं। इस विषय में संस्थाओं के स्तर पर प्रबोधन, प्रशिक्षण और प्रत्यक्ष कृति की अत्यन्त आवश्यकता है । काम करने के स्थान की स्वच्छता का अग्रह स्वभाव बन जाने तक प्रबोधन होना आवश्यक है ।

३९, जिसका पैसा हमें खर्च नहीं करना पडा है ऐसी सामग्री का अपव्यय करने में जरा भी विचार नहीं करना भी स्वाभाविक बन गया है । किसी भी सामग्री का अपव्यय नहीं करना नैतिकता है । हमारे सभी शास्त्र यह सिखाते हैं । परन्तु यह आदत छूटती नहीं है । अब तो हम पैसे खर्च करके लाये हैं ऐसी सामग्री का भी अपव्यय होता है । यह व्यक्तिगत स्वभाव से आगे अब संस्थागत स्वभाव बन गया है । एक पेन की आवश्यकता है परन्तु दो लाना, पाँच छायाप्रतियों की आवश्यकता है परन्तु आठ करवाना आदि असंख्य बातों में अपव्यय दिखाई देता है । प्रजा की समृद्धि का इससे हास होता है । संस्थाओं की कार्यपद्धति में बदल करने की आवश्यकता है और विद्यालयों में और घरों में इसे सिखाने की आवश्यकता है ।

४०. हम मानते हैं कि मोबाईल, यातायात के साधन आदि के कारण अब सम्पर्क सरल हो गया है परन्तु वास्तव में हम देखते हैं कि हमारी गैरजिम्मेदारी ही बढ़ी है । किसी कार्यक्रम की सूचना पहले केवल मौखिक अथवा केवल पोस्टकार्ड से देने पर भी मिल जाती थी और उसका पालन भी होता था । आज मोबाइल और इण्टरनेट होने पर भी बार बार सूचना देनी पढ़ती है और फिर भी उसका पालन नहीं होता । सुविधा ने हमारा कृतित्व शिथिल बना दिया है ।

४१. विवाह समारोहों में भोजन की व्यवस्था के सम्बन्ध में पुनर्विचार करने की बहुत आवश्यकता है । भोजन पदार्थों की संख्या और विविधता इतनी अधिक होती है कि एक व्यक्ति इन सबका एक एक कौर भी नहीं खा सकता । संस्कार , स्वास्थ्य और पैसा, तीनों के लिये यह हानिकारक है । परन्तु एक ने किया तो उसकी आलोचना होने के स्थान पर दूसरों ने करना शुरू किया । यह तो सामाजिक शिक्षा का बहुत बड़ा विषय है । लोकशिक्षा का दायित्व जिनका है उन्होंने यह सिखाना चाहिये...

४२. ट्रैफिक सिम्लल की परवाह नहीं करना, रेल या बस में या कहीं पर भी पंक्ति तोड़ना, रेल या बस में वृद्धों और महिलाओं की बैठक पर बैठ जाना, उल्टी दिशा में वाहन चलाना, रास्ते चलने वालों की चिन्ता किये बिना तेज गति से वाहन चलाना आदि बातों में सामाजिक सदूभाव का अभाव ही दिखाई देता है । दूसरों का विचार नहीं करना, यही असंस्कृति है । यही संस्कृति का हास है । यह धर्मशिक्षा का विषय है । सामाजिक संस्थाओं ने अपने कार्यकर्ताओं की शिक्षा से इसका प्रारम्भ करना चाहिये ।

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४३. बस या रेल में, या अन्यत्र कहीं पर भी वृद्ध, अशक्त, बच्चों या महिलाओं के लिये अपनी बैठक देना, किसी महिला या वृद्ध का सामान उठाना, किसी को सहायता करना आदि बातें भी कम हो गई हैं । ये सब कानून नहीं हैं, अच्छाई है । यह स्वेच्छा से ही होना चाहिये, दबाव से नहीं । परन्तु अब ये शिक्षा के विषय बन गये हैं । जब बन ही गये हैं तो शिक्षासंस्थाओं ने इन्हें अपने विषय बनाना भी चाहिये ।

४४. हमारे सामाजिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों में इवेण्ट मैनेजमेण्ट का प्रचलन धीरे धीरे बढ रहा है । अपने घर में बच्चे का जन्मदिन है तो पूरे के पूरे कार्यक्रम का ही ठेका देना, पुरस्कार वितरण समारोह है तो पूरा का पूरा किसी व्यवसायिक समूह को देना, विवाह में गीत गाने के लिये गायकवृन्द को बुलाना आदि बातें हो रही हैं । कार्यक्रम का संचालन करने के लिये पैसे देकर किसी को बुलाना भी सामान्य हो गया 2 | स्वयं के आनन्द की, भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिये गीत गाना कर्मकाण्ड बन गया, काम की कुशलता और काम करने में आनन्द हमने गँवा दिया, हमारा काम के साथ का आन्तरिक सम्बन्ध छूट गया । इससे हमारा मानसिक खालीपन ही बढता है, समाज की अकर्मण्यता बढती है, जीवन कृत्रिम और रसहीन बन जाता है । हृदयशूत्यता बढती है । हमें पुनः काम करने के आनन्द को कृति और अनुभव के दायरे में लाने की महती आवश्यकता है ।

४५. अर्थ का हमारे मनमस्तिष्क पर ऐसा प्रभाव हो गया है कि अब हमारे लिये सभी बातें बिकाऊ बन गई हैं । हर बात को हमने बाजार बना दिया है । यहाँ तक कि मन्दिरों में दर्शन और प्रसाद भी पैसे देकर सुलभ बन गये हैं। इस कारण से हर बात का आर्थिक मूल्य ही हमारे ध्यान में आता है, भावना का नहीं । इससे हमारी जीवन की गुणवत्ता कम हो जाती है । हम निकृष्ट बन जाते हैं ।

४६. यही बात तीर्थयात्रा में पुण्यसम्पादन की भी है । हम तीर्थयात्रा के लिये जितनी अधिक सुविधायें प्राप्त करते हैं, जितने कष्ट कम होते हैं उतना ही पुण्य कम होता है। हम तीर्थस्थानों को पर्यटनस्थल बना देते हैं, वे मनोरंजन प्राप्त करने के स्थान बन जाते हैं । इससे सार्वजनिक पवित्रता कम हो जाती है ।

४७. शारीरिक कष्टों का भी अपना एक महत्त्व है । काम करते करते थक जाना, गर्मी में पसीने से तर हो जाना, भूख प्यास सहना, रात्रि में जगकर भी काम पूर्ण करना अब हमारे भाग्य में नहीं रहा । इन कष्टों से शरीर और मन स्वच्छ और पवित्र होते हैं । इस दृष्टि से अनेक मन्दिरों में आज भी कारसेवा होती है । जूते उठाना, झाड़ू लगाना, बर्तन साफ करना, लंगर में खाना बनाना जैसी सेवायें अभी भी की जाती हैं । इसमें जो सेवाभाव है वह व्यक्ति के मन को तो शुद्ध करता ही है, साथ ही वातावरण को भी पत्ित्न बनाता है। यह मनोभाव घर तक, संस्था तक पहुँचना चाहिये । घर और संस्था का काम भी इसी भाव से होना चाहिये ।

४८. अर्थ के प्रभाव से भावना समाप्त हो जाती है । इससे समाज का वातावरण दूषित होता है । सार्वजनिक वातावरण में तनाव, उत्तेजना, लालसा आदि की मात्रा बहुत बढ गई है । इसी कारण से सुरक्षा का भी अभाव दिखाई देता है । इस तनाव के वातावरण को सुरक्षा और शान्ति में बदलने के लिये मन्दिरों का वातावरण बदलना चाहिये । केवल अपने लिये नहीं अपितु सबके लिये सुख और शान्ति सुलभ हो इस दृष्टि से जप करना, यज्ञ करना, सत्संग करना, प्रार्थना करना, कथा का आयोजन करना चाहिये । सामाजिक सांस्कृतिक संगठनों ने भी समाज मानस को शान्त करने और संस्कारित करने की दृष्टि से कार्ययोजना बनानी चाहिये । यह विषय गम्भीर इसलिये है कि जिनसे पवित्रता और शान्ति प्राप्त होती है ऐसे जप, तप, सत्संग को भी हम उत्तेजना और कामना बढाने के निमित्त बना देते हैं ।

४९. विज्ञापन आर्थिक और सांस्कृतिक दोनों प्रकार का

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प्रदूषण है । विज्ञापन के कारण ग्राहक को वस्तु महँगी मिलती है और नहीं चाहिये ऐसी वस्तु भी खरीद करने का मोह होता है । विज्ञापनों में स्त्रियों और बच्चों का साधन के रूप में उपयोग होता है । विज्ञापन देखनेवालों में भी खियाँ और बच्चे ही अधिक प्रभावित होते हैं । अपनी ही वस्तु की प्रशंसा नहीं करना संस्कारिता है । इस संस्कारिता का भी हास होता है । इस विज्ञापन बाजी को आर्थिक और सांस्कृतिक अनिष्ट के रूप में देखकर उस पर नियन्त्रण लाने हेतु सरकार, धर्मक्षेत्र और शिक्षाक्षेत्र तीनों ने मिलकर विचार करना चाहिये ।

५०. हमारे विद्यालयों और कार्यालयों के भवन चौबीस में से पन्‍्द्रह से सोलह घण्टे खाली रहते हैं । इतने बड़े बड़े भवन बिना उपयोग के रहना आर्थिक दृष्टि से कैसे न्यायपूर्ण हो सकता है ? हमारे निवास और कार्यालयों और विद्यालयों की दूरी हमारे समय का कितना अपव्यय करती है ? इस दूरी के लिये वाहन चाहिये, यातायात की व्यवस्था चाहिये । इससे भीड, कोलाहल, प्रदूषण, गर्मी, संसाधनों का हास, मनः्शान्ति का हास, भागदौड़ आदि में कितनी वृद्धि होती है । क्या हम समझदारीपूर्वक इस समस्या का हल नहीं निकाल सकते ? यह तो अनुत्पादक और विनाशक वृत्ति प्रवृत्ति है ।

५१. यातायात के साधन बढ़ने के कारण आवागमन करने वालों की संख्या में वृद्धि होती है और उनकी संख्या में वृद्धि होने के कारण साधन बढ़ते हैं । सडकें चौडी हो रही हैं, हवाई पुल बढ रहे हैं, मेट्रो रेल बन रही है, वाहनों की गती तेज हो रही है । इसके साथ ही शारीरिक और मानसिक कष्ट बढ रहे हैं, प्रदूषण और संसाधनों का अपव्यय बढ रहे हैं, उत्पादकता और सृजनशीलता कम हो रही है, कृषिभूमि कम हो रही है । इन संकटों के जनक तो हम ही हैं क्योंकि इन्हीं को हम विकास मानते हैं । कष्ट, खर्च, अन्न का अभाव बढाने वाली इन बातों से बचने हेतु हम क्या करेंगे ? उपाय बताने का काम किसका है ? यह काम लोकशिक्षा का भी है और शाख्रशिक्षा का भी है । यह अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, संस्कृति आदि पढ़ाने वालों का विषय है । इन्हें औपचारिक और अनौपचारिक शिक्षा का हिस्सा बनाना चाहिये ।

५२. ऐसा सामाजिक वातावरण बनाना चाहिये कि जो घर से पैदल विद्यालय जा सकता है, जो अपना व्यवसाय करता है और घर को ही कार्यालय बनाता है, जिसका निवास कार्यालय से कम से कम दूरी पर है, जो काम पर जाने के लिये वाहन का प्रयोग नहीं करता, जो अनुत्पादक कामों के लिये बड़ी बड़ी व्यवस्थायें नहीं बनाता वह प्रशंसा के योग्य है, पुरस्कार के योग्य है, अनुकरण के योग्य है। वह बुद्धिमान है, समझदार है ।

५३. वही कार्यालय अच्छा है जो कम से कम जगह में अधिक से अधिक व्यवस्थायें बनाता है, दिन में अधिकतम समय कार्यरत रहता है, कम से कम बिजली का व्यय करता है । वह कार्यालय अच्छा है जहाँ कर्मचारी कम से कम समय में अधिक से अधिक काम करते हैं अच्छे से अच्छा काम करते हैं और खुश रहते हैं । कार्यालयों में ऐसा मानस निर्माण करने हेतु संस्कारों की शिक्षा देना अधिक उपयोगी है, *कार्यसंस्कृति' (वर्क कल्चर) की नहीं ।

५४. भारतीय नव वर्ष और इसाई नव वर्ष अलग अलग होते हैं । शिक्षित लोगों में, फिल्‍मी दुनिया के लोगों में, कोर्पोरेट सेंक्टर में, क्रिकेट के खिलाडियों में और विशेष रूप से युवाओं में इसाई नववर्ष मनाने का प्रचलन बढ रहा है । घरों में तो भारतीय नव वर्ष मनाया जाता है । इसाई नव वर्ष मनाने हेतु घर से बाहर ही जाना होता है । उसमें नाचगान और मदिरा की ही महिमा होती है । भारतीय नव वर्ष हर प्रान्त में अलग अलग दिन पर पडता है, परन्तु हमें मालूम ही नहीं है कि भारतीय नव वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को शुरू होता है, भारतीय संवत्‌ शकसंवत्‌ है । इसे भारत की संसद ने एकमत से पारित कर स्वीकार

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भावना से. सामाजिकता की सुरक्षा होती है व्यावसायिकता से. नहीं । क्योंकि. अर्थसापेक्ष व्यावसायिकता सम्बन्ध जोड़ने में विश्वास नहीं करती । हमें परिवार भावना का स्थान प्रोफेशनलिझम - व्यावसायिकता को नहीं लेने देना है ।

६०. आज हम देखते हैं कि तीर्थयात्रा करनेवालों की, पैदल चलकर दर्शन करने के लिये जाने वालों की संख्या में बहुत वृद्धि हुई है । उनकी सेवा करनेवालों की संख्या भी बढ़ी है । मन्दिरों को दान भी बहुत मिलता है । धार्मिक संगठनों के अनुयायियों की संख्या लाखों में है । धार्मिक संस्थानों में सेवा के लिये जाने वाले युवाओं की संखा भी कम नहीं है । कथाश्रवण के लिये जाने वालों की संख्या में वृद्धि हुई है । परन्तु भक्तिभाव कम हुआ है, सहिष्णुता कम हुई है, दयाभाव कम हुआ है, पवित्रता और सदाचार कम हुए हैं। इसका कारण क्या है ? ऐसा उल्टा सम्बन्ध क्यों है ? कारण यह है कि हमने धार्मिक उपासना को कर्मकाण्ड बना दिया है और व्यवसाय से धर्म को अलग कर दिया है। इसलिये दोनों अनर्थक हो गये हैं । कर्मकाण्ड ऊपरी दिखावा बन गया और व्यवसाय अनैतिक । आवश्यकता है धर्म को कर्मकाण्ड से मुक्त कर व्यवसाय के साथ जोड़ने की । यह कार्य तो शुद्ध रूप से धर्माचार्यों का ही है क्योंकि अधर्म ने धर्म का छद्य वेश धारण कर लिया है ।

६१. भारतीय परम्परा के अनुसार जो काम सामाजिक स्तर पर होना उचित और आवश्यक माना जाता रहा है वे अब अधिकाधिक मात्रा में सरकार को करने पड रहे हैं । उदाहरण के लिये समाज में कोई भूखा न रहे, कोई अशिक्षित न रहे, कोई बेरोजगार न रहे यह देखने का दायित्व समाज का है, सरकार का नहीं । इस दृष्टि से एक ओर अन्न्सत्र, सदाब्रत या भण्डारा चलना और दूसरी ओर अधथर्जिन के अवसर देकर मुक्त में नहीं खाने की प्रेरणा देना ऐसे दोनों काम एक साथ किये जाते थे । वानप्रस्थों की जिम्मेदारी है कि समाज में कोई अशिक्षित और असंस्कारी न रहे । मन्दिरों की जिम्मेदारी है कि कोई अनाश्रित न रहे । यात्रियों के लिये धर्मशाला, प्याऊ, अन्नसत्र आदि के होते होटलों की भी आवश्यकता नहीं और सरकार पर भी बोझ नहीं । ऐसी समाज की जिम्मेदारी आज सरकार पर चली गई है । वास्तव में वानप्रस्थियों ने मिलकर इस बात का विचार करना चाहिये और शीघ्र ही उचित परिवर्तन करना चाहिये ।

६२. आज वृद्धों को सिनियर सिटिझन्स अर्थात्‌ वरिष्ठ नागरिक कहा जाता है। उन्हें वानप्रस्थी भी कह सकते हैं। वानप्रस्थी कहते ही उसका अर्थ बदलजाता है । वानप्रस्थी हमेशा अपने कल्याण और समाजसेवा का विचार करता है । आज वानप्रस्थियों ने छोटे छोटे समूह बनाने चाहिये । प्रारम्भ में तो स्वाध्याय करना चाहिये । चिन्तन करना चाहिये । दूसरा समाजप्रबोधन का कार्य करना चाहिये । हर परिवार को दिन में एक घण्टा अथवा सप्ताह में एक दिन अर्थात्‌ चार या पाँच घण्टे ऐसे काम में देने चाहिये जिससे कोई भी भौतिक लाभ मिलता न हो । उदाहरण के लिये शिक्षित व्यक्ति बच्चों को पढ़ाने का और संस्कार देने का काम कर सकते हैं । मातापिता अपने बच्चे को प्रतिदिन ऐसे काम में ae करे जिसमें विद्यालय की पढाई, किसी भी प्रकार की परीक्षा या अन्य कोई भौतिक लाभ न हो । वानप्रस्थी उन्हें स्वदेशी, देशभक्ति, अच्छाई आदि बातों का महत्त्व समझायें । इस प्रकार सामाजिकता के प्रति अनुकूल मानस बनाने के प्रयास करने चाहिये ।

६३. जो मुफ्त में मिलता है वह निकृष्ट होता है ऐसा कहने का प्रचलन तो बढ़ा है परन्तु मुफ्त में वस्तु प्राप्त करने का आकर्षण भी बढ़ा है । किसी वस्तु की “सेल' लगती है तब, जब एक के ऊपर एक मुफ्त वस्तु मिलती है तब, किसी वस्तु पर रियायत मिलती है तब बिना विचार किये लोग उस पर टूट पड़ते हैं । दूसरे के पैसे से यात्रा करना अच्छा लगता है, सरकारी गाड़ी में बिना अधिकार यात्रा करना अच्छा लगता है, रेल या बस में जाँच नहीं होगी ऐसा कहा

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आइआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों के विद्यार्थियों का विदेशगमन आदि शिक्षाक्षेत्र के सामाजिक अपराध हैं। जो प्राथमिक विद्यालय निःशुल्क शिक्षा देता है, जो सौ रूपये शुल्क लेता है और जो दसहजार लेता है उनके कक्षा एकके पाठ्यक्रम क्या अलग होते हैं ? क्या अलग पद्धति a ued जाते हैं ? क्या महँगी सामग्री का प्रयोग करने से अधिक अच्छा पढ़ा जाता है ? शिक्षा और पैसे का इतना बेहूदा सम्बन्ध जोड़ना समाज को कभी भी मान्य नहीं होना चाहिये | ज्ञानप्राप्ति के लिये गरीब और अमीर में कोई अन्तर ही नहीं होना चाहिये । दोनों को साथ बैठकर पढ़ना चाहिये । विद्यालयों ने दोनों को समान मानना चाहिये । दोनों को समान रूप से. संस्कारवान,. साफसुथरे, आचारवान, बुद्धिमान और सदूगुणी बनाना चाहिये । आज अच्छे घर के लोग अपने बच्चों को सरकारी विद्यालयों में इसलिये भेजना नहीं चाहते क्योंकि उनमें पिछड़ी बस्तियों के बच्चे आते हैं । यह मानसिक और व्यावहारिक अन्तर पाटने का काम समाजहितैषी लोगों को करना चाहिये ।

सामाजिक व्यवहार

७०, सामाजिक स्तर पर सम्बन्धों की आज लगभग कोई व्यवस्था नहीं है । हमने वर्ण, जाति, सम्प्रदाय आदि का तो त्याग कर दिया परन्तु उनके स्थान पर कोई व्यवस्था नहीं बनाई । पुरानी व्यवस्थाओं को छोडने Ho afer दृष्टि से तो कोई आपत्ति नहीं होती | पर्यायी व्यवस्था के अभाव में व्यावहारिक स्तर पर कठिनाई होती है । आज वैसी ही कठिनाई हो रही है। एक ही सन्तान को जन्म देने के आग्रह के कारण पारिवारिक सम्बन्धों का दायरा छोटा हो रहा है। दो पीढ़ियाँ साथ साथ नहीं रहने के कारण भी पारिवारिक सम्बन्धों की व्यवस्था गडबडा गई है । उस स्थिति में परिवार के बाहर सामाजिक सम्बन्धों की भी कोई व्यवस्था नहीं होना अनेक प्रकार की मानसिक और व्यावहारिक परेशानियों को जन्म देता है । हमने क्लबों, वृद्धाश्रमों , महिला मण्डलों जैसी व्यवस्थायें बनाना शुरु तो किया है परन्तु एक तो वे अभी बहुत ही प्राथमिक स्वरूप की हैं और दूसरे, वे विकसित होकर भी सम्बन्ध नहीं निर्माण कर सकतीं । फिर भी हम कह सकते हैं कि किसी प्रकार की सम्बन्धों की व्यवस्थायें तो हमें करनी ही चाहिये । नहीं तो सामाजिक संगठन तो होगा नहीं उल्टे विघटन को गति मिलेगी ।

७१. सामाजिक सम्बन्ध निर्माण करने हेतु हम व्यवसायों का आधार ले सकते हैं क्योंकि वही एक बात ऐसी है जो हम परिवार से बाहर जाकर करते हैं । एक व्यवसाय करने वालों के यदि समूह बनते हैं और उनमें सामाजिक सम्बन्ध विकसित होते हैं तो व्यावहारिक और मानसिक दोनों प्रकार से आत्मीयता और परस्पर सहयोग की भावना बढ़ेगी । सामाजिक सम्बन्ध व्यावसायिक सम्बन्धों से थोड़े अधिक अन्तरंग होते हैं । जैसे कि आपस में मैत्री होना, एकदूसरे के घर आनाजाना, विवाह आदि पारिवारिक समारोहों में सम्मिलित होना, पारिवारिक सुखदुःखों में सहभागी होना आदि से सामाजिक सम्बन्ध बनते हैं । यह एक मनोवैज्ञानिक सुरक्षा व्यवस्था है ।

७२. एक व्यवसाय करने वाले लोगों की आवासव्यवस्था भी एक साथ हो सकती है । आज भी महानगरों में पत्रकार कॉलोनी, प्रोफेसर्स कोलोनी आदि के रूप में साथ साथ निवास व्यवस्था होती है । बेंक, रेलवे, पुलीस आदि में संस्था की ओर से आवास - आवंटित किये जाते हैं । जब तक नौकरी में हैं तब तक यह व्यवस्था रहती है, नौकरी पूरी होने पर आवास छोड़ना पड़ता है । इसीको व्यवस्था का रूप देकर समान व्यवसाय के लोग साथ साथ रहें ऐसा विचार ही प्रचलित किया जाय और लोगों के मानस में बिठाया जाय तो सामाजिक सम्बन्ध विकसित होने में सुविधा रहेगी ।

७३. सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में नये बच्चों का प्रवेश

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होता है तब प्रवेशोत्सव मनाया जाता है । इसका आयोजन सरकारी स्तर पर होता है। परन्तु इसे सामाजिक स्तर पर मनाने की योजना बनानी चाहिये । उसे विद्यारम्भ संस्कार में रूपान्तरित कर सकते हैं । वह केवल सरकारी विद्यालयों में ही नहीं तो सभी विद्यालयों में मनाया जाना चाहिये । इससे विद्या की पवित्रता स्थापित होगी । यह संस्कार विद्यालय में न होकर मन्दिर में हो सकता है । अपने अपने सम्प्रदाय के देवस्थानों में भी हो सकता है । विद्यालय में होने में भी कोई आपत्ति नहीं । महत्त्व विद्यास्भ संस्कार का है, कहाँ होता है उस स्थान का नहीं । इसी प्रकार हर कक्षा का भी आरम्भ का संस्कार हो सकता है। आज जो दीक्षान्त समारोह होता है उसे भी समावर्तन संस्कार में रूपान्तरित किया जा सकता है ।

७४. इसी प्रकार से व्यवसाय प्रारम्भ करते समय हम नये से संस्कार की कल्पना कर सकते हैं । हमारे व्यवसाय के स्थान और साधन की पूजा, अच्छा काम करने का संकल्प और अच्छा परिणाम मिलने की प्रार्थना, साथी जनों द्वारा स्वागत और स्वजनों द्वारा मिष्टान्न भोजन ऐसा इस संस्कार का स्वरूप हो सकता है ।

७५. आज भी अनौपचारिक ढंग से समाजसेवा के अनेक काम होते हैं । उदाहरण के लिये महानगरों के अस्पतालों में भर्ती होने वाले मरीजों के सगे- सम्बन्धियों के लिये भोजन की व्यवस्था कुछ सेवाभावी संस्थायें और व्यक्ति करते हैं । ये अपने अन्तःकरण की प्रेरणा से ही यह करते हैं । परन्तु इसे सामाजिक व्यवस्था बनाना चाहिये । अस्ततालों को, विद्यालयों को, कार्यालयों को, अपने मरीजों, विद्यार्थियों, कर्मचारियों की सपरिवार चिन्ता करनी चाहिये । परिवारभावना सामाजिक सम्बन्धों का मूल आधार है ।

७६. गांव टुटकर , बिखरकर, नष्ट होकर नगरों और महानगरों की ओर भाग रहे हैं, घसीटे जा रहे हैं । महानगरों में झुग्गीझोंपडियों का विस्तार बढ रहा है । दोनों की स्थिति खराब हो रही है । शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, संस्कार, आर्थिक स्थिति आदि की दुर्गति हो रही है। नये नये मनोकायिक रोग उत्पन्न हो रहे हैं । गाँव और नगर दोनों संकट में हैं । इसका उपाय गाँवों को बचाना ही है । व्यवसायों का ग्रामीणीकरण करना ही इसका उपाय है । परन्तु यन्त्रों का साम्राज्य हमें ऐसा करने से रोकता है । यह बडा विकट काम है परन्तु उसे व्यवस्था में ढाले बिना सामाजिक व्यवस्था बिठाना असम्भव है ।

७७. सामाजिक स्तर पर हम दोहरा व्यवहार करते दिखाई देते हैं । राजनीति के क्षेत्र में यह स्पष्ट दिखता है । हम जाति का तिरस्कार करते हैं परन्तु जाति के आधार पर प्रत्याशी का चयन किया जाता है, मत मांगे जाते हैं और दिये जाते हैं । जाति को ध्यान में लेकर मन्त्री परिषद बनती है । यही बात सम्प्रदायों की है । जिन्हें हम संविधान की दुहाई देकर त्यागते हैं उसे व्यवहार का आधार बनाते हैं । इस दोहरे व्यवहार के बिना राजनीति चलती ही नहीं है। इसका हम क्या करें ? क्या जाति को और सम्प्रदायों को नष्ट करने की शिक्षा सामाजिक स्तर पर दे सकते हैं ? क्या ऐसी शिक्षा देने में हम यशस्वी होंगे ? क्या सम्प्रदायों को हम प्रतिबन्धित कर देंगे ? क्या उन्हें प्रतिबन्धित करना उचित होगा ? हम एक और घोर जातिवादी और साम्प्रदायिक और दूसरी ओर आग्रही जाति नाशक और धर्मनिरपेक्ष हो रहे हैं । हम सही अर्थ में धर्मनिरपेक्ष नहीं अपितु निधर्मी हो रहे हैं । क्या वास्तव में हम बिना धर्म के रह सकते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने का कोई प्रयास हम सामाजिक स्तर पर कर ही नहीं रहे हैं । शिक्षाक्षेत्र, धर्मक्षेत्र, अर्थक्षेत्र में भी कहीं पर इस प्रश्न का उत्तर खोजा नहीं जा रहा है, केवल अगल-बगल से मार्ग निकाल लिया जाता हैं । राजकीय क्षेत्र इसका भरपूर उपयोग कर लेता है । वह इन्हें नकारता भी है और उसका फायदा भी उठा लेता है। इस स्थिति में बिखराव तो होगा ही । इस जटिल समस्या का हल

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निकालने हेतु श्रेष्ठ कोटि के धर्माचार्य, श्रेष्ठ कोटि के विद्वान, श्रेष्ठ कोटि के समाजहितैषी, श्रेष्ठ कोटि के राजनयिकों को साथ बैठना चाहिये और दीर्घ तथा व्यापक स्तर पर विमर्श चलाना चाहिये ।

७८. राजकीय क्षेत्र समाजजीवन का एक आयाम है। वास्तव में राज्यतन्त्र समाजतन्त्र के अधीन होना चाहिये परन्तु आज राज्यतन्त्र समाजतन्त्र पर हावी हो गया है । दिखाई यह देता है कि समाज की आज कोई व्यवस्था नहीं, sata ch क्षेत्र की कोई व्यवस्था नहीं, शिक्षाक्षेत्र की कोई व्यवस्था नहीं है तो इन सब पर राज्य का हावी हो जाना तो स्वाभाविक ही है । राज्य के लिये हमने लोकतन्त्र प्रणाली को अपनाया है । भारत के जन्म से सन १९४७ तक भारत में राजाओं का राज्य था । सन १९४७ में ऐसा क्या कारण था कि हमने लोकतन्त्र को अपना लिया ? इस मूल प्रश्न को पूछने का और उसका उत्तर प्राप्त करने का विचार भी हमें कभी आता नहीं है यह क्या महान आश्चर्य की बात नहीं है ? लोकतन्त्र को हमने ऐसे अपना लिया है जैसे वह तो हमारे अस्तित्व का अंश है ।

७९. भारत में 'लोकतन्त्र' की संकल्पना है, वैसी व्यवस्था भी कभी रही है परन्तु जिस “डेमोक्रसी' शब्द को हमने लोकतन्त्र माना है वह लोकतन्त्र की भारतीय संकल्पना से सर्वथा भिन्न है । जरा विचार करें कि पाँच अनाडियों का मत एक विद्वान के सामने, दोचार गुन्डों का मत एक सन्त के मत से, दस स्वार्थी और कपटी लोगों का मत एक अत्यन्त बुद्धिमान और सेवभावी सज्जन के मत से चार गुना, पाँच गुना, दस गुना अधिक प्रभावी है वही मान्य है ।

८०. इतनी एक ही बात का विचार करें तो भी समझ में आ सकता है कि ऐसी व्यवस्थावाला समाज कभी चल ही नहीं सकता । वह व्यवस्था ही नहीं है, यह घोर अनवस्था है । संविधान, कानून, न्यायालय, इस अनवस्था की रक्षा के लिये है । कोई इसके विरुद्ध आवाज ही नहीं निकाल सकता ।

८१. एक फ्रेन्च विद्वानने कहा है कि बिना शिक्षा के लोकतन्त्र एक दम्भ मात्र है, छलावा है। परन्तु हम लोकतन्त्र के अनुरूप शिक्षा दे ही कहाँ रहे हैं । अतः समाज के सामने यह बहुत बडा पेचीदा प्रश्न है । इस समस्या का हल खोजने की कितनी बड़ी जिम्मेदारि बौद्धिकों, धार्मिकों , राजनयिकों, समाज हितैषियों पर है ।

८२. समाज से सम्बन्धित प्रश्न अनेक बार अनाकलनीय हो जाते हैं इसका कारण ही यह है कि हमारे समाज की कोई व्यवस्था नहीं है । किस मानक के आधार पर हम किसी भी प्रश्न का उत्तर दे यह निश्चित नहीं है । उदाहरण के लिये किसी ने एक युवक और एक युवती को दिखाकर पूछा कि इस युवती ने इस युवक के साथ विवाह करना चाहिये या नहीं, तो हमारे पास व्यवस्थागत एक ही उत्तर है कि यदि उनकी आयु विवाहयोग्य है और दोनों की सहमति है तो कर सकते हैं। विवाहयोग्य आयु होना. कानूनी अनिवार्यता है, उसे मान्य नहीं करने से दण्डः मिलेगा । अन्य कोई अनिवार्यता नहीं है ।

८३. किसे कौनसी शिक्षा प्राप्त करनी चाहिये इसकी व्यवस्था केवल परीक्षा में मिलने वाले अंक हैं, कौन चुनाव लड सकता है इसका उत्तर केवल आयु और भारत की नागरिकता है । इस प्रकार हर बात बडी यान्त्रिक, आवश्यकता निरपेक्ष, भावना निरपेक्ष, तर्क निरपेक्ष है । यह तो कोई व्वस्था ही नहीं हुई ।

८४. हमारी परिवार व्यवस्था भी युगों से जो संस्कृति का प्रवाह बह रहा है उसके संस्कार हमारे चित्त पर अभी भी हैं, मिटे नहीं है ऐसलिये चल रही है । यह तो हमारी ही आन्तरिक ताकत इतनी अधिक है कि सर्व प्रकार की विपरीतताओं का आक्रमण उसे तोड नहीं सका है । वह छिन्न विच्छिन्न हो तो रही है फिर भी बनी रही है । यही एक आशा है ।

८५. हमने देखा कि हमारा सामाजिक संगठन कितना व्यवस्थाहीन हो गया है । तो भी वह अभी चल रहा है। हमारे अन्तःकरण में जो अच्छाई है, जो

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