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एक सुलभ उपाय है परिवार को शिक्षा का केन्द्र बनाने का । वास्तव में परिवार एक महत्त्वपूर्ण शिक्षा केन्द्र है भी। इसे विकसित करने में व्यवधान कम होंगे और अनुकूलता अधिक । इस दृष्टि से एक व्यापक योजना बन सकती है।
 
एक सुलभ उपाय है परिवार को शिक्षा का केन्द्र बनाने का । वास्तव में परिवार एक महत्त्वपूर्ण शिक्षा केन्द्र है भी। इसे विकसित करने में व्यवधान कम होंगे और अनुकूलता अधिक । इस दृष्टि से एक व्यापक योजना बन सकती है।
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वैसे भी भारतीय परिवार विश्व के लिये आकर्षण का विषय है। भारत में आज इस व्यवस्था का क्षरण हो रहा है । इसे पुनः सुदृढ बनाने के लिये सर्व प्रकार की शक्ति लगाने की आवश्यकता है । अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र को परिवारकेन्द्रित बनाकर विस्तार किया जा सकता है। संस्कृति से सम्बन्धित सभी बातों का गृहशास्त्र के रूप में अध्ययन हो सकता है। नई पीढी को समर्थ बनाने हेतु अधिजननशास्त्र, बच्चों के संगोपन का शास्त्र, आहारशास्त्र, आरोग्यशास्त्र, उद्योग आदि अनेक विषयों की पुनर्रचना की जा सकती है।
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वैसे भी भारतीय परिवार विश्व के लिये आकर्षण का विषय है। भारत में आज इस व्यवस्था का क्षरण हो रहा है । इसे पुनः सुदृढ बनाने के लिये सर्व प्रकार की शक्ति लगाने की आवश्यकता है । अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र को परिवारकेन्द्रित बनाकर विस्तार किया जा सकता है। संस्कृति से सम्बन्धित सभी बातों का गृहशास्त्र के रूप में अध्ययन हो सकता है। नई पीढी को समर्थ बनाने हेतु अधिजननशास्त्र, बच्चोंं के संगोपन का शास्त्र, आहारशास्त्र, आरोग्यशास्त्र, उद्योग आदि अनेक विषयों की पुनर्रचना की जा सकती है।
    
परिवार के शिक्षा केन्द्र के रूप में विवाह के साथ साथ लोकशिक्षा की व्यापक योजना बनाई जा सकती है। भारतीयता की आवश्यकता, भारतीयता का स्वरूप, भारतीय शिक्षा का स्वरूप, भारतीय शिक्षा की आवश्यकता आदि विषयों पर व्यापक जनमानस प्रबोधन की योजना की जा सकती है।
 
परिवार के शिक्षा केन्द्र के रूप में विवाह के साथ साथ लोकशिक्षा की व्यापक योजना बनाई जा सकती है। भारतीयता की आवश्यकता, भारतीयता का स्वरूप, भारतीय शिक्षा का स्वरूप, भारतीय शिक्षा की आवश्यकता आदि विषयों पर व्यापक जनमानस प्रबोधन की योजना की जा सकती है।
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इस प्रकार सीधे सीधे शिक्षा में परिवर्तन करने के स्थान पर व्यापक सन्दर्भो को अनुकूल बनाना चाहिये ।
 
इस प्रकार सीधे सीधे शिक्षा में परिवर्तन करने के स्थान पर व्यापक सन्दर्भो को अनुकूल बनाना चाहिये ।
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आज देशभर में ऐसे असंख्य प्रयोग चल रहे हैं। ये प्रयोग ऐसे हैं जिनमें सरकारी मान्यता, परीक्षा, प्रमाणपत्र, नौकरी आदि कुछ भी नहीं हैं। लोग अपनी सन्तानों को स्वयं पढाते हैं। वे इस आसुरी शिक्षा व्यवस्था में अपनी सन्तानों को भेजना नहीं चाहते । अनेक लोग झुग्गीझोंपडियों के बच्चों को पढ़ाने की सेवा करते हैं। अनेक धार्मिक सम्प्रदाय संस्कार केन्द्रों के रूप में धर्मशिक्षा दे रहे हैं। अनेक संगठन वनवासी और ग्रामीण बच्चों के लिये एकल शिक्षक विद्यालय चलाते हैं। ये सब निःशुल्क शिक्षा के प्रयोग हैं। ये समाज की और शिक्षा की सेवा के रूप में चलते हैं।
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आज देशभर में ऐसे असंख्य प्रयोग चल रहे हैं। ये प्रयोग ऐसे हैं जिनमें सरकारी मान्यता, परीक्षा, प्रमाणपत्र, नौकरी आदि कुछ भी नहीं हैं। लोग अपनी सन्तानों को स्वयं पढाते हैं। वे इस आसुरी शिक्षा व्यवस्था में अपनी सन्तानों को भेजना नहीं चाहते । अनेक लोग झुग्गीझोंपडियों के बच्चोंं को पढ़ाने की सेवा करते हैं। अनेक धार्मिक सम्प्रदाय संस्कार केन्द्रों के रूप में धर्मशिक्षा दे रहे हैं। अनेक संगठन वनवासी और ग्रामीण बच्चोंं के लिये एकल शिक्षक विद्यालय चलाते हैं। ये सब निःशुल्क शिक्षा के प्रयोग हैं। ये समाज की और शिक्षा की सेवा के रूप में चलते हैं।
    
अनेक धार्मिक संगठन उपनिषदों का अध्ययन करवाते हैं। यह उपदेश नहीं शिक्षा होती है । वेद पाठशालाओं में वेद अभी भी जीवित हैं । स्थान स्थान पर गुरुकुलों के प्रयोग आरम्भ हो रहे हैं।
 
अनेक धार्मिक संगठन उपनिषदों का अध्ययन करवाते हैं। यह उपदेश नहीं शिक्षा होती है । वेद पाठशालाओं में वेद अभी भी जीवित हैं । स्थान स्थान पर गुरुकुलों के प्रयोग आरम्भ हो रहे हैं।
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अपनी सन्तानों की शिक्षा का दायित्व मातापिता का भी है, अतः उन्हें भी इसमें सहभागी बनाया जाय । जिस प्रकार शिशुसंगोपन और भोजन घर की माता के अधीन होता है उसी प्रकार दस वर्ष तक की आयु की शिक्षा मातापिता के अधीन होनी चाहिये । गृहस्थाश्रम चलाने की शिक्षा घर में ही प्राप्त हो सकती है इसलिये घर की शिक्षा को सम्पूर्ण शिक्षा का महत्त्वपूर्ण अंग मानकर घर को एक विद्यालय के रूप में स्थापित करने का अभियान चलाना चाहिये । इस प्रकार गृहस्थाश्रम की शिक्षा घर में मातापिता के अधीन और अर्थार्जन की शिक्षा अर्थोत्पादन के क्षेत्र के अधीन कर दी जाय तो केवल ज्ञानार्जन की शिक्षा ही बचेगी जिसे विश्वविद्यालयों के अधीन की जा सकती है। विश्वविद्यालय अपने क्षेत्र में जितनी जनसंख्या है उतनी जनसंख्या की सम्पूर्ण शिक्षा की जिम्मेदारी ले और सरकार इन्हें बी कोई सहायता न करें। समाज पर आधारित होकर ही विश्वविद्यालय ज्ञानक्षेत्र के विकास का काम करें । तब ज्ञान, संस्कार और अर्थार्जन तीनों मुक्त श्वास लेंगे ।
 
अपनी सन्तानों की शिक्षा का दायित्व मातापिता का भी है, अतः उन्हें भी इसमें सहभागी बनाया जाय । जिस प्रकार शिशुसंगोपन और भोजन घर की माता के अधीन होता है उसी प्रकार दस वर्ष तक की आयु की शिक्षा मातापिता के अधीन होनी चाहिये । गृहस्थाश्रम चलाने की शिक्षा घर में ही प्राप्त हो सकती है इसलिये घर की शिक्षा को सम्पूर्ण शिक्षा का महत्त्वपूर्ण अंग मानकर घर को एक विद्यालय के रूप में स्थापित करने का अभियान चलाना चाहिये । इस प्रकार गृहस्थाश्रम की शिक्षा घर में मातापिता के अधीन और अर्थार्जन की शिक्षा अर्थोत्पादन के क्षेत्र के अधीन कर दी जाय तो केवल ज्ञानार्जन की शिक्षा ही बचेगी जिसे विश्वविद्यालयों के अधीन की जा सकती है। विश्वविद्यालय अपने क्षेत्र में जितनी जनसंख्या है उतनी जनसंख्या की सम्पूर्ण शिक्षा की जिम्मेदारी ले और सरकार इन्हें बी कोई सहायता न करें। समाज पर आधारित होकर ही विश्वविद्यालय ज्ञानक्षेत्र के विकास का काम करें । तब ज्ञान, संस्कार और अर्थार्जन तीनों मुक्त श्वास लेंगे ।
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यह काम सरल तो नहीं ही है परन्तु असम्भव भी तो नहीं है । एक एक गाँव में ऐसे शिक्षकों से निवेदन किया जाय तो गाँव के बच्चों की शिक्षा की चिन्ता करे और मातापिता को भी अपने बच्चों की शिक्षा की चिन्ता करने में सहयोग करे।
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यह काम सरल तो नहीं ही है परन्तु असम्भव भी तो नहीं है । एक एक गाँव में ऐसे शिक्षकों से निवेदन किया जाय तो गाँव के बच्चोंं की शिक्षा की चिन्ता करे और मातापिता को भी अपने बच्चोंं की शिक्षा की चिन्ता करने में सहयोग करे।
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कदाचित प्रथम ऐसा करना पड़ेगा कि मातापिताओं के लिये विद्यालयों का प्रारम्भ करना पड़े क्योंकि बच्चों का संगोपन उनके लिये भी कठिन विषय बन गया है। साथ ही शिक्षकों के लिये विद्यालय आरम्भ किये जाय । शिक्षक और मातापिता को विद्यालय और घर चलाने के बारे में सक्षम बनाया जाय । धर्मकेन्द्र ऐसे विद्यालयों की जिम्मेदारी उठायें ।
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कदाचित प्रथम ऐसा करना पड़ेगा कि मातापिताओं के लिये विद्यालयों का प्रारम्भ करना पड़े क्योंकि बच्चोंं का संगोपन उनके लिये भी कठिन विषय बन गया है। साथ ही शिक्षकों के लिये विद्यालय आरम्भ किये जाय । शिक्षक और मातापिता को विद्यालय और घर चलाने के बारे में सक्षम बनाया जाय । धर्मकेन्द्र ऐसे विद्यालयों की जिम्मेदारी उठायें ।
    
यह भारत के अनुरूप व्यवस्था होगी। अभी विचार करने में तो यह विचित्र और असम्भव सा लगता है परन्तु भारत के अन्तरंग में अभी भी भारत ही जिन्दा है इसलिये बहुत जल्दी इसका स्वीकार हो जायेगा । प्रजा के अन्तःकरण को सुख का अनुभव होगा और आशा पल्लवित होगी।
 
यह भारत के अनुरूप व्यवस्था होगी। अभी विचार करने में तो यह विचित्र और असम्भव सा लगता है परन्तु भारत के अन्तरंग में अभी भी भारत ही जिन्दा है इसलिये बहुत जल्दी इसका स्वीकार हो जायेगा । प्रजा के अन्तःकरण को सुख का अनुभव होगा और आशा पल्लवित होगी।
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इसका अर्थ यह भी नहीं है कि ज्ञानार्जन मुफ्त में होता है। 'मुफ्त' को भी केवल पैसे से ही नहीं जोड़ा जाता । इसका अर्थ यह है कि ज्ञानार्जन की पात्रता पैसा नहीं है, पैसे के अलावा बहुत कुछ है। ज्ञानार्जन करने वाले में श्रद्धा, विनय, सेवा और विनय परायणता, संयम, सदाचार होना अनिवार्य है। ये बाहरी शर्ते नहीं हैं, मनोवैज्ञानिक आवश्यकतायें हैं। पैसे जैसे भौतिक पदार्थों में रियायत दी जाती हैं, इन गुणों में नहीं । अर्थात् ज्ञानार्जन की पात्रता के मापदण्ड अधिक कठोर हैं। इसमें आरक्षण नहीं है, न ब्राह्मणों का न शूद्रों का। जिस किसी के पास जिज्ञासा, श्रद्धा आदि गुण हैं वह पढ सकता है। पढाने वाले को पढ़ाने के अनुपात में पैसा नहीं मिलता है, आवश्यकता के अनुपात में मिलता है, वह भी पढने वाले से नहीं, पढाई के दौरान भी नहीं, पढता है इसलिये नहीं । पढाने वाला दरिद्र रहता है ऐसा भी नहीं है क्योंकि उसकी आवश्यकता के साथ साथ समाज की क्षमता और सम्मान की भावना के अनुपात में शिक्षक को मिलता है। जिस प्रकार समृद्ध समाज के मन्दिर भी समृद्ध :होते हैं उस प्रकार समृद्ध समाज के शिक्षक भी समृद्ध होते है।  
 
इसका अर्थ यह भी नहीं है कि ज्ञानार्जन मुफ्त में होता है। 'मुफ्त' को भी केवल पैसे से ही नहीं जोड़ा जाता । इसका अर्थ यह है कि ज्ञानार्जन की पात्रता पैसा नहीं है, पैसे के अलावा बहुत कुछ है। ज्ञानार्जन करने वाले में श्रद्धा, विनय, सेवा और विनय परायणता, संयम, सदाचार होना अनिवार्य है। ये बाहरी शर्ते नहीं हैं, मनोवैज्ञानिक आवश्यकतायें हैं। पैसे जैसे भौतिक पदार्थों में रियायत दी जाती हैं, इन गुणों में नहीं । अर्थात् ज्ञानार्जन की पात्रता के मापदण्ड अधिक कठोर हैं। इसमें आरक्षण नहीं है, न ब्राह्मणों का न शूद्रों का। जिस किसी के पास जिज्ञासा, श्रद्धा आदि गुण हैं वह पढ सकता है। पढाने वाले को पढ़ाने के अनुपात में पैसा नहीं मिलता है, आवश्यकता के अनुपात में मिलता है, वह भी पढने वाले से नहीं, पढाई के दौरान भी नहीं, पढता है इसलिये नहीं । पढाने वाला दरिद्र रहता है ऐसा भी नहीं है क्योंकि उसकी आवश्यकता के साथ साथ समाज की क्षमता और सम्मान की भावना के अनुपात में शिक्षक को मिलता है। जिस प्रकार समृद्ध समाज के मन्दिर भी समृद्ध :होते हैं उस प्रकार समृद्ध समाज के शिक्षक भी समृद्ध होते है।  
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इसका भावात्मक और संस्कारात्मक पक्ष जरा अधिक गहराई से समझना चाहिये। जिस प्रकार पत्नी को पत्नीधर्म निभाने का वेतन नहीं दिया जाता, घरे के लोगोंं को घर के काम करने के बदले में खाना नहीं दिया जाता या पैसा नहीं चुकाया जाता, जिस प्रकार घर के लोगोंं की परिचर्या करने के पैसे नहीं माँगे जाते उसी प्रकार पटाने के भी पैसे नहीं माँगे जाते । घर के काम करने वाले घर के लोग नौकर नहीं होते उसी प्रकार समाज के बाल, किशोर, युवाओं को पढाने वाला समाज का नौकर नहीं होता, उल्टे गुरु होता है। जिस प्रकार गरीब पति से या गरीब पिता से 'मुझे इतना तो चाहिये ही, तुम कुछ भी करों' ऐसा नहीं कहा जाता उसी प्रकार गरीब समाज से भी शिक्षक अधिक अपेक्षा नहीं कर सकता । जिस प्रकार धनवान पति या पिता प्रेम से और आनन्द से पत्नी और बच्चों के लिये नई नई वस्तुयें लाता है उसी प्रकार समृद्ध समाज भी शिक्षक के लिये आदर और सम्मान से आवश्यकता से कहीं अधिक देता है। समाज के भरोसे शिक्षक निश्चिन्त रह सकता है।
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इसका भावात्मक और संस्कारात्मक पक्ष जरा अधिक गहराई से समझना चाहिये। जिस प्रकार पत्नी को पत्नीधर्म निभाने का वेतन नहीं दिया जाता, घरे के लोगोंं को घर के काम करने के बदले में खाना नहीं दिया जाता या पैसा नहीं चुकाया जाता, जिस प्रकार घर के लोगोंं की परिचर्या करने के पैसे नहीं माँगे जाते उसी प्रकार पटाने के भी पैसे नहीं माँगे जाते । घर के काम करने वाले घर के लोग नौकर नहीं होते उसी प्रकार समाज के बाल, किशोर, युवाओं को पढाने वाला समाज का नौकर नहीं होता, उल्टे गुरु होता है। जिस प्रकार गरीब पति से या गरीब पिता से 'मुझे इतना तो चाहिये ही, तुम कुछ भी करों' ऐसा नहीं कहा जाता उसी प्रकार गरीब समाज से भी शिक्षक अधिक अपेक्षा नहीं कर सकता । जिस प्रकार धनवान पति या पिता प्रेम से और आनन्द से पत्नी और बच्चोंं के लिये नई नई वस्तुयें लाता है उसी प्रकार समृद्ध समाज भी शिक्षक के लिये आदर और सम्मान से आवश्यकता से कहीं अधिक देता है। समाज के भरोसे शिक्षक निश्चिन्त रह सकता है।
    
ऐसा समाज बनाने का दायित्व भी शिक्षक का ही है इसका भी ध्यान रखना चाहिये।
 
ऐसा समाज बनाने का दायित्व भी शिक्षक का ही है इसका भी ध्यान रखना चाहिये।
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ऐसे सांस्कृतिक धरातल पर शिक्षा को ले जाना शिक्षा को पश्चिम के प्रभाव से मुक्त करना है। आज स्थिति अत्यन्त विपरीत है। पूर्व प्राथमिक और प्राथमिक शिक्षा के दो छोर दिखाई देते हैं। एक ओर तो सरकारी प्राथमिक विद्यालय निःशुल्क चलते हैं, दूसरी ओर लाख रूपया शुल्क देकर भी लोग अपने बच्चों को पढने के लिये भेजते हैं। जिनमें लाखों के वेतन मिलने की सम्भावना है वहाँ लाखों का शुल्क देना पड़ता है। जहाँ नौकरी मिलने की सम्भावना नहीं वहाँ कोई पढने के लिये नहीं जाता । कौन सा व्यवसाय या नौकरी करने हेतु क्या पढाई करना है इसका भी कोई खास विचार नहीं। प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में गणित, विज्ञान, अंग्रेजी और संगणक के अलावा अन्य सभी विषय निष्प्रयोजन माने जाते हूँ। पैसा नहीं मिलता है तो साहित्य, संगीत, कला, खेल आदि का भी कोई महत्त्व नहीं । ऐसे में शिक्षा को अर्थनिरपेक्ष बनाना कठिन काम है। परन्तु ऐसा किये बिना संस्कार, संस्कृति, धर्म आदि की रक्षा ही नहीं हो सकती।
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ऐसे सांस्कृतिक धरातल पर शिक्षा को ले जाना शिक्षा को पश्चिम के प्रभाव से मुक्त करना है। आज स्थिति अत्यन्त विपरीत है। पूर्व प्राथमिक और प्राथमिक शिक्षा के दो छोर दिखाई देते हैं। एक ओर तो सरकारी प्राथमिक विद्यालय निःशुल्क चलते हैं, दूसरी ओर लाख रूपया शुल्क देकर भी लोग अपने बच्चोंं को पढने के लिये भेजते हैं। जिनमें लाखों के वेतन मिलने की सम्भावना है वहाँ लाखों का शुल्क देना पड़ता है। जहाँ नौकरी मिलने की सम्भावना नहीं वहाँ कोई पढने के लिये नहीं जाता । कौन सा व्यवसाय या नौकरी करने हेतु क्या पढाई करना है इसका भी कोई खास विचार नहीं। प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में गणित, विज्ञान, अंग्रेजी और संगणक के अलावा अन्य सभी विषय निष्प्रयोजन माने जाते हूँ। पैसा नहीं मिलता है तो साहित्य, संगीत, कला, खेल आदि का भी कोई महत्त्व नहीं । ऐसे में शिक्षा को अर्थनिरपेक्ष बनाना कठिन काम है। परन्तु ऐसा किये बिना संस्कार, संस्कृति, धर्म आदि की रक्षा ही नहीं हो सकती।
    
यह धारणा बलवती बन गई है कि आज के बाजारीकरण के जमाने में अर्थनिरपेक्ष शिक्षा कैसे सम्भव हो सकती है। परन्तु इसे ही तो सम्भव बनाने की अनिवार्यता है।  
 
यह धारणा बलवती बन गई है कि आज के बाजारीकरण के जमाने में अर्थनिरपेक्ष शिक्षा कैसे सम्भव हो सकती है। परन्तु इसे ही तो सम्भव बनाने की अनिवार्यता है।  

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