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यह भी सीमाओं को लाँघना ही है। हमें विद्यालय का भौतिक अर्थ छोडना होगा। अर्थात् विद्यालय का भवन, नियत पाठ्यक्रम, नियत समय, नियत अवधि, सीमित उद्देश्य आदि को छोडकर आवश्यकता के अनुसार व्यक्ति, स्थान, पद्धति, प्रक्रिया आदि का विचार करना होगा । बन्धनों और स्वनिर्मित सीमाओं से मुक्त होकर यदि विचार करेंगे तो ध्यान में आयेगा कि जीवन के प्रारम्भ के साथ ही शिक्षा का प्रारम्भ होता है । जीवन का प्रारम्भ घर में होता है तो शिक्षा का प्रारम्भ भी घर से ही होगा। जिन जिन के साथ सम्पर्क होता है उन सबसे कुछ न कुछ सीखा जाता है। जीवन के प्रारम्भ में मातापिता से, घर के अन्य सदस्यों से, घर में आनेवाले अतिथि अभ्यागों से सम्पर्क होता है, घर से बाहर पडौसियों से, मित्रों से, सगेसम्बन्धियों से सम्पर्क होता ही है । साधु सन्तों, महात्माओं, विद्वानों से सम्पर्क होता है। यही क्यों, दुर्जनों से, चतुर व्यक्तियों से, शठों से भी पाला पडता ही है। व्यापारी, कर्मचारी, अधिकारी आदि से सम्पर्क होता है। इतना ही नहीं जन्म से सम्बन्धित पूर्वजों के रूप में कुल इकहत्तर कुलों से सम्पर्क स्थापित होने के बाद ही हमारा जन्म होता है। इन सबसे हम जाने अनजाने, चाहे अनचाहे सीखते ही रहते हैं । हम किसी को रोक नहीं सकते । न अपने आपको बचा सकते हैं। शिक्षा की प्रक्रिया का इन सभी बातों से सम्बन्ध है । इस बात की हम उपेक्षा नहीं कर सकते।
 
यह भी सीमाओं को लाँघना ही है। हमें विद्यालय का भौतिक अर्थ छोडना होगा। अर्थात् विद्यालय का भवन, नियत पाठ्यक्रम, नियत समय, नियत अवधि, सीमित उद्देश्य आदि को छोडकर आवश्यकता के अनुसार व्यक्ति, स्थान, पद्धति, प्रक्रिया आदि का विचार करना होगा । बन्धनों और स्वनिर्मित सीमाओं से मुक्त होकर यदि विचार करेंगे तो ध्यान में आयेगा कि जीवन के प्रारम्भ के साथ ही शिक्षा का प्रारम्भ होता है । जीवन का प्रारम्भ घर में होता है तो शिक्षा का प्रारम्भ भी घर से ही होगा। जिन जिन के साथ सम्पर्क होता है उन सबसे कुछ न कुछ सीखा जाता है। जीवन के प्रारम्भ में मातापिता से, घर के अन्य सदस्यों से, घर में आनेवाले अतिथि अभ्यागों से सम्पर्क होता है, घर से बाहर पडौसियों से, मित्रों से, सगेसम्बन्धियों से सम्पर्क होता ही है । साधु सन्तों, महात्माओं, विद्वानों से सम्पर्क होता है। यही क्यों, दुर्जनों से, चतुर व्यक्तियों से, शठों से भी पाला पडता ही है। व्यापारी, कर्मचारी, अधिकारी आदि से सम्पर्क होता है। इतना ही नहीं जन्म से सम्बन्धित पूर्वजों के रूप में कुल इकहत्तर कुलों से सम्पर्क स्थापित होने के बाद ही हमारा जन्म होता है। इन सबसे हम जाने अनजाने, चाहे अनचाहे सीखते ही रहते हैं । हम किसी को रोक नहीं सकते । न अपने आपको बचा सकते हैं। शिक्षा की प्रक्रिया का इन सभी बातों से सम्बन्ध है । इस बात की हम उपेक्षा नहीं कर सकते।
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इसी विशाल क्षेत्र को इस दृष्टि से हमारे यहाँ प्रमुख तीन केन्द्रों में केन्द्रित किया है । ये तीन केनद्र हैं घर, विद्यालय और समाज । यह बात सही है कि हमने 'शिक्षा' इस संज्ञा को विद्यालय के साथ जोडा है और घर और समाज भी विद्यालय हैं ऐसा कहने का प्रचलन बनाया है। इसी कारण से कदाचित आज घर और समाज विद्याकेन्द्र के रूप में विस्मृत हो गये और विद्यालय बाजार के साथ जुड़ गया । हमें इसे ठीक करना होगा, शिक्षा को ही इन अस्वाभाविक बन्धनों से मुक्त करना होगा।
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इसी विशाल क्षेत्र को इस दृष्टि से हमारे यहाँ प्रमुख तीन केन्द्रों में केन्द्रित किया है । ये तीन केनद्र हैं घर, विद्यालय और समाज । यह बात सही है कि हमने 'शिक्षा' इस संज्ञा को विद्यालय के साथ जोड़ा है और घर और समाज भी विद्यालय हैं ऐसा कहने का प्रचलन बनाया है। इसी कारण से कदाचित आज घर और समाज विद्याकेन्द्र के रूप में विस्मृत हो गये और विद्यालय बाजार के साथ जुड़ गया । हमें इसे ठीक करना होगा, शिक्षा को ही इन अस्वाभाविक बन्धनों से मुक्त करना होगा।
    
शिक्षा का तीसरा महत्त्वपूर्ण सूत्र होगा, 'शिक्षा राष्ट्रीय होती है।
 
शिक्षा का तीसरा महत्त्वपूर्ण सूत्र होगा, 'शिक्षा राष्ट्रीय होती है।
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इस कठिन क्षेत्र को पार किये - बिना विश्वविद्यालयों में ज्ञानसाधना नहीं हो सकती, न समाजप्रबोधन ही हो सकता है । प्रशासकों के साथ बैठकर सिस्टम को किस प्रकार जकडन मुक्त और जिन्दा बनाया जाय, सिस्टम बन्धन में जकडे क्षेत्रों को किस प्रक्रिया को अपना कर मुक्त करे और मुक्त करने के बाद भी उन क्षेत्रों की सुरक्षा की चिन्ता करे इस विषय पर विमर्श होना चाहिये । इसके उपाय संगठनों को भी सोचने चाहिये ।।
 
इस कठिन क्षेत्र को पार किये - बिना विश्वविद्यालयों में ज्ञानसाधना नहीं हो सकती, न समाजप्रबोधन ही हो सकता है । प्रशासकों के साथ बैठकर सिस्टम को किस प्रकार जकडन मुक्त और जिन्दा बनाया जाय, सिस्टम बन्धन में जकडे क्षेत्रों को किस प्रक्रिया को अपना कर मुक्त करे और मुक्त करने के बाद भी उन क्षेत्रों की सुरक्षा की चिन्ता करे इस विषय पर विमर्श होना चाहिये । इसके उपाय संगठनों को भी सोचने चाहिये ।।
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उदाहरण के लिये शिक्षा का अर्थार्जन के साथ सम्बन्ध विच्छेद कर दिया जाय । अर्थकरी शिक्षा को अर्थोत्पादन के क्षेत्र के साथ जोडा जाय और अर्थोत्पादन के क्षेत्र को मिलने वाली सरकारी सहायता बन्द कर दी जाय । इस कथन का विचार करने पर भी भय लगने की सम्भावना है परन्तु ऐसा किये बिना शिक्षा की या समाज की मुक्ति होना सम्भव ही नहीं है। बड़े उद्योगों का विकेन्द्रीकरण करने से अर्थक्षेत्र स्वायत्त होने का प्रारम्भ होगा।
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उदाहरण के लिये शिक्षा का अर्थार्जन के साथ सम्बन्ध विच्छेद कर दिया जाय । अर्थकरी शिक्षा को अर्थोत्पादन के क्षेत्र के साथ जोड़ा जाय और अर्थोत्पादन के क्षेत्र को मिलने वाली सरकारी सहायता बन्द कर दी जाय । इस कथन का विचार करने पर भी भय लगने की सम्भावना है परन्तु ऐसा किये बिना शिक्षा की या समाज की मुक्ति होना सम्भव ही नहीं है। बड़े उद्योगों का विकेन्द्रीकरण करने से अर्थक्षेत्र स्वायत्त होने का प्रारम्भ होगा।
    
अपनी सन्तानों की शिक्षा का दायित्व मातापिता का भी है, अतः उन्हें भी इसमें सहभागी बनाया जाय । जिस प्रकार शिशुसंगोपन और भोजन घर की माता के अधीन होता है उसी प्रकार दस वर्ष तक की आयु की शिक्षा मातापिता के अधीन होनी चाहिये । गृहस्थाश्रम चलाने की शिक्षा घर में ही प्राप्त हो सकती है इसलिये घर की शिक्षा को सम्पूर्ण शिक्षा का महत्त्वपूर्ण अंग मानकर घर को एक विद्यालय के रूप में स्थापित करने का अभियान चलाना चाहिये । इस प्रकार गृहस्थाश्रम की शिक्षा घर में मातापिता के अधीन और अर्थार्जन की शिक्षा अर्थोत्पादन के क्षेत्र के अधीन कर दी जाय तो केवल ज्ञानार्जन की शिक्षा ही बचेगी जिसे विश्वविद्यालयों के अधीन की जा सकती है। विश्वविद्यालय अपने क्षेत्र में जितनी जनसंख्या है उतनी जनसंख्या की सम्पूर्ण शिक्षा की जिम्मेदारी ले और सरकार इन्हें बी कोई सहायता न करें। समाज पर आधारित होकर ही विश्वविद्यालय ज्ञानक्षेत्र के विकास का काम करें । तब ज्ञान, संस्कार और अर्थार्जन तीनों मुक्त श्वास लेंगे ।
 
अपनी सन्तानों की शिक्षा का दायित्व मातापिता का भी है, अतः उन्हें भी इसमें सहभागी बनाया जाय । जिस प्रकार शिशुसंगोपन और भोजन घर की माता के अधीन होता है उसी प्रकार दस वर्ष तक की आयु की शिक्षा मातापिता के अधीन होनी चाहिये । गृहस्थाश्रम चलाने की शिक्षा घर में ही प्राप्त हो सकती है इसलिये घर की शिक्षा को सम्पूर्ण शिक्षा का महत्त्वपूर्ण अंग मानकर घर को एक विद्यालय के रूप में स्थापित करने का अभियान चलाना चाहिये । इस प्रकार गृहस्थाश्रम की शिक्षा घर में मातापिता के अधीन और अर्थार्जन की शिक्षा अर्थोत्पादन के क्षेत्र के अधीन कर दी जाय तो केवल ज्ञानार्जन की शिक्षा ही बचेगी जिसे विश्वविद्यालयों के अधीन की जा सकती है। विश्वविद्यालय अपने क्षेत्र में जितनी जनसंख्या है उतनी जनसंख्या की सम्पूर्ण शिक्षा की जिम्मेदारी ले और सरकार इन्हें बी कोई सहायता न करें। समाज पर आधारित होकर ही विश्वविद्यालय ज्ञानक्षेत्र के विकास का काम करें । तब ज्ञान, संस्कार और अर्थार्जन तीनों मुक्त श्वास लेंगे ।
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इसका सीधासादा अर्थ यह है कि ज्ञानक्षेत्र और अर्थक्षेत्र को एकदूसरे से स्वतन्त्र करना चाहिये । अर्थार्जन और ज्ञानार्जन दो अलग बातें हैं, दोनों का घालमेल नहीं करना चाहिये।
 
इसका सीधासादा अर्थ यह है कि ज्ञानक्षेत्र और अर्थक्षेत्र को एकदूसरे से स्वतन्त्र करना चाहिये । अर्थार्जन और ज्ञानार्जन दो अलग बातें हैं, दोनों का घालमेल नहीं करना चाहिये।
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इसका अर्थ यह भी नहीं है कि ज्ञानार्जन मुफ्त में होता है। 'मुफ्त' को भी केवल पैसे से ही नहीं जोडा जाता । इसका अर्थ यह है कि ज्ञानार्जन की पात्रता पैसा नहीं है, पैसे के अलावा बहुत कुछ है। ज्ञानार्जन करने वाले में श्रद्धा, विनय, सेवा और विनय परायणता, संयम, सदाचार होना अनिवार्य है। ये बाहरी शर्ते नहीं हैं, मनोवैज्ञानिक आवश्यकतायें हैं। पैसे जैसे भौतिक पदार्थों में रियायत दी जाती हैं, इन गुणों में नहीं । अर्थात् ज्ञानार्जन की पात्रता के मापदण्ड अधिक कठोर हैं। इसमें आरक्षण नहीं है, न ब्राह्मणों का न शूद्रों का। जिस किसी के पास जिज्ञासा, श्रद्धा आदि गुण हैं वह पढ सकता है। पढाने वाले को पढ़ाने के अनुपात में पैसा नहीं मिलता है, आवश्यकता के अनुपात में मिलता है, वह भी पढने वाले से नहीं, पढाई के दौरान भी नहीं, पढता है इसलिये नहीं । पढाने वाला दरिद्र रहता है ऐसा भी नहीं है क्योंकि उसकी आवश्यकता के साथ साथ समाज की क्षमता और सम्मान की भावना के अनुपात में शिक्षक को मिलता है। जिस प्रकार समृद्ध समाज के मन्दिर भी समृद्ध :होते हैं उस प्रकार समृद्ध समाज के शिक्षक भी समृद्ध होते है।  
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इसका अर्थ यह भी नहीं है कि ज्ञानार्जन मुफ्त में होता है। 'मुफ्त' को भी केवल पैसे से ही नहीं जोड़ा जाता । इसका अर्थ यह है कि ज्ञानार्जन की पात्रता पैसा नहीं है, पैसे के अलावा बहुत कुछ है। ज्ञानार्जन करने वाले में श्रद्धा, विनय, सेवा और विनय परायणता, संयम, सदाचार होना अनिवार्य है। ये बाहरी शर्ते नहीं हैं, मनोवैज्ञानिक आवश्यकतायें हैं। पैसे जैसे भौतिक पदार्थों में रियायत दी जाती हैं, इन गुणों में नहीं । अर्थात् ज्ञानार्जन की पात्रता के मापदण्ड अधिक कठोर हैं। इसमें आरक्षण नहीं है, न ब्राह्मणों का न शूद्रों का। जिस किसी के पास जिज्ञासा, श्रद्धा आदि गुण हैं वह पढ सकता है। पढाने वाले को पढ़ाने के अनुपात में पैसा नहीं मिलता है, आवश्यकता के अनुपात में मिलता है, वह भी पढने वाले से नहीं, पढाई के दौरान भी नहीं, पढता है इसलिये नहीं । पढाने वाला दरिद्र रहता है ऐसा भी नहीं है क्योंकि उसकी आवश्यकता के साथ साथ समाज की क्षमता और सम्मान की भावना के अनुपात में शिक्षक को मिलता है। जिस प्रकार समृद्ध समाज के मन्दिर भी समृद्ध :होते हैं उस प्रकार समृद्ध समाज के शिक्षक भी समृद्ध होते है।  
    
इसका भावात्मक और संस्कारात्मक पक्ष जरा अधिक गहराई से समझना चाहिये। जिस प्रकार पत्नी को पत्नीधर्म निभाने का वेतन नहीं दिया जाता, घरे के लोगोंं को घर के काम करने के बदले में खाना नहीं दिया जाता या पैसा नहीं चुकाया जाता, जिस प्रकार घर के लोगोंं की परिचर्या करने के पैसे नहीं माँगे जाते उसी प्रकार पटाने के भी पैसे नहीं माँगे जाते । घर के काम करने वाले घर के लोग नौकर नहीं होते उसी प्रकार समाज के बाल, किशोर, युवाओं को पढाने वाला समाज का नौकर नहीं होता, उल्टे गुरु होता है। जिस प्रकार गरीब पति से या गरीब पिता से 'मुझे इतना तो चाहिये ही, तुम कुछ भी करों' ऐसा नहीं कहा जाता उसी प्रकार गरीब समाज से भी शिक्षक अधिक अपेक्षा नहीं कर सकता । जिस प्रकार धनवान पति या पिता प्रेम से और आनन्द से पत्नी और बच्चों के लिये नई नई वस्तुयें लाता है उसी प्रकार समृद्ध समाज भी शिक्षक के लिये आदर और सम्मान से आवश्यकता से कहीं अधिक देता है। समाज के भरोसे शिक्षक निश्चिन्त रह सकता है।
 
इसका भावात्मक और संस्कारात्मक पक्ष जरा अधिक गहराई से समझना चाहिये। जिस प्रकार पत्नी को पत्नीधर्म निभाने का वेतन नहीं दिया जाता, घरे के लोगोंं को घर के काम करने के बदले में खाना नहीं दिया जाता या पैसा नहीं चुकाया जाता, जिस प्रकार घर के लोगोंं की परिचर्या करने के पैसे नहीं माँगे जाते उसी प्रकार पटाने के भी पैसे नहीं माँगे जाते । घर के काम करने वाले घर के लोग नौकर नहीं होते उसी प्रकार समाज के बाल, किशोर, युवाओं को पढाने वाला समाज का नौकर नहीं होता, उल्टे गुरु होता है। जिस प्रकार गरीब पति से या गरीब पिता से 'मुझे इतना तो चाहिये ही, तुम कुछ भी करों' ऐसा नहीं कहा जाता उसी प्रकार गरीब समाज से भी शिक्षक अधिक अपेक्षा नहीं कर सकता । जिस प्रकार धनवान पति या पिता प्रेम से और आनन्द से पत्नी और बच्चों के लिये नई नई वस्तुयें लाता है उसी प्रकार समृद्ध समाज भी शिक्षक के लिये आदर और सम्मान से आवश्यकता से कहीं अधिक देता है। समाज के भरोसे शिक्षक निश्चिन्त रह सकता है।

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