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==== ४. अर्थनिर्पेक्ष शिक्षा ====
 
==== ४. अर्थनिर्पेक्ष शिक्षा ====
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भारत का आदर्श यही रहा है कि अनेक मूल्यवान और जीवन के लिये आवश्यक बातों को अर्थनिरपेक्ष बनाई जाती हैं । भारत मानता है कि सारी प्राकृतिक आवश्यकतायें प्राकृतिक संसाधनों से पूर्ण होती हैं ऐसी प्रकृति की ही योनजा है, उसमें मनुष्य के स्वार्थों का दखल नहीं होना चाहिये । इसलिये हवा, पानी, वर्षा, सूर्यप्रकाश आदि पर किसी का स्वामित्व नहीं होना चाहिये । उनको क्रयविक्रय की वस्तु नहीं बनानी चाहिये । ब्रिटीशों के आने से पूर्व तो भूमि पर भी मनुष्य का स्वामित्व नहीं माना जाता था । गाँव की खेती की भूमि गाँव की होती थी। केवल निवासकी भूमि पर ही व्यक्ति का स्वामित्व होता था। इसी प्रकार नदियों के पानी को रोकने वाले बाँध बनाने की कल्पना भी कोई कर नहीं सकता था। लोग उसे समाजद्रोह मानते थे। अन्न, पानी, हवा आदि प्राप्त करने हेतु परिश्रम करना होता है, खर्च नहीं।
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इसी प्रकार जीवन को उन्नत बनानेवाली बातों पर भी अर्थ का प्रभुत्व नहीं होता था, इस विचार से कि पैसा ज्ञान की, कला की, उपदेश की अपेक्षा क्षुद्र है, वह इन श्रेष्ठ बातों को तौलने वाला कैसे हो सकता है। ऐसी सादी समझ को हमने गंवा दिया और अर्थ का बडा जंजाल निर्माण करके जीवन को जटिल और दुःखी बना दिया ।
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पश्चिम के प्रभाव से मुक्त होने का एक आयाम है अर्थनिष्ठता से मुक्ति। भारत धर्मनिष्ठ राष्ट्र है। धर्म के अविरोधी अर्थ और काम होने से उपभोग भी श्रेष्ठ होता है और समृद्धि भी बढती है ऐसा हमारा अतीत का अनुभव है । ब्रिटीशों का ऐसा अनुभव नहीं है क्योंकि पश्चिम में धर्म संकल्पना ही नहीं है । जीवन का लक्ष्य कामनाओं की पूर्ति है तो कामनाओं की पूर्ति हेतु अर्थ चाहिये इसलिये व्यवहार जीवन में अर्थ ही परम पुरुषार्थ है । वह धर्म के अविरोधी होने की कल्पना ही नहीं है। इसलिये धर्म के अविरोधी होने पर समृदि बढेगी इस समीकरण उनकी समझ से परे है। बिडम्बना यह है कि वह हमारा भी समीकरण बन गया। अब अर्थनिष्ठता से मुक्ति प्राप्त करना है।
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इसका अर्थ यह नहीं है कि अर्थ से ही मुक्ति चाहिये। अर्थ चाहिये,अर्थनिष्ठता नहीं। - इसका अर्थ यह भी नहीं है कि अर्थनिष्ठता के स्थान पर धर्मनिष्ठता अपनाने से अर्थ या समृद्धि बढती है इसलिये धर्मनिष्ठता चाहिये । ऐसा मानना और करना तो अर्थनिष्ठता का ही दूसरा स्वरूप हुआ। धर्मनिष्ठता से समाज की धारणा होती है इसलिये धर्मनिष्ठता चाहिये और अर्थ और काम धर्म के अविरोधी चाहिये।
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इस कारण से शिक्षा को अर्थनिरपेक्ष बनाना चाहिये । शिक्षा में अर्थ की आवश्यकता नहीं है ऐसा इस का अर्थ नहीं है। अर्थनिरपेक्ष शिक्षा का सार यह है कि पढने और पढ़ाने का मापदण्ड पैसा नहीं है। पैसा नहीं है इसलिये कोई पढ़ नहीं सकता ऐसा नहीं हो सकता, और पढाया इसलिये पैसा चाहिये अथवा पैसा दो तो पढाऊँगा ऐसा भी नहीं हो सकता । इसी प्रकार से पैसा चाहिये इसलिये पढना है और पैसा चाहिये इसलिये पढते हो तो पढने के पैसे दो ऐसा भी नहीं होना चाहिये।
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इसका सीधासादा अर्थ यह है कि ज्ञानक्षेत्र और अर्थक्षेत्र को एकदूसरे से स्वतन्त्र करना चाहिये । अर्थार्जन और ज्ञानार्जन दो अलग बातें हैं, दोनों का घालमेल नहीं करना चाहिये।
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इसका अर्थ यह भी नहीं है कि ज्ञानार्जन मुफ्त में होता है। 'मुफ्त' को भी केवल पैसे से ही नहीं जोडा जाता । इसका अर्थ यह है कि ज्ञानार्जन की पात्रता पैसा नहीं है, पैसे के अलावा बहुत कुछ है। ज्ञानार्जन करने वाले में श्रद्धा, विनय, सेवा और विनय परायणता, संयम, सदाचार होना अनिवार्य है। ये बाहरी शर्ते नहीं हैं, मनोवैज्ञानिक आवश्यकतायें हैं। पैसे जैसे भौतिक पदार्थों में रियायत दी जाती हैं, इन गुणों में नहीं । अर्थात् ज्ञानार्जन की पात्रता के मापदण्ड अधिक कठोर हैं। इसमें आरक्षण नहीं है, न ब्राह्मणों का न शूद्रों का। जिस किसी के पास जिज्ञासा, श्रद्धा आदि गुण हैं वह पढ सकता है। पढाने वाले को पढ़ाने के अनुपात में पैसा नहीं मिलता है, आवश्यकता के अनुपात में मिलता है, वह भी पढने वाले से नहीं, पढाई के दौरान भी नहीं, पढता है इसलिये नहीं । पढाने वाला दरिद्र रहता है ऐसा भी नहीं है क्योंकि उसकी आवश्यकता के साथ साथ समाज की क्षमता और सम्मान की भावना के अनुपात में शिक्षक को मिलता है। जिस प्रकार समृद्ध समाज के मन्दिर भी समृद्ध :होते हैं उस प्रकार समृद्ध समाज के शिक्षक भी समृद्ध होते है।
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इसका भावात्मक और संस्कारात्मक पक्ष जरा अधिक गहराई से समझना चाहिये। जिस प्रकार पत्नी को पत्नीधर्म निभाने का वेतन नहीं दिया जाता, घरे के लोगों को घर के काम करने के बदले में खाना नहीं दिया जाता या पैसा नहीं चुकाया जाता, जिस प्रकार घर के लोगों की परिचर्या करने के पैसे नहीं माँगे जाते उसी प्रकार पटाने के भी पैसे नहीं माँगे जाते । घर के काम करने वाले घर के लोग नौकर नहीं होते उसी प्रकार समाज के बाल, किशोर, युवाओं को पढाने वाला समाज का नौकर नहीं होता, उल्टे गुरु होता है। जिस प्रकार गरीब पति से या गरीब पिता से 'मुझे इतना तो चाहिये ही, तुम कुछ भी करों' ऐसा नहीं कहा जाता उसी प्रकार गरीब समाज से भी शिक्षक अधिक अपेक्षा नहीं कर सकता । जिस प्रकार धनवान पति या पिता प्रेम से और आनन्द से पत्नी और बच्चों के लिये नई नई वस्तुयें लाता है उसी प्रकार समृद्ध समाज भी शिक्षक के लिये आदर और सम्मान से आवश्यकता से कहीं अधिक देता है। समाज के भरोसे शिक्षक निश्चिन्त रह सकता है।
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ऐसा समाज बनाने का दायित्व भी शिक्षक का ही है इसका भी ध्यान रखना चाहिये।
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ऐसे सांस्कृतिक धरातल पर शिक्षा को ले जाना शिक्षा को पश्चिम के प्रभाव से मुक्त करना है। आज स्थिति अत्यन्त विपरीत है। पूर्व प्राथमिक और प्राथमिक शिक्षा के दो छोर दिखाई देते हैं। एक ओर तो सरकारी प्राथमिक विद्यालय निःशुल्क चलते हैं, दूसरी ओर लाख रूपया शुल्क देकर भी लोग अपने बच्चों को पढने के लिये भेजते हैं। जिनमें लाखों के वेतन मिलने की सम्भावना है वहाँ लाखों का शुल्क देना पड़ता है। जहाँ नौकरी मिलने की सम्भावना नहीं वहाँ कोई पढने के लिये नहीं जाता । कौन सा व्यवसाय या नौकरी करने हेतु क्या पढाई करना है इसका भी कोई खास विचार नहीं। प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में गणित, विज्ञान, अंग्रेजी और संगणक के अलावा अन्य सभी विषय निष्प्रयोजन माने जाते हूँ। पैसा नहीं मिलता है तो साहित्य, संगीत, कला, खेल आदि का भी कोई महत्त्व नहीं । ऐसे में शिक्षा को अर्थनिरपेक्ष बनाना कठिन काम है। परन्तु ऐसा किये बिना संस्कार, संस्कृति, धर्म आदि की रक्षा ही नहीं हो सकती।
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यह धारणा बलवती बन गई है कि आज के बाजारीकरण के जमाने में अर्थनिरपेक्ष शिक्षा कैसे सम्भव हो सकती है। परन्तु इसे ही तो सम्भव बनाने की अनिवार्यता है।
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हमें बाजार चाहिये, बाजारीकरण नहीं चाहिये । इसीलिये तो शिक्षा और बाजार को एकदूसरे से अलग करने की आवश्यकता है। अर्थनिरपेक्ष शिक्षा और अर्थकरी शिक्षा को एकदूसरे से स्वतन्त्र बनाना चाहिये । अर्थार्जन कैसे करना इसकी शिक्षा मिलना अत्यन्त आवश्यक है। परन्तु इसे भारत में शिक्षा के अन्तर्गत रखा नहीं गया ।
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अर्थकारी शिक्षा अर्थक्षेत्र के साथ जोडी जा सकती है। उदाहरण के लिये व्यापार कैसे करना इसकी शिक्षा व्यापारी दुकान में और खेती कैसे करना इसकी शिक्षा किसान खेत में देगा। भोजन कैसे बनाना इसकी शिक्षा गृहिणी घर में देगी, पूजा और पौरोहित्य करने की शिक्षा पुरोहित मन्दिर में देंगे । वेदों की शिक्षा बेदपाठी अपने घर में देंगे, जूता बनाने की शिक्षा मोची जूते की दुकान में देगा। अर्थात् अर्थकरी शिक्षा अर्थक्षेत्र के साथ जोडना आवश्यक है। उसके लिये महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की आवश्यकता नहीं है।
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जिसे हम सामान्य शिक्षा कहते हैं वह पन्द्रह सोलह वर्ष की आयु तक नहीं चलनी चाहिये । सोलह वर्ष की आयु में तो व्यक्ति अर्थार्जन के लिये पूर्ण सक्षम हो जाना चाहिये । आज अर्थार्जन के लिये शिक्षा है परन्तु अर्थार्जन की शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है। जो है उसे हम व्यवस्था नहीं कह सकते क्योंकि उससे अर्थार्जन होगा ही इसकी कोई निश्चितता नहीं है ।
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यदि अर्थकरी शिक्षा को अर्थक्षेत्र के साथ जोड दें तो शिक्षाक्षेत्र में क्या बचेगा ? ऐसा प्रश्न इसलिये उठता है कि हम शिक्षा को अर्थ के साथ ही जोडते हैं । वास्तव में बिना
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किसी विशेषण के शिक्षा धर्मकरी शिक्षा है। देश और दुनिया का ज्ञान, अतीत और वर्तमान का ज्ञान, व्यक्तित्व विकास के सारे आयाम तत्त्वज्ञान और मनोविज्ञान, नीति और सदाचार एकात्मता और समग्रता सब धर्म के ही तो अंग है। यह धर्मकरी शिक्षा सबके लिये अनिवार्य होनी चाहिये । परन्तु कानून के तहत अनिवार्य बनाने से वह प्राप्त होना अनिवार्य नहीं बन जाता । कानून के तहत अनिवार्य होने पर भी देश में शतप्रतिशत साक्षरता नहीं है, शिक्षा निःशुल्क होने पर भी अनेक मातापिता अपनी सन्तानों को पढने के लिये नहीं भेजते । शिक्षा अनिवार्य है तो भी आठ वर्ष स्कूल में जाने के बाद लिखना पढ़ना नहीं आता। इसलिये कानून के तहत शिक्षा को अनिवार्य बनाने का कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं है । केवल तन्त्र खडा करने की बाध्यता हो जाती है। धर्म के तहत अनिवार्य बनाने से लोग उसे अन्तःकरण पूर्वक स्वीकार करते हैं और श्रद्दा से ग्रहण करते हैं । स्वायत्त समाज के लिये अर्थकरी शिक्षा का अर्थक्षेत्र के साथ जुडना और अर्थक्षेत्र का स्वायत्त होना आवश्यक है । वहाँ भी धर्मकरी शिक्षा अनिवार्य है । इसका महत्त्वपूर्ण हिस्सा है अर्थक्षेत्र का धर्म के अविरोधी होना । अर्थ को धर्म के अविरोधी और धर्म के अनुकूल बनाने से आधे से अधिक तो धर्मकरी शिक्षा हो ही जाती है। शेष की व्यवस्था करनी होती है।
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धर्मकरी शिक्षा को धर्मक्षेत्र के साथ जोड़ने से सारी समस्यायें दूर हो जाती है। परन्तु कठिनाई यह है कि धर्मक्षेत्र ही आज अव्यवस्थित है । वह शिक्षा की जिम्मेदारी लेने में असमर्थ है । उसे निवेदन अवश्य करना चाहिये परन्तु शिक्षाक्षेत्र को ही धर्मकरी शिक्षा की जिम्मेदारी लेनी होगी।
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धर्मकरी शिक्षा समाज को सुसंस्कृत बनाती है, अर्थकरी शिक्षा उसे समृद्ध बनाती है । सुसंस्कृत और समृद्ध समाज ही श्रेष्ठ समाज होता है । समृद्धि और संस्कृति एक दूसरे के पूरक है । संस्कृति के बिना समृद्धि आसुरी होती है, समृद्धि के बिना संस्कृति की रक्षा ही नहीं होती । भारत ने हमेशा दोनों साथ साथ रहें ऐसी व्यवस्था बनाई है ।
    
==References==
 
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