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इसलिये शास्रशिक्षा के बारे में हमें पुनर्विचार करना चाहिये । एक सौ पचीस करोड के देश में दस प्रतिशत के हिसाब से बारह करोड पचास लाख और पाँच प्रतिशत के हिसाब से छ: करोड पचीस लाख लोग शास्रों से परिचत होने चाहिये । कुल जनसंख्या के यदि एक चौथाई हम विद्यार्थी मान लें तो लगभग ३६ करोड विद्यार्थी होंगे। उनका पाँच प्रतिशत शास्रों की शिक्षा हेतु योग्य समझें तो हमें १ करोड अस्सी लाख और दस प्रतिशत लें तो तीन करोड साठ लाख छात्रों के लिये उच्च शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी। उच्च शिक्षा के लिये इतने छात्र देना किशोर अवस्ता की शिक्षा का दायित्व है। यदि इतने भी छात्र वास्तव में उच्च शिक्षा हेतु न आयें तो आज के प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों की विफलता मानी जानी चाहिये । परन्तु शास्रशिक्षा के लिये योग्य नहीं हैं ऐसे लोगों ने शास्रों का अध्ययन नहीं करना चाहिये।
 
इसलिये शास्रशिक्षा के बारे में हमें पुनर्विचार करना चाहिये । एक सौ पचीस करोड के देश में दस प्रतिशत के हिसाब से बारह करोड पचास लाख और पाँच प्रतिशत के हिसाब से छ: करोड पचीस लाख लोग शास्रों से परिचत होने चाहिये । कुल जनसंख्या के यदि एक चौथाई हम विद्यार्थी मान लें तो लगभग ३६ करोड विद्यार्थी होंगे। उनका पाँच प्रतिशत शास्रों की शिक्षा हेतु योग्य समझें तो हमें १ करोड अस्सी लाख और दस प्रतिशत लें तो तीन करोड साठ लाख छात्रों के लिये उच्च शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी। उच्च शिक्षा के लिये इतने छात्र देना किशोर अवस्ता की शिक्षा का दायित्व है। यदि इतने भी छात्र वास्तव में उच्च शिक्षा हेतु न आयें तो आज के प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों की विफलता मानी जानी चाहिये । परन्तु शास्रशिक्षा के लिये योग्य नहीं हैं ऐसे लोगों ने शास्रों का अध्ययन नहीं करना चाहिये।
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देश में अध्ययन, अनुसन्धान, शास्त्रपरिष्कृति, शास्रों की रचना, साहित्य का निर्माण, ज्ञानक्षेत्र को समृद्ध बनाना, प्रजा और राज्य का परामर्शक बनना,
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देश में अध्ययन, अनुसन्धान, शास्त्रपरिष्कृति, शास्रों की रचना, साहित्य का निर्माण, ज्ञानक्षेत्र को समृद्ध बनाना, प्रजा और राज्य का परामर्शक बनना, राज्य और समाज के संचालन हेतु नीतियाँ बनाना शास्त्रशिक्षा का काम है। इनके विद्यार्थियों और अध्यापकों को विद्वान कहना चाहिये। ये प्रथम सज्जन हैं, दूसरे क्रम में कार्यकुशल हैं और फिर विद्वान हैं । ये देशकाल परिस्थिति के ज्ञाता हैं । आये हुए और भविष्य में आने वाले संकटों को जानते हैं और उनके लिये उपाययोजना करते हैं। ये शासक और प्रजा को सावधानी भी करते हैं और मार्गदर्शन भी करते हैं। राज्य और प्रजा का हित उनके आश्रमय में सुरक्षित हैं । ये निःस्वार्थी हैं, निराभिमानी हैं और विद्याव्रती हैं। किसी भी राष्ट्र की ये अमूल्य निधि होते हैं।
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शास्त्रशिक्षा के केन्द्रों की एक महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी है ज्ञानपरम्परा को खण्डित नहीं होने देना और उत्तरोत्तर समृद्ध बनाना । इसलिये भविष्य के लिये अपने ही जैसे और अपने से भी अधिक योग्य नई पीढी के उत्तराधिकारी तैयार करने का दायित्व उच्चशिक्षा को निभाना है। ज्ञानक्षेत्र की उत्कृष्टता कम नहीं होने देना भी उनका दायित्व है। इसलिये उनकी सोच व्यक्तिगत नहीं, राष्ट्रीय होनी चाहिये ।
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समस्त प्रजा का अज्ञान दूर करने हेतु, लोकशिक्षा की योजना करना भी उनका ही काम है। संक्षेप में सम्पूर्ण राष्ट्र का ज्ञान क्षेत्र इन के आश्रय में रहता है । इन्हें साथ, सहकार और मार्गदर्शन या परामर्श मिलता है धर्मक्षेत्र से । वास्तव में धर्मक्षेत्र और शिक्षाक्षेत्र का सम्बन्ध एक सिक्के के दो पहलू जैसा है, एक के बिना दूसरा होता ही नहीं है। शिक्षा का प्रयोजन भी राज्य और प्रजा को धर्म सिखाना है।
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इस प्रकार शास्रशिक्षा का क्षेत्र संख्या में छोटा परन्तु महत्त्व की दृष्टि से बहुत बड़ा है।
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इस दृष्टि से देखें तो वर्तमान भारत में शिक्षा की दुर्गति की परिसीमा है । एक ओर तो हमारी चाह है हम विश्वकल्याणकारी विश्वगुरु बनें, एक और विश्व की यह अनिवार्य आवश्यकता बन गई है और दूसरी ओर हमारी स्थिति अत्यन्त शोचनीय है। पश्चिम के
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प्रभाव से मुक्त हुए बिना भारत भारत नहीं बन सकता, अपने में स्थित नहीं हो सकता और ऐसा हुए बिना विश्व के तो क्या उसके अपने संकट भी दूर नहीं हो सकते।
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राज्य के या उद्योगों के, सत्तावान या अर्थवान के प्रयासों से यह होने वाला नहीं है। यह तो ज्ञानवान लोगों से ही होगा, धर्माचरणी लोगों के द्वारा ही होगा।
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भारत के विश्वकल्याण के महान अभियान के लिये केवल एक करोड अस्सी लाख लोगों की ही आवश्यकता है। देश में अभी ६६५ विश्वविद्यालय हैं। इनमें से दो करोड विद्यार्थियों और अध्यापकों को चयन करना कोई बहुत कठिन तो नहीं है। केवल तय करने की आवश्यकता है।
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परन्तु तय कौन करे यह समस्या है। वर्तमान में देश की शिक्षा राज्य के अर्थात् शासन के हाथ में है। राज्य शिक्षाक्षेत्र में ऐसा कोई साहस दिखा नहीं सकता, उसकी अपनी ही अनेक मर्यादायें हैं । बन्धन हैं। यदि राज्य नहीं करता तो उच्च शिक्षा का क्षेत्र ही यह तय करे । इसकी सीमा यह है कि शासन के निर्देश और अनुमति के बिना वे कर नहीं सकते । दोनो होने के बाद अध्यापकों की इच्छाशक्ति चाहिये । आज तो इसकी कल्पना करना कठिन है । विश्वविद्यालयों को साथ में जोडते हुए संगठित करने वाली कोई रचना नहीं है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग सभी विश्वविद्यालयों को अपने साथ जोडे रखता है। परन्तु यह आर्थिक पक्ष ही देखता है । यदि सरकार इसे विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग बनाकर इसे शैक्षिक संगठन का रूप दे और इसका एकमात्र कार्य शिक्षा को भारतीय बनाने का ही निश्चित किया जाय तो स्थिति बदलनी शुरू हो सकती है। दूसरी एक आशा है देश में चल रहे अखिल भारतीय स्तर के शैक्षिक और सांस्कृतिक - धार्मिक संगठनों से । धर्म और शिक्षा एक साथ मिलकर भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा करना निश्चित कर लें तो यह कार्य हो सकता
    
==References==
 
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