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जगत के कल्याण हेतु शिक्षा का विचार करते समय पहला महत्त्वपूर्ण मुद्दा यह है कि आज भारत में ही शिक्षा उसकी अपनी नहीं है । इसलिये भारत को प्रथम अपने यहाँ भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा करनी होगी।
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इस विषय की चर्चा इससे पूर्व के चार ग्रन्थों में विस्तार से की गई है इसलिये यहाँ हम पुनःस्मरण के लिये भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा हेतु भारत क्या कर सकता है इसका निरूपण करेंगे।
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१. हमें सर्वप्रथम यह स्वीकार करना होगा कि भारत में शिक्षा भारतीय होनी चाहिये । इस विषय में सन्देह नहीं होना चाहिये कि वैश्विकता के नाम पर आज जो चल रहा है वह वैश्विक नहीं है, पश्चिमी है, और उसमें कुछ भी शैक्षिक नहीं है, जो है वह सब बाजारीकरण है। शिक्षा बाजार में क्रयविक्रय से प्राप्त होनेवाला एक भौतिक पदार्थ है।
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२. भारतीय शिक्षा भारतीय जीवनदृष्टि पर आधारित होगी। हमें भारतीय ज्ञानधारा जिन शास्रग्रन्थों में सुरक्षित है ऐसे ग्रन्थों के अध्ययन की योजना बनानी होगी। ऐसा अध्ययन प्रथम चरण में शास्त्रीय होगा अर्थात् वेद, उपनिषद और अन्य ग्रन्थ जीवन और जगत के विषय में क्या कहते हैं वह ठीक से समझना होगा। इस अध्ययन में हमें भगवान वेदव्यास से
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लेकर भगवान शंकराचार्य से होकर अर्वाचीन काल के श्री अरविन्द और स्वामी विवेकानन्द जैसे मनीषियों से मार्गदर्शन प्राप्त हो सकता है। इस अध्ययन से हमें अपने आपको आश्वस्त करना होगा और स्वयं को विश्वास, दिलाना होगा कि जितना दस हजार वर्ष पूर्व के काल में यह ज्ञान उपयोगी था उतना ही आज भी है। उसके सम्बन्ध में हम विगतकाल अथवा आउट ऑफ डेट जैसा शब्दप्रयोग नहीं कर सकते, किं बहुना अब यही ज्ञान आज के समय में एकमेव उपाय बचा है। इसका स्वीकार किये बिना विकास के और मुक्ति के सारे मार्ग अवरुद्ध हैं।
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इसके साथ ही यह बात भी हमें समझनी होगी कि शास्त्रीय अध्ययन को व्यावहारिक बनाना होगा । शास्त्र हमारे व्यवहार को निर्देशित करने वाले होने चाहिये । वे जीवन से अलग नहीं रह सकते । आज हमारी यही समस्या है। भारतीय शास्त्रीय वाङ्य का हमारी दैनन्दिन जीवनशैली से कोई सम्बन्ध नहीं रह गया है। हमारे शासन और प्रशासन को, उद्योग और बाजार को, विद्यालयों और घरों को रामायण, महाभारत, गीता के बिना चलता है, किं बहुना उसका कोई ज्ञान आवश्यक ही नहीं लगता । भारतीय ज्ञान सर्वथा अप्रस्तुत बन गया है । इसे प्रस्तुत बनाने का काम शिक्षाक्षेत्र का महत्त्वपूर्ण कार्य है । अर्थात् व्यावहारिक अनुसन्धान को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषय बनाना होगा।
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इस दृष्टि से आज जो शास्त्रों के अध्ययन की पद्धति चल रही है उसमें भी युगानुकूल परिवर्तन करने होंगे। उदाहरण के लिये आज जो वेद और वेदांगो का अध्ययन चल रहा है उसे प्राचीन अध्ययन पद्धति को जानने समझने और सुरक्षित रखने के साथ साथ वर्तमान समय में काम आ सके ऐसी अध्ययन पद्धति का भी विकास करना होगा। प्राचीन पद्धति से अध्ययन करने वाले नई किसी भी पद्धति के प्रति साशंक रहते हैं। उन्हें वेदों के नष्ट हो जाने का अथवा ज्ञान के दृषित हो जाने । का भय रहता है। उन्हें पूर्ण रूप से आश्वस्त करते हुए भी हमें नई पद्धतियों का विकास करना होगा। जिन्हें शिशुअवस्था से ही संस्कृत का और शास्त्रों का अध्ययन करने का भाग्य प्राप्त नहीं हुआ है परन्तु जो भारतीय जीवनदृष्टि के पक्षधर हैं, भारतीय भाषाओं में जिनका अच्छा अध्ययन है उनके लिये भारतीय शास्त्रग्रन्थों का अध्ययन सुलभ बनाना चाहिये । जो संस्कृत जानते हैं, शास्त्रीय वाङ्य का अध्ययन करते हैं उन्होंने जो संस्कृत नहीं जानते परन्तु अध्ययन करना चाहते हैं उनके लिये सेतु का कार्य करना चाहिये। इसके लिये विशेष प्रतिभा, शास्त्र और समाज दोनों के प्रति निष्ठा और वर्तमान स्थिति का ज्ञान होने की आवश्यकता है। ऐसा एक वर्ग ज्ञान के क्षेत्र में उभरना आवश्यक है। ऐसा अध्ययन ही वर्तमान समस्या का निराकरण करने में यशस्वी हो सकता है। भारतीय ज्ञान के इतिहास में ऐसे प्रयास पूर्व में भी हुए हैं । शास्त्रीय ज्ञान को व्यावहारिक बनाने हेतु ही तो समय समय पर स्मृतियों की रचना हुई है । अतः निशंक मन से वर्तमान समय के लिये स्मृतियों की रचना करनी होगी।
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व्यावहारिक अध्ययन के अन्तर्गत हमें विपुल मात्रा में साहित्य का निर्माण करना होगा। समाजजीवन के हर क्षेत्र के लिये ऐसा विपुल साहित्य चाहिये । भारत की सभी भाषाओं में मिलकर ऐसे ग्रन्थों की संख्या हजारों में जाने से ही कुछ परिणाम मिल सकता है।
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हमें शिक्षा के सन्दर्भो में क्रान्तिकारी परिवर्तन करने होंगे । शिक्षा का ऐसा एक क्रान्तिकारी सूत्र होगा, 'शिक्षा आजीवन चलनेवाली प्रक्रिया है।' इस सूत्र को क्रान्तिकारी इसलिये कहना चाहिये कि आज हमने शिक्षा को विद्यालय, परीक्षा, प्रमाणपत्र और अर्थार्जन में ही सीमित कर दी है। अर्थार्जन जीवन का एक अंग है। भले ही वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अंग हो तो भी वह जीवन का सार सर्वस्व
    
==References==
 
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