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व्यावहारिक अध्ययन के अन्तर्गत हमें विपुल मात्रा में साहित्य का निर्माण करना होगा। समाजजीवन के हर क्षेत्र के लिये ऐसा विपुल साहित्य चाहिये । भारत की सभी भाषाओं में मिलकर ऐसे ग्रन्थों की संख्या हजारों में जाने से ही कुछ परिणाम मिल सकता है।  
 
व्यावहारिक अध्ययन के अन्तर्गत हमें विपुल मात्रा में साहित्य का निर्माण करना होगा। समाजजीवन के हर क्षेत्र के लिये ऐसा विपुल साहित्य चाहिये । भारत की सभी भाषाओं में मिलकर ऐसे ग्रन्थों की संख्या हजारों में जाने से ही कुछ परिणाम मिल सकता है।  
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४. हमें शिक्षा के सन्दर्भो में क्रान्तिकारी परिवर्तन करने होंगे । शिक्षा का ऐसा एक क्रान्तिकारी सूत्र होगा, 'शिक्षा आजीवन चलनेवाली प्रक्रिया है।' इस सूत्र को क्रान्तिकारी इसलिये कहना चाहिये कि आज हमने शिक्षा को विद्यालय, परीक्षा, प्रमाणपत्र और अर्थार्जन में ही सीमित कर दी है। अर्थार्जन जीवन का एक अंग है। भले ही वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अंग हो तो भी वह जीवन का सार सर्वस्व नहीं है। हमें जीवन के लिये शिक्षा की योजना करनी होगी। हमें जीवनविकास के लिये शिक्षा चाहिये । इसके अन्तर्गत अर्थार्जन की शिक्षा का भी समावेश हो जायेगा । अतः गर्भाधान से अन्त्येष्टि संस्कार तक की शिक्षा का एक प्रारूप बनाना होगा। ऐसा नहीं है कि भारत के लिये यह सर्वथा नई बात है। विविध रूप में, विविध पद्धति से वह भारत में प्रचलन में रही है। केवल बीच के कालखण्ड में उसका विस्मरण हुआ है, उसमें खण्ड हुआ है और शिक्षा की ही क्यों राष्ट्रजीवन की गाडी उल्टी पटरी पर चढ गई है । इसलिये आज हमें यह क्रान्तिकारी लगता है। नये सिरे से इसका विचार करते समय पूर्व की पद्धतियों की सहायता हम अवश्य लें परन्तु विचार और योजना तो आज के सन्दर्भ की ही करें।  
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४. हमें शिक्षा के सन्दर्भो में क्रान्तिकारी परिवर्तन करने होंगे । शिक्षा का ऐसा एक क्रान्तिकारी सूत्र होगा, 'शिक्षा आजीवन चलनेवाली प्रक्रिया है।' इस सूत्र को क्रान्तिकारी इसलिये कहना चाहिये कि आज हमने शिक्षा को विद्यालय, परीक्षा, प्रमाणपत्र और अर्थार्जन में ही सीमित कर दी है। अर्थार्जन जीवन का एक अंग है। भले ही वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अंग हो तो भी वह जीवन का सार सर्वस्व नहीं है। हमें जीवन के लिये शिक्षा की योजना करनी होगी। हमें जीवनविकास के लिये शिक्षा चाहिये । इसके अन्तर्गत अर्थार्जन की शिक्षा का भी समावेश हो जायेगा । अतः गर्भाधान से अन्त्येष्टि संस्कार तक की शिक्षा का एक प्रारूप बनाना होगा। ऐसा नहीं है कि भारत के लिये यह सर्वथा नई बात है। विविध रूप में, विविध पद्धति से वह भारत में प्रचलन में रही है। केवल मध्य के कालखण्ड में उसका विस्मरण हुआ है, उसमें खण्ड हुआ है और शिक्षा की ही क्यों राष्ट्रजीवन की गाडी उल्टी पटरी पर चढ गई है । इसलिये आज हमें यह क्रान्तिकारी लगता है। नये सिरे से इसका विचार करते समय पूर्व की पद्धतियों की सहायता हम अवश्य लें परन्तु विचार और योजना तो आज के सन्दर्भ की ही करें।  
    
इसी प्रकार से दूसरा सूत्र होगा  
 
इसी प्रकार से दूसरा सूत्र होगा  
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एक अत्यन्त विचित्र और हास्यास्पद बात को हमें तुरन्त बदलना होगा। वाणिज्य विज्ञान या तन्त्रज्ञान पढने वाले को संस्कृत की गन्ध भी नहीं होती। भारतीय जीवनदृष्टि, संस्कृति, इतिहास, वेद, धर्म, भगवद्गीता, ज्ञान और पराक्रमी पूर्वज आदि के बारे में लेशमात्र जानकारी नहीं होती। वे पूर्णरूप से संस्कृति के कटे हुए रहते हैं। अतः आज का विनयन अथवा कलाशाखा, वाणिज्य, तन्त्रज्ञान, विज्ञान आदि विभाजनों को मिटाकर सभी विषयों का सांस्कृतिक आधार पक्का बनाकर, एकदूसरे के साथ उचित समायोजन कर पुनर्रचना करनी होगी।  
 
एक अत्यन्त विचित्र और हास्यास्पद बात को हमें तुरन्त बदलना होगा। वाणिज्य विज्ञान या तन्त्रज्ञान पढने वाले को संस्कृत की गन्ध भी नहीं होती। भारतीय जीवनदृष्टि, संस्कृति, इतिहास, वेद, धर्म, भगवद्गीता, ज्ञान और पराक्रमी पूर्वज आदि के बारे में लेशमात्र जानकारी नहीं होती। वे पूर्णरूप से संस्कृति के कटे हुए रहते हैं। अतः आज का विनयन अथवा कलाशाखा, वाणिज्य, तन्त्रज्ञान, विज्ञान आदि विभाजनों को मिटाकर सभी विषयों का सांस्कृतिक आधार पक्का बनाकर, एकदूसरे के साथ उचित समायोजन कर पुनर्रचना करनी होगी।  
 
* ऐसा करते समय हमें पश्चिम की शिक्षाक्षेत्र की शब्दावलियों से भी मुक्त होना होगा। उदाहरण के लिये हम क्रमशः प्राथमिक, माध्यमिक, उच्चशिक्षा ऐसी शब्दावली का प्रयोग करते हैं। इन की आयु सीमा भी लगभग निश्चित है । परन्तु ऐसी शब्दावली का क्या प्रयोजन है ? क्या अर्थ है ? कभी कभी प्राथमिक को प्रारम्भिक भी कहा जाता है। ऐसे सन्दर्भहीन और यान्त्रिक शब्दों के स्थान पर सार्थक शब्दों का प्रयोग करना चाहिये । भारत में आयु की अवस्था के अनुसार शिक्षा योजना होती है। जैसे कि शिशुअवस्था, बालअवस्था, किशोरअवस्था आदि । यह विभाजन मनोवैज्ञानिक है । हर अवस्था के अपने लक्षण, स्वभाव, क्षमतायें आवश्यकतायें होती हैं। उसके अनुसार उस अवस्था की शिक्षा की योजना की जाती है । यह एक सार्थक विभाजन है । यह तो एक उदाहरण हुआ। ऐसे तो अनेक परिवर्तन हमें करने होंगे।
 
* ऐसा करते समय हमें पश्चिम की शिक्षाक्षेत्र की शब्दावलियों से भी मुक्त होना होगा। उदाहरण के लिये हम क्रमशः प्राथमिक, माध्यमिक, उच्चशिक्षा ऐसी शब्दावली का प्रयोग करते हैं। इन की आयु सीमा भी लगभग निश्चित है । परन्तु ऐसी शब्दावली का क्या प्रयोजन है ? क्या अर्थ है ? कभी कभी प्राथमिक को प्रारम्भिक भी कहा जाता है। ऐसे सन्दर्भहीन और यान्त्रिक शब्दों के स्थान पर सार्थक शब्दों का प्रयोग करना चाहिये । भारत में आयु की अवस्था के अनुसार शिक्षा योजना होती है। जैसे कि शिशुअवस्था, बालअवस्था, किशोरअवस्था आदि । यह विभाजन मनोवैज्ञानिक है । हर अवस्था के अपने लक्षण, स्वभाव, क्षमतायें आवश्यकतायें होती हैं। उसके अनुसार उस अवस्था की शिक्षा की योजना की जाती है । यह एक सार्थक विभाजन है । यह तो एक उदाहरण हुआ। ऐसे तो अनेक परिवर्तन हमें करने होंगे।
अंग्रेजी और पश्चिमी शब्दप्रयोगों का हिन्दी या भारतीय भाषाओं में अनुवाद करने मात्र से विचार भारतीय नहीं हो जाता। उदाहरण के लिये 'एकेडेमिक डिस्कोर्स' के स्थान पर हम 'अकादमिक चर्चा' शब्द प्रयोग करते हैं। परन्तु ‘अकादमिक चर्चा' का, क्या वही अर्थ होगा जो एकेडेमिक डिस्कोर्स का है ? और क्या हमें पश्चिमी पद्धति से ही शास्त्रार्थ करना होगा ? शास्त्रार्थ की क्या भारतीय पद्धति नहीं होती ? अनुसन्धान के मापदण्ड क्या वही रहेंगे जो पश्चिम के हैं ? वे हमारी विचार पद्धति के साथ कैसे मेल बिठा सकते हैं ? तात्पर्य यह है कि हमें सम्पूर्ण प्रतिमान ही नये से गढना होगा। प्रतिमान गढते समय हमें बीच के पाँचसौ वर्ष भुलाकर अपने प्राचीन ज्ञान, पद्धति, प्रक्रिया आदि के साथ सन्धान करना होगा । उस अपने प्रतिमान को समझ कर, उसके साथ सन्धान कर वर्तमान युग में वापस आना होगा जहाँ पश्चिम के प्रभाव का ग्रहण हमें लगा हुआ है। अपने स्रोतों से किया हुआ सन्धान हमें पश्चिम के राहु से मुक्त करेगा।  
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अंग्रेजी और पश्चिमी शब्दप्रयोगों का हिन्दी या भारतीय भाषाओं में अनुवाद करने मात्र से विचार भारतीय नहीं हो जाता। उदाहरण के लिये 'एकेडेमिक डिस्कोर्स' के स्थान पर हम 'अकादमिक चर्चा' शब्द प्रयोग करते हैं। परन्तु ‘अकादमिक चर्चा' का, क्या वही अर्थ होगा जो एकेडेमिक डिस्कोर्स का है ? और क्या हमें पश्चिमी पद्धति से ही शास्त्रार्थ करना होगा ? शास्त्रार्थ की क्या भारतीय पद्धति नहीं होती ? अनुसन्धान के मापदण्ड क्या वही रहेंगे जो पश्चिम के हैं ? वे हमारी विचार पद्धति के साथ कैसे मेल बिठा सकते हैं ? तात्पर्य यह है कि हमें सम्पूर्ण प्रतिमान ही नये से गढना होगा। प्रतिमान गढते समय हमें मध्य के पाँचसौ वर्ष भुलाकर अपने प्राचीन ज्ञान, पद्धति, प्रक्रिया आदि के साथ सन्धान करना होगा । उस अपने प्रतिमान को समझ कर, उसके साथ सन्धान कर वर्तमान युग में वापस आना होगा जहाँ पश्चिम के प्रभाव का ग्रहण हमें लगा हुआ है। अपने स्रोतों से किया हुआ सन्धान हमें पश्चिम के राहु से मुक्त करेगा।  
 
* नई और स्वतन्त्र शिक्षा योजना बनाते समय हमें शिक्षा के सार्वत्रिक आलम्बन निश्चित करने होंगे। मुख्य रूप से दो बातों का विचार करना होगा।
 
* नई और स्वतन्त्र शिक्षा योजना बनाते समय हमें शिक्षा के सार्वत्रिक आलम्बन निश्चित करने होंगे। मुख्य रूप से दो बातों का विचार करना होगा।
 
एक यह कि हमें चरित्रनिर्माण को समस्त शिक्षायोजना का आधार बनाना होगा । चरित्रनिर्माण जैसी महत्त्वपूर्ण बात वर्तमान शिक्षायोजना से नदारद है । इससे अब लोग चिन्तित तो होने लगे हैं परन्तु कोई परिणामकारी उपाय करने में किसी को यश नहीं मिल रहा है । चरित्रनिर्माण की शिक्षा को भिन्न भिन्न प्रकार से कहते हैं। कोई जीवनमूल्यों की शिक्षा कहते हैं तो कोई मूल्यशिक्षा । यह अंग्रेजी शब्द 'वेल्यू एज्युकेशन' का अनुवाद है । कोई इसे नैतिक शिक्षा कहते हैं । विद्याभारती जैसे संगठन इसे नैतिक आध्यात्मिक शिक्षा कहते हैं। कोई इसे अच्छे मनुष्य बनने की शिक्षा कहते हैं । ये सभी नाम सही होने पर भी भारत में इसके लिये अत्यन्त समर्पक शब्द है 'धर्म शिक्षा' । आज अनेक कारणों से 'धर्म' का नाम लेने में सब संकोच करते हैं इसलिये दूसरे शब्दों का प्रयोग करते हैं । परन्तु धर्मप्राण भारत में धर्म का नाम लेने में संकोच की स्थिति का ही प्रथम तो सामना करना चाहिये । 'धर्म' संज्ञा को विवादों से मुक्त करने का बीडा ज्ञानक्षेत्र को उठाना चाहिये और विवादमुक्त धर्म को शिक्षा का आधार बनाना चाहिये । समग्न जीवन यदि धर्मनिष्ठ बनना है तो शिक्षा का प्रथम आलम्बन धर्मशिक्षा है । धर्मशिक्षा सभी के लिये अनिवार्य है। सभी स्तरों पर अनिवार्य है। सभी ज्ञानशाखाओं का आधार है। धर्म आचरण में उतरेगा तभी धर्मशिक्षा सार्थक होगी यह समझकर उसे सैद्धान्तिक से अधिक व्यावहारिक विषय बनाना चाहिये ।
 
एक यह कि हमें चरित्रनिर्माण को समस्त शिक्षायोजना का आधार बनाना होगा । चरित्रनिर्माण जैसी महत्त्वपूर्ण बात वर्तमान शिक्षायोजना से नदारद है । इससे अब लोग चिन्तित तो होने लगे हैं परन्तु कोई परिणामकारी उपाय करने में किसी को यश नहीं मिल रहा है । चरित्रनिर्माण की शिक्षा को भिन्न भिन्न प्रकार से कहते हैं। कोई जीवनमूल्यों की शिक्षा कहते हैं तो कोई मूल्यशिक्षा । यह अंग्रेजी शब्द 'वेल्यू एज्युकेशन' का अनुवाद है । कोई इसे नैतिक शिक्षा कहते हैं । विद्याभारती जैसे संगठन इसे नैतिक आध्यात्मिक शिक्षा कहते हैं। कोई इसे अच्छे मनुष्य बनने की शिक्षा कहते हैं । ये सभी नाम सही होने पर भी भारत में इसके लिये अत्यन्त समर्पक शब्द है 'धर्म शिक्षा' । आज अनेक कारणों से 'धर्म' का नाम लेने में सब संकोच करते हैं इसलिये दूसरे शब्दों का प्रयोग करते हैं । परन्तु धर्मप्राण भारत में धर्म का नाम लेने में संकोच की स्थिति का ही प्रथम तो सामना करना चाहिये । 'धर्म' संज्ञा को विवादों से मुक्त करने का बीडा ज्ञानक्षेत्र को उठाना चाहिये और विवादमुक्त धर्म को शिक्षा का आधार बनाना चाहिये । समग्न जीवन यदि धर्मनिष्ठ बनना है तो शिक्षा का प्रथम आलम्बन धर्मशिक्षा है । धर्मशिक्षा सभी के लिये अनिवार्य है। सभी स्तरों पर अनिवार्य है। सभी ज्ञानशाखाओं का आधार है। धर्म आचरण में उतरेगा तभी धर्मशिक्षा सार्थक होगी यह समझकर उसे सैद्धान्तिक से अधिक व्यावहारिक विषय बनाना चाहिये ।
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भारत के विश्वकल्याण के महान अभियान के लिये केवल एक करोड अस्सी लाख लोगों की ही आवश्यकता है। देश में अभी ६६५ विश्वविद्यालय हैं। इनमें से दो करोड विद्यार्थियों और अध्यापकों को चयन करना कोई बहुत कठिन तो नहीं है। केवल तय करने की आवश्यकता है।  
 
भारत के विश्वकल्याण के महान अभियान के लिये केवल एक करोड अस्सी लाख लोगों की ही आवश्यकता है। देश में अभी ६६५ विश्वविद्यालय हैं। इनमें से दो करोड विद्यार्थियों और अध्यापकों को चयन करना कोई बहुत कठिन तो नहीं है। केवल तय करने की आवश्यकता है।  
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परन्तु तय कौन करे यह समस्या है। वर्तमान में देश की शिक्षा राज्य के अर्थात् शासन के हाथ में है। राज्य शिक्षाक्षेत्र में ऐसा कोई साहस दिखा नहीं सकता, उसकी अपनी ही अनेक मर्यादायें हैं । बन्धन हैं। यदि राज्य नहीं करता तो उच्च शिक्षा का क्षेत्र ही यह तय करे । इसकी सीमा यह है कि शासन के निर्देश और अनुमति के बिना वे कर नहीं सकते । दोनो होने के बाद अध्यापकों की इच्छाशक्ति चाहिये । आज तो इसकी कल्पना करना कठिन है । विश्वविद्यालयों को साथ में जोडते हुए संगठित करने वाली कोई रचना नहीं है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग सभी विश्वविद्यालयों को अपने साथ जोडे रखता है। परन्तु यह आर्थिक पक्ष ही देखता है । यदि सरकार इसे विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग बनाकर इसे शैक्षिक संगठन का रूप दे और इसका एकमात्र कार्य शिक्षा को भारतीय बनाने का ही निश्चित किया जाय तो स्थिति बदलनी शुरू हो सकती है। दूसरी एक आशा है देश में चल रहे अखिल भारतीय स्तर के शैक्षिक और सांस्कृतिक - धार्मिक संगठनों से । धर्म और शिक्षा एक साथ मिलकर भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा करना निश्चित कर लें तो यह कार्य हो सकता है। डेढ सौ वर्षों से राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन विविध स्वरूपों में चल रहा है । सफलता और असफलता के बीच झूल रहा है । डेढ सौ वर्षों के अनुभवों से सीखकर, वर्तमान समय का आकलन कर यदि संगठित होकर शिक्षा योजना बनाई जाय और इसमें शासन का भी सहयोग प्राप्त हो तो प्रजा का अनुकूल होना कठिन नहीं है, बल्कि प्रजा तो ऐसी किसी योजना का स्वागत करने हेतु तत्पर है। शिक्षा के ज्ञानात्मक पक्ष का संक्षेप में विचार कर अब हम दूसरे व्यवस्थाकीय पहलू का विचार करेंगे।
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परन्तु तय कौन करे यह समस्या है। वर्तमान में देश की शिक्षा राज्य के अर्थात् शासन के हाथ में है। राज्य शिक्षाक्षेत्र में ऐसा कोई साहस दिखा नहीं सकता, उसकी अपनी ही अनेक मर्यादायें हैं । बन्धन हैं। यदि राज्य नहीं करता तो उच्च शिक्षा का क्षेत्र ही यह तय करे । इसकी सीमा यह है कि शासन के निर्देश और अनुमति के बिना वे कर नहीं सकते । दोनो होने के बाद अध्यापकों की इच्छाशक्ति चाहिये । आज तो इसकी कल्पना करना कठिन है । विश्वविद्यालयों को साथ में जोडते हुए संगठित करने वाली कोई रचना नहीं है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग सभी विश्वविद्यालयों को अपने साथ जोडे रखता है। परन्तु यह आर्थिक पक्ष ही देखता है । यदि सरकार इसे विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग बनाकर इसे शैक्षिक संगठन का रूप दे और इसका एकमात्र कार्य शिक्षा को भारतीय बनाने का ही निश्चित किया जाय तो स्थिति बदलनी शुरू हो सकती है। दूसरी एक आशा है देश में चल रहे अखिल भारतीय स्तर के शैक्षिक और सांस्कृतिक - धार्मिक संगठनों से । धर्म और शिक्षा एक साथ मिलकर भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा करना निश्चित कर लें तो यह कार्य हो सकता है। डेढ सौ वर्षों से राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन विविध स्वरूपों में चल रहा है । सफलता और असफलता के मध्य झूल रहा है । डेढ सौ वर्षों के अनुभवों से सीखकर, वर्तमान समय का आकलन कर यदि संगठित होकर शिक्षा योजना बनाई जाय और इसमें शासन का भी सहयोग प्राप्त हो तो प्रजा का अनुकूल होना कठिन नहीं है, बल्कि प्रजा तो ऐसी किसी योजना का स्वागत करने हेतु तत्पर है। शिक्षा के ज्ञानात्मक पक्ष का संक्षेप में विचार कर अब हम दूसरे व्यवस्थाकीय पहलू का विचार करेंगे।
    
==== ३. शिक्षा का व्यवसायात्मक पक्ष ====
 
==== ३. शिक्षा का व्यवसायात्मक पक्ष ====

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