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* वर्तमान में भौतिक विज्ञान, तन्त्रज्ञान, प्रबन्धन, प्रौद्योगिकी, संगणक आदि विद्याशाखाओं का महत्त्व बढ गया है। व्यक्ति के और समाज के जीवन पर इसका गहरा विपरीत प्रभाव होता है। हमें समझना चाहिये कि आज जिन्हें हम सामाजिक विज्ञान कहते हैं, परन्तु भारत की भाषा में जिन्हें सांस्कृतिक कहा जाना चाहिये, ऐसे विषयों का अध्ययन केन्द्रवर्ती बनना चाहिये, विज्ञान आदि सांस्कृतिक अध्ययन के अंग के रूप में ही हो सकते हैं । उदाहरण के लिये भारत में आयुर्विज्ञान (मेडिकल सायन्स) आयुर्वेद है और आत्मा की चर्चा के बिना उसका अध्ययन नहीं होता । राजनीति की चर्चा धर्म के बिना नहीं होती, तन्त्रज्ञान संस्कृति और समाज के अविरोधी होता है । इस प्रकार संस्कृति को केन्द्रस्थान में रखकर समस्त ज्ञानक्षेत्र की रचना करनी होगी।
 
* वर्तमान में भौतिक विज्ञान, तन्त्रज्ञान, प्रबन्धन, प्रौद्योगिकी, संगणक आदि विद्याशाखाओं का महत्त्व बढ गया है। व्यक्ति के और समाज के जीवन पर इसका गहरा विपरीत प्रभाव होता है। हमें समझना चाहिये कि आज जिन्हें हम सामाजिक विज्ञान कहते हैं, परन्तु भारत की भाषा में जिन्हें सांस्कृतिक कहा जाना चाहिये, ऐसे विषयों का अध्ययन केन्द्रवर्ती बनना चाहिये, विज्ञान आदि सांस्कृतिक अध्ययन के अंग के रूप में ही हो सकते हैं । उदाहरण के लिये भारत में आयुर्विज्ञान (मेडिकल सायन्स) आयुर्वेद है और आत्मा की चर्चा के बिना उसका अध्ययन नहीं होता । राजनीति की चर्चा धर्म के बिना नहीं होती, तन्त्रज्ञान संस्कृति और समाज के अविरोधी होता है । इस प्रकार संस्कृति को केन्द्रस्थान में रखकर समस्त ज्ञानक्षेत्र की रचना करनी होगी।
 
एक अत्यन्त विचित्र और हास्यास्पद बात को हमें तुरन्त बदलना होगा। वाणिज्य विज्ञान या तन्त्रज्ञान पढने वाले को संस्कृत की गन्ध भी नहीं होती। भारतीय जीवनदृष्टि, संस्कृति, इतिहास, वेद, धर्म, भगवद्गीता, ज्ञान और पराक्रमी पूर्वज आदि के बारे में लेशमात्र जानकारी नहीं होती। वे पूर्णरूप से संस्कृति के कटे हुए रहते हैं। अतः आज का विनयन अथवा कलाशाखा, वाणिज्य, तन्त्रज्ञान, विज्ञान आदि विभाजनों को मिटाकर सभी विषयों का सांस्कृतिक आधार पक्का बनाकर, एकदूसरे के साथ उचित समायोजन कर पुनर्रचना करनी होगी।  
 
एक अत्यन्त विचित्र और हास्यास्पद बात को हमें तुरन्त बदलना होगा। वाणिज्य विज्ञान या तन्त्रज्ञान पढने वाले को संस्कृत की गन्ध भी नहीं होती। भारतीय जीवनदृष्टि, संस्कृति, इतिहास, वेद, धर्म, भगवद्गीता, ज्ञान और पराक्रमी पूर्वज आदि के बारे में लेशमात्र जानकारी नहीं होती। वे पूर्णरूप से संस्कृति के कटे हुए रहते हैं। अतः आज का विनयन अथवा कलाशाखा, वाणिज्य, तन्त्रज्ञान, विज्ञान आदि विभाजनों को मिटाकर सभी विषयों का सांस्कृतिक आधार पक्का बनाकर, एकदूसरे के साथ उचित समायोजन कर पुनर्रचना करनी होगी।  
* ऐसा करते समय हमें पश्चिम की शिक्षाक्षेत्र की शब्दावलियों से भी मुक्त होना होगा। उदाहरण के लिये हम क्रमशः प्राथमिक, माध्यमिक, उच्चशिक्षा ऐसी शब्दावली का प्रयोग करते हैं। इन की आयु सीमा भी लगभग निश्चित है । परन्तु ऐसी शब्दावली का क्या प्रयोजन है ? क्या अर्थ है ? कभी कभी
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* ऐसा करते समय हमें पश्चिम की शिक्षाक्षेत्र की शब्दावलियों से भी मुक्त होना होगा। उदाहरण के लिये हम क्रमशः प्राथमिक, माध्यमिक, उच्चशिक्षा ऐसी शब्दावली का प्रयोग करते हैं। इन की आयु सीमा भी लगभग निश्चित है । परन्तु ऐसी शब्दावली का क्या प्रयोजन है ? क्या अर्थ है ? कभी कभी प्राथमिक को प्रारम्भिक भी कहा जाता है। ऐसे सन्दर्भहीन और यान्त्रिक शब्दों के स्थान पर सार्थक शब्दों का प्रयोग करना चाहिये । भारत में आयु की अवस्था के अनुसार शिक्षा योजना होती है। जैसे कि शिशुअवस्था, बालअवस्था, किशोरअवस्था आदि । यह विभाजन मनोवैज्ञानिक है । हर अवस्था के अपने लक्षण, स्वभाव, क्षमतायें आवश्यकतायें होती हैं। उसके अनुसार उस अवस्था की शिक्षा की योजना की जाती है । यह एक सार्थक विभाजन है । यह तो एक उदाहरण हुआ। ऐसे तो अनेक परिवर्तन हमें करने होंगे।
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अंग्रेजी और पश्चिमी शब्दप्रयोगों का हिन्दी या भारतीय भाषाओं में अनुवाद करने मात्र से विचार भारतीय नहीं हो जाता। उदाहरण के लिये 'एकेडेमिक डिस्कोर्स' के स्थान पर हम 'अकादमिक चर्चा' शब्द प्रयोग करते हैं। परन्तु ‘अकादमिक चर्चा' का, क्या वही अर्थ होगा जो एकेडेमिक डिस्कोर्स का है ? और क्या हमें पश्चिमी पद्धति से ही शास्त्रार्थ करना होगा ? शास्त्रार्थ की क्या भारतीय पद्धति नहीं होती ? अनुसन्धान के मापदण्ड क्या वही रहेंगे जो पश्चिम के हैं ? वे हमारी विचार पद्धति के साथ कैसे मेल बिठा सकते हैं ? तात्पर्य यह है कि हमें सम्पूर्ण प्रतिमान ही नये से गढना होगा। प्रतिमान गढते समय हमें बीच के पाँचसौ वर्ष भुलाकर अपने प्राचीन ज्ञान, पद्धति, प्रक्रिया आदि के साथ सन्धान करना होगा । उस अपने प्रतिमान को समझ कर, उसके साथ सन्धान कर वर्तमान युग में वापस आना होगा जहाँ पश्चिम के प्रभाव का ग्रहण हमें लगा हुआ है। अपने स्रोतों से किया हुआ सन्धान हमें पश्चिम के राहु से मुक्त करेगा।
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* नई और स्वतन्त्र शिक्षा योजना बनाते समय हमें शिक्षा के सार्वत्रिक आलम्बन निश्चित करने होंगे। मुख्य रूप से दो बातों का विचार करना होगा।
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एक यह कि हमें चरित्रनिर्माण को समस्त शिक्षायोजना का आधार बनाना होगा । चरित्रनिर्माण जैसी महत्त्वपूर्ण बात वर्तमान शिक्षायोजना से नदारद है । इससे अब लोग चिन्तित तो होने लगे हैं परन्तु कोई परिणामकारी उपाय करने में किसी को यश नहीं मिल रहा है । चरित्रनिर्माण की शिक्षा को भिन्न भिन्न प्रकार से कहते हैं। कोई जीवनमूल्यों की शिक्षा कहते हैं तो कोई मूल्यशिक्षा । यह अंग्रेजी शब्द 'वेल्यू एज्युकेशन' का अनुवाद है । कोई इसे नैतिक शिक्षा कहते हैं । विद्याभारती जैसे संगठन इसे नैतिक आध्यात्मिक शिक्षा कहते हैं। कोई इसे अच्छे मनुष्य बनने की शिक्षा कहते हैं । ये सभी नाम सही होने पर भी भारत में इसके लिये अत्यन्त समर्पक शब्द है 'धर्म शिक्षा' । आज अनेक कारणों से 'धर्म' का नाम लेने में सब संकोच करते हैं इसलिये दूसरे शब्दों का प्रयोग करते हैं । परन्तु धर्मप्राण भारत में धर्म का नाम लेने में संकोच की स्थिति का ही प्रथम तो सामना करना चाहिये । 'धर्म' संज्ञा को विवादों से मुक्त करने का बीडा ज्ञानक्षेत्र को उठाना चाहिये और विवादमुक्त धर्म को शिक्षा का आधार बनाना चाहिये । समग्न जीवन यदि धर्मनिष्ठ बनना है तो शिक्षा का प्रथम आलम्बन धर्मशिक्षा है । धर्मशिक्षा सभी के लिये अनिवार्य है। सभी स्तरों पर अनिवार्य है। सभी ज्ञानशाखाओं का आधार है। धर्म आचरण में उतरेगा तभी धर्मशिक्षा सार्थक होगी यह समझकर उसे सैद्धान्तिक से अधिक व्यावहारिक विषय बनाना चाहिये ।
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किसी भी विषय के प्रगत अध्ययन के लिये प्रवेश हेतु अनिवार्य योग्यता होनी चाहिये । विनयी, संयमी, सत्यवादी, सेवाभावी, राष्ट्रभक्त और दायित्वबोध से युक्त नहीं है ऐसे व्यक्तिको उच्च शिक्षा का अधिकार ही नहीं दिया जाना चाहिये । इसका अर्थ यह भी है कि किशोर अवस्था तक इन सारे गुणों की उत्तम शिक्षा विद्यार्थी को घर में और विद्यालय में मिलनी चाहिये।
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दूसरा आलम्बन है काम करना सिखाना। इसे कर्मशिक्षा कहते हैं । यद्यपि यह अर्थार्जन से सम्बन्ध रखता है तो भी केवल अर्थार्जन ही इसका उद्देश्य नहीं है। क्रिया के बिना ज्ञान । की सार्थकता नहीं है । क्रिया के बिना कुशलता का विकास नहीं होता है। क्रिया के बिना बदि निर्माणशील और चित्त सृजनशील नहीं बनते हैं। क्रिया के बिना अत्कृष्टता और निपुणता नहीं आती है । अतः केवल कर्मेन्द्रियों की कुशलता हेतु ही नहीं तो ज्ञानेन्द्रियों की संवेदनशक्ति, मन की भावनाशक्ति, बुद्धि की कल्पनाशक्ति और निर्माणक्षमता तथा चित्त की सृजनशीलता का विकास नहीं होता । इन सबके परिणाम स्वरूप जो आत्मसन्तोष, आनन्द, प्रसन्नता आदि का अनुभव होता है उससे ही व्यक्ति वंचित रह जाता है। ऐसे व्यक्तियों का बना समाज यान्त्रिक और रुक्ष बनता है। ऐसे लोगों के नृत्य, गीत, संगीत भी निम्न स्तर के ही होते हैं । रसिकता, सौन्दयोध, अभिव्यक्ति भी साधारण ही होते हैं । हाँ, जिसे कभी ऐसी बातों का अनुभव ही न हुआ हो । उसे उससे वंचित रहने का दुःख भी नहीं होता । परन्तु मनुष्य ऐसे उच्चकोटी के अनुभवों के लायक है ही। उसे लायक बनाना भी चाहिये । इसके लिये कर्मशिक्षा आवश्यक है।
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कर्मशिक्षा का अर्थ है काम करना सिखाना । जीवन में असंख्य प्रकार के काम होते हैं। उठना, बैठना, खडे रहना, चलना आदि से लेकर सफाई करना, पुडिया बाँधना, बिस्तर लगाना, भोजन बनाना से लेकर फर्नीचर बनाना, रास्ते बनाना, मकान बनाना से लेकर वस्त्र बनाना, खेती करना, विभिन्न प्रकार के पात्र बनाना तक के असंख्य काम होते हैं। अपनी रुचि, आवश्यकता और क्षमता के अनुसार हर व्यक्ति को काम करना चाहिये, काम सीखना चाहिये ।
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जिस प्रकार हर व्यक्ति के लिये धर्मशिक्षा अनिवार्य है उस प्रकार अधिकांश लोगों के लिये काम करना अनिवार्य है । काम सीखना तो सबके लिये अनिवार्य है परन्तु कुछ व्यक्तियों को काम करने से आवश्यकता के अनुसार मुक्ति मिल सकती है । उदाहरण के लिये घर में युवा सन्तानें हों तो वृद्धों को, गुरुकुल में विद्यार्थी हों तो गुरु को, रुग्णों को, अपाहिजों को, दुर्बलों को काम करने से मुक्ति मिल सकती है । शेष सबको तो काम करना ही है।
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व्यक्ति का और राष्ट्र का अर्थार्जन और अर्थोत्पादन काम के अनुपात में ही होना चाहिये । यदि काम कम कर यन्त्रों के सहारे अधिक उत्पादन शुरू किया तो सम्पूर्ण विश्व में अर्थसंकट पैदा होता है, इतना ही नहीं तो राष्ट्रों राष्ट्रों में विषमता बढ़ती है। शोषण, भ्रष्टाचार, भुखमरी, बेरोजगारी, दारिद्य जैसे सारे अर्थसंकट निर्माण होते हैं। आज वही हो रहा है। परन्तु धर्मशिक्षा और कर्मशिक्षा के अभाव में यह समझ में ही नहीं आता कि कर्मसंस्कृति के अभाव से ये संकट पैदा हुए हैं। हमारी स्थिति ऐसी है कि हमें कर्म भी नहीं चाहिये और संकट भी नहीं चाहिये । परन्तु ऐसा होना असम्भव है ! कर्म नहीं करेंगे तो संकट बढेंगे ही और संकट से मुक्ति चाहिये तो कर्म अर्थात् काम तो करना ही होगा।
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वास्तव में काम करने में ही आनन्द का अनुभव हो ऐसी शिक्षा होनी चाहिये । भारत ने पूर्व में ऐसा अनुभव लिया ही है। कुम्हार, किसान, गारा तैयार करने वाला, वस्र बुनने वाला आदि कारीगर अपने काम के साथ गीत, नृत्य, कथा आदि को जोडते थे और काम का आनन्द लेते थे। जिसकी धर्मशिक्षा और कर्मशिक्षा अच्छी हुई है उसे ही शास्त्रों के अध्ययन का अधिकार है । वास्तव में शास्त्रशिक्षा को लेकर हमें साहस या धृष्टता दिखानी पडेगी । धर्मशिक्षा सबके लिये अनिवार्य है, कर्मशिक्षा अधिकांश के लिये अनिवार्य है परन्तु शास्रशिक्षा न तो सबके लिये अनिवार्य है न आवश्यक । वास्तव में समाज के पाँच या दस प्रतिशत लोगों के लिये ही शास्त्रशिक्षा आवश्यक है। सबके लिये शास्रशिक्षा का निषेध नहीं है परन्तु शास्रशिक्षा को लेकर कुछ बातों की स्पष्टता होनी चाहिये ।
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१. जो जिज्ञासु है, तत्पर है, सब कुछ छोडकर, अर्थात् सुखवैभव को छोडकर शास्त्रों का अध्ययन करने के लिये तैयार होता है वही शास्त्रशिक्षा ग्रहण कर सकता है।
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शास्त्रों का अध्ययन करनेवाले उसमें युगानुकूल परिवर्तन करनेवाले, लोकव्यवहार को शास्त्रों के
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आधार पर परिष्कृत करने वाले और नये शास्रों की रचना हेतु तपश्चर्या करने वाले ही शास्त्रों का अध्ययन करें यह उचित है । वर्तमान में ऐसे लोगों के अभाव में उच्च शिक्षा की जो दुर्दशा हमने की है वह समय, शक्ति, बुद्धि, धन, अन्य संसाधन आदि का आपराधिक अपव्यय है । इससे न शास्त्र को लाभ है न समाज को न पढने वाले को । परन्तु हमने मोह की पट्टी बाँध रखी है इसलिये प्राथमिक विद्यालयों की तरह महाविद्यालय भी खोलते जा रहे हैं । देश का युवाधन निष्क्रिय निधार्मिक और अज्ञानी रहकर निरुपयोगी हो जाता है।
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इसलिये शास्रशिक्षा के बारे में हमें पुनर्विचार करना चाहिये । एक सौ पचीस करोड के देश में दस प्रतिशत के हिसाब से बारह करोड पचास लाख और पाँच प्रतिशत के हिसाब से छ: करोड पचीस लाख लोग शास्रों से परिचत होने चाहिये । कुल जनसंख्या के यदि एक चौथाई हम विद्यार्थी मान लें तो लगभग ३६ करोड विद्यार्थी होंगे। उनका पाँच प्रतिशत शास्रों की शिक्षा हेतु योग्य समझें तो हमें १ करोड अस्सी लाख और दस प्रतिशत लें तो तीन करोड साठ लाख छात्रों के लिये उच्च शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी। उच्च शिक्षा के लिये इतने छात्र देना किशोर अवस्ता की शिक्षा का दायित्व है। यदि इतने भी छात्र वास्तव में उच्च शिक्षा हेतु न आयें तो आज के प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों की विफलता मानी जानी चाहिये । परन्तु शास्रशिक्षा के लिये योग्य नहीं हैं ऐसे लोगों ने शास्रों का अध्ययन नहीं करना चाहिये।
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देश में अध्ययन, अनुसन्धान, शास्त्रपरिष्कृति, शास्रों की रचना, साहित्य का निर्माण, ज्ञानक्षेत्र को समृद्ध बनाना, प्रजा और राज्य का परामर्शक बनना,
    
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