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किसी भी विषय के प्रगत अध्ययन के लिये प्रवेश हेतु अनिवार्य योग्यता होनी चाहिये । विनयी, संयमी, सत्यवादी, सेवाभावी, राष्ट्रभक्त और दायित्वबोध से युक्त नहीं है ऐसे व्यक्तिको उच्च शिक्षा का अधिकार ही नहीं दिया जाना चाहिये । इसका अर्थ यह भी है कि किशोर अवस्था तक इन सारे गुणों की उत्तम शिक्षा विद्यार्थी को घर में और विद्यालय में मिलनी चाहिये।
 
किसी भी विषय के प्रगत अध्ययन के लिये प्रवेश हेतु अनिवार्य योग्यता होनी चाहिये । विनयी, संयमी, सत्यवादी, सेवाभावी, राष्ट्रभक्त और दायित्वबोध से युक्त नहीं है ऐसे व्यक्तिको उच्च शिक्षा का अधिकार ही नहीं दिया जाना चाहिये । इसका अर्थ यह भी है कि किशोर अवस्था तक इन सारे गुणों की उत्तम शिक्षा विद्यार्थी को घर में और विद्यालय में मिलनी चाहिये।
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दूसरा आलम्बन है काम करना सिखाना। इसे कर्मशिक्षा कहते हैं । यद्यपि यह अर्थार्जन से सम्बन्ध रखता है तो भी केवल अर्थार्जन ही इसका उद्देश्य नहीं है। क्रिया के बिना ज्ञान । की सार्थकता नहीं है । क्रिया के बिना कुशलता का विकास नहीं होता है। क्रिया के बिना बदि निर्माणशील और चित्त सृजनशील नहीं बनते हैं। क्रिया के बिना अत्कृष्टता और निपुणता नहीं आती है । अतः केवल कर्मेन्द्रियों की कुशलता हेतु ही नहीं तो ज्ञानेन्द्रियों की संवेदनशक्ति, मन की भावनाशक्ति, बुद्धि की कल्पनाशक्ति और निर्माणक्षमता तथा चित्त की सृजनशीलता का विकास नहीं होता । इन सबके परिणाम स्वरूप जो आत्मसन्तोष, आनन्द, प्रसन्नता आदि का अनुभव होता है उससे ही व्यक्ति वंचित रह जाता है। ऐसे व्यक्तियों का बना समाज यान्त्रिक और रुक्ष बनता है। ऐसे लोगों के नृत्य, गीत, संगीत भी निम्न स्तर के ही होते हैं । रसिकता, सौन्दयोध, अभिव्यक्ति भी साधारण ही होते हैं । हाँ, जिसे कभी ऐसी बातों का अनुभव ही न हुआ हो । उसे उससे वंचित रहने का दुःख भी नहीं होता । परन्तु मनुष्य ऐसे उच्चकोटी के अनुभवों के लायक है ही। उसे लायक बनाना भी चाहिये । इसके लिये कर्मशिक्षा आवश्यक है।
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दूसरा आलम्बन है काम करना सिखाना। इसे कर्मशिक्षा कहते हैं । यद्यपि यह अर्थार्जन से सम्बन्ध रखता है तो भी केवल अर्थार्जन ही इसका उद्देश्य नहीं है। क्रिया के बिना ज्ञान । की सार्थकता नहीं है । क्रिया के बिना कुशलता का विकास नहीं होता है। क्रिया के बिना बदि निर्माणशील और चित्त सृजनशील नहीं बनते हैं। क्रिया के बिना अत्कृष्टता और निपुणता नहीं आती है । अतः केवल कर्मेन्द्रियों की कुशलता हेतु ही नहीं तो ज्ञानेन्द्रियों की संवेदनशक्ति, मन की भावनाशक्ति, बुद्धि की कल्पनाशक्ति और निर्माणक्षमता तथा चित्त की सृजनशीलता का विकास नहीं होता । इन सबके परिणाम स्वरूप जो आत्मसन्तोष, आनन्द, प्रसन्नता आदि का अनुभव होता है उससे ही व्यक्ति वंचित रह जाता है। ऐसे व्यक्तियों का बना समाज यान्त्रिक और रुक्ष बनता है। ऐसे लोगोंं के नृत्य, गीत, संगीत भी निम्न स्तर के ही होते हैं । रसिकता, सौन्दयोध, अभिव्यक्ति भी साधारण ही होते हैं । हाँ, जिसे कभी ऐसी बातों का अनुभव ही न हुआ हो । उसे उससे वंचित रहने का दुःख भी नहीं होता । परन्तु मनुष्य ऐसे उच्चकोटी के अनुभवों के लायक है ही। उसे लायक बनाना भी चाहिये । इसके लिये कर्मशिक्षा आवश्यक है।
    
कर्मशिक्षा का अर्थ है काम करना सिखाना । जीवन में असंख्य प्रकार के काम होते हैं। उठना, बैठना, खडे रहना, चलना आदि से लेकर सफाई करना, पुडिया बाँधना, बिस्तर लगाना, भोजन बनाना से लेकर फर्नीचर बनाना, रास्ते बनाना, मकान बनाना से लेकर वस्त्र बनाना, खेती करना, विभिन्न प्रकार के पात्र बनाना तक के असंख्य काम होते हैं। अपनी रुचि, आवश्यकता और क्षमता के अनुसार हर व्यक्ति को काम करना चाहिये, काम सीखना चाहिये ।
 
कर्मशिक्षा का अर्थ है काम करना सिखाना । जीवन में असंख्य प्रकार के काम होते हैं। उठना, बैठना, खडे रहना, चलना आदि से लेकर सफाई करना, पुडिया बाँधना, बिस्तर लगाना, भोजन बनाना से लेकर फर्नीचर बनाना, रास्ते बनाना, मकान बनाना से लेकर वस्त्र बनाना, खेती करना, विभिन्न प्रकार के पात्र बनाना तक के असंख्य काम होते हैं। अपनी रुचि, आवश्यकता और क्षमता के अनुसार हर व्यक्ति को काम करना चाहिये, काम सीखना चाहिये ।
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जिस प्रकार हर व्यक्ति के लिये धर्मशिक्षा अनिवार्य है उस प्रकार अधिकांश लोगों के लिये काम करना अनिवार्य है । काम सीखना तो सबके लिये अनिवार्य है परन्तु कुछ व्यक्तियों को काम करने से आवश्यकता के अनुसार मुक्ति मिल सकती है । उदाहरण के लिये घर में युवा सन्तानें हों तो वृद्धों को, गुरुकुल में विद्यार्थी हों तो गुरु को, रुग्णों को, अपाहिजों को, दुर्बलों को काम करने से मुक्ति मिल सकती है । शेष सबको तो काम करना ही है।
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जिस प्रकार हर व्यक्ति के लिये धर्मशिक्षा अनिवार्य है उस प्रकार अधिकांश लोगोंं के लिये काम करना अनिवार्य है । काम सीखना तो सबके लिये अनिवार्य है परन्तु कुछ व्यक्तियों को काम करने से आवश्यकता के अनुसार मुक्ति मिल सकती है । उदाहरण के लिये घर में युवा सन्तानें हों तो वृद्धों को, गुरुकुल में विद्यार्थी हों तो गुरु को, रुग्णों को, अपाहिजों को, दुर्बलों को काम करने से मुक्ति मिल सकती है । शेष सबको तो काम करना ही है।
    
व्यक्ति का और राष्ट्र का अर्थार्जन और अर्थोत्पादन काम के अनुपात में ही होना चाहिये । यदि काम कम कर यन्त्रों के सहारे अधिक उत्पादन आरम्भ किया तो सम्पूर्ण विश्व में अर्थसंकट पैदा होता है, इतना ही नहीं तो राष्ट्रों राष्ट्रों में विषमता बढ़ती है। शोषण, भ्रष्टाचार, भुखमरी, बेरोजगारी, दारिद्य जैसे सारे अर्थसंकट निर्माण होते हैं। आज वही हो रहा है। परन्तु धर्मशिक्षा और कर्मशिक्षा के अभाव में यह समझ में ही नहीं आता कि कर्मसंस्कृति के अभाव से ये संकट पैदा हुए हैं। हमारी स्थिति ऐसी है कि हमें कर्म भी नहीं चाहिये और संकट भी नहीं चाहिये । परन्तु ऐसा होना असम्भव है ! कर्म नहीं करेंगे तो संकट बढेंगे ही और संकट से मुक्ति चाहिये तो कर्म अर्थात् काम तो करना ही होगा।
 
व्यक्ति का और राष्ट्र का अर्थार्जन और अर्थोत्पादन काम के अनुपात में ही होना चाहिये । यदि काम कम कर यन्त्रों के सहारे अधिक उत्पादन आरम्भ किया तो सम्पूर्ण विश्व में अर्थसंकट पैदा होता है, इतना ही नहीं तो राष्ट्रों राष्ट्रों में विषमता बढ़ती है। शोषण, भ्रष्टाचार, भुखमरी, बेरोजगारी, दारिद्य जैसे सारे अर्थसंकट निर्माण होते हैं। आज वही हो रहा है। परन्तु धर्मशिक्षा और कर्मशिक्षा के अभाव में यह समझ में ही नहीं आता कि कर्मसंस्कृति के अभाव से ये संकट पैदा हुए हैं। हमारी स्थिति ऐसी है कि हमें कर्म भी नहीं चाहिये और संकट भी नहीं चाहिये । परन्तु ऐसा होना असम्भव है ! कर्म नहीं करेंगे तो संकट बढेंगे ही और संकट से मुक्ति चाहिये तो कर्म अर्थात् काम तो करना ही होगा।
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वास्तव में काम करने में ही आनन्द का अनुभव हो ऐसी शिक्षा होनी चाहिये । भारत ने पूर्व में ऐसा अनुभव लिया ही है। कुम्हार, किसान, गारा तैयार करने वाला, वस्र बुनने वाला आदि कारीगर अपने काम के साथ गीत, नृत्य, कथा आदि को जोडते थे और काम का आनन्द लेते थे। जिसकी धर्मशिक्षा और कर्मशिक्षा अच्छी हुई है उसे ही शास्त्रों के अध्ययन का अधिकार है । वास्तव में शास्त्रशिक्षा को लेकर हमें साहस या धृष्टता दिखानी पडेगी । धर्मशिक्षा सबके लिये अनिवार्य है, कर्मशिक्षा अधिकांश के लिये अनिवार्य है परन्तु शास्त्रशिक्षा न तो सबके लिये अनिवार्य है न आवश्यक । वास्तव में समाज के पाँच या दस प्रतिशत लोगों के लिये ही शास्त्रशिक्षा आवश्यक है। सबके लिये शास्त्रशिक्षा का निषेध नहीं है परन्तु शास्त्रशिक्षा को लेकर कुछ बातों की स्पष्टता होनी चाहिये ।
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वास्तव में काम करने में ही आनन्द का अनुभव हो ऐसी शिक्षा होनी चाहिये । भारत ने पूर्व में ऐसा अनुभव लिया ही है। कुम्हार, किसान, गारा तैयार करने वाला, वस्र बुनने वाला आदि कारीगर अपने काम के साथ गीत, नृत्य, कथा आदि को जोडते थे और काम का आनन्द लेते थे। जिसकी धर्मशिक्षा और कर्मशिक्षा अच्छी हुई है उसे ही शास्त्रों के अध्ययन का अधिकार है । वास्तव में शास्त्रशिक्षा को लेकर हमें साहस या धृष्टता दिखानी पडेगी । धर्मशिक्षा सबके लिये अनिवार्य है, कर्मशिक्षा अधिकांश के लिये अनिवार्य है परन्तु शास्त्रशिक्षा न तो सबके लिये अनिवार्य है न आवश्यक । वास्तव में समाज के पाँच या दस प्रतिशत लोगोंं के लिये ही शास्त्रशिक्षा आवश्यक है। सबके लिये शास्त्रशिक्षा का निषेध नहीं है परन्तु शास्त्रशिक्षा को लेकर कुछ बातों की स्पष्टता होनी चाहिये ।
    
१. जो जिज्ञासु है, तत्पर है, सब कुछ छोडकर, अर्थात् सुखवैभव को छोडकर शास्त्रों का अध्ययन करने के लिये तैयार होता है वही शास्त्रशिक्षा ग्रहण कर सकता है।
 
१. जो जिज्ञासु है, तत्पर है, सब कुछ छोडकर, अर्थात् सुखवैभव को छोडकर शास्त्रों का अध्ययन करने के लिये तैयार होता है वही शास्त्रशिक्षा ग्रहण कर सकता है।
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शास्त्रों का अध्ययन करनेवाले उसमें युगानुकूल परिवर्तन करनेवाले, लोकव्यवहार को शास्त्रों के
 
शास्त्रों का अध्ययन करनेवाले उसमें युगानुकूल परिवर्तन करनेवाले, लोकव्यवहार को शास्त्रों के
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आधार पर परिष्कृत करने वाले और नये शास्त्रों की रचना हेतु तपश्चर्या करने वाले ही शास्त्रों का अध्ययन करें यह उचित है । वर्तमान में ऐसे लोगों के अभाव में उच्च शिक्षा की जो दुर्दशा हमने की है वह समय, शक्ति, बुद्धि, धन, अन्य संसाधन आदि का आपराधिक अपव्यय है । इससे न शास्त्र को लाभ है न समाज को न पढने वाले को । परन्तु हमने मोह की पट्टी बाँध रखी है इसलिये प्राथमिक विद्यालयों की तरह महाविद्यालय भी खोलते जा रहे हैं । देश का युवाधन निष्क्रिय निधार्मिक और अज्ञानी रहकर निरुपयोगी हो जाता है।
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आधार पर परिष्कृत करने वाले और नये शास्त्रों की रचना हेतु तपश्चर्या करने वाले ही शास्त्रों का अध्ययन करें यह उचित है । वर्तमान में ऐसे लोगोंं के अभाव में उच्च शिक्षा की जो दुर्दशा हमने की है वह समय, शक्ति, बुद्धि, धन, अन्य संसाधन आदि का आपराधिक अपव्यय है । इससे न शास्त्र को लाभ है न समाज को न पढने वाले को । परन्तु हमने मोह की पट्टी बाँध रखी है इसलिये प्राथमिक विद्यालयों की तरह महाविद्यालय भी खोलते जा रहे हैं । देश का युवाधन निष्क्रिय निधार्मिक और अज्ञानी रहकर निरुपयोगी हो जाता है।
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इसलिये शास्त्रशिक्षा के बारे में हमें पुनर्विचार करना चाहिये । एक सौ पचीस करोड के देश में दस प्रतिशत के हिसाब से बारह करोड पचास लाख और पाँच प्रतिशत के हिसाब से छ: करोड पचीस लाख लोग शास्त्रों से परिचत होने चाहिये । कुल जनसंख्या के यदि एक चौथाई हम विद्यार्थी मान लें तो लगभग ३६ करोड विद्यार्थी होंगे। उनका पाँच प्रतिशत शास्त्रों की शिक्षा हेतु योग्य समझें तो हमें १ करोड अस्सी लाख और दस प्रतिशत लें तो तीन करोड साठ लाख छात्रों के लिये उच्च शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी। उच्च शिक्षा के लिये इतने छात्र देना किशोर अवस्ता की शिक्षा का दायित्व है। यदि इतने भी छात्र वास्तव में उच्च शिक्षा हेतु न आयें तो आज के प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों की विफलता मानी जानी चाहिये । परन्तु शास्त्रशिक्षा के लिये योग्य नहीं हैं ऐसे लोगों ने शास्त्रों का अध्ययन नहीं करना चाहिये।
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इसलिये शास्त्रशिक्षा के बारे में हमें पुनर्विचार करना चाहिये । एक सौ पचीस करोड के देश में दस प्रतिशत के हिसाब से बारह करोड पचास लाख और पाँच प्रतिशत के हिसाब से छ: करोड पचीस लाख लोग शास्त्रों से परिचत होने चाहिये । कुल जनसंख्या के यदि एक चौथाई हम विद्यार्थी मान लें तो लगभग ३६ करोड विद्यार्थी होंगे। उनका पाँच प्रतिशत शास्त्रों की शिक्षा हेतु योग्य समझें तो हमें १ करोड अस्सी लाख और दस प्रतिशत लें तो तीन करोड साठ लाख छात्रों के लिये उच्च शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी। उच्च शिक्षा के लिये इतने छात्र देना किशोर अवस्ता की शिक्षा का दायित्व है। यदि इतने भी छात्र वास्तव में उच्च शिक्षा हेतु न आयें तो आज के प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों की विफलता मानी जानी चाहिये । परन्तु शास्त्रशिक्षा के लिये योग्य नहीं हैं ऐसे लोगोंं ने शास्त्रों का अध्ययन नहीं करना चाहिये।
    
देश में अध्ययन, अनुसन्धान, शास्त्रपरिष्कृति, शास्त्रों की रचना, साहित्य का निर्माण, ज्ञानक्षेत्र को समृद्ध बनाना, प्रजा और राज्य का परामर्शक बनना, राज्य और समाज के संचालन हेतु नीतियाँ बनाना शास्त्रशिक्षा का काम है। इनके विद्यार्थियों और अध्यापकों को विद्वान कहना चाहिये। ये प्रथम सज्जन हैं, दूसरे क्रम में कार्यकुशल हैं और फिर विद्वान हैं । ये देशकाल परिस्थिति के ज्ञाता हैं । आये हुए और भविष्य में आने वाले संकटों को जानते हैं और उनके लिये उपाययोजना करते हैं। ये शासक और प्रजा को सावधानी भी करते हैं और मार्गदर्शन भी करते हैं। राज्य और प्रजा का हित उनके आश्रमय में सुरक्षित हैं । ये निःस्वार्थी हैं, निराभिमानी हैं और विद्याव्रती हैं। किसी भी राष्ट्र की ये अमूल्य निधि होते हैं।
 
देश में अध्ययन, अनुसन्धान, शास्त्रपरिष्कृति, शास्त्रों की रचना, साहित्य का निर्माण, ज्ञानक्षेत्र को समृद्ध बनाना, प्रजा और राज्य का परामर्शक बनना, राज्य और समाज के संचालन हेतु नीतियाँ बनाना शास्त्रशिक्षा का काम है। इनके विद्यार्थियों और अध्यापकों को विद्वान कहना चाहिये। ये प्रथम सज्जन हैं, दूसरे क्रम में कार्यकुशल हैं और फिर विद्वान हैं । ये देशकाल परिस्थिति के ज्ञाता हैं । आये हुए और भविष्य में आने वाले संकटों को जानते हैं और उनके लिये उपाययोजना करते हैं। ये शासक और प्रजा को सावधानी भी करते हैं और मार्गदर्शन भी करते हैं। राज्य और प्रजा का हित उनके आश्रमय में सुरक्षित हैं । ये निःस्वार्थी हैं, निराभिमानी हैं और विद्याव्रती हैं। किसी भी राष्ट्र की ये अमूल्य निधि होते हैं।
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प्रभाव से मुक्त हुए बिना भारत भारत नहीं बन सकता, अपने में स्थित नहीं हो सकता और ऐसा हुए बिना विश्व के तो क्या उसके अपने संकट भी दूर नहीं हो सकते।
 
प्रभाव से मुक्त हुए बिना भारत भारत नहीं बन सकता, अपने में स्थित नहीं हो सकता और ऐसा हुए बिना विश्व के तो क्या उसके अपने संकट भी दूर नहीं हो सकते।
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राज्य के या उद्योगों के, सत्तावान या अर्थवान के प्रयासों से यह होने वाला नहीं है। यह तो ज्ञानवान लोगों से ही होगा, धर्माचरणी लोगों के द्वारा ही होगा।
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राज्य के या उद्योगों के, सत्तावान या अर्थवान के प्रयासों से यह होने वाला नहीं है। यह तो ज्ञानवान लोगोंं से ही होगा, धर्माचरणी लोगोंं के द्वारा ही होगा।
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भारत के विश्वकल्याण के महान अभियान के लिये केवल एक करोड अस्सी लाख लोगों की ही आवश्यकता है। देश में अभी ६६५ विश्वविद्यालय हैं। इनमें से दो करोड विद्यार्थियों और अध्यापकों को चयन करना कोई बहुत कठिन तो नहीं है। केवल तय करने की आवश्यकता है।  
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भारत के विश्वकल्याण के महान अभियान के लिये केवल एक करोड अस्सी लाख लोगोंं की ही आवश्यकता है। देश में अभी ६६५ विश्वविद्यालय हैं। इनमें से दो करोड विद्यार्थियों और अध्यापकों को चयन करना कोई बहुत कठिन तो नहीं है। केवल तय करने की आवश्यकता है।  
    
परन्तु तय कौन करे यह समस्या है। वर्तमान में देश की शिक्षा राज्य के अर्थात् शासन के हाथ में है। राज्य शिक्षाक्षेत्र में ऐसा कोई साहस दिखा नहीं सकता, उसकी अपनी ही अनेक मर्यादायें हैं । बन्धन हैं। यदि राज्य नहीं करता तो उच्च शिक्षा का क्षेत्र ही यह तय करे । इसकी सीमा यह है कि शासन के निर्देश और अनुमति के बिना वे कर नहीं सकते । दोनो होने के बाद अध्यापकों की इच्छाशक्ति चाहिये । आज तो इसकी कल्पना करना कठिन है । विश्वविद्यालयों को साथ में जोडते हुए संगठित करने वाली कोई रचना नहीं है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग सभी विश्वविद्यालयों को अपने साथ जोडे रखता है। परन्तु यह आर्थिक पक्ष ही देखता है । यदि सरकार इसे विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग बनाकर इसे शैक्षिक संगठन का रूप दे और इसका एकमात्र कार्य शिक्षा को भारतीय बनाने का ही निश्चित किया जाय तो स्थिति बदलनी आरम्भ हो सकती है। दूसरी एक आशा है देश में चल रहे अखिल भारतीय स्तर के शैक्षिक और सांस्कृतिक - धार्मिक संगठनों से । धर्म और शिक्षा एक साथ मिलकर भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा करना निश्चित कर लें तो यह कार्य हो सकता है। डेढ सौ वर्षों से राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन विविध स्वरूपों में चल रहा है । सफलता और असफलता के मध्य झूल रहा है । डेढ सौ वर्षों के अनुभवों से सीखकर, वर्तमान समय का आकलन कर यदि संगठित होकर शिक्षा योजना बनाई जाय और इसमें शासन का भी सहयोग प्राप्त हो तो प्रजा का अनुकूल होना कठिन नहीं है, बल्कि प्रजा तो ऐसी किसी योजना का स्वागत करने हेतु तत्पर है। शिक्षा के ज्ञानात्मक पक्ष का संक्षेप में विचार कर अब हम दूसरे व्यवस्थाकीय पहलू का विचार करेंगे।
 
परन्तु तय कौन करे यह समस्या है। वर्तमान में देश की शिक्षा राज्य के अर्थात् शासन के हाथ में है। राज्य शिक्षाक्षेत्र में ऐसा कोई साहस दिखा नहीं सकता, उसकी अपनी ही अनेक मर्यादायें हैं । बन्धन हैं। यदि राज्य नहीं करता तो उच्च शिक्षा का क्षेत्र ही यह तय करे । इसकी सीमा यह है कि शासन के निर्देश और अनुमति के बिना वे कर नहीं सकते । दोनो होने के बाद अध्यापकों की इच्छाशक्ति चाहिये । आज तो इसकी कल्पना करना कठिन है । विश्वविद्यालयों को साथ में जोडते हुए संगठित करने वाली कोई रचना नहीं है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग सभी विश्वविद्यालयों को अपने साथ जोडे रखता है। परन्तु यह आर्थिक पक्ष ही देखता है । यदि सरकार इसे विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग बनाकर इसे शैक्षिक संगठन का रूप दे और इसका एकमात्र कार्य शिक्षा को भारतीय बनाने का ही निश्चित किया जाय तो स्थिति बदलनी आरम्भ हो सकती है। दूसरी एक आशा है देश में चल रहे अखिल भारतीय स्तर के शैक्षिक और सांस्कृतिक - धार्मिक संगठनों से । धर्म और शिक्षा एक साथ मिलकर भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा करना निश्चित कर लें तो यह कार्य हो सकता है। डेढ सौ वर्षों से राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन विविध स्वरूपों में चल रहा है । सफलता और असफलता के मध्य झूल रहा है । डेढ सौ वर्षों के अनुभवों से सीखकर, वर्तमान समय का आकलन कर यदि संगठित होकर शिक्षा योजना बनाई जाय और इसमें शासन का भी सहयोग प्राप्त हो तो प्रजा का अनुकूल होना कठिन नहीं है, बल्कि प्रजा तो ऐसी किसी योजना का स्वागत करने हेतु तत्पर है। शिक्षा के ज्ञानात्मक पक्ष का संक्षेप में विचार कर अब हम दूसरे व्यवस्थाकीय पहलू का विचार करेंगे।
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प्रजामानस आन्तरिक दन्द्र से ग्रस्त है। यह भारतीय संस्कृति की महत्ता और हमारे मेघावी पूर्वजों की तपश्चर्या और समस्त रचना विषयक गहन मनोवैज्ञानिक समझ का सामर्थ्य ही है कि पश्चिम के भीषण झंझावात में जहाँ अनेक देश नष्ट हो गये, अनेक देश इसाई हो गये, अनेक अपनी संस्कृति बदलकर अस्तित्व टिका रहे हैं, वहाँ भारत क्षतविक्षत होकर भी वही भारत है जो वेदों के समय में था। भारत क्षीणप्राण हुआ है, गतप्राण नहीं। इस क्षीणप्राणता का ही लक्षण है कि भारत का अन्तरंग और बहिरंग निरन्तर संघर्षरत है। भारत का अन्तरंग भारत है और बहिरंग पश्चिम है। अन्तरंग का कहना बहिरंग नहीं मानता और बहिरंग का समर्थन अन्तरंग नहीं करता । इनके निरन्तर संघर्ष में दिनप्रतिदिन संकट तो भीषण होता जा रहा है परन्तु आशा अभी बची है । इस अवस्था में शिक्षा का स्वायत्त होना अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है।
 
प्रजामानस आन्तरिक दन्द्र से ग्रस्त है। यह भारतीय संस्कृति की महत्ता और हमारे मेघावी पूर्वजों की तपश्चर्या और समस्त रचना विषयक गहन मनोवैज्ञानिक समझ का सामर्थ्य ही है कि पश्चिम के भीषण झंझावात में जहाँ अनेक देश नष्ट हो गये, अनेक देश इसाई हो गये, अनेक अपनी संस्कृति बदलकर अस्तित्व टिका रहे हैं, वहाँ भारत क्षतविक्षत होकर भी वही भारत है जो वेदों के समय में था। भारत क्षीणप्राण हुआ है, गतप्राण नहीं। इस क्षीणप्राणता का ही लक्षण है कि भारत का अन्तरंग और बहिरंग निरन्तर संघर्षरत है। भारत का अन्तरंग भारत है और बहिरंग पश्चिम है। अन्तरंग का कहना बहिरंग नहीं मानता और बहिरंग का समर्थन अन्तरंग नहीं करता । इनके निरन्तर संघर्ष में दिनप्रतिदिन संकट तो भीषण होता जा रहा है परन्तु आशा अभी बची है । इस अवस्था में शिक्षा का स्वायत्त होना अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है।
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परन्तु यह सरल नहीं है । किसकी इच्छाशक्ति के बल पर शिक्षा स्वायत्त होगी ? शिक्षक शिक्षा के अधिष्ठाता हैं परन्तु वे हार चुके हैं। स्वतन्त्र होने की न चाह है न शक्तिः । सरकार शिक्षा को मुक्त करने में असमर्थ है क्योंकि अब वहाँ जिन्दा व्यक्तियों का नहीं अपितु सिस्टम का आधिपत्य है । सिस्टम जिन्दा नहीं होने के कारण से उसमें न लचीलापन है, न विवेक, न भावना । इस सिस्टम में काम करनेवाले जिन्दा तो हैं परन्तु वे सिस्टम द्वारा जकडे हुए ही हैं। वे सिस्टम के ही आधिपत्य में काम कर रहे हैं । इस देश में स्वतन्त्र होने की सबसे कम चाह यदि किसी वर्ग में हो तो वह है प्रशासकों का वर्ग जिसमें सचिव से लेकर सामान्य बाबू तक के लोगों का समावेश है । चाहे संस्कृत विभाग का हो या संस्कृति विभाग का, चाहे वनवासी विभाग का हो चाहे ग्रामीण क्षेत्र का, चाहे मध्यप्रदेश का हो, बिहार का हो या हरियाणा का, यह वर्ग अंग्रेजी में ही बात करता है, अंग्रेजी में ही पत्रव्यवहार करता है और अंग्रेजी नहीं जाननावालों के प्रति उसी दृष्टि से देखता है जैसे ब्रिटीश भारतीयों को देखते थे।
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परन्तु यह सरल नहीं है । किसकी इच्छाशक्ति के बल पर शिक्षा स्वायत्त होगी ? शिक्षक शिक्षा के अधिष्ठाता हैं परन्तु वे हार चुके हैं। स्वतन्त्र होने की न चाह है न शक्तिः । सरकार शिक्षा को मुक्त करने में असमर्थ है क्योंकि अब वहाँ जिन्दा व्यक्तियों का नहीं अपितु सिस्टम का आधिपत्य है । सिस्टम जिन्दा नहीं होने के कारण से उसमें न लचीलापन है, न विवेक, न भावना । इस सिस्टम में काम करनेवाले जिन्दा तो हैं परन्तु वे सिस्टम द्वारा जकडे हुए ही हैं। वे सिस्टम के ही आधिपत्य में काम कर रहे हैं । इस देश में स्वतन्त्र होने की सबसे कम चाह यदि किसी वर्ग में हो तो वह है प्रशासकों का वर्ग जिसमें सचिव से लेकर सामान्य बाबू तक के लोगोंं का समावेश है । चाहे संस्कृत विभाग का हो या संस्कृति विभाग का, चाहे वनवासी विभाग का हो चाहे ग्रामीण क्षेत्र का, चाहे मध्यप्रदेश का हो, बिहार का हो या हरियाणा का, यह वर्ग अंग्रेजी में ही बात करता है, अंग्रेजी में ही पत्रव्यवहार करता है और अंग्रेजी नहीं जाननावालों के प्रति उसी दृष्टि से देखता है जैसे ब्रिटीश भारतीयों को देखते थे।
    
शिक्षा को भारतीय बनाने के अभियान की यह सबसे कठिन श्रेणी है । इसलिये शैक्षिक संगठनों को चाहिये कि वे इस श्रेणी के साथ संवाद स्थापित करें । यह वर्ग बुद्धिमान है, चतुर है, परिस्थिति को समझने वाला है। इस वर्ग के साथ शिक्षा को भारतीय बनाने की अनिवार्यता को लेकर शास्त्रार्थ किया जाय, भावना और बुद्धि दोनों को सम्बोधित किया जाय और जनमानस प्रबोधन से भी अधिक महत्त्वपूर्ण मानकर उनका प्रबोधन किया जाय । उन्हें ही सिस्टम से मुक्त होने का मार्ग बताने के लिये आग्रह किया जाय । शैक्षिक संगठन सरकार से कृपा मांगने के स्थान पर शिक्षा की मुक्ति माँगे । शासकों को भी इस कार्य में साथ में लिया जाय और शासन, प्रशासन, धर्मसंस्थायें और शैक्षिक संगठन मिलकर इस समस्या का समाधान करने का बीडा उठायें।
 
शिक्षा को भारतीय बनाने के अभियान की यह सबसे कठिन श्रेणी है । इसलिये शैक्षिक संगठनों को चाहिये कि वे इस श्रेणी के साथ संवाद स्थापित करें । यह वर्ग बुद्धिमान है, चतुर है, परिस्थिति को समझने वाला है। इस वर्ग के साथ शिक्षा को भारतीय बनाने की अनिवार्यता को लेकर शास्त्रार्थ किया जाय, भावना और बुद्धि दोनों को सम्बोधित किया जाय और जनमानस प्रबोधन से भी अधिक महत्त्वपूर्ण मानकर उनका प्रबोधन किया जाय । उन्हें ही सिस्टम से मुक्त होने का मार्ग बताने के लिये आग्रह किया जाय । शैक्षिक संगठन सरकार से कृपा मांगने के स्थान पर शिक्षा की मुक्ति माँगे । शासकों को भी इस कार्य में साथ में लिया जाय और शासन, प्रशासन, धर्मसंस्थायें और शैक्षिक संगठन मिलकर इस समस्या का समाधान करने का बीडा उठायें।
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इसका अर्थ यह भी नहीं है कि ज्ञानार्जन मुफ्त में होता है। 'मुफ्त' को भी केवल पैसे से ही नहीं जोडा जाता । इसका अर्थ यह है कि ज्ञानार्जन की पात्रता पैसा नहीं है, पैसे के अलावा बहुत कुछ है। ज्ञानार्जन करने वाले में श्रद्धा, विनय, सेवा और विनय परायणता, संयम, सदाचार होना अनिवार्य है। ये बाहरी शर्ते नहीं हैं, मनोवैज्ञानिक आवश्यकतायें हैं। पैसे जैसे भौतिक पदार्थों में रियायत दी जाती हैं, इन गुणों में नहीं । अर्थात् ज्ञानार्जन की पात्रता के मापदण्ड अधिक कठोर हैं। इसमें आरक्षण नहीं है, न ब्राह्मणों का न शूद्रों का। जिस किसी के पास जिज्ञासा, श्रद्धा आदि गुण हैं वह पढ सकता है। पढाने वाले को पढ़ाने के अनुपात में पैसा नहीं मिलता है, आवश्यकता के अनुपात में मिलता है, वह भी पढने वाले से नहीं, पढाई के दौरान भी नहीं, पढता है इसलिये नहीं । पढाने वाला दरिद्र रहता है ऐसा भी नहीं है क्योंकि उसकी आवश्यकता के साथ साथ समाज की क्षमता और सम्मान की भावना के अनुपात में शिक्षक को मिलता है। जिस प्रकार समृद्ध समाज के मन्दिर भी समृद्ध :होते हैं उस प्रकार समृद्ध समाज के शिक्षक भी समृद्ध होते है।  
 
इसका अर्थ यह भी नहीं है कि ज्ञानार्जन मुफ्त में होता है। 'मुफ्त' को भी केवल पैसे से ही नहीं जोडा जाता । इसका अर्थ यह है कि ज्ञानार्जन की पात्रता पैसा नहीं है, पैसे के अलावा बहुत कुछ है। ज्ञानार्जन करने वाले में श्रद्धा, विनय, सेवा और विनय परायणता, संयम, सदाचार होना अनिवार्य है। ये बाहरी शर्ते नहीं हैं, मनोवैज्ञानिक आवश्यकतायें हैं। पैसे जैसे भौतिक पदार्थों में रियायत दी जाती हैं, इन गुणों में नहीं । अर्थात् ज्ञानार्जन की पात्रता के मापदण्ड अधिक कठोर हैं। इसमें आरक्षण नहीं है, न ब्राह्मणों का न शूद्रों का। जिस किसी के पास जिज्ञासा, श्रद्धा आदि गुण हैं वह पढ सकता है। पढाने वाले को पढ़ाने के अनुपात में पैसा नहीं मिलता है, आवश्यकता के अनुपात में मिलता है, वह भी पढने वाले से नहीं, पढाई के दौरान भी नहीं, पढता है इसलिये नहीं । पढाने वाला दरिद्र रहता है ऐसा भी नहीं है क्योंकि उसकी आवश्यकता के साथ साथ समाज की क्षमता और सम्मान की भावना के अनुपात में शिक्षक को मिलता है। जिस प्रकार समृद्ध समाज के मन्दिर भी समृद्ध :होते हैं उस प्रकार समृद्ध समाज के शिक्षक भी समृद्ध होते है।  
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इसका भावात्मक और संस्कारात्मक पक्ष जरा अधिक गहराई से समझना चाहिये। जिस प्रकार पत्नी को पत्नीधर्म निभाने का वेतन नहीं दिया जाता, घरे के लोगों को घर के काम करने के बदले में खाना नहीं दिया जाता या पैसा नहीं चुकाया जाता, जिस प्रकार घर के लोगों की परिचर्या करने के पैसे नहीं माँगे जाते उसी प्रकार पटाने के भी पैसे नहीं माँगे जाते । घर के काम करने वाले घर के लोग नौकर नहीं होते उसी प्रकार समाज के बाल, किशोर, युवाओं को पढाने वाला समाज का नौकर नहीं होता, उल्टे गुरु होता है। जिस प्रकार गरीब पति से या गरीब पिता से 'मुझे इतना तो चाहिये ही, तुम कुछ भी करों' ऐसा नहीं कहा जाता उसी प्रकार गरीब समाज से भी शिक्षक अधिक अपेक्षा नहीं कर सकता । जिस प्रकार धनवान पति या पिता प्रेम से और आनन्द से पत्नी और बच्चों के लिये नई नई वस्तुयें लाता है उसी प्रकार समृद्ध समाज भी शिक्षक के लिये आदर और सम्मान से आवश्यकता से कहीं अधिक देता है। समाज के भरोसे शिक्षक निश्चिन्त रह सकता है।
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इसका भावात्मक और संस्कारात्मक पक्ष जरा अधिक गहराई से समझना चाहिये। जिस प्रकार पत्नी को पत्नीधर्म निभाने का वेतन नहीं दिया जाता, घरे के लोगोंं को घर के काम करने के बदले में खाना नहीं दिया जाता या पैसा नहीं चुकाया जाता, जिस प्रकार घर के लोगोंं की परिचर्या करने के पैसे नहीं माँगे जाते उसी प्रकार पटाने के भी पैसे नहीं माँगे जाते । घर के काम करने वाले घर के लोग नौकर नहीं होते उसी प्रकार समाज के बाल, किशोर, युवाओं को पढाने वाला समाज का नौकर नहीं होता, उल्टे गुरु होता है। जिस प्रकार गरीब पति से या गरीब पिता से 'मुझे इतना तो चाहिये ही, तुम कुछ भी करों' ऐसा नहीं कहा जाता उसी प्रकार गरीब समाज से भी शिक्षक अधिक अपेक्षा नहीं कर सकता । जिस प्रकार धनवान पति या पिता प्रेम से और आनन्द से पत्नी और बच्चों के लिये नई नई वस्तुयें लाता है उसी प्रकार समृद्ध समाज भी शिक्षक के लिये आदर और सम्मान से आवश्यकता से कहीं अधिक देता है। समाज के भरोसे शिक्षक निश्चिन्त रह सकता है।
    
ऐसा समाज बनाने का दायित्व भी शिक्षक का ही है इसका भी ध्यान रखना चाहिये।
 
ऐसा समाज बनाने का दायित्व भी शिक्षक का ही है इसका भी ध्यान रखना चाहिये।

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