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अंग्रेजों ने देश की सारी व्यवस्थायें बदल दीं। धार्मिक व्यवस्थाओं को नष्ट कर दिया और अधार्मिक व्यवस्थाओं को प्रस्थापित किया। इस कारण से धार्मिक और अधार्मिक ऐसे दो शब्दुप्रयोग व्यवहार में आने लगे। ये दोनों शब्द भारत के ही सन्दर्भ में व्यवहार में लाये जाते हैं। अंग्रेजों का राज्य लगभग ढाई सौ से तीन सौ वर्ष रहा। इस अवधि में अंग्रेजी शिक्षा का कालखण्ड लगभग पौने दो सौ वर्षों का है। इस अवधि में लगभग दस पीढ़ियाँ अंग्रेजी शिक्षाव्यवस्था में पढ़ चुकी हैं। इस दौरान चार बातें हुई हैं। एक, धार्मिक शास्त्रों का अध्ययन बन्द हो गया और धार्मिक ज्ञानपरम्परा खण्डित हो गई। दूसरा, धार्मिक शास्त्रों का जो कुछ भी अध्ययन होता रहा वह यूरोपीय दृष्टि से होने लगा और हमारे ही शास्त्रों को हम अस्वाभाविक पद्धति से पढ़ने लगे। तीसरा, हमारे ज्ञान और हमारी व्यवस्थाओं के प्रति अनास्था और अश्रद्धा निर्माण करने का भारी प्रयास अंग्रेजों ने किया और हम भी अनास्था और अश्रद्धा से ग्रस्त हो गये। चौथा, यूरोपीय ज्ञान विद्यालयों और महाविद्यालयों में पढ़ाया जाने लगा और अंग्रेजी शास्त्रों को जानने वाले और मानने वाले विद्वानों को ही विद्वानों के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त होने लगी। देश अंग्रेजी ज्ञान के अनुसार अंग्रेजी व्यवस्थाओं में चलने लगा। परिणामस्वरूप बौद्धिक और मानसिक क्षेत्र भारी मात्रा में प्रभावित हुआ है। इसका ही सीधा परिणाम है कि स्वाधीन होने के बाद भी हमने शिक्षाव्यवस्था में या अन्य किसी भी व्यवस्था में परिवर्तन नहीं किया है। देश अभी भी अंग्रेजी व्यवस्था में ही चलता है। हम स्वाधीन होने पर भी स्वतन्त्र नहीं हैं। तंत्र अंग्रेजों का ही चलता है, हम उसे चलाते हैं।
 
अंग्रेजों ने देश की सारी व्यवस्थायें बदल दीं। धार्मिक व्यवस्थाओं को नष्ट कर दिया और अधार्मिक व्यवस्थाओं को प्रस्थापित किया। इस कारण से धार्मिक और अधार्मिक ऐसे दो शब्दुप्रयोग व्यवहार में आने लगे। ये दोनों शब्द भारत के ही सन्दर्भ में व्यवहार में लाये जाते हैं। अंग्रेजों का राज्य लगभग ढाई सौ से तीन सौ वर्ष रहा। इस अवधि में अंग्रेजी शिक्षा का कालखण्ड लगभग पौने दो सौ वर्षों का है। इस अवधि में लगभग दस पीढ़ियाँ अंग्रेजी शिक्षाव्यवस्था में पढ़ चुकी हैं। इस दौरान चार बातें हुई हैं। एक, धार्मिक शास्त्रों का अध्ययन बन्द हो गया और धार्मिक ज्ञानपरम्परा खण्डित हो गई। दूसरा, धार्मिक शास्त्रों का जो कुछ भी अध्ययन होता रहा वह यूरोपीय दृष्टि से होने लगा और हमारे ही शास्त्रों को हम अस्वाभाविक पद्धति से पढ़ने लगे। तीसरा, हमारे ज्ञान और हमारी व्यवस्थाओं के प्रति अनास्था और अश्रद्धा निर्माण करने का भारी प्रयास अंग्रेजों ने किया और हम भी अनास्था और अश्रद्धा से ग्रस्त हो गये। चौथा, यूरोपीय ज्ञान विद्यालयों और महाविद्यालयों में पढ़ाया जाने लगा और अंग्रेजी शास्त्रों को जानने वाले और मानने वाले विद्वानों को ही विद्वानों के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त होने लगी। देश अंग्रेजी ज्ञान के अनुसार अंग्रेजी व्यवस्थाओं में चलने लगा। परिणामस्वरूप बौद्धिक और मानसिक क्षेत्र भारी मात्रा में प्रभावित हुआ है। इसका ही सीधा परिणाम है कि स्वाधीन होने के बाद भी हमने शिक्षाव्यवस्था में या अन्य किसी भी व्यवस्था में परिवर्तन नहीं किया है। देश अभी भी अंग्रेजी व्यवस्था में ही चलता है। हम स्वाधीन होने पर भी स्वतन्त्र नहीं हैं। तंत्र अंग्रेजों का ही चलता है, हम उसे चलाते हैं।
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फिर भी सुदैव से अनेक लोगोंं के हृदय और बुद्धि में इस बात की चुभन है। स्वाधीन भारत परतन्त्र है यह उन्हें स्वीकार नहीं है। इनके ही प्रयासों के कारण से “धार्मिक' और “अधार्मिक' संज्ञाओं का प्रचलन है। ये लोग धार्मिकता की प्रतिष्ठा करना चाहते हैं। इनके प्रयास बौद्धिक क्षेत्र में और भौतिक क्षेत्रों में चल रहे हैं। शिक्षा के तन्त्र, मन्त्र और यन्त्र को धार्मिक बनाना यह मूल बात है क्योकि शिक्षा को धार्मिक बनायेंगे तो शेष व्यवस्थायें धार्मिक बनाने में सरलता होगी।
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तथापि सुदैव से अनेक लोगोंं के हृदय और बुद्धि में इस बात की चुभन है। स्वाधीन भारत परतन्त्र है यह उन्हें स्वीकार नहीं है। इनके ही प्रयासों के कारण से “धार्मिक' और “अधार्मिक' संज्ञाओं का प्रचलन है। ये लोग धार्मिकता की प्रतिष्ठा करना चाहते हैं। इनके प्रयास बौद्धिक क्षेत्र में और भौतिक क्षेत्रों में चल रहे हैं। शिक्षा के तन्त्र, मन्त्र और यन्त्र को धार्मिक बनाना यह मूल बात है क्योकि शिक्षा को धार्मिक बनायेंगे तो शेष व्यवस्थायें धार्मिक बनाने में सरलता होगी।
    
आज भी जो लोग आधुनिकता, वैश्विकता, परिवर्तन आदि की बात करते हैं उनकी बात भी समझ लेनी चाहिये ऐसा लगता है। हम अनुभव करते हैं कि व्यक्तियों के स्वभाव में परिवर्तन आता है। हम देखते हैं कि परिस्थितियाँ बदलती हैं। हम हवामान और तापमान में बदल होते भी अनुभव कर ही रहे हैं। तब विचारों में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक मानना चाहिये। अधार्मिक होना क्या इतनी बुरी बात है ? दूसरे देशों की शैली अपनाना भी अस्वाभाविक क्यों मानना चाहिये ?
 
आज भी जो लोग आधुनिकता, वैश्विकता, परिवर्तन आदि की बात करते हैं उनकी बात भी समझ लेनी चाहिये ऐसा लगता है। हम अनुभव करते हैं कि व्यक्तियों के स्वभाव में परिवर्तन आता है। हम देखते हैं कि परिस्थितियाँ बदलती हैं। हम हवामान और तापमान में बदल होते भी अनुभव कर ही रहे हैं। तब विचारों में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक मानना चाहिये। अधार्मिक होना क्या इतनी बुरी बात है ? दूसरे देशों की शैली अपनाना भी अस्वाभाविक क्यों मानना चाहिये ?

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