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* तप : संन्यासी का एकमेव कार्य है तप। प्रारम्भ के काल में एकान्त में रहकर उग्र तप करने का ही विधान है। साथ ही शास्त्राध्ययन करना है। बाद में अटन कर लोककल्याण हेतु उपदेश करना उसका काम है। परन्तु उसमें भी तितिक्षा और मुमुक्षा नहीं छोडना है। संन्यासी तप करके ही लोक का कल्याण करता है। संन्यास का विशेष संस्कार होता है। उसी प्रकार संन्यासी का अन्त्यसंस्कार भी अग्निसंस्कार नहीं होता है। उसे या तो दृफनाया जाता है अथवा जलसमाधि दी जाती है ।
 
* तप : संन्यासी का एकमेव कार्य है तप। प्रारम्भ के काल में एकान्त में रहकर उग्र तप करने का ही विधान है। साथ ही शास्त्राध्ययन करना है। बाद में अटन कर लोककल्याण हेतु उपदेश करना उसका काम है। परन्तु उसमें भी तितिक्षा और मुमुक्षा नहीं छोडना है। संन्यासी तप करके ही लोक का कल्याण करता है। संन्यास का विशेष संस्कार होता है। उसी प्रकार संन्यासी का अन्त्यसंस्कार भी अग्निसंस्कार नहीं होता है। उसे या तो दृफनाया जाता है अथवा जलसमाधि दी जाती है ।
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* संन्यासी का दर्शनमात्र पवित्र होता है । श्लोक है
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* संन्यासी का दर्शनमात्र पवित्र होता है । श्लोक है{{Citation needed}}
 
<blockquote>यतीनां दर्शनं चैव स्पर्शनं भाषणं तथा ।</blockquote><blockquote>कुर्वाण: पूयते नित्यं तस्मात्‌ पश्येत नित्यश: ॥</blockquote><blockquote>अर्थात्‌ यति का दर्शन, स्पर्श अथवा भाषण सुनने वाले को
 
<blockquote>यतीनां दर्शनं चैव स्पर्शनं भाषणं तथा ।</blockquote><blockquote>कुर्वाण: पूयते नित्यं तस्मात्‌ पश्येत नित्यश: ॥</blockquote><blockquote>अर्थात्‌ यति का दर्शन, स्पर्श अथवा भाषण सुनने वाले को
 
या करने वाले को पवित्र करता है। इसलिये वह नित्य करना चाहिये ।</blockquote>
 
या करने वाले को पवित्र करता है। इसलिये वह नित्य करना चाहिये ।</blockquote>

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