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→‎वानप्रस्थाश्रम: लेख सम्पादित किया
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अर्थ और काम : गृहस्थाश्रम में अथार्जिन करना है। सर्व प्रकार के सांसारिक सुखों का उपभोग करना है। परन्तु वे धर्म के अविरोधी होने चाहिये। धर्मविरोधी अर्थ और काम ही गृहस्थ का धर्माचरण है। इस प्रकार का अर्थ और काम का सेवन उसे मोक्ष के प्रति ले जाता है। सुख, समृद्धि, संस्कार और ज्ञान ये गृहस्थाश्रम में सेव्य हैं और यज्ञ, दान, तप और लोककल्याण ये गृहस्थ के लिये आचार हैं।
 
अर्थ और काम : गृहस्थाश्रम में अथार्जिन करना है। सर्व प्रकार के सांसारिक सुखों का उपभोग करना है। परन्तु वे धर्म के अविरोधी होने चाहिये। धर्मविरोधी अर्थ और काम ही गृहस्थ का धर्माचरण है। इस प्रकार का अर्थ और काम का सेवन उसे मोक्ष के प्रति ले जाता है। सुख, समृद्धि, संस्कार और ज्ञान ये गृहस्थाश्रम में सेव्य हैं और यज्ञ, दान, तप और लोककल्याण ये गृहस्थ के लिये आचार हैं।
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गृहस्थाश्रम सर्व प्रकार के दायित्वों को निभाने का आश्रम है। सर्व प्रकार की शक्तियाँ सम्पादित कर अब व्यक्ति वास्तव में कर्मक्षेत्र में प्रवेश करता है। वह विवाह करता है, घर बसाता है, गृहस्थ बनता है। यह जीवन के सर्व प्रकार के आनन्दों के उपभोग का काल है। वह अर्थार्जन करता है। वैभव प्राप्त करता है। उसका आनन्द और उपभोग धर्म के अनुसार होना चाहिये। उसके विवाह का परिणाम है सन्तान का जन्म। कुल, जाति, वर्ण, समाज आदि के प्रति उसके जो कर्तव्य हैं, उन्हें पूर्ण करने का यह काल है। अपने परिवारजनों का भरण पोषण रक्षण उसे करना है। अपने सामाजिक दायित्व को निभाना है। पूर्वजों के ऋण से मुक्त होना है। समर्थ सन्तान के रूप में समाज को अच्छा नागरिक देना है। अपने व्यवसाय में भी नये अनुसन्धान करने हैं। ब्रह्मचर्याश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम को आश्रय देना है। सार्वजनिक व्यवस्थाओं में अपना योगदान देना है। सारा समाज गृहस्थाश्रम के आश्रय में ही जीता है। इसलिये गृहस्थाश्रम को सभी आश्रमों में श्रेष्ठ कहा है।
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गृहस्थाश्रम सर्व प्रकार के दायित्वों को निभाने का आश्रम है। सर्व प्रकार की शक्तियाँ सम्पादित कर अब व्यक्ति वास्तव में कर्मक्षेत्र में प्रवेश करता है। वह विवाह करता है, घर बसाता है, गृहस्थ बनता है। यह जीवन के सर्व प्रकार के आनन्दों के उपभोग का काल है। वह अर्थार्जन करता है। वैभव प्राप्त करता है। उसका आनन्द और उपभोग धर्म के अनुसार होना चाहिये। उसके विवाह का परिणाम है सन्तान का जन्म। कुल, जाति, वर्ण, समाज आदि के प्रति उसके जो कर्तव्य हैं, उन्हें पूर्ण करने का यह काल है। अपने परिवारजनों का भरण पोषण रक्षण उसे करना है। अपने सामाजिक दायित्व को निभाना है। पूर्वजों के ऋण से मुक्त होना है। समर्थ सन्तान के रूप में समाज को अच्छा नागरिक देना है। अपने व्यवसाय में भी नये अनुसन्धान करने हैं। ब्रह्मचर्याश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम को आश्रय देना है। सार्वजनिक व्यवस्थाओं में अपना योगदान देना है। सारा समाज गृहस्थाश्रम के आश्रय में ही जीता है। इसलिये गृहस्थाश्रम को सभी आश्रमों में श्रेष्ठ कहा गया है।
    
=== वानप्रस्थाश्रम ===
 
=== वानप्रस्थाश्रम ===
धर्माचरण करते हुए, सुखों को भोगते हुए पचीस वर्ष बीत जाते हैं । उसकी सन्तानें वयस्क हो गई हैं। उनके भी विवाह हो गये हैं। घर में पौत्र का आगमन हुआ है। शरीर थकने लगा है। बाल पकने लगे हैं। त्वचा पर झुर्रियां दिखाई देने लगी है। इन्द्रियाँ भी थकान का अनुभव कर रही हैं। साथ ही अपने सर्व प्रकार के कर्तव्यों की पूर्ति कर व्यक्ति कृतकार्य हुआ है। अब वह अपने सांसारिक दायित्वों को अपने पुत्र को सौंप कर विरक्ति की साधना हेतु गृहत्याग करना चाहता है। वानप्रस्थ का अर्थ है जिसने वन के प्रति प्रयाण किया है ऐसा व्यक्ति ।
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धर्माचरण करते हुए, सुखों को भोगते हुए पचीस वर्ष बीत जाते हैं । सन्तानें वयस्क हो जाती हैं, उनके भी विवाह हो जाते हैं। घर में पौत्र/पौत्री का आगमन होता है। शरीर थकने लगा है। बाल पकने लगे हैं। त्वचा पर झुर्रियां दिखाई देने लगी है। इन्द्रियाँ भी थकान का अनुभव कर रही हैं। साथ ही अपने सर्व प्रकार के कर्तव्यों की पूर्ति कर व्यक्ति कृतकार्य हुआ है। अब वह अपने सांसारिक दायित्वों को अपने पुत्र को सौंप कर विरक्ति की साधना हेतु गृहत्याग करना चाहता है। वानप्रस्थ का अर्थ है जिसने वन के प्रति प्रयाण किया है ऐसा व्यक्ति।
    
वानप्रस्थाश्रम के मुख्य लक्षण इस प्रकार हैं:
 
वानप्रस्थाश्रम के मुख्य लक्षण इस प्रकार हैं:
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संन्यस्ताश्रम की मुख्य बातें इस प्रकार हैं:
 
संन्यस्ताश्रम की मुख्य बातें इस प्रकार हैं:
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* सर्वसंगपरित्याग : संन्यासी सब कुछ छोडता है। अपना नाम, कुल, गोत्र, सगे सम्बन्धी सभी का त्याग करता है। यज्ञ, दान, अतिथिसेवा जैसे वानप्रस्थी के कर्तव्य भी छोडता है। वह सबका है परन्तु उसका अपना कोई नहीं है। वह गेरुआ वस्त्र धारण करता है। भिक्षापात्र, कौपीन और दण्ड ही उसकी संपत्ति है। उसकी आवश्यकतायें अति अल्प होती हैं। करतल भिक्षा तरुतल वास उसका आदर्श होता है। वह अनिकेत है, निरग्नि है। ये दो संन्यास के खास लक्षण हैं। वह अपना भोजन नहीं पकाता है, घर में वास नहीं करता है। अटन करना उसका धर्म है । वह एक स्थान पर नहीं रहता है। भिक्षा उसके लिये अनिवार्य भी है और स्वाभाविक भी है। स्वाद को जीतना उसकी साधना है। इसलिये वह सर्व खाद्य पदार्थ एकत्रित कर उसमें पानी मिलाकर सानी बनाकर खाता है। वह शिखा, जनेऊ, जटा आदि सभी बातों का त्याग करता है। वह वर्ण, जाति, सम्प्रदाय आदि सब का भी त्याग करता है। जिस प्रकार, संन्यास लेना ही चाहिये यह अनिवार्यता नहीं है, वैसे ही कब लेना चाहिये उसका भी कोई निश्चित काल नहीं है। यद्हरेव विरजेतू तद॒हरेव प्रब्रजेतू अर्थात्‌ जिस दिनवैराग्य जागता है उसी दिन संन्यास लेना है ।
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सर्वसंगपरित्याग : संन्यासी सब कुछ छोडता है।
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* तप : संन्यासी का एकमेव कार्य है तप। प्रारम्भ के काल में एकान्त में रहकर उग्र तप करने का ही विधान है। साथ ही शास्त्राध्ययन करना है। बाद में अटन कर लोककल्याण हेतु उपदेश करना उसका काम है। परन्तु उसमें भी तितिक्षा और मुमुक्षा नहीं छोडना है। संन्यासी तप करके ही लोक का कल्याण करता है। संन्यास का विशेष संस्कार होता है। उसी प्रकार संन्यासी का अन्त्यसंस्कार भी अग्निसंस्कार नहीं होता है। उसे या तो दृफनाया जाता है अथवा जलसमाधि दी जाती है ।
अपना नाम, कुल, गोत्र, सगेसम्बन्धी सभीका त्याग करता
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है । यज्ञ, दान, अतिथिसेवा जैसे वानप्रस्थी के कर्तव्य भी
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छोडता है । वह सबका है परन्तु उसका अपना कोई नहीं
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है। वह गेरुआ वस्त्र धारण करता है । भिक्षापात्र, कौपीन
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और दण्ड ही उसकी संपत्ति है । उसकी आवश्यकतायें अति
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अल्प होती हैं । करतलभिक्षा तरुतलवास उसका आदर्श
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है। वह अनिकेत है, निरप्रि है । ये दो संन्यास के खास
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लक्षण हैं । वह अपना भोजन नहीं पकाता है, घर में वास
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नहीं करता है । अटन करना उसका धर्म है । वह एक स्थान
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पर नहीं रहता है । भिक्षा उसके लिये अनिवार्य भी है और
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स्वाभाविक भी है । स्वाद को जीतना उसकी साधना है ।
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इसलिये वह सर्व खाद्य पदार्थ एकत्रित कर उसमें पानी
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मिलाकर सानी बनाकर खाता है । वह शिखा, जनेऊ, जटा
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आदि सभी बातों का त्याग करता है । वह वर्ण, जाति,
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सम्प्रदाय आदि सब का भी त्याग करता है ।
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जिस प्रकार संन्यास लेना ही चाहिये यह अनिवार्यता
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* संन्यासी का दर्शनमात्र पवित्र होता है । श्लोक है
नहीं है वैसे कब लेना चाहिये उसका भी कोई निश्चित काल
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<blockquote>यतीनां दर्शनं चैव स्पर्शनं भाषणं तथा ।</blockquote><blockquote>कुर्वाण: पूयते नित्यं तस्मात्‌ पश्येत नित्यश: ॥</blockquote><blockquote>अर्थात्‌ यति का दर्शन, स्पर्श अथवा भाषण सुनने वाले को
नहीं है । यद्हरेव विरजेतू तद॒हरेव प्रब्रजेतू अर्थात्‌ जिस दिन
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या करने वाले को पवित्र करता है। इसलिये वह नित्य करना चाहिये ।</blockquote>
वैराग्य जागता है उसी दिन संन्यास लेना है ।
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* संन्यासी भिक्षा माँगता है। भिक्षा का संग्रह नहीं करता। वह तप करता है। वह वर्णसूचक चिह्लों का भी त्याग करता है। उसे किसी प्रकार के दुन्यवी नाते रिश्ते नहीं होते। वह अपने नाम का भी त्याग करता है। वह भगवा वस्त्र पहनता है। सर्वसंगपरित्याग और सर्वभूतहित ही उसका लक्ष्य होता है। अपने तप से वह विश्व का कल्याण करता है। वह पूर्ण रूप से मोक्षमार्गी होता है।
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इस प्रकार आश्रम व्यवस्था भारतीय समाज रचना की एक अद्भुत और विशिष्ट व्यवस्था है। आज उसका ह्रास हुआ है यह सत्य है। परन्तु यह अज्ञान के कारण है। इसके विषय में पढ़ने के बाद सब को इसकी आवश्यकता और उपयोगिता ध्यान में आती है। अब हमारा दायित्व है कि हम इसे पुन: प्रस्थापित करें
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तप : संन्यासी का एकमेव कार्य है तप । प्रारम्भ के
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== वर्णधर्म ==
काल में एकान्त में रहकर उग्र तप करने का ही विधान है ।
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साथ ही शास्त्राध्ययन करना है। बाद में अटन कर
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लोककल्याण हेतु उपदेश करना उसका काम है । परन्तु
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उसमें भी तितिक्षा और मुमुक्षा नहीं छोडना है । संन्यासी तप
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करके ही लोक का कल्याण करता है । संन्यास का विशेष
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संस्कार होता है । उसी प्रकार संन्यासी का अन्त्यसंस्कार भी
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अग्निसंस्कार नहीं होता है । उसे या तो दृफनाया जाता है
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अथवा जलसमाधि दी जाती है ।
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संन्यासी का दर्शनमात्र पवित्र होता है । श्लोक है
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यतीनां दर्शनं चैव स्पर्शनं भाषणं तथा ।
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कुर्वाण: पूयते नित्यं तस्मात्‌ पश्येत नित्यश: ॥।
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अर्थात्‌
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यति का दर्शन, स्पर्श अथवा भाषण सुनने वाले को
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या करने वाले को पवित्र करता है । इसलिये वह नित्य
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करना चाहिये ।
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संन्यासी भिक्षा माँगता है। भिक्षा का संग्रह नहीं
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करता । वह तप करता है । वह वर्णसूचक चिह्लों का भी
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त्याग करता है । उसे किसी प्रकार के दुन्यबी नातेरिश्ते नहीं
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होते । वह अपने नाम का भी त्याग करता है । वह भगवा
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qe पहनता है । सर्वसंगपरित्याग और सर्वभूतहित ही
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उसका लक्ष्य होता है । अपने तप से वह विश्व का कल्याण
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करता है । वह पूर्ण रूप से मोक्षमार्गी होता है ।
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इस प्रकार आश्रम व्यवस्था भारतीय समाज रचना की
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एक अद्भुत और विशिष्ट व्यवस्था है । आज उसका हास
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हुआ है यह सत्य है। परन्तु यह अज्ञान के कारण है ।
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इसके विषय में पढ़ने के बाद सब को इसकी आवश्यकता
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और उपयोगिता ध्यान में आती है । अब हमारा दायित्व है
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कि हम इसे पुन: प्रस्थापित करें ।
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== बर्णधर्म ==
   
समाज में सबको साथ मिलकर रहना है । सौहार्द से
 
समाज में सबको साथ मिलकर रहना है । सौहार्द से
 
रहना है। सबके लिए सुख, शान्ति, समृद्धि, संस्कार सुलभ
 
रहना है। सबके लिए सुख, शान्ति, समृद्धि, संस्कार सुलभ

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