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== आश्रमधर्म ==
 
== आश्रमधर्म ==
मनुष्य परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति है । उसे अनेक
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मनुष्य परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति है। उसे अनेक प्रकार की शक्तियाँ मिली हैं। इन शक्तियों से वह जो चाहे कर सकता है। परन्तु कर सकता है इसलिए वह कुछ भी करे यह अपेक्षित नहीं है। उसे अपना जीवन धर्म के अनुकूल बनाकर व्यवस्थित करना है। इस दृष्टि से उसके लिए चार आश्रमों की व्यवस्था दी गई है। ये चार आश्रम हैं: ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास ।
प्रकार की शक्तियाँ मिली हैं । इन शक्तियों से वह जो चाहे
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कर सकता है । परन्तु कर सकता है इसलिए वह कुछ भी
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करे यह अपेक्षित नहीं है। उसे अपना जीवन धर्म के
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अनुकूल बनाकर व्यवस्थित करना है । इस दृष्टि से उसके
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लिए चार आश्रमों की व्यवस्था दी गई है । ये चार आश्रम
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हैं ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास ।
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चार आश्रमों का विवरण इस प्रकार है ...
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चार आश्रमों का विवरण इस प्रकार है:
      
=== आश्रमचतुष्य ===
 
=== आश्रमचतुष्य ===
आश्रम शब्द का मूल है श्रम । जहाँ रहकर मनुष्य को
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आश्रम शब्द का मूल है श्रम । जहाँ रहकर मनुष्य को श्रम करना पड़ता है वह आश्रम है। आश्रम शब्द स्थानवाचक भी है और अवस्थावाचक भी। ऋषिमुनियों के आश्रम हुआ करते थे। वर्तमान समय में भी विचारवान लोगों ने अपनी संस्थाओं को आश्रम की संज्ञा प्रदान की है, जैसे कि महात्मा गाँधी का हरिजन आश्रम, रवीन्द्रनाथ ठाकुर का शान्तिनिकेतन आश्रम, रवीन्द्र शर्मा का कलाश्रम इत्यादि। श्रम करने का अर्थ है कष्ट करना, मेहनत करना। एक वेदाध्ययन करने वाले विद्वान डॉ. दयानन्द भार्गव ने परिभाषा की है कि जहाँ केवल अपने निजी भौतिक लाभ के लिये कष्ट किये जाते हैं वह '''श्रम''' है, जहाँ दूसरों की आज्ञा से कष्ट किये जाते हैं वह '''परिश्रम''' है परन्तु जहाँ दूसरों के लिये स्वेच्छा से और आनन्द से कष्ट किये जाते हैं वह '''आश्रम''' है। इस कष्ट को तप कहते हैं। मनुष्य को जीवनसाफल्य के लिये तप ही करना होता है। जीवन सफल बनाना ही मनुष्य का लक्ष्य है, इस दृष्टि से ही ऋषियों ने मनुष्य जीवन की विभिन्न अवस्थाओं के लिये आश्रम की व्यवस्था दी।
श्रम करना पड़ता है वह आश्रम है। आश्रम शब्द
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स्थानवाचक भी है और अवस्थावाचक भी । क्रषिमुनियों के
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आश्रम हुआ करते थे । वर्तमान समय में भी विचारवान
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लोगों ने अपनी संस्थाओं को आश्रम की संज्ञा प्रदान की है,
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जैसे कि महात्मा गाँधी का हरिजन आश्रम, रवीन्द्रनाथ
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ठाकुर का शान्तिनिकेतन आश्रम, रवीन्द्र शर्मा का कलाश्रम
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इत्यादि । श्रम करने का अर्थ है कष्ट करना, मेहनत करना ।
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एक वेदाध्ययन करने वाले विद्वान डॉ. दृयानन्द भार्गव ने
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परिभाषा की है कि जहाँ केवल अपने निजी भौतिक लाभ
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के लिये कष्ट किये जाते हैं वह श्रम है, जहाँ दूसरों की
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आज्ञा से कष्ट किये जाते हैं वह परिश्रम है परन्तु जहाँ दूसरों
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के लिये ear से और आनन्द से कष्ट किये जाते हैं वह
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आश्रम है। इस कष्ट को तप कहते हैं। मनुष्य को
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जीवनसाफल्य के लिये तप ही करना होता है। जीवन
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सफल बनाना ही मनुष्य का लक्ष्य है इस दृष्टि से ही ऋषियों
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ने मनुष्य जीवन की विभिन्न अवस्थाओं के लिये आश्रम की
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व्यवस्था दी ।
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मनुष्य को यदि विकास करना है तो उसे नियम और
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मनुष्य को यदि विकास करना है तो उसे नियम और संयम की आवश्यकता होती है। बिना इनके विकास सम्भव नहीं। विकास किसे कहते हैं? आजकल उपभोग की सामग्री अधिक से अधिक होने को विकास कहा जाता है। बहुत धनवान होना, बहुत सत्तावान होना, बहुत विद्वान होना, समाज में बहुत प्रतिष्ठित होना यह विकास नहीं है। व्यक्ति की अंतर्निहित क्षमताओं को व्यवहार में प्रकट करना ही व्यक्ति का विकास है। सुसंस्कृत होना यह समाज का विकास है। व्यक्ति का आरोग्य, बल, इन्ट्रियों का कौशल, प्राणों का सन्तुलन, शान्त मन, एकाग्रता, संयम, अनासक्ति, बुद्धि का विवेक, चित्तशुद्धि, हृदय की विशालता, सबके प्रति प्रेम आदि सब उसके विकास के मापदण्ड हैं, न कि धन या सत्ता। समृद्ध, अहिंसक, ज्ञानी, पराक्रमी, स्वतन्त्र समाज ही विकसित समाज है, न कि भोगी और कामी।
संयम की आवश्यकता होती है । बिना इनके विकास
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सम्भव नहीं । विकास किसे कहते हैं ? आजकल उपभोग
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की सामग्री अधिक से अधिक होने को विकास कहा जाता
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है । बहुत धनवान होना, बहुत सत्तावान होना, बहुत विद्वान
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होना, समाज में बहुत प्रतिष्ठित होना यह विकास नहीं है ।
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व्यक्ति की अंतर्निहित क्षमताओं को व्यवहार में प्रकट करना
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ही व्यक्ति का विकास है । सुसंस्कृत होना यह समाज का
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विकास है । व्यक्ति का आरोग्य, बल, इन्ट्रियों का कौशल,
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प्राणों का सन्तुलन, शान्त मन, एकाग्रता, संयम, अनासक्ति,
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बुद्धि का विवेक, चित्तशुद्धि, हृदय की विशालता, सबके
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प्रति प्रेम आदि सब उसके विकास के मापदण्ड हैं, न कि
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धन या सत्ता । समृद्ध, अहहिंसिक, ज्ञानी, पराक्रमी, स्वतन्त्र
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समाज ही विकसित समाज है, न कि भोगी और कामी ।
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जिस समाज में स्पर्धा है और स्पर्धा को प्रोत्साहन दिया
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जाता है वह समाज शोषण, छल, हिंसा और भ्रष्टाचार से
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भरा हुआ बन जाता है । उस समाज को विकृत कहते हैं,
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जिस समाज में स्पर्धा है और स्पर्धा को प्रोत्साहन दिया जाता है वह समाज शोषण, छल, हिंसा और भ्रष्टाचार से भरा हुआ बन जाता है । उस समाज को विकृत कहते हैं, सुसंस्कृत नहीं। समाज को सुसंस्कृत बनाने वाला व्यक्ति ही होता है। समाज को सुसंस्कृत बनाने के लिये व्यक्ति को अपने जीवन में नियम और संयम को अपनाना पड़ता है। व्यक्ति के जीवन को नियमित और संयमित करने के लिये हमारे पूर्वज ऋषियों ने आश्रमव्यवस्था बनाई है।
सुसंस्कृत नहीं ।
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समाज को सुसंस्कृत बनाने वाला व्यक्ति ही होता है ।
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मनुष्य का जीवन चार तबकों में विभाजित किया गया है। मनुष्य जीवन की औसत आयु एक सौ वर्षों की है ऐसी कल्पना की गई है। व्यक्तिगत रूप से यह कम अधिक भी हो सकती है। इस सम्पूर्ण आयु के चार तबकों को चार आश्रमों का नाम दिया गया है। ये आश्रम हैं: ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम
समाज को सुसंस्कृत बनाने के लिये व्यक्ति को अपने जीवन
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में नियम और संयम को अपनाना पड़ता है । व्यक्ति के
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जीवन को नियमित और संयमित करने के लिये हमारे पूर्वज
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ऋषियों ने आश्रमव्यवस्था बनाई है
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मनुष्य का जीवन चार तबकों में विभाजित किया गया
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=== ब्रहमचर्याश्रम ===
है । मनुष्य जीवन की औसत आयु एकसौ वर्षों की है ऐसी
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कल्पना की गई है । व्यक्तिगत रूप से यह कम अधिक भी
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हो सकती है । इस सम्पूर्ण आयु के चार तबकों को चार
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आश्रमों का नाम दिया गया है । ये आश्रम हैं ब्रह्मचर्याश्रम,
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गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम ।
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=== ब्रहमचर्या श्रम ===
   
आयु के प्रथम पचीस वर्ष ब्रह्मचर्याश्रम के होते हैं ।
 
आयु के प्रथम पचीस वर्ष ब्रह्मचर्याश्रम के होते हैं ।
 
प्रथम छः से आठ वर्ष घर में ही बीतते हैं । जन्म से पूर्व
 
प्रथम छः से आठ वर्ष घर में ही बीतते हैं । जन्म से पूर्व

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