धर्मशिक्षा, कर्मशिक्षा व शास्त्रशिक्षा

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धर्मशिक्षा

मनुष्य का जन्म होता है तब वह अपने साथ अनेक सम्भावनाओं को लेकर आता है[1]। वह अन्य प्राणियों के

समान प्रकृति के वश होकर केवल खाने पीने और सोने में

ही अपना जीवन व्यतीत नहीं करता है । उसे बहुत कुछ

करना होता है । विश्व भी उससे बहुत कुछ अपेक्षा करता

है । अपना स्वयं का विकास करना और विश्व की अपेक्षायें

पूर्ण करना उसका दायित्व बनता है। इस दायित्व को

निभाने के लिये उसे लायक बनना होता है । बहुत सारी

क्षमतायें अर्जित करनी होती हैं । इन क्षमताओं को अर्जित

करने के लिये और अपने दायित्व को निभाने के लिये

शिक्षा प्राप्त करनी होती है ।

जन्म से लेकर जीवन की अन्तिम साँस तक वह

सीखता ही रहता है । नई नई बातें सीखकर वह अपने

आपको विकसित करता रहता है ।

सीखने के क्रम में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात है अच्छा

मनुष्य बनने की शिक्षा । मनुष्य धन, मान, प्रतिष्ठा, ज्ञान,

अर्जित करे अथवा न करे, उसे अच्छा मनुष्य तो बनना ही

है । अच्छे मनुष्य को ही सज्जन कहते हैं । विश्व का आधार

सज्जनता है। दुनिया कानून और दण्ड से नहीं चलती,

दुनिया मनुष्यों के हृदय में जो अच्छाई है उसीसे चलती है ।

अच्छाई किसे कहते हैं ? अपना और दूसरों का हित

चाहना और उसीके अनुसार व्यवहार करना अच्छाई है ।

ऐसा व्यवहार करने के लिये कष्ट उठाना पड़े तो उठाना,

त्याग करना पड़े तो करना, अपने आप को नियंत्रण में

रखना पड़े तो रखना अच्छाई है । यह सब स्वतंत्रता पूर्वक

और आनन्द से करना ही अच्छाई है । यदि स्वेच्छा और

स्वतंत्रता नहीं हैं तो वह अच्छाई नहीं है, वह निहित स्वार्थ

हेतु किया गया कार्य है ।

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अच्छा मनुष्य बनने की शिक्षा को वर्तमान में

मूल्यशिक्षा कहा जाता है । संस्कारों का संकट आज इतना

अधिक गहरा हो गया है कि सबको आज मूल्यशिक्षा की

अनिवार्यता का अनुभव हो रहा है, इसलिये सभी क्षेत्रों में

मूल्यशिक्षा विषयक चिन्तन, चर्चा, आयोजन एवं प्रयोग

प्रारम्भ हो गये हैं ।

वास्तव में भारत में तो मूल्यशिक्षा का महत्त्व परापूर्व

से स्वीकृत ही है। भारत में इसे मूल्यशिक्षा नहीं कहा

गया । भारत में इसे संस्कारों की शिक्षा कहा गया है,

सदूगुण एवं सदाचार की शिक्षा कहा गया है, दैवी संपदू के

अर्जन की शिक्षा कहा गया है। भारत में इसे धर्मशिक्षा

कहा गया है । भारत में इसे इतना महत्त्वपूर्ण माना गया है

कि व्यक्ति चाहे छोटा हो या बड़ा, राजा हो या रंक,

मालिक हो या नौकर, उसे अच्छा तो होना ही चाहिये ।

सदूगुणविकास की प्रक्रिया जीवनव्यवहार में अनुस्यूत होकर

चलती है, इसे अलग से विषय बनाकर नहीं दी जाती । न

इसका पाठ्यक्रम होता है, न पाठ्यपुस्तक, न परीक्षा ।

सदूगुणों की शिक्षा विषय नहीं है, वह एक प्रक्रिया है जो

निरन्तर चलती रहती है । मनुष्यजीवन के विकास की

आधारशिला wae है। सम्पूर्ण शिक्षातंत्र का

प्रारम्भबिन्दु सद्‌गुणशिक्षा है ।

मन की शिक्षा

मूल्यशिक्षा को जिस प्रकार धर्म की, संस्कार या

सदूगुण एवं सदाचार की शिक्षा कहते हैं उसी प्रकार

चरित्रनिर्माण की शिक्षा भी कह सकते हैं । इस शिक्षा का

सम्बन्ध मुख्य रूप से मनुष्य के मन के साथ है । इसलिये

इसे मन की शिक्षा भी कह सकते हैं ।

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हम जानते हैं कि सम्पूर्ण सृष्टि में

केवल मनुष्य को ही अत्यन्त सक्रिय मन प्राप्त हुआ है ।

प्राकृत अवस्था में उसके सारे व्यवहार मन द्वारा परिचालित

होते हैं। मनुष्य का मन अद्भुत पदार्थ है । वह अनेक

प्रकार की शक्तियों का पुंज है, साथ ही साथ अनेक प्रकार

की समस्याओं का उद्गमस्थान भी है । सकारात्मक और

नकारात्मक दोनों तत्त्व समान रूप से मन में निवास करते

हैं । अतः उसकी शिक्षा का विचार करने से पूर्व इसके

स्वरूप को भलीभाँति जानना उपयुक्त रहेगा ।

मन की तीन शक्तियाँ हैं। ये हैं विचारशक्ति,

भावनाशक्ति और इच्छाशक्ति ।

मन निरन्तर विचार करता रहता है। एक धारा के

रूप में विचार चलते ही रहते हैं । कभी भी मन विचारों से

खाली नहीं रहता । संकल्प एवं विकल्प के रूप में ये

विचार चलते रहते हैं ।

मन भावनाओं का पुंज होता हैं। ये भाव भी

सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार के होते हैं । दया,

करुणा, स्नेह, अनुकंपा आदि सकारात्मक भाव होते हैं और

क्रोध, मद, मत्सर, लोभ आदि नकारात्मक भाव होते हैं ।

मन सदासर्वदा इन भावनाओं से परिचालित होता है ।

मन में अनन्त इच्छायें होती है । उसे हमेशा चाहिये,

चाहिये ही होता रहता है । इन इच्छाओं की पूर्ति कभी भी

नहीं हो सकती । महाभारतकार ने सम्राट ययाति के मुख से

इच्छाओं के सम्बन्ध में प्रसिद्ध उक्ति दी है -

न जातु कामः कामानामू उपभोगेन शाम्यति ।

हविषा कृष्णवर्त्मव भूय एवाभिवर्धते ।।

अर्थात्‌ अभि में हवि डालने से जिस प्रकार अग्ि

शान्त होने के स्थान पर अधिक प्रज्वलित हो जाती है उसी

प्रकार कामनाओं की पूर्ति करने से कामनायें शान्त होने के

स्थान पर और वृद्धिंगत हो जाती हैं ।

मन में निरन्तर इच्छायें बनी ही रहती हैं ।

मन की इन तीनों शक्तियों को संयमित किया जाय तो

मन अनेक प्रकार की सिद्धियों को प्राप्त कर सकता है ।

संयम और नियम से रहने वाले मन के लिये कुछ भी

असंभव नहीं होता ।

२८२

भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप

मन ट्न्द्रात्सक है । संकल्प-विकल्प, राग-ट्रेष,

सुख-दुःख, मान-अपमान, हर्ष-शोक, आशा-निराशा

आदि सब मन में रहते हैं ।

रुचि-अरुचि मन का ही विषय होता है ।

मन सभी कर्मेन्ट्रियों और ज्ञानेन्द्रियों का स्वामी है ।

मन स्वयं ज्ञानेन्द्रिय भी है और कर्मन्द्रिय भी । इन दोनों

इन्द्रियों का स्वामी बनकर वह दोनों को परिचालित करता

है। कर्मन्ट्रियाँ क्रियाशील होती हैं. और ज्ञानेन्ट्रियाँ

अनुभवशील अथवा संवेदनशील । मन इनका स्वामी बनकर

इन्हें सदूगुण और सदाचार के लिये अथवा दुर्गुण एवं

दुराचार के लिये प्रेरित करता है । उदाहरण के लिये पोषण

हेतु अन्न, शरीर और प्राण की आवश्यकता है परन्तु विविध

प्रकार के स्वाद का रस मन चाहता है । मन यदि संयमित है

तो शरीर और प्राण को पोषण देने वाला अन्न उसे अच्छा

लगता है परन्तु यदि संयमित नहीं तो शरीरस्वास्थ्य और

प्राणों के पोषण की चिन्ता न करते हुए रसना के आनन्द में

ही प्रवृत्त होता है । हित की उपेक्षा करता है, उपभोग में

लिप्त होता है । श्रेय को छोडकर प्रेय के पीछे भागता है ।

मन जब काम-क्रोधादि विकारों से भरा रहता है तब

उत्तेजित अवस्था में रहता है। उसे अशांत अवस्था भी

कहते हैं । उत्तेजित अवस्था में विचार या व्यवहार का

सन्तुलन और स्थिरता रहना असंभव है । उत्तेजना के कारण

मन कब क्या करेगा यह कहना लगभग असंभव है ।

मन चंचल होता है । श्रीमदू भगवद्गीता में अर्जुन ने

मन का यथार्थ वर्णन किया है । अर्जुन कहता है -

चंचल हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवदू दृढम्‌ ।

तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्‌ ।।

अर्थात्‌

हे कृष्ण, मन अत्यन्त चंचल है, जिद्दी है, बलवान

है, दृढ़ है, उसका निग्रह करना वायु का निग्रह करने के

समान अत्यंत कठिन है ।

मन एक समय में एक ही बात को पकड़ता है परन्तु

चंचलता के कारण उस पर टिका नहीं रह सकता । क्षण के

भी छोटे हिस्से में वह एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ पर आता

जाता रहता है । उसकी आने जाने की गति भी अत्यधिक

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पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप

है। विश्व के सभी गतिमान पदार्थों में मन का क्रम प्रथम

आता है । उसके जितना तेज कोई नहीं भागता । और फिर

जाने के लिये उसे किसी प्रकार के साधन की आवश्यकता

नहीं होती है । ऐसा मन अपने वश में रहना भी बहुत ही

कठिन है । मन जिस पदार्थ में आसक्त हो जाता है उससे

अलग होना नहीं चाहता । मन जिससे विमुख रहता है उससे

जुड़ना नहीं चाहता । ये दोनों काम उससे करवाना

अत्यधिक कठिन बात है ।

ऐसा चंचल, उत्तेजनापूर्ण और आसक्ति से युक्त मन

जब तक एकाग्र, शान्त और अनासक्त नहीं बनता तब तक

सदूगुण और सदाचार असंभव हैं । मन को नियमन, नियंत्रण

और संयम में रखे बिना संस्कार असंभव है । इस स्थिति में

अच्छाई हमसे कोसों दूर रहेगी ।

अतः अच्छाई की शिक्षा के लिये मन की शिक्षा देना

अनिवार्य बन जाता है ।

मन की शिक्षा कब दें

मन की शिक्षा को ही संस्कारों की शिक्षा कहते हैं ।

वही सदूगुण सदाचार की शिक्षा है। वही भावशिक्षा या

मूल्यशिक्षा है । वही चरिन्ननिर्माण की शिक्षा है। वही

धर्मशिक्षा है ।

जैसा पूर्व में कहा गया है, यह शिक्षा औपचारिक रूप

से नहीं दी जाती । केवल विद्यालय में नहीं दी जाती |

इस शिक्षा का मुख्य केन्द्र घर होता है । घर संस्कारों

की शिक्षा का महत्त्वपूर्ण केन्द्र है । घर में संस्कारों की शिक्षा

जन्म से भी पूर्व से प्रारम्भ हो जाती है । गर्भावस्‍था में ही

माता के माध्यम से बालक जीवन की मूल बातें सीख जाता

है । माता के खानपान, विचार और व्यवहार, स्वाध्याय और

सत्संग, भावना एवं कल्पना बालक के चरित्र का निर्माण

करते हैं । इसलिये माता को ही बालक का प्रथम गुरु कहा

गया है । अपने बालक को गुणवान और सच्चरित्र बनाना है

तो माता को सदूगुणी और सदाचरणयुक्त होना चाहिये ।

बालक जब कोख में पल रहा है तब अपने आहारविहार

आदि को सुव्यवस्थित रखना चाहिये ।

इसी प्रकार जन्म के बाद घर का वातावरण

२८३

संस्कारक्षम होना अत्यन्त आवश्यक

है । बालक की ग्रहण करने की क्षमता अद्भुत होती है ।

वह जैसा देखता है वैसा ही करता है, जैसा सुनता है वैसा

ही बोलता है, जिस वातावरण में पलता है उस वातावरण

के विचारों, भावनाओं एवं दृष्टिकोण की तरंगों को पकड़

लेता है और उन्हें आत्मसात कर लेता है । अनकही बातों

को भी समझ लेने की उसमें क्षमता होती है । करनी और

कथनी का अन्तर उसे समझ में आ जाता है । वह शब्द

छोड देता है और उसके पीछे जो भाव होता है उसको ग्रहण

कर लेता है । इसलिये बालकों को चरित्रवान बनाने की

इच्छा है तो घर में सभी परिवारजनों को अपने

आचारविचार में शुद्ध और पवित्र रहना चाहिये, घर के

वातारवण को भी शुद्ध और पवित्र रखना चाहिये । ऐसे घर

में पले बालक को अच्छे घर का बालक कहते हैं, केवल

धनी, शिक्षित या सत्ता के कारण प्रतिष्ठित घर के बालक

को नहीं ।

हमारे समाजहितैषी और मनोविज्ञान के जानकार ऋषि

इस तथ्य को जानते थे इसलिये उन्होंने शिशुसंगोपन के एक

सम्पूर्ण शास्त्र की रचना की और दैनन्दिन व्यवहार की

परम्परा के रूप में उसे घर घर में और जन जन के हृदय में

स्थापित किया । इसके चलते ही घर घर में लोरी गाने का

प्रचलन है । सोते समय बालक लोरी सुनते सुनते जो प्रेरणा

ग्रहण करता है वह उसके चित्त पर अमिट संस्कार बनकर

रह जाता है । प्रातःकाल के स्तोत्र और भजन का भी यही

प्रभाव होता है । विश्व के अनेक महापुरुषों ने अपने बचपन

के संस्मरणों को सुनाते समय कहा है कि अल्पशिक्षित

माता के मुख से जो लोरियाँ, कहानियाँ और स्तोत्रादि सुने

हैं उनका उनके चरित्र निर्माण में बहुत योगदान रहा है । इसी

प्रकार माता we waged अपने हाथ से बालक को

खिलाती है तब उसके स्पर्श के और उस भोजन के माध्यम

से माता के हृदय के भाव भी बालक में संक्रान्त होते हैं

और चिरस्थायी बनते हैं ।

बालअवस्था में चरित्रशिक्षा

शिशुअवस्था में संस्कार होते हैं। उस समय

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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप

चरित्रनिर्माण होता है । बालअवस्था में वैसे तो भारत के लोग सदूगुण, सदाचार, सज्जनता

आदतें बनती हैं, मानसनिर्माण होता है। उस समय... और अच्छाई किसे कहते हैं वह भलीभाँति जानते हैं,

चरित्रगठन भी होता है । इसी अवस्था में चरित्र की असंख्य.. इसलिये यहाँ विस्तार से उसकी चर्चा करने की आवश्यकता

छोटी मोटी बातें मनोदैहिक स्तर का अविभाज्य हिस्सा... नहीं है । केवल मोटे तौर पर एक सूची बनाई जा सकती है,

बनकर व्यक्ति के आचार विचार में अभिव्यक्त होती हैं ।.. जो इस प्रकार है ।

बालअवस्था में सीखी हुई आदतों को छोड़ना दुष्कर होता एक सज्जन व्यक्ति को -

है । इस समय यदि सही आदतें पड़ गईं तो बालक सच्चरित्र .. *.... सत्यवादी और ईमानदार होना चाहिये,

बनता है, गलत पड़ गईं तो दुश्चरित्र । इस अवस्था में घर में... *.. उद्यमशील और उद्योगपरायण होना चाहिये,

पिता की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती है । घर में जब. *.. ऋजु, विनयशील, मैत्नीपूर्ण और परोपकारी होना

छः से लेकर पन्द्रह वर्ष के बालक पल रहे होते हैं तब पिता चाहिये,

को एक कुम्हार जैसी भूमिका ari et el ree we = स्नेह, अनुकम्पा, दया, करुणा से युक्त होना चाहिये,

मिट्टी का घडा बनाता है तब गिली मिट्टी को चाक पर सेवापरायण होना चाहिये,

चढ़ाता है और उसे जैसा चाहे वैसा आकार देता है । उस... *... सामाजिक दायित्वबोध और देशभक्ति के गुणों से

समय वह मिट्टी के गोले पर जरा भी दबाव नहीं देता और युक्त होना चाहिये,

किसी भी प्रकार की कठोरता नहीं बरतता । वह बहुत हलके... *.. ईश्वरपरायण होना चाहिये,

हाथ से उसे आकार देता है । परन्तु विशेषता यह है कि वह... *. श्रद्धा, विश्वास के गुणों से युक्त तथा दृढ़ मनोबल से

हलके हाथ से व्यवहार करने पर भी जैसा चाहिये वैसा ही युक्त तथा निरहंकारी होना चाहिये ।

आकार देता है । घड़े का आकार उसके पूर्ण नियंत्रण में इस सूची में और भी छोटी मोटी बातें जुड़ सकती

होता है । उस समय वह जैसा आकार बनाता है घड़े का... हैं । हम सबके लिये स्वीकार्य यह सूची है ।

वही आकार जीवनपर्यन्त रहता है । ठीक उसी प्रकार से

शिशु अवस्था में मातापिता बालक का संगोपन पूर्ण

लाडप्यार से करते हुए भी उसका चरित्र जैसा चाहिये वैसा बालक में इन गुणों का विकास पुस्तकें पढ़ने से,

बनाते हैं । परन्तु कुम्हार घडे को आकार देने के बाद उसे... नियम बनाने से, उपदेश देने से, डाँटने से या दण्ड अथवा

चाक पर से उतारता है, तब छाया में रखकर उसका रक्षण.. लालच देने से नहीं होता । मातापिता को अपने बालक में

नहीं करता । वह उस कच्चे घडे को अग्नि में डालकर... इन गुणों का विकास करने हेतु निम्नलिखित बातों की ओर

पकाता है। पका घडा ही पानी भरने के काम में आता है । ध्यान देना चाहिये ।

कच्चा घडा किसी काम का नहीं होता है । उसी प्रकार... *... मातापिता बालकों को निःस्वार्थ और भरपूर प्रेम दें ।

बालअवस्था में पिता अपनी सन्तान को संयम, अनुशासन, ... *... मातापिता स्वयं चरित्रवान हों और उनका चस्त्र

अज्ञापालन, नियमपालन, परिश्रम आदि की अग्नि में व्यवहार एवं वाणी में दिखाई दे ।

पकाता है और उसका चरित्रगठन करता है। कहने का... *... मातापिता का व्यवहार पारदर्शी हो ।

तात्पर्य यह है कि जिसे आज मूल्यशिक्षा कहा जाता है और... *... मातापिता अपने साथ साथ बालकों को व्यवहार

मातापिता इन गुणों की शिक्षा किस प्रकार दे सकते हैं ?

भारत में जिसे हमेशा से धर्मशिक्षा, संस्कारों की शिक्षा, करने के लिये प्रेरित करें ।

सज्जनता की शिक्षा कहा जाता है वह प्रमुख रूप से... *. सगर्भावसथा से ही माता पवित्र एवं शुद्ध आचरण करे

गर्भावस्‍था, शिशुअवस्था और बालअवस्था में होती है और तथा स्वाध्याय, सत्संग एवं सेवा करे ।

प्रमुख रूप से घर में ही होती है । © छोटे बालकों को लोरी, कहानी और अच्छे दृश्यों

र्ट््ड

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पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप

तथा मधुर संगीत के माध्यम से संस्कार देने की

व्यवस्था हो ।

सदाचार सिखाया जाय तथा अप्रहपूर्वक उसका

पालन करवाया जाय ।

परिवार के सम्पूर्ण वातावरण में अच्छाई की प्रतिष्ठा

दिखाई देनी चाहिये । सच्चरित्र का महत्त्व धनसंपत्ति,

सत्ता और ज्ञान से भी अधिक माना जाना चाहिये ।

बडी आयु में सद्गुणशि क्षा

ऐसा नहीं है कि शिशु एवं बाल अवस्था के बाद

संस्कारों की शिक्षा की कोई आवश्यकता नहीं है । शिशु

एवं बाल अवस्था संस्कारों के लिये नींव है । उसकी उपेक्षा

करके बड़ी आयु में संस्कारों की शिक्षा देने का कोई अर्थ

नहीं होता, परन्तु बडी आयु में भी संस्कारों की शिक्षा की

आवश्यकता रहती ही है । भगवान रामकृष्ण परमहंस कहते

थे कि अपने लोटे को प्रतिदिन माँजकर साफ रखना होता

है । शिशु एवं बाल अवस्था के सम्यक्‌

प्रयासों से हमारे चरित्र का लोटा यदि साफ एवं चमकीला

हो गया हो, और वह सोने या चाँदी जैसा मूल्यवान हो तो

भी उसे प्रतिदिन के प्रयासों से साफ रखना ही होता है ।

अतः किशोर एवं युवावस्था में भी संस्कारों की शिक्षा की

ओर ध्यान देना आवश्यक है ।

किशोर अवस्था में शारीरिक और मानसिक ब्रह्मचर्य

की रक्षा, त्याग, सेवा, संयम, सादगी और कठोर परिश्रम

करना अत्यन्त आवश्यक है। आगे युवावस्था में दान,

नीति एवं. परिश्रमपूर्वक sats, ast की सेवा,

समाजसेवा, देश की रक्षा में योगदान, स्वाध्याय एवं सत्संग

आदि का निरन्तर क्रम बना रहना चाहिये ।

ये सारी बातें हमारी जीवनशैली का अभिन्न अंग

बनना आवश्यक है । ऐसे सज्जन व्यक्तियों के कारण ही

समाज सुसंस्कृत एवं गुणबान बनता है । ऐसा समाज ही

श्रेष्ठ समाज होता है ।

कर्मशिक्षा

समाज जिस प्रकार सुसंस्कृत एवं सज्जन होना

चाहिये, उसी प्रकार समृद्ध भी होना चाहिये । प्राणीमात्र की

भौतिक आवश्यकतायें होती हैं । अन्न, वख््र, आवास तथा

जीवनयापन हेतु अनेकानेक पदार्थों की आवश्यकता होती

है। मनुष्य को छोड़कर अन्य प्राणियों को जीवनावश्यक

पदार्थ प्रकृति से ही प्राप्त होते हैं । आवश्यक पदार्थ उन्हें

केवल खोजने ही होते हैं, यथा प्राणियों को शिकार gear

पडता है । परन्तु मनुष्य को असंख्य पदार्थों का निर्माण

करना पडता है । मनुष्य को अन्न चाहिये, इसलिये उसे

खेती करनी होती है, यही नहीं तो उसे विभिन्न क्रियाओं

और प्रक्रियाओं का अवलम्बन कर भोजन तैयार भी करना

होता है । प्राणियों को वस्त्र की आवश्यकता नहीं पड़ती है,

मनुष्य को पड़ती है, इसलिये उसे वस्त्रोद्योगय का विकास

करना होता है । जैसे जैसे सभ्यता का विकास होता है, वैसे

वैसे मनुष्य द्वारा निर्मित व्यवस्थाओं एवं वस्तुओं की संख्या

एवं मात्रा बढ़ती जाती है ।

मनुष्य को इन सब वस्तुओं का निर्माण करने के लिये

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कर्मन्द्रियों की कुशलता एवं निर्माणक्षम बुद्धि की

आवश्यकता पड़ती है । इन दोनों में कर्मन्ट्रियों की कुशलता

का महत्त्व अधिक है, क्योंकि बुद्धि के मार्गदर्शन में काम

तो कर्मेन्ट्रियाँ ही करती हैं। कर्मेन्ट्रियों में भी हाथ ही

निर्माण करने वाली इन्ट्रिय है । इसलिये हाथ को काम करने

में कुशल बनाना आवश्यक है ।

हाथ से काम करते समय पूरा शरीर कार्यरत होता

है। शरीर को यदि कार्यरत होना है तो शरीर में बल

चाहिये । शरीर को श्रम करने का अभ्यास चाहिये । मन में

श्रम करने की वृत्ति चाहिये । आलस्य और प्रमाद का त्याग

करना चाहिये । श्रम करने हेतु शरीर का आरोग्य भी अच्छा

होना चाहिये । उत्तम अन्न और उत्तम व्यायाम से शरीर को

बलसंपन्न और आरोग्यसंपन्न बनाना चाहिये ।

व्यक्ति जब कार्यकुशल होता है तब सही समृद्धि प्राप्त

करता है । समाज भी जब श्रमनिष्ठ और कार्यकुशल होता है

तब समृद्ध बनता है । समृद्धि से वैभवसंपन्नता आती है ।

इससे समाज सुखी होता है ।

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वर्तमान में मूल्यशिक्षा की तो

बात चारों ओर हो रही है, परन्तु कर्मशिक्षा की बात सुनाई

नहीं देती है । स्थिति इससे उल्टी है । हाथ से होने वाले,

शरीर से होने वाले, श्रमसाध्य कार्य को हम हेय मानने लगे

हैं और उससे विमुख हो रहे हैं । श्रम नहीं करना पडता है,

ऐसे कार्य को ऊँचे दर्ज का मानने लगे हैं । शरीरश्रम का

कार्य छोड़कर हम बुद्धि से होने वाला कार्य करने के लिये

उद्युक्त होते हैं । अथवा यंत्रों की सहायता लेते हैं । हमारा

लक्ष्य यह रहता है कि हमें अपने हाथों से कम से कम काम

करना पड़े, शरीर को कम से कम श्रम पहुँचे, बुद्धि को कम

से कम उलझना पडे और हमारा समय बचे । इसलिये हम

घर में, कार्यालयों में, कारखानों में, मनोरंजनगृहों में यंत्रों

का उपयोग करते हैं ।

हमें इससे बहुत सुख मिलता है। बहुत आराम

मिलता है। परन्तु ये सुख और आराम आभासी हैं,

वास्तविक नहीं । शरीर से काम नहीं करने के अत्यन्त

विपरीत परिणाम पूरे समाज को भुगतने पड़ते हैं ।

चमकदमक वाले वातावरण में और इन्ट्रियों को मिलने वाले

सुख में डूबे हुए होने के कारण ये विपरीत परिणाम हमें

दिखाई नहीं देते हैं और समझ में भी नहीं आते हैं परन्तु

वास्तविकता यह है कि ये हमें असंस्कारिता, अस्वास्थ्य

और दारिद्य की ओर ले जा रहे हैं । इस विषय में बहुत

गम्भीर होकर विचार करने की और उपाय योजना करने की

आवश्यकता है ।

हाथ से काम करने को हेय मानने का एक सूक्ष्म और

व्यापक परिणाम है जो हमें जल्दी समझ में नहीं आता है

वह है गौरव की हानि और गुलामी । आज उत्पादन केन्द्रों

का कद बढ रहा है । SAH! HRT हो रहा है । बहुत

बडी मात्रा में कोई भी वस्तु एक केन्द्र पर बनती है और दूर

दूर तक बिक्री के लिये जाती है । ऐसा हमने इसलिये किया

है क्योंकि हम वस्तुओं के उत्पादन के लिये यन्त्रों का प्रयोग

करने लगे हैं । यन्त्र कम मात्रा में उत्पादन नहीं कर सकता ।

जहाँ यन्त्र काम कर रहे हैं वहाँ एक मालिक होता है और

सैंकड़ों नौकर या मजदूर होते हैं । ये मजदूर दोहरी गुलामी

से ग्रस्त हैं । एक है यन्त्र की गुलामी और दूसरी मालिक

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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप

की गुलामी । मालिक की गुलामी के परिणाम स्वरूप स्वतंत्र

इच्छा का नाश होता है और यंत्र की गुलामी से सृजनशक्ति

और सृजन के आनन्द का नाश होता है । इसके परिणाम

स्वरूप पूरा व्यक्तित्व दब्बू बन जाता है । ऐसे दब्बू व्यक्तियों

का बना समाज अपना सामर्थ्य खो देता है ।

दूसरा परिणाम इससे भी अधिक हानिकारक है । बड़े

बड़े उद्योग महानगरों के आसपास खड़े होते हैं । मुंबई,

दिल्‍ली, कोलकाता, अहमदाबाद आदि महानगरों के

आसपास ये उद्योग केन्द्रित होते हैं । इन उद्योगकेन्द्रों में

मजदूरी करने के लिये दूर दूर के प्रदेशों से हजारों की संख्या

में युवक आते हैं। इनकी स्थिति कैसी होती है ? ये

कारखानों में दिनभर मजदूरी करते हैं । ये कम शिक्षित होते

हैं । ये परिवार से दूर अकेले रहते हैं । महानगरों के प्रदूषित

वातावरण में रहते हैं । कारखाने के मालिक उन्हें पहचानते

भी नहीं हैं । एक एक छोटे कमरे में सात आठ युवक एक

साथ रहते हैं । काम करने की स्वतंत्रता के अभाव में, काम

में रुचि एवं आनन्द के अभाव में, परिवारजनों की एवं

मालिक की आत्मीयता के अभाव में वे निरंकुश और

उद्दण्ड बनते हैं । साथ में टी.वी. का सस्ता मनोरंजन, शराब

जैसी अनिष्ट आदतें और किसीकी भी प्रेरणा और नियंत्रण

का अभाव इनके संस्कारों और सज्जनता का नाश कर देते

हैं । आज जो सार्वत्रिक अनाचार दिखाई दे रहा है, उसका

एक स्रोत यह भी है ।

सार्वत्रिक अनाचार का और एक स्रोत है। अति

धनात्य घरों के बच्चों को बचपन से ही काम करना नहीं

सिखाया जाता है । श्रम की, श्रम से उत्पादित वस्तु की

और पैसे की कीमत क्या होती है, यह वे नहीं जानते हैं ।

ये बच्चे युवा होते होते उद्दण्ड बन जाते हैं । युवावस्था का

जोश, काम नहीं करने से उत्पन्न निठ्लापन और किसी भी

प्रकार के विधायक आनंद के अभाव में इनकी शक्तियाँ

विनाशक रूप लेती हैं । महाविद्यालयों में पढने वाले,

धनाढ्य मातापिता के ऐसे युवा पुत्र मोटर साइकिल पर

अति वेग से सवारी करते हुए दुर्घटनाएँ करते हैं, रात्रि

aaa में लड़कियों के साथ ऐश करते हैं और व्यसनों के

शिकार बनकर पौरुष भी गँवाते हैं और संस्कार भी । इससे

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पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप

समाज ही असंस्कृत बनता है ।

हाथ से काम करने की वृत्ति एवं कुशलता के अभाव

में सार्वजनिक स्थानों पर, रास्तों पर, रेलगाडियों में,

Wea के तटों पर, समुद्रतटों पर, रेल की पटरियों के

किनारे किनारे निःसीम गन्दगी का साम्राज्य दिखता है । पैसे

नहीं मिलते इसलिये काम नहीं करना यह एक तर्क, ऐसा

काम करना हमारे गौरव को कम करता है इसलिये नहीं

करना यह दूसरा तर्क और सार्वजनिक स्वच्छता यह सरकार

का काम है, यह तीसरा तर्क गन्दगी को दूर करने के लिये

किसीको भी उद्युक्त नहीं करता । इसका विपरीत परिणाम

स्वास्थ्य, पर्यावरण, संस्कारिता, समृद्धि, सामर्थ्य आदि पर

होता है ।

इन सभी अनिष्टों के मूल में काम नहीं करने की वृत्ति

प्रवृत्ति ही है ।

उत्पादन को केन्द्रित और यन्त्र आधारित कर देने के

परिणाम स्वरूप समाज का आर्थिक सन्तुलन भारी मात्रा में

बिगड़ता है । कम मूल्यवान वस्तु भी अधिक महँगी होती

है, पैसे की अनुत्पादक हेराफेरी के कारण अनावश्यक तथा

हानिकारक पद्धति से संसाधनों का उपयोग होता है, लोगों

की कमाने की शक्ति कम होती है, कमाने के अवसर कम

होते हैं, दूसरी ओर जीवनावश्यक चीजें अनिवार्य रूप से

खरीदनी ही पड़ती हैं । इसके परिणाम स्वरूप ऋण लेने के

लिये लोग विवश हो जाते हैं । समाज में कण लेने देने का

Uh ast deat tar होता है । धीरे धीरे फैलता जाता है,

विदेशों तक फैलता है और व्यक्ति से लेकर पूरा देश करण

से ग्रस्त हो जाता है । करण में ही जीने की आदत पड़ जाने

से एक प्रकार की कुंठा और मजबूरी जेहन में उतर जाती

है। ऐसी प्रजा स्वाभिमान भूल जाती है । उसका स्वर

उन्मुक्त और उत्फुट्ल नहीं होता ।

हाथ से काम करने का अभ्यास यदि न हो तो स्नेह,

प्रेम, वात्सल्य, करुणा, आदर, विनय आदि भावनाओं को

कृतिरूप प्राप्त नहीं हो सकता । उदाहरण के लिये हाथ से

भोजन बनाकर घर के सदस्यों को प्रेमपूर्वक खिलाना, घर

के वृद्धों या रुगणों की शुश्रूषा और परिचर्या करना, अतिथि

या गुरु की सेवा करना, बच्चों का संगोपन करना, आदि

२८७

सभी कार्य यदि हाथ कुशलकर्मी नहीं हैं

तो नहीं हो सकते । बच्चों की कापियों को स्वयं आवरण

चढाना, भाई के लिये हाथ से स्वेटर बुनना, गुरु के लिये

आसन, बिछौना बिछाना और स्वच्छता करना, हाथ से

कारीगरी की वस्तु बनाकर सुशोभन करना आदि सब

कर्मशिक्षा के अभाव में संभव नहीं होता । इन व्यवहारों में

जो आत्मीयता प्रकट होती है और पनपती है, वह समाज

को प्रेम, आनन्द और सौन्दर्य की श्रेष्ठ कक्षा की तरंगों से

आप्लावित करती है । ऐसे समाज में श्री अर्थात्‌ शोभा और

श्री अर्थात्‌ लक्ष्मी स्थिर होकर वास करती है ।

किसी भी काम को करते करते हाथ का कौशल

बढ़ता है, कारीगरी में, निर्मिति में उत्कृष्टता आती है,

सृजनशील बुद्धि का विकास होता है और पदार्थों के

आन्तरिक स्वरूप की, पदार्थ के आन्तरिक रहस्य की

अनुभूति होती है । लगन से, चाव से, निष्ठा से काम करने

वाले के समक्ष सृष्टि अपने अन्तरतम रहस्य खोल देती है ।

इसे ही सृष्टि के साथ एकात्मता की अनुभूति कहते हैं । यही

आध्यात्मिकता है ।

इन सभी कारणों से काम करना, हाथ से उत्पादक

काम करना प्रत्येक मनुष्य के लिये अनिवार्य है । उसके

अपने हित के लिये, उसके अपने विकास के लिये अनिवार्य

है।

हाथ से काम करने की संस्कृति का विकास करने के

लिये निम्नलिखित बातों का विचार करना होगा और उन

विचारों के अनुसार योजना भी बनानी होगी ।

१, उचित मानसिकता निर्माण करना

2. हाथ से काम करना अच्छा है ।

2. हाथ से काम करने वाला, नहीं करने वाले से श्रेष्ठ

है।

3. हाथ से काम करते करते उत्कृष्टता प्राप्त करने वाला

श्रेष्ठ है ।

४. हाथ से काम करने से लक्ष्मीदेवी की कृपा प्राप्त होती

है।

५... जो दूसरों से काम करवाता है, वह श्रेष्ठ नहीं है ।

............. page-304 .............

जो दूसरों का काम करता है,

वह भी श्रेष्ठ नहीं है ।

यहाँ एक प्रश्न निर्माण होता है कि अनेक कारणों से,

अनेक परिस्थितियों में दूसरों से काम करवाना पड़ता है और

दूसरों का काम करना भी पड़ता है । उदाहरण के लिये

छोटा बालक, अति वृद्ध, रोगी, दुर्घटनाग्रस्त, अप॑ग व्यक्ति

अपना काम स्वयं नहीं कर सकते । साथ ही उनकी

आवश्यकता सामान्य से भी अधिक होती है । इस स्थिति में

किसी न किसीने इन लोगों का काम करना ही पड़ता है।

एक व्यक्ति की सभी प्रकार की आवश्यकतायें अकेले एक

व्यक्ति से पूर्ण नहीं होतीं । दूसरों द्वारा निर्मित वस्तुओं का

प्रयोग करना ही पडता है । एक घर में सब साथ रहते हों

तब सब अपना अपना सब काम स्वयं कर लें यह व्यवहार्य

नहीं होता है । यदि ऐसा हुआ तो वह साथ में जीना नहीं

हुआ । अतः व्यवहार जीवन में एकदूसरे का काम तो करना

होता ही है। परन्तु दूसरों का काम प्रेम, स्नेह, सख्य,

वात्सल्य, आदर, श्रद्धा, अनुकंपा या सहायता की भावना

से प्रेरित होकर करना एक बात है और मजबूरी, स्वार्थ,

भय, Uta, Gala, cai, Ale आदि से बाध्य होकर

करना दूसरी बात है । प्रथम प्रकार से दूसरों का कार्य करना

मनुष्य को उन्नत बनाता है, दूसरे प्रकार से करना हीन

बनाता है । इस प्रकार से दूसरों से काम करवाना और दूसरों

का काम करना रोकना चाहिये ।

इस प्रकार की मानसिकता निर्माण करना, यह

प्रथम चरण है ।

२. घर में शिशु अवस्था से काम करने के संस्कार देना

छोटे बच्चे हमेशा क्रियाशील होते हैं । उनके चित्त

बहुत संस्कारक्षम होते हैं । इसलिये उनपर कर्मसंस्कृति के

संस्कार हों ऐसा वातावरण बनाना चाहिये । बच्चों ने बड़ों

को काम करते हुए और काम में आनन्द लेते हुए देखना

चाहिये । माँ आनन्द से खाना बना रही है, पिताजी

स्वच्छता कर रहे हैं, दादाजी बगीचे में काम कर रहे हैं,

बडा भैया पुस्तकों को साफ कर व्यवस्थित रख रहा है, यह

सब छोटे बच्चों को दिखाई देना चाहिये ।

२८८

भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप

बाल अवस्था के बच्चों को घर के और बाहर के

कामों में साथ में जोड़ना चाहिये । यथा, घर की सफाई

करना, भोजन बनाना, बगीचे में काम करना, साइकिल या

स्कूटर साफ करना, पुड़िया बनाना, पुस्तकों को आवरण

चढ़ाना, पुस्तकें व्यवस्थित रखना, खरीदारी करना, वस्तुएँ

डिब्बों में भरना आदि सब काम करने में आनन्द लेना

सिखाना चाहिये ।

किशोर अवस्था के बच्चों को जिम्मेदारी पूर्वक और

स्वतंत्रता पूर्वक काम करना सिखाना चाहिये । यथा, घर की

दीवारों को पोतना, नल, पंखे और अन्य सामग्री की

मस्म्मत करना, सिलाई काम करना, भोजन बनाना, घर के

लिये आवश्यक वस्तुओं की गुणवत्ता परखकर खरीदारी

करना, घर के आँगन में फूल या सब्जी उगाना, कार्यक्रमों

में, उत्सवों में मंच खड़ा करना, दरियाँ बिछाना, सुशोभन

करना, परोसना, साफ सफाई करना आदि सब काम करने

की कुशलता विकसित हो, यह देखना चाहिये ।

युवा होने के बाद उत्पादक कार्य कर आजीविका

कमाने की क्षमता आना अत्यन्त आवश्यक है । हमारे देश

में उत्पादन को अत्यन्त श्रेष्ठ माना गया है, इसीलिये कृषि

और गोपालन को श्रेष्ठ व्यवसाय कहा गया है और नौकरी

को अत्यन्त हीन माना गया है ।

इस प्रकार परिवारजीवन को उद्यमशील और

उद्योगकेन्द्री बनाकर हम लक्ष्मीदेवी को अपने घर में और

समाज में अचल रूप से रहने वाली बना सकते हैं । ऐसी

लक्ष्मी मंगलकारी होती है ।

३. उद्योगकेन्द्री शिक्षा

वास्तव में ऊपर जिसका वर्णन किया गया है ऐसी

कर्मसंस्कृति विद्यालयों में ही सीखी और सिखाई जा सकती

है । विद्यालयों में कुछ इस प्रकार से विचार और योजना

की जा सकती है -

g. केवल लिखने, पढ़ने, सुनने और बोलने वाली

शिक्षापद्धति को. बदल कर क्रिया. आधारित

शिक्षापद्धति अनिवार्य बनाना चाहिये । बच्चों को

पुस्तकों और कापियों से भरा बस्ता उठाने वाले

............. page-305 .............

पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप

मजदूर बनाने के स्थान पर उत्पादक काम करने वाले

कारीगर बनाना अधिक श्रेयस्कर मानना चाहिये । वैसे

भी भाषा को छोड दिया तो कोई भी विषय बिना

क्रिया के सीखा ही नहीं जाता । अतः सार्थक शिक्षा

हेतु भी क्रिया आधारित शिक्षा होना आवश्यक है ।

इस दृष्टि से गणवेश में, कक्षाकक्ष की रचना में,

कक्षाकक्ष में बैठने की व्यवस्था में, फर्नीचर में भारी

बदलाव की आवश्यकता है ।

विद्यालय की. स्वच्छता, सुशोभन, व्यवस्था,

रखरखाव, मरम्मत आदि सब शिक्षकों और छात्रों को

मिलकर करने की व्यवस्था करना आवश्यक है । इस

व्यवस्था से पैसों की बचत होगी यह बात सही है,

परन्तु पैसों की बचत मुख्य लक्ष्य नहीं है । श्रम और

कर्मसंस्कृति का विकास होना ही मुख्य लक्ष्य है ।

विद्यालयों का शिक्षाक्रम उद्योगकेन्द्री बनाना चाहिये ।

विद्यालय की छोटी मोटी आवश्यकताओं की पूर्ति

हेतु उत्पादन तो विद्यालय में होना ही चाहिये, साथ

ही श्रमनिष्ठ बनकर, उपयोगी वस्तुओं का उत्पादन

कर, समाज की आवश्यकताओं को पूर्ण करने हेतु

व्यवसाय करने की और अपने स्वमान, गौरव और

स्वतंत्रता की रक्षा करने की वृत्ति का विकास होना

जरूरी है ।

आजकल पढ़ाई में उपकरणों का प्रयोग बहुत बढ

गया है। सुविधा के लिये वातानुकूलन, वाहन,

फर्निचर आदि की विपुलता के साथ साथ सी.डी.,

संगणक, कैलकुलेटर, विभिन्न प्रकार की मार्गदर्शिकायें

और अभ्यास पुस्तिका आदि की भरमार हो रही है ।

इसी कारण से शिक्षा दिन प्रतिदिन अत्यन्त महँगी हो

रही है । ये उपकरण पैसा तो खर्च करवाते ही हैं,

साथ ही सीखने की अंगभूत क्षमताओं को अवस्द्ध

कर देते हैं। इसलिये हमें हमारी ज्ञानेन्द्रियों और

कर्मन्द्रियों को निष्क्रिय बनाने वाली, उपकरणों पर

अधीनता बढ़ाने वाली और खर्च बढ़ाने वाली,

उपकरणों की व्यवस्थाओं को छोड़कर, कम से कम

उपकरणों के प्रयोग वाली और करणों को

२८९

अधिकाधिक सक्रिय बनाने वाली

शिक्षापद्धति का विकास करना चाहिये ।

५... मनोरंजन का क्षेत्र आत्यन्तिक परिवर्तन की अपेक्षा

करता है । हमें छात्रों को टी.वी. पर नृत्य, गीत,

फिल्म, सुनने और देखने के स्थान पर गाना, बजाना,

नाचना. और अभिनय करना सिखाना चाहिये ।

मोबाइल या संगणक पर अकेले खेलने के स्थान पर

मैदान में दौड़ भाग, चीख चिल्लाहट और खेंच पकड

के खेल खेलना सिखाना चाहिये । मिट्टी में शरीर को

रगड़ना और शरीर से पसीना बहाना, उत्तम शारीरिक

और मानसिक आरोग्य का जनक है । अपना काम

नौकरों से करवाने के स्थान पर स्वयं करना सिखाना

चाहिये । हमारे मंचीय और मैदानी कार्यक्रमों के साथ

साथ, हाथ से उत्पादित वस्तुओं की प्रदर्शनी और

बिक्री का. आयोजन अवश्य होना चाहिये ।

सृजनशीलता, उत्कृष्टता, उत्पादकता की स्पधर्यि भी

होनी चाहिये ।

६. छात्रों में पढ़ लिखकर कभी भी नौकरी नहीं करूँगा

अथवा किसीको नौकर नहीं बनाऊँगा' का संकल्प

जगाना चाहिये ।

७. विद्यालयों का निर्माणकार्य, मैदान, बगीचा तथा

अतिथियों की शुश्रूषा और सेवा, छात्र और आचार्यों

के जिम्मे करना चाहिये । विद्यालय संचालन की पूर्ण

जिम्मेदारी छात्रों और आचार्यों की होगी तब शिक्षा

सार्थक भी होगी और स्वायत्त भी होगी ।

जहाँ समाज के ९५ प्रतिशत लोग काम करते हैं,

पसीना बहाते हैं, उत्पादन करते हैं, निर्माण करते हैं, सृजन

करते हैं वहाँ सुख, समृद्धि, संस्कार, स्वमान, स्वतंत्रता,

गौरव, श्रेष्ठता, स्वास्थ्य, समरसता, आध्यात्मिकता अचल

होकर वास करते हैं । पाँच प्रतिशत में पागल, रोगी, पंगु

लोगों का समावेश होता है ।

कर्मशिक्षा किसी भी समाज की रीढ़ है । यह रीढ़

जितनी मजबूत, सीधी और लचीली होगी, समाज उतना ही

श्रेष्ठ होगा ।

............. page-306 .............

भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप

शास्रशिक्षा

शासख्त्रशिक्षा का अर्थ है किसी भी क्रिया, किसी भी

रचना, किसी भी पदार्थ के मूल तत्त्वों को जानना । यह

सैद्धान्तिक ज्ञान है ।

उदाहरण के लिये वर्णमाला में स्वर और व्यंजन ऐसे

दो प्रकार होते हैं । स्वर और व्यंजन की परिभाषा जानना

और उस परिभाषा के अनुसार उच्चारण की प्रक्रिया का

अवलोकन और परीक्षण करना शास्त्रीय ज्ञान है । बिना

सिद्धान्त जाने केवल उच्चारण का अनुकरण कर उच्चारण

करना यह क्रियात्मक शिक्षण है । सही उच्चारण के आनन्द

का अनुभव करना, सही उच्चारण करना अपना कर्तव्य

समझना, सही उच्चारण के साथ साथ मधुर स्वर से

उच्चारण को भगवती सरस्तवी की आराधना समझना यह

भाषा के सम्बन्ध में धर्मशिक्षा है । एक भाषा का शाख््रज्ञान

है, दूसरा भाषा का व्यवहार है और तीसरा वाग्देवी की

उपासना है। स्वाभाविक रूप से ही उपासना अर्थात्‌

धर्मशिक्षा का क्रम प्रथम है, व्यवहार अर्थात्‌ कर्मशिक्षा का

क्रम दूसरा है और व्याकरणज्ञान अर्थात्‌ शास्त्रशिक्षा का क्रम

तीसरा है ।

हमारा व्यवहार का भी अनुभव है कि बालक में

प्रथम भाषा के संस्कार होते हैं । गर्भावस्‍था से ही उसके

ऊपर भाषा के संस्कार होते हैं । परिणामस्वरूप उसके

सम्पूर्ण व्यक्तित्व में भाषा अनुस्यूत हो जाती है । यही

उसके लिये भाषा की उपासना है । आयु के साथ साथ

उपासना का यह भाव विकसित होता है । जन्म के साथ ही

भाषा तो बालक के साथ होती है । भाषा के वातावरण में

वह बडा होता है । उसके उच्चारण के अवयव सक्रिय होते

हैं तब वह बोलना सीखता है । प्रेरणा और अभ्यास से

उसका उच्चारण सही और मधुर होता जाता है। यह

कर्मशिक्षा है । जब उसके धर्म और कर्म दोनों पक्ष स्थिर

होते हैं तब वह स्वर और व्यंजन की परिभाषा सीखता है ।

हम समझ सकते हैं कि भाषा सीखने में शाख्रपक्ष का

२९०

क्रम बाद में ही आता है । हममें से कोई भी सिद्धान्त प्रथम

सीखकर बोलना बाद में नहीं सीखते । चलना, गाना,

खाना, खेलना, रोटी बनाना, कपडे धोना, सुई धागे से

कपडा सीलना, सिलाई मशीन चलाना, चित्र बनाना,

गिनती बोलना, जोड करना आदि सब सिद्धान्त जानकर

उसे लागू करते हुए नहीं सीखा जाता । क्रम इससे उल्टा

है। अच्छी तरह से क्रिया करने का अभ्यास परिपक्क होने

के बाद सिद्धान्त सरलता से सीखा जाता है । कभी कभी

तो सिद्धान्त अपने आप समझ में आता है । सिद्धान्त अपने

आपको हमारे सामने प्रकट करता है ।

ऐसा नहीं है कि पढ़ने के क्रम में शास्त्रशिक्षा की

आवश्यकता नहीं है । पदार्थविज्ञान, गणित, भूमिति आदि

सीखते समय सिद्धान्त जानकर फिर विषय सीखा जाता है ।

परन्तु उस समय भी सिद्धान्त के साथ क्रिया नहीं जुडी है

तो सिद्धान्त समझना, कठिन कभी कभी तो असंभव हो

जाता है । निम्नलिखित उदाहरण इस तथ्य को ठीक से

समझाता है ।

गुरु ने कहा, ब्रह्म इस सृष्टि में सर्वत्र व्याप्त है ।

शिष्य को यह बात समझ में नहीं आई क्यों कि ब्रह्म कहीं

पर दिखाई तो नहीं देता है । फिर इसका अनुभव भी तो

नहीं है । अतः उसे समझाने के लिये गुरु ने शिष्य को एक

गिलास भरकर पानी और चुटकी भर नमक लाने के लिये

कहा । शिष्य नमक और पानी ले आया । गुरु ने शिष्य को

पानी में नमक घोलने के लिये कहा । शिष्य ने वैसा ही

किया । गुरु ने पूछा, “नमक दिखाई देता है क्या ?” शिष्य

ने कहा, “नहीं दिखाई देता ।' फिर नमक कहाँ है ? नमक

पानी में है । अतः दिखाई नहीं देता है तब भी नमक है इस

उदाहरण से दिखाई नहीं देता तो भी ब्रह्म है यह सिद्धान्त से

समझ में आया । फिर गुरु ने कहा, “गिलास में ऊपर की

ओर से पानी लेकर चखो ।' शिष्य ने चखा । पानी खारा

लगा । इसका अर्थ है, ऊपर की ओर जो पानी है उसमें

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पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप

नमक है । फिर कहा, “मध्य का पानी चखो ।' चखा ।

मध्य में भी नमक है । नीचे का चखा । वहाँ भी नमक है ।

कहीं से भी चखो, पानी खारा है अर्थात्‌ नमक पानी मेंछ्व

सर्वत्र है । उसी प्रकार से ब्रह्म भी सृष्टि में सर्वत्र है । इसे

कहते हैं विज्ञान का प्रयोग । प्रयोग क्रिया है, अनुभव है,

और क्रिया और अनुभव से सिद्धान्त अर्थात्‌ शास्त्र जल्दी

समझ में आता है, ठीक प्रकार से समझ में आता है ।

इसलिये शास्त्रशिक्षा, धर्मशिक्षा और कर्मशिक्षा के

बाद में होती है ।

शाख्त्रशिक्षा से सिद्धान्त समझ में आता है परन्तु

व्यवहार जीवन धर्म और कर्म के बिना चलता नहीं है ।

रोटी बनाने का शास्त्र जानने से भूख शान्त नहीं होती, रोटी

बनाकर खाने से भूख मिटती है । रोटी बनाने के कौशल से

रोटी बनती है, शास्त्र से नहीं । आरोग्यशास्त्र के नियम

जानने से निरामय प्राप्त नहीं होता, तैरने की कला की

पुस्तकें पढने से तैरना नहीं आता, लिखित वर्णन करना

भले ही आता हो । लिखने से परीक्षा में अंक प्राप्त होकर

पास भले ही हुआ जाता हो, पानी में उतरने पर तैरना नहीं

आता |

अतः व्यवहार की दुनिया में धर्म और कर्म ही तारक

हैं, उद्धारक हैं, शाख्र नहीं ।

फिर भी शास्त्रशिक्षा की अनिवार्यता है । शास्त्र के

बिना क्रिया सही ढंग से नहीं होती । शास्त्र से ही किसी भी

क्रिया को, रचना को या प्रक्रिया को वैज्ञानिकता प्राप्त होती

है । श्रीमदू भगवद्गीता में श्री भगवान कहते हैं -

यः शाख्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।

न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिमू ॥।

अर्थात्‌

शाख्रविधि को छोड़कर जो मन में उठे तुक्कों या

तरंगों के अनुसार व्यवहार करता है उसे सुख, सिद्धि या

मोक्ष नहीं मिलते ।

इसलिये शास्त्रशिक्षा अनिवार्य है । परन्तु शास्त्रशिक्षा

के सन्दर्भ में दो बातें ठीक से समझना आवश्यक है ।

१, शाख््रशिक्षा सभी के लिये आवश्यक नहीं है ।

२९१

शिक्षित समाज के दस प्रतिशत लोग

यदि शास्त्र जानते हैं तो पर्याप्त है । व्यावहारिक दृष्टि से

देखें तो किसान खेत में खेती करेगा, या खेती के शास्त्र का

अध्ययन करेगा ? गृहिणी भोजन बनायेगी या भोजन के

शास्त्र का अध्ययन करेगी ? यदि सब अध्ययन में ही लगेंगे

तो फिर काम कौन करेगा ? काम नहीं होगा तो व्यवहार

कैसे चलेगा ? व्यवहार ही नहीं चलेगा तो जीवन ही रुक

जायेगा ।

इसलिये नब्बे प्रतिशत लोगों को तो काम करना

चाहिये । काम करने के लिये जितने शास्त्ज्ञान की

आवश्यकता है उतना ज्ञान काम करते करते स्वयं प्राप्त

होता है, और / अथवा आसपास के अनुभवी लोगों से

प्राप्त हो जाता है ।

परन्तु काल के प्रवाह में, एक पीढी से दूसरी पीढ़ी

तक हस्तांतरित होते होते क्रियाप्रक्रियाओं में, पद्धतियों में

विकृतियाँ आती हैं, अंधश्रद्धायें निर्माण होती हैं, fete

आती हैं । कई बातें कालबाह्म हो जाती हैं । उनमें दोष

निर्माण होते हैं । इन्हें नित्य परिष्कृत करने की आवश्यकता

होती है । शास्त्र के जानकार लोग ही यह कार्य कर सकते

हैं । उनका ही यह अधिकार है । वास्तव में इस कार्य को

शास्त्रीय अध्ययन और अनुसन्धान कहते हैं ।

इस प्रकार का अध्ययन और अनुसंधान करना यह

वास्तव में ज्ञानसाधना है । शिक्षित समाज के दस प्रतिशत

लोगों को ऐसी ज्ञानसाधना करने के लिये अपने आपको

प्रस्तुत करना चाहिये । परन्तु इस प्रकार की ज्ञानसाधना भी

धर्मशिक्षा और कर्मशिक्षा के बिना नहीं की जाती ।

जिसे अध्यापन करना है उसे भी शास्त्रशिक्षा की

आवश्यकता है, क्यों कि क्रिया आधारित, अनुभव

आधारित शिक्षा प्राप्त करने हेतु प्रेरित करना और मार्गदर्शन

करना भी शास्त्रीय ज्ञान के बिना संभव नहीं है ।

इस प्रकार धर्मशिक्षा, कर्मशिक्षा और शास्त्रशिक्षा का

मेल बिठाकर घरों में, विद्यालयों में, महाविद्यालयों में,

अनुसंधान केन्द्रों में, समाज में, धर्मकेन्द्रों में शिक्षा की

पुर्चना करने की आवश्यकता है ।

References

  1. धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ६, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे