Difference between revisions of "दायित्वबोध के अभाव का संकट"

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१७. युवक युवतियों को अच्छे मातापिता बनना सिखाया नहीं, शिक्षकों को ज्ञाननिष्ठा और विद्यार्थीनिष्ठ बनाया नहीं, डॉक्टरों को रुग्णों के प्रति जिम्मेदार बनाया नहीं, निष्पक्षपाती बनने हेतु न्याय की देवी को हमने अन्धी बनाया । उद्देश्य यह था कि वह दोनों पक्षों में अपना पराया न देखे, परन्तु वास्तव में वह विवेक के चक्षु न होने से अन्धी हो गई । यह भारत की न्यायसंकल्पना नहीं है । सत्यशोधन, निरपराध की मुक्ति और अपराधी को दण्ड केवल निर्जीव कानून की धाराओं से नहीं होता । वे तो केवल साधन है। इन साधनों का चाहे जैसा उपयोग करनेवाले वकील पक्षपाती हैं । वे सत्य का पक्ष नहीं लेते, अपने पक्ष को सही सत्य सिद्ध करने हेतु कानून की धाराओं का युक्तिपूर्वक उपयोग करते हैं। परन्तु न्यायदान के लिये विवेक चाहिये, बुद्धि भी चाहिये । कानून और वकील के अधीन नहीं अपितु उनसे अधिक सक्षम होना होता है । जडवादी पश्चिम और उससे प्रभावित हम इसे कैसे समझ सकते हैं ? इसलिये न्याय के लिये न्यायालयों की ख्याति ही नहीं रह गई है । परिणाम पश्चिमीकरण का और हम अपने ही न्यायतन्त्र को कोसते हुए कहते हैं कि अन्य देशों में न्याय मिलने में विलम्ब नहीं होता जबकि भारत में न्याय मिलता ही नहीं है, न्यायक्षेत्र में भी भ्रष्टाचार है ।
 
१७. युवक युवतियों को अच्छे मातापिता बनना सिखाया नहीं, शिक्षकों को ज्ञाननिष्ठा और विद्यार्थीनिष्ठ बनाया नहीं, डॉक्टरों को रुग्णों के प्रति जिम्मेदार बनाया नहीं, निष्पक्षपाती बनने हेतु न्याय की देवी को हमने अन्धी बनाया । उद्देश्य यह था कि वह दोनों पक्षों में अपना पराया न देखे, परन्तु वास्तव में वह विवेक के चक्षु न होने से अन्धी हो गई । यह भारत की न्यायसंकल्पना नहीं है । सत्यशोधन, निरपराध की मुक्ति और अपराधी को दण्ड केवल निर्जीव कानून की धाराओं से नहीं होता । वे तो केवल साधन है। इन साधनों का चाहे जैसा उपयोग करनेवाले वकील पक्षपाती हैं । वे सत्य का पक्ष नहीं लेते, अपने पक्ष को सही सत्य सिद्ध करने हेतु कानून की धाराओं का युक्तिपूर्वक उपयोग करते हैं। परन्तु न्यायदान के लिये विवेक चाहिये, बुद्धि भी चाहिये । कानून और वकील के अधीन नहीं अपितु उनसे अधिक सक्षम होना होता है । जडवादी पश्चिम और उससे प्रभावित हम इसे कैसे समझ सकते हैं ? इसलिये न्याय के लिये न्यायालयों की ख्याति ही नहीं रह गई है । परिणाम पश्चिमीकरण का और हम अपने ही न्यायतन्त्र को कोसते हुए कहते हैं कि अन्य देशों में न्याय मिलने में विलम्ब नहीं होता जबकि भारत में न्याय मिलता ही नहीं है, न्यायक्षेत्र में भी भ्रष्टाचार है ।
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[[Category:धार्मिक शिक्षा ग्रंथमाला 4: पश्चिमीकरण से धार्मिक शिक्षा की मुक्ति]]

Revision as of 22:47, 24 June 2020

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कुछ उदाहरण

१, किसी व्यक्ति ने रेल का समय पूछा और हमने बताया । उस व्यक्ति की रेल छूट गई क्योंकि हमने बताया हुआ समय गलत था । उसे जो परेशानी हुई उसका दायित्व हमारा है । हम कया करेंगे ?

२. किसी व्यक्ति ने हमसे रास्ता पूछा हमने बताया । परन्तु वह भटक गया । अथवा गलत स्थान पर पहुँच गया । उसे भारी नुकसान हुआ । हमने ही उसे गलत निर्देश दिये थे । अब हम क्या करेंगे ?

३. हमने किसी दुकान से कपडा खरीदा । गुणवत्ता के बारे में दुकानदारने आश्वस्त किया था । घर आकर हमने दूसरे कपड़ों के साथ ही धोया । कपडे का तो रंग उतर गया परन्तु दूसरे कपडे भी इस रंग से खराब हुए । उस दुकानदार से शिकायत की तो उसने पल्ला झटक दिया । हम क्या करेंगे ?

४. किसी ने हमें कुछ काम करने में सहायता माँगी । हमने खुशी से उसका स्वीकार किया । परन्तु हमने वह काम पूरा किया नहीं । नहीं करेंगे ऐसा भी नहीं बताया और किया भी नहीं । उसका काम हमारे भरोसे के कारण पूरा नहीं हुआ । हम क्या करेंगे ?

५. मेरे पास चार विद्यार्थी पढ़ रहे हैं । वे बहुत तेजस्वी हैं। उनके विकास की पूरी सम्भावनायें हैं । मेरे पास वे पाँच वर्ष रहे । किसी दूसरे से पढ़े होते तो उनका विकास होता । मैने जाने भी नहीं दिया और पढ़ाया भी नहीं । इस तथ्य को वे नहीं जानते परन्तु मुझे इस बात की पूर्ण जानकारी है। में क्या करूँ ? मेरा कया होगा ? उन विद्यार्थियों का जो नुकसान हुआ उसका दायित्व किसका है ?

६. सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षक हैं, सामग्री है और विद्यार्थी भी हैं । परन्तु उनमें अध्ययन होता नहीं है । कौन क्या करेगा ? दायित्व किसका है ?

७. रुण डॉक्टर के पास आते हैं । अनेकों को दवाई की आवश्यकता ही नहीं होती तो भी दवाई दी जाती है । निदान गलत होते हैं। रोगी का पैसा खर्च होता है । रोगी रोगमुक्त होता नहीं है । उसकी परेशानी के लिये डॉक्टर कितना जिम्मेदार है ?

८. घर में बालक अनन्त सम्भावनायें लेकर जन्म लेता है। परन्तु मातापिता अनाडी हैं । हउन्हें संगोपन आता नहीं । आहार विहारादि की कोई जानकारी नहीं है । बालक की सारी सम्भावनायें कुण्ठित हो जाती हैं । मातापिता का क्या करें ?

९. न्यायालय के कटघरे में एक व्यक्ति आरोपी के पिंजडे में खडा है। सब जानते हैं कि वह दोषी है । दोनों पक्षों के वकील, दोनों पक्षों के साक्षीदार, न्यायालय में उपस्थित सभी दर्शक, स्वयं न्यायाधीश जानते हैं कि वह दोषी है। परन्तु प्रमाणों के अभाव में वह निर्दोष सिद्ध होता है। उसे निर्दोष बताने वाले भी जानते ही हैं कि वह दोषी है। इसके बावजूद वह निर्दोष सिद्ध होता है । किसका दायित्व है ?

१०. विश्वविद्यालयों में विभिन्न विषयों के जो पाठ्यक्रम होते हैं उनके विषय में दो प्रकार की शिकायतें होती हैं। एक यह कि वे व्यावहारिक जीवन के साथ सुसंगत नहीं होते हैं। दूसरी यह कि वे धार्मिक जीवनदृष्टि के साथ भी सुसंगत नहीं होते । पाठ्यक्रम निर्मिति का काम विश्वविद्यालयों का ही होता है । फिर वे क्यों नहीं करते ? यदि वे नहीं करते तो कौन क्या कर सकता है ?

११. सडक पर दुर्घटना होती है । कोई एक व्यक्ति गम्भीर रूप से घायल होता है । आसपास से अनेक वाहन गुजर रहे हैं । कोई भी व्यक्ति उस घायल व्यक्ति को अस्पताल में नहीं पहुँचाता । वह व्यक्ति मर जाता है । समय से अस्पताल पहुँचाया जाता तो कदाचित नहीं मरता । ऐसी स्थिति में कौन क्या कर सकता है?

१२. ये सारे उदाहरण दायित्वबोध के अभाव के हैं । कुछ तो मानवीय दायित्वबोध के हैं । इन्हें नैतिक दायित्व भी कहा जाता है। कुछ व्यावसायिक दायित्व हैं । ये मानवीय दायित्व ही हैं परन्तु इसे भूलने वाला तो अधिक गम्भीर रूप से अपराधी है क्योंकि ये स्वार्थवश किये गये प्रमाद्‌ का परिणाम है। कुछ ऐसा हैं जहाँ व्यवस्था में दायित्व से मुकरने वाले को पहचानने की ओर दृण्डित करने की क्षमता ही नहीं है ।

पश्चिमी शिक्षा के परिणाम

१३. ये सब पश्चिमी शिक्षा के परिणाम हैं जहाँ दायित्व के विषय में कुछ भी सिखाया नहीं जाता । दायित्व अपने कर्तव्य के स्वीकार में से पैदा होता है । जो जीवनदृष्टि केवल अधिकार ही सिखाती है और अधिकार की प्राप्ति के लिये जितने न्यूनतम कर्तव्य का पालन करना अनिवार्य है उतना ही करने में अपनी इतिकर्तव्यता मानना ही तो सिखाया जाता है। ऐसी शिक्षा का परिणाम यही होगा इसमें क्या आश्चर्य है ?

१४. पश्चिमी शिक्षा के परिणाम स्वरूप हम सृष्टि के सभी पदार्थों को हमारे सुख के संसाधन मानने लगे हैं । इसी सूत्र को आगे बढ़ाते हुए हम मनुष्य को भी संसाधन ही मानने लगे हैं । दुर्बल मनुष्य बलवान के, कम बुद्धि वाला बुद्िमान के, कम धनवान अधिक धनवान के, कम सत्तावान अधिक सत्तावान के सुख हेतु संसाधन है । हर व्यक्ति अपने मनोराज्य में मनुष्यसहित सारी सृष्टि को संसाधन ही मानता है। हमारी सरकार का शिक्षा मन्त्रालय अपने आपको मानव संसाधन विकास मन्त्रालय कहता है । शिक्षा का घोषित उद्देश्य ही मनुष्य का संसाधन के रूप में विकास करना है। मनुष्य किसका संसाधन है ऐसा प्रश्न पूछने पर मोटे मोटे ही उत्तर मिलते हैं । उत्तर में तात्विक और भावात्मक उत्तर मिलते हैं । इन उत्तरों का वास्तविक कोई अर्थ नहीं होता । ऐसी स्थिति में कोई भी प्रजा, कोई भी समाज, कोई भी देश स्थिरता, सुरक्षा और निश्चिन्तता कैसे प्राप्त कर सकता है ? सब कुछ छिन्नविच्छिन्न अवस्था में ही रहेगा इसमें कोई आश्चर्य नहीं ।

१५. किसी भी प्रकार का दायित्वबोध नहीं होने के कारण सारे भौतिक संसाधनों का भारी अपव्यय होता है, लोगों की क्षमताओं का विकास नहीं होता, क्षमताओं का उपयोग नहीं होता, नियम और कानून का पालन नहीं होता, अन्याय, शोषण, अत्याचार, अपराध आदि का नियन्त्रण नहीं होता, देश की बदनामी होती है, समाज की भारी हानि होती है ।

१६, केवल धर्म ही दायित्व बोध  सिखा सकता है । केवल धर्म ही प्रत्येक व्यक्ति के मन में जो अच्छाई है उसे प्रकट होने हेतु आवाहन कर सकता है और उसे सक्रिय होने की प्रेरणा दे सकता है । परन्तु पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव में हमने धर्म को विवाद का विषय बना दिया, अच्छाई को यान्त्रिक मानकों पर तौलना शुरू किया और कर्तव्य को अपने सुख के गणित पर नापना सिखा दिया । इससे समाज पूर्ण रूप से शिथिलबन्ध हो गया और बिखराव शुरू हुआ |

१७. युवक युवतियों को अच्छे मातापिता बनना सिखाया नहीं, शिक्षकों को ज्ञाननिष्ठा और विद्यार्थीनिष्ठ बनाया नहीं, डॉक्टरों को रुग्णों के प्रति जिम्मेदार बनाया नहीं, निष्पक्षपाती बनने हेतु न्याय की देवी को हमने अन्धी बनाया । उद्देश्य यह था कि वह दोनों पक्षों में अपना पराया न देखे, परन्तु वास्तव में वह विवेक के चक्षु न होने से अन्धी हो गई । यह भारत की न्यायसंकल्पना नहीं है । सत्यशोधन, निरपराध की मुक्ति और अपराधी को दण्ड केवल निर्जीव कानून की धाराओं से नहीं होता । वे तो केवल साधन है। इन साधनों का चाहे जैसा उपयोग करनेवाले वकील पक्षपाती हैं । वे सत्य का पक्ष नहीं लेते, अपने पक्ष को सही सत्य सिद्ध करने हेतु कानून की धाराओं का युक्तिपूर्वक उपयोग करते हैं। परन्तु न्यायदान के लिये विवेक चाहिये, बुद्धि भी चाहिये । कानून और वकील के अधीन नहीं अपितु उनसे अधिक सक्षम होना होता है । जडवादी पश्चिम और उससे प्रभावित हम इसे कैसे समझ सकते हैं ? इसलिये न्याय के लिये न्यायालयों की ख्याति ही नहीं रह गई है । परिणाम पश्चिमीकरण का और हम अपने ही न्यायतन्त्र को कोसते हुए कहते हैं कि अन्य देशों में न्याय मिलने में विलम्ब नहीं होता जबकि भारत में न्याय मिलता ही नहीं है, न्यायक्षेत्र में भी भ्रष्टाचार है ।