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कर्मेन्द्रियाँ क्रिया करती हैं और क्रिया के रूप में ज्ञानार्जन करती हैं। ज्ञानेंद्रियाँ संवेदनों को ग्रहण करती हैं
 
कर्मेन्द्रियाँ क्रिया करती हैं और क्रिया के रूप में ज्ञानार्जन करती हैं। ज्ञानेंद्रियाँ संवेदनों को ग्रहण करती हैं
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और संवेदनों के रूप में ज्ञानार्जन करती हैं । मन इच्छा के रूप में कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों को क्रिया करने और संवेदनों को ग्रहण करने हेतु प्रेरित करता है । मन उन दोनों का स्वामी है इसलिए मन की प्रेरणा के बिना कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेंद्रियाँ अपना अपना कार्य करने हेतु प्रवृत्त ही नहीं होती हैं । मन इच्छा के रूप में विषय को ग्रहण करता है। भावना के रूप में विषय को पसन्द नापसन्द करता है। विचार के रूप में विषय को सूक्ष्म रूप में ग्रहण करता है। बुद्धि विषयों को सूक्ष्म रूप में ग्रहण करने के बाद अपने अनेक साधनों का प्रयोग कर विषय को यथार्थ रूप में ग्रहण करती है। बुद्धि के जानने को विवेक कहते हैं। अहंकार जानने के साथ कर्ता रूप में और भोक्ता रूप में ग्रहण करता है। चित्त विषयों को संस्कार रूप में ग्रहण करता है।
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और संवेदनों के रूप में ज्ञानार्जन करती हैं । मन इच्छा के रूप में कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों को क्रिया करने और संवेदनों को ग्रहण करने हेतु प्रेरित करता है । मन उन दोनों का स्वामी है अतः मन की प्रेरणा के बिना कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेंद्रियाँ अपना अपना कार्य करने हेतु प्रवृत्त ही नहीं होती हैं । मन इच्छा के रूप में विषय को ग्रहण करता है। भावना के रूप में विषय को पसन्द नापसन्द करता है। विचार के रूप में विषय को सूक्ष्म रूप में ग्रहण करता है। बुद्धि विषयों को सूक्ष्म रूप में ग्रहण करने के बाद अपने अनेक साधनों का प्रयोग कर विषय को यथार्थ रूप में ग्रहण करती है। बुद्धि के जानने को विवेक कहते हैं। अहंकार जानने के साथ कर्ता रूप में और भोक्ता रूप में ग्रहण करता है। चित्त विषयों को संस्कार रूप में ग्रहण करता है।
    
== ज्ञानार्जन प्रक्रिया ==
 
== ज्ञानार्जन प्रक्रिया ==
सभी करण समवेत रूप में ज्ञान ग्रहण करते हैं। कोई एक भी करण यदि ठीक रूप में ज्ञानार्जन के कार्य में संलग्न नहीं हुआ है तो ज्ञानार्जन ठीक से नहीं होता । इसलिए सभी करणों का कार्य एकदूसरे से संलग्न होकर कैसे होता है इसे समझना जरूरी है।
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सभी करण समवेत रूप में ज्ञान ग्रहण करते हैं। कोई एक भी करण यदि ठीक रूप में ज्ञानार्जन के कार्य में संलग्न नहीं हुआ है तो ज्ञानार्जन ठीक से नहीं होता । अतः सभी करणों का कार्य एकदूसरे से संलग्न होकर कैसे होता है इसे समझना आवश्यक है।
    
कर्मेन्द्रियाँ क्रिया करती हैं। क्रिया संवेदनों में रूपांतरित होती हैं। थोड़ा विचार करने पर ध्यान में आता है कि हाथ, पैर, वाणी कि क्रिया ज्ञानेन्द्रियों के संवेदनों के बिना व्यवहार में सम्भव नहीं होती हैं। उदाहरण के लिये कान से सुने बिना वाणी से बोला नहीं जाता है । वाणी श्रवणेन्द्रिय का ही अनुसरण करती है । हाथ के साथ स्पर्शेन्द्रिय जुड़ी हुई है । स्पर्श के बिना हाथ का काम होता ही नहीं है । अर्थात संवेदन का क्रिया में और क्रिया का संवेदन में रूपांतर होता है । कर्मेन्द्रियों की क्रिया और ज्ञानेन्द्रियों का संवेदन विचारों में रूपांतरित होकर मन ग्रहण करता है । मन विषय को भौतिक स्वरूप में ग्रहण नहीं कर सकता । अत: क्रिया और संवेदनों का रूपान्तरण विचारों में होना ही होता है। मन पदार्थ को विचार के रूप में ग्रहण कर अपने विभिन्न भावों के रंगों में रंगता है । मन में यदि आसक्ति है तो उसके और द्वेष है तो उसके रंग में रंगता है। आसक्ति है तो वस्तु उसे पसन्द होती है और वह सुख का अनुभव करता है। द्वेष है तो पदार्थ उसे नापसन्द होता है और वह दुःख का अनुभव करता है । इससे विषय या पदार्थ का भौतिक स्वरूप बदल जाता है। वह इन्द्रियों के अनुरूप नहीं अपितु मन के अनुरूप हो जाता है । ऐसे रागद्वेष, सुखदुःख और अच्छे बुरे के रूप में पदार्थ के विचार तरंग बुद्धि के समक्ष प्रस्तुत होते हैं। बुद्धि मन के द्वारा प्रस्तुत हुए विचार तरंगों पर अपने साधनों से अनेक प्रकार की प्रक्रिया करती है । बुद्धि के साधन हैं निरीक्षण, परीक्षण, तर्क, अनुमान, संश्लेषण, विश्लेषण, साम्यभेद और तुलना | इनमें प्रथम दो अर्थात निरीक्षण और परीक्षण के लिये वह ज्ञानेन्द्रियों का सहयोग लेती है । हम आँख से निरीक्षण करते हैं और शेष इन्द्रियों से परीक्षण करते हैं । शेष सब बुद्धि की ही शक्ति पर निर्भर करते हैं । तर्क का अर्थ है किसी भी घटना का कार्यकारण भाव जानना । व्यवहारजगत में सभी घटनायें कार्यकारण संबन्ध से जुड़ी हुई ही रहती हैं । उदाहरण के लिये पानी गिरता है तभी भूमि गीली होती है, उसके बिना नहीं । मनुष्य क्रोध, भय, हर्ष आदि भावों के अनुभव को व्यक्त करने के लिये ही चिल्लाता है । आनंद का अनुभव करता है और नाचता है । भूख लगती है तब खाता है । अर्थात किसी भी कार्य के लिये कारण रहता ही है । कार्य कारण का परिणाम है और कारण कार्य का स्रोत है । इस कार्यकारण संबन्ध को जानना बुद्धि का काम है।
 
कर्मेन्द्रियाँ क्रिया करती हैं। क्रिया संवेदनों में रूपांतरित होती हैं। थोड़ा विचार करने पर ध्यान में आता है कि हाथ, पैर, वाणी कि क्रिया ज्ञानेन्द्रियों के संवेदनों के बिना व्यवहार में सम्भव नहीं होती हैं। उदाहरण के लिये कान से सुने बिना वाणी से बोला नहीं जाता है । वाणी श्रवणेन्द्रिय का ही अनुसरण करती है । हाथ के साथ स्पर्शेन्द्रिय जुड़ी हुई है । स्पर्श के बिना हाथ का काम होता ही नहीं है । अर्थात संवेदन का क्रिया में और क्रिया का संवेदन में रूपांतर होता है । कर्मेन्द्रियों की क्रिया और ज्ञानेन्द्रियों का संवेदन विचारों में रूपांतरित होकर मन ग्रहण करता है । मन विषय को भौतिक स्वरूप में ग्रहण नहीं कर सकता । अत: क्रिया और संवेदनों का रूपान्तरण विचारों में होना ही होता है। मन पदार्थ को विचार के रूप में ग्रहण कर अपने विभिन्न भावों के रंगों में रंगता है । मन में यदि आसक्ति है तो उसके और द्वेष है तो उसके रंग में रंगता है। आसक्ति है तो वस्तु उसे पसन्द होती है और वह सुख का अनुभव करता है। द्वेष है तो पदार्थ उसे नापसन्द होता है और वह दुःख का अनुभव करता है । इससे विषय या पदार्थ का भौतिक स्वरूप बदल जाता है। वह इन्द्रियों के अनुरूप नहीं अपितु मन के अनुरूप हो जाता है । ऐसे रागद्वेष, सुखदुःख और अच्छे बुरे के रूप में पदार्थ के विचार तरंग बुद्धि के समक्ष प्रस्तुत होते हैं। बुद्धि मन के द्वारा प्रस्तुत हुए विचार तरंगों पर अपने साधनों से अनेक प्रकार की प्रक्रिया करती है । बुद्धि के साधन हैं निरीक्षण, परीक्षण, तर्क, अनुमान, संश्लेषण, विश्लेषण, साम्यभेद और तुलना | इनमें प्रथम दो अर्थात निरीक्षण और परीक्षण के लिये वह ज्ञानेन्द्रियों का सहयोग लेती है । हम आँख से निरीक्षण करते हैं और शेष इन्द्रियों से परीक्षण करते हैं । शेष सब बुद्धि की ही शक्ति पर निर्भर करते हैं । तर्क का अर्थ है किसी भी घटना का कार्यकारण भाव जानना । व्यवहारजगत में सभी घटनायें कार्यकारण संबन्ध से जुड़ी हुई ही रहती हैं । उदाहरण के लिये पानी गिरता है तभी भूमि गीली होती है, उसके बिना नहीं । मनुष्य क्रोध, भय, हर्ष आदि भावों के अनुभव को व्यक्त करने के लिये ही चिल्लाता है । आनंद का अनुभव करता है और नाचता है । भूख लगती है तब खाता है । अर्थात किसी भी कार्य के लिये कारण रहता ही है । कार्य कारण का परिणाम है और कारण कार्य का स्रोत है । इस कार्यकारण संबन्ध को जानना बुद्धि का काम है।
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अनुमान करना तर्क का ही दूसरा प्रकार है । अभ्यास से बुद्धि अनुमान करती है । किसी भी घटना या स्थिति के सभी अंगों को समग्रता में जानना संश्लेषण है जबकि सभी आयामों को अलग अलग स्वतंत्र रूप से जानना विश्लेषण है । दो पदार्थों के रूप, रंग, गंध आदि तथा कारण और परिणाम की तुलना कर साम्य और भेद जानना भी बुद्धि का ही काम है । इन सबके आधार पर घटना, व्यवहार, व्यक्ति, स्थिति, व्यवस्था आदि का यथार्थ रूप जानना विवेक कहा जाता है । विवेक ही बुद्धि का कार्य है। अहंकार किसी भी जानने के साथ कर्ता के रूप में जुड़ता है । अर्थात क्रिया का करने वाला अहंकार होता है । जो करता है वही परिणाम का भोग भी करता है । इन सबके संस्कार चित्त पर पड़ते हैं । इन संस्कारों पर आत्मा का प्रकाश पड़ने से ज्ञान होता है। इस प्रकार मनुष्य के व्यक्तित्व के सभी आयाम ज्ञानार्जन की प्रक्रिया में अपनी अपनी क्षमताओं के साथ सहभागी होते हैं । ये ज्ञानार्जन के करण हैं । इन करणों के बिना ज्ञानार्जन सम्भव नहीं है। बाहर के सारे उपकरण इन करणों के बिना ज्ञानार्जन नहीं कर सकते । वे करणों के आश्रित होते हैं । इसलिए करणों की चिन्ता उपकरणों से अधिक करनी चाहिए |
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अनुमान करना तर्क का ही दूसरा प्रकार है । अभ्यास से बुद्धि अनुमान करती है । किसी भी घटना या स्थिति के सभी अंगों को समग्रता में जानना संश्लेषण है जबकि सभी आयामों को अलग अलग स्वतंत्र रूप से जानना विश्लेषण है । दो पदार्थों के रूप, रंग, गंध आदि तथा कारण और परिणाम की तुलना कर साम्य और भेद जानना भी बुद्धि का ही काम है । इन सबके आधार पर घटना, व्यवहार, व्यक्ति, स्थिति, व्यवस्था आदि का यथार्थ रूप जानना विवेक कहा जाता है । विवेक ही बुद्धि का कार्य है। अहंकार किसी भी जानने के साथ कर्ता के रूप में जुड़ता है । अर्थात क्रिया का करने वाला अहंकार होता है । जो करता है वही परिणाम का भोग भी करता है । इन सबके संस्कार चित्त पर पड़ते हैं । इन संस्कारों पर आत्मा का प्रकाश पड़ने से ज्ञान होता है। इस प्रकार मनुष्य के व्यक्तित्व के सभी आयाम ज्ञानार्जन की प्रक्रिया में अपनी अपनी क्षमताओं के साथ सहभागी होते हैं । ये ज्ञानार्जन के करण हैं । इन करणों के बिना ज्ञानार्जन सम्भव नहीं है। बाहर के सारे उपकरण इन करणों के बिना ज्ञानार्जन नहीं कर सकते । वे करणों के आश्रित होते हैं । अतः करणों की चिन्ता उपकरणों से अधिक करनी चाहिए |
    
== ज्ञानार्जन के करण और ज्ञानार्जन प्रक्रिया ==
 
== ज्ञानार्जन के करण और ज्ञानार्जन प्रक्रिया ==
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परन्तु इस बात का दूसरा आयाम यह है कि अभ्यास और प्रशिक्षण के अभाव में किसीके करण कम अधिक सक्रिय होते हैं। जिसके करण अधिक सक्रिय होते हैं वे अच्छी तरह से ज्ञानार्जन करते हैं, जिसके करण सक्रिय नहीं हो सकते उनका ज्ञानार्जन कम होता है। इसी कारण से किसीके अधिक अंक आते हैं और किसीके कम । करणों के कम सक्रिय होने से व्यक्ति की ग्रहण, समझ, स्मरण आदि प्रवृत्ति कम होती है और व्यक्ति के लिये विषय कठिन होता है। जिसके करण अधिक सक्रिय होते हैं उनके लिये विषय कठिन नहीं होता है।
 
परन्तु इस बात का दूसरा आयाम यह है कि अभ्यास और प्रशिक्षण के अभाव में किसीके करण कम अधिक सक्रिय होते हैं। जिसके करण अधिक सक्रिय होते हैं वे अच्छी तरह से ज्ञानार्जन करते हैं, जिसके करण सक्रिय नहीं हो सकते उनका ज्ञानार्जन कम होता है। इसी कारण से किसीके अधिक अंक आते हैं और किसीके कम । करणों के कम सक्रिय होने से व्यक्ति की ग्रहण, समझ, स्मरण आदि प्रवृत्ति कम होती है और व्यक्ति के लिये विषय कठिन होता है। जिसके करण अधिक सक्रिय होते हैं उनके लिये विषय कठिन नहीं होता है।
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प्रश्न यह है कि क्या ज्ञानार्जन के करणों की क्षमता बढाई जा सकती है ? उत्तर है हाँ, अवश्य बढाई जा सकती है और जन्मगत संभावनाओं को पूर्ण रूप से सक्रिय बनाया जा सकता है। इसलिये अध्ययन शुरू करने से पूर्व ज्ञानार्जन के करणों की क्षमताओं को बढ़ाने पर ही विशेष ध्यान देना चाहिए।  
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प्रश्न यह है कि क्या ज्ञानार्जन के करणों की क्षमता बढाई जा सकती है ? उत्तर है हाँ, अवश्य बढाई जा सकती है और जन्मगत संभावनाओं को पूर्ण रूप से सक्रिय बनाया जा सकता है। इसलिये अध्ययन आरम्भ करने से पूर्व ज्ञानार्जन के करणों की क्षमताओं को बढ़ाने पर ही विशेष ध्यान देना चाहिए।  
    
== करणों की सक्रियता कैसे बढ़ायें ==
 
== करणों की सक्रियता कैसे बढ़ायें ==
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ज्ञानेंद्रियाँ और कर्मन्द्रियाँ बाह्य जगत में काम करती हैं। ज्ञानेंद्रियाँ बाहर से अन्दर की ओर यात्रा करती हैं। इसलिये ये बहि:करण हैं । अन्त:करण अन्दर कार्यरत होता है। अन्त:करण बहि:करण से अधिक सूक्ष्म होता है। सूक्ष्म का अर्थ है अधिक व्यापक और अधिक प्रभावी। अन्तःकरण ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय से अधिक प्रभावी है ।
 
ज्ञानेंद्रियाँ और कर्मन्द्रियाँ बाह्य जगत में काम करती हैं। ज्ञानेंद्रियाँ बाहर से अन्दर की ओर यात्रा करती हैं। इसलिये ये बहि:करण हैं । अन्त:करण अन्दर कार्यरत होता है। अन्त:करण बहि:करण से अधिक सूक्ष्म होता है। सूक्ष्म का अर्थ है अधिक व्यापक और अधिक प्रभावी। अन्तःकरण ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय से अधिक प्रभावी है ।
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अब मन के संबन्ध में विचार करें । मन एक अद्भुत पदार्थ है । उसका स्वभाव द्वंद्वात्मक है। वह इच्छाओं का पुंज है । वह अत्यंत बलवान है । वह अत्यंत जिद्दी है। वह निरन्तर गतिमान है। वह रजोगुणी है। रजोगुणी होने के कारण वह अत्यंत क्रियाशील है । वह बलवान है परन्तु उसकी शक्ति हमेशा बिखरी ही रहती है क्योंकि वह अत्यंत चंचल है । गतिमान होने के कारण से वह इधर उधर भागता ही रहता है, कहीं भी एकाग्र नहीं होता । एकाग्र नहीं होने के कारण से वह विषय को ठीक से ग्रहण ही नहीं कर सकता । मन में काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि भाव रहते हैं । इनके चलते मन हमेशा उत्तेजना की अवस्था में रहता है । उत्तेजना ही अशान्त अवस्था है । उत्तेजना के कारण से जब मन किसी अन्य स्थान या अन्य पदार्थ में आसक्त हो जाता है तब विषय के साथ जुड़ता ही नहीं है । विषय को आधा अधूरा और खण्ड खण्ड में ग्रहण करता है । एक रूपक से इस स्थिति को समझने का प्रयत्न करें । मान लीजिए एक पात्र में पानी भरा है । हवा जरा भी नहीं बह रही है इसलिये पानी में लहरें नहीं उठ रही हैं । पानी बिलकुल शान्त है । उस शान्त पानी में यदि हम अपना चेहरा देखते हैं तो वह जैसा है वैसा साफ दिखाई देता है । परन्तु वह पानी यदि हवा से हिल रहा है या चुल्हे पर रखने के कारण उबल रहा है तब उसमें यदि हम अपना चेहरा देखें तो वह टुकड़ों टुकड़ों में ही दिखाई देता है । इसी प्रकार मन जब भिन्न भिन्न प्रकार के भावों से उत्तेजित रहता है तब विषय को ठीक से नहीं ग्रहण कर सकता है। तीसरी स्थिति होती है आसक्ति की या आसक्ति से विमुखता की । उदाहरण के लिये मन जब क्रिकेट में आसक्त रहता है या किसी फिल्म में आसक्त रहता है तब अन्य किसी बात का विचार ही नहीं कर सकता है। ऐसा चंचल, उत्तेजित और आसक्त मन अध्ययन के लिये जरा भी समर्थ नहीं होता है । मन जब तक ऐसा है तब तक दुनिया के कोई भी उपकरण या व्यक्तित्व के साथ प्राप्त हुए कोई भी करण ज्ञानार्जन को असंभव बना देते हैं । मन को ज्ञानार्जन हेतु सक्षम बनाना बहुत महत्वपूर्ण काम है ।
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अब मन के संबन्ध में विचार करें । मन एक अद्भुत पदार्थ है । उसका स्वभाव द्वंद्वात्मक है। वह इच्छाओं का पुंज है । वह अत्यंत बलवान है । वह अत्यंत जिद्दी है। वह निरन्तर गतिमान है। वह रजोगुणी है। रजोगुणी होने के कारण वह अत्यंत क्रियाशील है । वह बलवान है परन्तु उसकी शक्ति सदा बिखरी ही रहती है क्योंकि वह अत्यंत चंचल है । गतिमान होने के कारण से वह इधर उधर भागता ही रहता है, कहीं भी एकाग्र नहीं होता । एकाग्र नहीं होने के कारण से वह विषय को ठीक से ग्रहण ही नहीं कर सकता । मन में काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि भाव रहते हैं । इनके चलते मन सदा उत्तेजना की अवस्था में रहता है । उत्तेजना ही अशान्त अवस्था है । उत्तेजना के कारण से जब मन किसी अन्य स्थान या अन्य पदार्थ में आसक्त हो जाता है तब विषय के साथ जुड़ता ही नहीं है । विषय को आधा अधूरा और खण्ड खण्ड में ग्रहण करता है । एक रूपक से इस स्थिति को समझने का प्रयत्न करें । मान लीजिए एक पात्र में पानी भरा है । हवा जरा भी नहीं बह रही है इसलिये पानी में लहरें नहीं उठ रही हैं । पानी बिलकुल शान्त है । उस शान्त पानी में यदि हम अपना चेहरा देखते हैं तो वह जैसा है वैसा साफ दिखाई देता है । परन्तु वह पानी यदि हवा से हिल रहा है या चुल्हे पर रखने के कारण उबल रहा है तब उसमें यदि हम अपना चेहरा देखें तो वह टुकड़ों टुकड़ों में ही दिखाई देता है । इसी प्रकार मन जब भिन्न भिन्न प्रकार के भावों से उत्तेजित रहता है तब विषय को ठीक से नहीं ग्रहण कर सकता है। तीसरी स्थिति होती है आसक्ति की या आसक्ति से विमुखता की । उदाहरण के लिये मन जब क्रिकेट में आसक्त रहता है या किसी फिल्म में आसक्त रहता है तब अन्य किसी बात का विचार ही नहीं कर सकता है। ऐसा चंचल, उत्तेजित और आसक्त मन अध्ययन के लिये जरा भी समर्थ नहीं होता है । मन जब तक ऐसा है तब तक दुनिया के कोई भी उपकरण या व्यक्तित्व के साथ प्राप्त हुए कोई भी करण ज्ञानार्जन को असंभव बना देते हैं । मन को ज्ञानार्जन हेतु सक्षम बनाना बहुत महत्वपूर्ण काम है ।
    
== मन को सक्षम कैसे बनाया जाय ? ==
 
== मन को सक्षम कैसे बनाया जाय ? ==
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आयु की विभिन्न अवस्थाओं में ज्ञानार्जन के भिन्न भिन्न करण सक्रिय होते हैं इसलिये अध्ययन और अध्यापन का स्वरूप भी बदलता है । गर्भावस्‍था और शिशु अवस्था में संस्कार आधारित, बाल अवस्था में क्रिया, संवेदन और भाव आधारित, किशोर अवस्था में विचार और निरीक्षण और परीक्षण आधारित तरुण अवस्था में बुद्धि तथा दायित्वबोध आधारित अध्ययन और अध्यापन होता है । वह वैसा होता है तभी ज्ञानार्जन होता है अन्यथा ज्ञानार्जन में अवरोध निर्माण होते हैं ।
 
आयु की विभिन्न अवस्थाओं में ज्ञानार्जन के भिन्न भिन्न करण सक्रिय होते हैं इसलिये अध्ययन और अध्यापन का स्वरूप भी बदलता है । गर्भावस्‍था और शिशु अवस्था में संस्कार आधारित, बाल अवस्था में क्रिया, संवेदन और भाव आधारित, किशोर अवस्था में विचार और निरीक्षण और परीक्षण आधारित तरुण अवस्था में बुद्धि तथा दायित्वबोध आधारित अध्ययन और अध्यापन होता है । वह वैसा होता है तभी ज्ञानार्जन होता है अन्यथा ज्ञानार्जन में अवरोध निर्माण होते हैं ।
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सोलह वर्ष की आयु तक ज्ञानार्जन के करणों को सक्षम बनाने हेतु शिक्षा होती है। सोलह वर्ष के बाद सक्षम करणों के प्रयोग से विषयों का अध्ययन शुरू होता है। सोलह वर्ष की आयु तक शिक्षक के निर्देशन में ज्ञानार्जन के करणों को सक्षम बनाने का अध्ययन चलता है, बाद में स्वतंत्रतापूर्वक अध्ययन चलता है ।
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सोलह वर्ष की आयु तक ज्ञानार्जन के करणों को सक्षम बनाने हेतु शिक्षा होती है। सोलह वर्ष के बाद सक्षम करणों के प्रयोग से विषयों का अध्ययन आरम्भ होता है। सोलह वर्ष की आयु तक शिक्षक के निर्देशन में ज्ञानार्जन के करणों को सक्षम बनाने का अध्ययन चलता है, बाद में स्वतंत्रतापूर्वक अध्ययन चलता है ।
    
सामान्य रूप में प्राथमिक, माध्यमिक स्तर का अध्ययन करणों को सक्षम बनाने के लिये होता है । वह निर्देशित होता है । महाविद्यालय और विश्वविद्यालय का अध्ययन सक्षम करणों से होता है इसलिये उसे निर्देशित होने की आवश्यकता नहीं होती है । इसलिये प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर पाठ्यक्रम के साथ साथ पाठ्यपुस्तकें, साधनसामग्री, शिक्षकों का उपदेश, अनुशासन के नियम आदि बहुत आवश्यक होते हैं, बाद के अध्ययन के लिये केवल पाठ्यक्रम ही आवश्यक होता है, शेष सारी बातों में छात्र स्वतंत्र होता है ।
 
सामान्य रूप में प्राथमिक, माध्यमिक स्तर का अध्ययन करणों को सक्षम बनाने के लिये होता है । वह निर्देशित होता है । महाविद्यालय और विश्वविद्यालय का अध्ययन सक्षम करणों से होता है इसलिये उसे निर्देशित होने की आवश्यकता नहीं होती है । इसलिये प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर पाठ्यक्रम के साथ साथ पाठ्यपुस्तकें, साधनसामग्री, शिक्षकों का उपदेश, अनुशासन के नियम आदि बहुत आवश्यक होते हैं, बाद के अध्ययन के लिये केवल पाठ्यक्रम ही आवश्यक होता है, शेष सारी बातों में छात्र स्वतंत्र होता है ।

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