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== संवेदन ==
 
== संवेदन ==
''ध्वनियुक्त, वैसे ही कर्कश वाद्ययन्त्रों का संगीत, तेज पाँच कर्मेन्द्रियों की तरह पाँच ज्ञानेंद्रियां हैं। वे हैं मसालों से युक्त खाद्य पदार्थ ज्ञानेन्द्रियों की संवेदनाओं को नाक, कान, जीभ, आँखें और त्वचा । इन्हें क्रमश: अंधिर कर देते हैं । इन खोई हुई संवेदनशक्ति फिर से इस''
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पाँच कर्मेन्द्रियों की तरह पाँच ज्ञानेंद्रिया हैं। वे हैं नाक, कान, जीभ, आँखें और त्वचा । इन्हें क्रमश: घ्राणेंद्रिय, श्रवणेंद्रिय, स्वादेंद्रिय अथवा रसनेन्द्रिय, दर्शनेन्द्रिय और स्पर्शेद्रिय कहते हैं । ये सब बाहरी जगत का अनुभव करते हैं। वास्तव में ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ही हम बाहरी जगत के साथ सम्पर्क में आते हैं। इनके अभाव में हम बाहर के जगत को जान ही नहीं सकते।
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''avita, saita, «ita sea wifes, FHA तो प्राप्त नहीं की ect सकती । जैसे जैसे इंद्रियाँ''
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शब्द अथवा ध्वनि कान का विषय है, स्पर्श त्वचा का विषय है, गंध नाक का, स्वाद जीभ का और रंग और आकार आँख का विषय है। ज्ञानेंद्रियाँ इन विषयों को संवेदनों के रूप में ग्रहण करती हैं। बाहरी जगत में इन्हें तन्मात्रा कहते हैं और अपने शरीर में संवेदन।
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''aga sik anita कहते हैं । ये सब बाहरी जगत का... जधिर होती जाती हैं हम विषयों की तीब्रता बढ़ाते जाते हैं''
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ज्ञानेन्द्रियाँ वस्तु को वस्तु के रूप में नहीं अपितु संवेदन के रूप में ग्रहण करती हैं। वस्तु का संवेदन में रूपान्तरण वस्तु की तन्मात्रा शक्ति से और इंद्रिय की संवेदन शक्ति से होता है।
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''अनुभव करते हैं वास्तव में ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ही और शक्तियाँ और क्षीण होती जाती हैं । छोटी आयु में''
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बाहरी जगत का सम्यक ज्ञान हो इसलिए ज्ञानेन्द्रियों को सक्षम बनाना चाहिए वे यदि दुर्बल रहीं तो बाहरी जगत को जानना कठिन हो जाता है। इस दृष्टि से ज्ञानेन्द्रियों को संवेदनक्षम बनाना अत्यन्त आवश्यक है। यह काम लगता है उतना सरल नहीं है।
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''चश्मा, भोजन में रुचिहीनता और स्वाद की पहचान का''
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प्रथम तो ज्ञानेन्द्रियों की शक्ति का ह्रास होने से बचाना चाहिए। जब बालक का जन्म होता है तब ज्ञानेंद्रियाँ बहुत नाजुक होती हैं। उस समय तीव्र अनुभवों से बचाना चाहिए । बड़ी और कर्कश आवाज, तेज प्रकाश, तीव्र गंध, कठोर स्पर्श, बेस्वाद औषध ज्ञानेन्द्रियों की क्षमता तीव्र गति से कम कर देते हैं । आज तो यह संकट बहुत गहरा गया है। जन्म से ही क्षमताओं के ह्रास का प्रारंभ हो जाता है। आयुष्य के प्रथम दस दिनों में लगभग पचास प्रतिशत नुकसान हो जाता है।
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''अभाव, धीमी आवाज नहीं सुनाई देना आदि लक्षण तो हम''
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दैनंदिन जीवन में भड़कीले असुन्दर कृत्रिम रंग, बेढब आकृतियाँ, घृणास्पद एवं जुगुप्सात्मक दृश्य, टीवी, कंप्यूटर और मोबाइल की तरंगें, उत्तेजक, बेसुरा, कर्कश, तेज ध्वनियुक्त, वैसे ही कर्कश वाद्ययन्त्रों का संगीत, तेज मसालों से युक्त खाद्य पदार्थ ज्ञानेन्द्रियों की संवेदनाओं को बधिर कर देते हैं। इन खोई हुई संवेदनशक्ति फिर से इस जन्म में तो प्राप्त नहीं की जा सकती। जैसे जैसे इंद्रियाँ बधिर होती जाती हैं हम विषयों की तीव्रता बढ़ाते जाते हैं और शक्तियाँ और क्षीण होती जाती हैं। छोटी आयु में चश्मा, भोजन में रुचिहीनता और स्वाद की पहचान का अभाव, धीमी आवाज नहीं सुनाई देना आदि लक्षण तो हम रोज रोज अपने आसपास देखते ही हैं ।
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''रोज रोज अपने आसपास देखते ही हैं ।''
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अत: पहली बात तो इनका हम रक्षण कैसे करें इसका ही विचार करना है।
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''हम बाहरी जगत के साथ सम्पर्क में आते हैं इनके अभाव''
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इंद्रियों की शक्ति का दूसरा आधार है नाड़ीशुद्धि । हमारे शरीर में बहत्तर हजार नाड़ियाँ हैं जो इंद्रियों के संवेदनों को वहन करने का काम करती हैं । इन नाड़ियों की अशुद्धि के कारण संवेदनों के वहन में अवरोध निर्माण होता है। प्राणशक्ति के बल पर वे काम करती है। ज्ञानेन्द्रियों का नियंत्रण करने का काम भी प्राण करते हैं। अत: प्राणशक्ति दुर्बल रही तो भी संवेदनशक्ति क्षीण होती है प्राणशक्ति का आधार आहार, विहार, निद्रा और श्वसनप्रक्रिया पर है। ये सब ठीक रहे तो प्राणशक्ति अच्छी रहती है। ये ठीक नहीं रहे तो प्राणशक्ति और परिणामस्वरूप इंद्रियों की शक्ति क्षीण होती है।
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''में हम बाहर के जगत को जान ही नहीं सकते ''
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पर्यावरण ठीक नहीं रहा तो भी ज्ञानेन्द्रियों पर प्रभाव होता है। दुर्गंधयुक्त, अस्वच्छ, कुरूप, कोलाहलयुक्त वातावरण में इंद्रियों को सुख का अनुभव नहीं होता अत: पर्यावरण भी ठीक चाहिए।
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''शब्द अथवा ध्वनि कान का विषय है, स्पर्श त्वचा के''
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इंद्रियों को रक्षण, पोषण और संतर्पण की आवश्यकता होती है । रक्षण और पोषण की बात तो समझ में आती है परन्तु संतर्पण की चिन्ता भी करनी चाहिए । संतर्पण का अर्थ है इंद्रियों को अपने अपने विषयों का आहार मिलना । सुमधुर और सात्त्विक संगीत, सुन्दर, मनमोहक दृश्य, सात्त्विक, स्वादिष्ट पदार्थों का स्वाद, मधुर गंध, सुखद स्पर्श इंद्रियों को सुख देता है । ये सब उन्मादक रहे तो इंद्रियों को कष्ट होता है और वे क्षीण होती हैं।
 
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''का विषय है, गंध नाक का, स्वाद जीभ का और रंग और अतः पहली बात तो इनका हम रक्षण कैसे करें''
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''आकार आँख का विषय है । ज्ञानिंद्रियाँ इन विषयों को... रैसका ही विचार करना है ।''
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''संवेदनों के रूप में ग्रहण करती हैं । बाहरी जगत में इन्हें इंद्रियों की शक्ति का दूसरा आधार है नाड़ीशुद्धि ।''
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''तन्मात्रा कहते हैं और अपने शरीर में संवेदन । हमारे शरीर में बहत्तर हजार नाड़ियाँ हैं जो इंद्रियों के''
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''ज्ञानिन्द्रियाँ वस्तु को वस्तु के रूप में नहीं अपितु संवेदनों को वहन करने का काम करती हैं । इन नाड़ियों की''
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''संवेदन के रूप में ग्रहण करती हैं । वस्तु का संवेदन में... रशुद्धि के कारण संवेदनों के वहन में अवध निर्माण होता''
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''रूपान्तरण वस्तु की तन्मात्रा शक्ति से और इंद्रिय की संवेदन .. हैं ! प्राणशक्ति के बल पर वे काम करती है । ज्ञानेन्दरियों''
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''प्राणशक्ति दुर्बल रही तो भी संबेदनशक्ति क्षीण होती है ।''
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''प्राणशक्ति का. आधार आहार, विहार, निद्रा और''
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''बाहरी जगत का सम्यक ज्ञान हो इसलिए ज्ञानेन्द्रियों''
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''पचास प्रतिशत नुकसान हो जाता है । आहार मिलना । सुमधुर और सात्विक संगीत, सुन्दर,''
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अत: इन सभी बातों का भी ध्यान रखना चाहिए । इंद्रियों की शक्ति केवल देखने की या सुनने की शक्ति ही नहीं है, उनको ठीक तरह और सूक्ष्मता से सुनने देखने आदि की शक्ति है । रंग या गंध या ध्वनि पूर्ण क्षमता के साथ ग्रहण करना यह एक मुद्दा है और सूक्ष्म भेद परखना दूसरी क्षमता है । उदाहरण के लिए कपड़े की मीलों में जो डाइंग मास्टर होते हैं वे रंगों की सूक्ष्म छटायें पहचानते हैं और भेद बताते हैं । दर्जी कपड़ा देखता है और बिना नापे उसमें से वस्त्र बनेगा कि नहीं यह कह देता है । गृहिणी दाल या सब्जी की मात्रा देखकर कितना नमक या मिर्च चाहिए वह हाथ में भरकर बता देती है । पहचानने की यह क्षमता बुद्धि की अनुमान शक्ति है परन्तु उसका साधन इन्द्रियां हैं । हमारे ज्ञानार्जन का बड़ा आधार इंद्रियों की क्षमता पर है। हमारे सुख का भी बड़ा आधार इंद्रियों की क्षमता पर है। चारों ओर सुन्दरता तो बहुत फैली हुई है परन्तु ग्रहण करने के लिए साधन ही नहीं है तो उस सुन्दरता का हम क्या करेंगे? परन्तु जब ग्रहण कभी किया ही न हो तो हम किन बातों से वंचित रह रहे हैं इसका अभी पता कैसे चलेगा ? अतः वंचित रह जाने का भी दुःख नहीं होता । संक्षेप में ज्ञानेन्द्रियों की क्षमता प्राप्त करने की, प्राप्त क्षमताओं का रक्षण करने की और उन्हें बढ़ाने की चिन्ता करनी चाहिए ।
 
अत: इन सभी बातों का भी ध्यान रखना चाहिए । इंद्रियों की शक्ति केवल देखने की या सुनने की शक्ति ही नहीं है, उनको ठीक तरह और सूक्ष्मता से सुनने देखने आदि की शक्ति है । रंग या गंध या ध्वनि पूर्ण क्षमता के साथ ग्रहण करना यह एक मुद्दा है और सूक्ष्म भेद परखना दूसरी क्षमता है । उदाहरण के लिए कपड़े की मीलों में जो डाइंग मास्टर होते हैं वे रंगों की सूक्ष्म छटायें पहचानते हैं और भेद बताते हैं । दर्जी कपड़ा देखता है और बिना नापे उसमें से वस्त्र बनेगा कि नहीं यह कह देता है । गृहिणी दाल या सब्जी की मात्रा देखकर कितना नमक या मिर्च चाहिए वह हाथ में भरकर बता देती है । पहचानने की यह क्षमता बुद्धि की अनुमान शक्ति है परन्तु उसका साधन इन्द्रियां हैं । हमारे ज्ञानार्जन का बड़ा आधार इंद्रियों की क्षमता पर है। हमारे सुख का भी बड़ा आधार इंद्रियों की क्षमता पर है। चारों ओर सुन्दरता तो बहुत फैली हुई है परन्तु ग्रहण करने के लिए साधन ही नहीं है तो उस सुन्दरता का हम क्या करेंगे? परन्तु जब ग्रहण कभी किया ही न हो तो हम किन बातों से वंचित रह रहे हैं इसका अभी पता कैसे चलेगा ? अतः वंचित रह जाने का भी दुःख नहीं होता । संक्षेप में ज्ञानेन्द्रियों की क्षमता प्राप्त करने की, प्राप्त क्षमताओं का रक्षण करने की और उन्हें बढ़ाने की चिन्ता करनी चाहिए ।

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