Difference between revisions of "क्रिया, संवेदन, विचार, भावना, विवेक, निर्णय, दायित्वबोध, अनुभूति"
(पतंजलि रचित योग सूत्र 1.14) |
(→क्रिया: लेख सम्पादित किया) |
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अच्छी क्रिया के तीन आयाम हैं । एक है कौशल, दूसरा है गति और तीसरा है निपुणता । हाथ वस्तु को पकड़ते हैं, दबाते हैं, फेंकते हैं, झेलते है, उछालते हैं । पकड़ने का काम एक उँगली और अंगूठे से, दो ऊँगलिया और अंगूठे से, चारों उँगलियाँ और अंगूठे से, मुट्ठी से होता है । पकड़ने में कुशलता चाहिए अर्थात ऊँगलियों और अंगूठे की स्थिति ठीक बनानी चाहिए । कई बार हम देखते हैं कि लिखने वाला पेंसिल ही ठीक नहीं पकड़ता है । उँगलियों की या मुट्ठी की स्थिति ही ठीक नहीं बनी है । लिखते समय केवल उँगलियाँ ही नहीं तो कलाई और कोहनी तक के हाथ की स्थिति ठीक नहीं बनी है । उँगलियाँ गूँथती हैं । उनकी सलाई पकड़ने की स्थिति ठीक नहीं बनती है। हाथों से कपड़ों या कागज की तह की जाती है । तब दोनों हाथों से कपड़ा या कागज पकड़ने की और उसे चलाने की स्थिति ठीक नहीं बनती है । | अच्छी क्रिया के तीन आयाम हैं । एक है कौशल, दूसरा है गति और तीसरा है निपुणता । हाथ वस्तु को पकड़ते हैं, दबाते हैं, फेंकते हैं, झेलते है, उछालते हैं । पकड़ने का काम एक उँगली और अंगूठे से, दो ऊँगलिया और अंगूठे से, चारों उँगलियाँ और अंगूठे से, मुट्ठी से होता है । पकड़ने में कुशलता चाहिए अर्थात ऊँगलियों और अंगूठे की स्थिति ठीक बनानी चाहिए । कई बार हम देखते हैं कि लिखने वाला पेंसिल ही ठीक नहीं पकड़ता है । उँगलियों की या मुट्ठी की स्थिति ही ठीक नहीं बनी है । लिखते समय केवल उँगलियाँ ही नहीं तो कलाई और कोहनी तक के हाथ की स्थिति ठीक नहीं बनी है । उँगलियाँ गूँथती हैं । उनकी सलाई पकड़ने की स्थिति ठीक नहीं बनती है। हाथों से कपड़ों या कागज की तह की जाती है । तब दोनों हाथों से कपड़ा या कागज पकड़ने की और उसे चलाने की स्थिति ठीक नहीं बनती है । | ||
− | उसी प्रकार से पैर खड़े रहकर शरीर का भार उठाते हैं। तब दोनों पैरों की सीधे खड़े रहने की, पैरों के तलवे की स्थिति ठीक नहीं बनती है । चलते हैं तब पैर उठाकर आगे रखने की स्थिति ठीक नहीं बनती है । व्यक्ति बोलता है तब बोलने में जो अवयव काम में आते हैं उनकी स्थिति ठीक नहीं बनती है । इस कारण से उच्चार ठीक नहीं होते, अक्षर सुन्दर नहीं बनते, चला ठीक नहीं जाता । क्रिया ठीक नहीं होती । आगे चित्र बनाने का, आकृति में रंग भरने का, मंत्र या गीत का गान करने का, छलांग लगाने का, दौड़ने का आदि काम भी ठीक से नहीं होते । कारीगरी के काम ठीक से नहीं होते क्योंकि साधन पकड़ने की स्थिति ठीक नहीं होती । दो हाथ जोड़कर, दृंडवत होकर प्रणाम करना, यज्ञ में आहुती देना, मालिश करना, गाँठ लगाना, आटा गुंधना, मिट्टी को आकार देना आदि असंख्य काम ठीक से नहीं होते । कर्मेन्द्रियों की स्थितियाँ दीवार में इँटों जैसी हैं । इंटें यदि ठीक नहीं बनी हैं तो दीवार ठीक नहीं बनती । दीवार ठीक नहीं बनती तो भवन भी ठीक नहीं बनता । अत: कर्मन्द्रियों की स्थिति ठीक बनाना प्रथम आवश्यकता है । स्थितियाँ ठीक बनाने के लिए अच्छे प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है । बारीकी से निरीक्षण कर छोटी से छोटी बात भी ठीक करनी होती है । ऐसा नहीं किया तो इंद्रियों की स्थिति में एक अवधि के बाद अनेक प्रयास करने पर भी सुधार नहीं होता है । इन स्थितियों के भी संस्कार बन जाते हैं । प्रारंभ में, छोटी आयु में एक बार संस्कार हो गए तो बाद में सुधार लगभग असम्भव हो जाते हैं । यही कारण है कि हम देखते हैं कि वर्णमाला के स्वरों और व्यंजनों के उच्चारणों की अनेक अशुद्धियाँ होती हैं और वे बड़ी आयु में ठीक नहीं होतीं । अक्षरों की बनावट ठीक नहीं होती और लेख सुन्दर या सही नहीं बनता । संगीत बेसुरा होता है । यज्ञ में आहुति डालना नहीं आता । प्रणाम करना नहीं आता । ये तो बहुत छोटी बातें हैं परंतु आगे चलकर भाषण और संभाषण ठीक नहीं होता, कारीगरी और कला ठीक नहीं अवगत होती, वस्तुयें ठीक नहीं रखी दूसरा आयाम है गति का । गति अभ्यास से बढ़ती है। पातंजल योगसूत्र अभ्यास को परिभाषित करते हुए कहते हैं:जातीं, वे खराब होती हैं आदि व्यवहार की अनेक कठिनाइयाँ निर्माण होती हैं ।<blockquote>तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः <ref>पतंजलि रचित योग सूत्र - 1.13 </ref>। 1.13 ।। </blockquote>और | + | उसी प्रकार से पैर खड़े रहकर शरीर का भार उठाते हैं। तब दोनों पैरों की सीधे खड़े रहने की, पैरों के तलवे की स्थिति ठीक नहीं बनती है । चलते हैं तब पैर उठाकर आगे रखने की स्थिति ठीक नहीं बनती है । व्यक्ति बोलता है तब बोलने में जो अवयव काम में आते हैं उनकी स्थिति ठीक नहीं बनती है । इस कारण से उच्चार ठीक नहीं होते, अक्षर सुन्दर नहीं बनते, चला ठीक नहीं जाता । क्रिया ठीक नहीं होती । आगे चित्र बनाने का, आकृति में रंग भरने का, मंत्र या गीत का गान करने का, छलांग लगाने का, दौड़ने का आदि काम भी ठीक से नहीं होते । कारीगरी के काम ठीक से नहीं होते क्योंकि साधन पकड़ने की स्थिति ठीक नहीं होती । दो हाथ जोड़कर, दृंडवत होकर प्रणाम करना, यज्ञ में आहुती देना, मालिश करना, गाँठ लगाना, आटा गुंधना, मिट्टी को आकार देना आदि असंख्य काम ठीक से नहीं होते । कर्मेन्द्रियों की स्थितियाँ दीवार में इँटों जैसी हैं । इंटें यदि ठीक नहीं बनी हैं तो दीवार ठीक नहीं बनती । दीवार ठीक नहीं बनती तो भवन भी ठीक नहीं बनता । अत: कर्मन्द्रियों की स्थिति ठीक बनाना प्रथम आवश्यकता है । स्थितियाँ ठीक बनाने के लिए अच्छे प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है । बारीकी से निरीक्षण कर छोटी से छोटी बात भी ठीक करनी होती है । ऐसा नहीं किया तो इंद्रियों की स्थिति में एक अवधि के बाद अनेक प्रयास करने पर भी सुधार नहीं होता है । इन स्थितियों के भी संस्कार बन जाते हैं । प्रारंभ में, छोटी आयु में एक बार संस्कार हो गए तो बाद में सुधार लगभग असम्भव हो जाते हैं । यही कारण है कि हम देखते हैं कि वर्णमाला के स्वरों और व्यंजनों के उच्चारणों की अनेक अशुद्धियाँ होती हैं और वे बड़ी आयु में ठीक नहीं होतीं । अक्षरों की बनावट ठीक नहीं होती और लेख सुन्दर या सही नहीं बनता । संगीत बेसुरा होता है । यज्ञ में आहुति डालना नहीं आता । प्रणाम करना नहीं आता । ये तो बहुत छोटी बातें हैं परंतु आगे चलकर भाषण और संभाषण ठीक नहीं होता, कारीगरी और कला ठीक नहीं अवगत होती, वस्तुयें ठीक नहीं रखी दूसरा आयाम है गति का । गति अभ्यास से बढ़ती है। पातंजल योगसूत्र अभ्यास को परिभाषित करते हुए कहते हैं:जातीं, वे खराब होती हैं आदि व्यवहार की अनेक कठिनाइयाँ निर्माण होती हैं ।<blockquote>तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः <ref>पतंजलि रचित योग सूत्र - 1.13 </ref>। 1.13 ।। </blockquote><blockquote>और</blockquote><blockquote>स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः <ref>पतंजलि रचित योग सूत्र - 1.14</ref>|| 1.14 ||</blockquote>अर्थात अभ्यास स्थिरतापूर्वक करना चाहिए, निरन्तर करना चाहिए, नियमित करना चाहिए, सत्कारपूर्वक करना चाहिए । ये चारों बातें समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं । |
+ | * अभ्यास स्थिरतापूर्वक करना चाहिए । इसका अर्थ यह है कि करने वाले की उसमें एकाग्रता होनी चाहिए, वह करते समय और कुछ नहीं करना चाहिए । कुछ लोग लिखते समय या भोजन करते समय संगीत सुनते हैं, अखबार पढ़ते हैं या बातें करते हैं । अब खड़े खड़े या चलते चलते भोजन करने की एक फैशन बनी है । संस्कार की बात एक ओर रखें तो भी यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा करने से क्रिया ठीक नहीं होती और उसका परिणाम ठीक नहीं होता । शारीरिक, मानसिक बौद्धिक रूप से अच्छी और श्रेष्ठ क्रियायें बैठकर ही करने का विधान है, यथा गाना, खाना, पढ़ना और पढ़ाना, उपदेश देना और ग्रहण करना, भाषण करना, पूजा करना, यज्ञ करना, लिखना, खाना बनाना आदि । यह इसलिए है कि ऐसा नहीं करने से एकाग्रता नहीं होती है और ध्यान बंट जाता है । एकाग्रता नहीं है तो किए हुए कार्य का ग्रहण भी पूरा पूरा नहीं होता । इसलिए एकाग्रता के लिए जो जो आवश्यक है वह सब करना चाहिए । | ||
+ | * अभ्यास नियमित रूप से करना चाहिए । कर्मन्द्रियों को भी आदत पड़ती है । केवल कर्मन्द्रियों को ही नहीं अन्य करणों को भी आदत पड़ती है । उदाहरण के लिए कुछ दिन यदि दिन में बारह बजे भोजन किया या रात्रि में दस बजे सो गए तो बारह बजते ही भूख लगती है और दस बजे ही नींद आने लगती है । आज की भाषा में कहें तो शरीर की घड़ी समय बताती है । जरा विचार करें तो शरीर की ही नहीं तो मन की भी एक घड़ी होती है । ठीक समय पर करने से शरीर और मन अभ्यास के अनुकूल बन जाते हैं और क्रिया ठीक होती है । | ||
+ | * अभ्यास निरन्तर रूप से करना चाहिए इसका अर्थ यह है कि कुछ समय किया और फिर छोड़ दिया, फिर कुछ समय बाद किया ऐसा नहीं करना चाहिए । वह प्रतिदिन करना चाहिए | | ||
+ | * चौथी बात सबसे महत्त्वपूर्ण है। अभ्यास सत्कारपूर्वक करना चाहिए । अर्थात उसमें करने वाले का मन लगना चाहिए । वह मन को अच्छा लगना चाहिए । बेमन से किया हुआ अभ्यास भले ही एकाग्रतापूर्वक या नियमित भी किया हो तो भी वह फलदायी नहीं होता क्योंकि वह यान्त्रिक होता है । फिर यंत्र की तरह शरीर काम तो करता है परन्तु वह जीवन्त नहीं होता । इस प्रकार अभ्यास करने से क्रिया में गति बढ़ती है । अभ्यास से पूर्व यदि कौशल नहीं प्राप्त किया गया तो गलत स्थिति का अभ्यास हो जाता है और फिर उसे ठीक करना सम्भव नहीं होता । अभ्यास से पूरी क्षमता तक गति बढ़ती है । कौशल और अभ्यास के परिणामस्वरूप क्रिया निपुणता से होती है । उसमें उत्कृष्टता प्राप्त होती है । क्रिया की गुणवत्ता बढ़ती है । जिस प्रकार च्यवनप्राश जैसे औषध जितने पुराने होते हैं उतने अधिक गुणवत्तापूर्ण होते हैं उसी प्रकार नित्य अभ्यास और कुशलतापूर्वक की गई क्रियाओं की निपुणता होती है । गायक की निपुणता उसके गायन में, खाना बनाने वाले की निपुणता उसके भोजन में और कुम्हार की निपुणता वह जब पात्र बना रहा है उसकी प्रक्रिया में दिखाई देती है । अनुभवी कुम्हार, अनुभवी गृहिणी, अनुभवी गायक मिट्टी का लोंडा उठाने मात्र से या पदार्थ में मसाला डालने के लिए चुटकी में लेते हुए या कठ से जरा सा स्वर निकलते ही परखा जाता है । इतना वह परिणामकारी होता है । | ||
+ | आज कर्मन्द्रियों की क्रियाओं की इतनी दुर्दशा हुई है कि उसे फूहड़ कहना ही ठीक लगता है । एक तो हाथ, पैर आदि अब काम करने के लिए हैं ऐसा हमें लगता ही नहीं है । परन्तु इस धारणा में ही बदल करने की आवश्यकता है क्योंकि काम नहीं किया तो ये इंद्रियाँ स्वस्थ नहीं रहतीं और उन्हें यंत्र की तरह ही जंग लग जाती है । आज का अक्रिय मनोरंजन कर्मन्द्रियों को बीमार कर देता है। अक्रिय का अर्थ यह है कि हम संगीत सुनना चाहते हैं, स्वयं गाना नहीं, नृत्य देखना चाहते हैं, स्वयं नृत्य करना नहीं, हम यंत्रों से काम करवाना चाहते हैं हाथ से नहीं । हम वाहन से आनाजाना चाहते हैं, पैरों से नहीं । इस कारण से कर्मन्ट्रियों को असुख का अनुभव होता है, वे अपमानित और उपेक्षित अनुभव करती हैं, काम करने से वंचित रहती हैं इसलिए उदास रहती हैं और इसका परिणाम यह होता है कि भोक्ता अर्थात हम स्वयं आनन्द का अनुभव नहीं कर सकते । काम करने का आनन्द क्या होता है इसका हमें अनुभव ही नहीं होता है । | ||
− | + | बाल अवस्था में कर्मेन्ट्रियाँ सक्रिय होने लगती हैं और काम चाहती हैं । यह ऐसा ही है जिस प्रकार भूख लगने पर पेट भोजन मांगता है । भूख इसलिए लगती है क्योंकि भोजन से शरीर की पुष्टि होती है । भूख लगने पर भोजन नहीं किया तो शरीर कृश होने लगता है, बलहीन होता है और अस्वस्थ भी होने लगता है । अच्छा भोजन नहीं होने पर शरीर बीमार भी होता है । उसी प्रकार बालअवस्था में कर्मन्द्रियाँ काम मांगती हैं क्योंकि यह उनकी आवश्यकता है । उस समय काम मिला और वह अच्छे से करना सिखाया तो वे सुख का अनुभव करती हैं, उन्हें अपने होने में सार्थकता का अनुभव होता है और वे स्वस्थ और कार्यक्षम होती हैं । अत: बालअवस्था की शिक्षा क्रियाआधारित होनी चाहिए । क्रिया सिखाना पहली बात है और क्रिया के माध्यम से अन्य बातें सीखना दूसरी बात है । | |
− | + | केवल कर्मेन्द्रियाँ ही क्रिया करती हैं ऐसा नहीं है। कर्मन्द्रियों के साथ साथ, कर्मन्द्रियों की सहायता से पूरा शरीर क्रिया करता है । पूरा शरीर यंत्र ही है जो काम करने के लिए बना है । शरीर को कार्यशील रखना आवश्यक है । उस दृष्टि से उसे काम करना सीखाना चाहिए और उससे काम लेना चाहिए । शरीर कार्यशील रहे इसलिए उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करनी चाहिए । उसकी रक्षा भी करनी चाहिए । अन्न, वस्त्र, आवास की योजना शरीर को ध्यान में रखकर होनी चाहिए । यह विषय वैसे तो अति सामान्य है । परन्तु आज तथाकथित बडी बड़ी बातों के पीछे लगकर हमने इस सामान्य परन्तु अत्यन्त आवश्यक विषय को विस्मृत कर दिया है । ऐसा करने के कारण पूरी शिक्षा दुर्बल और निस्तेज बन गई है । भारतीय शिक्षा को पुन: शरीर रूपी यंत्र को कार्यरत करना होगा । | |
− | + | == संवेदन == | |
+ | ''ध्वनियुक्त, वैसे ही कर्कश वाद्ययन्त्रों का संगीत, तेज पाँच कर्मेन्द्रियों की तरह पाँच ज्ञानेंद्रियां हैं। वे हैं मसालों से युक्त खाद्य पदार्थ ज्ञानेन्द्रियों की संवेदनाओं को नाक, कान, जीभ, आँखें और त्वचा । इन्हें क्रमश: अंधिर कर देते हैं । इन खोई हुई संवेदनशक्ति फिर से इस'' | ||
− | + | ''avita, saita, «ita sea wifes, FHA तो प्राप्त नहीं की ect सकती । जैसे जैसे इंद्रियाँ'' | |
− | ये | + | ''aga sik anita कहते हैं । ये सब बाहरी जगत का... जधिर होती जाती हैं हम विषयों की तीब्रता बढ़ाते जाते हैं'' |
− | + | ''अनुभव करते हैं । वास्तव में ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ही और शक्तियाँ और क्षीण होती जाती हैं । छोटी आयु में'' | |
− | + | ''चश्मा, भोजन में रुचिहीनता और स्वाद की पहचान का'' | |
− | + | ''अभाव, धीमी आवाज नहीं सुनाई देना आदि लक्षण तो हम'' | |
− | + | ''रोज रोज अपने आसपास देखते ही हैं ।'' | |
− | + | ''हम बाहरी जगत के साथ सम्पर्क में आते हैं । इनके अभाव'' | |
− | + | ''में हम बाहर के जगत को जान ही नहीं सकते ।'' | |
− | + | ''शब्द अथवा ध्वनि कान का विषय है, स्पर्श त्वचा के'' | |
− | + | ''का विषय है, गंध नाक का, स्वाद जीभ का और रंग और अतः पहली बात तो इनका हम रक्षण कैसे करें'' | |
− | + | ''आकार आँख का विषय है । ज्ञानिंद्रियाँ इन विषयों को... रैसका ही विचार करना है ।'' | |
− | + | ''संवेदनों के रूप में ग्रहण करती हैं । बाहरी जगत में इन्हें इंद्रियों की शक्ति का दूसरा आधार है नाड़ीशुद्धि ।'' | |
− | + | ''तन्मात्रा कहते हैं और अपने शरीर में संवेदन । हमारे शरीर में बहत्तर हजार नाड़ियाँ हैं जो इंद्रियों के'' | |
− | + | ''ज्ञानिन्द्रियाँ वस्तु को वस्तु के रूप में नहीं अपितु संवेदनों को वहन करने का काम करती हैं । इन नाड़ियों की'' | |
− | + | ''संवेदन के रूप में ग्रहण करती हैं । वस्तु का संवेदन में... रशुद्धि के कारण संवेदनों के वहन में अवध निर्माण होता'' | |
− | + | ''रूपान्तरण वस्तु की तन्मात्रा शक्ति से और इंद्रिय की संवेदन .. हैं ! प्राणशक्ति के बल पर वे काम करती है । ज्ञानेन्दरियों'' | |
− | + | ''शक्ति से होता है। का नियंत्रण करने का काम भी प्राण करते हैं । अत:'' | |
− | + | ''प्राणशक्ति दुर्बल रही तो भी संबेदनशक्ति क्षीण होती है ।'' | |
− | + | ''प्राणशक्ति का. आधार आहार, विहार, निद्रा और'' | |
− | + | ''श्वसनप्रक्रिया पर है । ये सब ठीक रहे तो प्राणशक्ति अच्छी'' | |
− | + | ''बाहरी जगत का सम्यक ज्ञान हो इसलिए ज्ञानेन्द्रियों'' | |
− | + | ''को सक्षम बनाना चाहिए । वे यदि दुर्बल रहीं तो बाहरी'' | |
− | को | + | ''जगत को जानना कठिन हो जाता है। इस दृष्टि से'' |
− | + | ''ज्ञानेन्द्रियों को संवेदनक्षम बनाना अत्यन्त आवश्यक है। . हँती है। वे टी ठीक नहीं रहे तो प्राणशक्ति और'' | |
− | + | ''यह काम लगता है उतना सरल नहीं है । परिणामस्वरूप इंद्रियों की शक्ति क्षीण होती है ।'' | |
− | + | ''yoy db afl A a ar ea ad a पर्यावरण ठीक नहीं रहा तो भी ज्ञानेन््रियों पर प्रभाव'' | |
− | + | ''बचाना चाहिए। जब बालक का जन्म होता है तब. रीता है। ee FETS, कुरूप, कोलाहलयुक्त'' | |
− | + | ''ज्ञानेंद्रियाँ बहुत नाजुक होती हैं । उस समय तीव्र अनुभवों. ाकर्ग में इंद्रियों को सुख का अनुभव नहीं होता । अतः'' | |
− | + | ''से बचाना चाहिए । बड़ी और कर्कश आवाज, तेज प्रकाश, पर्यावरण भी ठीक चाहिए । संतर्पण'' | |
− | + | ''तीव्र गंध, कठोर स्पर्श, बेस्वाद् औषध ज्ञानिन्द्रियों की इंद्रियों को रक्षण, पोषण और संतर्पण की'' | |
− | हैं | + | ''क्षमता तीव्र गति से कम कर देते हैं । आज तो यह संकट... आवश्यकता होती है । रक्षण और पोषण की बात तो समझ'' |
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− | + | ''बहुत गहरा गया है। जन्म से ही क्षमताओं के हास का में आती है परन्तु संतर्पण ei चिन्ता भी करनी चाहिए |'' | |
− | + | ''प्रारंभ हो जाता है । आयुष्य के प्रथम दस दिनों में लगभग संतर्पण का अर्थ है इंद्रियों को अपने अपने विषयों का'' | |
− | + | ''पचास प्रतिशत नुकसान हो जाता है । आहार मिलना । सुमधुर और सात्विक संगीत, सुन्दर,'' | |
− | + | ''दैनंदिन जीवन में भड़कीले असुन्दर कृत्रिम रंग, बेढब ... गमोहँक दृश्य, सात्त्विक, स्वादिष्ट पदार्थों का स्वाद, मधुर'' | |
− | + | ''आकृतियाँ, घृणास्पद एवं जुगुप्सात्मक दृश्य, टीवी, कंप्यूटर. "१ः सुखद स्पर्श इंद्रियों को सुख देता है । ये सब उन्मादक'' | |
− | ... | + | ''sit Haga A ail, उत्तेजक, बेसुरा, कर्कश, तेज... हैं तो इंद्रियों को कष्ट होता है और वे क्षीण होती हैं ।'' |
− | + | अत: इन सभी बातों का भी ध्यान रखना चाहिए । इंद्रियों की शक्ति केवल देखने की या सुनने की शक्ति ही नहीं है, उनको ठीक तरह और सूक्ष्मता से सुनने देखने आदि की शक्ति है । रंग या गंध या ध्वनि पूर्ण क्षमता के साथ ग्रहण करना यह एक मुद्दा है और सूक्ष्म भेद परखना दूसरी क्षमता है । उदाहरण के लिए कपड़े की मीलों में जो डाइंग मास्टर होते हैं वे रंगों की सूक्ष्म छटायें पहचानते हैं और भेद बताते हैं । दर्जी कपड़ा देखता है और बिना नापे उसमें से वस्त्र बनेगा कि नहीं यह कह देता है । गृहिणी दाल या सब्जी की मात्रा देखकर कितना नमक या मिर्च चाहिए वह हाथ में भरकर बता देती है । पहचानने की यह क्षमता बुद्धि की अनुमान शक्ति है परन्तु उसका साधन इन्द्रियां हैं । हमारे ज्ञानार्जन का बड़ा आधार इंद्रियों की क्षमता पर है। हमारे सुख का भी बड़ा आधार इंद्रियों की क्षमता पर है। चारों ओर सुन्दरता तो बहुत फैली हुई है परन्तु ग्रहण करने के लिए साधन ही नहीं है तो उस सुन्दरता का हम क्या करेंगे? परन्तु जब ग्रहण कभी किया ही न हो तो हम किन बातों से वंचित रह रहे हैं इसका अभी पता कैसे चलेगा ? अतः वंचित रह जाने का भी दुःख नहीं होता । संक्षेप में ज्ञानेन्द्रियों की क्षमता प्राप्त करने की, प्राप्त क्षमताओं का रक्षण करने की और उन्हें बढ़ाने की चिन्ता करनी चाहिए । | |
− | + | == विचार == | |
− | + | ठोस पदार्थ का, प्रत्यक्ष घटना का, व्यक्त वाणी का सूक्ष्म स्वरूप विचार है । विचार इंद्रियगम्य नहीं है । वह मनोगम्य है । ठोस पदार्थों का ज्ञान इंद्रियों को होता है । इंद्रियाँ भी ठोस रूप को सूक्ष्म संवेदनों में ही रूपांतरित करती हैं । वे रूपांतरित करती हैं यह कहना भी ठीक नहीं होगा । ठोस पदार्थ के साथ ही उसका संवेदन स्वरूप होता ही है । उस संवेदन रूप को ही तन्मात्रा कहते हैं यह हमने अभी देखा । पदार्थ का उससे भी सूक्ष्म स्वरूप विचार का है। मन पदार्थ को विचार के रूप में ग्रहण करता है। इंद्रियों के संवेदनों को मन विचार के रूप में ग्रहण करता है । परन्तु उसमें बहुत अवरोध आते हैं । प्रथम अवरोध तो मन के स्वत: के स्वभाव का है। मन स्वयं इतना चंचल है की अपनी चंचलता के कारण कभी यहाँ का तो कभी वहाँ का तरंग ग्रहण करता है। वह विचारों को पूर्ण रूप से ग्रहण ही नहीं करता । | |
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− | + | बाहर के विश्व में असंख्य भिन्न भिन्न विचार तरंग होते हैं । मन उन सबको ग्रहण करने के लिए भागदौड़ करता है और एक भी ठीक से नहीं करता । मन एकाग्र नहीं होने से विषय को ग्रहण करना उसके लिए कठिन हो जाता है । मन यदि एकाग्र रहा तो इंद्रियाँ जिस विषय को ग्रहण कर रही हैं उस विषय के संवेदनों के विचार पूर्ण रूप से ग्रहण कर पाता है। एकाग्र नहीं रहा तो थोड़ा ग्रहण करता है, शेष छूट जाता है। जिस प्रकार किसी का भाषण चल रहा है और लिखने वाला बोलने वाले की गति से लिख नहीं पाता तब कुछ बातें छूट जाती हैं वैसे ही मन अपनी अनुपस्थिति के कारण बहुत बातें छोड़ देता है । जब एक बात को छोड़ देता है तब दूसरी जगह पर वह होता है और वहाँ के विचार तरंगों को ग्रहण कर रहा होता है । अत: तरह तरह के विचारतरंग एक साथ मिल जाते हैं और एक भी विषय पूर्ण रूप से ग्रहण नहीं होता । ऐसे अनेकाग्र मन से अध्ययन नहीं हो सकता। | |
− | + | मन का दूसरा लक्षण है उत्तेजना । उत्तेजना की स्थिति चूल्हे पर रखे खौलते पानी जैसी है । शांत पानी में पदार्थ का प्रतिबिम्ब पदार्थ के समान ही दिखता है, परन्तु खौलते पानी में उसी पदार्थ के टुकड़े टुकड़े दिखाई देते हैं । दोष पदार्थ का नहीं होता, दोष खौलते हुए पानी का होता है । मन भी हर्ष, शोक, चिन्ता, भय, मान, अपमान के संवेगों से खौलता रहता है । लोभ लालच भी उस पर सवार हो जाते हैं । यश और कीर्ति भी उसे उत्तेजित कर देते हैं । इस अवस्था में वह विषय के विचार तरंगों को खंड खंड में ही ग्रहण करता है और एक बेढब आकृति बन जाती है जिसकी आँखें मछली जैसी, नाक तोते जैसी, पूंछ कुत्ते जैसी, पैर हिरण जैसे, दाँत शूर्पणखा जैसे, पूरा मुख वानर जैसा, बोली वक्ता जैसी होती है। मन की उत्तेजना के कारण ग्रहण किया हुआ चित्र इससे भी विचित्र हो सकता है । उसमें कोई कार्यकारण सम्बन्ध नहीं होता । हम समझ सकते हैं कि मन की स्थिति जब ऐसी होगी तब अध्ययन कैसे सम्भव है ? | |
− | + | मन का एक और लक्षण है । मन आसक्त हो जाता है। आसक्ति के कारण वह जो भी विचार तरंग अनुकूल लगता है उसमें चिपक जाता है और उससे छुटना नहीं चाहता। छूटना पड़े तो वह दुःखी होता है और दुःख की अवस्था में ग्रहण करना ही बंद कर देता है । अथवा विषय को नकारात्मक रूप में ग्रहण करता है । उदाहरण के लिए कोई एक पुरस्कार की उसे अपेक्षा है और वह उसे मिलता नहीं है । तब पहले वह दुःखी होता है, बाद में क्रोधित होता है और पुरस्कार नहीं देने वाले के प्रति नाराज हो जाता है । परन्तु इतने से ही पुरस्कार की आसक्ति से वह मुक्त नहीं होता । मन में वह रहता है इसलिए अध्ययन करते समय भी विषय को नकारात्मक रूप में ही ग्रहण करता है । | |
− | + | कोई एक प्राध्यापक उसे परीक्षा में कम अंक देता है । वह कम अंक के लायक ही होता है । तब भी पहले वह दुःखी होता है, फिर दूसरों के समक्ष लज्जित होता है, फिर नाराज होता है और उस प्राध्यापक का प्रवचन उसे फालतू लगता है। या कभी सही या गलत ढंग से भी किसी प्राध्यापक ने उसे शाबाशी दी है तो उसका प्रवचन उसे अच्छा लगता है। आसक्ति के कारण वह पूर्वग्रहों से ग्रस्त हो जाता है तो उस विषय का आकलन ठीक से नहीं करता । | |
− | + | जो भी विचार तरंग मन तक आते हैं उन्हें वह अपने रागद्वेष, रुचिअरुचि, इच्छा अनिच्छा आदि के रंग में रंग देता है । इसलिए संवेदनों के स्तर पर विषय का जो स्वरूप | |
− | की | + | होता है वह बदल जाता है । अपनी स्थिति और प्रवृत्ति के अनुसार मन उसका रूप परिवर्तन कर देता है । इसलिए कहने वाला कहता है और सुनने वाला समझता है उसमें अन्तर पड़ता है । बोलने वाला अपने संदर्भों में कहता है और सुनने वाला अपने मन के संदर्भों में सुनता है । दोनों की एकवाक्यता नहीं होती । ऐसी मन की प्रवृत्ति अजब है । ऐसा मन लेकर कोई भी कैसे अध्ययन कर सकता है या ज्ञान ग्रहण कर सकता है ? ऐसे मन से ज्ञान का क्या स्वरूप बनेगा ? जाहीर है कि क्या होगा कह नहीं सकते। |
− | + | अतः मन को ठीक करने की आवश्यकता रहती है । मन एकाग्र होना यह अध्ययन की प्रथम आवश्यकता है । मन शांत होना दूसरी आवश्यकता है । मन अनासक्त अर्थात स्वस्थ होना तीसरी आवश्यकता है । मन को इस स्थिति में लाना सरल नहीं है क्योंकि मन बहुत बलवान और जिद्दी है । मन को ऐसा बनाने के लिए देखा जाय तो बहुत सादे उपाय हैं परन्तु मन उन्हें चलने नहीं देता । | |
− | + | उपाय कुछ इस प्रकार हैं: | |
− | + | * आहार : मन को अच्छा बनाने के लिए सात्विक आहार आवश्यक है । आज के तथाकथित वैज्ञानिक युग में पौष्टिक आहार की बात तो सर्वत्र होती है, विज्ञापन तो पौष्टिकता की भी ऐसीतैसी कर देते हैं, परन्तु सात्विक आहार की संकल्पना परिचित भी नहीं है, है तो गलत रूप से परिचित है और परिचित है तो भी मान्य नहीं है। वे कहते हैं कि सात्विक भोजन स्वादिष्ट नहीं होता, बीमारों के खाने जैसा होता है और खाया नहीं जाता । परन्तु यह धारणा गलत है। सात्विक आहार पौष्टिक या स्वादिष्ट नहीं होता ऐसा नहीं है । शरीर स्वस्थ रहने के लिए जिस प्रकार पौष्टिक आहार चाहिए उस प्रकार मन अच्छा रहने के लिए सात्त्विक आहार आवश्यक है । ज्ञान के साथ जुड़े हुए सबको सात्त्विक आहार के विषय में जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए । | |
− | + | * मन को ठीक रखने के लिए हर प्रकार के व्रत और नियमों के विषय में युगानुकूलता अवश्य बरतनी चाहिए । उदाहरण के लिए इक्कीसवी शताब्दी में सप्ताह में एक दिन होटल का, एक दिन मोबाइल का, एक दिन टीवी का, एक दिन वाहन का, एक दिन प्लास्टिक का उपवास रख सकते हैं । इसी प्रकार से संयम के और तरीके निश्चित करने चाहिए । मन को ठीक रखने के लिए प्राणायाम, ध्यान, संगीत, जप जैसा अन्य कोई साधन नहीं है । | |
− | + | * नाड़ी शुद्धि प्राणायाम अत्यन्त उपयोगी है । साथ ही ध्यान भी उपयोगी है । अनेक उपायों से मन को ठीक करने से मन विचारों के रूप में ज्ञानार्जन करने के लायक बनता है । मन द्वारा ग्रहण किए गए विचार बुद्धि के समक्ष प्रस्तुत होते हैं । ऐसा होने पर बुद्धि ज्ञानार्जन के क्षेत्र में अपना काम करती है । आज मन की शिक्षा के अभाव में मन को विचार ग्रहण करने लायक बनाना चाहिये और जैसे ग्रहण किए हैं वैसे ही बुद्धि के समक्ष प्रस्तुत करना सिखाना चाहिए । शिक्षा के क्षेत्र में सर्वत्र अराजक फैला हुआ है । मन को ठीक करना चाहिए यह मूल उपाय है परन्तु वह छोड़कर ट्यूशन, ढेर सारे उपकरण, तरह तरह के नवाचार आदि के रूप में उपाय खोजे जाते हैं परन्तु वे परिणामकारी होते नहीं हैं , इस बात को ठीक से समझना चाहिये । | |
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− | उपाय कुछ इस प्रकार हैं | ||
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− | आहार : मन को अच्छा बनाने के लिए | ||
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− | आहार आवश्यक है । आज के तथाकथित वैज्ञानिक | ||
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− | युग में पौष्टिक आहार की बात तो सर्वत्र होती है, | ||
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− | विज्ञापन तो पौष्टिकता की भी ऐसीतैसी कर देते हैं, | ||
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− | परन्तु | ||
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− | है, है तो गलत रूप से परिचित है और परिचित है | ||
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− | तो भी मान्य नहीं है। वे कहते हैं कि | ||
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− | भोजन स्वादिष्ट नहीं होता, बीमारों के खाने जैसा | ||
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− | होता है और खाया नहीं जाता । परन्तु यह धारणा | ||
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− | गलत | ||
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− | होता ऐसा नहीं है । शरीर स्वस्थ रहने के लिए जिस | ||
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− | प्रकार पौष्टिक आहार चाहिए उस प्रकार मन अच्छा | ||
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− | रहने के लिए सात्त्विक आहार आवश्यक है । ज्ञान के | ||
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− | साथ जुड़े हुए सबको सात्त्विक आहार के विषय में | ||
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− | जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए । | ||
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− | मन को ठीक रखने के लिए हर प्रकार के | ||
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− | नियमों के विषय में युगानुकूलता अवश्य बरतनी | ||
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− | चाहिए । उदाहरण के लिए | ||
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− | सप्ताह में एक दिन होटल का, एक दिन मोबाइल | ||
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− | का, एक दिन टीवी का, एक दिन वाहन का, एक | ||
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− | दिन प्लास्टिक का उपवास रख सकते हैं । इसी | ||
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− | प्रकार से संयम के और तरीके निश्चित करने चाहिए । | ||
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− | मन को ठीक रखने के लिए प्राणायाम, ध्यान, | ||
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− | संगीत, जप जैसा अन्य कोई साधन नहीं है । | ||
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− | ध्यान भी उपयोगी है । | ||
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− | अनेक उपायों से मन को ठीक करने से मन विचारों | ||
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− | के रूप में ज्ञानार्जन करने के लायक बनता है । मन | ||
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− | द्वारा ग्रहण किए गए विचार बुद्धि के समक्ष प्रस्तुत | ||
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− | होते हैं । ऐसा होने पर बुद्धि ज्ञानार्जन के क्षेत्र में | ||
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− | अपना काम करती है । | ||
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− | आज मन की शिक्षा के अभाव में मन को विचार | ||
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− | ग्रहण करने लायक बनाना चाहिये और जैसे ग्रहण किए हैं | ||
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− | वैसे ही बुद्धि के समक्ष प्रस्तुत करना सिखाना चाहिए । | ||
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− | शिक्षा के क्षेत्र में सर्वत्र अराजक फैला हुआ है । मन को | ||
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− | ठीक करना चाहिए यह मूल उपाय है परन्तु वह छोड़कर | ||
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− | रूप में उपाय खोजे जाते हैं परन्तु वे परिणामकारी होते नहीं | ||
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− | हैं , इस बात को ठीक से समझना चाहिये । | ||
== विवेक == | == विवेक == | ||
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प्रश्न यह उठेगा कि फिर बुद्धि सीधे ही निरीक्षण क्यों | प्रश्न यह उठेगा कि फिर बुद्धि सीधे ही निरीक्षण क्यों | ||
− | नहीं करती, मन को बीच में लाती ही क्यों है ? या | + | नहीं करती, मन को बीच में लाती ही क्यों है ? या इन्द्रियां |
सीधे बुद्धि के समक्ष अपने संवेदनों को क्यों नहीं भेजतीं । | सीधे बुद्धि के समक्ष अपने संवेदनों को क्यों नहीं भेजतीं । | ||
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भौतिकवाद से बचाने का काम प्रथम करना होगा । | भौतिकवाद से बचाने का काम प्रथम करना होगा । | ||
− | दूसरा अवरोध यह है कि हम | + | दूसरा अवरोध यह है कि हम इंद्रियों और मन में |
अटक गए हैं। भौतिकवाद में अतिशय विश्वास होनेके | अटक गए हैं। भौतिकवाद में अतिशय विश्वास होनेके | ||
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप | ||
− | सुख बिना | + | सुख बिना इंद्रियों के होता है । किसी भी प्रकार से हो मन |
से होने वाला ज्ञान सापेक्ष ही होता है । मन तत्त्वार्थ नहीं | से होने वाला ज्ञान सापेक्ष ही होता है । मन तत्त्वार्थ नहीं | ||
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वह हाथ में भरकर बता देती है । पहचानने की यह क्षमता | वह हाथ में भरकर बता देती है । पहचानने की यह क्षमता | ||
− | बुद्धि की अनुमान शक्ति है परन्तु उसका साधन | + | बुद्धि की अनुमान शक्ति है परन्तु उसका साधन इन्द्रियां हैं । |
− | हमारे ज्ञानार्जन का बड़ा आधार | + | हमारे ज्ञानार्जन का बड़ा आधार इंद्रियों की क्षमता पर |
है । हमारे सुख का भी बड़ा आधार इंद्रियों की क्षमता पर | है । हमारे सुख का भी बड़ा आधार इंद्रियों की क्षमता पर | ||
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ठोस पदार्थ का, प्रत्यक्ष घटना का, व्यक्त वाणी का | ठोस पदार्थ का, प्रत्यक्ष घटना का, व्यक्त वाणी का | ||
− | सूक्ष्म स्वरूप विचार है । विचार | + | सूक्ष्म स्वरूप विचार है । विचार इंद्रियगम्य नहीं है । वह |
− | मनोगम्य है । ठोस पदार्थों का ज्ञान | + | मनोगम्य है । ठोस पदार्थों का ज्ञान इंद्रियों को होता है । |
इंद्रियाँ भी ठोस रूप को सूक्ष्म संबेदनों में ही रूपांतरित | इंद्रियाँ भी ठोस रूप को सूक्ष्म संबेदनों में ही रूपांतरित | ||
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प्रश्न यह उठेगा कि फिर बुद्धि सीधे ही निरीक्षण क्यों | प्रश्न यह उठेगा कि फिर बुद्धि सीधे ही निरीक्षण क्यों | ||
− | नहीं करती, मन को बीच में लाती ही क्यों है ? या | + | नहीं करती, मन को बीच में लाती ही क्यों है ? या इन्द्रियां |
सीधे बुद्धि के समक्ष अपने संवेदनों को क्यों नहीं भेजतीं । | सीधे बुद्धि के समक्ष अपने संवेदनों को क्यों नहीं भेजतीं । | ||
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भौतिकवाद से बचाने का काम प्रथम करना होगा । | भौतिकवाद से बचाने का काम प्रथम करना होगा । | ||
− | दूसरा अवरोध यह है कि हम | + | दूसरा अवरोध यह है कि हम इंद्रियों और मन में |
अटक गए हैं। भौतिकवाद में अतिशय विश्वास होनेके | अटक गए हैं। भौतिकवाद में अतिशय विश्वास होनेके | ||
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप | ||
− | सुख बिना | + | सुख बिना इंद्रियों के होता है । किसी भी प्रकार से हो मन |
से होने वाला ज्ञान सापेक्ष ही होता है । मन तत्त्वार्थ नहीं | से होने वाला ज्ञान सापेक्ष ही होता है । मन तत्त्वार्थ नहीं |
Revision as of 01:02, 8 October 2019
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स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि समस्त ज्ञान हमारे अन्दर ही होता है, शिक्षा से इसका अनावरण होता है[1]।
श्रीमद्भागवद्गीता भी कहती है[2]:
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।5.15।।
अर्थात ज्ञान अज्ञान से आवृत होता है इसलिए मनुष्य दिग्श्रमित होते हैं ।
अज्ञान का आवरण दूर कर अन्दर के ज्ञान को प्रकट करने हेतु सहायता करने वाले साधन मनुष्य को जन्मजात मिले हुए हैं । उन्हें ही ज्ञानार्जन के करण कहते हैं। इन करणों के जो कार्य हैं वे ही ज्ञानार्जन की प्रक्रिया है । ज्ञानार्जन के करण और उनके कार्य इस प्रकार हैं:
- कर्मन्द्रियों का कार्य क्रिया करना
- ज्ञानेन्द्रियों का कार्य संवेदनों का अनुभव करना
- मन का कार्य विचार करना और भावना का अनुभव करना
- बुद्धि का कार्य विवेक करना
- अहंकार का कार्य निर्णय करना
- चित्त का कार्य संस्कारों को ग्रहण करना
इन सबके परिणामस्वरूप ज्ञान का उदय होता है अर्थात आत्मस्वरूप ज्ञान प्रकट होता है अर्थात अनावृत होता है । हम इन सब क्रियाओं को क्रमश: समझने का प्रयास करेंगे ।
क्रिया
कर्मन्द्रियाँ क्रिया करती हैं। पाँच में से हम तीन कर्मन्द्रियों की बात करेंगे । ये हैं हाथ, पैर और वाक् अथवा वाणी। हाथ पकड़ने का, पैर गति करने का और वाक् बोलने का काम करती हैं । कर्मन्द्रियाँ अपना काम ठीक करें इसका क्या अर्थ है?
अच्छी क्रिया के तीन आयाम हैं । एक है कौशल, दूसरा है गति और तीसरा है निपुणता । हाथ वस्तु को पकड़ते हैं, दबाते हैं, फेंकते हैं, झेलते है, उछालते हैं । पकड़ने का काम एक उँगली और अंगूठे से, दो ऊँगलिया और अंगूठे से, चारों उँगलियाँ और अंगूठे से, मुट्ठी से होता है । पकड़ने में कुशलता चाहिए अर्थात ऊँगलियों और अंगूठे की स्थिति ठीक बनानी चाहिए । कई बार हम देखते हैं कि लिखने वाला पेंसिल ही ठीक नहीं पकड़ता है । उँगलियों की या मुट्ठी की स्थिति ही ठीक नहीं बनी है । लिखते समय केवल उँगलियाँ ही नहीं तो कलाई और कोहनी तक के हाथ की स्थिति ठीक नहीं बनी है । उँगलियाँ गूँथती हैं । उनकी सलाई पकड़ने की स्थिति ठीक नहीं बनती है। हाथों से कपड़ों या कागज की तह की जाती है । तब दोनों हाथों से कपड़ा या कागज पकड़ने की और उसे चलाने की स्थिति ठीक नहीं बनती है ।
उसी प्रकार से पैर खड़े रहकर शरीर का भार उठाते हैं। तब दोनों पैरों की सीधे खड़े रहने की, पैरों के तलवे की स्थिति ठीक नहीं बनती है । चलते हैं तब पैर उठाकर आगे रखने की स्थिति ठीक नहीं बनती है । व्यक्ति बोलता है तब बोलने में जो अवयव काम में आते हैं उनकी स्थिति ठीक नहीं बनती है । इस कारण से उच्चार ठीक नहीं होते, अक्षर सुन्दर नहीं बनते, चला ठीक नहीं जाता । क्रिया ठीक नहीं होती । आगे चित्र बनाने का, आकृति में रंग भरने का, मंत्र या गीत का गान करने का, छलांग लगाने का, दौड़ने का आदि काम भी ठीक से नहीं होते । कारीगरी के काम ठीक से नहीं होते क्योंकि साधन पकड़ने की स्थिति ठीक नहीं होती । दो हाथ जोड़कर, दृंडवत होकर प्रणाम करना, यज्ञ में आहुती देना, मालिश करना, गाँठ लगाना, आटा गुंधना, मिट्टी को आकार देना आदि असंख्य काम ठीक से नहीं होते । कर्मेन्द्रियों की स्थितियाँ दीवार में इँटों जैसी हैं । इंटें यदि ठीक नहीं बनी हैं तो दीवार ठीक नहीं बनती । दीवार ठीक नहीं बनती तो भवन भी ठीक नहीं बनता । अत: कर्मन्द्रियों की स्थिति ठीक बनाना प्रथम आवश्यकता है । स्थितियाँ ठीक बनाने के लिए अच्छे प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है । बारीकी से निरीक्षण कर छोटी से छोटी बात भी ठीक करनी होती है । ऐसा नहीं किया तो इंद्रियों की स्थिति में एक अवधि के बाद अनेक प्रयास करने पर भी सुधार नहीं होता है । इन स्थितियों के भी संस्कार बन जाते हैं । प्रारंभ में, छोटी आयु में एक बार संस्कार हो गए तो बाद में सुधार लगभग असम्भव हो जाते हैं । यही कारण है कि हम देखते हैं कि वर्णमाला के स्वरों और व्यंजनों के उच्चारणों की अनेक अशुद्धियाँ होती हैं और वे बड़ी आयु में ठीक नहीं होतीं । अक्षरों की बनावट ठीक नहीं होती और लेख सुन्दर या सही नहीं बनता । संगीत बेसुरा होता है । यज्ञ में आहुति डालना नहीं आता । प्रणाम करना नहीं आता । ये तो बहुत छोटी बातें हैं परंतु आगे चलकर भाषण और संभाषण ठीक नहीं होता, कारीगरी और कला ठीक नहीं अवगत होती, वस्तुयें ठीक नहीं रखी दूसरा आयाम है गति का । गति अभ्यास से बढ़ती है। पातंजल योगसूत्र अभ्यास को परिभाषित करते हुए कहते हैं:जातीं, वे खराब होती हैं आदि व्यवहार की अनेक कठिनाइयाँ निर्माण होती हैं ।
तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः [3]। 1.13 ।।
और
स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः [4]|| 1.14 ||
अर्थात अभ्यास स्थिरतापूर्वक करना चाहिए, निरन्तर करना चाहिए, नियमित करना चाहिए, सत्कारपूर्वक करना चाहिए । ये चारों बातें समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं ।
- अभ्यास स्थिरतापूर्वक करना चाहिए । इसका अर्थ यह है कि करने वाले की उसमें एकाग्रता होनी चाहिए, वह करते समय और कुछ नहीं करना चाहिए । कुछ लोग लिखते समय या भोजन करते समय संगीत सुनते हैं, अखबार पढ़ते हैं या बातें करते हैं । अब खड़े खड़े या चलते चलते भोजन करने की एक फैशन बनी है । संस्कार की बात एक ओर रखें तो भी यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा करने से क्रिया ठीक नहीं होती और उसका परिणाम ठीक नहीं होता । शारीरिक, मानसिक बौद्धिक रूप से अच्छी और श्रेष्ठ क्रियायें बैठकर ही करने का विधान है, यथा गाना, खाना, पढ़ना और पढ़ाना, उपदेश देना और ग्रहण करना, भाषण करना, पूजा करना, यज्ञ करना, लिखना, खाना बनाना आदि । यह इसलिए है कि ऐसा नहीं करने से एकाग्रता नहीं होती है और ध्यान बंट जाता है । एकाग्रता नहीं है तो किए हुए कार्य का ग्रहण भी पूरा पूरा नहीं होता । इसलिए एकाग्रता के लिए जो जो आवश्यक है वह सब करना चाहिए ।
- अभ्यास नियमित रूप से करना चाहिए । कर्मन्द्रियों को भी आदत पड़ती है । केवल कर्मन्द्रियों को ही नहीं अन्य करणों को भी आदत पड़ती है । उदाहरण के लिए कुछ दिन यदि दिन में बारह बजे भोजन किया या रात्रि में दस बजे सो गए तो बारह बजते ही भूख लगती है और दस बजे ही नींद आने लगती है । आज की भाषा में कहें तो शरीर की घड़ी समय बताती है । जरा विचार करें तो शरीर की ही नहीं तो मन की भी एक घड़ी होती है । ठीक समय पर करने से शरीर और मन अभ्यास के अनुकूल बन जाते हैं और क्रिया ठीक होती है ।
- अभ्यास निरन्तर रूप से करना चाहिए इसका अर्थ यह है कि कुछ समय किया और फिर छोड़ दिया, फिर कुछ समय बाद किया ऐसा नहीं करना चाहिए । वह प्रतिदिन करना चाहिए |
- चौथी बात सबसे महत्त्वपूर्ण है। अभ्यास सत्कारपूर्वक करना चाहिए । अर्थात उसमें करने वाले का मन लगना चाहिए । वह मन को अच्छा लगना चाहिए । बेमन से किया हुआ अभ्यास भले ही एकाग्रतापूर्वक या नियमित भी किया हो तो भी वह फलदायी नहीं होता क्योंकि वह यान्त्रिक होता है । फिर यंत्र की तरह शरीर काम तो करता है परन्तु वह जीवन्त नहीं होता । इस प्रकार अभ्यास करने से क्रिया में गति बढ़ती है । अभ्यास से पूर्व यदि कौशल नहीं प्राप्त किया गया तो गलत स्थिति का अभ्यास हो जाता है और फिर उसे ठीक करना सम्भव नहीं होता । अभ्यास से पूरी क्षमता तक गति बढ़ती है । कौशल और अभ्यास के परिणामस्वरूप क्रिया निपुणता से होती है । उसमें उत्कृष्टता प्राप्त होती है । क्रिया की गुणवत्ता बढ़ती है । जिस प्रकार च्यवनप्राश जैसे औषध जितने पुराने होते हैं उतने अधिक गुणवत्तापूर्ण होते हैं उसी प्रकार नित्य अभ्यास और कुशलतापूर्वक की गई क्रियाओं की निपुणता होती है । गायक की निपुणता उसके गायन में, खाना बनाने वाले की निपुणता उसके भोजन में और कुम्हार की निपुणता वह जब पात्र बना रहा है उसकी प्रक्रिया में दिखाई देती है । अनुभवी कुम्हार, अनुभवी गृहिणी, अनुभवी गायक मिट्टी का लोंडा उठाने मात्र से या पदार्थ में मसाला डालने के लिए चुटकी में लेते हुए या कठ से जरा सा स्वर निकलते ही परखा जाता है । इतना वह परिणामकारी होता है ।
आज कर्मन्द्रियों की क्रियाओं की इतनी दुर्दशा हुई है कि उसे फूहड़ कहना ही ठीक लगता है । एक तो हाथ, पैर आदि अब काम करने के लिए हैं ऐसा हमें लगता ही नहीं है । परन्तु इस धारणा में ही बदल करने की आवश्यकता है क्योंकि काम नहीं किया तो ये इंद्रियाँ स्वस्थ नहीं रहतीं और उन्हें यंत्र की तरह ही जंग लग जाती है । आज का अक्रिय मनोरंजन कर्मन्द्रियों को बीमार कर देता है। अक्रिय का अर्थ यह है कि हम संगीत सुनना चाहते हैं, स्वयं गाना नहीं, नृत्य देखना चाहते हैं, स्वयं नृत्य करना नहीं, हम यंत्रों से काम करवाना चाहते हैं हाथ से नहीं । हम वाहन से आनाजाना चाहते हैं, पैरों से नहीं । इस कारण से कर्मन्ट्रियों को असुख का अनुभव होता है, वे अपमानित और उपेक्षित अनुभव करती हैं, काम करने से वंचित रहती हैं इसलिए उदास रहती हैं और इसका परिणाम यह होता है कि भोक्ता अर्थात हम स्वयं आनन्द का अनुभव नहीं कर सकते । काम करने का आनन्द क्या होता है इसका हमें अनुभव ही नहीं होता है ।
बाल अवस्था में कर्मेन्ट्रियाँ सक्रिय होने लगती हैं और काम चाहती हैं । यह ऐसा ही है जिस प्रकार भूख लगने पर पेट भोजन मांगता है । भूख इसलिए लगती है क्योंकि भोजन से शरीर की पुष्टि होती है । भूख लगने पर भोजन नहीं किया तो शरीर कृश होने लगता है, बलहीन होता है और अस्वस्थ भी होने लगता है । अच्छा भोजन नहीं होने पर शरीर बीमार भी होता है । उसी प्रकार बालअवस्था में कर्मन्द्रियाँ काम मांगती हैं क्योंकि यह उनकी आवश्यकता है । उस समय काम मिला और वह अच्छे से करना सिखाया तो वे सुख का अनुभव करती हैं, उन्हें अपने होने में सार्थकता का अनुभव होता है और वे स्वस्थ और कार्यक्षम होती हैं । अत: बालअवस्था की शिक्षा क्रियाआधारित होनी चाहिए । क्रिया सिखाना पहली बात है और क्रिया के माध्यम से अन्य बातें सीखना दूसरी बात है ।
केवल कर्मेन्द्रियाँ ही क्रिया करती हैं ऐसा नहीं है। कर्मन्द्रियों के साथ साथ, कर्मन्द्रियों की सहायता से पूरा शरीर क्रिया करता है । पूरा शरीर यंत्र ही है जो काम करने के लिए बना है । शरीर को कार्यशील रखना आवश्यक है । उस दृष्टि से उसे काम करना सीखाना चाहिए और उससे काम लेना चाहिए । शरीर कार्यशील रहे इसलिए उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करनी चाहिए । उसकी रक्षा भी करनी चाहिए । अन्न, वस्त्र, आवास की योजना शरीर को ध्यान में रखकर होनी चाहिए । यह विषय वैसे तो अति सामान्य है । परन्तु आज तथाकथित बडी बड़ी बातों के पीछे लगकर हमने इस सामान्य परन्तु अत्यन्त आवश्यक विषय को विस्मृत कर दिया है । ऐसा करने के कारण पूरी शिक्षा दुर्बल और निस्तेज बन गई है । भारतीय शिक्षा को पुन: शरीर रूपी यंत्र को कार्यरत करना होगा ।
संवेदन
ध्वनियुक्त, वैसे ही कर्कश वाद्ययन्त्रों का संगीत, तेज पाँच कर्मेन्द्रियों की तरह पाँच ज्ञानेंद्रियां हैं। वे हैं मसालों से युक्त खाद्य पदार्थ ज्ञानेन्द्रियों की संवेदनाओं को नाक, कान, जीभ, आँखें और त्वचा । इन्हें क्रमश: अंधिर कर देते हैं । इन खोई हुई संवेदनशक्ति फिर से इस
avita, saita, «ita sea wifes, FHA तो प्राप्त नहीं की ect सकती । जैसे जैसे इंद्रियाँ
aga sik anita कहते हैं । ये सब बाहरी जगत का... जधिर होती जाती हैं हम विषयों की तीब्रता बढ़ाते जाते हैं
अनुभव करते हैं । वास्तव में ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ही और शक्तियाँ और क्षीण होती जाती हैं । छोटी आयु में
चश्मा, भोजन में रुचिहीनता और स्वाद की पहचान का
अभाव, धीमी आवाज नहीं सुनाई देना आदि लक्षण तो हम
रोज रोज अपने आसपास देखते ही हैं ।
हम बाहरी जगत के साथ सम्पर्क में आते हैं । इनके अभाव
में हम बाहर के जगत को जान ही नहीं सकते ।
शब्द अथवा ध्वनि कान का विषय है, स्पर्श त्वचा के
का विषय है, गंध नाक का, स्वाद जीभ का और रंग और अतः पहली बात तो इनका हम रक्षण कैसे करें
आकार आँख का विषय है । ज्ञानिंद्रियाँ इन विषयों को... रैसका ही विचार करना है ।
संवेदनों के रूप में ग्रहण करती हैं । बाहरी जगत में इन्हें इंद्रियों की शक्ति का दूसरा आधार है नाड़ीशुद्धि ।
तन्मात्रा कहते हैं और अपने शरीर में संवेदन । हमारे शरीर में बहत्तर हजार नाड़ियाँ हैं जो इंद्रियों के
ज्ञानिन्द्रियाँ वस्तु को वस्तु के रूप में नहीं अपितु संवेदनों को वहन करने का काम करती हैं । इन नाड़ियों की
संवेदन के रूप में ग्रहण करती हैं । वस्तु का संवेदन में... रशुद्धि के कारण संवेदनों के वहन में अवध निर्माण होता
रूपान्तरण वस्तु की तन्मात्रा शक्ति से और इंद्रिय की संवेदन .. हैं ! प्राणशक्ति के बल पर वे काम करती है । ज्ञानेन्दरियों
शक्ति से होता है। का नियंत्रण करने का काम भी प्राण करते हैं । अत:
प्राणशक्ति दुर्बल रही तो भी संबेदनशक्ति क्षीण होती है ।
प्राणशक्ति का. आधार आहार, विहार, निद्रा और
श्वसनप्रक्रिया पर है । ये सब ठीक रहे तो प्राणशक्ति अच्छी
बाहरी जगत का सम्यक ज्ञान हो इसलिए ज्ञानेन्द्रियों
को सक्षम बनाना चाहिए । वे यदि दुर्बल रहीं तो बाहरी
जगत को जानना कठिन हो जाता है। इस दृष्टि से
ज्ञानेन्द्रियों को संवेदनक्षम बनाना अत्यन्त आवश्यक है। . हँती है। वे टी ठीक नहीं रहे तो प्राणशक्ति और
यह काम लगता है उतना सरल नहीं है । परिणामस्वरूप इंद्रियों की शक्ति क्षीण होती है ।
yoy db afl A a ar ea ad a पर्यावरण ठीक नहीं रहा तो भी ज्ञानेन््रियों पर प्रभाव
बचाना चाहिए। जब बालक का जन्म होता है तब. रीता है। ee FETS, कुरूप, कोलाहलयुक्त
ज्ञानेंद्रियाँ बहुत नाजुक होती हैं । उस समय तीव्र अनुभवों. ाकर्ग में इंद्रियों को सुख का अनुभव नहीं होता । अतः
से बचाना चाहिए । बड़ी और कर्कश आवाज, तेज प्रकाश, पर्यावरण भी ठीक चाहिए । संतर्पण
तीव्र गंध, कठोर स्पर्श, बेस्वाद् औषध ज्ञानिन्द्रियों की इंद्रियों को रक्षण, पोषण और संतर्पण की
क्षमता तीव्र गति से कम कर देते हैं । आज तो यह संकट... आवश्यकता होती है । रक्षण और पोषण की बात तो समझ
बहुत गहरा गया है। जन्म से ही क्षमताओं के हास का में आती है परन्तु संतर्पण ei चिन्ता भी करनी चाहिए |
प्रारंभ हो जाता है । आयुष्य के प्रथम दस दिनों में लगभग संतर्पण का अर्थ है इंद्रियों को अपने अपने विषयों का
पचास प्रतिशत नुकसान हो जाता है । आहार मिलना । सुमधुर और सात्विक संगीत, सुन्दर,
दैनंदिन जीवन में भड़कीले असुन्दर कृत्रिम रंग, बेढब ... गमोहँक दृश्य, सात्त्विक, स्वादिष्ट पदार्थों का स्वाद, मधुर
आकृतियाँ, घृणास्पद एवं जुगुप्सात्मक दृश्य, टीवी, कंप्यूटर. "१ः सुखद स्पर्श इंद्रियों को सुख देता है । ये सब उन्मादक
sit Haga A ail, उत्तेजक, बेसुरा, कर्कश, तेज... हैं तो इंद्रियों को कष्ट होता है और वे क्षीण होती हैं ।
अत: इन सभी बातों का भी ध्यान रखना चाहिए । इंद्रियों की शक्ति केवल देखने की या सुनने की शक्ति ही नहीं है, उनको ठीक तरह और सूक्ष्मता से सुनने देखने आदि की शक्ति है । रंग या गंध या ध्वनि पूर्ण क्षमता के साथ ग्रहण करना यह एक मुद्दा है और सूक्ष्म भेद परखना दूसरी क्षमता है । उदाहरण के लिए कपड़े की मीलों में जो डाइंग मास्टर होते हैं वे रंगों की सूक्ष्म छटायें पहचानते हैं और भेद बताते हैं । दर्जी कपड़ा देखता है और बिना नापे उसमें से वस्त्र बनेगा कि नहीं यह कह देता है । गृहिणी दाल या सब्जी की मात्रा देखकर कितना नमक या मिर्च चाहिए वह हाथ में भरकर बता देती है । पहचानने की यह क्षमता बुद्धि की अनुमान शक्ति है परन्तु उसका साधन इन्द्रियां हैं । हमारे ज्ञानार्जन का बड़ा आधार इंद्रियों की क्षमता पर है। हमारे सुख का भी बड़ा आधार इंद्रियों की क्षमता पर है। चारों ओर सुन्दरता तो बहुत फैली हुई है परन्तु ग्रहण करने के लिए साधन ही नहीं है तो उस सुन्दरता का हम क्या करेंगे? परन्तु जब ग्रहण कभी किया ही न हो तो हम किन बातों से वंचित रह रहे हैं इसका अभी पता कैसे चलेगा ? अतः वंचित रह जाने का भी दुःख नहीं होता । संक्षेप में ज्ञानेन्द्रियों की क्षमता प्राप्त करने की, प्राप्त क्षमताओं का रक्षण करने की और उन्हें बढ़ाने की चिन्ता करनी चाहिए ।
विचार
ठोस पदार्थ का, प्रत्यक्ष घटना का, व्यक्त वाणी का सूक्ष्म स्वरूप विचार है । विचार इंद्रियगम्य नहीं है । वह मनोगम्य है । ठोस पदार्थों का ज्ञान इंद्रियों को होता है । इंद्रियाँ भी ठोस रूप को सूक्ष्म संवेदनों में ही रूपांतरित करती हैं । वे रूपांतरित करती हैं यह कहना भी ठीक नहीं होगा । ठोस पदार्थ के साथ ही उसका संवेदन स्वरूप होता ही है । उस संवेदन रूप को ही तन्मात्रा कहते हैं यह हमने अभी देखा । पदार्थ का उससे भी सूक्ष्म स्वरूप विचार का है। मन पदार्थ को विचार के रूप में ग्रहण करता है। इंद्रियों के संवेदनों को मन विचार के रूप में ग्रहण करता है । परन्तु उसमें बहुत अवरोध आते हैं । प्रथम अवरोध तो मन के स्वत: के स्वभाव का है। मन स्वयं इतना चंचल है की अपनी चंचलता के कारण कभी यहाँ का तो कभी वहाँ का तरंग ग्रहण करता है। वह विचारों को पूर्ण रूप से ग्रहण ही नहीं करता ।
बाहर के विश्व में असंख्य भिन्न भिन्न विचार तरंग होते हैं । मन उन सबको ग्रहण करने के लिए भागदौड़ करता है और एक भी ठीक से नहीं करता । मन एकाग्र नहीं होने से विषय को ग्रहण करना उसके लिए कठिन हो जाता है । मन यदि एकाग्र रहा तो इंद्रियाँ जिस विषय को ग्रहण कर रही हैं उस विषय के संवेदनों के विचार पूर्ण रूप से ग्रहण कर पाता है। एकाग्र नहीं रहा तो थोड़ा ग्रहण करता है, शेष छूट जाता है। जिस प्रकार किसी का भाषण चल रहा है और लिखने वाला बोलने वाले की गति से लिख नहीं पाता तब कुछ बातें छूट जाती हैं वैसे ही मन अपनी अनुपस्थिति के कारण बहुत बातें छोड़ देता है । जब एक बात को छोड़ देता है तब दूसरी जगह पर वह होता है और वहाँ के विचार तरंगों को ग्रहण कर रहा होता है । अत: तरह तरह के विचारतरंग एक साथ मिल जाते हैं और एक भी विषय पूर्ण रूप से ग्रहण नहीं होता । ऐसे अनेकाग्र मन से अध्ययन नहीं हो सकता।
मन का दूसरा लक्षण है उत्तेजना । उत्तेजना की स्थिति चूल्हे पर रखे खौलते पानी जैसी है । शांत पानी में पदार्थ का प्रतिबिम्ब पदार्थ के समान ही दिखता है, परन्तु खौलते पानी में उसी पदार्थ के टुकड़े टुकड़े दिखाई देते हैं । दोष पदार्थ का नहीं होता, दोष खौलते हुए पानी का होता है । मन भी हर्ष, शोक, चिन्ता, भय, मान, अपमान के संवेगों से खौलता रहता है । लोभ लालच भी उस पर सवार हो जाते हैं । यश और कीर्ति भी उसे उत्तेजित कर देते हैं । इस अवस्था में वह विषय के विचार तरंगों को खंड खंड में ही ग्रहण करता है और एक बेढब आकृति बन जाती है जिसकी आँखें मछली जैसी, नाक तोते जैसी, पूंछ कुत्ते जैसी, पैर हिरण जैसे, दाँत शूर्पणखा जैसे, पूरा मुख वानर जैसा, बोली वक्ता जैसी होती है। मन की उत्तेजना के कारण ग्रहण किया हुआ चित्र इससे भी विचित्र हो सकता है । उसमें कोई कार्यकारण सम्बन्ध नहीं होता । हम समझ सकते हैं कि मन की स्थिति जब ऐसी होगी तब अध्ययन कैसे सम्भव है ?
मन का एक और लक्षण है । मन आसक्त हो जाता है। आसक्ति के कारण वह जो भी विचार तरंग अनुकूल लगता है उसमें चिपक जाता है और उससे छुटना नहीं चाहता। छूटना पड़े तो वह दुःखी होता है और दुःख की अवस्था में ग्रहण करना ही बंद कर देता है । अथवा विषय को नकारात्मक रूप में ग्रहण करता है । उदाहरण के लिए कोई एक पुरस्कार की उसे अपेक्षा है और वह उसे मिलता नहीं है । तब पहले वह दुःखी होता है, बाद में क्रोधित होता है और पुरस्कार नहीं देने वाले के प्रति नाराज हो जाता है । परन्तु इतने से ही पुरस्कार की आसक्ति से वह मुक्त नहीं होता । मन में वह रहता है इसलिए अध्ययन करते समय भी विषय को नकारात्मक रूप में ही ग्रहण करता है ।
कोई एक प्राध्यापक उसे परीक्षा में कम अंक देता है । वह कम अंक के लायक ही होता है । तब भी पहले वह दुःखी होता है, फिर दूसरों के समक्ष लज्जित होता है, फिर नाराज होता है और उस प्राध्यापक का प्रवचन उसे फालतू लगता है। या कभी सही या गलत ढंग से भी किसी प्राध्यापक ने उसे शाबाशी दी है तो उसका प्रवचन उसे अच्छा लगता है। आसक्ति के कारण वह पूर्वग्रहों से ग्रस्त हो जाता है तो उस विषय का आकलन ठीक से नहीं करता ।
जो भी विचार तरंग मन तक आते हैं उन्हें वह अपने रागद्वेष, रुचिअरुचि, इच्छा अनिच्छा आदि के रंग में रंग देता है । इसलिए संवेदनों के स्तर पर विषय का जो स्वरूप
होता है वह बदल जाता है । अपनी स्थिति और प्रवृत्ति के अनुसार मन उसका रूप परिवर्तन कर देता है । इसलिए कहने वाला कहता है और सुनने वाला समझता है उसमें अन्तर पड़ता है । बोलने वाला अपने संदर्भों में कहता है और सुनने वाला अपने मन के संदर्भों में सुनता है । दोनों की एकवाक्यता नहीं होती । ऐसी मन की प्रवृत्ति अजब है । ऐसा मन लेकर कोई भी कैसे अध्ययन कर सकता है या ज्ञान ग्रहण कर सकता है ? ऐसे मन से ज्ञान का क्या स्वरूप बनेगा ? जाहीर है कि क्या होगा कह नहीं सकते।
अतः मन को ठीक करने की आवश्यकता रहती है । मन एकाग्र होना यह अध्ययन की प्रथम आवश्यकता है । मन शांत होना दूसरी आवश्यकता है । मन अनासक्त अर्थात स्वस्थ होना तीसरी आवश्यकता है । मन को इस स्थिति में लाना सरल नहीं है क्योंकि मन बहुत बलवान और जिद्दी है । मन को ऐसा बनाने के लिए देखा जाय तो बहुत सादे उपाय हैं परन्तु मन उन्हें चलने नहीं देता ।
उपाय कुछ इस प्रकार हैं:
- आहार : मन को अच्छा बनाने के लिए सात्विक आहार आवश्यक है । आज के तथाकथित वैज्ञानिक युग में पौष्टिक आहार की बात तो सर्वत्र होती है, विज्ञापन तो पौष्टिकता की भी ऐसीतैसी कर देते हैं, परन्तु सात्विक आहार की संकल्पना परिचित भी नहीं है, है तो गलत रूप से परिचित है और परिचित है तो भी मान्य नहीं है। वे कहते हैं कि सात्विक भोजन स्वादिष्ट नहीं होता, बीमारों के खाने जैसा होता है और खाया नहीं जाता । परन्तु यह धारणा गलत है। सात्विक आहार पौष्टिक या स्वादिष्ट नहीं होता ऐसा नहीं है । शरीर स्वस्थ रहने के लिए जिस प्रकार पौष्टिक आहार चाहिए उस प्रकार मन अच्छा रहने के लिए सात्त्विक आहार आवश्यक है । ज्ञान के साथ जुड़े हुए सबको सात्त्विक आहार के विषय में जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए ।
- मन को ठीक रखने के लिए हर प्रकार के व्रत और नियमों के विषय में युगानुकूलता अवश्य बरतनी चाहिए । उदाहरण के लिए इक्कीसवी शताब्दी में सप्ताह में एक दिन होटल का, एक दिन मोबाइल का, एक दिन टीवी का, एक दिन वाहन का, एक दिन प्लास्टिक का उपवास रख सकते हैं । इसी प्रकार से संयम के और तरीके निश्चित करने चाहिए । मन को ठीक रखने के लिए प्राणायाम, ध्यान, संगीत, जप जैसा अन्य कोई साधन नहीं है ।
- नाड़ी शुद्धि प्राणायाम अत्यन्त उपयोगी है । साथ ही ध्यान भी उपयोगी है । अनेक उपायों से मन को ठीक करने से मन विचारों के रूप में ज्ञानार्जन करने के लायक बनता है । मन द्वारा ग्रहण किए गए विचार बुद्धि के समक्ष प्रस्तुत होते हैं । ऐसा होने पर बुद्धि ज्ञानार्जन के क्षेत्र में अपना काम करती है । आज मन की शिक्षा के अभाव में मन को विचार ग्रहण करने लायक बनाना चाहिये और जैसे ग्रहण किए हैं वैसे ही बुद्धि के समक्ष प्रस्तुत करना सिखाना चाहिए । शिक्षा के क्षेत्र में सर्वत्र अराजक फैला हुआ है । मन को ठीक करना चाहिए यह मूल उपाय है परन्तु वह छोड़कर ट्यूशन, ढेर सारे उपकरण, तरह तरह के नवाचार आदि के रूप में उपाय खोजे जाते हैं परन्तु वे परिणामकारी होते नहीं हैं , इस बात को ठीक से समझना चाहिये ।
विवेक
सही क्या और गलत क्या, उचित क्या और अनुचित
क्या, करणीय क्या और अकरणीय क्या, अच्छा क्या और
बुरा क्या यह स्पष्ट रूप से जानना यह विवेक है । अपरा
विद्या का यह सर्वोच्च स्तर है । यही जानना है, समझना है,
ज्ञात होना है । यह बुद्धि का क्षेत्र है । यह विज्ञान का क्षेत्र
है । विज्ञान का अर्थ है जो जैसा है वैसा जानना ।
मन की ओर से विचारों के तरंग बुद्धि के पास आते
हैं । उस समय वे मन के रंग में रंगे होते हैं । कभी कभी तो
मन की ओर से आई हुई सामग्री इतनी गड्डमड्ड होती है कि
बुद्धि को उसे ठीक करना बहुत कठिन पड़ता है । बुद्धि उसे
सुलझाने का बहुत प्रयास करती है। अधिकांश वह
सुलझाने में यशस्वी होती है पर कभी अभी हार भी जाती है
और गलत समझ लेती है । अर्थात जो जैसा है वैसा नहीं
अपितु मन जैसा कहता है वैसा समझ लेती है ।
विवेक तक पहुँचने के लिए विचारों को अनेक
प्रक्रियाओं से गुजरना होता है। बुद्धि ही ये प्रक्रियायें
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चलाती हैं ।
सबसे सरल प्रक्रिया है निरीक्षण की । यह प्रक्रिया
दशनिन्द्रिय की सहायता से होती है ।
दर्शनेन्द्रिय ने अपनी क्षमता से उसे जिस रंग के या
आकृति के रूप में पहचाना है और मन ने जिन विचार
तरंगों को ग्रहण कर प्रस्तुत किया है उन पर बुद्धि संकल्प
की मुहर लगाती है । यह सम्पूर्ण रूप से आँख पर ही निर्भर
करता है कि आँख क्या देखती है ।
यदि पूर्ण रूप से बुद्धि आँख और मन पर ही निर्भर है
तो बुद्धि की भूमिका कया रहेगी ?
यदि आँख किसी पदार्थ को लाल रंग के और
वृत्ताकार के रूप में पहचानती है और मन उसे नीला रंग
और आयताकार कहता है तो बुद्धि तटस्थ होकर इसे लोक
में और शास्त्रों में क्या कहा गया है यह देखकर अपना
निश्चय करती है कि वास्तव में उस पदार्थ का आकार और
रंग वही हैं जो मन कहता है या भिन्न । यदि भिन्न है तो वह
मन का कहा नहीं मानती । ऐसे अनेक अनुभवों से वह यह
भी तय करती है कि मन विश्वसनीय है कि नहीं ।
प्रश्न यह उठेगा कि फिर बुद्धि सीधे ही निरीक्षण क्यों
नहीं करती, मन को बीच में लाती ही क्यों है ? या इन्द्रियां
सीधे बुद्धि के समक्ष अपने संवेदनों को क्यों नहीं भेजतीं ।
बीच में मन को लाती ही क्यों हैं ?
बुद्धि और इंद्रियों को मन को बीच में लाना ही पड़ता
है क्योंकि मन है और वह सक्रिय है । मन यदि अक्रिय हो
जाता है तो यह काम सीधे भी हो सकता है । परन्तु मन
अक्रिय हो ही नहीं सकता । वह सक्रिय भी है और बलवान
और जिद्दी भी है। मन की बात मानने या नहीं मानने के
लिए बुद्धि को सक्षम और शक्तिशाली होना ही पड़ता 2 |
इंद्रियों और बुद्धि के बीच में मन आता है उसे अपने वश में
रखना, अथवा दूसरे शब्दों में कहें तो उसके वश में नहीं हो
जाना बुद्धि का काम है । बुद्धि के पास कार्यकारण भाव को
समझने की शक्ति है, उसका प्रयोग बुद्धि को करना होता
है। मन के पास ऐसी शक्ति नहीं है। वह नियम नहीं
जानता, वह तटस्थ नहीं होता इसलिए तो हम किसीको
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
कहते हैं कि “क्या मनमें आया ae ah |= उनके मिश्रण का अनुपात, मिश्रण करने की प्रक्रिया आदि
जा रहे हो, जरा बुद्धि से तो विचार करके बोलो । मन में BMT अलग समझने के स्थान पर पूरा पदार्थ एक साथ
कुछ भी संगत असंगत बातें आ सकती हैं बुद्धि में नहीं ।.. समझना संभ्लेषण है । उदाहरण के लिए हलुवा और लड्डू
कुछ भी नहीं, जो ठीक है वही आना यही विवेक है । जो... दोनों में आटा, घी और गुड ही सम्मिश्रित हुए हैं परन्तु
ठीक है उसीको यथार्थ कहते हैं । उनके मिश्रण की प्रक्रिया अलग अलग है इसलिए उनका
बुद्धि जब दुर्बल होती है और मन को वश में नहीं. रूप, रंग, स्वाद सब अलग अलग होता एकत्व का है ।
कर सकती अथवा मन की उपेक्षा नहीं कर सकती तब. विश्लेषण करके भिन्नता समझना और संश्लेषण करके
आकलन और निर्णय सही नहीं होते हैं । इसलिए मन को... अनुभव करना बुद्धि का काम है । एक चित्र में कौन कौन
बीच में आने से रोकना बहुत आवश्यक है । मन को इस... से रंग हैं यह जानना विश्लेषण है और उस चित्र के सौन्दर्य
प्रकार साधना चाहिए कि वह बुद्धि के अनुकूल हो और का आस्वाद लेना संश्लेषण है। आनन्द लेने के लिए
उसकी बात माने । केवल उपेक्षा करते रहने से तो वह ताक. संश्लेषणात्मक प्रक्रिया चाहिए, प्रक्रिया समझने के लिए
में रहता है कि कब मौका मिले और कब मनमानी करे । विश्लेषणात्मक पद्धति चाहिए । ये दोनों बुद्धि से होते हैं
बुद्धि की दूसरी शक्ति या साधन है परीक्षण । यह भी... और विवेक के प्रति ले जाते हैं ।
ज्ञानेन्द्रियों के सहयोग से ही होता है । यह केवल दर्शनिन्द्रिय निरीक्षण, परीक्षण, विश्लेषण और संश्लेषण के
से नहीं तो पांचों ज्ञानेंद्रियों के सहयोग से होता है । इसकी. आधार पर विवेक होता है । अभ्यास से यह विवेकशक्ति
भी स्थिति दृशनिन्द्रिय और मन के जैसी ही होती है । बढ़ती जाती है । अभ्यास से आकलन शक्ति भी बढ़ती
इसके आगे कार्यकारण सम्बन्ध जानने की जो शक्ति... जाती है। मन सहयोगी बन जाता है। मन को समझाया
है वह बुद्धि की अपनी ही है परन्तु निरीक्षण और परीक्षण... जाता है तब तो वह सही में सहयोगी बनता है, उसे दबाया
के परिपक्क होने से ही वह आती है । अपने आसपास की... जाता है तो कभी भी अविश्वासु अनुचर के समान धोखा
परिस्थिति का आकलन करना और चित्त में जो पूर्व. देता है और मनमानी का प्रभाव बुद्धि पर होकर वह भटक
अनुभवों की स्मृतियाँ संग्रहीत हैं उनके आधार पर... जाती है।
कार्यकारण सम्बन्ध समझना उसके लिए सम्भव होता है । अभ्यास से बुद्धि तेजस्वी बनती है और अटपटे और
बुद्धि मन से पीछा छुड़ाकर चित्तनिष्ठ और आत्मनिष्ठ बनकर... जटिल विषय भी उसे कठिन नहीं लगते । समझने में उसे देर
व्यवहार करती है तभी विवेक कर सकती है । कार्यकारण. भी नहीं लगती । तब हम व्यक्ति को बुद्धिमान कहते हैं ।
सम्बन्ध बिठाने के लिए संश्लेषण और विश्लेषण करना... जैसे सधे हुए हाथ सहजता से काम कर लेते हैं वैसे ही
होता है । एक ही घटना अथवा पदार्थ या रचना के भिन्न. सधी हुई बुद्धि सहजता से समझ लेती है । ऐसे व्यक्ति को
भिन्न आयामों को अलग अलग कर समझना विश्लेषण है ।. हम बुद्धिमान व्यक्ति कहते हैं । यह बुद्धि तेजस्वी के साथ
उदाहरण के लिए हमारा पूरा शरीर एक ही है परन्तु उसका... साथ कुशाग्र भी होती है और विशाल भी होती है । कुशाग्र
कार्य समझने के लिए हम हाथ, पैर, मस्तक ऐसे अलग... बुद्धि वह है जो अत्यन्त जटिल बातों की बारिकियों को
अलग हिस्से कर उनके कार्य समझते हैं । खाद्य पदार्थ एक... स्पष्ट समझती है । विशाल बुद्धि वह है जो अत्यन्त व्यापक
ही है परन्तु उसमें कौन कौन से पदार्थों का संमिश्रण है और. बातों का आकलन भी सहजता से कर लेती है । यह सब
उनके मिश्रण की क्या प्रक्रिया है यह अलग अलग करके... संभव है।
समझने का प्रयास करते हैं । बुद्धि स्वभाव से आत्मनिष्ठ होती है। वह अपने
उसके ठीक विपरीत प्रक्रिया संश्लेषण की है । पदार्थ, ... कार्यों के लिए चित्त पर निर्भर करती है यह अभी हमने
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पर्व ३ : शिक्षा का मनोविज्ञान
देखा । चित्त संस्कारों का भंडार है । जन्मजन्मांतर के
संस्कार इसमें संग्रहीत हैं । संस्कारों की ही स्मृति होती है ।
इस स्मृति का बुद्धि को बहुत उपयोग होता है ।
बुद्धि की विवेकशक्ति अत्यन्त परिपक्क होती है तब
सृष्टि के सारे रहस्य उसके समक्ष प्रकट होते हैं [सृष्टि का
मूल स्वरूप आत्मतत्त्व है यह सत्य उद्घाटित होता है और
वह आत्मतत्त्व मैं ही हूँ यह भी समझता है । केवल मैं ही
नहीं तो समग्र सृष्टि ही आत्मतत्त्व है यह भी समझ में आता
है । अत: मैं और सृष्टि के सभी पदार्थ एक ही हैं ऐसा भी
समझ में आता है । परिणामस्वरूप आपपर भाव समाप्त हो
जाता है। और अहम ब्रह्मास्मि तथा सर्व खलु इदं ब्रह्म
समझ में आता है ।
यह बुद्धि से आत्मतत्त्त को जानना है । इसे भगवान
शंकराचार्य विवेकख्याति कहते हैं। विवेकख्याति से
यथार्थबोध होता है ।
बुद्धि से आत्मतत्त्व को समझना ज्ञानमार्ग अथवा
ज्ञानयोग है । बुद्धि से तत्त्व को समझना तत्त्वज्ञान है । बुद्धि
से शास्त्रों को समझना अपरा विद्या से परा विद्या की ओर
जाना है। परिपक्क बुद्धि में अनुभूति की ओर जाने कि
क्षमता होती है ।
विवेकशक्ति को जागृत करना और विकसित करना
शिक्षा का लक्ष्य है। परन्तु आज हम बुद्धि के केवल
भौतिक पक्ष पर अटक गए हैं । जीवन को और जगत को
भौतिक दृष्टिकोण से देखने का यह परिणाम है। इसे
भौतिकवाद से बचाने का काम प्रथम करना होगा ।
दूसरा अवरोध यह है कि हम इंद्रियों और मन में
अटक गए हैं। भौतिकवाद में अतिशय विश्वास होनेके
कारण हमने मापन और आकलन के यांत्रिक साधन
विकसित किए हैं और बौद्धिक क्षमताओं के स्थान पर
साधनों का प्रयोग शुरू किया है जो बुद्धिबिकास में अवरोध
बनता है । उदाहरण के लिये पहाड़ो के स्थान पर गणनयंत्र
का उपयोग करके हमने गणनक्षमता को कुंठित कर दिया ।
भारत की पारंपरिक पद्धति में पहाड़े कंठस्थ करना हमारा
अंगभूत गणनयंत्र था । उसकी अवमानना कर यान्त्रिक
श्३५्
साधन को अपनाना हानिकारक ही
सिद्ध होता है । यह उल्टी दिशा है जो बुद्धिविकास के लिए
हानिकारक है । ऐसी तो सेंकड़ों बाते हैं जो सुविधा के नाम
पर बुद्धिविकास के मार्ग में अवरोध बनकर जम गईं हैं । इन
सबकी चर्चा करने का यह स्थान नहीं है परन्तु ज्ञानक्षेत्र के
सन्दर्भ में इनका विचार करना अपरिहार्य है ।
निर्णय और दायित्वबोध
पदार्थ को कर्मेन्ट्रिय ने भौतिक रूप में, ज्ञानेन्द्रियों ने
संवेदन के रूप में, मन ने विचार के रूप में और बुद्धि ने
विवेक के रूप में ग्रहण किया । तात्विक रूप में बुद्धि ने
निश्चय करके पदार्थ को यथार्थ रूप में बताया । परन्तु ज्ञान
किसे हुआ ? व्यवहार क्षेत्र में ज्ञान अहकार को होता है
क्योंकि वही कर्ता है । किसी भी प्रकार की क्रिया को करने
वाला और किसी भी बात को जानने वाला अहंकार है । मैं
जानता हूँ, मैं करता हूँ, मैं चाहता हूँ, मुझे चाहिए ऐसा
कहने वाला अहंकार होता है । इसलिए बुद्धि ने जो निश्चय
करके दिया उसे लागू करने का निर्णय अहंकार का होता
है।
अहंकार के समक्ष दो विकल्प होते हैं । आत्मतत्त्व
की सत्ता मानकर उसके प्रतिनिधि के रूप में निर्णय करना
एक विकल्प है । आत्मतत्त्व को न मानकर अपने आप ही
ज्ञान का स्वामित्व स्वीकार कर निर्णय करना दूसरा विकल्प
है । आत्मतत्त्व को मानता है तब वह विनम्र होता है, नहीं
मानता है तब मदान्वित होता है । व्यवहार में हम दोनों
प्रकार के मनुष्य देखते ही हैं । (तीसरा एक दम्भी प्रकार
होता है जो आत्मतत्त्व को मानता तो नहीं है परन्तु मानता
है ऐसा बताकर झूठी नम्रता धारण करता है ।) विवेकशक्ति
में कहीं चूक होती है तब अहंकार आत्मतत्त्व को नहीं
मानता है ।
आत्मतत्त्व को नहीं मानने वाला अहंकार आसुरी
होता है जिसका यथार्थ वर्णन भगवद्दीता में किया गया है ।
विनम्र अहंकार के साथ ज्ञाताभाव, भोक्ताभाव और
कतभिाव होता है । इसलिए व्यवहारजगत में उसके साथ
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दायित्वबोध जुड़ता है । जो भी हो रहा
है मेरे करने से हो रहा है, जो भी मैं कर रहा हूँ उसका फल
मुझे भोगना है, मेरे भोग के लिए जिम्मेदार मैं ही हूँ, जो भी
हो रहा है उसे मैं जानता हूँ इसलिए दायित्व भी मेरा ही है
ऐसा दायित्वबोध अहंकार कि शक्ति है । यह विधायक भी
होता है और नकारात्मक भी ।
अत: ज्ञानक्षेत्र के साथ दायित्वबोध जुड़ने की
अत्यन्त आवश्यकता है । व्यक्तिगत जीवन की तथा राष्ट्रीय
जीवन की हर समस्याका ज्ञानात्मक समाधान देना ज्ञानक्षेत्र
का दायित्व है ।
अनुभूति
अनुभूति की शिक्षा
ज्ञानेन्द्रियों से और कर्मन्द्रियों से जानना होता है । वह
इंद्रियों के माध्यम से होने वाली शिक्षा होती है। यह
जानकारी के रूप में होने वाला ज्ञान है । कई बातें ऐसी हैं
जो केवल जानकारी से परे होती हैं । उदाहरण के लिए
आँख किसी वस्तु का रंग पहचानती है । इससे रंग के
विषय में जानकारी मिलती है । परन्तु वह अच्छा है कि
नहीं, सुखद है कि नहीं, हितकारी है कि नहीं यह जानना
आँख का काम नहीं है । वह आँख की शक्ति के परे है ।
आँख नहीं अपितु मन के स्तर पर यह जाना जाता है कि
आँख ने जिसे लाल रंग के रूप में जाना वह सुख देने
वाला है कि नहीं, वह अच्छा लगता है कि नहीं । मन के
स्वभाव के अनुसार किसीको लाल रंग अच्छा लगता है,
किसीको अच्छा नहीं लगता । परन्तु यह मन के स्तर का
ज्ञान हुआ । यह अनुभूति नहीं है । मन के स्तर पर होने
वाला ज्ञान यथार्थज्ञान नहीं है, वह सापेक्ष ज्ञान है।
सापेक्षता मन का ही विषय है । मन को होने वाला ज्ञान
संकल्पविकल्प के स्वरूप का होता है । मन ज्ञानिन्द्रियों के
संवेदनों को विचार के रूप में, भावना के रूप में ग्रहण
करता है । कई बातों में इंद्रियों के बिना ही मन जानता है ।
उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति से मिलने का सुख
ज्ञानेन्द्रियों के बिना ही होता है । अच्छी कहानी सुनने का
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
सुख बिना इंद्रियों के होता है । किसी भी प्रकार से हो मन
से होने वाला ज्ञान सापेक्ष ही होता है । मन तत्त्वार्थ नहीं
जान सकता ।
तत्त्वार्थ जानने के लिए बुद्धि सक्षम होती है । वह
विवेक से काम लेती है । विवेक निरपेक्ष होता है । वह मन
के आधार पर नहीं जानती । वह अपने ही साधनों से
जानती है । हम जानते हैं कि बुद्धि तर्क, तुलना, अनुमान,
संश्लेषण आदि के आधार पर विवेक करती है । इसके
आधार पर जो ज्ञान होता है वह यथार्थ ज्ञान तो होता है
परन्तु वह इस भौतिक जगत का ही ज्ञान होता है । यह
अपरा विद्या का क्षेत्र है। ज्ञानार्जन के बहि:करण और
अन्तःकरण के माध्यम से होने वाला ज्ञान इस दुनिया का
व्यवहार चलाने के लिए उपयोगी होता है। परन्तु यह
अनुभूति नहीं है । अनुभूति का क्षेत्र बुद्धि से परे हैं ।
अनुभूति क्या है और वह कैसे होती है यह शब्दों में
समझाया नहीं जाता है । शब्द कि सीमा भी बुद्धि तक हि
है । फिर भी अनुभूति होती है यह सब जानते हैं ।
कुछ उदाहरण देखें ....
कक्षा १ में हमें संख्या १ क्या है यह समझाना है ।
संख्या अमूर्त पदार्थ है इसलिए किसी भी मूर्त वस्तु
कि सहायता से हम उसे समझा नहीं सकते । फिर हम
क्या करते हैं ? एक वस्तु बताकर पूछते हैं कि यह
क्या है । बालक वस्तु का नाम देता है । फिर पूछते
हैं कि वस्तु कितनी है। बालक उत्तर नहीं दे
सकता । फिर हम बताते हैं कि यह एक वस्तु है ।
परन्तु बालक को संकल्पना समझती नहीं है। हम
बार बार भिन्न भिन्न वस्तुये बताकर प्रथम वस्तु का
नाम और बाद में संख्या पूछते हैं । हर बार कितनी
पूछने पर उत्तर एक हि होता है । तब किसी एक क्षण
में बालक को एक क्या है इसकी अनुभूति होती है
और वह संकल्पना समझता है । यह अनुभूति कब
होगी इसका निश्चय कोई नहीं कर सकता । शिक्षक
केवल अनुभूति का मार्ग प्रशस्त करता है, वहाँ
पहुँचने में सहायता करता है, परन्तु अनुभूति कब
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पर्व ३ : शिक्षा का मनोविज्ञान
होगी इसका कोई नियम नहीं होता । संभव है कि
किसी व्यक्ति को बड़ा हो जाने के बाद भी एक की
संख्या क्या है इसकी अनुभूति हुई हि न हो ae
व्यवहार तो चला लेता है, गणित भी कर लेता है
परन्तु गणित के आनंद का अनुभव नहीं प्राप्त करता ।
एक शिक्षिका छोटे बालक के साथ खेल रही है ।
छोटे छोटे नारियल के सोलह फल लेकर खेल चल
रहा है । शिक्षिका बालक को सोलह नारियल को दो
समान पंक्तियों में जमाने को कहती है । बालक को
समान हिस्से ज्ञात नहीं हैं इसलिए वह एक पंक्ति में
दस और दूसरी में छः फल रखता है । गिनने पर यह
असमान विभाजन होता है । दूसरी बार करता है।
इस बार नौ और सात होते हैं । बालक दो तीन बार
करता है परन्तु समान हिस्से नहीं होते हैं। अब
शिक्षिका संकेत देकर सहायता करती है । वह कहती
है कि प्रथम पहली पंक्ति में १ फल रखो फिर इसके
नीचे दूसरी पंक्ति में १ रखो । इस प्रकार दोनों पंक्तियों
में समान संख्या होगी । बालक वैसा करता है और
उसे सफलता मिलती है । फिर शिक्षिका इस प्रकार
तीन पंक्तियाँ बनाने के लिए कहती है । बालक यही
क्रम अपनाता है परन्तु उसे समान पंक्तियाँ बनाने में
सफलता नहीं मिलती । शिक्षिका उसे चार परंक्तियाँ
बनाने के लिए कहती है । बालक सरलता से चार
पंक्तियाँ बनाता है । अब शिक्षिका और बालक दोनों
खड़ी और पड़ी पंक्तियाँ बार बार गिनते हैं । दोनों
चार चार हैं । अचानक बालक खड़ा हो जाता है
और ज़ोर से चिछ्ठाता है, चोकू चोकू सोलह' । यह
क्या है ? यह चार का पहाड़ा है जो उसने रटा हुआ
है । चार बार संख्या दोहराते दोहराते उसे पहाड़े की
अनुभूति होती है । वह अब अनुभूति से जानता है
की चार का पहाड़ा क्या है। अनुभूति उसकी
चिछ्लाहट में और चेहरे के आनन्द में व्यक्त होती है
परन्तु वह उसे तर्क से समझा नहीं सकता । बालक
तो क्या कोई भी अपनी अनुभूति को समझा नहीं
१३७
सकता, वह केवल व्यक्त होती
है।
पानी में नमक डालकर उसे चम्मच से हिलाने से
नमक पानी में घुलता है । घुलने की प्रक्रिया देखी जा
सकती है और प्रतीतिपूर्वक समझी भी जा सकती है
परन्तु घुलने की अनुभूति नहीं हो सकती । घुलने की
अनुभूति सर्वथा आध्यात्मिक प्रक्रिया है और उसकी
कोई निश्चित विधि नहीं है ।
मुनि उद्दालक से उनका पुत्र और शिष्य श्वेतकेतु
पूछता है कि ब्रह्म का स्वरूप क्या है । मुनि उद्दालक
उसे बरगद के वृक्ष के कुछ फल तोड़कर लाने को
कहते हैं । श्वेतकेतु फल लाता है । मुनि उसे एक
फल को तोड़ने को कहते हैं। श्वेतकेतु फल को
ताड़ता है और देखता है कि उसमें असंख्य छोटे छोटे
बीज हैं । मुनि उसे एक बीज लेकर उसे भी तोड़ने के
लिए कहते हैं । श्वेतकेतु बीज को तोड़ता है और
कहता है कि उस बीज के अन्दर कुछ भी नहीं है ।
मुनि कहते हैं कि बीज के अन्दर के उस कुछ नहीं से
हि सम्पूर्ण वृक्ष विकसित हुआ है । ठीक उसी प्रकार
कुछ नहीं जैसे ब्रह्म से ही यह सारी सृष्टि व्यक्त हुई
है । श्वेतकेतु को समझाने का यह बौद्धिक तरीका है ।
श्रेतकेतु बुद्धि से यह समझता है परन्तु अनुभूति तो
उसे तपश्चर्या से ही होती है, बुद्धि से नहीं । बुद्धि से
अनुभूति के मार्ग पर ले जाया जा सकता है परन्तु
अनुभूति करवाना संभव नहीं है ।
भगवान रामकृष्ण से स्वामी विवेकानन्द का बहुत बार
वादविवाद होता था । स्वामीजी बहुत तर्क करते थे ।
ईश्वर के अस्तित्वके बारे में शंका करते थे । एक बार
भगवान रामकृष्ण ने स्वामीजी को ध्यान करने को
कहा । स्वामीजी ध्यान कर रहे थे तब भगवान
रामकृष्ण ने उनकी भूकुटी के मध्यभाग में अंगूठे से
स्पर्श किया । स्वामीजी कहते हैं कि उस स्पर्श के
कारण से एक वस्तु से दूसरी वस्तु का भेद बताने
वाली सारी सीमायें मिट गईं sik wd wa sq Wa
............. page-154 .............
का अनुभव हो गया । इस अनुभव का
कोई बुद्धिगम्य खुलासा नहीं हो सकता परन्तु इसे
नकारना असंभव है ।
श्री रामकृष्ण स्वयं काली माता के भक्त थे । उन्होंने
कालिमाता का साक्षात्कार किया था । परन्तु स्वामी
तोतापुरी ने उन्हें निराकार ब्रह्म की अनुभूति करानी
चाही । जब श्री रामकृष्ण ध्यान कर रहे थे तब स्वामी
तोतापुरी ने उनकी भूकुटी के मध्यभाग में एक काँच का
टुकड़ा चुभो दिया । th A Yale बहा परन्तु
कालिमाता की मूर्ति के टुकड़े टुकड़े होकर उसका
साकार स्वरूप बिखर गया और श्री रामकृष्ण को
निराकार ब्रह्म की अनुभूति हुई । परन्तु इस उदाहरण से
कोई यह नहीं कह सकता कि निराकार ब्रह्म का
साक्षात्कार भूकुटी के मध्यभाग में काँच का टुकड़ा
चुभोने से होता है । अनुभूति तो बस होती है ।
एक बड़े कारखाने में विदेश से यंत्रसामग्री आई ।
विदेशी अभियंताओं ने उसे स्थापित कर कारखाने के
अभियन्ताओं को उस यंत्रसामग्री का संचालन सीखा
दिया । काम शुरू हुआ । कुछ समय के बाद एक
यंत्र रुक गया । अभियन्ताओं के बहुत प्रयासों के
बाद भी वह शुरू नहीं हुआ | सब निराश होकर
विचार कर रहे थे कि अब विदेश से अभियंता को
बुलाना पड़ेगा । तब एक मेकेनिक ने कहा कि उसे
प्रयास करने की अनुमति दी जाये । अधिकारियों ने
कुछ साशंक होकर और अविश्वासपूर्वक अनुमति दी ।
उस मेकेनिक ने कुछ प्रयास किया और सबके आश्चर्य
के बीच यंत्र शुरू हो गया । लोगों ने पूछा की उसे
कहाँ दोष था इसका पता कैसे चला । उस मेकेनिक
ने कहा कि यंत्र उससे बात करता है । निर्जीव यंत्र
सजीव मनुष्य के साथ बात कैसे कर सकता है ?
जब यंत्र के साथ तादात्म्य होता है तो यंत्र अपना
आंतरिक रहस्य व्यक्ति के समक्ष प्रकट कर देता है ।
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
समाधि जिनकी सिद्ध हुई है ऐसे योगियों को बिना
किसी साधन से पता चला है कि मनुष्य के शरीर में
७२,००० नाड़ियाँ हैं ।
प्रेम अनुभूति का साधन हो सकता है । सृष्टि के साथ
यदि प्रेम है तो उस व्यक्ति के समक्ष सृष्टि अपने
रहस्य स्वयं प्रकट करती है ।
यह अनुभूति हि वास्तव में ज्ञान का सही स्वरूप है ।
शेष सारा ज्ञान ज्ञान का आभास है। जगत का
व्यवहार इस आभासी ज्ञान के क्षेत्र में चलता है ।
इसलिए अनुभूत ज्ञान को ज्ञान कहते हैं, शेष को
अज्ञान । इसे परा विद्या कहते हैं, शेष को अपरा ।
इसे विद्या कहते हैं, शेष को अविद्या । इसे ब्रह्म
विद्या कहते हैं, शेष को भूतविद्या ।
वेद से लेकर सामान्य जानकारी तक का सारा ज्ञान
अपरा विद्या का क्षेत्र है ।
अपरा विद्या का क्षेत्र परा के प्रकाश में हि सार्थक
है । अनुभूति तक पहुँचना हि सारे ज्ञान प्राप्त करने के
पुरुषार्थ का लक्ष्य है ।
भक्तियोग, कर्मयोग, राजयोग, ज्ञानयोग आदि
अनुभूति तक पहुँचने के मार्ग हैं, अनुभूति नहीं । मार्ग
में ज्ञान के विभिन्न स्वरूप सामने आते हैं जिन्हें
व्यक्ति ज्ञान समझ लेता है परन्तु वे मार्ग के पड़ाव ही
हैं यह समझना आवश्यक है ।
अध्ययन अध्यापन की विभिन्न पद्धतियों में अनुभूति
का तत्त्व निर्तर सामने रखने से ज्ञानार्जन के आनन्द
की प्राप्ति हो सकती है । भले हि अनुभूति न हो तो
भी उसकी झलक हमेशा मिलती रहती है। यह
झलक भी बहुत मूल्यवान होती है ।
भारत में ज्ञानसाधना
क्रिया, संवेदन, विचार, भावना, विवेक, निर्णय, दायित्वबोध, अनुभूति
स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि समस्त ज्ञान हमारे
अन्दर ही होता है, शिक्षा से इसका अनावरण होता है ।
श्रीमद्धगवद्ीता भी कहती है, 'अज्ञानेनावृतम्ू ज्ञानमू तेन
मुहयन्ति जन्तव:' अर्थात ज्ञान अज्ञान से आवृत होता है
इसलिए मनुष्य दिग्श्रमित होते हैं । अज्ञान का आवरण दूर
कर अन्दर के ज्ञान को प्रकट करने हेतु सहायता करने वाले
साधन मनुष्य को जन्मजात मिले हुए हैं । उन्हें ही ज्ञानार्जन
के करण कहते हैं। इन करणों के जो कार्य हैं वे ही
ज्ञानार्जन की प्रक्रिया है । ज्ञाना्जन के करण और उनके
कार्य इस प्रकार हैं ...
कर्मेन््रियों का कार्य क्रिया करना
ज्ञानेन्द्रियों का कार्य संवेदनों का अनुभव करना
मन का कार्य विचार करना और भावना का अनुभव
करना
बुद्धि का कार्य विवेक करना
अहंकार का कार्य निर्णय करना
चित्त का कार्य संस्कारों को ग्रहण करना
इन सबके परिणामस्वरूप ज्ञान का उदय होता है
अर्थात आत्मस्वरूप ज्ञान प्रकट होता है अर्थात अनावृत
होता है ।
हम इन सब क्रियाओं को क्रमश: समझने का प्रयास
करेंगे ।
क्रिया
कर्मन्द्रियाँ क्रिया करती हैं। पाँच में से हम तीन
कर्मन्द्रियों की बात करेंगे । ये हैं हाथ, पैर और as
अथवा वाणी । हाथ पकड़ने का, पैर गति करने का और
वाक बोलने का काम करती हैं ।
१२७
कर्मन्द्रियाँ अपना काम ठीक करें इसका क्या अर्थ
है?
अच्छी क्रिया के तीन आयाम हैं । एक है कौशल,
दूसरा है गति और तीसरा है निपुणता ।
हाथ वस्तु को पकड़ते हैं, दबाते हैं, फेंकते हैं, झेलते
है, उछालते हैं । पकड़ने का काम एक उँगली और अंगूठे
से, दो ऊँगलिया और अंगूठे से, चारों उँगलियाँ और अंगूठे
से, मुट्ठी से होता है । पकड़ने में कुशलता चाहिए अर्थात
ऊँगलियों और अंगूठे की स्थिति ठीक बनानी चाहिए । कई
बार हम देखते हैं कि लिखने वाला पेंसिल ही ठीक नहीं
पकड़ता है । उँगलियों की या मुट्ठी की स्थिति ही ठीक नहीं
बनी है । लिखते समय केवल उँगलियाँ ही नहीं तो कलाई
और कोहनी तक के हाथ की स्थिति ठीक नहीं बनी है ।
उँगलियाँ गूँथती हैं । उनकी सलाई पकड़ने की स्थिति ठीक
नहीं बनती है । हाथों से कपड़ों या कागज की तह की
जाती है । तब दोनों हाथों से कपड़ा या कागज पकड़ने की
और उसे चलाने की स्थिति ठीक नहीं बनती है ।
उसी प्रकार से पैर खड़े रहकर शरीर का भार उठाते
हैं। तब दोनों पैरों की सीधे खड़े रहने की, पैरों के तलवे
की स्थिति ठीक नहीं बनती है । चलते हैं तब पैर उठाकर
आगे रखने की स्थिति ठीक नहीं बनती है । व्यक्ति बोलता
है तब बोलने में जो अवयव काम में आते हैं उनकी स्थिति
ठीक नहीं बनती है । इस कारण से उच्चार ठीक नहीं होते,
अक्षर सुन्दर नहीं बनते, चला ठीक नहीं जाता । क्रिया ठीक
नहीं होती । आगे चित्र बनाने का, आकृति में रंग भरने का,
मंत्र या गीत का गान करने का, छलांग लगाने का, दौड़ने
का आदि काम भी ठीक से नहीं होते । कारीगरी के काम
ठीक से नहीं होते क्योंकि साधन पकड़ने की स्थिति ठीक
............. page-144 .............
नहीं होती । दो हाथ जोड़कर, दृंडवत
होकर प्रणाम करना, यज्ञ में आहुती देना, मालिश करना,
गाँठ लगाना, आटा गुंधना, मिट्टी को आकार देना आदि
असंख्य काम ठीक से नहीं होते । कर्मेन्द्रियों की स्थितियाँ
दीवार में इँटों जैसी हैं । इंटें यदि ठीक नहीं बनी हैं तो
दीवार ठीक नहीं बनती । दीवार ठीक नहीं बनती तो भवन
भी ठीक नहीं बनता । अत: कर्मन्द्रियों की स्थिति ठीक
बनाना प्रथम आवश्यकता है । स्थितियाँ ठीक बनाने के
लिए अच्छे प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है । बारीकी से
निरीक्षण कर छोटी से छोटी बात भी ठीक करनी होती है ।
ऐसा नहीं किया तो इंद्रियों की स्थिति में एक अवधि के
बाद अनेक प्रयास करने पर भी सुधार नहीं होता है । इन
स्थितियों के भी संस्कार बन जाते हैं । प्रारंभ में, छोटी
आयु में एक बार संस्कार हो गए तो बाद में सुधार लगभग
असम्भव हो जाते हैं । यही कारण है कि हम देखते हैं कि
वर्णमाला के स्वरों और व्यंजनों के उच्चारणों की अनेक
अशुद्धियाँ होती हैं और वे बड़ी आयु में ठीक नहीं होतीं ।
अक्षरों की बनावट ठीक नहीं होती और लेख सुन्दर या
सही नहीं बनता । संगीत बेसुरा होता है । यज्ञ में आहुती
डालना नहीं आता । प्रणाम करना नहीं आता । ये तो बहुत
छोटी बातें हैं परंतु आगे चलकर भाषण और संभाषण ठीक
नहीं होता, कारीगरी और कला ठीक नहीं अवगत होती,
वस्तुयें ठीक नहीं रखी जातीं, वे खराब होती हैं आदि
व्यवहार की अनेक कठिनाइयाँ निर्माण होती हैं ।
दूसरा आयाम है गति का । गति अभ्यास से बढ़ती
है। पातंजल योगसूत्र अभ्यास को परिभाषित करते हुए
कहता है,
तत्र स्थितौ यत्नो$भ्यासा: । और
स तु दीर्घकालनैरंतर्यसत्कारसेवितों दृढ़भूमि: ।
अर्थात अभ्यास स्थिरतापूर्वक करना चाहिए, निरन्तर
करना चाहिए, नियमित करना चाहिए, सत्कारपूर्वक करना
चाहिए ।
ये चारों बातें समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं ।
अभ्यास स्थिरतापूर्वक करना चाहिए । इसका अर्थ
श्श्८
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
यह है कि करने वाले की उसमें एकाग्रता होनी चाहिए, वह
करते समय और कुछ नहीं करना चाहिए । कुछ लोग
लिखते समय या भोजन करते समय संगीत सुनते हैं,
अखबार पढ़ते हैं या बातें करते हैं । अब खड़े खड़े या
चलते चलते भोजन करने की एक फैशन बनी है । संस्कार
की बात एक ओर रखें तो भी यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा
करने से क्रिया ठीक नहीं होती और उसका परिणाम ठीक
नहीं होता । शारीरिक, मानसिक बौद्धिक रूप से अच्छी
और श्रेष्ठ क्रियायें बैठकर ही करने का विधान है, यथा
गाना, खाना, पढ़ना और पढ़ाना, उपदेश देना और ग्रहण
करना, भाषण करना, पूजा करना, यज्ञ करना, लिखना,
खाना बनाना आदि । यह इसलिए है कि ऐसा नहीं करने से
एकाग्रता नहीं होती है और ध्यान बंट जाता है । एकाग्रता
नहीं है तो किए हुए कार्य का ग्रहण भी पूरा पूरा नहीं
होता । इसलिए एकाग्रता के लिए जो जो आवश्यक है वह
सब करना चाहिए ।
अभ्यास नियमित रूप से करना चाहिए । कर्मन्द्रियों
को भी आदत पड़ती है । केवल कर्मेन्ट्रि यों को ही नहीं
अन्य करणों को भी आदत पड़ती है । उदाहरण के लिए
कुछ दिन यदि दिन में बारह बजे भोजन किया या रात्रि में
दस बजे सो गए तो बारह बजते ही भूख लगती है और दस
बजे ही नींद आने लगती है । आज की भाषा में कहें तो
शरीर की घड़ी समय बताती है । जरा विचार करें तो शरीर
की ही नहीं तो मन की भी एक घड़ी होती है । ठीक समय
पर करने से शरीर और मन अभ्यास के अनुकूल बन जाते
हैं और क्रिया ठीक होती है ।
अभ्यास निरन्तर रूप से करना चाहिए इसका अर्थ
यह है कि कुछ समय किया और फिर छोड़ दिया, फिर
कुछ समय बाद किया ऐसा नहीं करना चाहिए । वह
प्रतिदिन करना चाहिए |
चौथी बात. सबसे. महत्त्वपूर्ण है। अभ्यास
सत्कारपूर्वक करना चाहिए । अर्थात उसमें करने वाले का
मन लगना चाहिए । वह मन को अच्छा लगना चाहिए ।
बेमन से किया हुआ अभ्यास भले ही एकाग्रतापूर्वक या
............. page-145 .............
पर्व ३ : शिक्षा का मनोविज्ञान
नियमित भी किया हो तो भी वह फलदायी नहीं होता
क्योंकि वह यान्त्रिक होता है । फिर यंत्र की तरह शरीर
काम तो करता है परन्तु वह जीवन्त नहीं होता ।
इस प्रकार अभ्यास करने से क्रिया में गति बढ़ती है ।
अभ्यास से पूर्व यदि कौशल नहीं प्राप्त किया गया तो गलत
स्थिति का अभ्यास हो जाता है और फिर उसे ठीक करना
सम्भव नहीं होता ।
अभ्यास से पूरी क्षमता तक गति बढ़ती है ।
कौशल और अभ्यास के परिणामस्वरूप क्रिया
निपुणता से होती है । उसमें उत्कृष्टता प्राप्त होती है । क्रिया
की गुणवत्ता बढ़ती है ।
जिस प्रकार च्यवनप्राश जैसे औषध जीतने पुराने होते
हैं उतने अधिक गुणवत्तापूर्ण होते हैं उसी प्रकार नित्य
अभ्यास और कुशलतापूर्वक की गई क्रियाओं की निपुणता
होती है । गायक की निपुणता उसके गायन में, खाना बनाने
वाले की निपुणता उसके भोजन में और कुम्हार की निपुणता
वह जब पात्र बना रहा है उसकी प्रक्रिया में दिखाई देती है ।
अनुभवी कुम्हार, अनुभवी गृहिणी, अनुभवी गायक मिट्टी
का लोंडा उठाने मात्र से या पदार्थ में मसाला डालने के
लिए चुटकी में लेते हुए या कठ से जरा सा स्वर निकलते
ही परखा जाता है । इतना वह परिणामकारी होता है ।
आज कर्मन्ट्रियों की क्रियाओं की इतनी दुर्दशा हुई है
कि उसे फूहड़ कहना ही ठीक लगता है । एक तो हाथ, पैर
आदि अब काम करने के लिए हैं ऐसा हमें लगता ही नहीं
है । परन्तु इस धारणा में ही बदल करने की आवश्यकता है
क्योंकि काम नहीं किया तो ये इंद्रियाँ स्वस्थ नहीं रहतीं और
उन्हें यंत्र की तरह ही जंग लग जाती है । आज का अक्रिय
मनोरंजन कर्मेन्ट्रि यों को बीमार कर देता है। अक्रिय का
अर्थ यह है कि हम संगीत सुनना चाहते हैं, स्वयं गाना
नहीं, नृत्य देखना चाहते हैं, स्वयं नृत्य करना नहीं, हम
यंत्रों से काम करवाना चाहते हैं हाथ से नहीं । हम वाहन से
आनाजाना चाहते हैं, पैरों से नहीं । इस कारण से कर्मन्ट्रियों
को असुख का अनुभव होता है, वे अपमानित और उपेक्षित
अनुभव करती हैं, काम करने से वंचित रहती हैं इसलिए
श्२९
उदास रहती हैं और इसका परिणाम यह
होता है कि भोक्ता अर्थात हम स्वयं आनन्द का अनुभव
नहीं कर सकते । काम करने का आनन्द क्या होता है
इसका हमें अनुभव ही नहीं होता है ।
बाल अवस्था में कर्मेन्ट्रियाँ सक्रिय होने लगती हैं
और काम चाहती हैं । यह ऐसा ही है जिस प्रकार भूख
लगने पर पेट भोजन मांगता है । भूख इसलिए लगती है
क्योंकि भोजन से शरीर की पुष्टि होती है । भूख लगने पर
भोजन नहीं किया तो शरीर कृश होने लगता है, बलहीन
होता है और अस्वस्थ भी होने लगता है । अच्छा भोजन
नहीं होने पर शरीर बीमार भी होता है । उसी प्रकार
बालअवस्था में कर्मन्द्रियाँ काम मांगती हैं क्योंकि यह
उनकी आवश्यकता है । उस समय काम मिला और वह
अच्छे से करना सिखाया तो वे सुख का अनुभव करती हैं,
उन्हें अपने होने में सार्थकता का अनुभव होता है और वे
स्वस्थ और कार्यक्षम होती हैं । अत: बालअवस्था की
शिक्षा क्रियाआधारित होनी चाहिए । क्रिया सिखाना पहली
बात है और क्रिया के माध्यम से अन्य बातें सीखना दूसरी
बात है ।
केवल कर्मेन्द्रियाँ ही क्रिया करती हैं ऐसा नहीं है ।
कर्मन्द्रियों के साथ साथ, कर्मेन्ट्रि यों की सहायता से पूरा
शरीर क्रिया करता है । पूरा शरीर यंत्र ही है जो काम करने
के लिए बना है । शरीर को कार्यशील रखना आवश्यक है ।
उस दृष्टि से उसे काम करना सीखाना चाहिए और उससे
काम लेना चाहिए । शरीर कार्यशील रहे इसलिए उसकी
आवश्यकताओं की पूर्ति करनी चाहिए । उसकी रक्षा भी
करनी चाहिए । अन्न, वस्त्र, आवास की योजना शरीर को
ध्यान में रखकर होनी चाहिए । यह विषय वैसे तो अति
सामान्य है । परन्तु आज तथाकथित बडी बड़ी बातों के
पीछे लगकर हमने इस सामान्य परन्तु अत्यन्त आवश्यक
विषय को विस्मृत कर दिया है । ऐसा करने के कारण पूरी
शिक्षा दुर्बल और निस्तेज बन गई है । भारतीय शिक्षा को
पुन: शरीर रूपी यंत्र को कार्यरत करना होगा ।
............. page-146 .............
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
संवेदन ध्वनियुक्त, वैसे ही कर्कश वाद्ययन्त्रों का संगीत, तेज
पाँच कर्मेन्द्रियों की तरह पाँच ज्ञानेंद्रिया हैं। वे हैं मसालों से युक्त खाद्य पदार्थ ज्ञानेन्द्रियों की संबेदनाओं को
नाक, कान, जीभ, आँखें और त्वचा । इन्हें क्रमश: .. अंधिर कर देते हैं । इन खोई हुई संवेदनशक्ति फिर से इस
avita, saita, «ita sea wifes, FHA तो प्राप्त नहीं की ect सकती । जैसे जैसे इंद्रियाँ
aga sik anita कहते हैं । ये सब बाहरी जगत का... जधिर होती जाती हैं हम विषयों की तीब्रता बढ़ाते जाते हैं
अनुभव करते हैं । वास्तव में ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ही और शक्तियाँ और क्षीण होती जाती हैं । छोटी आयु में
चश्मा, भोजन में रुचिहीनता और स्वाद की पहचान का
अभाव, धीमी आवाज नहीं सुनाई देना आदि लक्षण तो हम
रोज रोज अपने आसपास देखते ही हैं ।
हम बाहरी जगत के साथ सम्पर्क में आते हैं । इनके अभाव
में हम बाहर के जगत को जान ही नहीं सकते ।
शब्द अथवा ध्वनि कान का विषय है, स्पर्श त्वचा के
का विषय है, गंध नाक का, स्वाद जीभ का और रंग और अतः पहली बात तो इनका हम रक्षण कैसे करें
आकार आँख का विषय है । ज्ञानिंद्रियाँ इन विषयों को... रैसका ही विचार करना है ।
संवेदनों के रूप में ग्रहण करती हैं । बाहरी जगत में इन्हें इंद्रियों की शक्ति का दूसरा आधार है नाड़ीशुद्धि ।
तन्मात्रा कहते हैं और अपने शरीर में संवेदन । हमारे शरीर में बहत्तर हजार नाड़ियाँ हैं जो इंद्रियों के
ज्ञानिन्द्रियाँ वस्तु को वस्तु के रूप में नहीं अपितु संवेदनों को वहन करने का काम करती हैं । इन नाड़ियों की
संवेदन के रूप में ग्रहण करती हैं । वस्तु का संवेदन में... रशुद्धि के कारण संवेदनों के वहन में अवध निर्माण होता
रूपान्तरण वस्तु की तन्मात्रा शक्ति से और इंद्रिय की संवेदन .. हैं ! प्राणशक्ति के बल पर वे काम करती है । ज्ञानेन्दरियों
शक्ति से होता है। का नियंत्रण करने का काम भी प्राण करते हैं । अत:
प्राणशक्ति दुर्बल रही तो भी संबेदनशक्ति क्षीण होती है ।
प्राणशक्ति का. आधार आहार, विहार, निद्रा और
श्वसनप्रक्रिया पर है । ये सब ठीक रहे तो प्राणशक्ति अच्छी
बाहरी जगत का सम्यक ज्ञान हो इसलिए ज्ञानेन्द्रियों
को सक्षम बनाना चाहिए । वे यदि दुर्बल रहीं तो बाहरी
जगत को जानना कठिन हो जाता है। इस दृष्टि से
ज्ञानेन्द्रियों को संवेदनक्षम बनाना अत्यन्त आवश्यक है। . हँती है। वे टी ठीक नहीं रहे तो प्राणशक्ति और
यह काम लगता है उतना सरल नहीं है । परिणामस्वरूप इंद्रियों की शक्ति क्षीण होती है ।
yoy db afl A a ar ea ad a पर्यावरण ठीक नहीं रहा तो भी ज्ञानेन््रियों पर प्रभाव
बचाना चाहिए। जब बालक का जन्म होता है तब. रीता है। ee FETS, कुरूप, कोलाहलयुक्त
ज्ञानेंद्रियाँ बहुत नाजुक होती हैं । उस समय तीव्र अनुभवों. ाकर्ग में इंद्रियों को सुख का अनुभव नहीं होता । अतः
से बचाना चाहिए । बड़ी और कर्कश आवाज, तेज प्रकाश, पर्यावरण भी ठीक चाहिए । संतर्पण
तीव्र गंध, कठोर स्पर्श, बेस्वाद् औषध ज्ञानिन्द्रियों की इंद्रियों को रक्षण, पोषण और संतर्पण की
क्षमता तीव्र गति से कम कर देते हैं । आज तो यह संकट... आवश्यकता होती है । रक्षण और पोषण की बात तो समझ
बहुत गहरा गया है। जन्म से ही क्षमताओं के हास का में आती है परन्तु संतर्पण ei चिन्ता भी करनी चाहिए |
प्रारंभ हो जाता है । आयुष्य के प्रथम दस दिनों में लगभग संतर्पण का अर्थ है इंद्रियों को अपने अपने विषयों का
पचास प्रतिशत नुकसान हो जाता है । आहार मिलना । सुमधुर और सात्विक संगीत, सुन्दर,
दैनंदिन जीवन में भड़कीले असुन्दर कृत्रिम रंग, बेढब ... गमोहँक दृश्य, सात्त्विक, स्वादिष्ट पदार्थों का स्वाद, मधुर
आकृतियाँ, घृणास्पद एवं जुगुप्सात्मक दृश्य, टीवी, कंप्यूटर. "१ः सुखद स्पर्श इंद्रियों को सुख देता है । ये सब उन्मादक
sit Haga A ail, उत्तेजक, बेसुरा, कर्कश, तेज... हैं तो इंद्रियों को कष्ट होता है और वे क्षीण होती हैं ।
१३०
............. page-147 .............
पर्व ३ : शिक्षा का मनोविज्ञान
अत: इन सभी बातों का भी ध्यान रखना चाहिए ।
इंद्रियों की शक्ति केवल देखने की या सुनने की शक्ति
ही नहीं है, उनको ठीक तरह और सूक्ष्मता से सुनने देखने
आदि की शक्ति है । रंग या गंध या ध्वनि पूर्ण क्षमता के
साथ ग्रहण करना यह एक मुद्दा है और सूक्ष्म भेद परखना
दूसरी क्षमता है । उदाहरण के लिए कपड़े की मीलों में जो
डाइंग मास्टर होते हैं वे रंगों की सूक्ष्म छटायें पहचानते हैं
और भेद बताते हैं । दर्जी कपड़ा देखता है और बिना नापे
उसमें से वस्त्र बनेगा कि नहीं यह कह देता है । गृहिणी दाल
या सब्जी की मात्रा देखकर कितना नमक या मिर्च चाहिए
वह हाथ में भरकर बता देती है । पहचानने की यह क्षमता
बुद्धि की अनुमान शक्ति है परन्तु उसका साधन इन्द्रियां हैं ।
हमारे ज्ञानार्जन का बड़ा आधार इंद्रियों की क्षमता पर
है । हमारे सुख का भी बड़ा आधार इंद्रियों की क्षमता पर
है। चारों ओर सुन्दरता तो बहुत फैली हुई है परन्तु ग्रहण
करने के लिए साधन ही नहीं है तो उस सुन्दरता का हम
क्या करेंगे ? परन्तु जब ग्रहण कभी किया ही न हो तो हम
किन बातों से वंचित रह रहे हैं इसका अभी पता कैसे
चलेगा ? अतः वंचित रह जाने का भी दुःख नहीं होता ।
संक्षेप में ज्ञानेन्द्रियों की क्षमता प्राप्त करने की, प्राप्त
क्षमताओं का रक्षण करने की और उन्हें बढ़ाने की चिन्ता
करनी चाहिए ।
विचार
ठोस पदार्थ का, प्रत्यक्ष घटना का, व्यक्त वाणी का
सूक्ष्म स्वरूप विचार है । विचार इंद्रियगम्य नहीं है । वह
मनोगम्य है । ठोस पदार्थों का ज्ञान इंद्रियों को होता है ।
इंद्रियाँ भी ठोस रूप को सूक्ष्म संबेदनों में ही रूपांतरित
करती हैं । वे रूपांतरित करती हैं यह कहना भी ठीक नहीं
होगा । ठोस पदार्थ के साथ ही उसका संवेदन स्वरूप होता
ही है । उस संवेदन रूप को ही तन्मात्रा कहते हैं यह हमने
अभी देखा । पदार्थ का उससे भी सूक्ष्म स्वरूप विचार का
है । मन पदार्थ को विचार के रूप में ग्रहण करता है ।
इंद्रियों के संवेदनों को मन विचार के रूप में ग्रहण
श्३१
करता है । परन्तु उसमें बहुत अवरोध
आते हैं । प्रथम अवरोध तो मन के स्वत: के स्वभाव का
है। मन स्वयं इतना चंचल है की अपनी चंचलता के
कारण कभी यहाँ का तो कभी वहाँ का तरंग ग्रहण करता
है। वह विचारों को पूर्ण रूप से ग्रहण ही नहीं करता ।
बाहर के विश्व में असंख्य भिन्न भिन्न विचार तरंग होते हैं ।
मन उन सबको ग्रहण करने के लिए भागदौड़ करता है और
एक भी ठीक से नहीं करता । मन एकाग्र नहीं होने से विषय
को ग्रहण करना उसके लिए कठिन हो जाता है ।
मन यदि एकाग्र रहा तो इंद्रियाँ जिस विषय को ग्रहण
कर रही हैं उस विषय के संबेदनों के विचार पूर्ण रूप से
ग्रहण कर पाता है । एकाग्र नहीं रहा तो थोड़ा ग्रहण करता
है, शेष छूट जाता है । जिस प्रकार किसीका भाषण चल
रहा है और लिखने वाला बोलने वाले की गति से लिख
नहीं पाता तब कुछ बातें छूट जाती हैं वैसे ही मन अपनी
अनुपस्थिति के कारण बहुत बातें छोड़ देता है । जब एक
बात को छोड़ देता है तब दूसरी जगह पर वह होता है और
वहाँ के विचार तरंगों को ग्रहण कर रहा होता है । अत:
तरह तरह के विचारतरंग एक साथ मिल जाते हैं और एक
भी विषय पूर्ण रूप से ग्रहण नहीं होता । ऐसे अनेकाग्र मन
से अध्ययन नहीं हो सकता ।
मन का दूसरा लक्षण है उत्तेजना । उत्तेजना की स्थिति
चूल्हे पर रखे खौलते पानी जैसी है । शांत पानी में पदार्थ
का प्रतिबिम्ब पदार्थ के समान ही दिखता है, परन्तु खौलते
पानी में उसी पदार्थ के टुकड़े टुकड़े दिखाई देते हैं । दोष
पदार्थ का नहीं होता, दोष खौलते हुए पानी का होता है ।
मन भी हर्ष, शोक, चिन्ता, भय, मान, अपमान के संवेगों
से खौलता रहता है । लोभ लालच भी उस पर सवार हो
जाते हैं । यश और कीर्ति भी उसे उत्तेजित कर देते हैं । इस
अवस्था में वह विषय के विचार तरंगों को खंड खंड में ही
ग्रहण करता है और एक बेढब आकृति बन जाती है
जिसकी आँखें मछली जैसी, नाक तोते जैसी, पूंछ कुत्ते
जैसी, पैर हिरण जैसे, दाँत शूर्पणखा जैसे, पूरा मुख वानर
जैसा, बोली वक्ता जैसी होती है। मन की उत्तेजना के
............. page-148 .............
कारण ग्रहण किया हुआ चित्र इससे भी
विचित्र हो सकता है । उसमें कोई कार्यकारण सम्बन्ध नहीं
होता । हम समझ सकते हैं कि मन की स्थिति जब ऐसी
होगी तब अध्ययन कैसे सम्भव है ?
मन का एक और लक्षण है । मन आसक्त हो जाता
है। आसक्ति के कारण वह जो भी विचार तरंग अनुकूल
लगता है उसमें चिपक जाता है और उससे छुटना नहीं
चाहता । छुटना पड़े तो वह दुःखी होता है और दुःख की
अवस्था में ग्रहण करना ही बंद कर देता है । अथवा विषय
को नकारात्मक रूप में ग्रहण करता है । उदाहरण के लिए
कोई एक पुरस्कार की उसे अपेक्षा है और वह उसे मिलता
नहीं है । तब पहले वह दुःखी होता है, बाद में क्रोधित
होता है और पुरस्कार नहीं देने वाले के प्रति नाराज हो
जाता है । परन्तु इतने से ही पुरस्कार की आसक्ति से वह
मुक्त नहीं होता । मन में वह रहता है इसलिए अध्ययन करते
समय भी विषय को नकारात्मक रूप में ही ग्रहण करता है ।
कोई एक प्राध्यापक उसे परीक्षा में कम अंक देता है । वह
कम अंक के लायक ही होता है । तब भी पहले वह दुःखी
होता है, फिर दूसरों के समक्ष लज्जित होता है, फिर नाराज
होता है और उस प्राध्यापक का प्रवचन उसे फालतू लगता
है । या कभी सही या गलत ढंग से भी किसी प्राध्यापक ने
उसे शाबाशी दी है तो उसका प्रवचन उसे अच्छा लगता
है । आसक्ति के कारण वह पूर्वग्रहों से ग्रस्त हो जाता है तो
उस विषय का आकलन ठीक से नहीं करता ।
जो भी विचार तरंग मन तक आते हैं उन्हें वह अपने
रागट्रेष, रुचिअरुचि, इच्छा अनिच्छा आदि के रंग में रंग
देता है । इसलिए संवेदनों के स्तर पर विषय का जो स्वरूप
होता है वह बदल जाता है । अपनी स्थिति और प्रवृत्ति के
अनुसार मन उसका रूप परिवर्तन कर देता है । इसलिए
कहने वाला कहता है और सुनने वाला समझता है उसमें
अन्तर पड़ता है । बोलने वाला अपने संदर्भों में कहता है
और सुनने वाला अपने मन के संदर्भों में सुनता है । दोनों
की एकवाक्यता नहीं होती । ऐसी मन की प्रवृत्ति अजब है ।
ऐसा मन लेकर कोई भी कैसे अध्ययन कर सकता है
श्३२
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
या ज्ञान ग्रहण कर सकता है ? ऐसे मन से ज्ञान का क्या
स्वरूप बनेगा ? जाहीर है कि क्या होगा कह नहीं सकते ।
अतः मन को ठीक करने की आवश्यकता रहती है । मन
एकाग्र होना यह अध्ययन की प्रथम आवश्यकता है । मन
शांत होना दूसरी आवश्यकता है । मन अनासक्त अर्थात
स्वस्थ होना तीसरी आवश्यकता है ।
मन को इस स्थिति में लाना सरल नहीं है क्योंकि मन
बहुत बलवान और जिद्दी है । मन को ऐसा बनाने के लिए
देखा जाय तो बहुत सादे उपाय हैं परन्तु मन उन्हें चलने
नहीं देता ।
उपाय कुछ इस प्रकार हैं ...
आहार : मन को अच्छा बनाने के लिए सात्चिक
आहार आवश्यक है । आज के तथाकथित वैज्ञानिक
युग में पौष्टिक आहार की बात तो सर्वत्र होती है,
विज्ञापन तो पौष्टिकता की भी ऐसीतैसी कर देते हैं,
परन्तु सात्त्तिक आहार की संकल्पना परिचित भी नहीं
है, है तो गलत रूप से परिचित है और परिचित है
तो भी मान्य नहीं है। वे कहते हैं कि सात्तिक
भोजन स्वादिष्ट नहीं होता, बीमारों के खाने जैसा
होता है और खाया नहीं जाता । परन्तु यह धारणा
गलत है । सात्तिक आहार पौष्टिक या स्वादिष्ट नहीं
होता ऐसा नहीं है । शरीर स्वस्थ रहने के लिए जिस
प्रकार पौष्टिक आहार चाहिए उस प्रकार मन अच्छा
रहने के लिए सात्त्विक आहार आवश्यक है । ज्ञान के
साथ जुड़े हुए सबको सात्त्विक आहार के विषय में
जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए ।
मन को ठीक रखने के लिए हर प्रकार के ब्रत और
नियमों के विषय में युगानुकूलता अवश्य बरतनी
चाहिए । उदाहरण के लिए इकछ्कीसवीं शताब्दी में
सप्ताह में एक दिन होटल का, एक दिन मोबाइल
का, एक दिन टीवी का, एक दिन वाहन का, एक
दिन प्लास्टिक का उपवास रख सकते हैं । इसी
प्रकार से संयम के और तरीके निश्चित करने चाहिए ।
मन को ठीक रखने के लिए प्राणायाम, ध्यान,
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पर्व ३ : शिक्षा का मनोविज्ञान
संगीत, जप जैसा अन्य कोई साधन नहीं है ।
नाडीशुद्धि प्राणायाम अत्यन्त उपयोगी है । साथ ही
ध्यान भी उपयोगी है ।
अनेक उपायों से मन को ठीक करने से मन विचारों
के रूप में ज्ञानार्जन करने के लायक बनता है । मन
द्वारा ग्रहण किए गए विचार बुद्धि के समक्ष प्रस्तुत
होते हैं । ऐसा होने पर बुद्धि ज्ञानार्जन के क्षेत्र में
अपना काम करती है ।
आज मन की शिक्षा के अभाव में मन को विचार
ग्रहण करने लायक बनाना चाहिये और जैसे ग्रहण किए हैं
वैसे ही बुद्धि के समक्ष प्रस्तुत करना सिखाना चाहिए ।
शिक्षा के क्षेत्र में सर्वत्र अराजक फैला हुआ है । मन को
ठीक करना चाहिए यह मूल उपाय है परन्तु वह छोड़कर
स्थूशन, ढेर सारे उपकरण, तरह तरह के नवाचार आदि के
रूप में उपाय खोजे जाते हैं परन्तु वे परिणामकारी होते नहीं
हैं , इस बात को ठीक से समझना चाहिये ।
विवेक
सही क्या और गलत क्या, उचित क्या और अनुचित
क्या, करणीय क्या और अकरणीय क्या, अच्छा क्या और
बुरा क्या यह स्पष्ट रूप से जानना यह विवेक है । अपरा
विद्या का यह सर्वोच्च स्तर है । यही जानना है, समझना है,
ज्ञात होना है । यह बुद्धि का क्षेत्र है । यह विज्ञान का क्षेत्र
है । विज्ञान का अर्थ है जो जैसा है वैसा जानना ।
मन की ओर से विचारों के तरंग बुद्धि के पास आते
हैं । उस समय वे मन के रंग में रंगे होते हैं । कभी कभी तो
मन की ओर से आई हुई सामग्री इतनी गड्डमड्ड होती है कि
बुद्धि को उसे ठीक करना बहुत कठिन पड़ता है । बुद्धि उसे
सुलझाने का बहुत प्रयास करती है। अधिकांश वह
सुलझाने में यशस्वी होती है पर कभी अभी हार भी जाती है
और गलत समझ लेती है । अर्थात जो जैसा है वैसा नहीं
अपितु मन जैसा कहता है वैसा समझ लेती है ।
विवेक तक पहुँचने के लिए विचारों को अनेक
प्रक्रियाओं से गुजरना होता है। बुद्धि ही ये प्रक्रियायें
$33
चलाती हैं ।
सबसे सरल प्रक्रिया है निरीक्षण की । यह प्रक्रिया
दशनिन्द्रिय की सहायता से होती है ।
दर्शनेन्द्रिय ने अपनी क्षमता से उसे जिस रंग के या
आकृति के रूप में पहचाना है और मन ने जिन विचार
तरंगों को ग्रहण कर प्रस्तुत किया है उन पर बुद्धि संकल्प
की मुहर लगाती है । यह सम्पूर्ण रूप से आँख पर ही निर्भर
करता है कि आँख क्या देखती है ।
यदि पूर्ण रूप से बुद्धि आँख और मन पर ही निर्भर है
तो बुद्धि की भूमिका कया रहेगी ?
यदि आँख किसी पदार्थ को लाल रंग के और
वृत्ताकार के रूप में पहचानती है और मन उसे नीला रंग
और आयताकार कहता है तो बुद्धि तटस्थ होकर इसे लोक
में और शास्त्रों में क्या कहा गया है यह देखकर अपना
निश्चय करती है कि वास्तव में उस पदार्थ का आकार और
रंग वही हैं जो मन कहता है या भिन्न । यदि भिन्न है तो वह
मन का कहा नहीं मानती । ऐसे अनेक अनुभवों से वह यह
भी तय करती है कि मन विश्वसनीय है कि नहीं ।
प्रश्न यह उठेगा कि फिर बुद्धि सीधे ही निरीक्षण क्यों
नहीं करती, मन को बीच में लाती ही क्यों है ? या इन्द्रियां
सीधे बुद्धि के समक्ष अपने संवेदनों को क्यों नहीं भेजतीं ।
बीच में मन को लाती ही क्यों हैं ?
बुद्धि और इंद्रियों को मन को बीच में लाना ही पड़ता
है क्योंकि मन है और वह सक्रिय है । मन यदि अक्रिय हो
जाता है तो यह काम सीधे भी हो सकता है । परन्तु मन
अक्रिय हो ही नहीं सकता । वह सक्रिय भी है और बलवान
और जिद्दी भी है। मन की बात मानने या नहीं मानने के
लिए बुद्धि को सक्षम और शक्तिशाली होना ही पड़ता 2 |
इंद्रियों और बुद्धि के बीच में मन आता है उसे अपने वश में
रखना, अथवा दूसरे शब्दों में कहें तो उसके वश में नहीं हो
जाना बुद्धि का काम है । बुद्धि के पास कार्यकारण भाव को
समझने की शक्ति है, उसका प्रयोग बुद्धि को करना होता
है। मन के पास ऐसी शक्ति नहीं है। वह नियम नहीं
जानता, वह तटस्थ नहीं होता इसलिए तो हम किसीको
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
कहते हैं कि “क्या मनमें आया ae ah |= उनके मिश्रण का अनुपात, मिश्रण करने की प्रक्रिया आदि
जा रहे हो, जरा बुद्धि से तो विचार करके बोलो । मन में BMT अलग समझने के स्थान पर पूरा पदार्थ एक साथ
कुछ भी संगत असंगत बातें आ सकती हैं बुद्धि में नहीं ।.. समझना संभ्लेषण है । उदाहरण के लिए हलुवा और लड्डू
कुछ भी नहीं, जो ठीक है वही आना यही विवेक है । जो... दोनों में आटा, घी और गुड ही सम्मिश्रित हुए हैं परन्तु
ठीक है उसीको यथार्थ कहते हैं । उनके मिश्रण की प्रक्रिया अलग अलग है इसलिए उनका
बुद्धि जब दुर्बल होती है और मन को वश में नहीं. रूप, रंग, स्वाद सब अलग अलग होता एकत्व का है ।
कर सकती अथवा मन की उपेक्षा नहीं कर सकती तब. विश्लेषण करके भिन्नता समझना और संश्लेषण करके
आकलन और निर्णय सही नहीं होते हैं । इसलिए मन को... अनुभव करना बुद्धि का काम है । एक चित्र में कौन कौन
बीच में आने से रोकना बहुत आवश्यक है । मन को इस... से रंग हैं यह जानना विश्लेषण है और उस चित्र के सौन्दर्य
प्रकार साधना चाहिए कि वह बुद्धि के अनुकूल हो और का आस्वाद लेना संश्लेषण है। आनन्द लेने के लिए
उसकी बात माने । केवल उपेक्षा करते रहने से तो वह ताक. संश्लेषणात्मक प्रक्रिया चाहिए, प्रक्रिया समझने के लिए
में रहता है कि कब मौका मिले और कब मनमानी करे । विश्लेषणात्मक पद्धति चाहिए । ये दोनों बुद्धि से होते हैं
बुद्धि की दूसरी शक्ति या साधन है परीक्षण । यह भी... और विवेक के प्रति ले जाते हैं ।
ज्ञानेन्द्रियों के सहयोग से ही होता है । यह केवल दर्शनिन्द्रिय निरीक्षण, परीक्षण, विश्लेषण और संश्लेषण के
से नहीं तो पांचों ज्ञानेंद्रियों के सहयोग से होता है । इसकी. आधार पर विवेक होता है । अभ्यास से यह विवेकशक्ति
भी स्थिति दृशनिन्द्रिय और मन के जैसी ही होती है । बढ़ती जाती है । अभ्यास से आकलन शक्ति भी बढ़ती
इसके आगे कार्यकारण सम्बन्ध जानने की जो शक्ति... जाती है। मन सहयोगी बन जाता है। मन को समझाया
है वह बुद्धि की अपनी ही है परन्तु निरीक्षण और परीक्षण... जाता है तब तो वह सही में सहयोगी बनता है, उसे दबाया
के परिपक्क होने से ही वह आती है । अपने आसपास की... जाता है तो कभी भी अविश्वासु अनुचर के समान धोखा
परिस्थिति का आकलन करना और चित्त में जो पूर्व. देता है और मनमानी का प्रभाव बुद्धि पर होकर वह भटक
अनुभवों की स्मृतियाँ संग्रहीत हैं उनके आधार पर... जाती है।
कार्यकारण सम्बन्ध समझना उसके लिए सम्भव होता है । अभ्यास से बुद्धि तेजस्वी बनती है और अटपटे और
बुद्धि मन से पीछा छुड़ाकर चित्तनिष्ठ और आत्मनिष्ठ बनकर... जटिल विषय भी उसे कठिन नहीं लगते । समझने में उसे देर
व्यवहार करती है तभी विवेक कर सकती है । कार्यकारण. भी नहीं लगती । तब हम व्यक्ति को बुद्धिमान कहते हैं ।
सम्बन्ध बिठाने के लिए संश्लेषण और विश्लेषण करना... जैसे सधे हुए हाथ सहजता से काम कर लेते हैं वैसे ही
होता है । एक ही घटना अथवा पदार्थ या रचना के भिन्न. सधी हुई बुद्धि सहजता से समझ लेती है । ऐसे व्यक्ति को
भिन्न आयामों को अलग अलग कर समझना विश्लेषण है ।. हम बुद्धिमान व्यक्ति कहते हैं । यह बुद्धि तेजस्वी के साथ
उदाहरण के लिए हमारा पूरा शरीर एक ही है परन्तु उसका... साथ कुशाग्र भी होती है और विशाल भी होती है । कुशाग्र
कार्य समझने के लिए हम हाथ, पैर, मस्तक ऐसे अलग... बुद्धि वह है जो अत्यन्त जटिल बातों की बारिकियों को
अलग हिस्से कर उनके कार्य समझते हैं । खाद्य पदार्थ एक... स्पष्ट समझती है । विशाल बुद्धि वह है जो अत्यन्त व्यापक
ही है परन्तु उसमें कौन कौन से पदार्थों का संमिश्रण है और. बातों का आकलन भी सहजता से कर लेती है । यह सब
उनके मिश्रण की क्या प्रक्रिया है यह अलग अलग करके... संभव है।
समझने का प्रयास करते हैं । बुद्धि स्वभाव से आत्मनिष्ठ होती है। वह अपने
उसके ठीक विपरीत प्रक्रिया संश्लेषण की है । पदार्थ, ... कार्यों के लिए चित्त पर निर्भर करती है यह अभी हमने
83x
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पर्व ३ : शिक्षा का मनोविज्ञान
देखा । चित्त संस्कारों का भंडार है । जन्मजन्मांतर के
संस्कार इसमें संग्रहीत हैं । संस्कारों की ही स्मृति होती है ।
इस स्मृति का बुद्धि को बहुत उपयोग होता है ।
बुद्धि की विवेकशक्ति अत्यन्त परिपक्क होती है तब
सृष्टि के सारे रहस्य उसके समक्ष प्रकट होते हैं [सृष्टि का
मूल स्वरूप आत्मतत्त्व है यह सत्य उद्घाटित होता है और
वह आत्मतत्त्व मैं ही हूँ यह भी समझता है । केवल मैं ही
नहीं तो समग्र सृष्टि ही आत्मतत्त्व है यह भी समझ में आता
है । अत: मैं और सृष्टि के सभी पदार्थ एक ही हैं ऐसा भी
समझ में आता है । परिणामस्वरूप आपपर भाव समाप्त हो
जाता है। और अहम ब्रह्मास्मि तथा सर्व खलु इदं ब्रह्म
समझ में आता है ।
यह बुद्धि से आत्मतत्त्त को जानना है । इसे भगवान
शंकराचार्य विवेकख्याति कहते हैं। विवेकख्याति से
यथार्थबोध होता है ।
बुद्धि से आत्मतत्त्व को समझना ज्ञानमार्ग अथवा
ज्ञानयोग है । बुद्धि से तत्त्व को समझना तत्त्वज्ञान है । बुद्धि
से शास्त्रों को समझना अपरा विद्या से परा विद्या की ओर
जाना है। परिपक्क बुद्धि में अनुभूति की ओर जाने कि
क्षमता होती है ।
विवेकशक्ति को जागृत करना और विकसित करना
शिक्षा का लक्ष्य है। परन्तु आज हम बुद्धि के केवल
भौतिक पक्ष पर अटक गए हैं । जीवन को और जगत को
भौतिक दृष्टिकोण से देखने का यह परिणाम है। इसे
भौतिकवाद से बचाने का काम प्रथम करना होगा ।
दूसरा अवरोध यह है कि हम इंद्रियों और मन में
अटक गए हैं। भौतिकवाद में अतिशय विश्वास होनेके
कारण हमने मापन और आकलन के यांत्रिक साधन
विकसित किए हैं और बौद्धिक क्षमताओं के स्थान पर
साधनों का प्रयोग शुरू किया है जो बुद्धिबिकास में अवरोध
बनता है । उदाहरण के लिये पहाड़ो के स्थान पर गणनयंत्र
का उपयोग करके हमने गणनक्षमता को कुंठित कर दिया ।
भारत की पारंपरिक पद्धति में पहाड़े कंठस्थ करना हमारा
अंगभूत गणनयंत्र था । उसकी अवमानना कर यान्त्रिक
श्३५्
साधन को अपनाना हानिकारक ही
सिद्ध होता है । यह उल्टी दिशा है जो बुद्धिविकास के लिए
हानिकारक है । ऐसी तो सेंकड़ों बाते हैं जो सुविधा के नाम
पर बुद्धिविकास के मार्ग में अवरोध बनकर जम गईं हैं । इन
सबकी चर्चा करने का यह स्थान नहीं है परन्तु ज्ञानक्षेत्र के
सन्दर्भ में इनका विचार करना अपरिहार्य है ।
निर्णय और दायित्वबोध
पदार्थ को कर्मेन्ट्रिय ने भौतिक रूप में, ज्ञानेन्द्रियों ने
संवेदन के रूप में, मन ने विचार के रूप में और बुद्धि ने
विवेक के रूप में ग्रहण किया । तात्विक रूप में बुद्धि ने
निश्चय करके पदार्थ को यथार्थ रूप में बताया । परन्तु ज्ञान
किसे हुआ ? व्यवहार क्षेत्र में ज्ञान अहकार को होता है
क्योंकि वही कर्ता है । किसी भी प्रकार की क्रिया को करने
वाला और किसी भी बात को जानने वाला अहंकार है । मैं
जानता हूँ, मैं करता हूँ, मैं चाहता हूँ, मुझे चाहिए ऐसा
कहने वाला अहंकार होता है । इसलिए बुद्धि ने जो निश्चय
करके दिया उसे लागू करने का निर्णय अहंकार का होता
है।
अहंकार के समक्ष दो विकल्प होते हैं । आत्मतत्त्व
की सत्ता मानकर उसके प्रतिनिधि के रूप में निर्णय करना
एक विकल्प है । आत्मतत्त्व को न मानकर अपने आप ही
ज्ञान का स्वामित्व स्वीकार कर निर्णय करना दूसरा विकल्प
है । आत्मतत्त्व को मानता है तब वह विनम्र होता है, नहीं
मानता है तब मदान्वित होता है । व्यवहार में हम दोनों
प्रकार के मनुष्य देखते ही हैं । (तीसरा एक दम्भी प्रकार
होता है जो आत्मतत्त्व को मानता तो नहीं है परन्तु मानता
है ऐसा बताकर झूठी नम्रता धारण करता है ।) विवेकशक्ति
में कहीं चूक होती है तब अहंकार आत्मतत्त्व को नहीं
मानता है ।
आत्मतत्त्व को नहीं मानने वाला अहंकार आसुरी
होता है जिसका यथार्थ वर्णन भगवद्दीता में किया गया है ।
विनम्र अहंकार के साथ ज्ञाताभाव, भोक्ताभाव और
कतभिाव होता है । इसलिए व्यवहारजगत में उसके साथ
............. page-152 .............
दायित्वबोध जुड़ता है । जो भी हो रहा
है मेरे करने से हो रहा है, जो भी मैं कर रहा हूँ उसका फल
मुझे भोगना है, मेरे भोग के लिए जिम्मेदार मैं ही हूँ, जो भी
हो रहा है उसे मैं जानता हूँ इसलिए दायित्व भी मेरा ही है
ऐसा दायित्वबोध अहंकार कि शक्ति है । यह विधायक भी
होता है और नकारात्मक भी ।
अत: ज्ञानक्षेत्र के साथ दायित्वबोध जुड़ने की
अत्यन्त आवश्यकता है । व्यक्तिगत जीवन की तथा राष्ट्रीय
जीवन की हर समस्याका ज्ञानात्मक समाधान देना ज्ञानक्षेत्र
का दायित्व है ।
अनुभूति
अनुभूति की शिक्षा
ज्ञानेन्द्रियों से और कर्मन्द्रियों से जानना होता है । वह
इंद्रियों के माध्यम से होने वाली शिक्षा होती है। यह
जानकारी के रूप में होने वाला ज्ञान है । कई बातें ऐसी हैं
जो केवल जानकारी से परे होती हैं । उदाहरण के लिए
आँख किसी वस्तु का रंग पहचानती है । इससे रंग के
विषय में जानकारी मिलती है । परन्तु वह अच्छा है कि
नहीं, सुखद है कि नहीं, हितकारी है कि नहीं यह जानना
आँख का काम नहीं है । वह आँख की शक्ति के परे है ।
आँख नहीं अपितु मन के स्तर पर यह जाना जाता है कि
आँख ने जिसे लाल रंग के रूप में जाना वह सुख देने
वाला है कि नहीं, वह अच्छा लगता है कि नहीं । मन के
स्वभाव के अनुसार किसीको लाल रंग अच्छा लगता है,
किसीको अच्छा नहीं लगता । परन्तु यह मन के स्तर का
ज्ञान हुआ । यह अनुभूति नहीं है । मन के स्तर पर होने
वाला ज्ञान यथार्थज्ञान नहीं है, वह सापेक्ष ज्ञान है।
सापेक्षता मन का ही विषय है । मन को होने वाला ज्ञान
संकल्पविकल्प के स्वरूप का होता है । मन ज्ञानिन्द्रियों के
संवेदनों को विचार के रूप में, भावना के रूप में ग्रहण
करता है । कई बातों में इंद्रियों के बिना ही मन जानता है ।
उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति से मिलने का सुख
ज्ञानेन्द्रियों के बिना ही होता है । अच्छी कहानी सुनने का
१३६
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
सुख बिना इंद्रियों के होता है । किसी भी प्रकार से हो मन
से होने वाला ज्ञान सापेक्ष ही होता है । मन तत्त्वार्थ नहीं
जान सकता ।
तत्त्वार्थ जानने के लिए बुद्धि सक्षम होती है । वह
विवेक से काम लेती है । विवेक निरपेक्ष होता है । वह मन
के आधार पर नहीं जानती । वह अपने ही साधनों से
जानती है । हम जानते हैं कि बुद्धि तर्क, तुलना, अनुमान,
संश्लेषण आदि के आधार पर विवेक करती है । इसके
आधार पर जो ज्ञान होता है वह यथार्थ ज्ञान तो होता है
परन्तु वह इस भौतिक जगत का ही ज्ञान होता है । यह
अपरा विद्या का क्षेत्र है। ज्ञानार्जन के बहि:करण और
अन्तःकरण के माध्यम से होने वाला ज्ञान इस दुनिया का
व्यवहार चलाने के लिए उपयोगी होता है। परन्तु यह
अनुभूति नहीं है । अनुभूति का क्षेत्र बुद्धि से परे हैं ।
अनुभूति क्या है और वह कैसे होती है यह शब्दों में
समझाया नहीं जाता है । शब्द कि सीमा भी बुद्धि तक हि
है । फिर भी अनुभूति होती है यह सब जानते हैं ।
कुछ उदाहरण देखें ....
कक्षा १ में हमें संख्या १ क्या है यह समझाना है ।
संख्या अमूर्त पदार्थ है इसलिए किसी भी मूर्त वस्तु
कि सहायता से हम उसे समझा नहीं सकते । फिर हम
क्या करते हैं ? एक वस्तु बताकर पूछते हैं कि यह
क्या है । बालक वस्तु का नाम देता है । फिर पूछते
हैं कि वस्तु कितनी है। बालक उत्तर नहीं दे
सकता । फिर हम बताते हैं कि यह एक वस्तु है ।
परन्तु बालक को संकल्पना समझती नहीं है। हम
बार बार भिन्न भिन्न वस्तुये बताकर प्रथम वस्तु का
नाम और बाद में संख्या पूछते हैं । हर बार कितनी
पूछने पर उत्तर एक हि होता है । तब किसी एक क्षण
में बालक को एक क्या है इसकी अनुभूति होती है
और वह संकल्पना समझता है । यह अनुभूति कब
होगी इसका निश्चय कोई नहीं कर सकता । शिक्षक
केवल अनुभूति का मार्ग प्रशस्त करता है, वहाँ
पहुँचने में सहायता करता है, परन्तु अनुभूति कब
............. page-153 .............
पर्व ३ : शिक्षा का मनोविज्ञान
होगी इसका कोई नियम नहीं होता । संभव है कि
किसी व्यक्ति को बड़ा हो जाने के बाद भी एक की
संख्या क्या है इसकी अनुभूति हुई हि न हो ae
व्यवहार तो चला लेता है, गणित भी कर लेता है
परन्तु गणित के आनंद का अनुभव नहीं प्राप्त करता ।
एक शिक्षिका छोटे बालक के साथ खेल रही है ।
छोटे छोटे नारियल के सोलह फल लेकर खेल चल
रहा है । शिक्षिका बालक को सोलह नारियल को दो
समान पंक्तियों में जमाने को कहती है । बालक को
समान हिस्से ज्ञात नहीं हैं इसलिए वह एक पंक्ति में
दस और दूसरी में छः फल रखता है । गिनने पर यह
असमान विभाजन होता है । दूसरी बार करता है।
इस बार नौ और सात होते हैं । बालक दो तीन बार
करता है परन्तु समान हिस्से नहीं होते हैं। अब
शिक्षिका संकेत देकर सहायता करती है । वह कहती
है कि प्रथम पहली पंक्ति में १ फल रखो फिर इसके
नीचे दूसरी पंक्ति में १ रखो । इस प्रकार दोनों पंक्तियों
में समान संख्या होगी । बालक वैसा करता है और
उसे सफलता मिलती है । फिर शिक्षिका इस प्रकार
तीन पंक्तियाँ बनाने के लिए कहती है । बालक यही
क्रम अपनाता है परन्तु उसे समान पंक्तियाँ बनाने में
सफलता नहीं मिलती । शिक्षिका उसे चार परंक्तियाँ
बनाने के लिए कहती है । बालक सरलता से चार
पंक्तियाँ बनाता है । अब शिक्षिका और बालक दोनों
खड़ी और पड़ी पंक्तियाँ बार बार गिनते हैं । दोनों
चार चार हैं । अचानक बालक खड़ा हो जाता है
और ज़ोर से चिछ्ठाता है, चोकू चोकू सोलह' । यह
क्या है ? यह चार का पहाड़ा है जो उसने रटा हुआ
है । चार बार संख्या दोहराते दोहराते उसे पहाड़े की
अनुभूति होती है । वह अब अनुभूति से जानता है
की चार का पहाड़ा क्या है। अनुभूति उसकी
चिछ्लाहट में और चेहरे के आनन्द में व्यक्त होती है
परन्तु वह उसे तर्क से समझा नहीं सकता । बालक
तो क्या कोई भी अपनी अनुभूति को समझा नहीं
१३७
सकता, वह केवल व्यक्त होती
है।
पानी में नमक डालकर उसे चम्मच से हिलाने से
नमक पानी में घुलता है । घुलने की प्रक्रिया देखी जा
सकती है और प्रतीतिपूर्वक समझी भी जा सकती है
परन्तु घुलने की अनुभूति नहीं हो सकती । घुलने की
अनुभूति सर्वथा आध्यात्मिक प्रक्रिया है और उसकी
कोई निश्चित विधि नहीं है ।
मुनि उद्दालक से उनका पुत्र और शिष्य श्वेतकेतु
पूछता है कि ब्रह्म का स्वरूप क्या है । मुनि उद्दालक
उसे बरगद के वृक्ष के कुछ फल तोड़कर लाने को
कहते हैं । श्वेतकेतु फल लाता है । मुनि उसे एक
फल को तोड़ने को कहते हैं। श्वेतकेतु फल को
ताड़ता है और देखता है कि उसमें असंख्य छोटे छोटे
बीज हैं । मुनि उसे एक बीज लेकर उसे भी तोड़ने के
लिए कहते हैं । श्वेतकेतु बीज को तोड़ता है और
कहता है कि उस बीज के अन्दर कुछ भी नहीं है ।
मुनि कहते हैं कि बीज के अन्दर के उस कुछ नहीं से
हि सम्पूर्ण वृक्ष विकसित हुआ है । ठीक उसी प्रकार
कुछ नहीं जैसे ब्रह्म से ही यह सारी सृष्टि व्यक्त हुई
है । श्वेतकेतु को समझाने का यह बौद्धिक तरीका है ।
श्रेतकेतु बुद्धि से यह समझता है परन्तु अनुभूति तो
उसे तपश्चर्या से ही होती है, बुद्धि से नहीं । बुद्धि से
अनुभूति के मार्ग पर ले जाया जा सकता है परन्तु
अनुभूति करवाना संभव नहीं है ।
भगवान रामकृष्ण से स्वामी विवेकानन्द का बहुत बार
वादविवाद होता था । स्वामीजी बहुत तर्क करते थे ।
ईश्वर के अस्तित्वके बारे में शंका करते थे । एक बार
भगवान रामकृष्ण ने स्वामीजी को ध्यान करने को
कहा । स्वामीजी ध्यान कर रहे थे तब भगवान
रामकृष्ण ने उनकी भूकुटी के मध्यभाग में अंगूठे से
स्पर्श किया । स्वामीजी कहते हैं कि उस स्पर्श के
कारण से एक वस्तु से दूसरी वस्तु का भेद बताने
वाली सारी सीमायें मिट गईं sik wd wa sq Wa
............. page-154 .............
का अनुभव हो गया । इस अनुभव का
कोई बुद्धिगम्य खुलासा नहीं हो सकता परन्तु इसे
नकारना असंभव है ।
श्री रामकृष्ण स्वयं काली माता के भक्त थे । उन्होंने
कालिमाता का साक्षात्कार किया था । परन्तु स्वामी
तोतापुरी ने उन्हें निराकार ब्रह्म की अनुभूति करानी
चाही । जब श्री रामकृष्ण ध्यान कर रहे थे तब स्वामी
तोतापुरी ने उनकी भूकुटी के मध्यभाग में एक काँच का
टुकड़ा चुभो दिया । th A Yale बहा परन्तु
कालिमाता की मूर्ति के टुकड़े टुकड़े होकर उसका
साकार स्वरूप बिखर गया और श्री रामकृष्ण को
निराकार ब्रह्म की अनुभूति हुई । परन्तु इस उदाहरण से
कोई यह नहीं कह सकता कि निराकार ब्रह्म का
साक्षात्कार भूकुटी के मध्यभाग में काँच का टुकड़ा
चुभोने से होता है । अनुभूति तो बस होती है ।
एक बड़े कारखाने में विदेश से यंत्रसामग्री आई ।
विदेशी अभियंताओं ने उसे स्थापित कर कारखाने के
अभियन्ताओं को उस यंत्रसामग्री का संचालन सीखा
दिया । काम शुरू हुआ । कुछ समय के बाद एक
यंत्र रुक गया । अभियन्ताओं के बहुत प्रयासों के
बाद भी वह शुरू नहीं हुआ | सब निराश होकर
विचार कर रहे थे कि अब विदेश से अभियंता को
बुलाना पड़ेगा । तब एक मेकेनिक ने कहा कि उसे
प्रयास करने की अनुमति दी जाये । अधिकारियों ने
कुछ साशंक होकर और अविश्वासपूर्वक अनुमति दी ।
उस मेकेनिक ने कुछ प्रयास किया और सबके आश्चर्य
के बीच यंत्र शुरू हो गया । लोगों ने पूछा की उसे
कहाँ दोष था इसका पता कैसे चला । उस मेकेनिक
ने कहा कि यंत्र उससे बात करता है । निर्जीव यंत्र
सजीव मनुष्य के साथ बात कैसे कर सकता है ?
जब यंत्र के साथ तादात्म्य होता है तो यंत्र अपना
आंतरिक रहस्य व्यक्ति के समक्ष प्रकट कर देता है ।
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
समाधि जिनकी सिद्ध हुई है ऐसे योगियों को बिना
किसी साधन से पता चला है कि मनुष्य के शरीर में
७२,००० नाड़ियाँ हैं ।
प्रेम अनुभूति का साधन हो सकता है । सृष्टि के साथ
यदि प्रेम है तो उस व्यक्ति के समक्ष सृष्टि अपने
रहस्य स्वयं प्रकट करती है ।
यह अनुभूति हि वास्तव में ज्ञान का सही स्वरूप है ।
शेष सारा ज्ञान ज्ञान का आभास है। जगत का
व्यवहार इस आभासी ज्ञान के क्षेत्र में चलता है ।
इसलिए अनुभूत ज्ञान को ज्ञान कहते हैं, शेष को
अज्ञान । इसे परा विद्या कहते हैं, शेष को अपरा ।
इसे विद्या कहते हैं, शेष को अविद्या । इसे ब्रह्म
विद्या कहते हैं, शेष को भूतविद्या ।
वेद से लेकर सामान्य जानकारी तक का सारा ज्ञान
अपरा विद्या का क्षेत्र है ।
अपरा विद्या का क्षेत्र परा के प्रकाश में हि सार्थक
है । अनुभूति तक पहुँचना हि सारे ज्ञान प्राप्त करने के
पुरुषार्थ का लक्ष्य है ।
भक्तियोग, कर्मयोग, राजयोग, ज्ञानयोग आदि
अनुभूति तक पहुँचने के मार्ग हैं, अनुभूति नहीं । मार्ग
में ज्ञान के विभिन्न स्वरूप सामने आते हैं जिन्हें
व्यक्ति ज्ञान समझ लेता है परन्तु वे मार्ग के पड़ाव ही
हैं यह समझना आवश्यक है ।
अध्ययन अध्यापन की विभिन्न पद्धतियों में अनुभूति
का तत्त्व निर्तर सामने रखने से ज्ञानार्जन के आनन्द
की प्राप्ति हो सकती है । भले हि अनुभूति न हो तो
भी उसकी झलक हमेशा मिलती रहती है। यह
झलक भी बहुत मूल्यवान होती है ।
भारत में ज्ञानसाधना का यही स्वरूप रहा है, यही
लक्ष्य रहा है ।
व्यक्ति के लिये शिक्षा का यह एक पहलू हुआ जिसमें
यह भारत के लोगों कि प्रचलित धारणा है। यह... उसकी अंतर्निहित क्षमताओं का प्रकटीकरण करना है । यही
अनुभूति है । उसका विकास है ।
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पर्व ३ : शिक्षा का मनोविज्ञान
८८ ८ ८५
2 नि न
८ 9८-५४
का यही स्वरूप रहा है, यही
लक्ष्य रहा है ।
व्यक्ति के लिये शिक्षा का यह एक पहलू हुआ जिसमें
यह भारत के लोगों कि प्रचलित धारणा है। यह... उसकी अंतर्निहित क्षमताओं का प्रकटीकरण करना है । यही
अनुभूति है । उसका विकास है ।
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