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लेख सम्पादित किया
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== गृहस्थाश्रम में शिक्षा ==
 
== गृहस्थाश्रम में शिक्षा ==
विद्यालयीन शिक्षा समाप्त होने के बाद, विवाह हो जाने के बाद स्वाध्याय, स्वचिन्तन और उसके आधार पर व्यवहार यह मुख्य विषय बनता है। उस समय जिससे स्वाभाविक रूप से परामर्श लिया जा सकता है वे हैं मातापिता । प्रौण वानप्रस्थ मातापिता अभी भी परामर्शक हैं ही। विमर्श के लिये अन्य गृहस्थाश्रमी भी हैं। विश्वविद्यालयों में और अपने अपने घरों में शिक्षित  युवावस्था के गृहस्थाश्रमी अब अपनी व्यवस्था से एकदूसरे से विमर्श कर सीखते हैं । विभिन्न व्यवसायों के, विभिन्न जातियों के, विभिन्न विचारधाराओं के, विभिन्न सम्प्रदायों के समूह संस्थाओं, मण्डलों और संगठनों के रूप में कार्यरत होते हैं जो अपने अपने क्षेत्र की स्थिति का आकलन करते हैं, उपलब्धियों और समस्याओं की चर्चा करते हैं, समस्याओं का हल खोजने का प्रयास करते हैं, अपनी सन्तानों की शिक्षा, संस्कार, चरित्र आदि के बारे में, अपने व्यवसाय की स्थिति और विकास के बारे में, अपने व्यवसाय के माध्यम से की जाने वाली समाजसेवा के बारे में चर्चा करते हैं । यहाँ निरन्तर शिक्षा होती ही रहती है ।गृहस्थ विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक संगठनों से जुड़ते हैं । वहाँ समाजसेवा के प्रकल्प चलते हैं । वहाँ सांस्कृतिक और राष्ट्रीय समस्याओं की चर्चा होती है । उसमें हमारे लिये करणीय कार्य कया है इसकी भी चर्चा होती है । ऐसे कार्यों में गृहस्थों की सहभागिता होती है । काम करते करते सीखने और सिखाने का यह अच्छा माध्यम है । इसमें भी निःस्वार्थता और विवेक जितनी मात्रा में होते हैं उतनी मात्रा में शिक्षा अच्छी चलती है ।
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विद्यालयीन शिक्षा समाप्त होने के बाद, विवाह हो जाने के बाद स्वाध्याय, स्वचिन्तन और उसके आधार पर व्यवहार यह मुख्य विषय बनता है। उस समय जिससे स्वाभाविक रूप से परामर्श लिया जा सकता है वे हैं मातापिता। प्रौण वानप्रस्थ मातापिता अभी भी परामर्शक हैं ही। विमर्श के लिये अन्य गृहस्थाश्रमी भी हैं। विश्वविद्यालयों में और अपने अपने घरों में शिक्षित  युवावस्था के गृहस्थाश्रमी अब अपनी व्यवस्था से एकदूसरे से विमर्श कर सीखते हैं । विभिन्न व्यवसायों के, विभिन्न जातियों के, विभिन्न विचारधाराओं के, विभिन्न सम्प्रदायों के समूह संस्थाओं, मण्डलों और संगठनों के रूप में कार्यरत होते हैं जो अपने अपने क्षेत्र की स्थिति का आकलन करते हैं, उपलब्धियों और समस्याओं की चर्चा करते हैं, समस्याओं का हल खोजने का प्रयास करते हैं, अपनी सन्तानों की शिक्षा, संस्कार, चरित्र आदि के बारे में, अपने व्यवसाय की स्थिति और विकास के बारे में, अपने व्यवसाय के माध्यम से की जाने वाली समाजसेवा के बारे में चर्चा करते हैं । यहाँ निरन्तर शिक्षा होती ही रहती है ।गृहस्थ विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक संगठनों से जुड़ते हैं । वहाँ समाजसेवा के प्रकल्प चलते हैं । वहाँ सांस्कृतिक और राष्ट्रीय समस्याओं की चर्चा होती है । उसमें हमारे लिये करणीय कार्य कया है इसकी भी चर्चा होती है । ऐसे कार्यों में गृहस्थों की सहभागिता होती है । काम करते करते सीखने और सिखाने का यह अच्छा माध्यम है । इसमें भी निःस्वार्थता और विवेक जितनी मात्रा में होते हैं उतनी मात्रा में शिक्षा अच्छी चलती है ।
    
== विशेष स्थिति में विशेष कार्य ==
 
== विशेष स्थिति में विशेष कार्य ==
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== वानप्रस्थाश्रम और लोकशिक्षा ==
 
== वानप्रस्थाश्रम और लोकशिक्षा ==
वास्तव में सभी वानप्रस्थियों का मुख्य दायित्व
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वास्तव में सभी वानप्रस्थियों का मुख्य दायित्व समाजसेवा का है और समाजसेवा का मुख्य कार्य लोकशिक्षा है । उनके ट्वारा की जाने वाली लोकशिक्षा ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक तीनों प्रकार की होती है । अपनी अपनी रुचि के अनुरूप सभी वानप्रस्थियों को अपने काम का चयन करना चाहिये । परन्तु इसमें एक बात की सावधानी रखने की आवश्यकता है । विद्यालय करता है वही कार्य बिना शुल्क और वेतन के करना यह लोकशिक्षा नहीं है, विद्यालय शिक्षा है । हॉस्पिटल में भर्ती हुए रुग्णों की परिचर्या करना, उनके रिश्तेदारों के लिये भोजन की व्यवस्था करना हॉस्पिटल के काम में सहयोग है, लोकशिक्षा नहीं है । गरीबों के लिये निःशुल्क शिक्षा के वर्ग चलाना विद्यालय के कार्य में सहयोग है, लोकशिक्षा नहीं है। बच्चों के लिये संस्कारवर्ग चलाना कुटुम्ब के काम का पर्याय है, लोकशिक्षा नहीं है । ये सारे प्रकल्प  वानप्रस्थियों को इसलिये चलाने पड़ते हैं क्योंकि सम्बन्धित लोग अर्थात्‌ शिक्षक, डॉक्टर अथवा मातापिता अपना काम करते नहीं हैं, वानप्रस्थियों को करने हेतु विवश कर देते हैं।
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समाजसेवा का है और समाजसेवा का मुख्य कार्य
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वानप्रस्थियों की समाज सेवा के अन्य अनेक आयाम हैं जिनमें लोकशिक्षा मुख्य है, और लोकशिक्षा के अनेक आयामों की चर्चा पूर्व में हुई ही है । वानप्रस्थियों को अपने आप को लोकशिक्षा के अनेक कामों के लिये सक्षम भी बना लेना चाहिये। वे यदि घर में रहते हैं तो उन्हें लोकशिक्षा के आयामों को घर के साथ भी जोड़ना चाहिये । वानप्रस्थाश्रम में प्रौण और वृद्ध दोनों का समावेश होता है । प्रौण वानप्रस्थियों को समाजसेवा के ऐसे काम करने चाहिये जिनमें शारीरिक श्रम भी होता हो परन्तु वृद्धों को शिक्षा का ही काम करना चाहिये । पूर्व में अन्य काम किये हुए होने के कारण अब वे शिक्षा देने के लिये सक्षम भी हो जाते हैं ।
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लोकशिक्षा है । उनके ट्वारा की जाने वाली लोकशिक्षा
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== संन्यासियों द्वारा लोकशिक्षा ==
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संन्यासी को स्वंय के लिये भी त्याग, तप और मुमुक्षा की शिक्षा की आवश्यकता है और समाज को भी उसने इन्हीं बातों की शिक्षा देनी चाहिये परन्तु इसमें एक बात की विशेषता है। संन्यासी, वानप्रस्थी और गृहस्थ के लिये त्याग, तप और मुमुक्षा स्वरूप भिन्न भिन्न होता है । संन्यासी इस बात की स्पष्ट समझ विकसित करे और गृहस्थ और वानप्रस्थ का इस प्रकार से प्रबोधन करे यह अपेक्षित है।
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ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक तीनों प्रकार की
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शिक्षा, कुटम्बशिक्षा और लोकशिक्षा में समरसता निर्माण होनी चाहिये। इस दृष्टि से समय समय पर शिक्षकों, अभिभावकों और धर्माचार्यों ने एकत्र आने की आवश्यकता रहती है। भारत का सामाजिक सांस्कृतिक इतिहास देखें तो ध्यान में आता है कि ये सारी व्यवस्थायें एकदूसरे के साथ आन्तरिक रूप से जुड़ी हुई थीं । आज इस लोकशिक्षा के बारे में भी बहुत परिवर्तन की आवश्यकता है | समाजसेवा का भी व्यवसायीकरण हो गया है जिससे बचना भारी पड़ रहा है । समाजसेवा की हमारी संकल्पना भी बदल गई है। इस स्थिति में मूल चिन्तन की बहुत आवश्यकता है ।
 
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होती है । अपनी अपनी रुचि के अनुरूप सभी वानप्रस्थियों
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को अपने काम का चयन करना चाहिये । परन्तु इसमें एक
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बात की सावधानी रखने की आवश्यकता है । विद्यालय
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BBR
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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करता है वही कार्य बिना शुल्क और वेतन के करना यह
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लोकशिक्षा नहीं है, विद्यालय शिक्षा है । हॉस्पिटल में भर्ती
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हुए क्रग्गों की परिचर्या करना, उनके रिश्तेदारों के लिये
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भोजन की व्यवस्था करना हॉस्पिटल के काम में सहयोग है,
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लोकशिक्षा नहीं है । गरीबों के लिये निःशुल्क शिक्षा के वर्ग
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चलाना विद्यालय के कार्य में सहयोग है, लोकशिक्षा नहीं
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है। बच्चों के लिये संस्कारवर्ग चलाना कुट्म्ब के काम का
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पर्याय है, लोकशिक्षा नहीं है । ये at seed वानप्रस्थियों
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को इसलिये चलाने पड़ते हैं क्योंकि सम्बन्धित लोग अर्थात्‌
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शिक्षक, डॉक्टर अथवा मातापिता अपना काम करते नहीं
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हैं, वानप्रस्थियों को करने हेतु विवश कर देते हैं।
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वानप्रस्थियों की समाज सेवा के अन्य अनेक आयाम हैं
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जिनमें लोकशिक्षा मुख्य है, और लोकशिक्षा के अनेक
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आयामों की चर्चा पूर्व में हुई ही है । वानप्रस्थियों ने अपने
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आप को लोकशिक्षा के अनेक कामों के लिये सक्षम भी
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बना लेना चाहिये। वे यदि घर में रहते हैं तो उन्हें
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लोकशिक्षा के आयामों को घर के साथ भी जोड़ना
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चाहिये । वानप्रस्थाश्रम में प्रौद और वृद्ध दोनों का समावेश
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होता है । प्रौद वानप्रस्थियों को समाजसेवा के ऐसे काम
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करने चाहिये जिनमें शारीरिक श्रम भी होता हो परन्तु वृद्धों
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को शिक्षा का ही काम करना चाहिये । पूर्व में अन्य काम
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किये हुए होने के कारण अब वे शिक्षा देने के लिये सक्षम
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भी हो जाते हैं ।
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७. संन्यासियों द्वारा लोकशि क्षा
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संन्यासी को स्वंय के लिये भी त्याग, तप और
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मुमुक्षा की शिक्षा की आवश्यकता है और समाज को भी
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उसने इन्हीं बातों की शिक्षा देनी चाहिये । परन्तु इसमें एक
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बात की विशेषता है । संन्यासी, वानप्रस्थी और गृहस्थ के
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लिये त्याग, तप और मुमुक्षा स्वरूप भिन्न भिन्न होता है ।
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संन्यासी इस बात की स्पष्ट समझ विकसित करे और गृहस्थ
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और वानप्रस्थ का इस प्रकार से प्रबोधन करे यह अपेक्षित
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है।
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इस प्रकार कुट्म्ब में रहकर भी लोकशिक्षा का कार्य
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हो सकता है, किंबहुना वह होना ही चाहिये विद्यालय
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............. page-259 .............
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पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा
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शिक्षा, कुट्म्बशिक्षा और लोकशिक्षा में समरसता निर्माण आज इस लोकशिक्षा के बारे में
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होनी चाहिये । इस दृष्टि से समय समय पर शिक्षकों, भी बहुत परिवर्तन की आवश्यकता है समाजसेवा का भी
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अभिभावकों और धर्माचार्यों ने एकत्र आने की आवश्यकता... व्यवसायीकरण हो गया है जिससे बचना भारी पड़ रहा है ।
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रहती है । भारत का सामाजिक सांस्कृतिक इतिहास देखें तो... समाजसेवा की हमारी संकल्पना भी बदल गई है। इस
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ध्यान में आता है कि ये सारी व्यवस्थायें एकदूसरे के साथ... स्थिति में मूल चिन्तन की बहुत आवश्यकता है
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आन्तरिक रूप से जुड़ी हुई थीं
      
==References==
 
==References==

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