Difference between revisions of "कुटुम्बशिक्षा : कुछ मौलिक विचार सूत्र"

From Dharmawiki
Jump to navigation Jump to search
(लेख सम्पादित किया)
(लेख सम्पादित किया)
Line 1: Line 1:
कुट्म्ब कैसे बनता है ?
+
== कुटुम्ब कैसे बनता है? ==
 
+
कुटुम्ब जीवन का केन्द्रबिन्दु है - पति और पत्नी ।
कुट्म्ब जीवन का केन्द्रबिन्दु है - पति और पत्नी ।
 
  
 
पतिपत्नी को जोड़ने वाला विवाह संस्कार होता है । एक
 
पतिपत्नी को जोड़ने वाला विवाह संस्कार होता है । एक
Line 71: Line 70:
 
संस्कार का स्वरूप दिया गया है ।
 
संस्कार का स्वरूप दिया गया है ।
  
'विवाह के उद्देश्य
+
== विवाह के उद्देश्य ==
 
 
 
यह सम्बन्ध शारीरिक से शुरू होकर आत्मिक तक
 
यह सम्बन्ध शारीरिक से शुरू होकर आत्मिक तक
  
Line 91: Line 89:
 
संस्कार के माध्यम से स्त्री और पुरुष को, पति और पत्नी
 
संस्कार के माध्यम से स्त्री और पुरुष को, पति और पत्नी
  
को सिखाया जाता है और सिखाया जाना चाहिये । विवाह
+
को सिखाया जाता है और सिखाया जाना चाहिये ।  
 
 
का दूसरा उद्देश्य है परम्परा बनाये रखने की व्यवस्था करना
 
 
 
और इसी दृष्टि से विवाह को भी व्याख्यायित किया गया
 
  
है विवाह का उद्देश्य काम प्रेरित सुख नहीं है । ऐसे जीवन
+
'''विवाह का दूसरा उद्देश्य है परम्परा बनाये रखने की व्यवस्था करना और इसी दृष्टि से विवाह को भी व्याख्यायित किया गया है।''' विवाह का उद्देश्य काम प्रेरित सुख नहीं है । ऐसे जीवन
  
में ख्री और पुरुष के आयुष्य में एक समय ऐसा आता है
+
में स्त्री और पुरुष के आयुष्य में एक समय ऐसा आता है
  
fe of at ges a ही सुख मिलता है, पुरुष को ख्री से ही
+
fe of at ges a ही सुख मिलता है, पुरुष को स्त्री से ही
  
 
सुख मिलता है, यह काम सुख है । और इस दृष्टि से स्त्री
 
सुख मिलता है, यह काम सुख है । और इस दृष्टि से स्त्री
Line 119: Line 113:
 
की रक्षा करने की चिन्ता करते हैं । इस कारण से भारत में
 
की रक्षा करने की चिन्ता करते हैं । इस कारण से भारत में
  
कुट्म्ब भी नहीं बनता, समाज भी नहीं बनता | भारत में
+
कुटुम्ब भी नहीं बनता, समाज भी नहीं बनता | भारत में
  
 
विवाह का उद्देश्य केवल काम सुख नहीं है, काम सुख की
 
विवाह का उद्देश्य केवल काम सुख नहीं है, काम सुख की
Line 127: Line 121:
 
परम्परा बनाना है, वंश परम्परा बनाना है और इसलिये
 
परम्परा बनाना है, वंश परम्परा बनाना है और इसलिये
  
कुट्म्ब के लिये, गृहस्थाश्रमी के लिये ऋणत्रय की कल्पना
+
कुटुम्ब के लिये, गृहस्थाश्रमी के लिये ऋणत्रय की कल्पना
  
 
की गयी है ।
 
की गयी है ।
Line 255: Line 249:
 
को मातापिता भी बनना है ।
 
को मातापिता भी बनना है ।
  
परिवार व्यवस्था के सूत्र
+
== परिवार व्यवस्था के सूत्र ==
 
 
 
इन पाँच बिन्दुओं को ध्यान में रखकर पतिपत्नी के
 
इन पाँच बिन्दुओं को ध्यान में रखकर पतिपत्नी के
  
Line 303: Line 296:
 
तो वे भी इस व्यवसाय में शामिल होते हैं ।
 
तो वे भी इस व्यवसाय में शामिल होते हैं ।
  
(३) अथर्जिन कुट्म्ब के निर्वाह के लिये होता है ।
+
(३) अथर्जिन कुटुम्ब के निर्वाह के लिये होता है ।
  
इस कुट्म्ब के संचालन में भी दोनों की एक साथ भूमिका
+
इस कुटुम्ब के संचालन में भी दोनों की एक साथ भूमिका
  
 
रहती है । अथार्जिन करने का मुख्य दायित्व यदि पति का है
 
रहती है । अथार्जिन करने का मुख्य दायित्व यदि पति का है
Line 335: Line 328:
 
एकात्मता का व्यवहारिक स्वरूप क्या है इसका यहाँ हमने
 
एकात्मता का व्यवहारिक स्वरूप क्या है इसका यहाँ हमने
  
चार या पाँच बिन्‍्दुओं में ही उल्लेख किया है । कुट्म्ब की
+
चार या पाँच बिन्‍्दुओं में ही उल्लेख किया है । कुटुम्ब की
  
 
इस व्याख्या को प्रस्तुत करने के लिये, प्रतिष्ठित करने के
 
इस व्याख्या को प्रस्तुत करने के लिये, प्रतिष्ठित करने के
Line 353: Line 346:
 
............. page-234 .............
 
............. page-234 .............
  
आत्मीयता एक आधारभूत तत्त्व
+
== आत्मीयता एक आधारभूत तत्त्व ==
 
 
 
आत्मीयता का अर्थ है अपनापन । अपनापन की
 
आत्मीयता का अर्थ है अपनापन । अपनापन की
  
Line 481: Line 473:
 
दर्शाना यही मनुष्य का परम कर्तव्य बताया गया है ।
 
दर्शाना यही मनुष्य का परम कर्तव्य बताया गया है ।
  
गृहसंचालन के कार्य
+
== गृहसंचालन के कार्य ==
 
 
 
परिवार व्यवस्था में दूसरा आयाम है गृह संचालन
 
परिवार व्यवस्था में दूसरा आयाम है गृह संचालन
  
Line 493: Line 484:
 
परिवार के सारे कामों का समावेश होता है । इसलिये शिक्षा
 
परिवार के सारे कामों का समावेश होता है । इसलिये शिक्षा
  
की व्यवस्था में कुट्म्ब जीवन की शिक्षा यह भी प्रमुख मुद्दा
+
की व्यवस्था में कुटुम्ब जीवन की शिक्षा यह भी प्रमुख मुद्दा
  
 
............. page-235 .............
 
............. page-235 .............
Line 509: Line 500:
 
था । बालक की शिक्षा गर्भाधान के क्षण से ही शुरू हो
 
था । बालक की शिक्षा गर्भाधान के क्षण से ही शुरू हो
  
जाती है । यह शिक्षा तो अनिवार्य रूप से कुट्म्ब में ही दी
+
जाती है । यह शिक्षा तो अनिवार्य रूप से कुटुम्ब में ही दी
  
 
जाती है । माता और पिता मिलकर यह शिक्षा देते हैं ।
 
जाती है । माता और पिता मिलकर यह शिक्षा देते हैं ।
Line 573: Line 564:
 
बालकों का संगोपन करना यह तो
 
बालकों का संगोपन करना यह तो
  
कुट्म्ब के सर्वतोपरि महत्त्वपूर्ण और श्रेष्ठ काम हैं । अगर
+
कुटुम्ब के सर्वतोपरि महत्त्वपूर्ण और श्रेष्ठ काम हैं । अगर
  
 
हम मनुष्य जीवन के लिये उपयोगी, मनुष्य जीवन को उन्नत
 
हम मनुष्य जीवन के लिये उपयोगी, मनुष्य जीवन को उन्नत
Line 593: Line 584:
 
कार्य बताया गया है । अतः भोजन बनाना, भोजन करना
 
कार्य बताया गया है । अतः भोजन बनाना, भोजन करना
  
और करवाना यह कुट्म्ब का महत्त्वपूर्ण काम है। सब
+
और करवाना यह कुटुम्ब का महत्त्वपूर्ण काम है। सब
  
 
परिवार जनों को यह काम आना चाहिये । इसमें कुशलता
 
परिवार जनों को यह काम आना चाहिये । इसमें कुशलता
Line 623: Line 614:
 
आदि भी आना चाहिये ।
 
आदि भी आना चाहिये ।
  
कुट्म्ब शिक्षा के पाठ्यक्रम
+
== कुटुम्ब शिक्षा के पाठ्यक्रम ==
 
 
 
घर में संस्कार का एक आयाम है पूजा करना ।
 
घर में संस्कार का एक आयाम है पूजा करना ।
  
Line 633: Line 623:
 
त्योहार मनाने की विधि क्या है यह भी आना चाहिये । इस
 
त्योहार मनाने की विधि क्या है यह भी आना चाहिये । इस
  
प्रकार कुट्म्ब जीवन को केन्द्र बनाते हुए अनेक प्रकार की
+
प्रकार कुटुम्ब जीवन को केन्द्र बनाते हुए अनेक प्रकार की
  
कुशलतायें अर्जित करना यह कुट्म्ब व्यवस्था का, कुट्म्ब
+
कुशलतायें अर्जित करना यह कुटुम्ब व्यवस्था का, कुटुम्ब
  
 
जीवन का एक महत्त्वपूर्ण भाग है । परिवार की ca ae
 
जीवन का एक महत्त्वपूर्ण भाग है । परिवार की ca ae
Line 653: Line 643:
 
स्थान क्या है, अपने उस स्थान के अनुसार अपने दायित्व
 
स्थान क्या है, अपने उस स्थान के अनुसार अपने दायित्व
  
क्या बनते हैं, इसकी शिक्षा यह कुट्म्ब शिक्षा का एक
+
क्या बनते हैं, इसकी शिक्षा यह कुटुम्ब शिक्षा का एक
  
 
अहम मुद्दा है । इस शिक्षा की भी व्यवस्था होनी चाहिये ।
 
अहम मुद्दा है । इस शिक्षा की भी व्यवस्था होनी चाहिये ।
Line 663: Line 653:
 
छोटेछोटे हिस्से बनाये गये और इनकों व्यापक रूप में
 
छोटेछोटे हिस्से बनाये गये और इनकों व्यापक रूप में
  
प्रसारित करने की योजना भी बनी । कुट्म्ब जीवन प्रारम्भ
+
प्रसारित करने की योजना भी बनी । कुटुम्ब जीवन प्रारम्भ
  
 
करने के लिये व्यवस्थित शिक्षा देने की आवश्यकता है ।
 
करने के लिये व्यवस्थित शिक्षा देने की आवश्यकता है ।
Line 803: Line 793:
 
योगाचार्य आयुर्वेदाचार्य, ज्योतिषाचार्य, धर्माचार्य आदि... भूमिका के साथ नया दायित्व भी प्राप्त होता है । इसलिये
 
योगाचार्य आयुर्वेदाचार्य, ज्योतिषाचार्य, धर्माचार्य आदि... भूमिका के साथ नया दायित्व भी प्राप्त होता है । इसलिये
  
सभी के सहयोग की भी आवश्यकता निर्माण हुई और उन... केवल माता-पिता को ही नहीं तो पूरे कुट्म्ब को बालक के
+
सभी के सहयोग की भी आवश्यकता निर्माण हुई और उन... केवल माता-पिता को ही नहीं तो पूरे कुटुम्ब को बालक के
  
 
लोगों ने भी बहुत उत्साह से इसमें सहयोग किया । इसका... प्रति अपना जो दायित्व है उसे निभाना सीखना चाहिये ।
 
लोगों ने भी बहुत उत्साह से इसमें सहयोग किया । इसका... प्रति अपना जो दायित्व है उसे निभाना सीखना चाहिये ।
Line 829: Line 819:
 
था और इसके भी व्यवस्थित विद्यालय शुरु हुए। ये वैसे तो इसका बहुत बडा हिस्सा गर्भावस्‍था की और
 
था और इसके भी व्यवस्थित विद्यालय शुरु हुए। ये वैसे तो इसका बहुत बडा हिस्सा गर्भावस्‍था की और
  
विद्यालय कुट्म्ब विद्यालय के नाम से ही प्रसिद्ध हुए ।.. शिशुअवस्था की शिक्षा के अन्तर्गत आ गया है फिर भी
+
विद्यालय कुटुम्ब विद्यालय के नाम से ही प्रसिद्ध हुए ।.. शिशुअवस्था की शिक्षा के अन्तर्गत आ गया है फिर भी
  
 
कुटुम्ब विद्यालय भी स्थान-स्थान पर स्थापित होने लगे ।.... यहाँ कुछ बातों का निर्देश आवश्यक है। कहीं कहीं
 
कुटुम्ब विद्यालय भी स्थान-स्थान पर स्थापित होने लगे ।.... यहाँ कुछ बातों का निर्देश आवश्यक है। कहीं कहीं
Line 859: Line 849:
 
भूमिका रहती है और वह बहुत महत्त्वपूर्ण होती है । अर्थात्‌ अपने बालक को देना है । अतः माता-पिता को
 
भूमिका रहती है और वह बहुत महत्त्वपूर्ण होती है । अर्थात्‌ अपने बालक को देना है । अतः माता-पिता को
  
समग्र विकास प्रतिमान हेतु अभिभावक शिक्षा
+
== समग्र विकास प्रतिमान हेतु अभिभावक शिक्षा ==
 
 
 
BWW
 
BWW
  
Line 875: Line 864:
 
होने वाली माता के लिये यह विशेष रूप से आवश्यक है
 
होने वाली माता के लिये यह विशेष रूप से आवश्यक है
  
क्योंकि वह दूसरे कुट्म्ब से इस Herat में आई है । उसे
+
क्योंकि वह दूसरे कुटुम्ब से इस Herat में आई है । उसे
  
 
अपने पितृ कुल का इतिहास तो मालूम है परन्तु पति कुल
 
अपने पितृ कुल का इतिहास तो मालूम है परन्तु पति कुल
Line 905: Line 894:
 
यदि नहीं है तो उसे भी इसकी शिक्षा प्राप्त कर लेनी चाहिये ।
 
यदि नहीं है तो उसे भी इसकी शिक्षा प्राप्त कर लेनी चाहिये ।
  
पत्नी अपने पति से अथवा पति-पत्नी दोनों कुट्म्ब के
+
पत्नी अपने पति से अथवा पति-पत्नी दोनों कुटुम्ब के
  
 
वृद्धजनों से ऐसी शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं ।
 
वृद्धजनों से ऐसी शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं ।
  
संस्कार एवं संस्कार प्रक्रिया के सम्बन्ध में जानना
+
== संस्कार एवं संस्कार प्रक्रिया के सम्बन्ध में जानना ==
 
 
 
ब्रह्माण्ड में जो जीव है वे अपने लायक माता-पिता
 
ब्रह्माण्ड में जो जीव है वे अपने लायक माता-पिता
  
Line 1,243: Line 1,231:
 
कया किया जाय ?
 
कया किया जाय ?
  
परम्परा का अज्ञान
+
== परम्परा का अज्ञान ==
 
 
 
वास्तव में आज की विषमता ही यह है । भारत के ही
 
वास्तव में आज की विषमता ही यह है । भारत के ही
  
Line 1,363: Line 1,350:
 
होंगे ।
 
होंगे ।
  
माता बालक की प्रथम गुरु
+
== माता बालक की प्रथम गुरु ==
 
 
 
संस्कार देने लायक माता-पिता बनें इसके बाद शिशु
 
संस्कार देने लायक माता-पिता बनें इसके बाद शिशु
  

Revision as of 22:37, 16 January 2021

कुटुम्ब कैसे बनता है?

कुटुम्ब जीवन का केन्द्रबिन्दु है - पति और पत्नी ।

पतिपत्नी को जोड़ने वाला विवाह संस्कार होता है । एक

सर्वथा अपरिचित पुरुष और सर्वथा अपरिचित स्त्री विवाह

संस्कार से जुड़कर पतिपत्नी बनते हैं और अब वे

अपरिचित नहीं परन्तु परम परिचित जैसे बनते हैं । ये दो

नहीं रहते एक बनते हैं । इसलिये पतिपत्नी की एकात्मता

we Hera जीवन का केन्द्र बिन्दु है । इस एकात्मता का

स्रोत कया है ? जैसे हमने पूर्व में भी देखा है यह सृष्टि

परमात्मा से निसृत हुई है । परमात्मा ने अपने में से ही इसे

बनाया है । इसलिये सृष्टि के सारे पदार्थों में एकात्म सम्बन्ध

रहता है । सृष्टि निसृत हुई इसलिये सृष्टि के सारे पदार्थ सारे

व्यक्तित्व पुनः परमात्मा में एकात्म हो जाने के लिये ही

अपने जीवन की गति करते हैं । सर्वथा अपरिचित, सर्वथा

अलग ऐसे स्त्री और पुरुष विवाह संस्कार से जब एक बनते

२१५

हैं तो यह एकात्मता की साधना है । पतिपत्नी का सम्बन्ध

यह एकात्मता की साधना का प्रारम्भ बिन्दु है । इसलिये

विवाह संस्कार को सभी संस्कारों में सर्वश्रेष्ठ, सबसे अधिक

महत्त्वपूर्ण माना गया है । आज विवाह जीवन की दुर्दशा हुई

है । पति-पत्नी की एकात्मता की संकल्पना गृहीत नहीं है,

वह स्वीकृत भी नहीं है । विवाह हो जाने के बाद भी दोनों

अपनी स्वतन्त्र पहचान बनाये रखना चाहते हैं । हमेशा

स्वतन्त्रता की भाषा बोली जाती है । हमेशा अपनीअपनी

रुचि की भाषा बोली जाती है । इसलिये पतिपत्नी भी एक

दूसरे से स्वतन्त्र रहना चाहते हैं, इसी में गौरव समझते हैं ।

इसी के लिये पढ़ाई होती है । इसी के लिये अथर्जिन होता

है । इसी के लिये अपनेअपने स्वतन्त्र क्षेत्र चुने जाते हैं ।

इसलिये स्वतन्त्र करियर की भी भाषा होती है । परन्तु यह

स्वतन्त्रता सही अर्थ में स्वतन्त्रता नहीं है । यह स्वतन्त्रता

अलग होने के और अलग रहने के पर्याय स्वरूप ही रहती

है । इसलिये विवाहसंस्कार से जुड़कर एकात्मता की बहुत

............. page-232 .............

महत्त्वपूर्ण साधना स्त्री और पुरुष दोनों

को करनी होती है। इस दृष्टि से हमारे यहाँ विवाह को

संस्कार का स्वरूप दिया गया है ।

विवाह के उद्देश्य

यह सम्बन्ध शारीरिक से शुरू होकर आत्मिक तक

पहुँचता है और एकात्मता साधी जाती है । वह भले ही

स्थूल सम्भोग से प्रारम्भ हुआ हो, भले ही उसका प्रेरक

तत्त्व मैथुन रहा हो, मैथुन की वृत्ति रही हो, भले ही इसमें

मन के स्तर पर आसक्ति रहती हो, भले ही इसमें बुद्धि के

स्तर पर कर्तव्य भावना का भी विकास होता हो तो भी

इसकी परिणति, इसकी चरम परिणति तो आत्मिक

सम्बन्धमें और आनन्द में ही होनी चाहिये । यह सब विवाह

संस्कार के माध्यम से स्त्री और पुरुष को, पति और पत्नी

को सिखाया जाता है और सिखाया जाना चाहिये ।

विवाह का दूसरा उद्देश्य है परम्परा बनाये रखने की व्यवस्था करना और इसी दृष्टि से विवाह को भी व्याख्यायित किया गया है। विवाह का उद्देश्य काम प्रेरित सुख नहीं है । ऐसे जीवन

में स्त्री और पुरुष के आयुष्य में एक समय ऐसा आता है

fe of at ges a ही सुख मिलता है, पुरुष को स्त्री से ही

सुख मिलता है, यह काम सुख है । और इस दृष्टि से स्त्री

और पुरुष का साथ आना अनिवार्य भी बन जाता है । इस

अनिवार्यता को समाज की मान्यता, कानून की मान्यता

मिले ऐसी व्यवस्था की जाती है । यह मान्यता इसलिये

चाहिये कि दोनों फिर एक दूसरे को धोखा न दे । स्वसुरक्षा

की भावना से ही यह सम्बन्ध बनता है और इसलिये उसको

करार कहा जाता है । करार में दोनों पक्ष अपनेअपने सुख

की रक्षा करने की चिन्ता करते हैं । इस कारण से भारत में

कुटुम्ब भी नहीं बनता, समाज भी नहीं बनता | भारत में

विवाह का उद्देश्य केवल काम सुख नहीं है, काम सुख की

प्राप्ति नहीं है, विवाह का उद्देश्य परम्परा बनाना है, कुल

परम्परा बनाना है, वंश परम्परा बनाना है और इसलिये

कुटुम्ब के लिये, गृहस्थाश्रमी के लिये ऋणत्रय की कल्पना

की गयी है ।

सब से पहला ऋण है पितृक्रण । पतिपत्नी बन कर

रश्द

भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप

मातापिता बनना है । मातापिता बनने के लिये ही विवाह

किया जाता है, पतिपत्नी बना जाता है । मातापिता बन कर

बालक को जन्म देना यह सब से महत्त्वपूर्ण दायित्व है,

महत्वपूर्ण कर्तव्य है क्योंकि मातापिता के कारण से ही

हमारा जन्म हुआ है । यह पितुऋण से मुक्त होने का माध्यम

है । पूर्वजों की असंख्य पीढ़ियों की परम्परा हमारे जन्म से

आगे बढ़ी है । इसे आगे बढ़ाना हमारा कर्तव्य है । इसलिये

आगे की पीढ़ी की शुरूआत हम जिस बालक को जन्म

देंगे, उससे होगी इसलिये विवाह करना है ।

विवाह का दूसरा उद्देश्य संस्कृति की परम्परा

निभाना है । यह भी पितृ्रण से मुक्त होने का दूसरा प्रकार

है । गृहस्थाश्रमी के लिये दूसरा ऋण ऋषिकऋण है । हमारे

देश में ज्ञान की जो परम्परा बनी है, ज्ञान देने वालें जो

पूर्वज हैं, जिनको गुरु कहा जाता है, ऋषि कहा जाता है,

ज्ञानी कहा जाता है, उनसे हमें जो ज्ञान प्राप्त हुआ है,

संस्कार प्राप्त हुए हैं, जीवन की दृष्टि प्राप्त हुई है, जीवन की

पद्धति प्राप्त हुई है, हमारी समझ बनी हैं उससे रण मुक्त भी

बालक को जन्म देने से ही हुआ जाता है । इसलिये उनके

ज्ञान के परिणाम स्वरूप जो संस्कार संस्कृति, रीतिरिवाज,

परम्परायें हमारे तक पहुँची है उन्हें आगे तक पहुँचाने का

हमारा कर्तव्य बनता है, हमारा दायित्व बनता है ।

तीसरा कण है समाज ऋण - हम पूर्ण समाज के

अंगभूत घटक हैं । बिना समाज के हम अच्छा जीवन जी

ही नहीं सकते । इसलिये समाज के क्रण से मुक्त होने के

लिये भी गृहस्थाश्रमी को सिद्ध होना है । पतिपत्नी केवल

स्त्री पुरुष नहीं है, केवल पतिपत्नी भी नहीं है, वे गृहस्थ

और गृहिणी भी हैं और गृहस्थ और गृहिणी का सामाजिक

दायित्व होता है । इस सामाजिक दायित्व को ही लोककऋण

अथवा नृक्रण कहा गया है । इससे मुक्त होने के लिये

बालक को जन्म देना हैं । वैसे तो और भी एक रण की

कल्पना की गई है वह है भूतक्रूण । प्रकृति के प्रति जो

हमारा ऋण है वह अर्थात्‌ प्रकृति के बिना पंचमहाभूत,

वनस्पति, जगत, पशु, पक्षी, प्राणी आदि के बिना भी

हमारा जीवन सम्भव नहीं है । उनके हमारे पर अनन्त

उपकार हैं । उनके उपकारों के प्रति कृतज्ञता द्शनि के लिए

............. page-233 .............

पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा

इस भूत करण की कल्पना की गई है । यह निभाने के लिये

पतिपत्नी को गृहस्थ बनना है और गृहस्थ बनने के

साथसाथ मातापिता भी बनना है। इसलिये sere

सुदृढ़ीकरण में जो स्पष्टतायें की गई वे इस प्रकार हैं । (१)

पतिपत्नी का सम्बन्ध केवल शारीरिक या प्राणिक नहीं

अपितु आत्मिक है । (२) पतिपत्नी को एकात्म सम्बन्ध

विकसित करना है । (३) पतिपत्नी को गृहस्थ और गृहिणी

बनना है । गृहस्थ और गृहिणी मिलकर गृहस्थाश्रम बनता

है। चारों आश्रमों में गृहस्थाश्रम को श्रेष्ठ कहा गया है

इसका अर्थ है कि पति-पत्नी का जीवन केवल अपने में

सीमित नहीं है परन्तु अपने परिवार के केन्ट्ररूप बनकर

सम्पूर्ण परिवार की व्यवस्था निभाना, सम्पूर्ण परिवार के

प्रति अपना कर्तव्य निभाना है। यही पतिपत्नी की

गृहस्थाश्रमी बनने की शुरुआत है । (४) गृहस्थ और गृहिणी

केवल अपने परिवार के लिये नहीं होते । सम्पूर्ण परिवार

बनकर और मिलकर जो गृह बनता है उसका एक

सामाजिक दायित्व, सामाजिक कर्तव्य है, वह है

गृहस्थाश्रमी का समाज धर्म । पति-पत्नी को इस स्तर पर

भी गृहस्थ और गृहिणी बनना है। (५) पतिपत्नी को

मातापिता भी बनना है। सर्वप्रकार की परम्परायें बनाये

रखने के लिये और उनका संवर्धन करने के लिये पतिपत्नी

को मातापिता भी बनना है ।

परिवार व्यवस्था के सूत्र

इन पाँच बिन्दुओं को ध्यान में रखकर पतिपत्नी के

सम्बन्धों की व्याख्या की गयी है। उस व्याख्या को

चरितार्थ करने के लिये उनकी व्यवस्थायें भी सोची गई हैं ।

इन व्यवस्थाओं के कुछ मूल सूत्र इस प्रकार हैं :-

(१) कोई भी पारिवारिक या सांस्कृतिक कार्य पति

या पत्नी अकेले नहीं कर सकते । दोनों को मिलकर करना

है। यज्ञ करना है तो दोनों को करना है । कन्यादान दोनों

मिलकर ही दे सकते हैं । किसी प्रकार का दान भी दोनों

मिलकर ही दे सकते हैं । संकल्प दोनों का मिलकर ही

होता है । राजा का भी जब राज्याभिषेक होता है तो राजा

और रानी दोनों का ही होता है । केवल अकेले राजा का

२१७

नहीं होता । इस दृष्टि से सभी कार्यों में,

सभी अनुष्ठानों में पति और पत्नी साथ में ही रहते हैं कभी

भी अकेले नहीं रहते ।

(२) व्यवसाय भी पतिपत्नी साथ मिलकर ही करते

हैं ऐसी ही हमारी परम्परा रही है । व्यवसाय अथर्जिन का

और समाज सेवा का माध्यम है । यहाँ भी दोनों को साथ में

ही रहना है । इसलिये पति वैद्य है तो पत्नी भी वैद्य का

ज्ञान अर्जित करती है । दोनों साथ मिलकर व्यवसाय करते

हैं। जितनी भी कारिगरी हैं वह सभी कारिगरी पतिपत्नी

मिलकर ही करते हैं । इतना ही नहीं तो जब बच्चे होते हैं

तो वे भी इस व्यवसाय में शामिल होते हैं ।

(३) अथर्जिन कुटुम्ब के निर्वाह के लिये होता है ।

इस कुटुम्ब के संचालन में भी दोनों की एक साथ भूमिका

रहती है । अथार्जिन करने का मुख्य दायित्व यदि पति का है

तो प्राप्त किये हुए अर्थ का विनियोग करने का दायित्व

पत्नी का होता है और इस दृष्टि से परिवार संचालन यह

पत्नी का प्रमुख दायित्व बनता है । अर्थ का विनियोग करने

का उसका दायित्व और अधिकार दोनों उसी के पास है ।

(४) बालक के संगोपन में दोनों की समान भूमिका

बनती है । इस दृष्टि से दोनों साथ मिलकर ही जब करते हैं

तो एक दूसरे से स्वतन्त्रता का कहीं प्रश्न नहीं रहता । दोनों

स्वतन्त्र करियर बनायेंगे इसकी कभी भी परिवार जीवन में

कल्पना नहीं की जाती थी । ऐसी कल्पना आज की जाती

है और आज जब स्वतन्त्र व्यवसाय एक दूसरे के हो जाते

हैं तो अनेक प्रकार की विसंगतियाँ निर्माण होती हैं यह तो

हमारा सबका अनुभव है। इस दृष्टि से पतिपत्नी की

एकात्मता का व्यवहारिक स्वरूप क्या है इसका यहाँ हमने

चार या पाँच बिन्‍्दुओं में ही उल्लेख किया है । कुटुम्ब की

इस व्याख्या को प्रस्तुत करने के लिये, प्रतिष्ठित करने के

लिये, गुरुकुल ने इसे ग्रन्थ का स्वरूप दिया और गृहशास्त्र

ग्रन्थ की रचना की । गृहशास्त्र के तीन आयाम थे । परिवार

की रचना, परिवार की व्यवस्था और परिवार की भावना

परिवार की भावना सब्से प्रमुख तत्त्व है । परिवार भावना

का अर्थ होता आत्मीयता । भारतीय समाज में आत्मीयता

यह व्यवस्था और व्यवहार का आधारभूत सूत्र है ।

............. page-234 .............

आत्मीयता एक आधारभूत तत्त्व

आत्मीयता का अर्थ है अपनापन । अपनापन की

आधारभूत भावना प्रेम की होती है । प्रेम का व्यवहार,

स्वार्थ का त्याग और दूसरों का विचार पहले करना यही

होता है । सेवा और त्याग इसके प्रमुख लक्षण है । दूसरों

के लिये कष्ट करना यह भी स्वाभाविक कार्य है । इसलिये

परिवार भावना के सूत्र पर जब सामाजिक व्यवहार बनता है

तब लोग अपने से पहले दूसरों का विचार करते हैं । जब

लोग स्वाभाविक रूप से ऐसा करते हैं तब सबके सुरक्षा,

सम्मान और सबके अधिकार तथा आवश्यकताओं का

रक्षण अपने आप हो जाता है । लोग अधिकार की भाषा

नहीं बोलते, कर्तव्य की भाषा बोलते हैं इसलिये सुख और

सौजन्य यह बातें स्वभाविक बन जाती हैं । किसी को किसी

से अपनी रक्षा करने की आवश्यकता नहीं पड़ती । विश्वास

ही सम्बन्ध सूत्र बनता है और विश्वास के कारण से समाज

में शांति बनी रहती है और तनाव भी नहीं बढ़ता । एक

दूसरे के प्रति अविश्वास नहीं होने के कारण से संघर्ष और

हिंसा नहीं बढ़ते । छलकपट नहीं होता और इसी से समृद्धि,

शान्ति, सुख, स्नेह आदि में वृद्धि होती है। इसी को

सुसंस्कृत समाज कहा जाता है । ऐसा सुसंस्कृत समाज

बनाने के लिये आत्मीयता का सम्बन्ध बहुत आवश्यक है ।

भारत में परिवार भावना इस आत्मीयता की भावना ही है

और समाज जीवन के सभी व्यवहारों में आत्मीयता ही

आधारभूत तत्त्व है । भारत में बाजार भी चलता है तो इस

परिवार भावना के सूत्र को लेकर ही चलता है । व्यवसाय

किये जाते हैं उसी और प्रेरक तत्त्व से और राज्य व्यवस्था,

इसी तत्त्व को लेकर होती है । वाणिज्य व्यवस्था इसी भी

तत्त्व को लेकर होती है । कारीगरी भी इसी तत्त्व को लेकर

होती है । इसलिये भारत का समाज सुसंस्कृत समाज कहा

जाता है और इसका एक अत्यन्त व्यावहारिक परिणाम है

कि ऐसा समाज दीर्घजीवी बनता है । ऐसे समाज का नाश

नहीं होता और इतिहास साक्षी है कि भारत का नाश नहीं

हुआ है। यह आत्मीयता परिवार जीवन का सब से

महत्त्वपूर्ण पहलू है । पतिपत्नी की एकात्मता से प्रारम्भ

हुआ यह सम्बन्ध मातापिता और सन्तानों में विकसित होता

BI

भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप

है । इसलिये मातापिता का और सन्तानों का सम्बन्ध भी

एकात्म सम्बन्ध, आत्मीय सम्बन्ध है । पश्चिम की तरह

बच्चों का स्वतंत्र जीवन, स्वतंत्र सुख, स्वतंत्र रुचि, ऐसी

कल्पना यहाँ नहीं की गई है परन्तु पीढ़ियों की निरन्तरता में

अपने आप को व्यवस्थित करना यही सन्तानों से भी

अपेक्षा है । इसलिये माता-पिता के जीवन का विस्तार ही

सन्तति है । मातापिता का जो स्वभाव और जो गुण लक्षण

हैं वे भी सन्तति में उतरते हैं और माता-पिता का जो

सामाजिक दायित्व है वह विरासत उसकी सन्तानों को

मिलती है । पिता के यश का भागी पुत्र है । पिता के ऋण

का भी भागी पुत्र है । पिता यदि ऋण छोड़ कर गये हैं तो

पुत्र का स्वाभाविक कर्तव्य बनता है कि उस ऋण को

चुकाये । इस दृष्टि से एकात्मता के सम्बन्ध का विस्तार

माता-पिता और सन्तानों के सम्बन्ध में हुआ | इसका

अगला चरण है सहोदर सम्बन्ध । भाईबहनों में एकात्मता

एक ही मातापिता की सन्तान होने के कारण से बनती है ।

और एक ही विरासत के वे सभी समान रूप से भागी बनते

हैं । उनका समान रूप से अधिकार भी बनता है । भारत में

सम्पत्ति की व्यवस्था और विरासत के जो भी कानून या जो

भी नियम बनाये गये थे वे इस एक़ात्मता सिद्धान्त के

आधार पर ही बनते थे । सहोदरों में आत्मीयता इसका

विस्तार मित्रों में होता है । आगे चलकर इसका विस्तार

होते होते “वसुधैव कुट्म्बकम्‌ की भावना स्थापित होती है ।

श्रेष्ठ संस्कृति का लक्षण यह है कि भूत मात्र के प्रति

आत्मीय सम्बन्ध रखना हर मनुष्य का कर्तव्य माना गया

है । हर एक का उपकार मानना हर एक के प्रति कृतज्ञता

दर्शाना यही मनुष्य का परम कर्तव्य बताया गया है ।

गृहसंचालन के कार्य

परिवार व्यवस्था में दूसरा आयाम है गृह संचालन

परिवार में बहुत सारे काम होते हैं । परिवार बनाये रखने के

लिये, परिवार चलाने के लिये, अनेक प्रकार की

कुशलताओं की आवश्यकता होती हैं । इन कुशलताओं में

परिवार के सारे कामों का समावेश होता है । इसलिये शिक्षा

की व्यवस्था में कुटुम्ब जीवन की शिक्षा यह भी प्रमुख मुद्दा

............. page-235 .............

पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा

है। बाल शिक्षा में इसेमहत्त्वपूर्ण मुद्दा मानकर इसका

समावेश करने की आवश्यकता है । पूर्व में यह अपने आप

होती थी । परिवार भी शिक्षा और संस्कार का बहुत बडा

केन्द्र था । परिवार संस्कार देने का भी बहुत बडा केन्द्र

था । बालक की शिक्षा गर्भाधान के क्षण से ही शुरू हो

जाती है । यह शिक्षा तो अनिवार्य रूप से कुटुम्ब में ही दी

जाती है । माता और पिता मिलकर यह शिक्षा देते हैं ।

इसलिये माता को प्रथम और पिता को दूसरा गुरु कहा गया

है । चरित्र निर्माण का सारा दायित्व माता और पिता का ही

है । संस्कार देने का, कौशल सिखाने का दायित्व भी माता

और पिता का है । इसलिये परिवार चलाने के सारे के सारे

काम बालकों को सिखाना यह उनकी शिक्षा का प्रमुख

हिस्सा है । ये सभी काम अत्यंत छोटे से लेकर बहुत बड़े

तक हो सकते हैं । इसकी मोटीमोटी सूची इस प्रकार बन

सकती है ।

(१) व्यक्तिगत स्वच्छता के सारे काम । उदाहरण के

लिये सभी को स्नान करना, दाँत साफ करना, बाल ठीक

करना, वस्त्र साफ करना, ये सब सिखाया जाना चाहिये ।

यह व्यक्तिगत काम हुए परन्तु इसके आगे घर की सफाई

करना । उसमें भी वस्त्र धोना, बर्तन साफ करना, साजसज्जा

करना आदि सभी कामों का समावेश होता है । बालकों को

ये । अच्छी तरह से करना सिखाना चाहिये । उसमें उनकी

रूचि जागृत करनी चाहिये । ये काम करने में उनको आनन्द

आना चाहिये। यही शिक्षा का लक्षण है। यह काम

जबरदस्ती से किये जाते हैं या ये काम करना है ऐसी

भावना पनपती है । ऐसी भावना विकसित नहीं होनी

चाहिये । बल्कि अपना केवल कर्तव्य ही नहीं तो इन कामों

को करने में रुचि है, आनन्द है उत्साह है ऐसी शिक्षा देने

की आवश्यकता है । इससे भी एक महत्त्वपूर्ण काम है ।

खरीदी करना । वस्तुओं की गुणवत्ता की परख करना, इनके

उपयोग कुशलता पूर्वक करना, इनका अपव्यय नहीं करना,

यह सब बहुत ही आवश्यक काम है । आवश्यक गुण भी

है, यह सिखाना चाहिये । घर के सामान का रख-रखाव

करना, उनकी संभाल करना यह भी एक महत्त्वपूर्ण

कुशलता सिखाने की आवश्यकता है । भोजन बनाना और

रश१९

बालकों का संगोपन करना यह तो

कुटुम्ब के सर्वतोपरि महत्त्वपूर्ण और श्रेष्ठ काम हैं । अगर

हम मनुष्य जीवन के लिये उपयोगी, मनुष्य जीवन को उन्नत

बनाने वाले, मनुष्य जीवन को श्रेष्ठ बनाने वाले दस कामों

की सूची बनायें तो इसमें सब से ऊपर सब से प्रमुख काम

होगा बालकों का संगोपन करना और दूसरा काम होगा

भोजन बनाना क्योंकि बालकों के संगोपन से पीढ़ी निर्माण

होती है और भोजन से संस्कारों की सुरक्षा होती है । भोजन

से तो शरीर प्राण, मन, बुद्धि, चित्त सभी का पोषण होता है

इसलिये अन्न को हमने ब्रह्म कहा है और भोजन को पवित्र

कार्य बताया गया है । अतः भोजन बनाना, भोजन करना

और करवाना यह कुटुम्ब का महत्त्वपूर्ण काम है। सब

परिवार जनों को यह काम आना चाहिये । इसमें कुशलता

है, भावना है, और संस्कार भी है । बच्चों का संगोपन,

उनकी परिचर्या कैसे करना, उनको छोटे-छोटे काम कैसे

सिखाना, उनका चरित्र निर्माण कैसे करना, उनके गुणों का

विकास कैसे करना यह सारी बातें अच्छी तरह से सीखने

योग्य है और यह सिखाना बालकों की शिक्षा का महत्त्वपूर्ण

हिस्सा है । परिवार में अतिथि सत्कार करना यह समाज से

जुड़ने का सबसे प्रमुख माध्यम है इसलिये घर के सभी

लोगों को अतिथि सत्कार भी आना चाहिये । सामाजिक

कर्तव्य, समाज की सेवा करना, व्यवसाय का चयन करना

भी समाज सेवा की दृष्टि से ही होना चाहिये । इस व्यवसाय

के लिये कुशलतायें अर्जित करना यह भी परिवार में ही

होता है । सामाजिक कर्तव्य जैसे दान करना, यज्ञ करना

आदि भी आना चाहिये ।

कुटुम्ब शिक्षा के पाठ्यक्रम

घर में संस्कार का एक आयाम है पूजा करना ।

SAA FI AMAA कुल देवता की पूजा करना

उनसे और अपने कुल धर्म से सम्बन्धित व्रत, पर्व, उत्सव,

त्योहार मनाने की विधि क्या है यह भी आना चाहिये । इस

प्रकार कुटुम्ब जीवन को केन्द्र बनाते हुए अनेक प्रकार की

कुशलतायें अर्जित करना यह कुटुम्ब व्यवस्था का, कुटुम्ब

जीवन का एक महत्त्वपूर्ण भाग है । परिवार की ca ae

............. page-236 .............

तीसरा अंग है। परिवार की cat

सम्बन्धों से होती है । यह सम्बन्ध पति-पत्नी से शुरू होता

है और सहोदरों तक और बाद में चाचा, मामा, बुआ,

मौसी इत्यादि के रूप में इनका विस्तार होता रहता है । यह

Fed IS Hers है, इसकी रचना क्या है, रचना में अपना

स्थान क्या है, अपने उस स्थान के अनुसार अपने दायित्व

क्या बनते हैं, इसकी शिक्षा यह कुटुम्ब शिक्षा का एक

अहम मुद्दा है । इस शिक्षा की भी व्यवस्था होनी चाहिये ।

इस प्रकार विद्यापीठ ने परिवार जीवन को व्याख्यायित करने

का प्रथम प्रयास किया । इसका ग्रन्थ बना गृहशास्त्र । इसके

छोटेछोटे हिस्से बनाये गये और इनकों व्यापक रूप में

प्रसारित करने की योजना भी बनी । कुटुम्ब जीवन प्रारम्भ

करने के लिये व्यवस्थित शिक्षा देने की आवश्यकता है ।

इसका अनुभव कर गृहशास्त्र के आधार पर छोटे-छोटे

पाठ्यक्रम भी बनाये गये । ये पाठ्यक्रम इस प्रकार थे ।

(१) सब से पहला था वर-वधु चयन और विवाह

संस्कार । इस पाठ्यक्रम की जो विषय वस्तु थी वह इस

प्रकार है ।

१, अच्छा वर और अच्छी वधू कैसे कैसे बना

जाता है इसकी शिक्षा देना । यह माता-पिता

का कर्तव्य है कि वे अपने पुत्र को अच्छा वर

बनाने के प्रयास करें । अपनी पुत्री को अच्छी

वधू बनाने का प्रयत्न करें ।

२. कौन से अच्छे वर के लिये कौन सी वधू

कौनसी वधू के लिये कौन सा अच्छा वर

सुयोग्य है, इसका विचार करना ।

३. विवाह के लक्षण क्‍या है, विवाह का उद्देश्य

क्या है, विवाह का प्रयोजन क्या है, विवाह का

स्वरूप क्या है यह जानना ।

४. विवाह विधि, मन्त्रों का उच्चारण, उनका अर्थ,

उनके. निहितार्थ यह समझाना । इसप्रकार

गृहस्थाश्रमी के कर्तव्य कया हैं यह मुदूदा इसमें

समविष्ट था । गृहस्थाश्रमी, राष्ट्र जीवन में और

विश्वजीवन में अपना योगदान कैसे दे सकता है

यह उसका अगला हिस्सा था । इस प्रकार से

२२०

भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप

*वर-वधु चयन और विवाहसंस्कार' बनाया

गया और इसको सिखाने की व्यवस्था और

स्थान-स्थान पर इसको सिखानेवाले शिक्षकों

का भी निर्माण हुआ ।

(२) दूसरा पाठ्यक्रम, “समर्थ बालक के समर्थ

मातपिता' कैसे बना जाता है ।

(३) तीसरा था गृहस्थाश्रमी का समाज धर्म । इसका

भी एक पाठ्यक्रम बनाया गया । इस में छोटे-छोटे काम

कैसे किये जाते हैं । इसका विशेष रूप से समावेश था ।

व्यवसाय का चयन करना, व्यवसाय के प्रकार, उन में से

हानिकारक, लाभकारी एवं उपयोगी हैं, यह समझना और

उसके आधार पर अधथर्जिन की प्रवृत्ति करना, व्यवसाय का

चयन करना यह भी गृहस्थाश्रमी के समाजधर्म का एक

महत्वपूर्ण हिस्सा था ।

(४) चौथा था समाज जीवन की व्यवस्थायें । इन

व्यवस्थाओं में राज्य व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था, समाज

व्यवस्था आदि का सांस्कृतिक स्वरूप क्या हैं इसका

निरूपण इसका हिस्सा था । एक परिवार अपने कर्तव्य कैसे

निभा सकता है इसको सिखाने की व्यवस्था की गई ।

गुरुकुल के लोगों को यह आशंका थी की इन पाठ्यक्रमों

के लिये लोग नहीं आयेंगे क्योंकि इसमें अथर्जिन की

व्यवस्था नहीं थी, इसका कोई प्रमाणपत्र मिलने वाला नहीं

था । इसमें नौकरी मिलने की कोई संभावना नहीं oft |

इसलिये आज के व्यस्त जीवन में से कौन इन पाठ्यक्रमों

के लिये आयेगा ऐसी आशंकायें बनती थी । परन्तु आश्चर्य

यह था कि लोगों ने इसका बहुत स्वागत किया जैसे वर-

वधू चयन और विवाह संस्कार के लिये अनेक युवक-

युवतियाँ आगे आये । इसकी प्रस्तावना के रूप में अनेक

महाविद्यालयों के प्रधानाचार्य ने अपने छात्रों के लिये इस

विषय के मार्गदर्शन की व्यवस्था की । इसलिये गुरुकुल के

लोग तो बहुत व्यस्त हो गये । स्थान-स्थान पर उन्हें

बुलाया जाता था और अपने युवा छात्रों का मार्गदर्शन करने

के लिये उनसे निवेदन किया जाता था । छात्रों में भी इसको

लेकर बहुत जिज्ञासायें थीं । यह सर्वसामान्य प्रतिभाव ऐसा

था कि इन बातों पर विचार ही कभी नहीं सुनने को मिलें

............. page-237 .............

पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा

हैं। इन बातों का भी विचार करना होता हैं इसकी कल्पना शिशु के जन्म के साथ ही

तक युवाओं को नहीं है । इस दृष्टि से युवाओं ने इसका... सभीको अपनी-अपनी भूमिका प्राप्त होती है । जब तक

बहुत हृदयपूर्वक स्वागत किया । इसलिये इनके शिक्षकों के. शिशु का जन्म नहीं होता माता-पिता केवल पति-पत्नी होते

निर्माणकी व्यवस्था करनी पड़ी । अनेक प्राध्यापकों को... हैं, जन्म के साथ ही माता-पिता बनते हैं । उसी प्रकार शिशु

*वरवधू चयन और विवाहसंस्कार' इस पाठ्यक्रम के... के जन्म के साथ ही चाचा, बुआ, दादा, दादी आदि का भी

शिक्षक बनने हेतु प्रशिक्षण की व्यवस्था भी की गई । इसमें. जन्म होता है । उन सबको नई भूमिका प्राप्त होती है । नई

योगाचार्य आयुर्वेदाचार्य, ज्योतिषाचार्य, धर्माचार्य आदि... भूमिका के साथ नया दायित्व भी प्राप्त होता है । इसलिये

सभी के सहयोग की भी आवश्यकता निर्माण हुई और उन... केवल माता-पिता को ही नहीं तो पूरे कुटुम्ब को बालक के

लोगों ने भी बहुत उत्साह से इसमें सहयोग किया । इसका... प्रति अपना जो दायित्व है उसे निभाना सीखना चाहिये ।

बहुत बड़ा शास्त्र भी बना । बहुत बडा मार्गदर्शक साहित्य अभिभावक शिक्षा के चरण बालक की आयु के

भी निर्माण हुआ और इस साहित्य के वितरण में अनेक... अनुसार हो सकते हैं । जैसे जैसे बालक बड़ा होता जाता

लोगों ने सहयोग किया । इससे भी अधिक जब इच्छित... है, माता-पिता भी बड़े होते जाते हैं उस दौरान यदि दूसरे

सन्तान को, अर्थात पुत्र या पुत्री नहीं, गुण की दृष्टि से, बालक का जन्म होता है तो सीखी हुई बातों का पुनरावर्तन

कौशल की दृष्टि से, ज्ञान एवं संस्कार की दृष्टि से हम जैसा... होता है जिससे अनुभव बढ़ता है । इन्हें अनुभवी माता-

बालक चाहते हैं वैसे बालक को जन्म दे सकते हैं इस सूत्र. पिता कहते हैं ।

को पकड़ कर जब प्रबोधन किया गया तो सन्तान इच्छुक मुख्य रूप से माता-पिता की और उनके साथ-साथ

दम्पतियों ने इसको बहुत अच्छा प्रतिसाद दिया । घर के अन्य लोगों की शिक्षा के चरण इस प्रकार हैं

इसकी भी एक व्यवस्थित योजना बनी । समर्थ

बालक के समर्थ माता-पिता, ऐसा इस पाठ्यक्रम का नाम माता-पिता बनने की पूर्वतैयारी

था और इसके भी व्यवस्थित विद्यालय शुरु हुए। ये वैसे तो इसका बहुत बडा हिस्सा गर्भावस्‍था की और

विद्यालय कुटुम्ब विद्यालय के नाम से ही प्रसिद्ध हुए ।.. शिशुअवस्था की शिक्षा के अन्तर्गत आ गया है फिर भी

कुटुम्ब विद्यालय भी स्थान-स्थान पर स्थापित होने लगे ।.... यहाँ कुछ बातों का निर्देश आवश्यक है। कहीं कहीं

इनके छात्र युवा दम्पति थे । और ऐसा लगने लगा ऐसा... पुनरावर्तन हो सकता है परन्तु उसे टालने का प्रयास अवश्य

आभास हुआ कि लोग तो अच्छे बालक चाहते ही हैं, . रहेगा ।

लोग तो अच्छे घर चाहते ही हैं । आजकल मातापिता बनने की क्रिया और प्रक्रिया को

आयुर्विज्ञान अर्थात्‌ चिकित्साशास्त्र की दृष्टि से ही देखा

जाता है। आयुर्विज्ञान सम्पूर्ण जीवन विज्ञान का एक

अभिभावक का अर्थ है बालक का संगोपन करने... महत्त्वपूर्ण हिस्सा भले ही हो परंतु एक छोटा हिस्सा है ।

वाले, उसकी देखभाल और सुरक्षा करने वाले, उसे प्रेरणा... माता-पिता बनने को सांस्कृतिक दृष्टि से देखा जाना

और संस्कार देने वाले तथा उसका सर्व प्रकार से हित... चाहिये । माता-पिता को चाहिये कि वे अपने आपको

चाहने वाले वे सभी लोग जो उसके आसपास रहते हैं ।... संस्कृति के वाहक के रूप में प्रस्तुत करें और तैयार करें ।

उनमें प्रमुख और केन्द्रवर्ती स्थान पर हैं माता-पिता, साथ इससे तात्पर्य क्या है ? संस्कृति का व्यावहारिक

में हैं दादा -दादी, चाचा, बुआ और सारे कुट्म्बीजन जो... केन्द्र है घर । घर में संस्कृति पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परा बनकर

घर में रहते हैं । घर के बालक के विकास में इन सबकी... उतर आती है । माता-पिता को उसे ग्रहण कर अगली पीढ़ी

भूमिका रहती है और वह बहुत महत्त्वपूर्ण होती है । अर्थात्‌ अपने बालक को देना है । अतः माता-पिता को

समग्र विकास प्रतिमान हेतु अभिभावक शिक्षा

BWW

............. page-238 .............

जो शिक्षा ग्रहण करनी है वह कुछ इस

प्रकार की है...

अपने पूर्वजों का, अपने कुल का, अपने घर का

इतिहास जानना और अपने आपको उसके साथ जोड़ना ।

होने वाली माता के लिये यह विशेष रूप से आवश्यक है

क्योंकि वह दूसरे कुटुम्ब से इस Herat में आई है । उसे

अपने पितृ कुल का इतिहास तो मालूम है परन्तु पति कुल

का मालूम करना है । इससे वह अपने पति के कुल के साथ

जुड़ेगी । आजकल लड़कियाँ अपने पति के साथ जुड़ती हैं,

पति के परिवारजनों के साथ नहीं । आत्मीयता के सम्बन्ध

अपने मायके के लोगों के साथ ही होते हैं । अब तो वे

अपने नाम के साथ मायके का और बाद में पति का

कुलनाम भी जोड़ने लगी हैं । उन्हें लगता है कि यह उनके

स्वतन्त्र व्यक्तित्व की पहचान है । परन्तु इसका परिणाम तो

विभाजित व्यक्तित्व ही है । ऐसे विभाजित व्यक्तित्व से

एकात्म सम्बन्ध कभी नहीं बनते । अतः अपने कुल, गोत्र,

पूर्वज, कुट्म्बीजन आदि के विषय में जानकारी प्राप्त कर

लेना और उन सबसे भावात्मक रूप से जुड़ना आवश्यक है ।

पति को तो यह सब पहले से ही अवगत होना अपेक्षित है ।

यदि नहीं है तो उसे भी इसकी शिक्षा प्राप्त कर लेनी चाहिये ।

पत्नी अपने पति से अथवा पति-पत्नी दोनों कुटुम्ब के

वृद्धजनों से ऐसी शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं ।

संस्कार एवं संस्कार प्रक्रिया के सम्बन्ध में जानना

ब्रह्माण्ड में जो जीव है वे अपने लायक माता-पिता

की खोज में रहते हैं । जैसे ही वे अपने लायक माता-पिता

को देखते हैं वे गर्भ के रूप में माता की कोख में प्रवेश

करते हैं, पलते हैं और जन्म लेते हैं । माता-पिता यदि

अच्छे हैं तो वे अच्छे जीव को आकर्षित करेंगे, यदि

साधारण हैं तो साधारण जीव को । सन्तान ही माता-पिता

का चयन करती है । इसलिये हर माता-पिता को अपनी

सिद्धता कर लेनी चाहिये । हमें यदि अच्छी सन्तान चाहिय

तो उसके लायक बनना यही मातापिता की शिक्षा है ।

बालक अपने साथ संस्कार लेकर आता है । वह,

जैसा आजकल कहा जाता है, कोरी स्लेट नहीं होता । जो

BRR

भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप

संस्कार वह लेकर आता है उनमें पूर्वजन्म के संस्कार प्रमुख

हैं । माता-पिता के अपने चरित्र के संस्कार और बालक के

पूर्वजन्म के संस्कारों का मेल होकर ही बालक माता की

कोख में आता है । अतः एक है पूर्वजन्म के संस्कार ।

दूसरे हैं मातापिता के माध्यम से आनुवंशिक संस्कार । पिता

की चौदह पीढ़ियों के और माता की पाँच पीछ़ियों के

संस्कार गर्भाधान के समय ही माता-पिता के माध्यम से

बालक में उतरते हैं । अतः अब वह जितना अपने पूर्वजन्म

के साथ जुड़ा है उतना ही अपने कुल के साथ, अपने

पूर्वजों के साथ भी जुड़ जाता है । यह जुड़ाव कभी मिटता

नहीं, प्रयास करने पर भी मिटता नहीं । तीसरे होते हैं

संस्कृति के संस्कार जो पूर्वजों एवं माता-पिता के माध्यम

से ही उतरकर आते हैं । ये तीनों प्रकार के संस्कार तो

गर्भाधान के साथ ही उसके पिंड का हिस्सा बन जाते हैं ।

जन्म के बाद होते हैं वातावरण के संस्कार । ये बाह्य जगत

के संस्कार हैं । वे भी प्रभावी अवश्य हैं परन्तु पूर्व के तीन

अधिक प्रभावी हैं ।

आज की जो स्थिति है उसमें इन संस्कारों के सन्दर्भ

में कुछ अधिक चिन्ता करने की आवश्यकता है ।

०. हम देखते हैं कि आज लोग एकदूसरे का विश्वास

नहीं करते, किसी की किसी में श्रद्धा नहीं है, कोई

किसी के लिये आदर का पात्र नहीं है, सारे सम्बन्ध

स्वार्थ प्रेरित हो गये हैं । ऐसा समाज सुखी नहीं हो

सकता । ऐसे समाज में शान्ति और सुरक्षा हो नहीं

सकती । इस स्थिति का मूल कहाँ है ? यदि पति-

पत्नी ही एकदूसरे के साथ एकात्म सम्बन्ध से जुड़ेंगे

नहीं तो श्रद्धा और विश्वास का जन्म होगा ही नहीं ।

माता-पिता. और सन्तानों में एकत्व की भावना

पनपेगी ही नहीं ।

हम देखते हैं कि कोई बालक जन्म से ही स्वर और

ताल की समझ लेकर आता है । यह समझ कहाँ से

आती है ? या तो पूर्वजन्म से अथवा अपने किसी

पूर्वज से । इसी प्रकार दुर्गुण भी पूर्वजन्म से या पूर्वज

से आते हैं । माता-पिता कितने भी अच्छे हों तो भी

इस दुर्गुण को रोक नहीं सकते ।

............. page-239 .............

पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा

हम देखते हैं कि मातापिता कितनी भी साधना करते

हों, कितना भी पवित्र जीवन जीते हों तो भी उनके

घर में दुश्चरित्र बालक का जन्म होता है । विश्व में

ऐसे अनेक महापुरुषों के भी उदाहरण मिलेंगे जिनकी

सन्तति दुर्गति की ओर ही गई है । सामान्य जनों में

भी हम देखते हैं कि माता-पिताने अपने बच्चों की

पढ़ाई के लिये बहुत कष्ट किये हैं परन्तु बच्चों में न

उनके प्रति कृतज्ञता है, न उनके प्रति आदर । न उनमें

वृद्धि है, न कार्यकुशलता, न सदूगुण । वे सर्वथा

निठछ्ले होते हैं। दूसरी ओर गरीब, दुराचारी माता-

पिता के घर में भी संस्कारवान, कर्तृत्ववान, बुद्धिमान

बच्चों का जन्म होता है। इसका मूल कहाँ है ?

इसका मूल एक तो पूर्वजों में है । दूसरा इस बात में

है कि शिक्षा, पैसा, सुविधा आदि का संस्कार के

साथ कोई सम्बन्ध नहीं । संस्कार का सम्बन्ध

आन्तरिक भाव कैसा है, इसके साथ है ।

कभी-कभी प्रश्न उठ सकता है कि माता-पिता सर्व

प्रकार के प्रयास करें तो भी राम, कृष्ण, शिवाजी,

याज्ञवल्क्य, राणा प्रताप, झाँसी रानी को क्यों जन्म

नहीं दे सकते ? इसका खुलासा भी पूर्वजों की पिता

की चौदह और माता की पाँच पीछ़ियों में है । पति-

पत्नी के वश में अपने पूर्वज तो नहीं हैं ।

गर्भावस्‍था में बालक मातृज भाव और पितृज भाव

ग्रहण करता है । शरीर का रूप रंग तो वह दोनों से

ग्रहण करता है यह तो साधारण बात है परन्तु

भावनायें, कुशलतायें एवं स्वभाव के लक्षण भी ग्रहण

करता है । अब तो आयुर्विज्ञान मानने लगा है कि

कुछ बिमारियाँ भी माता-पिता से प्राप्त होती हैं ।

अर्थात्‌ माता और पिता के गुण और दोष बालक

विरासत में प्राप्त करता है । ये भी संस्कार हैं । अतः

बालक अपनी ओर से विरासत में क्या प्राप्त करे और

क्या न करे इसकी चिन्ता माता-पिता को करनी

चाहिये और उसके अनुसार अपने स्वभाव और

व्यवहार में परिवर्तन करना चाहिये ।

इस अवस्था की शिक्षा केवल पुस्तक पढ़ने की

RR’

शिक्षा. नहीं होती ।

व्यावहारिक शिक्षा होती है । अतः पति और पत्नी ने

किसी न किसी का शिष्यत्व ग्रहण करना चाहिये ।

जिसका शिष्यत्व ग्रहण करे वह आप्तजन होना

चाहिये । “यह मेरा कभी भी अहित नहीं सोचेगा,

सदैव मेरा भला चाहेगा और सही मार्गदर्शन करने में

समर्थ है' ऐसी श्रद्धा जिसके प्रति है उसे आप्तजन

मानना चाहिये । सामान्य रूप से गर्भिणी की माता,

सास, बड़ी बहन, अनुभवी सखी, संन्यासिनी, साध्वी

आदि को आप्तजन मानना चाहिये । उसी प्रकार पति

के लिये माता-पिता, बडे भाई-भाभी, बडे बहन-

बहनोई, अनुभवी मित्र और मित्रपत्नी को आप्तजन

मानना चाहिये । इनके परामर्श के अनुसार खान-

पान, सोना-जागना, उठना-बैठना, आराम-व्यायाम,

आनन्द-प्रमोद, स्वाध्याय-सत्संग, वेशभूषा आदि

बातों का व्यवहार करना चाहिये । इन सबके कुछ

सामान्य नियम होते हैं परन्तु इनकी शिक्षा तो

व्यक्तिगत ही होती है क्योंकि इन नियमों को केवल

जानना आवश्यक नहीं है, जानकर मानना और

मानकर आचरण में लाना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है ।

नियम आचरण में आ सर्के इस दृष्टि से सम्हालने

वाला और करवा लेने वाला हर घर में कोई

चाहिये । वह आप्तजन है और यही आसप्तजन से प्राप्त

शिक्षा है ।

सगर्भावस्था में पिता की भूमिका सुरक्षात्मक है । माता

और बालक के प्रति सुरक्षा का भाव होना नितान्त

आवश्यक है । सीमन्तोन्नयन संस्कार उसी दृष्टि से

किये जाते हैं । साथ ही आने वाला बालक पिता पर

गर्व कर सके ऐसा चरित्र का सामर्थ्य प्राप्त करना भी

उसका दायित्व बनता है । यह सामर्थ्य कैसे प्राप्त होता

है ? कुछ तो स्वभावगत होता है, कुछ वंशगत होता

है, शेष पुरुषार्थ से प्राप्त करना होता है । इस दृष्टि से

ज्ञानवान होना आवश्यक है । उससे भी अधिक

गुणवान होना आवश्यक है । सेवाभावी होना,

परोपकारी होना, प्रामाणिक होना, दूसरों के धन या

............. page-240 .............

स्त्री के प्रति कुदृष्टि नहीं करना, भौतिक

पदार्थों के या प्रतिष्ठा के आकर्षणों में फैंसकर अन्याय

या अत्याचारपूर्ण आचरण नहीं करना चरित्र के लक्षण

है। ऐसे चरित्र के लक्षण जिसमें हैं उसमें शास््रज्ञान

नहीं है या पैसा अधिक नहीं है तो भी बालक को

कोई फरक नहीं पड़ता । इसी कारण से तो निर्धन और

आज की भाषा में जिन्हें अशिक्षित कहते हैं उनके घरों

में गुणवान बालकों का जन्म होता है । पिता ने अपने

आपको इसके लायक बनाना है ।

आज प्रश्न यह उठता है कि माता-पिता दोनों ही

उच्चशिक्षित हैं तो वे नौकरी अथवा व्यवसाय करते हैं । ऐसे

व्यवसाय या नौकरी में उनका इतना अधिक समय जाता है

कि वे अपने लिये, अपनी पत्नी या अपने पति के लिये या

अपने आने वाले बालक के लिये समय ही नहीं निकाल

पाते । वे केवल शारीरिक रूप से ही व्यस्त रहते हैं ऐसा नहीं

है, मानसिक और बौद्धिक रूप से भी उतने ही व्यस्त रहते

हैं । कहीं-कहीं तो समाज सेवा के नाम पर भी व्यस्त रहते

हैं। ऐसे माता-पिता समर्थ माता-पिता नहीं बन सकते ।

समर्थ तो क्या, योग्य माता-पिता भी नहीं बन सकते । इसमें

शारीरिक रूप से व्यवसाय में व्यस्त होने की बात तो समझ

में आती है । कभी-कभी अर्थाजन की विवशता हो जाती

है । परन्तु ऐसे में भी मानसिक रूप से एकदूसरे के साथ और

बालक के साथ होना यदि सम्भव हुआ तो यह कमी भर

जाती है । परन्तु वह वास्तव में विवशता होनी चाहिये, धन

के या काम के आकर्षण से यदि व्यस्तता होती है तो उसका

सन्देश बालक तक अवश्य पहुँचता है ।

अतः एक अच्छे बालक को जन्म देकर संस्कृति की

परम्परा का जतन करना है, परम्परा की शृंखला को आगे

बढाना है तो अपनी व्यक्तिगत रुचियों को, इन्द्रियों के

आकर्षणों को, बाहरी दबावों को एक ओर रखकर बालक

केन्द्रित बनना होगा । बालक केन्द्रित होते हैं तभी तो वे

माता-पिता होते हैं अन्यथा या तो पति-पत्नी होते हैं या तो

कोई व्यावसायिक स्त्री या पुरुष होते हैं ।

कोई कह सकता है कि संस्कृति, परम्परा, परोपकार,

चरित्र आदि बातों को हम नहीं मानते । हम ऐसा करना नहीं

RRS

भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप

चाहते । आज के जमाने में यह सब होना सम्भव नहीं है,

और यदि व्यक्तिगत रूप से सम्भव हो भी गया तो जमाने पर

उसका प्रभाव होने वाला नहीं है। हम ही अकेले पड़

जायेंगे । हम यह सब करना नहीं चाहते ।

ऐसा कहने वाले युवक-युवतियों की संख्या अधिक

है । सुनने, जानने, मानने वालों की संख्या छोटी है । ऐसे में

कया किया जाय ?

परम्परा का अज्ञान

वास्तव में आज की विषमता ही यह है । भारत के ही

लोग भारतीय परम्परा के प्रति आस्थावान नहीं हैं और न

उन्हें उस परम्परा का ज्ञान है । परन्तु तटस्थता से देखेंगे तो

ध्यान में आयेगा कि इसमें इनका दोष नहीं है । विगत दस

पीढ़ियों से हमारी शिक्षा व्यवस्था ही ऐसी हो गई है जिसमें

भारतीयता का ज्ञान या भारतीयता के प्रति आस्था या गौरव

का भाव सिखाया ही नहीं जाता । हम भारत के विषय में

यूरोप और अमेरिका के अभिप्रायों को ही जानते हैं । देश

उसी ज्ञान और दृष्टि के आधार पर चल रहा है । हमारे विषय

से सम्बन्धित है ऐसी दो बातों की हम विशेष चर्चा करेंगे ।

एक है व्यक्तिकेन्द्रित उपभोग परायण जीवनदृष्टि और दूसरी है

पुनर्जन्म और जन्मजन्मान्तर के विषय में सम्श्रम । पहली

बात के अनुसार हर व्यक्ति केवल अपने लिये जीना ही

अपना कार्य समझता है। अपने जीवन का लक्ष्य भी

कामनाओं की पूर्ति को मानता है । कामनाओं की पूर्ति के

लिये उपभोग परायण बनता है । उपभोग के पदार्थों की प्राप्ति

के लिये अर्थाजन करते हैं । अर्थाजन हेतु दिन-रात खपते

हैं । यह तो उनकी अपनी व्यक्तिगत बात हुई । परन्तु अपनी

कामनाओं की पूर्ति कि लिये उन्हें अन्य मनुष्यों तथा सृष्टि के

अन्य घटकों पर भी निर्भर रहना पड़ता है । तब वे सब मेरे

लिये ही हैं और मैं उन सबका मेरे सुख के लिये किस प्रकार

उपयोग कर सकूँ इसी फिराक में वे रहते हैं ।

उनका पुनर्जन्म पर विश्वास नहीं इसलिये कर्म,

कर्मफल, सुख-दुःख, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक आदि पर भी

विश्वास नहीं । इस जन्म का ही विचार करना है तो दूसरों का

विचार करने की क्या आवश्यकता है ? सत्कर्म आदि करने

............. page-241 .............

पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा

से क्या लाभ ? उल्टे हानि ही है । दूसरों की चिन्ता मुझे

क्यों करनी चाहिये ? सब अपनी-अपनी चिन्ता कर लेंगे ।

कोई दुःखी है, कोई रोगी है, कोई दरिद्र है, कोई भूखा है तो

मुझे उससे कया लेना देना ? बौद्धिक स्तर पर वे मानते हैं कि

उनका कोई दायित्व बनता ही नहीं है ।

भारत का युवक इन दोनों बातों में आत्यन्तिक भूमिका

नहीं ले सकता है क्योंकि हजारों पीढ़ियों के संस्कृति के

संस्कार उसके अन्तर्मन में होते हैं परन्तु दस पीढ़ियों के

विपरीत संस्कारों के नीचे वे दबे पड़े हैं। वर्तमान

जीवनशैली, आज की शिक्षा और संस्कार व्यवस्था के

अनुसार चलती है और अन्तर्मन की प्रेरणा कुछ और रहती

है । इसलिये वह आधा यह आधा वह ऐसा जीता है । एक

आन्तरिक संघर्ष प्रच्छन्न रूप से उसके अन्तःकरण में चलता

ही रहता है । इसके परिणाम स्वरूप छोटी-मोटी अनेक बातों

में वह जानता कुछ अलग है, मानता कुछ अलग है और

करता कुछ तीसरा ही है । ज्ञान, अज्ञान और मिध्याज्ञान की

चक्की में वह पिसता रहता है । उसे कोई बताने वाला न

मिले तो वह आराम से अभारतीय जीवनशैली अपनाकर ही

जीता है । कोई बताने वाला मिले तो वह उसका विरोध

करता है क्योंकि जीवनशैली छोड़ना या बदलना उसके लिये

यदि असम्भव न भी हो तो भी कठिन होता है । विपरीत

ज्ञान के कारण वह तर्क करके विरोध करता है और मानसिक

दुर्बलता के कारण अव्यावहारिकता के बहाने बनाता है,

परन्तु उसका आन्तह्वन्द्र तो शुरु हो ही जाता है । इन सब

कारणों से भारतीय संस्कृति के अनुसार मात-पिता बनना

उसके लिये बहुत कठिन है यह बात तो ठीक है, परन्तु कहीं

से प्रारम्भ तो करना ही पड़ेगा । आज की तुलना में कम

शिक्षित पति-पत्नी के लिये मातापिता बनना इतना कठिन

नहीं है जितना सुशिक्षित और उच्चशिक्षित पति-पत्नी के

लिये । इस कथन का तात्पर्य तो आप अब समझ ही गये

होंगे ।

माता बालक की प्रथम गुरु

संस्कार देने लायक माता-पिता बनें इसके बाद शिशु

संगोपन का विषय आता है जो सीखना होता है । फिर एक

र२५

बार संगोपन केवल शारीरिक स्तर पर

नहीं होता, भावात्मक स्तर अधिक महत्त्वपूर्ण होता है । यह

बात सही है कि बालक छोटा होता है तब माता की ही

भूमिका अधिक महत्त्वपूर्ण होती है । शास्त्रों ने कहा ही है कि

बालक के लिये माता प्रथम गुरु होती है । इस कथन के

अनुसार हर माता को गुरु बनना सीखना है । गुरु बनने का

महत्त्व बताने वाला एक श्लोक है -

उपाध्यायान्‌ द्शाचार्य: आचार्याणां शतं पिता ।

सहसं तु पितुन माता गौरवेणातिरिच्यते ।।

अर्थात्‌

एक उपाध्याय से आचार्य द्श गुना अधिक श्रेष्ठ है,

एक आचार्य से पिता सौ गुना अधिक गौरवमय है और एक

पिता से माता सहस्रगुना अधिक गौरवमयी है ।

गौरव शब्द ही गुरु से बना है । सुभाषित कहता है कि

माता जैसा कोई गुरु नहीं । अतः अपने बालक का गुरु

बनना हर माता का दायित्व है ।

गुरु सिखाता है, गुरु ज्ञान देता है, गुरु चरित्रनिर्माण

करता है, गुरु जीवन गढ़ता है । माता को यह सब करना है ।

इस बात का ज्ञान नहीं होने के कारण आज की मातायें

चसित्र-निर्माण, ज्ञान, जीवन गढ़ना आदि बातों से अनभिज्ञ

होती हैं इसलिये जानती ही नहीं कि क्या करना और क्या

नहीं करना ।

माता यदि मातृभाव से परिपूर्ण है तो उसका प्रभाव

टी.वी, से या बाहर के किसी भी अन्य आकर्षणों से अधिक

होता है । आजकल हम एक शिकायत हमेशा सुनते हैं कि

बच्चे टी.वी. और इण्टरनेट के कारण बिगड़ जाते हैं । इसका

मूल कारण माता और पिता का गुरुत्व कम हो गया है, यह

है । उनका प्रभाव न संस्कार देने में है, न टी.वी. आदि से

परावृत करने में । और एक शिकायत भी सुनने को मिलती

है कि आजकल बच्चे माता-पिता का या बडों का कहना

नहीं मानते हैं । इसका भी मूल कारण माता-पिता या बड़े

अपना गुरुत्व और बडप्पन बनाये नहीं रखते हैं, यही है ।

सारांश यह है कि माता को गुरु बनना सीखना है ।

परन्तु सीखना याने क्या करना ?

2.) बालक के सामने अन्य सभी बातों को गौण मानना ।