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== कुटुम्ब कैसे बनता है? ==
 
== कुटुम्ब कैसे बनता है? ==
कुटुम्ब जीवन का केन्द्रबिन्दु है - पति और पत्नी। पतिपत्नी को जोड़ने वाला विवाह संस्कार होता है । एक सर्वथा अपरिचित पुरुष और सर्वथा अपरिचित स्त्री विवाह संस्कार से जुड़कर पतिपत्नी बनते हैं और अब वे अपरिचित नहीं परन्तु परम परिचित जैसे बनते हैं । ये दो नहीं रहते एक बनते हैं । इसलिये पतिपत्नी की एकात्मता यह कुटुम्ब जीवन का केन्द्र बिन्दु है। इस एकात्मता का स्रोत क्या है ? जैसे हमने पूर्व में भी देखा है यह सृष्टि परमात्मा से निसृत हुई है । परमात्मा ने अपने में से ही इसे बनाया है । इसलिये सृष्टि के सारे पदार्थों में एकात्म सम्बन्ध रहता है। सृष्टि निसृत हुई इसलिये सृष्टि के सारे पदार्थ सारे व्यक्तित्व पुनः परमात्मा में एकात्म हो जाने के लिये ही अपने जीवन की गति करते हैं। सर्वथा अपरिचित, सर्वथा अलग ऐसे स्त्री और पुरुष विवाह संस्कार से जब एक बनते हैं तो यह एकात्मता की साधना है।  
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कुटुम्ब जीवन का केन्द्रबिन्दु है - पति और पत्नी<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। पतिपत्नी को जोड़ने वाला विवाह संस्कार होता है । एक सर्वथा अपरिचित पुरुष और सर्वथा अपरिचित स्त्री विवाह संस्कार से जुड़कर पतिपत्नी बनते हैं और अब वे अपरिचित नहीं परन्तु परम परिचित जैसे बनते हैं । ये दो नहीं रहते एक बनते हैं । इसलिये पतिपत्नी की एकात्मता यह कुटुम्ब जीवन का केन्द्र बिन्दु है। इस एकात्मता का स्रोत क्या है ? जैसे हमने पूर्व में भी देखा है यह सृष्टि परमात्मा से निसृत हुई है । परमात्मा ने अपने में से ही इसे बनाया है । इसलिये सृष्टि के सारे पदार्थों में एकात्म सम्बन्ध रहता है। सृष्टि निसृत हुई इसलिये सृष्टि के सारे पदार्थ सारे व्यक्तित्व पुनः परमात्मा में एकात्म हो जाने के लिये ही अपने जीवन की गति करते हैं। सर्वथा अपरिचित, सर्वथा अलग ऐसे स्त्री और पुरुष विवाह संस्कार से जब एक बनते हैं तो यह एकात्मता की साधना है।  
    
पतिपत्नी का सम्बन्ध यह एकात्मता की साधना का प्रारम्भ बिन्दु है। इसलिये विवाह संस्कार को सभी संस्कारों में सर्वश्रेष्ठ, सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है । आज विवाह जीवन की दुर्दशा हुई है। पति-पत्नी की एकात्मता की संकल्पना गृहीत नहीं है, वह स्वीकृत भी नहीं है । विवाह हो जाने के बाद भी दोनों अपनी स्वतन्त्र पहचान बनाये रखना चाहते हैं । हमेशा स्वतन्त्रता की भाषा बोली जाती है। हमेशा अपनीअपनी रुचि की भाषा बोली जाती है । इसलिये पतिपत्नी भी एक दूसरे से स्वतन्त्र रहना चाहते हैं, इसी में गौरव समझते हैं। इसी के लिये पढ़ाई होती है। इसी के लिये अथर्जिन होता है । इसी के लिये अपनेअपने स्वतन्त्र क्षेत्र चुने जाते हैं । इसलिये स्वतन्त्र करियर की भी भाषा होती है। परन्तु यह स्वतन्त्रता सही अर्थ में स्वतन्त्रता नहीं है । यह स्वतन्त्रता अलग होने के और अलग रहने के पर्याय स्वरूप ही रहती है । इसलिये विवाहसंस्कार से जुड़कर एकात्मता की बहुत महत्त्वपूर्ण साधना स्त्री और पुरुष दोनों को करनी होती है। इस दृष्टि से हमारे यहाँ विवाह को संस्कार का स्वरूप दिया गया है ।
 
पतिपत्नी का सम्बन्ध यह एकात्मता की साधना का प्रारम्भ बिन्दु है। इसलिये विवाह संस्कार को सभी संस्कारों में सर्वश्रेष्ठ, सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है । आज विवाह जीवन की दुर्दशा हुई है। पति-पत्नी की एकात्मता की संकल्पना गृहीत नहीं है, वह स्वीकृत भी नहीं है । विवाह हो जाने के बाद भी दोनों अपनी स्वतन्त्र पहचान बनाये रखना चाहते हैं । हमेशा स्वतन्त्रता की भाषा बोली जाती है। हमेशा अपनीअपनी रुचि की भाषा बोली जाती है । इसलिये पतिपत्नी भी एक दूसरे से स्वतन्त्र रहना चाहते हैं, इसी में गौरव समझते हैं। इसी के लिये पढ़ाई होती है। इसी के लिये अथर्जिन होता है । इसी के लिये अपनेअपने स्वतन्त्र क्षेत्र चुने जाते हैं । इसलिये स्वतन्त्र करियर की भी भाषा होती है। परन्तु यह स्वतन्त्रता सही अर्थ में स्वतन्त्रता नहीं है । यह स्वतन्त्रता अलग होने के और अलग रहने के पर्याय स्वरूप ही रहती है । इसलिये विवाहसंस्कार से जुड़कर एकात्मता की बहुत महत्त्वपूर्ण साधना स्त्री और पुरुष दोनों को करनी होती है। इस दृष्टि से हमारे यहाँ विवाह को संस्कार का स्वरूप दिया गया है ।
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# दूसरा पाठ्यक्रम, “समर्थ बालक के समर्थ मातपिता' कैसे बना जाता है ।
 
# दूसरा पाठ्यक्रम, “समर्थ बालक के समर्थ मातपिता' कैसे बना जाता है ।
 
# तीसरा था गृहस्थाश्रमी का समाज धर्म । इसका भी एक पाठ्यक्रम बनाया गया । इस में छोटे-छोटे काम कैसे किये जाते हैं । इसका विशेष रूप से समावेश था । व्यवसाय का चयन करना, व्यवसाय के प्रकार, उन में से हानिकारक, लाभकारी एवं उपयोगी हैं, यह समझना और उसके आधार पर अधथर्जिन की प्रवृत्ति करना, व्यवसाय का चयन करना यह भी गृहस्थाश्रमी के समाजधर्म का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था ।
 
# तीसरा था गृहस्थाश्रमी का समाज धर्म । इसका भी एक पाठ्यक्रम बनाया गया । इस में छोटे-छोटे काम कैसे किये जाते हैं । इसका विशेष रूप से समावेश था । व्यवसाय का चयन करना, व्यवसाय के प्रकार, उन में से हानिकारक, लाभकारी एवं उपयोगी हैं, यह समझना और उसके आधार पर अधथर्जिन की प्रवृत्ति करना, व्यवसाय का चयन करना यह भी गृहस्थाश्रमी के समाजधर्म का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था ।
# चौथा था समाज जीवन की व्यवस्थायें । इन व्यवस्थाओं में राज्य व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था, समाज व्यवस्था आदि का सांस्कृतिक स्वरूप क्या हैं इसका निरूपण इसका हिस्सा था । एक परिवार अपने कर्तव्य कैसे निभा सकता है इसको सिखाने की व्यवस्था की गई । गुरुकुल के लोगों को यह आशंका थी की इन पाठ्यक्रमों के लिये लोग नहीं आयेंगे क्योंकि इसमें अथर्जिन की व्यवस्था नहीं थी, इसका कोई प्रमाणपत्र मिलने वाला नहीं था । इसमें नौकरी मिलने की कोई संभावना नहीं। इसलिये आज के व्यस्त जीवन में से कौन इन पाठ्यक्रमों के लिये आयेगा ऐसी आशंकायें बनती थी । परन्तु आश्चर्य यह था कि लोगों ने इसका बहुत स्वागत किया जैसे वर-वधू चयन और विवाह संस्कार के लिये अनेक युवक-युवतियाँ आगे आये । इसकी प्रस्तावना के रूप में अनेक महाविद्यालयों के प्रधानाचार्य ने अपने छात्रों के लिये इस विषय के मार्गदर्शन की व्यवस्था की । इसलिये गुरुकुल के लोग तो बहुत व्यस्त हो गये । स्थान-स्थान पर उन्हें बुलाया जाता था और अपने युवा छात्रों का मार्गदर्शन करने के लिये उनसे निवेदन किया जाता था । छात्रों में भी इसको लेकर बहुत जिज्ञासायें थीं । यह सर्वसामान्य प्रतिभाव ऐसा था कि इन बातों पर विचार ही कभी नहीं सुनने को मिलें हैं। इन बातों का भी विचार करना होता हैं इसकी कल्पना शिशु के जन्म के साथ ही तक युवाओं को नहीं है ।  
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# चौथा था समाज जीवन की व्यवस्थायें । इन व्यवस्थाओं में राज्य व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था, समाज व्यवस्था आदि का सांस्कृतिक स्वरूप क्या हैं इसका निरूपण इसका हिस्सा था । एक परिवार अपने कर्तव्य कैसे निभा सकता है इसको सिखाने की व्यवस्था की गई । गुरुकुल के लोगों को यह आशंका थी की इन पाठ्यक्रमों के लिये लोग नहीं आयेंगे क्योंकि इसमें अथर्जिन की व्यवस्था नहीं थी, इसका कोई प्रमाणपत्र मिलने वाला नहीं था । इसमें नौकरी मिलने की कोई संभावना नहीं। इसलिये आज के व्यस्त जीवन में से कौन इन पाठ्यक्रमों के लिये आयेगा ऐसी आशंकायें बनती थी । परन्तु आश्चर्य यह था कि लोगों ने इसका बहुत स्वागत किया जैसे वर-वधू चयन और विवाह संस्कार के लिये अनेक युवक-युवतियाँ आगे आये । इसकी प्रस्तावना के रूप में अनेक महाविद्यालयों के प्रधानाचार्य ने अपने छात्रों के लिये इस विषय के मार्गदर्शन की व्यवस्था की । इसलिये गुरुकुल के लोग तो बहुत व्यस्त हो गये । स्थान-स्थान पर उन्हें बुलाया जाता था और अपने युवा छात्रों का मार्गदर्शन करने के लिये उनसे निवेदन किया जाता था । छात्रों में भी इसको लेकर बहुत जिज्ञासायें थीं । यह सर्वसामान्य प्रतिभाव ऐसा था कि इन बातों पर विचार ही कभी नहीं सुनने को मिलें हैं। इन बातों का भी विचार करना होता हैं इसकी कल्पना शिशु के जन्म के साथ ही तक युवाओं को नहीं है । इस दृष्टि से युवाओं ने इसका बहुत हृदयपूर्वक स्वागत किया । इसलिये इनके शिक्षकों के निर्माणकी व्यवस्था करनी पड़ी । अनेक प्राध्यापकों को “वरवधू चयन और विवाहसंस्कार" इस पाठ्यक्रम के शिक्षक बनने हेतु प्रशिक्षण की व्यवस्था भी की गई । इसमें योगाचार्य आयुर्वेदाचार्य, ज्योतिषाचार्य, धर्माचार्य आदि सभी के सहयोग की भी आवश्यकता निर्माण हुई और उन लोगों ने भी बहुत उत्साह से इसमें सहयोग किया। इसका बहुत बड़ा शास्त्र भी बना। बहुत बडा मार्गदर्शक साहित्य भी निर्माण हुआ और इस साहित्य के वितरण में अनेक लोगों ने सहयोग किया। इससे भी अधिक जब इच्छित संतान को, अर्थात पुत्र या पुत्री नहीं, गुण की दृष्टि से, कौशल की दृष्टि से, ज्ञान एवं संस्कार की दृष्टि से हम जैसा बालक चाहते हैं, वैसे बालक को जन्म दे सकते हैं इस सूत्र को पकड़ कर जब प्रबोधन किया गया तो संतान इच्छुक दम्पतियों ने इसको बहुत अच्छा प्रतिसाद दिया । इसकी भी एक व्यवस्थित योजना बनी। समर्थ बालक के समर्थ माता-पिता, ऐसा इस पाठ्यक्रम का नाम था और इसके भी व्यवस्थित विद्यालय शुरु हुए। ये विद्यालय कुटुम्ब विद्यालय के नाम से ही प्रसिद्ध हुए । कुटुम्ब विद्यालय भी स्थान-स्थान पर स्थापित होने लगे। इनके छात्र युवा दम्पति थे। और ऐसा लगने लगा, ऐसा आभास हुआ कि लोग अच्छे बालक और अच्छे घर चाहते ही हैं।
# ''इस दृष्टि से युवाओं ने इसका... सभीको अपनी-अपनी भूमिका प्राप्त होती है । जब तक''
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''बहुत हृदयपूर्वक स्वागत किया । इसलिये इनके शिक्षकों के. शिशु का जन्म नहीं होता माता-पिता केवल पति-पत्नी होते''
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''निर्माणकी व्यवस्था करनी पड़ी । अनेक प्राध्यापकों को... हैं, जन्म के साथ ही माता-पिता बनते हैं । उसी प्रकार शिशु''
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== समग्र विकास प्रतिमान हेतु अभिभावक शिक्षा ==
 
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अभिभावक का अर्थ है बालक का संगोपन करने वाले, उसकी देखभाल और सुरक्षा करने वाले, उसे प्रेरणा और संस्कार देने वाले तथा उसका सर्व प्रकार से हित चाहने वाले, वे सभी लोग जो उसके आसपास रहते हैं। उनमें प्रमुख और केन्द्रवर्ती स्थान पर हैं माता-पिता, साथ में हैं दादा-दादी, चाचा, बुआ और सारे कुटुम्बीजन जो घर में रहते हैं। घर के बालक के विकास में इन सबकी भूमिका रहती है और वह बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। शिशु के जन्म के साथ ही सभी को अपनी-अपनी भूमिका प्राप्त होती है। जब तक शिशु का जन्म नहीं होता, माता-पिता केवल पति-पत्नी होते हैं, जन्म के साथ ही माता-पिता बनते हैं । उसी प्रकार शिशु के जन्म के साथ ही चाचा, बुआ, दादा, दादी आदि का भी जन्म होता है। उन सबको नई भूमिका प्राप्त होती है। नई भूमिका के साथ नया दायित्व भी प्राप्त होता है। इसलिये केवल माता-पिता को ही नहीं तो पूरे कुटुम्ब को बालक के प्रति अपना जो दायित्व है उसे निभाना सीखना चाहिये ।  
''<nowiki>*</nowiki>वरवधू चयन और विवाहसंस्कार' इस पाठ्यक्रम के... के जन्म के साथ ही चाचा, बुआ, दादा, दादी आदि का भी''
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''शिक्षक बनने हेतु प्रशिक्षण की व्यवस्था भी की गई । इसमें. जन्म होता है । उन सबको नई भूमिका प्राप्त होती है । नई''
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''योगाचार्य आयुर्वेदाचार्य, ज्योतिषाचार्य, धर्माचार्य आदि... भूमिका के साथ नया दायित्व भी प्राप्त होता है । इसलिये''
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''सभी के सहयोग की भी आवश्यकता निर्माण हुई और उन... केवल माता-पिता को ही नहीं तो पूरे कुटुम्ब को बालक के''
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''लोगों ने भी बहुत उत्साह से इसमें सहयोग किया । इसका... प्रति अपना जो दायित्व है उसे निभाना सीखना चाहिये ।''
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''बहुत बड़ा शास्त्र भी बना । बहुत बडा मार्गदर्शक साहित्य अभिभावक शिक्षा के चरण बालक की आयु के''
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''भी निर्माण हुआ और इस साहित्य के वितरण में अनेक... अनुसार हो सकते हैं । जैसे जैसे बालक बड़ा होता जाता''
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''लोगों ने सहयोग किया । इससे भी अधिक जब इच्छित... है, माता-पिता भी बड़े होते जाते हैं उस दौरान यदि दूसरे''
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''सन्तान को, अर्थात पुत्र या पुत्री नहीं, गुण की दृष्टि से, बालक का जन्म होता है तो सीखी हुई बातों का पुनरावर्तन''
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''कौशल की दृष्टि से, ज्ञान एवं संस्कार की दृष्टि से हम जैसा... होता है जिससे अनुभव बढ़ता है । इन्हें अनुभवी माता-''
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''बालक चाहते हैं वैसे बालक को जन्म दे सकते हैं इस सूत्र. पिता कहते हैं ।''
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''को पकड़ कर जब प्रबोधन किया गया तो सन्तान इच्छुक मुख्य रूप से माता-पिता की और उनके साथ-साथ''
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''दम्पतियों ने इसको बहुत अच्छा प्रतिसाद दिया । घर के अन्य लोगों की शिक्षा के चरण इस प्रकार हैं''
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''इसकी भी एक व्यवस्थित योजना बनी । समर्थ''
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''बालक के समर्थ माता-पिता, ऐसा इस पाठ्यक्रम का नाम माता-पिता बनने की पूर्वतैयारी''
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''था और इसके भी व्यवस्थित विद्यालय शुरु हुए। ये वैसे तो इसका बहुत बडा हिस्सा गर्भावस्‍था की और''
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''विद्यालय कुटुम्ब विद्यालय के नाम से ही प्रसिद्ध हुए ।.. शिशुअवस्था की शिक्षा के अन्तर्गत आ गया है फिर भी''
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''कुटुम्ब विद्यालय भी स्थान-स्थान पर स्थापित होने लगे ।.... यहाँ कुछ बातों का निर्देश आवश्यक है। कहीं कहीं''
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''इनके छात्र युवा दम्पति थे । और ऐसा लगने लगा ऐसा... पुनरावर्तन हो सकता है परन्तु उसे टालने का प्रयास अवश्य''
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''आभास हुआ कि लोग तो अच्छे बालक चाहते ही हैं, . रहेगा ।''
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''लोग तो अच्छे घर चाहते ही हैं । आजकल मातापिता बनने की क्रिया और प्रक्रिया को''
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''आयुर्विज्ञान अर्थात्‌ चिकित्साशास्त्र की दृष्टि से ही देखा''
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''जाता है। आयुर्विज्ञान सम्पूर्ण जीवन विज्ञान का एक''
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''अभिभावक का अर्थ है बालक का संगोपन करने... महत्त्वपूर्ण हिस्सा भले ही हो परंतु एक छोटा हिस्सा है ।''
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''वाले, उसकी देखभाल और सुरक्षा करने वाले, उसे प्रेरणा... माता-पिता बनने को सांस्कृतिक दृष्टि से देखा जाना''
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''और संस्कार देने वाले तथा उसका सर्व प्रकार से हित... चाहिये । माता-पिता को चाहिये कि वे अपने आपको''
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''चाहने वाले वे सभी लोग जो उसके आसपास रहते हैं ।... संस्कृति के वाहक के रूप में प्रस्तुत करें और तैयार करें ।''
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''उनमें प्रमुख और केन्द्रवर्ती स्थान पर हैं माता-पिता, साथ इससे तात्पर्य क्या है ? संस्कृति का व्यावहारिक''
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''में हैं दादा -दादी, चाचा, बुआ और सारे कुट्म्बीजन जो... केन्द्र है घर । घर में संस्कृति पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परा बनकर''
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''घर में रहते हैं । घर के बालक के विकास में इन सबकी... उतर आती है माता-पिता को उसे ग्रहण कर अगली पीढ़ी''
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अभिभावक शिक्षा के चरण बालक की आयु के अनुसार हो सकते हैं। जैसे जैसे बालक बड़ा होता जाता है, माता-पिता भी बड़े होते जाते हैं उस दौरान यदि दूसरे बालक का जन्म होता है तो सीखी हुई बातों का पुनरावर्तन होता है जिससे अनुभव बढ़ता है। इन्हें अनुभवी माता-पिता कहते हैं। मुख्य रूप से माता-पिता की और उनके साथ-साथ घर के अन्य लोगों की शिक्षा के चरण इस प्रकार हैं:
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''भूमिका रहती है और वह बहुत महत्त्वपूर्ण होती है अर्थात्‌ अपने बालक को देना है । अतः माता-पिता को''
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== माता-पिता बनने की पूर्व तैयारी ==
 
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वैसे तो इसका बहुत बडा हिस्सा गर्भावस्‍था की और शिशुअवस्था की शिक्षा के अन्तर्गत आ गया है तथापि यहाँ कुछ बातों का निर्देश आवश्यक है। कहीं कहीं पुनरावर्तन हो सकता है परन्तु उसे टालने का प्रयास अवश्य रहेगा। आजकल मातापिता बनने की क्रिया और प्रक्रिया को आयुर्विज्ञान अर्थात्‌ चिकित्साशास्र की दृष्टि से ही देखा जाता है। आयुर्विज्ञान सम्पूर्ण जीवन विज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा भले ही हो परंतु एक छोटा हिस्सा है। माता-पिता बनने को सांस्कृतिक दृष्टि से देखा जाना चाहिये । माता-पिता को चाहिये कि वे अपने आपको संस्कृति के वाहक के रूप में प्रस्तुत करें और तैयार करें। इससे तात्पर्य क्या है? संस्कृति का व्यावहारिक केन्द्र है घर। घर में संस्कृति पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परा बनकर उतर आती है। माता-पिता को उसे ग्रहण कर अगली पीढ़ी अर्थात्‌ अपने बालक को देना है। अतः माता-पिता को जो शिक्षा ग्रहण करनी है वह कुछ इस प्रकार की है: अपने पूर्वजों का, अपने कुल का, अपने घर का इतिहास जानना और अपने आपको उसके साथ जोड़ना। होने वाली माता के लिये यह विशेष रूप से आवश्यक है क्योंकि वह दूसरे कुटुम्ब से इस घर में आई है। उसे अपने पितृ कुल का इतिहास तो मालूम है परन्तु पति कुल का मालूम करना है। इससे वह अपने पति के कुल के साथ जुड़ेगी। आजकल लड़कियाँ अपने पति के साथ जुड़ती हैं, पति के परिवारजनों के साथ नहीं। आत्मीयता के सम्बन्ध अपने मायके के लोगों के साथ ही होते हैं। अब तो वे अपने नाम के साथ मायके का और बाद में पति का कुलनाम भी जोड़ने लगी हैं। उन्हें लगता है कि यह उनके स्वतन्त्र व्यक्तित्व की पहचान है । परन्तु इसका परिणाम तो विभाजित व्यक्तित्व ही है । ऐसे विभाजित व्यक्तित्व से एकात्म सम्बन्ध कभी नहीं बनते। अतः अपने कुल, गोत्र, पूर्वज, कुटुम्बीजनों आदि के विषय में जानकारी प्राप्त कर लेना और उन सबसे भावात्मक रूप से जुड़ना आवश्यक है। पति को तो यह सब पहले से ही अवगत होना अपेक्षित है । यदि नहीं है तो उसे भी इसकी शिक्षा प्राप्त कर लेनी चाहिये । पत्नी अपने पति से अथवा पति-पत्नी दोनों कुटुम्ब के वृद्धजनों से ऐसी शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं ।
== समग्र विकास प्रतिमान हेतु अभिभावक शिक्षा ==
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जो शिक्षा ग्रहण करनी है वह कुछ इस प्रकार की है: अपने पूर्वजों का, अपने कुल का, अपने घर का इतिहास जानना और अपने आपको उसके साथ जोड़ना । होने वाली माता के लिये यह विशेष रूप से आवश्यक है क्योंकि वह दूसरे कुटुम्ब से इस घर में आई है । उसे अपने पितृ कुल का इतिहास तो मालूम है परन्तु पति कुल का मालूम करना है । इससे वह अपने पति के कुल के साथ जुड़ेगी । आजकल लड़कियाँ अपने पति के साथ जुड़ती हैं, पति के परिवारजनों के साथ नहीं । आत्मीयता के सम्बन्ध अपने मायके के लोगों के साथ ही होते हैं । अब तो वे अपने नाम के साथ मायके का और बाद में पति का कुलनाम भी जोड़ने लगी हैं । उन्हें लगता है कि यह उनके स्वतन्त्र व्यक्तित्व की पहचान है । परन्तु इसका परिणाम तो विभाजित व्यक्तित्व ही है । ऐसे विभाजित व्यक्तित्व से एकात्म सम्बन्ध कभी नहीं बनते । अतः अपने कुल, गोत्र, पूर्वज, कुटुम्बीजनों आदि के विषय में जानकारी प्राप्त कर लेना और उन सबसे भावात्मक रूप से जुड़ना आवश्यक है । पति को तो यह सब पहले से ही अवगत होना अपेक्षित है । यदि नहीं है तो उसे भी इसकी शिक्षा प्राप्त कर लेनी चाहिये । पत्नी अपने पति से अथवा पति-पत्नी दोनों कुटुम्ब के वृद्धजनों से ऐसी शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं ।
      
== संस्कार एवं संस्कार प्रक्रिया के सम्बन्ध में जानना ==
 
== संस्कार एवं संस्कार प्रक्रिया के सम्बन्ध में जानना ==
ब्रह्माण्ड में जो जीव है वे अपने लायक माता-पिता की खोज में रहते हैं । जैसे ही वे अपने लायक माता-पिता को देखते हैं वे गर्भ के रूप में माता की कोख में प्रवेश करते हैं, पलते हैं और जन्म लेते हैं । माता-पिता यदि अच्छे हैं तो वे अच्छे जीव को आकर्षित करेंगे, यदि साधारण हैं तो साधारण जीव को । सन्तान ही माता-पिता का चयन करती है । इसलिये हर माता-पिता को अपनी सिद्धता कर लेनी चाहिये । हमें यदि अच्छी सन्तान चाहिये तो उसके लायक बनना यही मातापिता की शिक्षा है । बालक अपने साथ संस्कार लेकर आता है । वह, जैसा आजकल कहा जाता है, कोरी स्लेट नहीं होता । जो संस्कार वह लेकर आता है उनमें पूर्वजन्म के संस्कार प्रमुख हैं । माता-पिता के अपने चरित्र के संस्कार और बालक के पूर्वजन्म के संस्कारों का मेल होकर ही बालक माता की कोख में आता है । अतः एक है पूर्वजन्म के संस्कार । दूसरे हैं मातापिता के माध्यम से आनुवंशिक संस्कार । पिता की चौदह पीढ़ियों के और माता की पाँच पीढ़ियों के संस्कार गर्भाधान के समय ही माता-पिता के माध्यम से बालक में उतरते हैं । अतः अब वह जितना अपने पूर्वजन्म के साथ जुड़ा है उतना ही अपने कुल के साथ, अपने पूर्वजों के साथ भी जुड़ जाता है । यह जुड़ाव कभी मिटता नहीं, प्रयास करने पर भी मिटता नहीं । तीसरे होते हैं संस्कृति के संस्कार जो पूर्वजों एवं माता-पिता के माध्यम से ही उतरकर आते हैं । ये तीनों प्रकार के संस्कार तो गर्भाधान के साथ ही उसके पिंड का हिस्सा बन जाते हैं । जन्म के बाद होते हैं वातावरण के संस्कार । ये बाह्य जगत के संस्कार हैं । वे भी प्रभावी अवश्य हैं परन्तु पूर्व के तीन अधिक प्रभावी हैं ।
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ब्रह्माण्ड में जो जीव है वे अपने लायक माता-पिता की खोज में रहते हैं । जैसे ही वे अपने लायक माता-पिता को देखते हैं वे गर्भ के रूप में माता की कोख में प्रवेश करते हैं, पलते हैं और जन्म लेते हैं । माता-पिता यदि अच्छे हैं तो वे अच्छे जीव को आकर्षित करेंगे, यदि साधारण हैं तो साधारण जीव को । सन्तान ही माता-पिता का चयन करती है। इसलिये हर माता-पिता को अपनी सिद्धता कर लेनी चाहिये। हमें यदि अच्छी सन्तान चाहिये तो उसके लायक बनना यही मातापिता की शिक्षा है । बालक अपने साथ संस्कार लेकर आता है। वह, जैसा आजकल कहा जाता है, कोरी स्लेट नहीं होता। जो संस्कार वह लेकर आता है उनमें पूर्वजन्म के संस्कार प्रमुख हैं। माता-पिता के अपने चरित्र के संस्कार और बालक के पूर्वजन्म के संस्कारों का मेल होकर ही बालक माता की कोख में आता है । अतः एक है पूर्वजन्म के संस्कार। दूसरे हैं मातापिता के माध्यम से आनुवंशिक संस्कार। पिता की चौदह पीढ़ियों के और माता की पाँच पीढ़ियों के संस्कार गर्भाधान के समय ही माता-पिता के माध्यम से बालक में उतरते हैं। अतः अब वह जितना अपने पूर्वजन्म के साथ जुड़ा है उतना ही अपने कुल के साथ, अपने पूर्वजों के साथ भी जुड़ जाता है । यह जुड़ाव कभी मिटता नहीं, प्रयास करने पर भी मिटता नहीं। तीसरे होते हैं संस्कृति के संस्कार जो पूर्वजों एवं माता-पिता के माध्यम से ही उतरकर आते हैं । ये तीनों प्रकार के संस्कार तो गर्भाधान के साथ ही उसके पिंड का हिस्सा बन जाते हैं। जन्म के बाद होते हैं वातावरण के संस्कार। ये बाह्य जगत के संस्कार हैं । वे भी प्रभावी अवश्य हैं परन्तु पूर्व के तीन अधिक प्रभावी हैं। आज की जो स्थिति है उसमें इन संस्कारों के सन्दर्भ में कुछ अधिक चिन्ता करने की आवश्यकता है।
 
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* हम देखते हैं कि आज लोग एकदूसरे का विश्वास नहीं करते, किसी की किसी में श्रद्धा नहीं है, कोई किसी के लिये आदर का पात्र नहीं है, सारे सम्बन्ध स्वार्थ प्रेरित हो गये हैं । ऐसा समाज सुखी नहीं हो सकता । ऐसे समाज में शान्ति और सुरक्षा हो नहीं सकती। इस स्थिति का मूल कहाँ है ? यदि पति- पत्नी ही एकदूसरे के साथ एकात्म सम्बन्ध से जुड़ेंगे नहीं तो श्रद्धा और विश्वास का जन्म होगा ही नहीं। माता-पिता और सन्तानों में एकत्व की भावना पनपेगी ही नहीं ।  
आज की जो स्थिति है उसमें इन संस्कारों के सन्दर्भ में कुछ अधिक चिन्ता करने की आवश्यकता है ।
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* हम देखते हैं कि कोई बालक जन्म से ही स्वर और ताल की समझ लेकर आता है। यह समझ कहाँ से आती है ? या तो पूर्वजन्म से अथवा अपने किसी पूर्वज से । इसी प्रकार दुर्गुण भी पूर्वजन्म से या पूर्वज से आते हैं । माता-पिता कितने भी अच्छे हों तो भी इस दुर्गुण को रोक नहीं सकते ।
* हम देखते हैं कि आज लोग एकदूसरे का विश्वास नहीं करते, किसी की किसी में श्रद्धा नहीं है, कोई किसी के लिये आदर का पात्र नहीं है, सारे सम्बन्ध स्वार्थ प्रेरित हो गये हैं । ऐसा समाज सुखी नहीं हो सकता । ऐसे समाज में शान्ति और सुरक्षा हो नहीं सकती । इस स्थिति का मूल कहाँ है ? यदि पति- पत्नी ही एकदूसरे के साथ एकात्म सम्बन्ध से जुड़ेंगे नहीं तो श्रद्धा और विश्वास का जन्म होगा ही नहीं । माता-पिता और सन्तानों में एकत्व की भावना पनपेगी ही नहीं ।  
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* हम देखते हैं कि मातापिता कितनी भी साधना करते हों, कितना भी पवित्र जीवन जीते हों तो भी उनके घर में दुश्चरित्र बालक का जन्म होता है । विश्व में ऐसे अनेक महापुरुषों के भी उदाहरण मिलेंगे जिनकी सन्तति दुर्गति की ओर ही गई है। सामान्य जनों में भी हम देखते हैं कि माता-पिता ने अपने बच्चों की पढ़ाई के लिये बहुत कष्ट किये हैं परन्तु बच्चों में न उनके प्रति कृतज्ञता है, न उनके प्रति आदर। न उनमें वृद्धि है, न कार्यकुशलता, न सदूगुण । वे सर्वथा निठल्ले होते हैं। दूसरी ओर गरीब, दुराचारी माता-पिता के घर में भी संस्कारवान, कर्तृत्ववान, बुद्धिमान बच्चों का जन्म होता है। इसका मूल कहाँ है ? इसका मूल एक तो पूर्वजों में है । दूसरा इस बात में है कि शिक्षा, पैसा, सुविधा आदि का संस्कार के साथ कोई सम्बन्ध नहीं । संस्कार का सम्बन्ध आन्तरिक भाव कैसा है, इसके साथ है ।
* हम देखते हैं कि कोई बालक जन्म से ही स्वर और ताल की समझ लेकर आता है । यह समझ कहाँ से आती है ? या तो पूर्वजन्म से अथवा अपने किसी पूर्वज से । इसी प्रकार दुर्गुण भी पूर्वजन्म से या पूर्वज से आते हैं । माता-पिता कितने भी अच्छे हों तो भी इस दुर्गुण को रोक नहीं सकते ।
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* कभी-कभी प्रश्न उठ सकता है कि माता-पिता सर्व प्रकार के प्रयास करें तो भी राम, कृष्ण, शिवाजी, याज्ञवल्क्य, राणा प्रताप, झाँसी रानी को क्यों जन्म नहीं दे सकते? इसका खुलासा भी पूर्वजों की पिता की चौदह और माता की पाँच पीढ़ियों में है । पति-पत्नी के वश में अपने पूर्वज तो नहीं हैं ।  
* हम देखते हैं कि मातापिता कितनी भी साधना करते हों, कितना भी पवित्र जीवन जीते हों तो भी उनके घर में दुश्चरित्र बालक का जन्म होता है । विश्व में ऐसे अनेक महापुरुषों के भी उदाहरण मिलेंगे जिनकी सन्तति दुर्गति की ओर ही गई है । सामान्य जनों में भी हम देखते हैं कि माता-पिता ने अपने बच्चों की पढ़ाई के लिये बहुत कष्ट किये हैं परन्तु बच्चों में न उनके प्रति कृतज्ञता है, न उनके प्रति आदर । न उनमें वृद्धि है, न कार्यकुशलता, न सदूगुण । वे सर्वथा निठल्ले होते हैं। दूसरी ओर गरीब, दुराचारी माता-पिता के घर में भी संस्कारवान, कर्तृत्ववान, बुद्धिमान बच्चों का जन्म होता है। इसका मूल कहाँ है ? इसका मूल एक तो पूर्वजों में है । दूसरा इस बात में है कि शिक्षा, पैसा, सुविधा आदि का संस्कार के साथ कोई सम्बन्ध नहीं । संस्कार का सम्बन्ध आन्तरिक भाव कैसा है, इसके साथ है ।
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* गर्भावस्‍था में बालक मातृज भाव और पितृज भाव ग्रहण करता है। शरीर का रूप रंग तो वह दोनों से ग्रहण करता है यह तो साधारण बात है परन्तु भावनायें, कुशलतायें एवं स्वभाव के लक्षण भी ग्रहण करता है । अब तो आयुर्विज्ञान मानने लगा है कि कुछ बिमारियाँ भी माता-पिता से प्राप्त होती हैं । अर्थात्‌ माता और पिता के गुण और दोष बालक विरासत में प्राप्त करता है । ये भी संस्कार हैं । अतः बालक अपनी ओर से विरासत में क्या प्राप्त करे और क्या न करे इसकी चिन्ता माता-पिता को करनी चाहिये और उसके अनुसार अपने स्वभाव और व्यवहार में परिवर्तन करना चाहिये ।  
* कभी-कभी प्रश्न उठ सकता है कि माता-पिता सर्व प्रकार के प्रयास करें तो भी राम, कृष्ण, शिवाजी, याज्ञवल्क्य, राणा प्रताप, झाँसी रानी को क्यों जन्म नहीं दे सकते? इसका खुलासा भी पूर्वजों की पिता की चौदह और माता की पाँच पीछ़ियों में है । पति-पत्नी के वश में अपने पूर्वज तो नहीं हैं ।  
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* इस अवस्था की शिक्षा केवल पुस्तक पढ़ने की शिक्षा नहीं होती। व्यावहारिक शिक्षा होती है । अतः पति और पत्नी ने किसी न किसी का शिष्यत्व ग्रहण करना चाहिये। जिसका शिष्यत्व ग्रहण करे वह आप्तजन होना चाहिये। “यह मेरा कभी भी अहित नहीं सोचेगा, सदैव मेरा भला चाहेगा और सही मार्गदर्शन करने में समर्थ है' ऐसी श्रद्धा जिसके प्रति है उसे आप्तजन मानना चाहिये । सामान्य रूप से गर्भिणी की माता, सास, बड़ी बहन, अनुभवी सखी, संन्यासिनी, साध्वी आदि को आप्तजन मानना चाहिये। उसी प्रकार पति के लिये माता-पिता, बडे भाई-भाभी, बडे बहन- बहनोई, अनुभवी मित्र और मित्रपत्नी को आप्तजन मानना चाहिये । इनके परामर्श के अनुसार खान-पान, सोना-जागना, उठना-बैठना, आराम-व्यायाम, आनन्द-प्रमोद, स्वाध्याय-सत्संग, वेशभूषा आदि बातों का व्यवहार करना चाहिये । इन सबके कुछ सामान्य नियम होते हैं परन्तु इनकी शिक्षा तो व्यक्तिगत ही होती है क्योंकि इन नियमों को केवल जानना आवश्यक नहीं है, जानकर मानना और मानकर आचरण में लाना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । नियम आचरण में आ सर्के इस दृष्टि से सम्हालने वाला और करवा लेने वाला हर घर में कोई चाहिये । वह आप्तजन है और यही आसप्तजन से प्राप्त शिक्षा है।
* गर्भावस्‍था में बालक मातृज भाव और पितृज भाव ग्रहण करता है । शरीर का रूप रंग तो वह दोनों से ग्रहण करता है यह तो साधारण बात है परन्तु भावनायें, कुशलतायें एवं स्वभाव के लक्षण भी ग्रहण करता है । अब तो आयुर्विज्ञान मानने लगा है कि कुछ बिमारियाँ भी माता-पिता से प्राप्त होती हैं । अर्थात्‌ माता और पिता के गुण और दोष बालक विरासत में प्राप्त करता है । ये भी संस्कार हैं । अतः बालक अपनी ओर से विरासत में क्या प्राप्त करे और क्या न करे इसकी चिन्ता माता-पिता को करनी चाहिये और उसके अनुसार अपने स्वभाव और व्यवहार में परिवर्तन करना चाहिये ।  
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* सगर्भावस्था में पिता की भूमिका सुरक्षात्मक है । माता और बालक के प्रति सुरक्षा का भाव होना नितान्त आवश्यक है । सीमन्तोन्नयन संस्कार उसी दृष्टि से किये जाते हैं। साथ ही आने वाला बालक पिता पर गर्व कर सके ऐसा चरित्र का सामर्थ्य प्राप्त करना भी उसका दायित्व बनता है । यह सामर्थ्य कैसे प्राप्त होता है ? कुछ तो स्वभावगत होता है, कुछ वंशगत होता है, शेष पुरुषार्थ से प्राप्त करना होता है । इस दृष्टि से ज्ञानवान होना आवश्यक है । उससे भी अधिक गुणवान होना आवश्यक है। सेवाभावी होना, परोपकारी होना, प्रामाणिक होना, दूसरों के धन या स्त्री के प्रति कुदृष्टि नहीं करना, भौतिक पदार्थों के या प्रतिष्ठा के आकर्षणों में फैंसकर अन्याय या अत्याचारपूर्ण आचरण नहीं करना चरित्र के लक्षण है। ऐसे चरित्र के लक्षण जिसमें हैं उसमें शास्त्रज्ञान नहीं है या पैसा अधिक नहीं है तो भी बालक को कोई अंतर नहीं पड़ता। इसी कारण से तो निर्धन और आज की भाषा में जिन्हें अशिक्षित कहते हैं उनके घरों में गुणवान बालकों का जन्म होता है । पिता ने अपने आपको इसके लायक बनाना है ।  
* इस अवस्था की शिक्षा केवल पुस्तक पढ़ने की शिक्षा नहीं होती । व्यावहारिक शिक्षा होती है । अतः पति और पत्नी ने किसी न किसी का शिष्यत्व ग्रहण करना चाहिये । जिसका शिष्यत्व ग्रहण करे वह आप्तजन होना चाहिये । “यह मेरा कभी भी अहित नहीं सोचेगा, सदैव मेरा भला चाहेगा और सही मार्गदर्शन करने में समर्थ है' ऐसी श्रद्धा जिसके प्रति है उसे आप्तजन मानना चाहिये । सामान्य रूप से गर्भिणी की माता, सास, बड़ी बहन, अनुभवी सखी, संन्यासिनी, साध्वी आदि को आप्तजन मानना चाहिये । उसी प्रकार पति के लिये माता-पिता, बडे भाई-भाभी, बडे बहन- बहनोई, अनुभवी मित्र और मित्रपत्नी को आप्तजन मानना चाहिये । इनके परामर्श के अनुसार खान-पान, सोना-जागना, उठना-बैठना, आराम-व्यायाम, आनन्द-प्रमोद, स्वाध्याय-सत्संग, वेशभूषा आदि बातों का व्यवहार करना चाहिये । इन सबके कुछ सामान्य नियम होते हैं परन्तु इनकी शिक्षा तो व्यक्तिगत ही होती है क्योंकि इन नियमों को केवल जानना आवश्यक नहीं है, जानकर मानना और मानकर आचरण में लाना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । नियम आचरण में आ सर्के इस दृष्टि से सम्हालने वाला और करवा लेने वाला हर घर में कोई चाहिये । वह आप्तजन है और यही आसप्तजन से प्राप्त शिक्षा है ।
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आज प्रश्न यह उठता है कि माता-पिता दोनों ही उच्चशिक्षित हैं तो वे नौकरी अथवा व्यवसाय करते हैं । ऐसे व्यवसाय या नौकरी में उनका इतना अधिक समय जाता है कि वे अपने लिये, अपनी पत्नी या अपने पति के लिये या अपने आने वाले बालक के लिये समय ही नहीं निकाल पाते । वे केवल शारीरिक रूप से ही व्यस्त रहते हैं ऐसा नहीं है, मानसिक और बौद्धिक रूप से भी उतने ही व्यस्त रहते हैं। कहीं-कहीं तो समाज सेवा के नाम पर भी व्यस्त रहते हैं। ऐसे माता-पिता समर्थ माता-पिता नहीं बन सकते। समर्थ तो क्या, योग्य माता-पिता भी नहीं बन सकते। इसमें शारीरिक रूप से व्यवसाय में व्यस्त होने की बात तो समझ में आती है । कभी-कभी अर्थाजन की विवशता हो जाती है। परन्तु ऐसे में भी मानसिक रूप से एकदूसरे के साथ और बालक के साथ होना यदि सम्भव हुआ तो यह कमी भर जाती है । परन्तु वह वास्तव में विवशता होनी चाहिये, धन के या काम के आकर्षण से यदि व्यस्तता होती है तो उसका सन्देश बालक तक अवश्य पहुँचता है ।
* सगर्भावस्था में पिता की भूमिका सुरक्षात्मक है । माता और बालक के प्रति सुरक्षा का भाव होना नितान्त आवश्यक है । सीमन्तोन्नयन संस्कार उसी दृष्टि से किये जाते हैं । साथ ही आने वाला बालक पिता पर गर्व कर सके ऐसा चरित्र का सामर्थ्य प्राप्त करना भी उसका दायित्व बनता है । यह सामर्थ्य कैसे प्राप्त होता है ? कुछ तो स्वभावगत होता है, कुछ वंशगत होता है, शेष पुरुषार्थ से प्राप्त करना होता है । इस दृष्टि से ज्ञानवान होना आवश्यक है । उससे भी अधिक गुणवान होना आवश्यक है । सेवाभावी होना, परोपकारी होना, प्रामाणिक होना, दूसरों के धन या स्त्री के प्रति कुदृष्टि नहीं करना, भौतिक पदार्थों के या प्रतिष्ठा के आकर्षणों में फैंसकर अन्याय या अत्याचारपूर्ण आचरण नहीं करना चरित्र के लक्षण है। ऐसे चरित्र के लक्षण जिसमें हैं उसमें शास्त्रज्ञान नहीं है या पैसा अधिक नहीं है तो भी बालक को कोई अंतर नहीं पड़ता । इसी कारण से तो निर्धन और आज की भाषा में जिन्हें अशिक्षित कहते हैं उनके घरों में गुणवान बालकों का जन्म होता है । पिता ने अपने आपको इसके लायक बनाना है ।  
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आज प्रश्न यह उठता है कि माता-पिता दोनों ही उच्चशिक्षित हैं तो वे नौकरी अथवा व्यवसाय करते हैं । ऐसे व्यवसाय या नौकरी में उनका इतना अधिक समय जाता है कि वे अपने लिये, अपनी पत्नी या अपने पति के लिये या अपने आने वाले बालक के लिये समय ही नहीं निकाल पाते । वे केवल शारीरिक रूप से ही व्यस्त रहते हैं ऐसा नहीं है, मानसिक और बौद्धिक रूप से भी उतने ही व्यस्त रहते हैं । कहीं-कहीं तो समाज सेवा के नाम पर भी व्यस्त रहते हैं। ऐसे माता-पिता समर्थ माता-पिता नहीं बन सकते । समर्थ तो क्या, योग्य माता-पिता भी नहीं बन सकते । इसमें शारीरिक रूप से व्यवसाय में व्यस्त होने की बात तो समझ में आती है । कभी-कभी अर्थाजन की विवशता हो जाती है । परन्तु ऐसे में भी मानसिक रूप से एकदूसरे के साथ और बालक के साथ होना यदि सम्भव हुआ तो यह कमी भर जाती है । परन्तु वह वास्तव में विवशता होनी चाहिये, धन के या काम के आकर्षण से यदि व्यस्तता होती है तो उसका सन्देश बालक तक अवश्य पहुँचता है ।
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अतः एक अच्छे बालक को जन्म देकर संस्कृति की परम्परा का जतन करना है, परम्परा की शृंखला को आगे बढाना है तो अपनी व्यक्तिगत रुचियों को, इन्द्रियों के आकर्षणों को, बाहरी दबावों को एक ओर रखकर बालक केन्द्रित बनना होगा । बालक केन्द्रित होते हैं तभी तो वे माता-पिता होते हैं अन्यथा या तो पति-पत्नी होते हैं या तो कोई व्यावसायिक स्त्री या पुरुष होते हैं । कोई कह सकता है कि संस्कृति, परम्परा, परोपकार, चरित्र आदि बातों को हम नहीं मानते । हम ऐसा करना नहीं चाहते । आज के जमाने में यह सब होना सम्भव नहीं है, और यदि व्यक्तिगत रूप से सम्भव हो भी गया तो जमाने पर उसका प्रभाव होने वाला नहीं है। हम ही अकेले पड़ जायेंगे। हम यह सब करना नहीं चाहते । ऐसा कहने वाले युवक-युवतियों की संख्या अधिक है । सुनने, जानने, मानने वालों की संख्या छोटी है । ऐसे में क्या किया जाय ?
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अतः एक अच्छे बालक को जन्म देकर संस्कृति की परम्परा का जतन करना है, परम्परा की शृंखला को आगे बढाना है तो अपनी व्यक्तिगत रुचियों को, इन्द्रियों के आकर्षणों को, बाहरी दबावों को एक ओर रखकर बालक केन्द्रित बनना होगा। बालक केन्द्रित होते हैं तभी तो वे माता-पिता होते हैं अन्यथा या तो पति-पत्नी होते हैं या तो कोई व्यावसायिक स्त्री या पुरुष होते हैं। कोई कह सकता है कि संस्कृति, परम्परा, परोपकार, चरित्र आदि बातों को हम नहीं मानते । हम ऐसा करना नहीं चाहते । आज के जमाने में यह सब होना सम्भव नहीं है, और यदि व्यक्तिगत रूप से सम्भव हो भी गया तो जमाने पर उसका प्रभाव होने वाला नहीं है। हम ही अकेले पड़ जायेंगे। हम यह सब करना नहीं चाहते। ऐसा कहने वाले युवक-युवतियों की संख्या अधिक है । सुनने, जानने, मानने वालों की संख्या छोटी है । ऐसे में क्या किया जाय ?
    
== परम्परा का अज्ञान ==
 
== परम्परा का अज्ञान ==
वास्तव में आज की विषमता ही यह है । भारत के ही
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वास्तव में आज की विषमता ही यह है । भारत के ही लोग भारतीय परम्परा के प्रति आस्थावान नहीं हैं और न उन्हें उस परम्परा का ज्ञान है । परन्तु तटस्थता से देखेंगे तो ध्यान में आयेगा कि इसमें इनका दोष नहीं है । विगत दस पीढ़ियों से हमारी शिक्षा व्यवस्था ही ऐसी हो गई है जिसमें भारतीयता का ज्ञान या भारतीयता के प्रति आस्था या गौरव का भाव सिखाया ही नहीं जाता । हम भारत के विषय में यूरोप और अमेरिका के अभिप्रायों को ही जानते हैं । देश उसी ज्ञान और दृष्टि के आधार पर चल रहा है । हमारे विषय से सम्बन्धित है ऐसी दो बातों की हम विशेष चर्चा करेंगे ।
 
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लोग भारतीय परम्परा के प्रति आस्थावान नहीं हैं और न
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उन्हें उस परम्परा का ज्ञान है । परन्तु तटस्थता से देखेंगे तो
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ध्यान में आयेगा कि इसमें इनका दोष नहीं है । विगत दस
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पीढ़ियों से हमारी शिक्षा व्यवस्था ही ऐसी हो गई है जिसमें
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भारतीयता का ज्ञान या भारतीयता के प्रति आस्था या गौरव
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का भाव सिखाया ही नहीं जाता । हम भारत के विषय में
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यूरोप और अमेरिका के अभिप्रायों को ही जानते हैं । देश
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उसी ज्ञान और दृष्टि के आधार पर चल रहा है । हमारे विषय
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से सम्बन्धित है ऐसी दो बातों की हम विशेष चर्चा करेंगे ।
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एक है व्यक्तिकेन्द्रित उपभोग परायण जीवनदृष्टि और दूसरी है
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पुनर्जन्म और जन्मजन्मान्तर के विषय में सम्श्रम । पहली
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बात के अनुसार हर व्यक्ति केवल अपने लिये जीना ही
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अपना कार्य समझता है। अपने जीवन का लक्ष्य भी
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एक है व्यक्तिकेन्द्रित उपभोग परायण जीवनदृष्टि और दूसरी है पुनर्जन्म और जन्मजन्मान्तर के विषय में सम्श्रम । पहली बात के अनुसार हर व्यक्ति केवल अपने लिये जीना ही अपना कार्य समझता है। अपने जीवन का लक्ष्य भी कामनाओं की पूर्ति को मानता है । कामनाओं की पूर्ति के लिये उपभोग परायण बनता है । उपभोग के पदार्थों की प्राप्ति के लिये अर्थाजन करते हैं । अर्थाजन हेतु दिन-रात खपते हैं । यह तो उनकी अपनी व्यक्तिगत बात हुई । परन्तु अपनी कामनाओं की पूर्ति कि लिये उन्हें अन्य मनुष्यों तथा सृष्टि के अन्य घटकों पर भी निर्भर रहना पड़ता है । तब वे सब मेरे लिये ही हैं और मैं उन सबका मेरे सुख के लिये किस प्रकार उपयोग कर सकूँ इसी फिराक में वे रहते हैं । उनका पुनर्जन्म पर विश्वास नहीं इसलिये कर्म, कर्मफल, सुख-दुःख, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक आदि पर भी विश्वास नहीं । इस जन्म का ही विचार करना है तो दूसरों का विचार करने की क्या आवश्यकता है ? सत्कर्म आदि करने से क्या लाभ ? उल्टे हानि ही है । दूसरों की चिन्ता मुझे क्यों करनी चाहिये ? सब अपनी-अपनी चिन्ता कर लेंगे । कोई दुःखी है, कोई रोगी है, कोई दरिद्र है, कोई भूखा है तो मुझे उससे क्या लेना देना ? बौद्धिक स्तर पर वे मानते हैं कि उनका कोई दायित्व बनता ही नहीं है ।
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कामनाओं की पूर्ति को मानता है । कामनाओं की पूर्ति के
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भारत का युवक इन दोनों बातों में आत्यन्तिक भूमिका नहीं ले सकता है क्योंकि हजारों पीढ़ियों के संस्कृति के संस्कार उसके अन्तर्मन में होते हैं परन्तु दस पीढ़ियों के विपरीत संस्कारों के नीचे वे दबे पड़े हैं। वर्तमान जीवनशैली, आज की शिक्षा और संस्कार व्यवस्था के अनुसार चलती है और अन्तर्मन की प्रेरणा कुछ और रहती है । इसलिये वह आधा यह आधा वह ऐसा जीता है । एक आन्तरिक संघर्ष प्रच्छन्न रूप से उसके अन्तःकरण में चलता ही रहता है । इसके परिणाम स्वरूप छोटी-मोटी अनेक बातों में वह जानता कुछ अलग है, मानता कुछ अलग है और करता कुछ तीसरा ही है । ज्ञान, अज्ञान और मिथ्याज्ञान की चक्की में वह पिसता रहता है । उसे कोई बताने वाला न मिले तो वह आराम से अभारतीय जीवनशैली अपनाकर ही जीता है । कोई बताने वाला मिले तो वह उसका विरोध करता है क्योंकि जीवनशैली छोड़ना या बदलना उसके लिये यदि असम्भव न भी हो तो भी कठिन होता है । विपरीत ज्ञान के कारण वह तर्क करके विरोध करता है और मानसिक दुर्बलता के कारण अव्यावहारिकता के बहाने बनाता है, परन्तु उसका आन्तह्वन्द्र तो शुरु हो ही जाता है । इन सब कारणों से भारतीय संस्कृति के अनुसार मात-पिता बनना उसके लिये बहुत कठिन है यह बात तो ठीक है, परन्तु कहीं से प्रारम्भ तो करना ही पड़ेगा । आज की तुलना में कम शिक्षित पति-पत्नी के लिये मातापिता बनना इतना कठिन नहीं है जितना सुशिक्षित और उच्चशिक्षित पति-पत्नी के लिये । इस कथन का तात्पर्य तो आप अब समझ ही गये होंगे ।
 
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लिये उपभोग परायण बनता है । उपभोग के पदार्थों की प्राप्ति
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के लिये अर्थाजन करते हैं । अर्थाजन हेतु दिन-रात खपते
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हैं । यह तो उनकी अपनी व्यक्तिगत बात हुई । परन्तु अपनी
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कामनाओं की पूर्ति कि लिये उन्हें अन्य मनुष्यों तथा सृष्टि के
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अन्य घटकों पर भी निर्भर रहना पड़ता है । तब वे सब मेरे
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लिये ही हैं और मैं उन सबका मेरे सुख के लिये किस प्रकार
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उपयोग कर सकूँ इसी फिराक में वे रहते हैं ।
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उनका पुनर्जन्म पर विश्वास नहीं इसलिये कर्म,
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कर्मफल, सुख-दुःख, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक आदि पर भी
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विश्वास नहीं । इस जन्म का ही विचार करना है तो दूसरों का
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विचार करने की क्या आवश्यकता है ? सत्कर्म आदि करने
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पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा
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से क्या लाभ ? उल्टे हानि ही है । दूसरों की चिन्ता मुझे
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क्यों करनी चाहिये ? सब अपनी-अपनी चिन्ता कर लेंगे ।
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कोई दुःखी है, कोई रोगी है, कोई दरिद्र है, कोई भूखा है तो
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मुझे उससे कया लेना देना ? बौद्धिक स्तर पर वे मानते हैं कि
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उनका कोई दायित्व बनता ही नहीं है ।
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भारत का युवक इन दोनों बातों में आत्यन्तिक भूमिका
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नहीं ले सकता है क्योंकि हजारों पीढ़ियों के संस्कृति के
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संस्कार उसके अन्तर्मन में होते हैं परन्तु दस पीढ़ियों के
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विपरीत संस्कारों के नीचे वे दबे पड़े हैं। वर्तमान
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जीवनशैली, आज की शिक्षा और संस्कार व्यवस्था के
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अनुसार चलती है और अन्तर्मन की प्रेरणा कुछ और रहती
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है । इसलिये वह आधा यह आधा वह ऐसा जीता है । एक
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आन्तरिक संघर्ष प्रच्छन्न रूप से उसके अन्तःकरण में चलता
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ही रहता है । इसके परिणाम स्वरूप छोटी-मोटी अनेक बातों
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में वह जानता कुछ अलग है, मानता कुछ अलग है और
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करता कुछ तीसरा ही है । ज्ञान, अज्ञान और मिध्याज्ञान की
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चक्की में वह पिसता रहता है । उसे कोई बताने वाला न
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मिले तो वह आराम से अभारतीय जीवनशैली अपनाकर ही
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जीता है । कोई बताने वाला मिले तो वह उसका विरोध
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करता है क्योंकि जीवनशैली छोड़ना या बदलना उसके लिये
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यदि असम्भव न भी हो तो भी कठिन होता है । विपरीत
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ज्ञान के कारण वह तर्क करके विरोध करता है और मानसिक
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दुर्बलता के कारण अव्यावहारिकता के बहाने बनाता है,
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परन्तु उसका आन्तह्वन्द्र तो शुरु हो ही जाता है । इन सब
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कारणों से भारतीय संस्कृति के अनुसार मात-पिता बनना
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उसके लिये बहुत कठिन है यह बात तो ठीक है, परन्तु कहीं
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से प्रारम्भ तो करना ही पड़ेगा । आज की तुलना में कम
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शिक्षित पति-पत्नी के लिये मातापिता बनना इतना कठिन
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नहीं है जितना सुशिक्षित और उच्चशिक्षित पति-पत्नी के
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लिये । इस कथन का तात्पर्य तो आप अब समझ ही गये
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होंगे ।
      
== माता बालक की प्रथम गुरु ==
 
== माता बालक की प्रथम गुरु ==
संस्कार देने लायक माता-पिता बनें इसके बाद शिशु
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संस्कार देने लायक माता-पिता बनें इसके बाद शिशु संगोपन का विषय आता है जो सीखना होता है । फिर एक बार संगोपन केवल शारीरिक स्तर पर नहीं होता, भावात्मक स्तर अधिक महत्त्वपूर्ण होता है । यह बात सही है कि बालक छोटा होता है तब माता की ही भूमिका अधिक महत्त्वपूर्ण होती है । शास्त्रों ने कहा ही है कि बालक के लिये माता प्रथम गुरु होती है । इस कथन के अनुसार हर माता को गुरु बनना सीखना है । गुरु बनने का महत्त्व बताने वाला एक श्लोक है <ref>मनुस्मृति २.१४५</ref><blockquote>उपाध्यायान् दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता।</blockquote><blockquote>सहस्त्रं तु पितृन्माता गौरवेणातिरिच्यते।।</blockquote>अर्थात्‌  
 
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संगोपन का विषय आता है जो सीखना होता है । फिर एक
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र२५
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बार संगोपन केवल शारीरिक स्तर पर
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नहीं होता, भावात्मक स्तर अधिक महत्त्वपूर्ण होता है । यह
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बात सही है कि बालक छोटा होता है तब माता की ही
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भूमिका अधिक महत्त्वपूर्ण होती है । शास्त्रों ने कहा ही है कि
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बालक के लिये माता प्रथम गुरु होती है । इस कथन के
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अनुसार हर माता को गुरु बनना सीखना है । गुरु बनने का
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महत्त्व बताने वाला एक श्लोक है -
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उपाध्यायान्‌ द्शाचार्य: आचार्याणां शतं पिता ।
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सहसं तु पितुन माता गौरवेणातिरिच्यते ।।
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अर्थात्‌
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एक उपाध्याय से आचार्य द्श गुना अधिक श्रेष्ठ है,
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एक आचार्य से पिता सौ गुना अधिक गौरवमय है और एक
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पिता से माता सहस्रगुना अधिक गौरवमयी है ।
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गौरव शब्द ही गुरु से बना है । सुभाषित कहता है कि
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माता जैसा कोई गुरु नहीं । अतः अपने बालक का गुरु
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बनना हर माता का दायित्व है ।
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गुरु सिखाता है, गुरु ज्ञान देता है, गुरु चरित्रनिर्माण
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करता है, गुरु जीवन गढ़ता है । माता को यह सब करना है ।
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इस बात का ज्ञान नहीं होने के कारण आज की मातायें
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चसित्र-निर्माण, ज्ञान, जीवन गढ़ना आदि बातों से अनभिज्ञ
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होती हैं इसलिये जानती ही नहीं कि क्या करना और क्या
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नहीं करना ।
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माता यदि मातृभाव से परिपूर्ण है तो उसका प्रभाव
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टी.वी, से या बाहर के किसी भी अन्य आकर्षणों से अधिक
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होता है । आजकल हम एक शिकायत हमेशा सुनते हैं कि
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बच्चे टी.वी. और इण्टरनेट के कारण बिगड़ जाते हैं । इसका
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मूल कारण माता और पिता का गुरुत्व कम हो गया है, यह
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है । उनका प्रभाव न संस्कार देने में है, न टी.वी. आदि से
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परावृत करने में । और एक शिकायत भी सुनने को मिलती
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है कि आजकल बच्चे माता-पिता का या बडों का कहना
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नहीं मानते हैं । इसका भी मूल कारण माता-पिता या बड़े
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अपना गुरुत्व और बडप्पन बनाये नहीं रखते हैं, यही है ।
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सारांश यह है कि माता को गुरु बनना सीखना है ।
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एक उपाध्याय से आचार्य द्श गुना अधिक श्रेष्ठ है, एक आचार्य से पिता सौ गुना अधिक गौरवमय है और एक पिता से माता सहस्रगुना अधिक गौरवमयी है ।
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परन्तु सीखना याने क्या करना ?
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गौरव शब्द ही गुरु से बना है । सुभाषित कहता है कि माता जैसा कोई गुरु नहीं । अतः अपने बालक का गुरु बनना हर माता का दायित्व है । गुरु सिखाता है, गुरु ज्ञान देता है, गुरु चरित्रनिर्माण करता है, गुरु जीवन गढ़ता है । माता को यह सब करना है । इस बात का ज्ञान नहीं होने के कारण आज की मातायें चरित्र-निर्माण, ज्ञान, जीवन गढ़ना आदि बातों से अनभिज्ञ होती हैं इसलिये जानती ही नहीं कि क्या करना और क्या नहीं करना । माता यदि मातृभाव से परिपूर्ण है तो उसका प्रभाव टी.वी, से या बाहर के किसी भी अन्य आकर्षणों से अधिक होता है । आजकल हम एक शिकायत हमेशा सुनते हैं कि बच्चे टी.वी. और इण्टरनेट के कारण बिगड़ जाते हैं । इसका मूल कारण माता और पिता का गुरुत्व कम हो गया है, यह है । उनका प्रभाव न संस्कार देने में है, न टी.वी. आदि से परावृत करने में । और एक शिकायत भी सुनने को मिलती है कि आजकल बच्चे माता-पिता का या बडों का कहना नहीं मानते हैं । इसका भी मूल कारण माता-पिता या बड़े अपना गुरुत्व और बडप्पन बनाये नहीं रखते हैं, यही है । सारांश यह है कि माता को गुरु बनना सीखना है । परन्तु सीखना याने क्या करना ?
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# बालक के सामने अन्य सभी बातों को गौण मानना । अपने से भी पहले बालक को मानना। माता ऐसा करती है कि नहीं इसका पता बालक को स्वत: से चल जाता है इसलिये इसमें कोई दिखावा नहीं चलता ।
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# बालक को अपने हाथ से खिलाना चाहिए। एक श्लोक है - दान॑ कुर्यात्‌ स्वहस्तेन परहस्तेन मर्दनम्‌ । औषदधे वैद्यहस्तेन मातृहस्तेन भोजनम्‌ ।। अर्थात्‌ दान अपने हाथ से करना चाहिये, शरीर की मालिश दूसरे के हाथ से करवाना अच्छा है, औषध वैद्य के हाथ से लेने में भलाई है और भोजन माता के हाथ से करना श्रेयस्कर है । माता के हाथ से भोजन का अर्थ है बालक के लिये भोजन बनाना और बालक को भोजन करवाना । स्तनपान से यह कार्य शुरू होता है और पूर्ण भोजन तक पहुँचता है । भोजन का प्रभाव शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, चित्त सभी पर होता है । इसका अर्थ है भोजन के माध्यम से माता का भी बालक के मन, बुद्धि आदि सब पर प्रभाव होता है । बालक के लिये भोजन बनाते समय केवल भोजन के विषय में नहीं अपितु बालक के विषय में भी पता चलता है। बालक की रुचि-अरुचि, स्वभाव, गुण-दोष, स्वास्थ्य, क्षमतायें आदि सभी बातों की जानकरी प्राप्त होती है। बालक जिस प्रकार अन्तःप्रज्ञा से सबकुछ समझता है उसी प्रकार माता भी अन्तर्मन से बालक के विषय में सबकुछ जानती है। इतनी निकटता 'मातृहस्तेन भोजनम्‌' के माध्यम से प्राप्त होती है। 'मातृहस्तेन भोजनम्‌' केवल बालक का ही नहीं, माता का भी अधिकार है । मन से इसको स्वीकार करने के लिये और इसके आवश्यक कला-कौशल सीखने के लिये माता को अपनी करिअर, अपना वेतन, अपना जॉब, अपना शौक, अपना घर का काम आदि सभी बातों से भी बालक का भोजन अधिक महत्त्वपूर्ण है ऐसा लगना चाहिये ।
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# इसी प्रकार शिशु की परिचर्या करना भी सीखना चाहिये । परिचर्या का अर्थ है स्नान, मालिश, शौच, स्वच्छता, कपड़े, बिस्तर आदि के रूप में सेवा । भोजन की ही तरह ये सब भी सम्बन्ध बनाने के माध्यम है ।
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# बालक के लिये माता को और जो बातें सीखनी हैं वे हैं उसके खिलौने, उसके कपडे आदि का चयन । खिलौनों और कपडों का पूरा शास्त्र होता है। माता को इस शास्त्र का ज्ञान होना चाहिये । कम शिक्षित परन्तु श्रद्धावान माता आप्जनों से यह ज्ञान प्राप्त कर सकती है, उच्चशिक्षित माता शाखतग्रन्थों का स्वयं अध्ययन कर अथवा शास्त्र वेत्ताओं से यह ज्ञान प्राप्त कर सकती है। खिलौनों और कपडों का विषय स्वास्थ्य और संस्कार दोनों दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । इस विषय के नितान्त अज्ञान के कारण माता-पिता महँगे कपडे और खिलौने लाने में ही इति कर्तव्यता मानते हैं । प्लास्टिक के खिलौने, सोफ्ट टोयझ, पोलिएस्टर के कपड़े, ढेर सारे कृत्रिम प्रसाधन, स्वास्थ्य और संस्कार दोनों दृष्टि से हानिकारक हैं परन्तु जिनकी खरीदी का आधार केवल विज्ञापन और दुकान का शो केस है अथवा दुकानदार की चाटुकारिता है अथवा धनवानों की खरीदी पर है वे अपनी समझ से कैसे कुछ भी कर सकते हैं। वास्तव में इनमें से कोई हमारा आप्त नहीं है। हमें अपने आप्त कौन हैं इसकी तो पहचान होनी ही चाहिये ।
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# अब माता के साथ पिता भी जुड़ सकते हैं । वैसे घर के अन्य लोग भी जुड़ सकते हैं। विषय है बच्चों के साथ बात करना, खेलना, उन्हें कहानी बताना । जब बात करके देखते हैं, कहानी सुनाकर देखते हैं या खेलकर देखते हैं तभी पता चलता है कि यह कितना कठिन कार्य है। इन बातों को सीखने के लिये सर्व प्रथम आवश्यकता है धैर्य । दूसरी आवश्यकता होती है संयम की । क्रोध न करना, नियम नहीं सिखाना, डॉटना नहीं, चिल्लाना नहीं आदि के लिये बहुत संयम की आवश्यकता होती है । इन्हीं अवसरों पर जीवन का दृष्टिकोण विकसित होता है ।
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==References==
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2.) बालक के सामने अन्य सभी बातों को गौण मानना ।
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[[Category:पर्व 5: कुटुम्ब शिक्षा एवं लोकशिक्षा]]

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